48. पाखंड की कीमत

फ्लोरा, यूएसए

जून 2021 में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। तब यह वाकई काफी अप्रत्याशित था क्योंकि मैं अन्य अगुआओं के मुकाबले काफी युवा थी और चूँकि मेरा जीवन प्रवेश काफी उथला था तो मुझे नहीं पता था कि मैं यह काम सँभाल पाऊँगी या नहीं। लेकिन जब मैंने देखा कि कितने सारे भाई-बहनों ने मुझे वोट दिया है तो मुझे लगा कि हर किसी ने मुझे स्वीकारा है, इसलिए मैंने यह कर्तव्य स्वीकार लिया। मैंने सक्रियता के साथ खुद को सत्य सिद्धांतों से सुसज्जित किया और जब मुझे ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता था जो मुझे समझ नहीं आती थीं तो मैं तुरंत दूसरों से मदद माँगती थी और इस तरह मुझे धीरे-धीरे कलीसिया का काम करने के बारे में बेहतर समझ मिली। एक दिन मेरी साझेदार बहन ने मुझसे कहा, “उच्च अगुआ ने कहा है कि तुम प्रगति-उन्मुख हो और सक्रियता से मुश्किलों पर काबू पाने में सक्षम हो। यह बहुत अच्छा है।” मुझे यह सुनकर वाकई बहुत खुशी हुई मैंने अगुआओं से ऐसी प्रशंसा पाने की उम्मीद नहीं की थी और ऐसा लगा कि मैं उनकी नजर में सत्य का अनुसरण करने वाली और ऊपर की ओर देखने वाली इंसान हूँ और मैंने कड़ी मेहनत करते रहने का संकल्प लिया। लेकिन इसके कुछ समय बाद ही मेरे काम में एक के बाद एक समस्याएँ सामने आने लगीं। मैंने जिन पर्यवेक्षकों को चुना था, वे वास्तविक कार्य नहीं कर रहे थे और मैंने उनके काम की लगातार जाँच या निगरानी नहीं की, जिससे काम को गंभीर नुकसान हुआ। अगुआ ने अपने कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार होने के लिए मेरी काट-छाँट की, मुझे कलीसिया के काम की रक्षा नहीं करने वाली कलमघसीट कहा। मुझे अपनी अनदेखी को लेकर अपराध बोध हुआ और इस बात की चिंता हुई कि अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेगा और क्या उसे लगेगा कि मैंने अपने कर्मियों के चयन में सिद्धांतों का पालन नहीं किया है और मुझे इसलिए बर्खास्त कर देगा क्योंकि मैं अगुआई के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। अगर मुझे सचमुच बर्खास्त कर दिया गया तो भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे कहेंगे कि उन्होंने मुझे अगुआ चुनकर गलती की है? मैं वाकई हताश हो गई। मैंने सोचा कि कैसे अगुआ ने मुझे कलमघसीट कहा जो अपने कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार थी। मैं यह तमगा नहीं चिपकाना चाहती थी, इसलिए मैंने सोचा कि अगर आइंदा से अच्छा प्रदर्शन करूँगी तो अगुआ का मेरे बारे में मूल्यांकन बदल सकता है और भाई-बहनों के मन में मेरे लिए नए स्तर का सम्मान होगा। वे कह सकते हैं कि मैंने काट-छाँट के बाद भी नकारात्मक होकर हार नहीं मानी, बल्कि सामान्य रूप से अपना कर्तव्य करती रही, जिससे पता चलता है कि मैं सत्य का अनुसरण करने वाली इंसान हूँ। इस तरह मेरी प्रगति-उन्मुख और प्रेरित होने की छवि बनी रहेगी। इन बातों को ध्यान में रखते हुए मैंने अपने काम में आने वाली समस्याओं को जल्द से जल्द सुलझाने की कोशिश की।

बाद में उच्च अगुआ अक्सर मेरे काम के बारे में पूछते थे, लेकिन मैं पहले की तरह सीधे तरीके से काम नहीं करती थी। अगर मुझे कोई समस्या या मुश्किल आती तो तुरंत अगुआ से संपर्क करने के बजाय अब मैं डरती थी कि उसे पता चल जाएगा कि मैंने कोई और काम भी ठीक से नहीं किया है। एक बार हमें सामान्य मामलों के काम की निगरानी के लिए किसी को लगाना था। सबसे पहले मेरे मन में बहन ख्लोए का ख्याल आया, जो सामान्य मामले सँभालने में बहुत कुशल थी, जब कुछ होता तो वह कलीसिया के हितों की रक्षा करती थी और बिना थके अपने कर्तव्यों में कष्ट उठाने के लिए तैयार रहती थी। लेकिन फिर मुझे याद आया कि उसे पहले भी पर्यवेक्षक के पद से बर्खास्त किया जा चुका था क्योंकि उसमें घमंडी स्वभाव था और वह दूसरों के साथ मिलकर काम नहीं कर पाती थी। अगर मैंने उसे फिर से तरक्की दी और उसने पहले जैसा ही व्यवहार किया तो क्या अगुआ सोचेगा कि मैं भेद नहीं पहचान पाती और लोगों को वैसे ही देखती हूँ जैसे वे नजर आते हैं। मैं इस बारे में अनिश्चित थी कि क्या ख्लोए फिर से पर्यवेक्षक की भूमिका निभा सकती है, लेकिन मैं अगुआ से मार्गदर्शन लेने से बहुत डरती थी और पर्यवेक्षक चुनने की प्रक्रिया अधूरी रह गई। कलीसिया अगुआ हार्लो का मामला भी था। छह भाई-बहनों ने मिलकर शिकायत की थी कि वह बेहद घमंडी है और लोगों को दबाने और नीचा दिखाने के लिए अपने पद का इस्तेमाल करती है। मैं मामले की जाँच के लिए टीम अगुआओं और पर्यवेक्षकों के पास गई। मुझे पता चला कि हार्लो वाकई काफी घमंडी थी और उसे दूसरों पर भाषण झाड़ना पसंद था, लेकिन कुछ लोगों ने यह भी कहा कि वह ऐसा इसलिए कर रही है क्योंकि भाई-बहन सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे थे। इन अलग-अलग मूल्यांकनों को देखकर मैं चीजें साफ नहीं समझ पाई। मैंने उच्च अगुआ से मार्गदर्शन लेने के बारे में सोचा, लेकिन फिर मैंने सोचा कि कैसे मैंने लोगों का भेद पहचानने में लगातार कई गलतियाँ की थीं, कैसे अगुआ ने मेरे साथ कई सिद्धांतों पर संगति की थी और इसके बावजूद एक स्थिति का सामना होने पर मैं अभी भी लोगों को नहीं समझ पा रही थी और मैंने सोचा कि क्या उसे लगेगा कि मेरी काबिलियत खराब है, चाहे कितनी भी संगति क्यों न की जाए मैं सिद्धांत समझने में असमर्थ हूँ और अगुआ बनने के लायक नहीं हूँ। मैं हिचकिचाते हुए सोचा कि मुझे पहले और अधिक निरीक्षण करना चाहिए और स्थिति को पूरी तरह से समझने के बाद ही उसे बर्खास्त करना चाहिए।

