45. मैं अब अपनी पसंद देखकर कर्तव्य नहीं चुनती

चेन मियाओ, चीन

मैंने 2006 में परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। तब से मैं कलीसिया में अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में सेवा करती रही हूँ। भले ही मैं हर दिन व्यस्त रहती थी और थक जाती थी, लेकिन मुझे कोई शिकायत नहीं थी क्योंकि मैं मानती थी कि अगुआई और निगरानी की भूमिकाएँ उन लोगों के लिए हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं और ऐसे कर्तव्य करने वालों को भाई-बहनों से बहुत सम्मान मिलता है। 2018 में मैंने एक पाठ-आधारित कर्तव्य लिया। मैं बहुत खुश थी और मुझे लगता था कि मैं अच्छा कर रही हूँ, वरना मुझे इतने महत्वपूर्ण कर्तव्य के लिए नहीं चुना जाता। कुछ दिनों बाद एक उच्च अगुआ मुझसे मिलने आया और बोला, “कलीसिया को सीसीपी के हाथों गिरफ्तारियों का सामना करना पड़ रहा है; हर जगह माहौल तनावपूर्ण है और हमें तत्काल ऐसे लोगों की जरूरत है जो सामान्य मामले सँभालने का कर्तव्य निभाएँ। हमने चर्चा की है और हम चाहते हैं कि तुम और तुम्हारा पति यह कर्तव्य निभाएँ।” अगुआ की बात सुनकर मेरे दिमाग में हलचल मच गई। मुझे अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था और मैं सोचने लगी, “वे मुझे सामान्य मामले सँभालने के लिए कैसे नियुक्त कर सकते हैं? क्या अगुआ से कोई गलती हुई है? क्या सामान्य मामले सँभालना सिर्फ मेहनत का काम नहीं है? यह कितना नीच काम है! अगर भाई-बहनों को पता चल जाए तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” मैंने इसके बारे में जितना ज्यादा सोचा, मेरे अंदर उतना ही प्रतिरोध बढ़ता गया और मैं अगुआ को बताना चाहती थी कि मैं यह कर्तव्य नहीं सँभालना चाहती हूँ, लेकिन यह देखते हुए कि कलीसिया की व्यवस्था काम की जरूरतों पर आधारित थी, मेरे पास न चाहते हुए भी सहमत होने के अलावा कोई चारा नहीं था। घर लौटते समय मेरे मन में उथल-पुथल मची थी : “परमेश्वर में विश्वास करने के बाद से मैंने हमेशा अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सेवा की है या पाठ-आधारित कर्तव्य निभाया है और ये दोनों कर्तव्य सामान्य मामलों के कर्तव्य से ज्यादा प्रतिष्ठित लगते हैं। वह भारी, गंदा और थका देने वाला काम करना उस पाठ-आधारित कर्तव्य के सामने कहीं भी नहीं टिकता जो मैं अभी कर रही हूँ और अगर टीम की बहनें जान जाएँगी तो क्या वे मुझे पक्का नीची नजरों से नहीं देखेंगी, और कहेंगी कि मैं जरूर सत्य का अनुसरण नहीं करती थी तभी मुझे इस कर्तव्य में लगाया गया होगा?” जब मैं घर पहुँची तो मैं कमजोर और बेबस महसूस करते हुए बिस्तर पर लेट गई, लेकिन बहनों का सामना होने पर मैं जबरन मुस्कुराती रही, खुले तौर पर अपनी अवस्था के बारे में संगति करने से डरती रही, मुझे डर था कि जब उन्हें पता चलेगा कि मैं सामान्य मामले सँभालने का काम कर रही हूँ तो वे मुझे नीची नजरों से देखेंगी।

कुछ दिनों बाद मैंने और मेरे पति ने आधिकारिक तौर पर सामान्य मामले सँभालने का काम अपने ऊपर ले लिया। शुरुआती कुछ दिनों में हमने उन भाई-बहनों के ठिकाने बदलने में मदद की जो खतरे में थे। हम पति-पत्नी तड़के करीब तीन बजे उठकर उनके ठिकाने बदलने में मदद करते थे, सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते थे और हर दिन हम थक जाते थे, रोज पीठ और कमर में दर्द होता था और जब हम रात को घर पहुँचते थे तो मेरा खाना खाने का भी मन नहीं होता था, बिस्तर से उठना भी मुश्किल हो जाता था। सुबह से शाम तक यही काम करने के एक हफ्ते बाद ही मैं शिकायतें करने लगी, “यह बस कड़ी मेहनत है। दुनिया में ऐसे काम वे लोग करते हैं जिनके पास ज्ञान, शिक्षा या कौशल