46. मुसीबत के बीच सुसमाचार प्रचार का सतत प्रयास करना
जून 2022 में अगुआ ने कहा कि सीसीपी ने हाल ही में एक कलीसिया पर छापा मारा है और अब वहाँ सुसमाचार कार्य असरदार नहीं है, इसलिए अगुआ चाहता था कि मैं सुपरवाइजर बनकर वहाँ चली जाऊँ। अगुआ ने यह भी बताया कि पाँच-छह सुसमाचार कर्मी गिरफ्तार कर लिए गए हैं, ऐसे में नए कार्मिकों को तुरंत विकसित करने की जरूरत है। मैं थोड़ा-सा घबरा गई और सोचने लगी, “सीसीपी पहले से मेरे पीछे पड़ी है और मैं दो बार लगभग पकड़ी जा चुकी हूँ। अगर मैं वहाँ जाती हूँ और खुलेआम दौड़-धूप करती हूँ, तो कहीं पुलिस की निगरानी में आकर मैं गिरफ्तार न हो जाऊँ? अगर मैं गिरफ्तार कर ली गई, मुझे यातनाएँ देकर पीट-पीटकर मार दिया गया या मैं पुलिस का दबाव और प्रलोभन न सह पाई और परमेश्वर को धोखा दे बैठी तो फिर परमेश्वर में मेरी आस्था का सफर पूरी तरह समाप्त हो जाएगा।” यह सोचकर मैं सहमति नहीं देना चाहती थी लेकिन मुझे अपराध-बोध सा हुआ और मैं सोचने लगी, “मैं कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करती आ रही हूँ लेकिन आखिरकार अब भी हमेशा अपने ही हितों के बारे में सोचती हूँ। मैं वाकई विद्रोही हूँ! मैं अपने ही हितों की रक्षा नहीं करती रह सकती हूँ।” यह सोचकर मैंने समर्पण किया और यह कर्तव्य स्वीकार लिया।
कलीसिया में पहुँचने के बाद मैंने देखा कि सुसमाचार कार्य अप्रभावी था क्योंकि सारे सुसमाचार कर्मी कायरता की स्थिति में जी रहे थे। मैंने भाई-बहनों के साथ संगति करने के लिए तुरंत परमेश्वर के कुछ वचन ढूँढ़े, उन्हें सत्य समझने में मदद की, जैसे कि परमेश्वर का अधिकार, कि मानव का जीवन-मरण परमेश्वर के हाथ में है और यह भी कि सुसमाचार फैलाना हमारा मिशन है। यह सुनकर सबकी आस्था बढ़ गई, उन्होंने अपनी स्वार्थपरता और नीचता को पहचाना, उन्हें आत्मग्लानि हुई और वे चीजों में पूर्ण बदलाव करने और सुसमाचार कार्य उचित ढंग से करने को तैयार हो गए। मैं परमेश्वर की बड़ी आभारी थी। कुछ समय बाद सुसमाचार कार्य में सुधार हो गया। लेकिन पाँच महीने बाद अचानक कुछ और भाई-बहनों का पीछा कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जिस बहन ने हमारी सभा की मेजबानी की, उसके साथ भी पुलिस ने पूछताछ की। इसके बाद अगुआ ने एक पत्र भेजा, इसमें लिखा था कि मैं हाल-फिलहाल जिन सहकर्मियों के संपर्क में थी, वे सभी गिरफ्तार कर लिए गए हैं और अब मैं भी खतरे में हूँ और मुझे फौरन यहाँ से चले जाना चाहिए। पत्र पढ़कर मैं थोड़ी-सी घबरा गई और मैंने सोचा, “हाल ही में मैं इन सहकर्मियों के लगभग नियमित संपर्क में रहकर सुसमाचार फैला रही थी। अब जबकि ये सारे गिरफ्तार किए जा चुके हैं और अगर पुलिस ने उनका निगरानी रिकॉर्ड जाँचा तो वह निश्चित तौर पर मुझे ढूँढ़ लेगी। मुझे छिपना होगा! मैं खुद को पुलिस के हत्थे नहीं चढ़ने दे सकती!” मुझे ख्याल आया कि पुलिस हर साल मेरे घर जाकर मेरे पते-ठिकाने के बारे में पूछताछ करती है और अगर इस बार वाकई मुझे पकड़ लिया गया तो वह मुझे छोड़ेगी नहीं। अगर मैं यातना और दबाव न सह पाई और परमेश्वर को धोखा दे बैठी तो अंत में मेरे शरीर को ही दंड नहीं मिलेगा, बल्कि मेरी आत्मा भी नरक में जाएगी। इसलिए मैंने तय किया कि पहले खुद को छिपाना और बचाना सबसे महत्वपूर्ण है। मैंने तुरंत निगरानी का सारा कार्य अगुआ को सौंप दिया और यह जानते हुए भी कि संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं को मेरे उपदेशों और नए सदस्यों को मुझसे सिंचन की जरूरत है, मैंने ये चीजें अपने मन से हटा दीं।