एक दिन अगुआ को सामान्य मामलों के काम की निगरानी करने वाले व्यक्ति के मेरे चुनाव में कुछ समस्याएँ मिलीं और उसने ऐसे मामले सँभालने के सिद्धांतों पर संगति की। उसने कहा, “पहले बर्खास्त होने का मतलब यह नहीं है कि कोई फिर से पर्यवेक्षक नहीं बन सकता, यह उस इंसान के पश्चात्ताप पर निर्भर करता है। इसके अलावा सामान्य मामलों का पर्यवेक्षक चुनना कलीसिया अगुआ चुनने से अलग है। इसमें उनकी सत्य की खोज पर ध्यान नहीं होता बल्कि इस बात पर होता है कि क्या वे सही व्यक्ति हैं जो कलीसिया का काम आगे बढ़ा सकते हैं। इसके अलावा अगर ज्यादातर लोगों को लगता है कि उनमें इसकी प्रतिभा है तो वे अभ्यास कर सकते हैं। अगर तुम्हें यकीन नहीं है तो तुम अन्य भाई-बहनों से उसका सहयोग करने को कह सकती हो।” अपनी संगति के बाद उसने समाधान खोजे बिना इतने लंबे समय तक मुद्दे टालने के लिए मेरी काट-छाँट भी की और कहा कि मैं बहुत स्वार्थी हो रही थी और कलीसिया के काम की रक्षा नहीं कर रही थी। मुझे उम्मीद नहीं थी कि जितना ज्यादा मैं खुद को छिपाने और चीजों पर पर्दा डालने की कोशिश करूँगी, उतनी ही ज्यादा समस्याएँ उजागर होंगी। अनजाने में मैंने लोगों के लहजे और हाव-भाव पर ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया था। जब अगुआ मुझसे बात करता तो मैं उसकी आवाज के लहजे से अंदाजा लगाने की कोशिश करती कि क्या मेरे बारे में उसकी धारणा खराब हो रही है, क्या वह अगुआ के तौर पर मेरी उपयुक्तता का आकलन कर रहा है और क्या वह मुझे जिम्मेदारियाँ देना बंद कर देगा। मुझे हैरानी हुई कि एक महीने बाद अगुआ ने मुझे वीडियो कार्य की निगरानी में लगा दिया। मैंने सोचा, “अगर मैंने इस बार अच्छा काम नहीं किया तो मुझे वाकई बर्खास्त किया जा सकता है। मुझे इस अवसर का फायदा उठाना चाहिए और अच्छा प्रदर्शन करना चाहिए।” हालाँकि मैं वीडियो कार्य से परिचित नहीं थी और समस्याएँ आने पर मुझे पता नहीं लगा कि उन्हें कैसे सुलझाया जाए। जब अगुआ ने काम की स्थिति के बारे में पूछा तो मैं बहुत घबरा गई, डर गई कि कहीं उसे कुछ ऐसा न दिख जाए जो मैंने ठीक से नहीं किया हो। इसलिए काम की रिपोर्टिंग करते समय मैं सिर्फ अच्छी बातें ही बताती थी, बुरी नहीं, प्रगति के क्षेत्रों पर रोशनी डालती, और मैं कहती कि मैं उन क्षेत्रों के समाधान पर कड़ी मेहनत कर रही हूँ, जहाँ प्रगति नहीं हो रही है। उस दौरान मैंने बहुत दबाव महसूस किया। कई बार मैंने अगुआ के सामने यह स्वीकारने के बारे में सोचा कि मैं काम नहीं सँभाल सकती लेकिन मुझे चिंता थी कि अगर मैंने ऐसा किया तो मैं दूसरों की नजरों में हमेशा के लिए प्रगति-उन्मुख होने का अपना एकमात्र मुक्तिदायक गुण गँवा दूँगी। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाती, छह महीने बीत चुके थे और जिस काम में एक महीना लगना चाहिए था, वह आधे साल की देरी से हो रहा था। मेरी हालत बद से बदतर होती गई। परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते समय मुझे कोई रोशनी नहीं मिली और मुझे नींद आती रही और मेरी प्रार्थनाएँ परमेश्वर से दूर होती महसूस हुईं। मुझे लगातार चिंता और बेचैनी का एहसास होता रहा।

एक बार अगुआ ने मुझसे थोड़ा गहराई से पूछताछ की, इन मुद्दों का पता लगाया और मुझे बर्खास्त कर दिया। उसने कहा, “तुम सत्य का अनुसरण नहीं करती और तुम बहुत घमंडी हो। तुम अपना कर्तव्य अकेले ही करना पसंद करती हो, कभी दूसरों से सलाह नहीं लेती या कुछ नहीं खोजती और तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की बहुत परवाह रहती है! तुम्हारे निरंतर व्यवहार के आधार पर तुम अगुआ नहीं बनी रह सकती।” जब मुझे बर्खास्त किया गया, मुझे यह स्पष्ट था कि मुझ पर परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है और मुझे सिर्फ खुद को ही दोष देना चाहिए था। कुछ समय बाद मुझे पता चला कि हार्लो कलीसिया में बेकाबू हो रही है, गुट बना रही है और उन लोगों का दमन और उत्पीड़न कर रही है जो उसका अनुसरण नहीं करते थे। कलीसिया में उथल-पुथल मची हुई थी, लोग अव्यवस्थित हो गए थे और आखिरकार उसे अपनी बुरी मानवता के चलते अलग-थलग कर दिया गया। यह नतीजा देखकर मैं बहुत बेचैन हो गई। उसके मुद्दे साफ देखने और समय पर मार्गदर्शन पाने की मेरी नाकामी ने एक बुरे व्यक्ति को अगुआई के पद पर रहने दिया था, जिसने इतने लंबे समय तक भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाया और कलीसिया का काम गंभीर रूप से बाधित किया। यह आत्म-चिंतन करके कि मैंने अपने कर्तव्य कितने खराब तरीके से किए थे, मुझे बहुत अपराध बोध हुआ और भाई-बहनों का सामना करने में बहुत शर्मिंदगी हुई। मैं खुद से सवाल करती रही : मैं ऐसा कैसे कर सकती हूँ? मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेककर प्रार्थना की, उससे मुझे प्रबोधन और मार्गदर्शन देने के लिए कहा कि मैं सच में अपने सभी कार्यों पर कैसे आत्म-चिंतन करूँ और उन्हें समझूँ।