नहीं होता और मैंने कभी नहीं सोचा था कि इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद मैं इस स्तर पर गिर जाऊँगी, सिर्फ सबसे तुच्छ और बेहद श्रम वाले कार्य कर पाऊँगी। मैं कंप्यूटर के सामने बैठकर पाठ-आधारित कार्य किया करती थी, साफ कपड़े पहना करती थी, हवा और बारिश से बची रहती थी, लेकिन अब मैं हर दिन पसीने से तर और थकी रहती हूँ! रात-दिन यही करती रहती हूँ!” मैं रोज अपने कर्तव्य मजबूरी में निभाया करती थी, मेरी दशा इतनी गिर चुकी थी कि मैं एक चलती-फिरती लाश की तरह स्तब्ध हो गई थी, मुझे बहुत आंतरिक पीड़ा होती थी।

पीड़ा में मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, अगुआओं ने मुझे सामान्य मामले सँभालने में लगाया है लेकिन मैं समर्पण नहीं कर पाती। मुझे लगता है कि यह कर्तव्य नीच है और इससे लोग मुझे नीची नजरों से देखेंगे। मैं तुम्हारा इरादा नहीं समझ पा रही हूँ। इससे सबक सीखने के लिए मेरा प्रबोधन और मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “कुछ लोग अक्सर परमेश्वर के घर में दूसरों से श्रेष्ठ महसूस करते हैं। किस तरह से? उनके इस तरह दूसरों से श्रेष्ठ महसूस करने का क्या कारण है? उदाहरण के लिए, कुछ लोग विदेशी भाषा बोलना जानते हैं और उन्हें लगता है कि इसका मतलब है कि उनके पास एक गुण है और वे कुशल हैं, और अगर वे परमेश्वर के घर में न होते तो शायद उसके लिए अपने काम का विस्तार करना वास्तव में मुश्किल होता। नतीजतन, वे चाहते हैं कि वे जहाँ भी जाएँ, लोग उनका आदर करें। ऐसे लोग जब दूसरों से मिलते हैं तो क्या तरीका अपनाते हैं? अपने दिल में, वे उन लोगों की तमाम तरह की विभिन्न श्रेणियाँ निर्धारित करते हैं, जो परमेश्वर के घर में विभिन्न कर्तव्य निभाते हैं। अगुआ शीर्ष पर होते हैं, विशेष प्रतिभाओं वाले लोग दूसरे स्थान पर, फिर औसत प्रतिभाओं वाले लोग आते हैं और सबसे नीचे वे लोग होते हैं जो तमाम तरह के सहायक कर्तव्य निभाते हैं। कुछ लोग महत्वपूर्ण कर्तव्यों और विशेष कर्तव्यों को निभाने की क्षमता को पूँजी मानते हैं और इसे सत्य वास्तविकताओं से युक्त होना मानते हैं। यहाँ क्या समस्या है? क्या यह बेतुका नहीं है? कुछ विशेष कर्तव्य निभाने से वे अहंकारी और घमंडी बन जाते हैं और सभी को तुच्छ समझते हैं। जब वे किसी से मिलते हैं तो पहली चीज हमेशा यह करते हैं कि उससे पूछते हैं कि वह कौन-सा कर्तव्य निभाता है। अगर वह व्यक्ति औसत कर्तव्य निभाता है तो वे उसका अनादर करते हैं और सोचते हैं कि यह व्यक्ति उनके ध्यान देने योग्य नहीं है। जब वह व्यक्ति उनके साथ संगति करना चाहता है तो वे सतही तौर पर तो इस पर सहमत होते हैं लेकिन मन ही मन सोचते हैं, ‘तुम मेरे साथ संगति करना चाहते हो? तुम कुछ भी तो नहीं हो। तुम जो कर्तव्य निभाते हो, उसे देखो—तुम मुझसे बात करने योग्य कैसे हो?’ अगर उस व्यक्ति द्वारा निभाया जाने वाला कर्तव्य उनके कर्तव्य से ज्यादा महत्वपूर्ण हो तो वे उसकी चापलूसी करते हैं और उससे ईर्ष्या करते हैं। जब वे अगुआओं या कार्यकर्ताओं को देखते हैं तो चापलूस बनकर उनकी खुशामद करने लगते हैं। क्या वे लोगों के साथ व्यवहार करने के तरीके में सैद्धांतिक होते हैं? (नहीं। वे लोगों के साथ उनके द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों और स्वयं द्वारा उन्हें दी गई विभिन्न श्रेणियों के अनुसार व्यवहार करते हैं।) वे लोगों को उनके अनुभव और वरिष्ठता के अनुसार, और उनकी योग्यताओं और गुणों के अनुसार श्रेणीबद्ध करते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अभ्यास में ही होता है जीवन प्रवेश)। “तुम्हारा चाहे जो भी कर्तव्य हो, उसमें ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो। मान