39. अहंकार की समस्या का समाधान आसान नहीं है
2020 में हमारी कलीसिया का सुसमाचार कार्य अच्छा नहीं चल रहा था, इसलिए सुसमाचार उपयाजक को बर्खास्त कर इस पद पर मुझे चुन लिया गया। यह समाचार सुनकर मुझे चिंता भी हुई और खुशी भी, मैं मन ही मन सोचने लगा, “भाई-बहनों ने मुझे चुना है तो इसका मतलब मुझमें क्षमता है। मैं बरसों से सुसमाचार फैलाता आ रहा हूँ लेकिन पहले कभी सुसमाचार उपयाजक नहीं रहा। अब आखिरकार मुझे अवसर मिल गया है तो मुझे कड़ी मेहनत करने और सबको अपनी क्षमताएँ दिखाने की जरूरत है।” आगामी दिनों में मैंने सुसमाचार फैलाने में भाई-बहनों के साथ काम किया, पिछले कार्य में हुए विचलनों की लगातार समीक्षा कर इन्हें सुधारा और जो समस्याएँ मेरी समझ में नहीं आती थीं उन पर संगति करने के लिए अक्सर दूसरों को खोजा। कुछ समय बाद सुसमाचार कार्य में काफी सुधार दिखने लगा। अगुआओं ने अच्छा कार्य जारी रखने के लिए हमारा हौसला बढ़ाया और भाई-बहनों ने इस बात के लिए मेरी तारीफ की कि मैं काम निकालने में निपुण और खूब काबिल हूँ। इससे मेरा अहं बहुत तुष्ट हो गया। मैंने मन ही मन सोचा, “यह देखते हुए कि मैंने सुसमाचार कार्य की काया पलट दी है, लगता है मेरी काबिलियत वास्तव में पहले वाले सुसमाचार उपयाजक से कहीं बेहतर है।” इससे मुझे बहुत आत्मसंतुष्टि हुई, मानो मैं कलीसिया के सुसमाचार कार्य की रीढ़ की हड्डी बन गया हूँ और अब मेरे बगैर काम नहीं चलने वाला है। धीरे-धीरे मुझमें अहंकार बढ़ता गया और मैं भाई-बहनों के सुझावों की अनदेखी कर सारे फैसले अपने बलबूते करने लगा। कार्य पर चर्चा करते समय अक्सर सारे लोग फैसलों को मंजूरी दे देते थे लेकिन मेरे पास आकर ये अटक जाते थे। मुझे हमेशा यह लगता था कि मेरे ही विचार सही हैं और मैं इस बार पर जोर देता था कि दूसरों के दृष्टिकोण खारिज कर मेरे अपनाए जाएँ। एक बार हम एक संप्रदाय के पादरी को उपदेश दे रहे थे और जब इस बारे में पहले वाले सुसमाचार उपयाजक को पता चला तो उसने मुझे चेताया कि इस व्यक्ति का अहंकारी स्वभाव है और अपेक्षाकृत विकृत समझ है, इस कारण उसके लिए सच्चा मार्ग स्वीकारना मुश्किल है, इसलिए उसने सुझाव दिया कि मैं पहले दूसरों को उपदेश दूँ। लेकिन मैंने उसकी बात अनसुनी कर दी और सोचा, “यह पादरी बरसों से प्रभु में विश्वास कर रहा है और उसमें कई धार्मिक धारणाएँ हैं, इसलिए अगर वह सत्य को तुरंत स्वीकार नहीं कर सकता तो यह सामान्य बात है। यही नहीं, तुम्हें बर्खास्त किया जा चुका है, जिससे साबित होता है कि इस कर्तव्य में तुम मुझसे कम योग्य थे। अब जबकि सुसमाचार उपयाजक मैं हूँ और मुझे उपदेश देने का अच्छा-खासा अनुभव हो चुका है, इसलिए मुझे विश्वास है कि इस बार मैं सफल रहूँगा!” मेरी उम्मीद के विपरीत, कई दिनों तक संगति करने के बावजूद पादरी के मन में कई धारणाएँ बैठी रहीं। तब अगुआ और सहयोगी भाई-बहनों ने सुझाव दिया, “बेहतर हो कि हम रुककर आगे खोज करें, पहले दूसरे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं को उपदेश दें।” यह सुनकर मैं नाराज हो गया और सोचने लगा, “क्या यह मेरी कार्यक्षमताओं पर शक करना नहीं है? अगर अब मैं दूसरों