बाद में जब मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े तो मुझे अपनी अवस्था के बारे में कुछ समझ आने लगी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर तुम लोग अगुआ या कार्यकर्ता हो, तो क्या तुम परमेश्वर के घर द्वारा अपने काम के बारे में पूछताछ किए जाने और उसका निरीक्षण किए जाने से डरते हो? क्या तुम डरते हो कि परमेश्वर का घर तुम लोगों के काम में खामियों और गलतियों का पता लगाएगा और तुम लोगों की काट-छाँट करेगा? क्या तुम डरते हो कि जब ऊपर वाले को तुम लोगों की वास्तविक क्षमता और आध्यात्मिक कद का पता चलेगा, तो वह तुम लोगों को अलग तरह से देखेगा और तुम्हें प्रोन्नति के लायक नहीं समझेगा? अगर तुममें यह डर है, तो यह साबित करता है कि तुम्हारी अभिप्रेरणाएँ कलीसिया के काम के लिए नहीं हैं, तुम प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए काम कर रहे हो, जिससे साबित होता है कि तुममें मसीह-विरोधी का स्वभाव है। अगर तुममें मसीह-विरोधी का स्वभाव है, तो तुम्हारे मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने और मसीह-विरोधियों द्वारा गढ़ी गई तमाम बुराइयाँ करने की संभावना है। अगर, तुम्हारे दिल में, परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हारे काम की निगरानी करने का डर नहीं है, और तुम बिना कुछ छिपाए ऊपर वाले के सवालों और पूछताछ के वास्तविक उत्तर देने में सक्षम हो, और जितना तुम जानते हो उतना कह सकते हो, तो फिर चाहे तुम जो कहते हो वह सही हो या गलत, चाहे तुम जितनी भी भ्रष्टता प्रकट करो—भले ही तुम एक मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट करो—तुम्हें बिल्कुल भी एक मसीह-विरोधी के रूप में परिभाषित नहीं किया जाएगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या तुम मसीह-विरोधी के अपने स्वभाव को जानने में सक्षम हो, और क्या तुम यह समस्या हल करने के लिए सत्य खोजने में सक्षम हो। अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य स्वीकारता है, तो मसीह-विरोधी वाला तुम्हारा स्वभाव ठीक किया जा सकता है। अगर तुम अच्छी तरह से जानते हो कि तुममें एक मसीह-विरोधी स्वभाव है और फिर भी उसे हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, अगर तुम सामने आने वाली समस्याओं को छिपाने या उनके बारे में झूठ बोलने की कोशिश करते हो और जिम्मेदारी से जी चुराते हो, और अगर तुम काट-छाँट किए जाने पर सत्य नहीं स्वीकारते, तो यह एक गंभीर समस्या है, और तुम मसीह-विरोधी से अलग नहीं हो। यह जानते हुए भी कि तुम्हारा स्वभाव मसीह-विरोधी है, तुम उसका सामना करने की हिम्मत क्यों नहीं करते? तुम उसे स्पष्ट देखकर क्यों नहीं कह पाते, ‘अगर ऊपर वाला मेरे काम के बारे में पूछताछ करता है, तो मैं वह सब बताऊँगा जो मैं जानता हूँ, और भले ही मेरे द्वारा किए गए बुरे काम प्रकाश में आ जाएँ, और पता चलने पर ऊपरवाला अब मेरा उपयोग न करे, और मेरा रुतबा खो जाए, मैं फिर भी स्पष्ट रूप से वही कहूँगा जो मुझे कहना है’? परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हारे काम का निरीक्षण और उसके बारे में पूछताछ किए जाने का तुम्हारा डर यह साबित करता है कि तुम सत्य से ज्यादा अपने रुतबे को संजोते हो। क्या यह मसीह-विरोधी वाला स्वभाव नहीं है? रुतबे को सबसे अधिक सँजोना मसीह-विरोधी का स्वभाव है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी अवस्था उजागर कर दी। मैं अपने काम की निगरानी और उसके बारे में अगुआ की पूछताछ से खासकर इसलिए डरती थी क्योंकि मैं प्रतिष्ठा और रुतबे की परवाह से प्रेरित थी। मुझे डर था कि अगुआ मेरे काम में समस्याओं का पता लगा लेगा और मुझे बर्खास्त कर देगा। मुझे अपना पद गँवाने का डर था। इसलिए जब मेरे काम में विचलन और समस्याएँ आईं तो मैंने उन्हें छिपाने की पूरी कोशिश की और जब तक हो सका, मैंने अपना पद बचाए रखने के लिए छल का सहारा लिया और काम में देरी की। अपने पद के प्रति मेरे प्रेम ने इस हद तक मेरा मसीह-विरोधी स्वभाव बेनकाब कर दिया। मुझे लगा कि भाई-बहन और अगुआ मेरे बारे में अच्छी राय रखते हैं, इसलिए मैं अगुआ के रूप में अपना पद बनाए रखने के लिए सभी पहलुओं में अच्छा प्रदर्शन करना चाहती थी। अपने कर्तव्य में मेरी गैर-जिम्मेदारी और लोगों को चुनने में सिद्धांतों की कमी के कारण कई बार मेरी काट-छाँट की गई। उसके बाद मैंने इस बारे में अटकलें लगाना शुरू कर दीं कि क्या अगुआ कह सकता है कि मेरी काबिलियत काफी नहीं है और मुझे बर्खास्त कर सकता है, जिससे