लो तुम कहते हो, ‘हालाँकि यह काम परमेश्वर का आदेश और परमेश्वर के घर का कार्य है, पर यदि मैं इसे करूँगा, तो लोग मुझे नीची निगाह से देख सकते हैं। दूसरों को ऐसा काम मिलता है, जो उन्हें विशिष्ट बनाता है। मुझे यह काम दिया गया है, जो मुझे विशिष्ट नहीं बनाता, बल्कि परदे के पीछे मुझसे कड़ी मेहनत करवाता है, यह अनुचित है! मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा। मेरा कर्तव्य वह होना चाहिए, जो मुझे दूसरों के बीच खास बनाए और मुझे प्रसिद्धि दे—और अगर प्रसिद्धि न भी दे या खास न भी बनाए, तो भी मुझे इससे लाभ होना चाहिए और शारीरिक आराम मिलना चाहिए।’ क्या यह कोई स्वीकार्य रवैया है? मीन-मेख निकालना परमेश्वर से आई चीजों को स्वीकार करना नहीं है; यह अपनी पसंद के अनुसार विकल्प चुनना है। यह अपने कर्तव्य को स्वीकारना नहीं है; यह अपने कर्तव्य से इनकार करना है, यह परमेश्वर के खिलाफ तुम्हारी विद्रोहशीलता की अभिव्यक्ति है। इस तरह मीन-मेख निकालने में तुम्हारी निजी पसंद और आकांक्षाओं की मिलावट होती है। जब तुम अपने लाभ, अपनी ख्याति आदि को महत्त्व देते हो, तो अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया आज्ञाकारी नहीं होता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि कर्तव्य के बारे में मेरा नजरिया गलत था और मैंने परमेश्वर के घर में कर्तव्यों को विभिन्न स्तरों में वर्गीकृत किया था। मैं सोचती थी कि कि परमेश्वर के घर में अगुआ और कार्यकर्ता या टीम पर्यवेक्षक होने का मतलब यह है कि व्यक्ति खूब काबिल और सत्य का दृढ़ अनुसरण करने वाला है और भाई-बहन ऐसे लोगों को उच्च सम्मान देंगे, जबकि सामान्य मामले सँभालने का कर्तव्य निभाने वाले लोग कम काबिलियत वाले हैं और उनमें सत्य की समझ नहीं है, और ऐसा कर्तव्य निभाना दोयम माना जाता है और यह व्यक्ति को अपनी बड़ाई नहीं करने देता है। इसलिए मुझे वे कर्तव्य याद आते थे जो मैंने पहले किए थे, जब भाई-बहन मुझे सम्मान की दृष्टि से देखते थे और मुझे हमेशा दूसरों से बेहतर होने का एहसास होता था, जिसने मुझे अपने कर्तव्य में बहुत प्रेरित किया, अपना परिवार और करियर त्यागने और कष्ट सहने और खुद को खपाने के लिए तैयार किया था। अब जब मुझे सामान्य मामले सँभालने का कर्तव्य सौंपा गया था तो मुझे लगा जैसे मुझे पदावनत कर दिया गया हो और भाई-बहनों के सामने मैं हीन हूँ। खास तौर पर जब यह कर्तव्य कष्टदायक और थका देने वाला होता था तो मैं अपने दिल में शिकायत करती थी और महसूस करती थी कि अगुआओं द्वारा की गई ऐसी व्यवस्था अनुचित थी और मेरी ईमानदारी को नुकसान पहुँचाती थी और मैं बस इस जिम्मेदारी से बचना चाहती थी। इस बिंदु पर मैंने देखा कि मैं इस आधार पर अपना कर्तव्य चुनती थी कि क्या इससे मुझे दिखावा करने और लाभ उठाने का मौका मिलेगा, और मैं कलीसिया के काम पर बिल्कुल भी विचार नहीं करती थी। कई वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी मैं मामलों को परमेश्वर के वचनों के आधार पर नहीं देखती थी, बल्कि कर्तव्यों को विभिन्न स्तरों में विभाजित करती थी। मेरा नजरिया किसी अविश्वासी से अलग नहीं था। इसका एहसास होने पर मुझे बहुत परेशानी और अपराध बोध हुआ।

बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “परमेश्वर के घर में परमेश्वर का आदेश स्वीकारने और इंसान के कर्तव्य-निर्वहन का निरंतर उल्लेख होता है। कर्तव्य कैसे अस्तित्व में आता है? आम तौर पर कहें, तो यह मानवता का उद्धार करने के परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आता है; ख़ास तौर पर कहें, तो जब परमेश्वर का प्रबंधन-कार्य मानवजाति के बीच खुलता है, तब विभिन्न कार्य प्रकट होते हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए लोगों का सहयोग चाहिए होता है। इससे जिम्मेदारियाँ और विशेष कार्य उपजते हैं, जिन्हें लोगों को पूरा करना है, और यही जिम्मेदारियाँ और विशेष कार्य वे कर्तव्य हैं, जो परमेश्वर मानवजाति को सौंपता है। परमेश्वर के घर में जिन विभिन्न कार्यों में लोगों के सहयोग की आवश्यकता है, वे ऐसे कर्तव्य हैं जिन्हें उन्हें पूरा करना चाहिए। तो, क्या बेहतर और बदतर, बहुत ऊँचा और नीच या महान और छोटे के अनुसार कर्तव्यों के बीच अंतर हैं? ऐसे अंतर नहीं होते; यदि किसी चीज का परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के साथ कोई लेना-देना हो, उसके घर के काम की आवश्यकता हो, और परमेश्वर के सुसमाचार-प्रचार को उसकी आवश्यकता हो, तो यह व्यक्ति का कर्तव्य होता है। यह कर्तव्य की उत्पत्ति और परिभाषा है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। “कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए? पहले तो तुम्हें यह पता लगाने की कोशिश में कि वह कौन था जिसने तुम्हें यह सौंपा था, इसका विश्लेषण नहीं करना चाहिए; इसके बजाय तुम्हें उसे परमेश्वर से मिला हुआ, परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया मानना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए और परमेश्वर से अपने कर्तव्य को ग्रहण करना चाहिए। दूसरे, ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो, और उसकी प्रकृति के बारे में न सोचो, क्या वह तुम्हें लोगों के बीच खास बनाता है, यह सभी के सामने किया जाता है या पर्दे के पीछे। इन चीजों पर गौर मत करो। एक और रवैया भी है : आज्ञाकारिता और सक्रिय सहयोग(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मेरे दिल में अचानक कुछ रोशनी आई और मैंने समझा कि परमेश्वर के घर में ऊँचे या नीचे, श्रेष्ठ या हीन कर्तव्यों के बीच कोई भेद नहीं है। चाहे कोई भी कर्तव्य निभाया जाए, यह सब अपनी भूमिका और कार्य पूरा करना है और यह सब एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निर्वहन है। कलीसिया हर व्यक्ति के आध्यात्मिक कद और काबिलियत के आधार पर और कलीसिया के काम की जरूरतों के अनुसार व्यवस्था करता है कि कौन सा व्यक्ति कौन सा कर्तव्य निभाएगा। चाहे कोई भी कर्तव्य हो, यह सब सुसमाचार फैलाने के लिए किया जाता है। अगुआओं ने मुझे सामान्य मामले सँभालने और भाई-बहनों के लिए आवास की व्यवस्था करने, उनके जीवन को सुव्यवस्थित करने का कर्तव्य सौंपा था ताकि वे सुकून के साथ अपने कर्तव्य निभा सकें, जो काम के लिए भी जरूरी है। यह एक मशीन की तरह है, हर पुर्जे की अपनी भूमिका होती है और अगर कोई पुर्जा गायब हो जाए तो मशीन काम नहीं कर सकती। परमेश्वर के घर में भी ऐसा ही है, हर कर्तव्य अपरिहार्य है और जब कर्तव्यों की बात आती है तो छोटे-बड़े पद जैसी कोई चीज नहीं होती। इसके अलावा किसी के पास सत्य वास्तविकता है या नहीं, यह किए गए कर्तव्य के प्रकार से नहीं मापा जाता है। इससे पहले जब मैं एक अगुआ और कार्यकर्ता का कर्तव्य कर रही थी तो मैं अक्सर सभाओं के दौरान भाई-बहनों के साथ संगति करती थी, लेकिन जब मेरा तबादला नए कर्तव्य में किया गया तो मैं समर्पण नहीं कर सकी और मैंने इसे एक अविश्वासी के नजरिए से मापा, इससे मैंने अपनी सत्य की दयनीय कमी प्रकट कर दी। परमेश्वर कहता है कि उसकी प्रबंधन योजना से संबंधित कोई भी कार्य एक कर्तव्य है, उच्च या निम्न, श्रेष्ठ या तुच्छ कर्तव्यों के बीच कोई अंतर नहीं है और ये सभी जिम्मेदारियाँ हैं जिन्हें कोई टाल नहीं सकता। लेकिन मैं खुद को कुलीन के रूप में देखती थी और सोचती थी कि सामान्य मामले सँभालने के लिए मुझे नियुक्त