बाद में मैंने सुना कि कई भाई-बहन सुसमाचार प्रचार कर रहे हैं और अपने कर्तव्य निभा रहे हैं और मैंने अपनी ओर देखा जो गिरफ्तारी के डर से सुसमाचार फैलाने या परमेश्वर की गवाही देने की हिम्मत नहीं कर रही थी। मैंने खुद से सवाल किया कि क्या मैं महाविपत्ति में प्रकट खरपतवारों में से एक नहीं हूँ? मैंने इस बारे में जितना ज्यादा सोचा, उतनी ही ज्यादा परेशान होती गई। मैं खाना खा या सो नहीं पाई और सोचने लगी, “मैं परमेश्वर में विश्वास क्यों करती हूँ? मैं पुलिस की गिरफ्तारी से बचने के लिए इस समय दयनीय जीवन जी रही हूँ और अब जबकि सुसमाचार फैलाने की जरूरत है, मैं रफ्तार नहीं बढ़ा रही हूँ और मेरे पास कोई गवाही नहीं है। मैं वाकई अपने कर्तव्य की अनदेखी कर रही हूँ!” मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “अब मैं तुम्हारी निष्ठा और समर्पण, तुम्हारा प्रेम और गवाही चाहता हूँ। यहाँ तक कि अगर तुम इस समय नहीं जानते कि गवाही क्या होती है या प्रेम क्या होता है, तो तुम्हें अपना सब-कुछ मेरे पास ले आना चाहिए और जो एकमात्र खजाना तुम्हारे पास है : तुम्हारी निष्ठा और समर्पण, उसे मुझे सौंप देना चाहिए। तुम्हें जानना चाहिए कि मेरे द्वारा शैतान को हराए जाने की गवाही मनुष्य की निष्ठा और समर्पण में निहित है, साथ ही मनुष्य के ऊपर मेरी संपूर्ण विजय की गवाही भी। मुझ पर तुम्हारे विश्वास का कर्तव्य है मेरी गवाही देना, मेरे प्रति वफादार होना, और किसी और के प्रति नहीं, और अंत तक समर्पित बने रहना। इससे पहले कि मैं अपने कार्य का अगला चरण आरंभ करूँ, तुम मेरी गवाही कैसे दोगे? तुम मेरे प्रति वफादार और समर्पित कैसे बने रहोगे? तुम अपने कार्य के प्रति अपनी सारी निष्ठा समर्पित करते हो या उसे ऐसे ही छोड़ देते हो? इसके बजाय तुम मेरे प्रत्येक आयोजन (चाहे वह मृत्यु हो या विनाश) के प्रति समर्पित हो जाओगे या मेरी ताड़ना से बचने के लिए बीच रास्ते से ही भाग जाओगे? मैं तुम्हारी ताड़ना करता हूँ ताकि तुम मेरी गवाही दो, और मेरे प्रति निष्ठावान और समर्पित बनो। इतना ही नहीं, ताड़ना वर्तमान में मेरे कार्य के अगले चरण को प्रकट करने के लिए और उस कार्य को निर्बाध आगे बढ़ने देने के लिए है। अतः मैं तुम्हें समझाता हूँ कि तुम बुद्धिमान हो जाओ और अपने जीवन या अस्तित्व के महत्व को बेकार रेत की तरह मत समझो। क्या तुम सही-सही जान सकते हो कि मेरा आने वाला काम क्या होगा? क्या तुम जानते हो कि आने वाले दिनों में मैं किस तरह काम करूँगा और मेरा कार्य किस तरह प्रकट होगा? तुम्हें मेरे कार्य के अपने अनुभव का महत्व और साथ ही मुझ पर अपने विश्वास का महत्व जानना चाहिए” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे सहसा जगा दिया। यह सच है, परमेश्वर लोगों से वफादारी और निष्ठा चाहता है और शैतान को हराने के लिए लोगों की वफादारी की जरूरत भी पड़ती है। लेकिन यह जानने के बाद कि मेरे सहकर्मी गिरफ्तार किए जा चुके हैं, मुझे यह चिंता हुई कि पुलिस निगरानी रिकार्ड जाँचकर मुझे ढूँढ़ लेगी, इसलिए अपनी सुरक्षा का ख्याल कर मैं छिप गई और सरोकार या जिम्मेदारी की भावना दिखाए बिना मैंने संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं को दरकिनार कर दिया। आपदा इतनी बढ़ चुकी थी लेकिन कुछ संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं ने अभी तक परमेश्वर का सुसमाचार नहीं सुना था और नए सदस्यों ने अभी तक जड़ें नहीं जमाई थीं और उनके पतन का खतरा था, फिर भी मैंने कोई सरोकार रखे बिना उन्हें त्याग दिया था। मैं वाकई भरोसे के काबिल नहीं थी। मैं हमेशा कहती थी कि मुझे परमेश्वर के प्रति वफादार होना चाहिए लेकिन सच्चाइयों का सामना होने पर मैं बेनकाब हो गई। मैंने पहले जो कहा था वह सब परमेश्वर को धोखा देने के लिए झूठ था। परमेश्वर ऐसे लोगों को चाहता है जो उसके वचन सुन सकें और जो हमेशा परमेश्वर के प्रति वफादार रह सकें लेकिन जब थोड़ा-सा खतरा सामने आया तो मैं अपना कर्तव्य त्याग कर छिप गई और मैंने यह परवाह नहीं की कि नए सदस्यों का जीवन प्रभावित हो जाएगा। मैंने देखा कि मुसीबत और परीक्षणों के बीच मुझमें कोई वफादारी या गवाही नहीं थी। मैंने परमेश्वर को इतना निराश कर दिया! मुझे अय्यूब का ख्याल आया, जिसकी अकूत दौलत लुटेरे रातोरात लूट ले गए और जिसका पूरा शरीर फोड़ों से भर गया, जिसकी पत्नी ने उससे परमेश्वर को त्याग देने तक की