47. लापरवाह होने पर चिंतन

यिहान, चीन

दिसंबर 2021 में मैंने वीडियो निरीक्षण का अभ्यास शुरू किया। शुरुआत में मैंने पूरे मन से अध्ययन और चिंतन किया। जब भी मैं किसी उलझन में फँसती तो मैं अपने साथ काम करने वाली बहन से समाधान माँगती। वह भी अक्सर मेरे साथ उन मुद्दों पर भी चर्चा करती जो उसे वीडियो में मिलते थे। मैं हर बार अपनी कमियों और विचलनों का सारांश बनाती, फिर प्रासंगिक सिद्धांत खोजने और सीखने की कोशिश करती। सिद्धांतों पर समूह चर्चा के दौरान मैं हरेक की संगति ध्यान से सुनती और अपनी कमियाँ पूरी करने के लिए ध्यान से चिंतन करती। कुछ समय तक इसी तरह अभ्यास करने के बाद मैंने अपने विशेषज्ञ कौशल में कुछ प्रगति की और कुछ कार्य सँभालने में सक्षम हो गई। मुझे यह सोचकर संतोष होने लगा कि मैंने कुछ सिद्धांत समझ लिए हैं। उसके बाद मैंने शायद ही कभी अध्ययन करने की पहल की। समूह के अन्य सदस्यों के साथ जब मैं सिद्धांतों पर संगति और मुद्दों पर चर्चा करती थी तो मैं अब पहले की तरह गंभीरता से चिंतन नहीं करती थी, न ही मैं काम में समस्याओं का सारांश बनाने पर ध्यान देती थी। अपना कर्तव्य करने में मेरा दृष्टिकोण निष्क्रिय हो गया।

मुझे याद है कि एक खास अवधि के दौरान कुछ भाई-बहन अपने कर्तव्यों में नए थे और उनके द्वारा प्रस्तुत वीडियो में कई समस्याएँ थीं। इन मुद्दों को सुलझाने के लिए मुझे उनके साथ संगति करने और उन्हें एक-एक करके जवाब देने की जरूरत थी। मेरे दिल में कुछ कुटिल विचार उभरे : “अगर मैं हर वीडियो की ध्यान से जाँच करूँगी और उनके साथ संगति करने और उन्हें जवाब देने के लिए प्रासंगिक सिद्धांतों की तलाश करूँगी तो इसमें बहुत समय और मेहनत लगेगी। मैं इतने सारे वीडियो का काम कब पूरा कर पाऊँगी? शायद मुझे बस उनकी समस्याएँ संक्षेप में बता देनी चाहिए और उन्हें खुद पता लगाने देना चाहिए कि समस्याएँ कैसे सुलझाईं जाएँ। इस तरह मुझे बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ेगी।” इसलिए मैंने वीडियो में सिर्फ समस्याएँ बताईं और उन्हें सुधारने के लिए सामान्य दिशा-निर्देश दे दिए। एक और बार मैंने एक वीडियो का निरीक्षण किया और उसमें कुछ समस्याएँ पाईं। लेकिन मैं उनके बारे में निश्चित नहीं थी, इसलिए मैंने अपनी सहयोगी बहन से चर्चा की। उसने कहा कि उसे कोई समस्या नहीं दिखी, लेकिन मैं अभी भी इसके बारे में असहज थी। थोड़ी देर तक चिंतन करने के बाद भी मैं निश्चित नहीं हो पाई कि इसमें समस्याएँ हैं या नहीं। फिर मैंने लापरवाह होते हुए सोचा, “शायद मुझे इसे ऐसे ही छोड़ देना चाहिए। बहन को सिद्धांतों की मुझसे बेहतर समझ है। उसका भी यही कहना है कि यह ठीक है, इसलिए कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। मुझे इस पर विचार करने में अधिक समय लगाने की जरूरत नहीं है। इसके अलावा यह सिर्फ मेरी भावना है। क्या होगा अगर मेरी बात गलत निकले और काम में देर हो जाए?” उस विचार के साथ मैंने इस पर चिंतन करना और उत्तर ढूँढ़ना बंद कर दिया। फिर मैंने वीडियो वैसे ही जमा कर दिया जैसा वह था। कुछ दिनों बाद हमारे पर्यवेक्षक ने बताया कि वीडियो में कुछ समस्याएँ हैं और इसे सुधारने की जरूरत है। इसके बाद मेरे भाई-बहनों ने भी एक-एक करके बताया कि हमारे सुझाव पढ़कर वे नकारात्मक महसूस करने लगे थे। उन्हें लगा कि उनके द्वारा बनाए गए वीडियो में बहुत सारी समस्याएँ थीं और उन्हें नहीं पता था कि उन्हें कैसे सुलझाया जाए। उजागर हुए इन मुद्दों का सामना होने पर मैं पूरी तरह से असमंजस में पड़ गई। हालाँकि मुझे याद आया कि जिन लोगों, घटनाओं और चीजों का मैं हर दिन सामना करती हूँ, वे परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हैं और उसकी संप्रभुता के अधीन हैं। इन परिस्थितियों से सामना होना अकारण नहीं था। मुझे कुछ सबक सीखने होंगे, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उसका मार्गदर्शन माँगा।