किया जाना मेरी प्रतिभा की बर्बादी है। मैं नकारात्मक, विद्रोही थी और यहाँ तक कि इससे बचना भी चाहती थी। कैसे मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी? परमेश्वर का सार इतना पवित्र और महान है, फिर भी उसने देह धारण करने और सत्य व्यक्त करने के लिए सभी कष्ट सहे हैं, वह मानवजाति के उद्धार के लिए चुपचाप परिश्रम कर रहा है। आत्म-चिंतन करने पर मैंने देखा कि थोड़ा-सा शारीरिक कष्ट सहने पर मैंने अंतहीन शिकायतें कीं और गलतफहमी पाल ली। अपने कर्तव्य के प्रति मेरा यह रवैया मानवता की कमी थी और इसने वाकई परमेश्वर को ठेस पहुँचाई! मैंने परमेश्वर का बहुत आभार माना और मुझे अपने विद्रोही व्यवहार पर पछतावा हुआ। मैं अब अपनी प्राथमिकताओं और इच्छाओं के आधार पर अपना कर्तव्य नहीं चुन सकती थी। जब मैंने समर्पण किया तो अपने कर्तव्य के प्रति मेरी मानसिकता बदल गई और मुझे अपने दिल में कम तकलीफ और थकान महसूस हुई। परमेश्वर ने परिस्थितियों की व्यवस्था कर मेरे गलत विचार बेनकाब कर दिए और यह मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम और उद्धार था।

छह महीने तक सामान्य मामले सँभालने का कर्तव्य निभाने के बाद मुझे लगा कि मेरे विचार बदल गए हैं और मैं अब रुतबे या प्रतिष्ठा के पीछे नहीं भाग रही हूँ, लेकिन एक ऐसी स्थिति आई जिसने मुझे फिर से बेनकाब कर दिया। एक दिन अगुआ मुझे और मेरे पति को मेजबानी के कर्तव्य सौंपने के बारे में मुझसे चर्चा करने आया। पिछली बार सामान्य मामले सँभालने के कर्तव्य में समर्पण की कमी को देखते हुए मैं पहले ही ऋणी थी, मुझे पता था कि इस बार मैं विद्रोही नहीं हो सकती हूँ, इसलिए मैंने सहमति दे दी और हमने जल्द ही एक घर किराए पर ले लिया। लेकिन भाई-बहनों के साथ रहते हुए और उन्हें पाठ-आधारित कर्तव्य करते हुए देखकर मुझे थोड़ी कड़वाहट और नाखुशी हुई और मैं सोचने लगी, “पहले मैं भी कंप्यूटर पर अपना काम करती थी और अब मैं हर दिन रसोई में बैठी रहती हूँ, सब्जियाँ काटती हूँ और खाना बनाती हूँ।” मैंने खुद को उनसे बहुत हीन महसूस किया। यह सोचकर मेरी आँखों में आँसू आ गए। एक दिन अगुआ मेरे घर भाई-बहनों के साथ काम पर चर्चा करने आया और मेरी अवस्था के बारे में पूछे बिना ही चला गया, जिससे मैं और भी उदास हो गई। मैंने उन दिनों के बारे में सोचा जब मैं पाठ-आधारित कर्तव्य करती थी। अगुआ मुझे महत्व देते थे, लेकिन अब मैं दिनभर सिर्फ बर्तनों से निपट रही थी और ऐसा लग रहा था कि मुझे कभी भी दूसरों से अलग दिखने का मौका नहीं मिलेगा। मैंने इसके बारे में जितना सोचा, दर्द उतना ही बढ़ता गया और मुझे जीवन व्यर्थ लगने लगा। मुझे एहसास हुआ कि मेरी अवस्था ठीक नहीं है, इसलिए मैंने पढ़ने के लिए जल्दी से परमेश्वर के वचन खाेजे। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “भ्रष्ट शैतानी स्वभाव की संचालक शक्ति के प्रभाव में लोगों के आदर्श, आशाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, जीवन-लक्ष्य और दिशाएँ क्या हैं? क्या वे सकारात्मक चीज़ों के विपरीत नहीं चलते? उदाहरण के लिए, लोग हमेशा प्रसिद्धि पाना चाहते हैं या मशहूर हस्तियाँ बनना चाहते हैं; वे बहुत प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा पाना चाहते हैं, और अपने पूर्वजों का सम्मान बढ़ाना चाहते हैं। क्या ये सकारात्मक चीज़ें हैं? ये सकारात्मक चीज़ों के अनुरूप बिल्कुल भी नहीं हैं; यही नहीं, ये मनुष्यजाति की नियति पर परमेश्वर की संप्रभुता रखने वाली व्यवस्था के विरुद्ध हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? परमेश्वर किस प्रकार का व्यक्ति चाहता है? क्या वह ऐसा व्यक्ति चाहता है, जो महान हो, मशहूर हो, अभिजात हो, या