विनती की, लेकिन ऐसे शारीरिक और मानसिक पीड़ादायी परीक्षणों में उसने परमेश्वर को दोष देने के बजाय खुद को कोसना बेहतर समझा और वह अपनी गवाही में अडिग रहा, उसने अंततः शैतान को शर्मिंदा और पराजित किया। मैंने अब्राहम के बारे में भी सोचा, जिसने परमेश्वर को बलि देने की खातिर अपने हाथों अपने बेटे को मारने के लिए चाकू उठाया था और परमेश्वर के प्रति परम समर्पण दिखाया था। अपनी तुलना करूँ तो मुझमें न तो वफादारी थी, न ही समर्पण था। मुझे परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करना था, अय्यूब और अब्राहम के उदाहरणों का अनुकरण करना था और भले ही मुझे पकड़ लिया जाए, यातनाएँ दी जाएँ और जीवन से हाथ धोना पड़े, फिर भी मुझे अपनी गवाही में अडिग रहकर शैतान को शर्मिंदा करना था। मन में ये बातें आने से मुझे आस्था और शक्ति मिली और मैंने फौरन अगुआ को लिखा कि सुसमाचार प्रचार करने के लिए मैं दूसरी कलीसिया जा सकती हूँ।
बाद में मैं शु गुआंग कलीसिया चली गई। लेकिन एक महीने बाद बड़े लाल अजगर ने अपने पंजे शु गुआंग कलीसिया तक भी पसार दिए और एक ही झटके में दर्जनभर भाई-बहन गिरफ्तार कर लिए। फिर मैंने सुना कि किसी ने यहूदा बनकर हमसे विश्वासघात किया था और पुलिस ने एक बहन की फोटो का इस्तेमाल कर यहूदा से उसकी पहचान करवाई थी। मुझे यह ख्याल आया कि कैसे यह बहन अक्सर मेरे साथ रहती थी और अगर पुलिस के पास उसकी फोटो है तो क्या मेरी फोटो भी नहीं होगी? अगर पुलिस उस तक पहुँच गई तो मैं भी फँस जाऊँगी। मुझे यह भी लगा कि मैं स्थानीय नहीं हूँ, इसलिए अगर मैं पकड़ी गई तो मुझे ज्यादा भारी सजा मिलेगी, इसलिए मुझे खुलेआम बाहर जाने से बचना चाहिए, वरना पकड़े जाने की अगली बारी मेरी हो सकती है। इसलिए मैंने सुसमाचार कार्य करने के लिए कलीसिया जाना बंद कर दिया। बाद में मुझे अचानक याद आया कि पिछली बार कलीसिया के सहकर्मियों की गिरफ्तारी के कारण मैं कैसे बीस दिन से ज्यादा भय के कारण छिपी रही और इससे कार्य में देरी हुई। अगर मैं खतरे का जरा-सा भी संकेत पाकर हर बार छिपती रही तो सुसमाचार कैसे फैला सकती हूँ? यह सोचकर मेरा जमीर अपराध-बोध से भर गया। मुसीबत का सामना होने पर मैंने यह नहीं सोचा कि कलीसिया के कार्य की रक्षा कैसे करूँ, बल्कि सिर्फ अपनी सुरक्षा के बारे में सोचा। मैं वाकई स्वार्थी और घृणास्पद थी! बाद में मैंने भाई-बहनों से मिलना शुरू कर दिया ताकि उनके साथ यह संगति कर सकूँ कि कैसे वफादार बनें और अपने कर्तव्य अच्छे से निभाएँ।
कुछ समय बाद सीसीपी ने कई और कलीसियाओं पर छापे मारे और पुलिस उस घर की निगरानी भी करने लगी जहाँ हम सभाएँ कर रहे थे। सभा करने के लिए कोई उपयुक्त जगह न होने के कारण हमें कामचलाऊ जगहों पर मिलना पड़ता था, जैसे लंबे समय से वीरान पड़े मकानों में या कब्रों के आसपास। एक दिन जब हम एक पुराने घर में फिर से मिल रहे थे तो एक बहन तेजी से दौड़ते हुए आई और बोली, “यह जगह अब सुरक्षित नहीं रही। कल पचास से ज्यादा पुलिसवाले घरों की तलाशी लेने आए और जिन घरों में परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें जमा कर रखी थीं उनकी तलाशी ली गई। पुलिस अभी भी सड़क पर कारों को रोककर उनकी जाँच कर रही है!” यह सुनकर मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा और मैंने सोचा, “सीसीपी ने धमकी दी है कि अगर उसने विश्वासियों को पकड़ लिया तो वह उन्हें पीट-पीटकर मार देगी और इसके बदले किसी को सजा नहीं मिलेगी, इसलिए उसके हत्थे चढ़ने का मतलब लगभग निश्चित मृत्यु है! सीसीपी हमेशा से मेरे पीछे पड़ी हुई है, इसलिए अगर उसने मुझे पकड़ लिया तो वह यकीनन मुझे पीट-पीटकर मार डालेगी।” यह ख्याल आने पर मैं फिर से पीछे हट गई और मुझे सुसमाचार प्रचार करने की हिम्मत नहीं हुई। बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “प्रभु यीशु के उन अनुयायियों की मौत कैसे हुई? उनमें ऐसे अनुयायी थे जिन्हें पत्थरों से मार डाला गया, घोड़े से बाँध कर घसीटा गया, सूली