को उपदेश देने जाऊँ तो क्या अनाड़ी नहीं लगूँगा?” मैंने अगुआ की सलाह भी नहीं मानी और सोचने लगा, “भले ही तुम एक अगुआ हो और मुझसे ज्यादा लंबे समय से अपना कर्तव्य निभा रहे हो, लेकिन पेशेवर कौशल और व्यावहारिक अनुभव के मामले में मैं ही बेहतर हूँ। हो सकता है तुम्हारे सुझाव भी उपयुक्त न हों।” इसलिए मैं पादरी के साथ संगति करता रहा। अंत में पादरी ने न सिर्फ सुसमाचार अस्वीकार कर दिया, बल्कि हमारे लिए अपनी कलीसिया के दरवाजे भी बंद कर दिए और विश्वासियों को सच्चे मार्ग की पड़ताल करने से रोक दिया। मैं दंग रह गया। जब अगुआ ने मुझे उजागर कर मेरी काट-छाँट की तो मैंने बहस करने की हिम्मत नहीं की और आज्ञाकारी बनकर यह मान लिया कि मैं बहुत ही ज्यादा अहंकार में था और यह भी कि मैंने सुसमाचार कार्य में बाधा डाली और गड़बड़ी पैदा कर दी। लेकिन इस पराजय के बाद भी मैं जागा नहीं, अपने अंतर्मन में यही मानता रहा कि यह बस एक छोटी-सी नाकामयाबी है, मैंने अपनी कार्य क्षमताओं पर आत्मचिंतन नहीं किया, इसलिए मैं सिर्फ कुछ दिन ही अपने आपे में रहा और उसके बाद अपने पुराने ढर्रे पर लौट आया, अपने कर्तव्यों में दूसरों के साथ सहयोग नहीं करता था। जब कार्य चर्चा के दौरान दूसरे लोग मेरे सुझाव नहीं मानते थे तो मैं उखड़ा हुआ रहता था और अक्सर चिड़चिड़ापन दिखाता था। कुछ समय बाद हर कोई मुझसे पीड़ित होकर दबा-दबा महसूस करने लगा। हमारे कर्तव्यों के नतीजे भी लगातार बिगड़ने लगे। अगुआ ने मेरे अहंकारी स्वभाव के कारण बार-बार मेरी काट-छाँट की, कठोरता से मेरा गहन-विश्वेषण कर मुझे उजागर किया, लेकिन जब भी मेरी काट-छाँट होती थी तो मैं कुछ समय के लिए ही खुद को नियंत्रण में रख पाता था और समय के साथ मेरी पुरानी आदतें सिर उठाने लगती थीं। बाद में जब अगुआ ने देखा कि मेरा स्वभाव बहुत ही अहंकारी हो गया है, कि मैं अपने कर्तव्य में मनमाने ढंग से कार्य कर रहा हूँ, काट-छाँट स्वीकार नहीं कर रहा हूँ और कलीसिया के कार्य में बाधाएँ पैदा कर रहा हूँ तो उसने मुझे बरखास्त कर दिया।
मुझे बखूबी पता था कि बरखास्त किया जाना मुझे मिलने वाला परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है और मुझे इसे स्वीकारना और मानना चाहिए लेकिन मैं कुछ-कुछ मायूस हो गया। जब मैंने यह सोचा कि पिछले छह महीनों में कई बार काट-छाँट का सामना करने के बावजूद मेरा भ्रष्ट स्वभाव कुछ खास नहीं बदला है तो मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि मैं सत्य का अनुसरण करने वाला इंसान नहीं हूँ और हो सकता है कि मेरा भ्रष्ट स्वभाव कभी भी न बदल पाए। एक दिन खाना खाते समय मुझसे दो भाई टकराए। यह जानकर कि मुझे बर्खास्त किया गया है, उन्होंने मुझे सहारा और मदद देने के लिए अपने अनुभव बताए। उन्होंने कहा कि पहले वे भी अपने कर्तव्यों में अहंकारी, आत्मतुष्ट और स्वेच्छाचारी थे और बर्खास्त होने के बाद ही उन्होंने परमेश्वर के समक्ष आकर आत्मचिंतन किया और अपने भ्रष्ट स्वभाव के सत्य की कुछ समझ हासिल की। उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ, खुद से बहुत घृणा हुई और फिर उन्होंने कभी अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार नहीं जीना चाहा। अपने अनुभवों के जरिए उन्हें एहसास हुआ कि परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, दंड और अनुशासन के बिना वे खुद को न जान पाते या वे परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप न कर पाते। भाइयों की ईमानदार संगति ने मुझे गहरे छू लिया और मैं जानता था कि भाइयों के जरिए परमेश्वर ही मुझे हौसला और मदद दे रहा है। मुझे अब और नकारात्मक नहीं रहना चाहिए। मुझे आत्मचिंतन कर अपने स्वभाव में बदलाव लाने का प्रयास करना था।
उसके बाद से मैंने सचेत होकर परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े और अपने कार्यकलापों और व्यवहार पर आत्मचिंतन किया। मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “कुछ लोग अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए कभी सत्य की तलाश नहीं करते। वे अपनी कल्पनाओं के अनुसार आचरण करते हुए, सिर्फ वही करते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है, वे हमेशा स्वेच्छाचारी और उतावले बने रहते हैं। वे सत्य का अभ्यास करने के मार्ग पर नहीं चलते। ‘स्वेच्छाचारी और उतावला’ होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है, जब तुम्हारा किसी समस्या से सामना हो, तो किसी सोच-विचार या खोज की प्रक्रिया के बगै़र उस तरह का आचरण करना जो तुम्हारे हिसाब से ठीक बैठता हो। किसी और का कहा हुआ कुछ भी तुम्हारे दिल को नहीं छू सकता, न ही तुम्हारे मन को बदल सकता है। यहाँ तक कि सत्य की संगति किए जाने पर भी तुम उसे स्वीकार नहीं कर सकते, तुम अपनी ही राय पर अड़े रहते हो, जब दूसरे लोग कुछ भी सही कहते हैं, तब तुम नहीं सुनते, खुद को ही सही मानते हो और अपने ही विचारों से चिपके रहते हो। भले ही तुम्हारी सोच सही हो, तुम्हें दूसरे लोगों की राय पर भी ध्यान देना चाहिए। और अगर तुम ऐसा बिल्कुल नहीं करते, तो क्या यह अत्यधिक आत्मतुष्ट होना नहीं है? जो लोग अत्यधिक आत्मतुष्ट और मनमाने होते हैं, उनके लिए सत्य को स्वीकारना आसान नहीं होता। अगर तुम कुछ गलत करते हो और दूसरे यह कहते हुए तुम्हारी आलोचना करते हैं, ‘तुम इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहे हो!’ तो तुम जवाब देते हो, ‘भले ही मैं इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहा, फिर भी मैं इसे इसी तरह से करने वाला हूँ,’ और फिर तुम कोई ऐसा कारण ढूँढ़ लेते हो जिससे यह उन्हें सही लगने लगे। अगर वे यह कहते हुए तुम्हें फटकार लगाते हैं, ‘तुम्हारा इस तरह से काम करना व्यवधान है और यह कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाएगा,’ तो न केवल तुम नहीं सुनते, बल्कि बहाने भी बनाते रहते हो : ‘मुझे लगता है कि यही सही तरीका है, इसलिए मैं इसे इसी तरह करने वाला हूँ।’ यह कौन-सा स्वभाव है? (अहंकार।) यह अहंकार है। अहंकारी स्वभाव तुम्हें मनमौजी बनाता है। अगर तुम्हारी प्रकृति अहंकारी है, तो तुम दूसरों की बात न सुनकर स्वेच्छाचारी और उतावले ढंग से व्यवहार करोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “मैं ऐसे कई लोगों को देखता हूँ जो अपने कर्तव्य में थोड़ी प्रतिभा क्या दिखा देते हैं, इसे अपने दिमाग पर हावी हो जाने देते हैं। अपनी कुछ योग्यताएँ दिखाकर वे सोचते हैं कि वे बहुत प्रभावशाली हैं, और फिर वे उन्हीं के सहारे जीवन गुजार देते हैं और उससे ज्यादा कोशिश नहीं करते। दूसरे चाहे जो भी कहें, वे उनकी बात यह सोचकर नहीं सुनते कि उनके पास जो छोटी-छोटी चीजें हैं, वे ही सत्य हैं और वे स्वयं सर्वोच्च हैं। यह कैसा स्वभाव है? यह अहंकारी स्वभाव है। उनमें तर्क की बहुत कमी है। क्या अहंकारी स्वभाव होने पर कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? क्या वह परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है और अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कर सकता है? यह तो और भी मुश्किल है। ... कुछ लोग हमेशा दिखावा करते रहते हैं। दूसरों को यह अप्रिय लगता है, तो वे अहंकारी कहकर उनकी आलोचना करते हैं। परन्तु वे इसे स्वीकार नहीं करते; उन्हें यही लगता है कि वे प्रतिभाशाली और कुशल हैं। यह कैसा स्वभाव है? वे अत्यधिक अहंकारी और दंभी हैं। क्या ऐसे अहंकारी और दंभी लोग सत्य के प्यासे हो सकते हैं? क्या वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? यदि वे कभी स्वयं को जानने में सक्षम नहीं होते, और अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं छोड़ पाते, तो क्या वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हैं? निश्चित रूप से, नहीं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने स्वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे लगा मानो मेरा दिल बिंध गया है। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सच्ची दशा उजागर कर दी। मैं इतना अहंकारी और स्वेच्छाचारी था कि सत्य खोजे बिना ही अपने कर्तव्य निभाता था और अपनी ही कल्पनाओं और प्राथमिकताओं के आधार पर कार्य करते हुए जो जी में आता था वो करता था। सिर्फ इसलिए कि लंबे अरसे से सुसमाचार प्रचार करने के कारण मुझे कुछ अनुभव था और कुछ नतीजे मिल चुके थे, मैं आत्म-संतुष्ट होकर इन्हें व्यक्तिगत पूँजी मानने लगा था, मुझे लगता था कि समूह में सबसे काबिल मैं ही हूँ और मेरा आकलन दूसरों से सटीक होता है, इसलिए मैं अपनी इच्छा के अनुसार मनमाने ढंग से कार्य करता था और दूसरे चाहे कुछ भी कहें, उनका खंडन करने के लिए मेरे पास हमेशा अपना सैद्धांतिक आधार होता था, मानो कि सिर्फ मेरे पास ही कोई विचार होता है, जबकि दूसरे अज्ञानी, विचारहीन तुच्छ लोग हैं। एक सामान्य व्यक्ति के रूप में मेरा विवेक कहाँ चला गया था? उस धार्मिक पादरी को सुसमाचार उपदेश देने के बारे में दोबारा सोचता हूँ तो अगुआ और सहयोगी भाई-बहनों ने मुझे सुझाव दिए थे कि वह व्यक्ति अहंकारी है और उसकी विकृत समझ है, जिस कारण उसके लिए सत्य स्वीकारना मुश्किल है और उन्होंने मुझे सुझाव दिया था कि पहले मुझे दूसरों को उपदेश देने चाहिए। लेकिन मुझे लगता था कि मेरे पास अनुभव है और मैं लोगों का आकलन सटीक ढंग से कर सकता हूँ, इसलिए मैं मनमाने ढंग से कार्य करता रहा। अंत में तथ्यों से साबित हो गया कि मुझमें लोगों का भेद पहचाने