संसार को हिला देने वाला हो? (नहीं।) तो फिर परमेश्वर को किस प्रकार का व्यक्ति चाहिए? (एक ऐसा व्‍यक्ति जिसके पैर मजबूती से जमीन पर टिके हों और जो एक सृजित प्राणी की भूमिका पूरी करता हो।) हाँ, उसमें और क्‍या होना चाहिए? (परमेश्वर एक ईमानदार व्‍यक्ति चाहता है जो उसका भय मानता हो और बुराई से दूर रहता हो और उसके प्रति समर्पण करता हो।) (एक ऐसा व्‍यक्ति जो सभी मामलों में परमेश्वर के साथ हो, जो परमेश्वर से प्रेम करने के लिए पर्यासरत हो।) ये उत्‍तर भी सही हैं। वह ऐसा कोई भी व्‍यक्ति है जिसका परमेश्वर जैसा दिल और मन है। क्‍या परमेश्वर के वचनों में ऐसा कहीं है कि लोगों को अपना मनुष्‍य पद बरकरार रखना चाहिए? (हाँ, ऐसा है।) क्‍या कहा गया है? (‘सृजित मानवता के एक सदस्य के रूप में, मनुष्य को अपनी स्थिति बनाए रखनी चाहिए, और कर्तव्यनिष्ठा से व्यवहार करना चाहिए। सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें जो सौंपा गया है, उसकी कर्तव्यपरायणता से रक्षा करो। अनुचित कार्य मत करो, न ही ऐसे कार्य करो जो तुम्हारी क्षमता के दायरे से बाहर हों या जो परमेश्वर के लिए घृणित हों। महान, अतिमानव या दूसरों से ऊँचा बनने की कोशिश मत करो, न ही परमेश्वर बनने की कोशिश करो। लोगों को ऐसा बनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। महान या अतिमानव बनने की कोशिश करना बेतुका है। परमेश्वर बनने की कोशिश करना तो और भी ज्यादा शर्मनाक है; यह घृणित और निंदनीय है। जो प्रशंसनीय है, और जो सृजित प्राणियों को किसी भी चीज से ज्यादा करना चाहिए, वह है एक सच्चा सृजित प्राणी बनना; यही एकमात्र लक्ष्य है जिसका सभी लोगों को अनुसरण करना चाहिए(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)।) चूँकि तुम लोग जानते हो कि परमेश्वर के वचनों में लोगों से क्‍या अपेक्षा है, तो क्‍या तुम मानवीय आचरण के अनुसरण में परमेश्वर की अपेक्षाओं पर कायम रहने में सक्षम हो? क्या तुम लोग हमेशा अपने पंख फैलाकर उड़ना चाहते हो, हमेशा अकेले उड़ना चाहते हो, एक नन्ही चिड़िया के बजाय चील बनना चाहते हो? यह कौन-सा स्वभाव है? क्या यही मानवीय आचरण का सिद्धांत है? तुम्हारा मानवीय आचरण परमेश्वर के वचनों के अनुसार होना चाहिए; केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। ... किस वजह से लोग हमेशा परमेश्वर की संप्रभुता से मुक्त होने की कामना करते हैं और हमेशा अपने भाग्य को पकड़ना और अपने भविष्य की योजना बनाना चाहते हैं, और अपनी संभावनाएँ, दिशा और जीवन-लक्ष्य नियंत्रित करना चाहते हैं? यह शुरुआती बिंदु कहाँ से आता है? (भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से।) तो एक भ्रष्ट शैतानी स्वभाव लोगों के लिए क्या ले आता है? (परमेश्वर का विरोध।) जो लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं, उन्हें क्या होती है? (पीड़ा।) पीड़ा? नहीं पीड़ा नहीं बल्कि उनका विनाश होता है! पीड़ा तो इसकी आधी भी नहीं है। जो तुम अपनी आँखों के सामने देखते हो वो पीड़ा, नकारात्मकता, और दुर्बलता है, और यह विरोध और शिकायतें हैं—ये चीज़ें क्या परिणाम लेकर आएँगी? सर्वनाश! यह कोई तुच्छ बात नहीं और यह कोई खिलवाड़ नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्‍ट स्‍वभाव केवल सत्य स्वीकार करके ही दूर किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैं हमेशा अगुआ या कार्यकर्ता का कर्तव्य निभाना चाहती थी और दूसरों से प्रशंसा और सम्मान पाने के पीछे भागती थी क्योंकि मैं प्रतिष्ठा और रुतबे की अपनी इच्छा से नियंत्रित थी। “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है,” “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है,” “सबसे