एक भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों के ये अंश पढ़े : “चीजों को इतनी लापरवाही और गैर-जिम्मेदारी से सँभालना एक भ्रष्ट स्वभाव के भीतर की चीज है : इसे लोग नीचता कहते हैं। वे अपने सारे काम ‘लगभग ठीक’ और ‘काफी ठीक’ की हद तक ही करते हैं; यह ‘शायद,’ ‘संभवतः,’ और ‘पाँच में से चार’ का रवैया है; वे चीजों को अनमनेपन से करते हैं, यथासंभव कम से कम और झाँसा देकर काम चलाने से संतुष्ट रहते हैं; उन्हें चीजों को गंभीरता से लेने या सजग होने में कोई मतलब नहीं दिखता, और सत्य-सिद्धांतों की तलाश करने का तो उनके लिए कोई मतलब ही नहीं। क्या यह एक भ्रष्ट स्वभाव के भीतर की चीज नहीं है? क्या यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है? नहीं। इसे अहंकार कहना सही है, और इसे जिद्दी कहना भी पूरी तरह से उपयुक्त है—लेकिन इसका अर्थ पूरी तरह से ग्रहण करना हो तो, एक ही शब्द उपयुक्त होगा और वह है ‘नीच।’ अधिकांश लोगों के भीतर नीचता होती है, बस उसकी मात्रा ही भिन्न होती है। सभी मामलों में, वे बेमन और लापरवाह ढंग से चीजें करना चाहते हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें छल झलकता है। वे जब भी संभव हो दूसरों को धोखा देते हैं, जब भी संभव हो जैसे-तैसे काम निपटाते हैं, जब भी संभव हो समय बचाते हैं। वे मन ही मन सोचते हैं, ‘अगर मैं उजागर होने से बच सकता हूँ, और कोई समस्या पैदा नहीं करता, और मुझसे जवाब तलब नहीं किया जाता, तो मैं इसे जैसे-तैसे निपटा सकता हूँ। मुझे बहुत बढ़िया काम करने की जरूरत नहीं है, इसमें बड़ी तकलीफ है!’ ऐसे लोग महारत हासिल करने के लिए कुछ नहीं सीखते, और वे अपनी पढ़ाई में कड़ी मेहनत नहीं करते या कष्ट नहीं उठाते और कीमत नहीं चुकाते। वे किसी विषय की सिर्फ सतह को खुरचना चाहते हैं और फिर यह मानते हुए कि उन्होंने जानने योग्य सब-कुछ सीख लिया है, खुद को उसमें प्रवीण कह देते हैं, और फिर जैसे-तैसे काम निपटाने के लिए वे उस पर भरोसा करते हैं। क्या दूसरे लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति लोगों का यही रवैया नहीं होता? क्या यह ठीक रवैया है? नहीं। सीधे शब्दों में कहें तो, यह ‘काम चलाना’ है। ऐसी नीचता तमाम भ्रष्ट मनुष्यों में मौजूद है। जिन लोगों की मानवता में नीचता होती है, वे अपने हर चीज में ‘काम चलाने’ का दृष्टिकोण और रवैया अपनाते हैं। क्या ऐसे लोग अपना कर्तव्य ठीक से निभाने में सक्षम होते हैं? नहीं। तो क्या वे चीजों को सिद्धांत के साथ कर पाने में सक्षम होते हैं? इसकी संभावना और भी कम है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो))। “व्यक्ति कुलीन और नीच लोगों के बीच अंतर कैसे बता सकता है? बस कर्तव्यों के प्रति उनका रवैया और उनके क्रियाकलाप देखो, और देखो कि समस्याएँ आने पर वे चीजों को कैसे लेते और कैसे व्यवहार करते हैं। सत्यनिष्ठापूर्ण और गरिमापूर्ण लोग अपने क्रियाकलापों में सजग, कर्तव्यनिष्ठ और मेहनती होते हैं और वे कीमत चुकाने के लिए तैयार रहते हैं। सत्यनिष्ठाहीन और गरिमाहीन लोग अपने कार्यों में अनियमित और लापरवाह होते हैं, हमेशा कोई-न-कोई चाल चलते रहते हैं, हमेशा बस खानापूरी करना चाहते हैं। चाहे वे जिस भी तकनीक का अध्ययन करें, वे उसे कर्मठता से नहीं सीखते, वे उसे सीखने में असमर्थ रहते हैं, और चाहे वे उसका अध्ययन करने में जितना भी समय लगाएँ, वे पूरी तरह