मैं अपना पद गँवा सकती हूँ। यही मेरे डर का मूल था। इसलिए मैंने खुद को छिपाना और ढकना शुरू कर दिया। जब अगुआ काम पर नजर रखता और कुछ सवाल पूछता तो मैं जवाब देने से पहले कई बार सोचती, समस्याओं का प्रकाशन कम करने की कोशिश करती। मैंने अपने काम में प्रगति की रिपोर्ट दी, लेकिन समस्याएँ छिपाए रखीं। जब मुझे ऐसे लोगों या मामलों का सामना करना पड़ता था जिनके बारे में मैं स्पष्ट नहीं थी तो मैं मार्गदर्शन नहीं माँगती थी, बल्कि मैं खुद को छिपाती थी और अगुआ को जताती थी कि मैं वास्तविक मुद्दे सँभाल और सुलझा सकती हूँ। और यहाँ तक कि जब कोई काम रुका हुआ था और आगे नहीं बढ़ पा रहा था, तब भी मैंने खुद को छिपाया और मार्गदर्शन नहीं माँगा, यह सब अपना रुतबा बचाने के लिए किया। प्रतिष्ठा और रुतबे की परवाह में अंधी होकर मैंने लगातार गलतियाँ कीं, जिसके कारण बहुत से काम में देरी हुई और सामान्य रूप से प्रगति नहीं हो पाई। मुझे परमेश्वर के वचन याद आए जो कहते हैं : “तुम उसे स्पष्ट देखकर क्यों नहीं कह पाते, ‘अगर ऊपर वाला मेरे काम के बारे में पूछताछ करता है, तो मैं वह सब बताऊँगा जो मैं जानता हूँ, और भले ही मेरे द्वारा किए गए बुरे काम प्रकाश में आ जाएँ, और पता चलने पर ऊपरवाला अब मेरा उपयोग न करे, और मेरा रुतबा खो जाए, मैं फिर भी स्पष्ट रूप से वही कहूँगा जो मुझे कहना है’? परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हारे काम का निरीक्षण और उसके बारे में पूछताछ किए जाने का तुम्हारा डर यह साबित करता है कि तुम सत्य से ज्यादा अपने रुतबे को संजोते हो। क्या यह मसीह-विरोधी वाला स्वभाव नहीं है? रुतबे को सबसे अधिक सँजोना मसीह-विरोधी का स्वभाव है।” परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन होने पर मुझे गहरा अपराध बोध हुआ। परमेश्वर हमें सिखाता है कि काम की रिपोर्ट देते समय हमें ईमानदारी से बोलना चाहिए, चाहे समस्याएँ कितनी भी हों। भले ही इसका मतलब अपना रुतबा गँवाना हो, हमें मुद्दों पर साफ बोलना चाहिए और उन्हें छिपाना नहीं चाहिए और समस्याओं की ईमानदारी से रिपोर्ट देनी चाहिए। हालाँकि मेरी हरकतें बिल्कुल विपरीत थीं। मैंने झूठ बोलना, खुद को छिपाना और धोखा देना पसंद किया, अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने के लिए अपनी ईमानदारी से समझौता किया। परमेश्वर के वचनों ने मुझे पूरी तरह से आश्वस्त किया, मुझे दिखाया कि मैं वाकई सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबे का पीछा करती थी और उसे महत्व देती थी।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “मसीह-विरोधी स्वाभाविक रूप से ही दुष्ट होते हैं; उनके दिल में न तो ईमानदारी होती है, न सत्य के प्रति प्रेम होता है और न ही सकारात्मक चीजों के प्रति प्रेम होता है। वे अक्सर अंधेरे कोनों में रहते हैं—वे ईमानदारी के रवैये से कार्य नहीं करते, न ही उनकी बातें स्पष्ट होती हैं, वे लोगों और परमेश्वर के प्रति दुष्ट और धोखेबाज होते हैं। वे दूसरों को धोखा देना चाहते हैं और परमेश्वर को भी धोखा देना चाहते हैं। वे दूसरों की निगरानी स्वीकार नहीं करते, परमेश्वर की जाँच-पड़ताल का तो सवाल ही नहीं उठता। ... जब ऐसे किसी व्यक्ति को कोई हैसियत प्राप्त होती है, तो वह अन्य लोगों के सामने अपने व्यवहार में और भी अधिक गुप्त बन जाता है। वह अपनी महत्वाकांक्षाओं, अपनी प्रतिष्ठा, अपनी छवि और अपने नाम, अपनी हैसियत और गरिमा आदि की रक्षा करना चाहता है। यही कारण है कि वे इस बारे में खुलकर नहीं बताना चाहते कि वे कैसे काम करते हैं या कोई काम करने के पीछे उनका क्या उद्देश्य होता है। यहाँ तक कि जब वे कोई गलती भी करते हैं, भ्रष्ट स्वभाव भी प्रकट करते हैं या जब उनके कार्यों के पीछे की मंशा और उद्देश्य गलत होते हैं, तब भी वे दूसरों के सामने खुलना नहीं चाहते और दूसरों को इसके बारे में पता नहीं चलने देना चाहते और वे अक्सर भाइयों और बहनों को धोखा देने के लिए मासूमियत और पूर्णता का दिखावा करते हैं। और ऊपरवाले और परमेश्वर के साथ वे केवल अच्छी-अच्छी बातें करते हैं और अक्सर ऊपर वाले के साथ अपने रिश्ते को बनाए रखने के लिए भ्रामक रणनीति और झूठ का उपयोग करते हैं। जब वे ऊपरवाले को अपने काम के बारे में बताते हैं और ऊपरवाले से बात करते हैं, तो वे कभी भी कोई अप्रिय बात नहीं कहते, ताकि कोई भी उनकी कमजोरी का पता न लगा सके। वे कभी भी यह नहीं बताएँगे कि उन्होंने नीचे क्या कुछ किया है, कलीसिया में कौन से मुद्दे उत्पन्न हुए हैं, उनके काम में कौन सी समस्याएँ या खामियाँ पैदा हुई हैं या वे कौन सी चीजें हैं जिन्हें वे समझ नहीं पाते या पहचान नहीं पाते। वे इन चीजों के बारे में ऊपरवाले से कभी नहीं पूछते न ही मार्गदर्शन मांगते हैं, बल्कि वे सिर्फ अपने काम में सक्षमता और अपने काम को पूरी तरह से करने में सक्षम होने की छवि प्रस्तुत करते हैं और इसका दिखावा करते हैं। वे कलीसिया में मौजूद किसी भी समस्या के बारे में ऊपरवाले को नहीं बताते और चाहे कलीसिया