महान इंसान बनने के लिए व्यक्ति को सबसे बड़ी कठिनाइयाँ सहनी होंगी” और इस तरह के अन्य शैतानी जहरों का पालन कर मैं प्रसिद्धि और प्रमुखता और श्रेष्ठता की खोज को सकारात्मक चीजें मानने की भूल कर बैठी थी, मानने लगी थी कि इस तरह से जीना मूल्यवान है और यह सोचती थी कि दूसरों की नजरों में नीचे गिरने का अर्थ है बिना सफलता के जीना और हीन होना। मैंने शादी के बाद के समय पर विचार किया। भले ही हम पति-पत्नी के पास टिकाऊ नौकरियाँ थीं और जीवन ठीक से चल रहा था, लेकिन मैं महत्वाकाँक्षी थी और साधारण जीवन जीने के लिए तैयार नहीं थी। मैं अपना जीवन बेहतर बनाना चाहती थी और रिश्तेदारों और सहकर्मियों से तारीफ पाना चाहती थी। यह हासिल करने के लिए मैंने और मेरे पति ने अपनी नियमित नौकरियों के साथ-साथ दूसरी नौकरियाँ भी कीं, मुर्गियाँ पालीं और सब्जियाँ उगाईं और हम हर दिन सुबह से शाम तक काम करते थे। जैसे-जैसे समय बीतता गया, हमारे जीवन में सुधार हुआ और रिश्तेदारों और सहकर्मियों ने मेरी क्षमताओं की प्रशंसा की, जिससे मुझे बहुत खुशी हुई और मुझे लगा कि मेरा जीवन व्यर्थ नहीं गया। कलीसिया में आने के बाद भी मैं प्रतिष्ठा और श्रेष्ठता खोजती रही, मानती रही कि अगुआ और कार्यकर्ता या टीम पर्यवेक्षक होने से भाई और बहन मेरी प्रशंसा करेंगे। जब मेरी प्रतिष्ठा, लाभ और रुतबे की इच्छा पूरी हो जाती थी तो मैं किसी भी मुश्किल को सहन कर सकती थी, लेकिन जब सामान्य मामले सँभालने या दूसरों की मेजबानी करने जैसे कर्तव्यों को निभाने की बात आई तो मुझे लगा कि ये मेरे स्तर से नीचे के हैं और मेरा दिल प्रतिरोध और शिकायतों से भर जाता था और मैं समर्पण नहीं कर पाती थी। मैं यह नहीं सोचती थी कि कलीसिया के काम को कैसे कायम रखा जाए और परमेश्वर का विरोध करने का शैतानी स्वभाव प्रकट करती थी। यह एहसास होने पर मुझे बहुत डर लगा और मैं परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करने लगी, “हे परमेश्वर, अनुसरण के बारे में मेरे विचार गलत हैं और तुम पर विश्वास करने के इन वर्षों में मैं सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर नहीं चल रही हूँ, बल्कि अपने कर्तव्यों का इस्तेमाल प्रतिष्ठा और रुतबे की अपनी इच्छा को संतुष्ट करने के लिए कर रही हूँ और एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य ईमानदारी से नहीं निभा रही हूँ। परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हूँ और तुमसे मार्गदर्शन माँगती हूँ ताकि सत्य को समझ लूँ और अनुसरण के बारे में अपने गलत विचारों को सुधार लूँ।” इसके बाद मैंने आत्म-चिंतन किया और मुझे एहसास हुआ कि यह कर्तव्य करना मेरे जीवन प्रवेश के लिए लाभदायक था। भले ही मैंने कई वर्षों तक अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में सेवा की थी, मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया था और मेरे बहुत से भ्रामक विचार जस के तस रहे। एक अलग कर्तव्य में तबादला होने से मुझे आत्म-चिंतन करने और खुद को जानने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिसमें मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम और उद्धार निहित था। यह समझकर मुझे पछतावा और अपराध बोध हुआ और मैं बस यही चाहती थी कि परमेश्वर मेरे लिए अपनी इच्छानुसार आयोजन करे और किसी भी कर्तव्य को खोज और समर्पण के हृदय से ईमानदारी से निभाएँ।

बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “सत्य के सामने हर कोई बराबर है और परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाने वालों के लिए उम्र या नीचता और कुलीनता का कोई भेद नहीं है। अपने कर्तव्य के सामने हर कोई बराबर है, वे बस अलग-अलग काम करते हैं। वरिष्ठता के आधार पर उनके बीच कोई भेद नहीं है। सत्य के सामने सबको विनम्र, आज्ञाकारी और स्वीकारने वाला दिल रखना चाहिए। लोगों में यही सूझ-बूझ और रवैया होना चाहिए(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ))। “आखिरकार, लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर नहीं है कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाते हैं, बल्कि इस बात पर निर्भर है कि वे सत्य को समझ और हासिल कर सकते हैं या नहीं, और अंत में, वे पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं या नहीं, खुद को उसके आयोजन की दया पर छोड़ सकते हैं या नहीं, अपने भविष्य और नियति पर कोई ध्यान न देकर एक योग्य सृजित प्राणी बन सकते हैं या नहीं। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है, और ये वे मानक हैं जिनका उपयोग वह पूरी मानवजाति को मापने के लिए करता है। ये मानक अपरिवर्तनीय हैं, और यह तुम्हें याद रखना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव देखा। परमेश्वर की नजरों में हम सभी सृजित प्राणी हैं और एक समान हैं। परमेश्वर किसी को सिर्फ इसलिए तरजीह नहीं देता क्योंकि वह अगुआ है या किसी को इसलिए नीची नजरों से नहीं देखता क्योंकि वह सामान्य मामले सँभालता है। परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है, हर व्यक्ति के लिए प्रावधान करता है और जब तक लोग सत्य के लिए प्यासे हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, तब तक सभी के पास उद्धार का समान अवसर हैं। परमेश्वर किसी व्यक्ति का परिणाम इस आधार पर निर्धारित नहीं करता कि वह किस प्रकार का कर्तव्य निभा रहा है, बल्कि उसके सार और उसके द्वारा अपनाए गए मार्ग के अनुसार निर्धारित करता है। अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं करता और उसका स्वभाव नहीं बदलता, तो भले ही वह अगुआ और कार्यकर्ता क्यों न हो, उसे आखिरकार हटा दिया जाएगा। इस बिंदु पर मैंने यह भी समझा कि चाहे मेरा रुतबा कितना भी ऊँचा क्यों न हो या कितने ही लोग मेरी प्रशंसा क्यों न करें, ये चीजें मुझे बचा नहीं सकती। सिर्फ सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के इरादे के अनुसार स्वभाव में परिवर्तन की कोशिश करने से ही उद्धार का अवसर मिलता है। इन बातों को समझकर मुझे अपने दिल में मुक्ति महसूस हुई और तब से मैंने सिर्फ यह चाहा कि अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाऊँ और परमेश्वर के प्रति अपने ऋण की भरपाई करूँ। इसके बाद अपना कर्तव्य निभाते समय मैंने अब इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि भाई-बहन मुझे कैसे देखते हैं, बल्कि इस बारे में सोचा कि घर की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाए और भाई-बहनों की अच्छी तरह से मेजबानी कैसे की जाए ताकि वे शांति से अपने कर्तव्य निभा सकें। इसके अलावा मेजबानी का कर्तव्य निभाते समय मैंने अपने विचारों और उन भ्रष्टताओं के बारे में आत्म-चिंतन करने पर ध्यान केंद्रित किया जो लोगों, घटनाओं और चीजों के साथ अपने दैनिक व्यवहार में प्रकट होती हैं और मैंने उन्हें सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों की तलाश की, भक्ति नोट्स लिखने पर ध्यान दिया, और अनुभवात्मक गवाही लेख लिखने का अभ्यास किया और प्रत्येक दिन काफी संतुष्टिदायक रहा। यह परमेश्वर के वचनों की ताड़ना और न्याय है जिसने मेरे भ्रामक विचारों को सही किया और आज मेरे अंदर जो बदलाव आया है वह परमेश्वर के कार्य का नतीजा है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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