से अज्ञानी बने रहते हैं। ये निम्न चरित्र के लोग हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो))। “वे जब भी संभव हो दूसरों को धोखा देते हैं,” “सत्यनिष्ठाहीन और गरिमाहीन,” और “निम्न चरित्र” के होते हैं—उन वाक्यों के हर एक शब्द ने मुझे गहराई से छुआ। मैंने अपना कर्तव्य करते हुए अपने व्यवहार पर आत्म-चिंतन किया। क्या मेरा प्रदर्शन बिल्कुल वैसा ही नहीं था जैसा परमेश्वर ने उजागर किया था? जब मैंने देखा था कि भाई-बहनों द्वारा बनाए गए वीडियो में कई समस्याएँ हैं तो मैंने यह नहीं सोचा था कि इन समस्याओं को सुलझाने में उनकी मदद कैसे की जाए या सत्य समझने और सिद्धांतों में प्रवेश के लिए उनका कैसे मार्गदर्शन किया जाए। इसके बजाय मेरी प्राथमिक सोच यह रही थी कि मैं खुद को मेहनत करने से कैसे बचाऊँ। मैंने सोचा था कि अगर मैं प्रत्येक वीडियो की ध्यान से जाँच करूँगी और विस्तार से जवाब दूँगी तो इससे बहुत परेशानी होगी और इसके लिए बहुत चिंतन करना पड़ेगा। इसलिए मैंने वीडियो में समस्याओं का संक्षेप में उल्लेख कर दिया, लेकिन सिद्धांतों के बारे में उनके साथ संगति नहीं की या व्यावहारिक समाधान नहीं बताए। परिणामस्वरूप भाई-बहन मेरे सुझाव पढ़ने के बाद नकारात्मक हो गए। क्या मैंने ऐसा करके व्यवधान पैदा नहीं किया था? उस दूसरे वीडियो का निरीक्षण करते समय मुझे लगा था कि उसमें कुछ समस्याएँ हैं, लेकिन मैं उन पर गहन चिंतन नहीं करना चाहती थी क्योंकि मैं निश्चित नहीं थी। यहाँ तक कि मैंने खुद के लिए बहाने भी बना लिए थे, सोचा था कि जरूरी नहीं कि चिंतन से कोई नतीजा निकल ही आएगा। सिद्धांतों पर बहन की समझ मुझसे बेहतर थी। उसने भी कहा कि यह ठीक है, इसलिए कोई बड़ी समस्या नहीं होनी चाहिए। मैंने यह निष्कर्ष निकालने से पहले उत्तर खोजने के लिए वाकई प्रयास नहीं किया था कि चिंतन से कोई नतीजा नहीं निकल सकता। क्या मैं बस धूर्त और सुस्त नहीं थी? मैं वाकई बहुत धोखेबाज रही थी! अपने कर्तव्य के प्रति यह रवैया वैसा ही था जैसा परमेश्वर ने उजागर किया था : “अगर मैं उजागर होने से बच सकता हूँ, और कोई समस्या पैदा नहीं करता, और मुझसे जवाब तलब नहीं किया जाता, तो मैं इसे जैसे-तैसे निपटा सकता हूँ। मुझे बहुत बढ़िया काम करने की जरूरत नहीं है, इसमें बड़ी तकलीफ है!(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो))। उन वचनों ने मेरी सटीक व्याख्या कर दी। मैं हर दिन स्वचालित ढंग से गुजार रही थी। मैं शारीरिक कष्ट से बचने और बस काम चलाने से संतुष्ट थी। मैंने कभी अपने भाई-बहनों की मुश्किलों के बारे में नहीं सोचा था या यह नहीं सोचा था कि इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना प्रभावी होगा या नहीं। अगर मैं किसी चीज को जैसे-तैसे कर पाती तो मैं बस जैसे-तैसे करती रहती थी, अपने कर्तव्य के प्रति कोई वफादारी नहीं दिखाती थी। ऐसे रवैये के साथ मैं पूरी तरह से अविश्वसनीय हो गई थी, जैसा कि परमेश्वर वर्णन करता है, “सत्यनिष्ठाहीन और गरिमाहीन” और “निम्न चरित्र के लोग।” यह जरा भी अतिश्योक्ति नहीं थी। मैंने बहुत व्यथित और पश्चात्ताप महसूस किया, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया बहुत ही लापरवाह और पूरी तरह से गैर-जिम्मेदार है। मैं अब और ऐसा घटिया जीवन नहीं जीना चाहती। मैं अपना कर्तव्य ठीक से करने के लिए अपनी देह के खिलाफ विद्रोह करने, मेहनती और ईमानदार होने और कीमत चुकाने के लिए तैयार हूँ।”