की समझ नहीं है और मैं सुसमाचार प्रचार करते हुए सिद्धांतों का पालन नहीं करता हूँ, जिससे कलीसिया के कार्य पर गंभीर असर पड़ा। लेकिन ऐसी स्पष्ट असफलता का सामना होने के बावजूद मैंने ठीक ढंग से आत्मचिंतन नहीं किया और इसे एक क्षणिक गलती माना। मैं इतना जड़ हो चुका था! अब परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं अपनी समस्याएँ ज्यादा स्पष्ट ढंग से समझने लगा था। मेरी असफलता की वजह मेरे अत्यधिक अहंकारी और आत्मतुष्ट होने में है और अपने बारे में अतिशयोक्तिपूर्ण राय होने में है। अगर मुझमें कुछ विवेक और आत्मज्ञान होता और अगर मैं सत्य खोजता, भाई-बहनों के सुझावों पर गौर कर सबके साथ सहयोग करता तो मैं ये गलतियाँ न करता जिन्होंने सुसमाचार कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा की। मैंने इस बारे में जितना ज्यादा सोचा, अपने आप से उतनी ही ज्यादा नफरत करने लगा। मुझमें इतना अति आत्माविश्वास कहाँ से आ गया? मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “क्या ऐसे अहंकारी और दंभी लोग सत्य के प्यासे हो सकते हैं? क्या वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? यदि वे कभी स्वयं को जानने में सक्षम नहीं होते, और अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं छोड़ पाते, तो क्या वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हैं? निश्चित रूप से, नहीं।” मुझे समझ में आने लगा कि एक अहंकारी व्यक्ति सचमुच अपना कर्तव्य नहीं निभा सकता है। चूँकि मेरे दिल में सत्य के लिए ललक नहीं थी, इसलिए परेशानियाँ सामने आने पर मेरे लिए सक्रिय होकर सत्य खोजना असंभव था। भले ही मैं कुछ समय कुछ कार्य कर सकता था, लेकिन अपना शैतानी स्वभाव बदले बिना मैं अनैच्छिक तौर पर परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और परमेश्वर का प्रतिरोध ही कर सकता था। हालाँकि अपने बारे में मेरी समझ उथली थी, फिर भी मैं बहुत आभारी था। इस बात का एहसास मुझे बर्खास्त होने से पहले नहीं हुआ था, मैंने परमेश्वर के प्रबोधन, मार्गदर्शन, दंड और अनुशासन के लिए ईमानदारी से परमेश्वर को धन्यवाद दिया।
इसके बाद के दिनों में मैं अपने कर्तव्य में भाई-बहनों के साथ सहयोग करने और सिद्धांतों में प्रवेश करने पर ज्यादा ध्यान देने लगा। लेकिन समय के साथ अनायास ही मैं फिर से पुरानी समस्याओं से घिरने लगा। खासकर जब मुझे पक्का यकीन होता था कि मैं सही हूँ और भाई-बहन मेरे सुझाव नहीं स्वीकारते थे तो मैं उग्र होकर भड़क जाता था और उनके साथ बहस करने से खुद को रोक नहीं पाता था। मैं हमेशा सबको मेरे अनुसार कार्य करने को मनाना चाहता था और इसमें कामयाब न होने पर नाराज हो जाता था। बाद में मैंने देखा कि दूसरों के दृष्टिकोण सही होते हैं तो मुझे ग्लानि होती थी। भ्रष्ट स्वभाव के बंधन में लगातार जीने से मैं बहुत व्यथित हो गया था। इस बारे में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर प्रबोधन और मार्गदर्शन माँगा। बाद में मुझे परमेश्वर के ऐसे वचन खाने-पीने के लिए मिल गए जो मानवीय अहंकार की प्रकृति उजागर करते हैं। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अहंकारी और दंभी होना इंसान का सबसे प्रत्यक्ष शैतानी स्वभाव है, और अगर लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते, तो उनके पास इसे साफ करने का कोई मार्ग नहीं होगा। सभी लोगों का स्वभाव अहंकारी और दंभी होता है, और वे हमेशा घमंडी होते हैं। वे जो भी सोचें या कहें, चीजों को कैसे भी देखें, वे हमेशा सोचते हैं कि उनका नजरिया और उनका रवैया ही सही है, और दूसरों का कहा उनके जैसा ठीक या उतना सही नहीं है। वे हमेशा अपनी ही राय से चिपके रहते हैं, और बोलने वाला इंसान जो भी हो, वे उसकी बात नहीं सुनते। किसी और की बात सही हो, या सत्य के अनुरूप हो, तो भी वे उसे स्वीकार नहीं करेंगे; वे सुनने का सिर्फ दिखावा करेंगे, मगर वे उस विचार को सच में नहीं अपनाएँगे, और कार्य करने का समय आने पर भी वे अपने ही ढंग से काम करेंगे, हमेशा यह सोचते हुए कि जो वे कहते हैं वही सही और वाजिब है। संभव है तुम जो कहो, वह सचमुच सही और वाजिब हो, या तुम्हारा किया सही और त्रुटिहीन हो, मगर तुमने कैसा स्वभाव प्रदर्शित किया है? क्या यह अहंकारी और दंभी स्वभाव नहीं है? अगर तुम इस अहंकारी और दंभी स्वभाव को नहीं छोड़ते, तो क्या इससे तुम्हारे कर्तव्य निर्वाह पर असर नहीं पड़ेगा? क्या इससे सत्य का तुम्हारा अभ्यास प्रभावित नहीं होगा? अगर तुम अपने अहंकारी और दंभी स्वभाव को ठीक नहीं कर लेते, तो क्या इससे भविष्य में गंभीर रुकावटें पैदा नहीं होंगी? यकीनन रुकावटें आएंगी, यह होकर ही रहेगा। बोलो, क्या परमेश्वर इंसान के इस बर्ताव को देख सकता है? परमेश्वर यह देखने में बहुत समर्थ है! परमेश्वर न सिर्फ लोगों के दिलों की गहराई जाँचता है, वह हर जगह हमेशा उनकी हर कथनी और करनी का निरीक्षण करता है। तुम्हारा यह व्यवहार देखकर परमेश्वर क्या कहेगा? परमेश्वर कहेगा : ‘तुम दुराग्रही हो! जब यह न पता हो कि तुम गलत हो तो तुम्हारा अपने विचारों से चिपके रहना तो समझ आता है, मगर जब तुम्हें साफ पता है कि तुम गलत हो फिर भी तुम अपने विचारों से चिपके रहते हो और प्रायश्चित्त करने से पहले मरना पसंद करोगे, तो तुम निरे जिद्दी बेवकूफ हो, और मुसीबत में हो। सुझाव कोई भी दे, अगर तुम इसके प्रति हमेशा नकारात्मक, प्रतिरोधी रवैया अपनाकर सत्य को लेशमात्र भी स्वीकार नहीं करते, और तुम्हारा दिल पूरी तरह प्रतिरोधी, बंद और चीजों का नकारने के भाव से भरा है, तो तुम हँसी के पात्र हो, बेहूदा हो! तुमसे निपटना बहुत मुश्किल है।’ तुमसे निपटना मुश्किल क्यों है? तुमसे निपटना इसलिए मुश्किल है, क्योंकि तुम जो प्रदर्शित कर रहे हो वह एक त्रुटिपूर्ण रवैया या त्रुटिपूर्ण व्यवहार नहीं है, बल्कि तुम्हारे स्वभाव का खुलासा है। किस स्वभाव का खुलासा? उस स्वभाव का जिसमें तुम सत्य से विमुख हो, सत्य से घृणा करते हो। जब एक बार तुम्हें उस व्यक्ति के रूप में पहचान लिया गया जो सत्य से घृणा करता है, तो परमेश्वर की नजरों में तुम मुसीबत में हो, और वह तुम्हें ठुकरा देगा और अनदेखा करेगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे लगा मानो मेरा दिल बींध दिया गया हो, मैंने देखा कि मैं बिल्कुल वैसा