पर उलटा लटका दिया गया, पाँच घोड़ों से खिंचवाकर उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए—हर प्रकार की मौत उन पर टूटी। उनकी मृत्यु का कारण क्या था? क्या उन्हें उनके अपराधों के लिए कानूनी तौर पर फाँसी दी गई थी? नहीं। उनकी भर्त्सना की गई, पीटा गया, डाँटा-फटकारा गया और मार डाला गया, क्योंकि उन्होंने प्रभु का सुसमाचार फैलाया था और उन्हें इस संसार के लोगों ने ठुकरा दिया था—इस तरह वे शहीद हुए। ... वास्तव में, उनके शरीर इसी तरह मृत्यु को प्राप्त हुए और चल बसे; यह मानव संसार से प्रस्थान का उनका अपना माध्यम था, तो भी इसका यह अर्थ नहीं था कि उनका परिणाम भी वैसा ही था। उनकी मृत्यु और प्रस्थान का साधन चाहे जो रहा हो, या यह चाहे जैसे भी हुआ हो, यह वैसा नहीं था जैसे परमेश्वर ने उन जीवनों के, उन सृजित प्राणियों के अंतिम परिणाम को परिभाषित किया था। तुम्हें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए। इसके विपरीत, उन्होंने इस संसार की भर्त्सना करने और परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए ठीक उन्हीं साधनों का उपयोग किया। इन सृजित प्राणियों ने अपने सर्वाधिक बहुमूल्य जीवन का उपयोग किया—उन्होंने परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए अपने जीवन के अंतिम क्षण का उपयोग किया, परमेश्वर के महान सामर्थ्य की गवाही देने के लिए उपयोग किया, और शैतान तथा इस संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए किया कि परमेश्वर के कर्म सही हैं, प्रभु यीशु परमेश्वर है, वह प्रभु है, और परमेश्वर का देहधारी शरीर है। यहां तक कि अपने जीवन के बिल्कुल अंतिम क्षण तक उन्होंने प्रभु यीशु का नाम कभी नहीं छोड़ा। क्या यह इस संसार के ऊपर न्याय का एक रूप नहीं था? उन्होंने अपने जीवन का उपयोग किया, संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए, मानव प्राणियों के समक्ष यह पुष्टि करने के लिए कि प्रभु यीशु प्रभु है, प्रभु यीशु मसीह है, वह परमेश्वर का देहधारी शरीर है, कि समस्त मानवजाति के लिए उसने जो छुटकारे का कार्य किया, उसी के कारण मानवता जीवित है—यह सच्चाई कभी बदलने वाली नहीं है। जो लोग प्रभु यीशु के सुसमाचार को फैलाने के लिए शहीद हुए, उन्होंने किस सीमा तक अपने कर्तव्य का पालन किया? क्या यह अंतिम सीमा तक किया गया था? यह अंतिम सीमा कैसे परिलक्षित होती थी? (उन्होंने अपना जीवन अर्पित किया।) यह सही है, उन्होंने अपने जीवन से कीमत चुकाई। परिवार, सम्पदा, और इस जीवन की भौतिक वस्तुएँ, सभी बाहरी उपादान हैं; स्वयं से संबंधित एकमात्र चीज जीवन है। प्रत्येक जीवित व्यक्ति के लिए, जीवन सर्वाधिक सहेजने योग्य है, सर्वाधिक बहुमूल्य है, और असल में कहा जाए तो ये लोग मानव-जाति के प्रति परमेश्वर के प्रेम की पुष्टि और गवाही के रूप में, अपनी सर्वाधिक बहुमूल्य चीज अर्पित कर पाए, और वह चीज है—जीवन। अपनी मृत्यु के दिन तक उन्होंने परमेश्वर का नाम नहीं छोड़ा, न ही परमेश्वर के कार्य को नकारा, और उन्होंने जीवन के अपने अंतिम क्षणों का उपयोग इस तथ्य के अस्तित्व की गवाही देने के लिए किया—क्या यह गवाही का सर्वोच्च रूप नहीं है? यह अपना कर्तव्य निभाने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा है; अपना उत्तरदायित्व इसी तरह पूरा किया जाता है। जब शैतान ने उन्हें धमकाया और आतंकित किया, और अंत में, यहां तक कि जब उसने उनसे अपने जीवन की कीमत अदा करवाई, तब भी उन्होंने अपनी जिम्मेदारी नहीं छोड़ी। यह उनके कर्तव्य-निर्वहन की पराकाष्ठा है। इससे मेरा क्या आशय है? क्या मेरा आशय यह है कि तुम लोग भी परमेश्वर की गवाही देने और उसका सुसमाचार फैलाने के लिए इसी तरीके का उपयोग करो? तुम्हें हूबहू ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु तुम्हें समझना होगा कि यह तुम्हारा दायित्व है, यदि परमेश्वर ऐसा चाहे, तो तुम्हें इसे अपने बाध्यकारी कर्तव्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने से मुझमें आस्था आई। हर व्यक्ति की नियति परमेश्वर की संप्रभुता से निर्धारित होती है और सुसमाचार प्रचार करते हुए मेरे सामने चाहे जो भी परिस्थिति आए, मुझे एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। मैंने प्रभु यीशु के अनुयायियों के बारे में सोचा जिन्होंने स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाने के लिए बहुत ज्यादा उत्पीड़न और मुसीबत सही और अंततः प्रभु के लिए बलिदान दे दिया। कुछ को सूली चढ़ा दिया गया था, कुछ को घोड़ों से घसीटकर मौत के घाट उतारा गया और कुछ की जान पत्थर मारकर ले ली गई, लेकिन उन्होंने अपना मिशन या जिम्मेदारियाँ कभी नहीं छोड़ीं। हो सकता है उनके शरीर का अंत हो गया हो लेकिन उनकी आत्माएँ परमेश्वर के हाथ में थीं और उन्होंने सुसमाचार फैलाने के लिए अपने जीवनों की जो कीमत चुकाई उसे परमेश्वर की स्वीकृति मिली। तभी मुझे प्रभु यीशु के ये वचन याद आए : “जो शरीर को घात करते हैं, पर आत्मा को घात नहीं कर सकते, उनसे मत डरना; पर उसी से डरो, जो आत्मा और शरीर दोनों को नरक में नष्ट कर सकता है” (मत्ती 10:28)। मेरा जीवन, मरण, भविष्य और भाग्य सब कुछ परमेश्वर के हाथ में है। भले ही पुलिस मुझे पकड़ ले और पीट-पीटकर मार डाले, तो भी वह मेरी आत्मा को खत्म नहीं कर सकती है। शरीर का अंत भयावह नहीं है, बल्कि भयावह यह है कि खतरे के बारे में सुनकर अपने जीवन के लिए डर कर छुप जाना, अपना कर्तव्य निभाने की हिम्मत न करना और इस तरह ऐसे दयनीय ढंग से जीवन जीकर अपनी गवाही से हाथ धो बैठना। अगर मैं नहीं पकड़ी गई तो भी इस तरह जीवन जीकर मैं परमेश्वर का कार्य समाप्त होने पर हटा दी जाऊँगी। यह समझ में आने पर मैं मृत्यु के भय के आगे और बेबस नहीं हुई।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक दूसरा अंश पढ़ा : “अपनी सुरक्षा पर ध्यान देने के अलावा, कुछ मसीह-विरोधी और क्या सोचते हैं? वे कहते हैं, ‘फिलहाल, हमारा परिवेश अनुकूल नहीं है, इसलिए हमें लोगों के सामने कम ही आना चाहिए और सुसमाचार को कम फैलाना चाहिए। इस तरह, हमारे पकड़े जाने की संभावना कम होगी, और कलीसिया का काम नष्ट नहीं होगा। अगर हम पकड़े जाने से बच गए, तो हम यहूदा नहीं बनेंगे, और हम भविष्य में यहाँ बने रह पाएँगे, है न?’ क्या ऐसे मसीह-विरोधी नहीं हैं जो अपने भाई-बहनों को गुमराह करने के लिए ऐसे बहाने बनाते हैं? ... वे किन सिद्धांतों का पालन करते हैं? ये लोग कहते हैं, ‘एक चालाक खरगोश के पास तीन बिल होते हैं। खरगोश को हिंसक जानवर के हमले से बचने के लिए, तीन बिल बनाने पड़ते हैं ताकि वह खुद को छिपा सके। अगर किसी व्यक्ति का खतरे से सामना हो और उसे भागना पड़े, मगर उसके पास छिपने के लिए कोई जगह न हो, तो क्या यह स्वीकार्य है? हमें खरगोशों से सीखना चाहिए! परमेश्वर के बनाए प्राणियों में जीवित रहने की यह क्षमता होती है, और लोगों को उनसे सीखना चाहिए।’ अगुआ बनने के बाद से, वे इस धर्म-सिद्धांत को समझ गए हैं, और यह भी मानते हैं कि उन्होंने सत्य को समझ लिया है। वास्तविकता में, वे बहुत डरे हुए हैं। जैसे ही वे किसी ऐसे अगुआ के बारे में सुनते हैं, जिसकी रिपोर्ट पुलिस में इसलिए की गई क्योंकि वह किसी असुरक्षित जगह पर रह रहा था, या किसी ऐसे अगुआ के बारे में जो बड़े लाल अजगर के जासूसों के चंगुल में फँस गया, क्योंकि वह अपना कर्तव्य निभाने के लिए अक्सर बाहर जाता और बहुत से लोगों से बातचीत करता था, और कैसे इन लोगों को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया, तो वे तुरंत डर जाते हैं। वे सोचते हैं, ‘अरे नहीं, क्या पता इसके बाद मुझे ही गिरफ्तार किया जाए? मुझे इससे सीखना चाहिए। मुझे ज्यादा सक्रिय नहीं रहना चाहिए। अगर मैं कलीसिया के कुछ काम करने से बच सकता हूँ, तो मैं उसे नहीं करूँगा। अगर मैं अपना चेहरा दिखाने से बच सकूँ, तो मैं नहीं दिखाऊँगा। मैं अपना काम जितना हो सके उतना कम करूँगा, बाहर निकलने से बचूँगा, किसी से बातचीत करने से बचूँगा, और यह पक्का करूँगा कि किसी को भी मेरे अगुआ होने की खबर न हो। आजकल, कौन किसी और की परवाह कर सकता है? सिर्फ जिंदा रहना भी अपने आप में एक चुनौती है!’ जब से वे अगुआ बने हैं, बैग उठाकर छिपते फिरने के अलावा, कोई काम नहीं करते। वे हमेशा पकड़े जाने और जेल जाने के निरंतर डर के साये में जीते हैं। मान लो वे किसी को यह कहते हुए सुन लें, ‘अगर तुम पकड़े गए, तो तुम्हें मार दिया जाएगा! अगर तुम अगुआ नहीं होते, अगर तुम बस एक साधारण विश्वासी होते, तो तुम्हें छोटा-सा जुर्माना भरने के बाद शायद छोड़ दिया जाता, मगर चूँकि तुम अगुआ हो, इसलिए कुछ कह नहीं सकते। यह बहुत खतरनाक है! पकड़े गए कुछ अगुआओं या कर्मियों ने जब कोई जानकारी नहीं दी तो पुलिस ने उन्हें पीट-पीटकर मार डाला।’ जब वे किसी के पीट-पीटकर मार दिए जाने के बारे में सुनते हैं, तो उनका डर और बढ़ जाता है, वे काम करने से और भी ज्यादा डरने लगते हैं। हर दिन, वे बस यही सोचते हैं कि पकड़े जाने से कैसे बचें, दूसरों के सामने आने से कैसे बचें, निगरानी से कैसे बचें, और अपने भाई-बहनों से संपर्क से कैसे बचें। वे इन चीजों के बारे में सोचने में अपना दिमाग खपाते हैं और अपने कर्तव्यों को बिल्कुल भूल जाते हैं। क्या ये निष्ठावान लोग हैं? क्या ऐसे लोग कोई काम संभाल सकते हैं? (नहीं, वे नहीं संभाल सकते।) इस तरह के लोग बस डरपोक होते हैं, और हम सिर्फ इस अभिव्यक्ति के आधार पर उन्हें मसीह-विरोधी नहीं कह सकते, मगर इस अभिव्यक्ति की प्रकृति क्या है? इस अभिव्यक्ति का सार एक छद्म-विश्वासी का सार है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर लोगों की सुरक्षा कर सकता है, और वे यह तो बिल्कुल नहीं मानते कि परमेश्वर की खातिर खुद को खपाने के लिए समर्पित होना, सत्य के लिए खुद को समर्पित करना है, और परमेश्वर इसे स्वीकृति देता है। वे अपने दिलों में परमेश्वर का भय नहीं मानते; वे केवल शैतान और दुष्ट राजनीतिक दलों से डरते हैं। वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते, वे यह नहीं मानते कि सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है, और यह तो बिल्कुल नहीं मानते कि परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को स्वीकृति देगा जो परमेश्वर की खातिर, उसके मार्ग पर चलने की खातिर और परमेश्वर का आदेश पूरा करने की खातिर खुद को खपाता है। वे इनमें से कुछ भी नहीं देख पाते। वे किसमें विश्वास करते हैं? उनका मानना है कि अगर वे बड़े लाल अजगर के हाथ लग गए, तो उनका बुरा अंत होगा, उन्हें सजा हो सकती है या यहाँ तक कि अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ सकता है। अपने दिलों में, वे केवल अपनी सुरक्षा के बारे में सोचते हैं, कलीसिया के कार्य के बारे में नहीं। क्या ये छद्म-विश्वासी नहीं हैं? (बिल्कुल, हैं।) बाइबल में क्या कहा गया है? ‘जो मेरे कारण अपना प्राण खोता है, वह उसे पाएगा’ (मत्ती 10:39)। क्या वे इन वचनों पर विश्वास करते हैं? (नहीं, वे नहीं करते।) अगर उनसे अपना कर्तव्य निभाते समय जोखिम उठाने को कहा जाए, तो वे खुद को कहीं छिपाना चाहेंगे और किसी को भी उन्हें नहीं देखने देंगे—वे अदृश्य होना चाहेंगे। वे इस हद तक डरे हुए होते हैं। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर मनुष्य का सहारा है, सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है, अगर कुछ वाकई गलत हो जाता है या वे पकड़े जाते हैं, तो यह परमेश्वर की अनुमति से हो रहा है, और लोगों के पास समर्पण वाला दिल होना चाहिए। इन लोगों के पास ऐसा दिल, ऐसी समझ या यह तैयारी नहीं है। क्या वे वाकई परमेश्वर में विश्वास रखते हैं? (नहीं, वे नहीं रखते।) क्या इस अभिव्यक्ति का सार एक छद्म-विश्वासी का सार नहीं है? (बिल्कुल है।) यह ऐसा ही है। इस तरह के लोग बहुत ज्यादा डरपोक, बुरी तरह से डरे हुए होते हैं, और शारीरिक पीड़ा सहने और उनके साथ कुछ बुरा होने से डरते हैं। वे डरपोक