प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े और उसकी अपेक्षाओं के बारे में बेहतर समझ हासिल की। परमेश्वर कहता है : “कोई कर्तव्य निभाते समय, व्यक्ति को कर्तव्यनिष्ठ और मेहनती होना, सतर्कता से काम करना और जिम्मेदार होना सीखना चाहिए, और इसे दृढ़ता से स्थिर होकर करना चाहिए, यानी एक कदम दूसरे के आगे रखते हुए करना चाहिए। व्यक्ति को उस कर्तव्य को अच्छे ढंग से निभाने में अपनी पूरी शक्ति लगा देनी चाहिए, जब तक कि वे अपने निर्वहन से संतुष्ट न हो जाएँ। अगर कोई सत्य को नहीं समझता, तो उसे सिद्धांत खोजने चाहिए, और उनके अनुसार और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना चाहिए; उसे स्वेच्छा से अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने में अधिक प्रयास लगाने चाहिए, और उसे कभी भी लापरवाही से नहीं करना चाहिए। सिर्फ इस प्रकार से कार्य करके ही अंतरात्मा की फटकार खाए बिना किसी के दिल को सुकून मिल सकता है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर की अपेक्षा है कि हम अपने कर्तव्यों में दृढ़ता से जमे रहें, हम जो कुछ भी करें उसमें अंतर्विवेकशील और जिम्मेदार रवैया बनाए रखें, सत्य सिद्धांत खोजें और सर्वश्रेष्ठ करें। मुझे एहसास हुआ कि मैं अब और लापरवाह नहीं हो सकती। मुझे परमेश्वर की अपेक्षाओं को अभ्यास में लाने की जरूरत थी, प्रत्येक वीडियो का सावधानीपूर्वक निरीक्षण करने और मुद्दों पर विस्तृत, सिद्धांत-आधारित मार्गदर्शन देने की जरूरत थी। हालाँकि इसके लिए थोड़ा ज्यादा शारीरिक कष्ट सहने और चिंतन करने की जरूरत होती, अगर इससे मेरे कर्तव्य में बेहतर नतीजे मिलेंगे तो ऐसा करना उचित है। इसके बाद अपने भाई-बहनों के मुद्दों का निरीक्षण करना और जवाब देना जारी रखते हुए मैंने सोचा कि बेहतरीन नतीजे पाने के लिए खुद को कैसे व्यक्त किया जाए। यह नजरिया अपनाकर मुझे बहुत थकान महसूस नहीं हुई और मैं सिद्धांतों में और अधिक गहराई से प्रवेश करने में सक्षम थी। हालाँकि मेरे गंभीर भ्रष्ट स्वभाव और शारीरिक आराम की अत्यधिक इच्छा के कारण मुझे अभी भी जटिल समस्याओं से सामना होने पर आसान रास्ता अपनाने और लापरवाह बने रहने का प्रलोभन होता था।

एक बार एक वीडियो का निरीक्षण करते समय मैंने देखा कि कुछ मुद्दों से निपटना चुनौतीपूर्ण है। मैंने सोचा, “अगर मैं सुझाव देती हूँ तो मुझे सफलता पाने के लिए पहले अध्ययन और शोध करना होगा। इससे परेशानी होगी। इसके बारे में सोचने मात्र से मुझे सिर दर्द होने लगता है! अगर मैं इस पर इतना समय लगा दूँ और फिर भी इसे समझ न पाऊँ तो क्या यह मेहनत की बर्बादी नहीं होगी? इसे भूल जाते हैं। मैं अभी दूसरे वीडियो पर ध्यान दूँगी और बाद में जब मेरे पास समय होगा, तब इसे देखूँगी।” कुछ समय बाद हमारे अगुआओं ने हमारे वीडियो कार्य की प्रभावशीलता में गिरावट देखी और पिछले तीन महीनों में भाई-बहनों द्वारा जमा किए गए वीडियो की फिर से जाँच की। उन्होंने पाया कि बहुत से वीडियो पर ध्यान नहीं दिया गया था और हमने उन्हें तुरंत नहीं सँभाला था या भाई-बहनों को सिद्धांतों के अनुसार उन्हें संशोधित करने के लिए मार्गदर्शन नहीं दिया था, जिससे वीडियो कार्य में काफी देरी हुई। यह नतीजे देखकर मैं स्तब्ध रह गई। क्या यह सब अपने कर्तव्य के प्रति उपेक्षापूर्ण और लापरवाह नजरिए के कारण नहीं था? मैं अपने दिल की भावना बयाँ नहीं कर सकी। ऐसा लगा जैसे मेरे सीने पर भारी बोझ है, जिससे मेरी साँस फूल रही है। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए। यह मनुष्य का सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीके से विश्वासघात कर रहे हो। इसमें, तुम यहूदा से भी अधिक शोचनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। परमेश्वर के ये वचन पढ़कर मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का एहसास हुआ। अगर मैं अपना कर्तव्य लापरवाही से निभाती—हमेशा बेपरवाह रहती और धूर्त और सुस्त बनी रहती—तो यह परमेश्वर के साथ गंभीर विश्वासघात का संकेत होता और मैं परमेश्वर की उपस्थिति में रहने लायक न रहती और शाप और दंड की हकदार बन जाती। मैं भयभीत थी, मुझे लग रहा था कि मैं खतरनाक स्थिति में हूँ। कलीसिया द्वारा वीडियो का निरीक्षण करने की व्यवस्था के बारे में सोचते हुए मुझे उम्मीद थी कि मैं अपना पूरा दिल और ताकत काम में लगाऊँगी और इसे अच्छी तरह से करूँगी। लेकिन मैं अपने कर्तव्यों में धूर्त रही थी और सुस्ताने के तरीके खोज रही थी। जब मुझे ऐसे मुद्दों का सामना करना पड़ा जो मुझे समझ में नहीं आए या जिनका भेद नहीं जान पाई तो मैंने उन पर पूरी लगन से विचार नहीं किया। इसके बजाय जब ऐसे मुद्दों का सामना करना पड़ा जिनके लिए काफी प्रयास और सोच-विचार की जरूरत थी तो मैंने खुद को परेशानी से बचाने और वीडियो अलग रखने का विकल्प चुना, तत्परता से शोध और अध्ययन करने में नाकाम रही या टीम के अन्य सदस्यों का मार्गदर्शन करने के लिए प्रासंगिक सिद्धांतों की तलाश नहीं की। मैंने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की थीं। मैंने जो किया था, उसने वीडियो कार्य में पूरी तरह से बाधा डाली। मैंने पहली बार अपना कर्तव्य सँभालने के वक्त के बारे में सोचा, तब मैंने परमेश्वर के सामने संकल्प लिया था कि मैं इस कर्तव्य को करने के अवसर को सँजोऊँगी और परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए वफादार रहूँगी। लेकिन अब अगर मैं बस ऐसे ही काम चला पाई, तो मैंने बिना जिम्मेदारी की भावना के ऐसा किया। क्या यह परमेश्वर के प्रति सरासर धोखा नहीं था? मैंने वाकई परमेश्वर को निराश किया था और मैं भरोसेमंद नहीं थी! इसके बारे में सोचते हुए मुझे पछतावा और अपराध बोध हुआ और परमेश्वर के प्रति और भी अधिक ऋणी हो गई। मैंने रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरी हरकतों ने सिर्फ कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा की है। मैं पश्चात्ताप करने और अपने कर्तव्य के प्रति अपना रवैया सुधारने के लिए तैयार हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो।”

बाद में मैं विचार करने लगी। पहले तो मैं अपना कर्तव्य अच्छे से करना चाहती थी, लेकिन यह सब कैसे हो गया? उत्तर खोजते समय मुझे परमेश्वर के वचनों के ये अंश मिले : “आलसी लोग कुछ भी नहीं कर सकते हैं। इसे संक्षेप में प्रस्तुत करें, तो वे बेकार लोग हैं; उनमें एक द्वितीय-श्रेणी की अक्षमता है। आलसी लोगों की क्षमता कितनी भी अच्छी क्यों न हो, वह नुमाइश से ज्यादा कुछ नहीं होती; भले ही उनमें अच्छी काबिलियत हो, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं है। वे बहुत ही आलसी होते हैं—उन्हें पता होता है कि उन्हें क्या करना चाहिए, लेकिन वे वैसा नहीं करते हैं, और भले ही उन्हें पता हो कि कोई चीज एक समस्या है, फिर भी वे इसे हल करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते हैं, और वैसे तो वे जानते हैं कि कार्य को प्रभावी बनाने के लिए उन्हें क्या कष्ट सहने चाहिए, लेकिन वे इन उपयोगी कष्टों को सहने के इच्छुक नहीं होते हैं—इसलिए वे कोई सत्य प्राप्त नहीं कर पाते हैं, और वे कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकते हैं। वे उन कष्टों को सहना नहीं चाहते हैं जो लोगों को सहने चाहिए; उन्हें सिर्फ सुख-सुविधाओं में लिप्त रहना, खुशी और फुर्सत के समय का आनंद लेना और एक मुक्त और शांतिपूर्ण जीवन का आनंद लेना आता है। क्या वे निकम्मे नहीं हैं? जो लोग कष्ट सहन नहीं कर सकते हैं, वे जीने के लायक