में कितनी भी अव्यवस्था क्यों न हो, उनके काम में कितनी भी खामियाँ क्यों न हों या वे नीचे कुछ भी कर रहे हों, वे बार-बार इन सब बातों को छुपाते हैं, वे कोशिश करते हैं कि ऊपर वाले को कभी भी इन बातों की भनक न लगे या कभी पता न चले, यहाँ तक कि जो लोग इन मामलों से जुड़े हैं या जो उनके बारे में सच्चाई जानते हैं, उन्हें दूर-दराज के स्थानों पर स्थानांतरित कर देते हैं ताकि वे छुपा सकें कि असल में क्या हो रहा है। ये किस प्रकार के अभ्यास हैं? यह किस प्रकार का व्यवहार है? क्या इस प्रकार की अभिव्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति में होनी चाहिए जो सत्य का अनुसरण करता हो? स्पष्ट रूप से, ऐसा नहीं है। यह तो एक राक्षस का व्यवहार है। मसीह-विरोधी अपनी हैसियत या छवि पर असर डालने वाली ऐसी किसी भी चीज को छिपाने और ढँकने का पूरा प्रयास करते हैं, ताकि ये बातें दूसरों से और परमेश्वर से छुपी रहें। यह अपने से ऊपर और नीचे के लोगों को धोखा देना है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद ग्यारह)। परमेश्वर मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति का गहन विश्लेषण करता है। जब उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की बात आती है तो गलतियाँ या बुराई करने के बावजूद मसीह-विरोधी खुद को छिपाने, धोखा देने और दूसरों के सामने झूठा दिखावा करने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं। वे अपने वरिष्ठों और नीचे के लोगों को धोखा देते हैं, कभी भी चीजें सुलझाने या सुधारने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते, न ही वे आत्म-चिंतन या पश्चात्ताप करते हैं। मेरी काट-छाँट होने के बाद से मुझे संदेह होने लगा कि अगुआ के मन में मेरे बारे में खराब धारणा है। उसके बाद चाहे मैंने कुछ भी कहा या किया हो या काम की रिपोर्ट ही दी हो, मुझे इसी बात की परवाह रही कि मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा कैसे बनाए रखूँ। जब मैं लोगों की असलियत नहीं जान सकी और नहीं जान पाई कि परिस्थितियों को उचित तरीके से कैसे सँभालूँ तो मैंने मदद नहीं माँगी या अगुआ को इसके बारे में नहीं बताया, बल्कि मुद्दों को नजरअंदाज किया और उन्हें टाल दिया, जिससे काम में देरी हुई। जब वीडियो कार्य में मुश्किलें आईं और मुझे पता नहीं था कि आगे कैसे बढ़ूँ तो भी मैंने मार्गदर्शन नहीं माँगा या अगुआ को समस्याओं या वास्तविक स्थिति के बारे में ईमानदारी से नहीं बताया। मेरे दिमाग में सबसे ज्यादा यही चल रहा था कि एक अगुआ के तौर पर अगर मैं इन समस्याओं को नहीं सुलझा पाई तो मुझे बर्खास्त किया जा सकता है। इसलिए काम चाहे कितना भी महत्वपूर्ण क्यों न हो, मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाती रही, खुद को समस्याएँ सुलझाने में सक्षम दिखाने के लिए कई तरह से धोखेबाजी की, जिससे वीडियो काम में छह महीने तक की देरी हुई। सार यह है कि मैं झूठ बोल रही थी और अपने से ऊपर और नीचे के लोगों को धोखा दे रही थी। मैंने देखा कि मेरा स्वभाव वाकई दुष्ट और धोखेबाज था! मैंने संसार में काम के दौरान अपने पिछले अनुभवों पर आत्म-चिंतन किया। जब भी अगुआ काम का निरीक्षण करने और बकाया इकाइयों का मूल्यांकन करने आते थे, जैसे ही हमें पता चलता था कि किस चीज का निरीक्षण किया जा रहा है, हम निरीक्षण से निपटने के लिए कई तरह की नकली सामग्री जोड़ने को अतिरिक्त समय में काम करते थे और हम खराब प्रदर्शन वाले या रिपोर्ट की गई समस्याओं वाले भागों के सभी निशान मिटा देते थे। इस तरह हम आमतौर पर निरीक्षणों से बच निकलते थे और “उत्कृष्ट इकाई” का खिताब पाते थे। ऐसी बुरी प्रवृत्ति के प्रभाव में आकर लोग ईमानदारी से बोलने या काम करने पर और ध्यान नहीं देते; वे एक-दूसरे को धोखा देते हैं और अपने लक्ष्य पाने के लिए किसी भी साधन का इस्तेमाल करते हैं। मैं परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने से पहले सकारात्मक और नकारात्मक चीजों में भेद नहीं कर पाती थी। मैं संसारिक बुरी प्रवृत्तियों के हिसाब से चलती थी और मानव समान हुए बिना ही जीवन बिताती थी। अब कई वर्षों तक परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने, परमेश्वर के वचन खाने और पीने और मनुष्य होने के कुछ आधार समझने के बाद भी मैंने अभी भी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बनाए रखने के लिए अपने कर्तव्यों में छल और झूठे दिखावे का सहारा लेती थी, सिर्फ अच्छी चीजों की रिपोर्ट देती थी और बुरी चीजें छिपा लेती थी, यह जानबूझकर अपराध करना और परमेश्वर को धोखा देना और उसका विरोध करना है। इस पर आत्म-चिंतन करते हुए मैं बहुत डर गई। पहले जब मैं परमेश्वर द्वारा मसीह-विरोधियों का व्यवहार उजागर करने के बारे में सुनती थी तो मैं हमेशा उन्हें कई बुराइयाँ करने वालों के साथ जोड़कर देखती थी जो स्पष्ट रूप से मसीह-विरोधी थे, मैंने कभी भी गंभीरता से खुद को इन शब्दों से जोड़कर नहीं देखा। अब, परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन और तथ्यों के खुलासे के माध्यम से, मैंने देखा कि मुझमें वाकई मसीह-विरोधी का स्वभाव और व्यवहार था। मैंने अपने दिल में तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं पश्चात्ताप करना और बदलना चाहती थी और अब इस तरह से आचरण नहीं करना चाहती थी।