पक्षियों की तरह डर जाते हैं और अब अपना काम नहीं कर पाते” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दो))। परमेश्वर ने उजागर किया कि मसीह-विरोधी अत्यंत स्वार्थी और घृणास्पद होते हैं और परमेश्वर की संप्रभुता में बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते हैं। जब उनके ऊपर कोई संकट आता है तो वे हमेशा अपनी सुरक्षा, संभावनाओं और मंजिलों का ध्यान रखते हैं। उनके दिल में एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारियों और मिशन का नामोनिशान नहीं होता। जब वे अपनी आस्था में खतरे का सामना करते हैं तो वे छिप जाते हैं। वे कलीसिया के कार्य या भाई-बहनों के जीवन प्रवेश की परवाह नहीं करते हैं, न ही वे परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान रखते हैं। खुद पर दोबारा नजर डालकर मैंने देखा कि मैं एक मसीह-विरोधी जितनी स्वार्थी और घृणास्पद हूँ। जब कोई खतरा नहीं होता था तो मैं अपने कर्तव्य में कष्ट सहने और खुद को खपाने में सक्षम थी, लेकिन जब असली खतरा और कठिनाई सामने आई तो मुसीबत का जरा-सा भी संकेत देखकर मैं कछुए की तरह अपना सिर खोल में बंद कर छिप गई, मैं खुद को एक सुरक्षित जगह में छिपा लेना चाहती थी जहाँ मुझे कोई न देख सके और मैंने नए सदस्यों और संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं की पूरी तरह उपेक्षा की। बाद में मुझे पता चला कि हमें यहूदा ने धोखा दिया है तो मैंने एक बार फिर अपनी ही सुरक्षा पर ध्यान दिया। मुझे चिंता थी कि अगर मैं पकड़ी गई तो स्थानीय न होने के कारण मुझे पीट-पीटकर मार दिया जाएगा या अपंग बना दिया जाएगा या शायद मैं यातनाएँ न सह सकूँ और कलीसिया से विश्वासघात कर बैठूँ जिससे मैं अपने उद्धार का अवसर खो दूँगी, इसलिए मैंने बाहर जाकर सुसमाचार के उपदेश नहीं देने चाहे। मैं परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं मानती थी और जब खतरा सामने आया तो मैंने अपने कर्तव्य को दरकिनार कर दिया। मैंने परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा बिल्कुल नहीं की और पूरी तरह कायरता, डर और आत्मरक्षा की स्थिति में जीती रही। मैं ऐसी स्वार्थी और घृणास्पद छद्म-विश्वासी थी! यह एहसास होने पर मुझे और भी ज्यादा आत्मग्लानि हुई। मैंने सोचा, “आगे मुझे चाहे जैसे भी माहौल का सामना करना पड़े, मुझे अपना कर्तव्य ठीक से निभाना होगा।”
इसके बाद पुलिस और भी सख्ती से गिरफ्तारियाँ करने लगी और उच्च अगुआओं ने मेरा तबादला दूसरी कलीसिया में कर दिया। इस कलीसिया में आने के दो महीने बाद ही मैंने देखा कि मेरी इलेक्ट्रिक बाइक पर एक ट्रैकर लगा हुआ है। मैंने सोचा, “कहीं रास्ते भर मेरे निगरानी रिकार्ड की जाँच कर पुलिस मेरा पीछा तो नहीं कर रही है? अगर ऐसा है तो मेरे बच निकलने का कोई रास्ता नहीं है!” मैं फिर से भयभीत हो गई, मुझे डर था कि अगर मैं बाहर गई तो पुलिस मुझे गिरफ्तार कर लेगी। लेकिन मुझे परमेश्वर के पिछले वचन याद आए और मैं जानती थी कि फिर से अपनी रक्षा करने के लिए मैं अपना कर्तव्य नहीं त्याग सकती हूँ, क्योंकि मैं अपनी गवाही से हाथ धो बैठूँगी। मैंने परमेश्वर के और भी वचन बढ़े : “शैतान चाहे जितना भी ‘सामर्थ्यवान’ हो, चाहे वह जितना भी दुस्साहसी और महत्वाकांक्षी हो, चाहे नुकसान पहुँचाने की उसकी क्षमता जितनी भी बड़ी हो, चाहे मनुष्य को भ्रष्ट करने और लुभाने की उसकी तकनीकें जितनी भी व्यापक हों, चाहे मनुष्य को डराने की उसकी तरकीबें और योजनाएँ जितनी भी चतुराई से भरी हों, चाहे उसके अस्तित्व के रूप जितने भी परिवर्तनशील हों, वह कभी एक भी जीवित चीज सृजित करने में सक्षम नहीं हुआ, कभी सभी चीजों के अस्तित्व के लिए व्यवस्थाएँ या नियम निर्धारित करने में सक्षम नहीं हुआ, और कभी किसी सजीव या निर्जीव चीज पर शासन और नियंत्रण करने में सक्षम नहीं हुआ। ब्रह्मांड और आकाश के भीतर, एक भी व्यक्ति या चीज नहीं है जो उससे पैदा हुई हो, या उसके कारण अस्तित्व में हो; एक भी