नहीं हैं। जो लोग हमेशा परजीवी की तरह जीवन जीना चाहते हैं, उनमें जमीर या विवेक नहीं होता है; वे पशु हैं, और ऐसे लोग श्रम करने के लिए भी अयोग्य हैं। क्योंकि वे कष्ट सहन नहीं कर पाते हैं, इसलिए श्रम करते समय भी वे इसे अच्छी तरह से करने में समर्थ नहीं होते हैं, और अगर वे सत्य प्राप्त करना चाहें, तो इसकी उम्मीद तो और भी कम है। जो व्यक्ति कष्ट नहीं सह सकता है और सत्य से प्रेम नहीं करता है, वह निकम्मा व्यक्ति है; वह श्रम करने के लिए भी अयोग्य है। वह एक पशु है, जिसमें रत्ती भर भी मानवता नहीं है। ऐसे लोगों को हटा देना चाहिए; सिर्फ यही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। “क्या तुम शैतान के प्रभाव में जी कर, और शांति, आनंद और थोड़े-बहुत दैहिक सुख के साथ जीवन बिताकर संतुष्ट हो? क्या तुम सभी लोगों में सबसे अधिक निम्न नहीं हो? उनसे ज्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा तो है लेकिन उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह से देह-सुख में लिप्त होकर शैतान का आनंद लेते हैं। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्‍हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्‍मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? तुम लोगों के बीच कितने सारे वचन कहे गए हैं? क्या तुम लोगों के बीच केवल थोड़ा-सा ही कार्य किया गया है? मैंने तुम लोगों के बीच कितनी आपूर्ति की है? तो फिर तुमने इसे प्राप्त क्यों नहीं किया? तुम्हें किस बात की शिकायत है? क्या यह बात नहीं है कि तुमने इसलिए कुछ भी प्राप्त नहीं किया है क्योंकि तुम देह से बहुत अधिक प्रेम करते हो? क्योंकि तुम्‍हारे विचार बहुत ज्यादा निरर्थक हैं? क्योंकि तुम बहुत ज्यादा मूर्ख हो? यदि तुम इन आशीषों को प्राप्त करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम परमेश्वर को दोष दोगे कि उसने तुम्‍हें नहीं बचाया? ... मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्‍हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्‍हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्‍हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है : तुम्‍हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्‍हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्‍हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। अतीत में मैंने कभी भी खुद को “कचरा” या “परजीवी” जैसे शब्दों से नहीं जोड़ा, यह कल्पना करना तो दूर की बात है कि परमेश्वर की नजर में मेरा व्यवहार चलती-फिरती लाश जैसा हो सकता है, जो मुझे सूअरों और कुत्तों से अलग नहीं करता। यह एहसास दिल दहला देने वाला और दुखद था। लेकिन परमेश्वर के वचनों ने ठीक मेरा ही व्यवहार उजागर किया था। मैं भौतिक सुख-सुविधाओं का मजा लेने को ही अपना लक्ष्य मानती रही, हमेशा आसान और आरामदेह जीवन जीने की कोशिश करती रही। जब मेरे कर्तव्य में ऐसी मुश्किलें आईं, जिनके लिए मुझे मेहनत करने और कीमत चुकाने की जरूरत थी तो मैंने चालाकी और आलस का सहारा लिया। मैं या तो किसी तरह काम चला लेती या वीडियो को अनदेखा कर देती और उन्हें ऐसे ही छोड़ देती, मेहनत से बचने के लिए कुछ भी करती। मैं अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में नाकाम रही, जिससे काम में देरी हुई। क्या मैं बिल्कुल कचरा और परजीवी नहीं थी, जो दूसरों पर निर्भर होकर जी रही थी? मैं इस अवस्था में इसलिए आ गई थी क्योंकि मैं इस तरह के शैतानी जहरों से प्रभावित और जहरीली हो चुकी थी जैसे “जिंदगी छोटी है; जब तक उठा सकते हैं आनन्द उठाओ,” “आज मौज करो,” और “जब तक तुम जीवित हो, मस्त रहो।” इन जहरीली विचारधाराओं ने मुझे अपने शारीरिक आराम को हर चीज से ऊपर प्राथमिकता देने के लिए बढ़ावा दिया, सिर्फ यह सुनिश्चित किया कि मुझे थकान या तनाव न हो। जहाँ तक इस बात का सवाल है कि मैंने अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे किए या नहीं, या मेरे कर्तव्य निर्वहन को परमेश्वर ने स्वीकारा या नहीं, मुझे इसकी बिल्कुल भी परवाह नहीं थी। इन जहरों के साथ जीने से मैं और अधिक स्वार्थी और पतित होती गई, सकारात्मक चीजों के अनुसरण के किसी भी संकल्प से दूर चली गई। हालाँकि इस नजरिए ने मेरे लिए जीवन आसान बनाया, लेकिन इससे कोई विकास या लाभ नहीं हुआ। इसके बजाय इसने काम में बाधा डाली, जिसके परिणामस्वरूप अपराध हुआ। शारीरिक आराम में लिप्त होना खुद को बर्बाद करने के बराबर है!

बाद में मुझे टीम अगुआ चुना गया। उस समय दो बहनों ने अभी-अभी वीडियो बनाने का अभ्यास शुरू किया था। अपने दम पर वीडियो बनाने के अलावा मुझे उनके काम में मार्गदर्शन करना था और समूह के पूरा काम का प्रबंधन करना था। कभी-कभी वीडियो में जटिल समस्याएँ देखकर मैं फिर से आसान रास्ता अपनाने के बारे में सोचती थी। मैं सोचने लगती, “अगर मैं हर समस्या के लिए सिद्धांत खोजूँ और विचार करूँ तो इसमें बहुत सोचना पड़ेगा। मैं कब इतने सारे लंबित काम पूरे कर पाऊँगी? बस इसके बारे में सोचने से ही मैं थक जाती हूँ। यह बहुत बड़ी परेशानी है! शायद मुझे इतनी बारीकी से काम नहीं करना चाहिए। जब तक यह स्वीकार्य लगता है, इतना काफी होना चाहिए।” मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर शारीरिक आराम खोज रही थी। अपने कर्तव्य के प्रति नूह का रवैया याद करते हुए मैंने परमेश्वर के संबंधित वचन देखे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब से परमेश्वर ने नूह को जहाज निर्माण का काम सौंपा था, तब से नूह ने अपने मन में कभी यह नहीं सोचा, ‘परमेश्वर कब दुनिया का नाश करने वाला है? वह मुझे ऐसा करने का संकेत कब देगा?’ ऐसे मामलों पर विचार करने के बजाय नूह ने परमेश्वर की कही हर बात को गंभीरतापूर्वक अपने दिल में बसाया, और फिर उसे पूरा भी किया। परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम को स्वीकार करने के बाद नूह जरा भी लापरवाही न बरतते हुए परमेश्वर द्वारा कहे गए जहाज के निर्माण के कार्यान्वयन को अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम मानते हुए इसमें जुट गया। दिन बीतते गए, साल बीतते गए, दिन पर दिन, साल-दर-साल। परमेश्वर ने कभी नूह की निगरानी नहीं की, उसे प्रेरित भी नहीं किया, परंतु इस पूरे समय में नूह परमेश्वर द्वारा सौंपे गए महत्वपूर्ण कार्य में दृढ़ता से लगा रहा। परमेश्वर का हर शब्द और वाक्यांश नूह के हृदय पर पत्थर की पटिया पर उकेरे गए शब्दों की तरह अंकित हो गया था। बाहरी दुनिया में हो रहे परिवर्तनों से बेखबर, अपने आसपास के लोगों के उपहास से बेफिक्र, उस काम में आने वाली कठिनाई या पेश आने वाली मुश्किलों से बेपरवाह, वह परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम में दृढ़ता से जुटा रहा, वह न कभी निराश हुआ और न ही उसने कभी काम छोड़ देने की सोची। परमेश्वर के वचन नूह के हृदय पर अंकित थे, और वे उसके हर दिन की वास्तविकता बन चुके थे। ... नूह के हृदय में परमेश्वर के वचन ही उच्चतम निर्देश थे जिनका उसे पालन और क्रियान्वयन करना था और वे ही उसकी जीवन भर की दिशा और लक्ष्य थे। इसलिए, परमेश्वर ने उससे चाहे जो कुछ भी बोला, उसे जो कुछ भी करने को कहा, उसे जो कुछ भी करने की आज्ञा दी हो, नूह ने उसे पूरी तरह से स्वीकार कर दिल में