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े, जिससे मुझे अपने मुद्दों की और अधिक समझ मिली और अभ्यास का मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोगों को कलीसिया द्वारा प्रोन्नत किया जाता है और उनका संवर्धन किया जाता है, उन्हें प्रशिक्षित होने का एक अच्छा मौका मिलता है। यह अच्छी बात है। यह कहा जा सकता है कि उन्हें परमेश्वर द्वारा ऊँचा उठाया और अनुगृहीत किया गया है। तो फिर, उन्हें अपना कर्तव्य कैसे करना चाहिए? सबसे पहले जिस सिद्धांत का उन्हें पालन करना चाहिए, वह है सत्य को समझना—जब वे सत्य को न समझते हों, तो उन्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और अगर अपने आप खोजने के बाद भी वे इसे नहीं समझते, तो उन्हें संगति और खोज करने के लिए किसी ऐसे इंसान की तलाश कर सकते हैं, जो सत्य समझता है, इससे समस्या का समाधान अधिक तेजी से और समय पर होगा। अगर तुम केवल परमेश्वर के वचनों को अकेले पढ़ने और उन वचनों पर विचार करने में अधिक समय व्यतीत करने पर ध्यान केंद्रित करते हो, ताकि तुम सत्य की समझ प्राप्त कर समस्या हल कर सको, तो यह बहुत धीमा है; जैसी कि कहावत है, ‘धीमी गति से किए जाने वाले उपाय तात्कालिक जरूरतों को पूरा नहीं कर सकते।’ अगर सत्य की बात आने पर तुम शीघ्र प्रगति करना चाहते हो, तो तुम्हें दूसरों के साथ सामंजस्य में काम करना, अधिक प्रश्न पूछना और अधिक तलाश करना सीखना होगा। तभी तुम्हारा जीवन तेजी से आगे बढ़ेगा, और तुम समस्याएँ तेजी से, बिना किसी देरी के हल कर पाओगे। चूँकि तुम्हें अभी-अभी पदोन्नत किया गया है और तुम अभी भी परिवीक्षा पर हो, और वास्तव में सत्य को नहीं समझते या तुममें सत्य वास्तविकता नहीं है—चूँकि तुम्हारे पास अभी भी इस कद की कमी है—तो यह मत सोचो कि तुम्हारी पदोन्नति का अर्थ है कि तुममें सत्य वास्तविकता है; यह बात नहीं है। तुम्हें पदोन्नति और संवर्धन के लिए केवल इसलिए चुना गया है, क्योंकि तुममें कार्य के प्रति दायित्व की भावना और अगुआ होने की क्षमता है। तुममें यह विवेक होना चाहिए। अगर पदोन्नत किए जाने और अगुआ या कार्यकर्ता बन जाने के बाद तुम अपना रुतबा दिखाना चालू करते हो और मानते हो कि तुम तुम सत्य का अनुसरण करने वाले इंसान हो और तुममें सत्य वास्तविकता है—और अगर, चाहे भाई-बहनों को कोई भी समस्या हो, तुम दिखावा करते हो कि तुम उसे समझते हो, और कि तुम आध्यात्मिक हो—तो यह बेवकूफी करना है, और यह पाखंडी फरीसियों जैसा ही है। तुम्हें सच्चाई के साथ बोलना और कार्य करना चाहिए। जब तुम्हें समझ न आए, तो तुम दूसरों से पूछ सकते हो या ऊपर वाले से संगति प्रदान करने की माँग कर सकते हो—इसमें कुछ भी शर्मनाक नहीं है। अगर तुम नहीं पूछोगे, तो भी ऊपर वाले को तुम्हारे वास्तविक कद का पता चल ही जाएगा, और वह जान ही जाएगा कि तुममें सत्य वास्तविकता नदारद है। खोज और संगति ही वे चीजें हैं, जो तुम्हें करनी चाहिए; यही वह विवेक है जो सामान्य मानवता में पाया जाना चाहिए, और यही वह सिद्धांत है जिसका पालन अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए। यह शर्मिंदा होने की बात नहीं है। अगर तुम्हें यह लगता है कि अगुआ बन जाने के बाद सिद्धांतों को न समझना, या हमेशा दूसरों से या ऊपर वाले से सवाल पूछते रहना शर्मनाक है, और डरे रहना कि दूसरे लोग तुम्हें नीची निगाह से देखेंगे और नतीजतन तुम यह दिखावा करते हुए ढोंग करते हो कि तुम सब कुछ समझते हो, सब कुछ जानते हो, कि तुम काम करने में क्षमता है, कि तुम कलीसिया का कोई भी काम कर सकते हो, और किसी को तुम्हें याद दिलाने या तुम्हारे साथ सहभागिता करने, या किसी को तुम्हें पोषण प्रदान करने या तुम्हारी सहायता करने की आवश्यकता नहीं है, तो यह खतरनाक है, और तुम बहुत अहंकारी और आत्मतुष्ट हो, विवेक की बहुत कमी है। तुम अपना माप तक नहीं जानते—और क्या यह तुम्हें भ्रमित व्यक्ति नहीं बनाता? ऐसे लोग वास्तव में परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत और विकसित किए जाने के मानदंडों को पूरा नहीं करते और देर-सवेर उन्हें बरखास्त कर दिया जाएगा और हटा दिया जाएगा(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। “कुछ लोग यह भी कहते हैं, ‘जब हम कठिनाइयों या समस्याओं का सामना करते हैं, तो हमें पहले कुछ दिनों तक विचार करना चाहिए, और तभी सूचना देनी चाहिए जब हमें वाकई कोई समाधान नहीं मिलता है।’ ऐसा लग सकता है कि ऐसी बात कहने वालों में कुछ सूझ-बूझ है, लेकिन क्या विचार करने में लगे इन दिनों के कारण देरी होने की संभावना नहीं है? क्या तुम निश्चित हो सकते हो कि कुछ दिनों तक विचार करने से मुद्दा सुलझ जाएगा? क्या तुम यह आश्वासन दे सकते हो कि इससे और देरी नहीं होगी? दूसरे लोग कहते हैं, ‘अगर हम किसी मुद्दे की सूचना तुरंत दे देते हैं, तो क्या ऊपरवाला यह नहीं सोचेगा कि हम इस मामूली मुद्दे की असलियत तक नहीं समझ पाए? क्या वह हमें बेवकूफ और अज्ञानी नहीं कहेगा और हमारी काट-छाँट नहीं करेगा?’ उनका यह कहना गलत है—चाहे तुम मुद्दे की सूचना दो या ना दो, तुम्हारी काबिलियत की गुणवत्ता पहले से ही स्पष्ट है; ऊपरवाले को यह सब मालूम है। क्या तुम सोचते हो कि अगर तुमने किसी मुद्दे की सूचना नहीं दी, तो ऊपरवाला तुम्हारा बहुत सम्मान करेगा? अगर तुम मुद्दे की सूचना दे देते हो, और इससे महत्वपूर्ण मामलों में देरी नहीं होती है, तो परमेश्वर का घर तुम्हें जवाबदेह नहीं ठहराएगा। लेकिन, अगर तुम इसकी सूचना नहीं देते हो और इससे देरी हो जाती है, तो तुम्हें सीधे जिम्मेदार ठहराया जाएगा और तुम्हें तुरंत बर्खास्त कर दिया जाएगा, तुम्हारा फिर कभी उपयोग नहीं किया जाएगा। परमेश्वर के चुने हुए लोग भी तुम्हें अज्ञानी, बेवकूफ, कमजोर दिमाग वाले और मानसिक रूप से विक्षिप्त के रूप में देखेंगे, और वे तुमसे नफरत करेंगे और हमेशा के लिए तुम्हें तुच्छ समझेंगे। ... अब तक, तुम सभी को इस तरह की समस्याओं को समझने में समर्थ हो जाना चाहिए, है ना? जब तुम ऐसे मुद्दों का सामना करते हो जिन्हें तुम संभाल नहीं सकते हो, तो तुरंत उनकी सूचना दो और फैसला लेने वाले समूह के साथ उनके समाधानों के लिए संगति करो। अगर फैसला लेने वाला समूह उन्हें संभाल नहीं सकता है, तो तुरंत उनकी सूचना ऊपरवाले को दो; इस या उस चीज के बारे में फिक्र मत करो, समस्या को तुरंत सुलझाने में समर्थ होना ही सबसे ज्यादा जरूरी है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे जगा दिया। परमेश्वर के घर में अगुआ होना सिर्फ अभ्यास करने और विकसित होने की बात है। इसलिए जब किसी का कर्तव्यों में उलझनों और मुश्किलों से सामना होता है तो उसे दूसरों के साथ सहयोग और चर्चा करने और वरिष्ठों से मदद लेने की जरूरत होती है ताकि काम में देरी न हो। अगर कोई व्यक्ति हमेशा खुद को एक ऊँचे स्थान पर रखता है, सोचता है कि अगुआ चुने जाने का मतलब है कि उसमें सत्य सिद्धांतों की समझ और समस्याएँ सुलझाने की क्षमता होनी चाहिए और जब उनका सामना उन मुद्दों से होता है जो उन्हें समझ नहीं आते तो वे खुद को छिपाने की कोशिश करते हैं और खोज करने से इनकार कर देते हैं तो ऐसे व्यक्ति में विवेक की कमी होती है और वह अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की अत्यधिक रक्षा करता है और वह आसानी से कलीसिया के काम में देरी कर सकता है। मैं इसका जीता-जागता उदाहरण थी। मुझे पता था कि सत्य के बारे में मेरी समझ उथली है और मुझमें बहुत कमी है, लेकिन मैंने सोचा कि चूँकि मुझे अगुआ चुना गया है, इसलिए मुझे भाई-बहनों की तुलना में सत्य सिद्धांत बेहतर ढंग से समझने चाहिए और समस्याएँ सुलझाने में उनसे अधिक योग्यताएँ होनी चाहिए और इस तरह भाई-बहनों का दिल जीता जा सकता है और उच्च अगुआ मुझे स्वीकार कर सकते हैं। जब मेरा यह भ्रामक नजरिया था तो मैं खुद को छिपाने के अलावा कुछ नहीं कर पाती थी। जब मेरे कर्तव्यों में ऐसी समस्याएँ आईं जिनका समाधान मैं नहीं जानती थी तो मैं कभी भी बोल नहीं पाई और मदद नहीं माँग सकी, डरती रही कि इससे मैं अक्षम लगूँगी और शर्मिंदा हो जाऊँगी, इसलिए मैं हमेशा खुद से ही समस्याएँ सुलझाने की कोशिश करती थी। मैं प्रतिष्ठा और रुतबे के दलदल में फँस गई, मानो मेरे दिमाग पर धुँध छा गई हो। मैं खुद को छिपाती रही और धोखा देती रही, जिससे कलीसिया के काम में गंभीर रूप से देरी हुई। इस पर आत्म-चिंतन करते हुए मैंने अपने चेहरे पर कुछ जोरदार थप्पड़ मारे और मुझे गहरा पश्चात्ताप और अपराध बोध हुआ। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “तुम अपने कार्य में चाहे किसी भी उलझन या कठिनाइयों का सामना क्यों ना करो, अगर वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनके कर्तव्य करने में प्रभावित कर सकती हैं या कलीसियाई कार्य की सामान्य प्रगति में बाधा डाल सकती हैं, तो इन मुद्दों को तुरंत सुलझाना चाहिए। अगर तुम किसी मुद्दे को अकेले नहीं सुलझा सकते हो तो तुम्हें कुछ ऐसे लोगों की तलाश करनी चाहिए जो सत्य समझते हैं ताकि तुम उनके साथ मिलकर इसे सुलझा सको। अगर इससे भी काम नहीं बनता है तो तुम्हें मुद्दे को आगे ले आना चाहिए और समाधान की तलाश करने के लिए ऊपरवाले को इसकी सूचना देनी चाहिए। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी और दायित्व है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7))। परमेश्वर के वचनों से मैंने एक सिद्धांत समझा। कलीसिया के काम और कर्तव्यों से जुड़े मामलों में, चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, जब तक कोई समस्या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के कर्तव्य प्रभावित करती है या कलीसिया के काम की सामान्य प्रगति में बाधा डालती है, उसे समय रहते सुलझा लेना चाहिए। जिन चीजों को हम नहीं समझते, उनके बारे में हमें जानकार लोगों से सलाह लेनी चाहिए और जितनी जल्दी हो सके समाधान ढूँढ़ना चाहिए। हालाँकि मेरा हमेशा से मानना था कि इन समस्याओं से सामना होने पर मैं उनकी जाँच कर रही थी और सक्रिय रूप से उनका समाधान कर रही थी, लेकिन मैंने कभी नहीं सोचा कि क्या मैं वाकई उनका समाधान कर सकती हूँ, या अगर मैं कर भी सकती हूँ तो इसमें कितना समय लगेगा या क्या इससे काम में देरी होगी। मैंने इन कारकों पर विचार ही नहीं किया और अनजाने में मुद्दों पर ध्यान देने का सबसे अच्छा मौका चूक गई। यह सक्रियता से काम करना नहीं था और मुश्किलों का सीधे सामना करना तो दूर की बात है। यह स्पष्ट रूप से स्वतंत्र होकर और लापरवाही से काम करना था, काम के प्रति जिम्मेदार होना नहीं था और कलीसिया के काम में गंभीर रूप से देरी करना था। मैं वाकई बेतुकी और मूर्ख थी! दरअसल जब अगुआ काम के बारे में पूछते हैं या पूछते हैं कि क्या हमारे सामने कोई समस्या है तो वे उम्मीद करते हैं कि हम वास्तविक समस्याएँ सामने लाएँगे और संगति की तलाश करेंगे। इससे हमें सत्य को समझने, सिद्धांतों को जानने और धीरे-धीरे वास्तविक कार्य को सँभालने में मदद मिलेगी। यह बहुत ही सकारात्मक बात है! जितना अधिक मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही मुझे अपने किए पर पछतावा हुआ। अगर मैंने बस खुद को छिपाने का सार और नतीजे पहचान लिए होते और इसे जल्दी से बदल दिया होता तो मैंने काम को इतना नुकसान नहीं पहुँचाया होता और मैं सत्य पाने के इतने सारे अवसर नहीं गँवाती।

एक बार अगुआ ने मुझे पेंटिंग के काम की निगरानी करने में लगाया और सिद्धांतों और अपेक्षाओं पर कई बार संगति की। उस समय मुझे लगा कि मैं उन चीजों को अच्छी तरह से समझ गई हूँ, लेकिन जब मैंने वाकई काम करना शुरू किया तो मुझे एहसास हुआ कि कुछ विवरण मुझे समझ नहीं आए हैं और मुझे नहीं पता था कि आगे कैसे बढ़ना है। मुझे फिर से चिंता होने लगी। जब अगुआ ने मेरे साथ संगति की थी तो मैंने अपनी समझ की जोरदार पुष्टि की थी, लेकिन अब जब मैं वास्तविक काम कर रही थी तो मुझे पता नहीं था कि मैं क्या कर रही हूँ। मुझे क्या करना था? मैं अगुआ से फिर से पूछना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा कि क्या अगुआ कहेगा, “भले ही मैंने इतने विस्तार से संगति की और कई बार बातें दोहराईं, फिर भी तुम कैसे नहीं समझी? तुम्हारी काबिलियत में वाकई कमी है!” इसलिए एक बार फिर अगुआ से मदद माँगने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। तीन दिन बीत गए और मैं बहुत चिंतित थी, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए घुटने टेक कर बैठी और उसे अपनी अवस्था के बारे में बताया। प्रार्थना करने के बाद मैंने अपनी पिछली असफलताओं के अनुभव के बारे में सोचा और मुझे परमेश्वर के ये शब्द याद आ गए : “तुम अपने कार्य में चाहे किसी भी उलझन या कठिनाइयों का सामना क्यों ना करो, अगर वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनके कर्तव्य करने में प्रभावित कर सकती हैं या कलीसियाई कार्य की सामान्य प्रगति में बाधा डाल सकती हैं, तो इन मुद्दों को तुरंत सुलझाना चाहिए। अगर तुम किसी मुद्दे को अकेले नहीं सुलझा सकते हो तो तुम्हें कुछ ऐसे लोगों की तलाश करनी चाहिए जो सत्य समझते हैं ताकि तुम उनके साथ मिलकर इसे सुलझा सको। अगर इससे भी काम नहीं बनता है तो तुम्हें मुद्दे को आगे ले आना चाहिए और समाधान की तलाश करने के लिए ऊपरवाले को इसकी सूचना देनी चाहिए। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी और दायित्व है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे याद दिलाया कि अगर मैं समझने के लिए तुरंत मदद नहीं माँगूँगी तो जैसे-जैसे दिन बीतते जाएँगे काम समय पर पूरा नहीं होने से प्रगति में देरी होगी। इसका एहसास होने पर मैंने फैसला किया कि मैं ईमानदार रहूँगी और तय किया कि खुद को नहीं बचाऊँगी या छिपाऊँगी, भले ही अगुआ मुझे कैसे भी देखें। फिर मैंने अगुआ से मदद माँगी और उसने फिर से पूरी संगति की और समस्या तुरंत सुलझ गई। मैंने परमेश्वर का धन्यवाद और उसकी स्तुति करने के लिए प्रार्थना की। इस तरह से अभ्यास करना वाकई मधुर और मुक्तिदायक था।

अनुभव पर आत्म-चिंतन करते हुए मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ कि उसने मेरे लिए इतनी सारी परिस्थितियों की व्यवस्था की। भले ही इनसे मेरी बहुत सारी भ्रष्टता बेनकाब हुई, लेकिन ये मेरे लिए खुद को समझने के सबसे अच्छे अवसर थे। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन, प्रबोधन और मार्गदर्शन के जरिए मुझे खुद के बारे में बेहतर समझ मिल गई है, मैंने कुछ सबक सीखे हैं और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से पूरा करने के कुछ तरीके खोजे हैं। मैं अपने दिल की गहराई से परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ।

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