व्यक्ति या चीज नहीं है जो उसके द्वारा शासित हो, या उसके द्वारा नियंत्रित हो। इसके विपरीत, उसे न केवल परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन रहना है, बल्कि, परमेश्वर के सभी आदेशों और आज्ञाओं को समर्पण करना है। परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान के लिए जमीन पर पानी की एक बूँद या रेत का एक कण छूना भी मुश्किल है; परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान धरती पर चींटियों का स्थान बदलने के लिए भी स्वतंत्र नहीं है, परमेश्वर द्वारा सृजित मानव-जाति की तो बात ही छोड़ दो। परमेश्वर की दृष्टि में, शैतान पहाड़ पर उगने वाली कुमुदनियों से, हवा में उड़ने वाले पक्षियों से, समुद्र में रहने वाली मछलियों से, और पृथ्वी पर रहने वाले कीड़ों से भी तुच्छ है। सभी चीजों के बीच उसकी भूमिका सभी चीजों की सेवा करना, मानव-जाति की सेवा करना और परमेश्वर के कार्य और उसकी प्रबंधन-योजना की सेवा करना है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। परमेश्वर सभी चीजों के ऊपर संप्रभु है। कोई भी व्यक्ति, घटना या चीज परमेश्वर के अधिकार से बढ़कर नहीं है। शैतान चाहे कितना ही उग्र और क्रूर हो, वह अपने लिए परमेश्वर द्वारा तय की गई सीमाएँ नहीं लाँघ सकता है। परमेश्वर की अनुमति के बिना वह हद पार करने की हिम्मत नहीं करता है, हमें नुकसान पहुँचाना तो दूर की बात है। परमेश्वर के हाथ में शैतान एक मोहरा भर है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पूर्ण बनाने का काम करता है! मैंने उन बरसों के बारे में सोचा जो मैंने लगभग रोजाना सुसमाचार प्रचार करते हुए निगरानी कैमरों तले दौड़ते हुए बिताए थे लेकिन मैं गिरफ्तार नहीं हुई। एक बार एक मेजबान घर को पुलिस ने खटखटाया मगर हमने दरवाजा नहीं खोला और आधा घंटे बाद हम भेष बदलकर बाहर निकल गए, नीचे खड़ी पुलिस ने हमें पहचाना नहीं और हम बच निकलने में सफल रहे। मैंने देखा कि परमेश्वर की अनुमति के बिना पुलिस मुझे पकड़ नहीं सकती है। यह एहसास होने पर मैंने संकल्प लिया कि अगर परमेश्वर ने मुझे गिरफ्तार होने दिया तो मैं उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करूँगी और उसकी गवाही देने के लिए अपना जीवन दे दूँगी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक भजन पढ़ा जिसका शीर्षक “सबसे सार्थक जीवन” है। “तुम सृजित प्राणी हो—तुम्हें निस्संदेह परमेश्वर की आराधना और सार्थक जीवन का अनुसरण करना चाहिए। चूँकि तुम मानव प्राणी हो, इसलिए तुम्हें स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाना और सारे कष्ट सहने चाहिए! आज तुम्हें जो थोड़ा-सा कष्ट दिया जाता है, वह तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक और दृढ़तापूर्वक स्वीकार करना चाहिए और अय्यूब तथा पतरस के समान सार्थक जीवन जीना चाहिए। तुम सब वे लोग हो, जो सही मार्ग का अनुसरण करते हो, जो सुधार की खोज करते हो। तुम सब वे लोग हो, जो बड़े लाल अजगर के देश में ऊपर उठते हो, जिन्हें परमेश्वर धार्मिक कहता है। क्या यह सबसे सार्थक जीवन नहीं है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (2))। इस भजन के बारे में चिंतन कर मुझे अपने दिल में आश्वस्ति की भावना का एहसास हुआ। अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा पाना ही एक सृजित प्राणी के लिए सबसे सार्थक और मूल्यवान चीज है और परमेश्वर इसे स्मरण रखता है। बार-बार उत्पीड़न और मुसीबत से गुजरने के कारण मुझे वास्तव में परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता देखने और उसमें आस्था जगाने में मदद मिली, बड़े लाल अजगर के बुरे सार का भेद जानने में मदद मिली और अपनी ही स्वार्थी प्रकृति को समझने में मदद मिली। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि मैंने मृत्यु का सामना करना सीख लिया। ये ऐसी चीजें हैं जो मैं एक आरामदेह माहौल में हासिल नहीं कर सकती थी। परमेश्वर का धन्यवाद!