बसा लिया; उसने उसे अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीज माना और उसे उसी के अनुसार सँभाला। वह न केवल उसे भूला नहीं, उसने न केवल उसे अपने दिल में बसाए रखा, बल्कि उसे अपने दैनिक जीवन में महसूस भी किया, और अपने जीवन का इस्तेमाल परमेश्वर के आदेश को स्वीकार कर उसे क्रियान्वित करने के लिए किया। और इस प्रकार, तख्त-दर-तख्त, जहाज बनता चला गया। नूह का हर कदम, उसका हर दिन परमेश्वर के वचनों और उसकी आज्ञाओं के प्रति समर्पित था। भले ही ऐसा न लगा हो कि नूह कोई बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, नूह ने जो कुछ भी किया, यहाँ तक कि कुछ हासिल करने के लिए उसके द्वारा उठाया गया हर कदम, उसके हाथ द्वारा किया गया हर श्रम—वे सभी कीमती, याद रखने योग्य और इस मानवजाति द्वारा अनुकरणीय थे(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण दो : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग एक))। अपने कर्तव्य के प्रति नूह के रवैये ने मुझे शर्मिंदा कर दिया। चाहे जहाज बनाना कितना भी मुश्किल क्यों न रहा हो या इसके लिए कितने भी बलिदान देने पड़े हों, नूह के मन में सिर्फ एक ही लक्ष्य था : परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए उसका आदेश पूरा करना। इस लक्ष्य को पाने के लिए नूह ने वाकई मुश्किलें झेलीं और कीमत चुकाई, सारी आवश्यक सामग्री जुटाई और हथौड़े और छेनी से जहाज का एक-एक हिस्सा बनाया, वह 120 वर्षों तक लगा रहा। नूह के अनुभव से मुझे बहुत प्रेरणा मिली। मैं अब और आराम नहीं खोज सकती थी और अपने कर्तव्य में लापरवाह नहीं हो सकती थी। मुझे प्रार्थना करने और परमेश्वर पर भरोसा करने और अपने कर्तव्य के प्रति नूह के रवैये का अनुकरण करने की जरूरत थी। मेरे कर्तव्य निर्वहन में चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ या कीमत क्यों न चुकानी पड़े, मुझे इसे करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना था। इसके बाद मैंने प्रार्थना में परमेश्वर के सामने अपनी अवस्था रखी। कभी-कभी जब मुझे कुछ वीडियो में कई मुद्दे मिलते तो मैं पहले सिद्धांत लागू करके उन पर ध्यान से विचार करती और अपने साथी के साथ चर्चा करती और फिर अपने भाई-बहनों के साथ संवाद करती। कुछ वीडियो में जटिल समस्याओं का सामना होने पर उन्हें नजरअंदाज करने के बजाय मैं सीखने और सफलता पाने के लिए जानकारी खोजती, भाई-बहनों के साथ अभ्यास के मार्गों के बारे में संगति करने की पूरी कोशिश करती। सारा कार्य प्रबंधित करने में मैंने सभी पहलू समायोजित करने की भी पूरी कोशिश की, कार्य में आना वाला कोई भी विचलन या समस्या दूर करने के लिए अपने साथी से संवाद किया। इस तरह से कार्य करने के कुछ समय के बाद मैंने और बहन ने कुछ प्रगति की। पहले मुझे कुछ सिद्धांतों की सिर्फ सतही समझ थी। लेकिन अपने भाई-बहनों के साथ संगति के माध्यम से मुझे इन समस्याओं के बारे में गहरी अंतर्दृष्टि मिली, जिससे मुझे अपना विशेषज्ञ कौशल बेहतर बनाने में मदद मिली। मुझे अपने कर्तव्य में पहले की तुलना में जिम्मेदारी का भी ज्यादा एहसास हुआ। केवल तभी मुझे एहसास हुआ कि हमारे कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया के माध्यम से परमेश्वर सत्य सिद्धांतों को थोड़ा-थोड़ा करके समझने के लिए हमें प्रबुद्ध करता है और हमारा मार्गदर्शन करता है, हमें अभ्यास के लिए जिम्मेदारी और अवसर देता है। भले ही हमारी देह को कुछ कष्ट सहने पड़ें, लेकिन आखिरकार इससे हमें ही फायदा होता है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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