ही जिद्दी, दुराग्रही और अहंकारी इंसान हूँ जैसा परमेश्वर ने बताया है। सामान्य विवेक युक्त व्यक्ति कुछ बार नाकाम और उजागर होने के बाद ज्यादा संयमित हो जाएगा, समस्याएँ सामने आने पर वह ज्यादा सोच-विचार और खोज करेगा, अपनी ही राय पर बहुत ज्यादा जोर देने का साहस नहीं करेगा। लेकिन एक अहंकारी, आत्मतुष्ट और अविवेकी व्यक्ति चाहे कितनी ही नाकामियों का सामना कर ले, ये चीजें उसके दिल में नहीं उतरेंगी और उसे अंदर से यही महसूस होगा कि वह सही है। दूसरों की राय सुनने के लिए वह अपना अहं नहीं छोड़ सकता है और भले ही वह जानता हो कि दूसरे सही हैं, तब भी वह अपने ही विचारों से चिपका रहता है। मैं बिल्कुल इसी तरह का इंसान था। सुसमाचार उपयाजक के रूप में अपने कार्यकाल के बारे में सोचता हूँ तो अगर मैं किसी चीज को लेकर सुनिश्चित होता था तो मेरे विचारों को कोई टस से मस नहीं कर सकता था और अगर मैं यह मान भी लेता था कि दूसरे सही हैं तो भी मेरे लिए तुरंत समर्पण करना कठिन होता था। मैं हमेशा यह सोचता था, “तुम सही कह रहे हो मगर मैं ज्यादा सही हूँ। मेरी सूझ-बूझ तुमसे ज्यादा ठोस है और मेरे विचार ज्यादा सटीक और गहन हैं। मैं तुम्हारी बात क्यों सुनूँ?” इसलिए मैं अक्सर हर किसी के साथ अड़ियल होकर बहस करता था; यह परवाह नहीं करता था कि दूसरे लोग सही हैं या गलत, जब तक उनकी बात मेरी इच्छाओं से मेल नहीं खाती थी, मैं उसे स्वीकार नहीं सकता था। क्या मैं खुद को ही केंद्र में नहीं रखता था? मैं हमेशा यह चाहता था कि लोग मेरे सामने समर्पण करें और मेरी सुनें और मैं खुद को उच्च और महान मानता था। क्या मैं अपने ही दृष्टिकोणों को सत्य नहीं मान रहा था? पहले मैं सिर्फ यह मानता था कि मैं सत्य से प्रेम या इसका अनुसरण नहीं करता हूँ, लेकिन अब परमेश्वर के ये वचन पढ़ने के बाद कि लोग किस प्रकार हमेशा जिद्दी, दुराग्रही और अहंकारी होते हैं और किसी दूसरे की बातें नहीं स्वीकारते हैं, मैं यह जान गया कि ऐसे लोग सत्य विमुख होते हैं। इस क्षण मैंने जाना कि मेरी समस्या वास्तव में बहुत गंभीर है। भाई-बहनों ने मुझे जो सुझाव दिए थे वे परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति दायित्व-बोध से उपजे थे और अगर मैं उन्हें वास्तव में स्वीकार लेता और सबके साथ मिलकर सत्य खोज लेता तो यह मेरे लिए भी फायदेमंद होता और कलीसिया के कार्य के लिए भी। लेकिन मैं सही-गलत का फर्क नहीं जानता था, इसलिए मैंने न सिर्फ ये चीजें स्वीकार नहीं कीं, बल्कि अपनी ही सत्यता पर जोर दिया और सबको बाध्य किया कि वे मेरी बात सुनें, मानो दूसरों के सुझाव स्वीकारने से मैं अक्षम, अज्ञानी और कमतर दिखूँगा। मैंने जाना कि मैं कतई सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता था या सत्य नहीं स्वीकारता था। इस तरह अपने विचारों से ही चिपके रहने के कारण मैं दूसरों के साथ सहयोग नहीं कर पाया। तो क्या आखिरकार परमेश्वर मुझे हटा नहीं देगा और हर कोई ठुकरा नहीं देगा?
इसके बाद मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े : “ऐसा हो सकता है कि तुम अपने पेशे के बारे में सबसे अधिक जानकार हो और कौशल में सबसे आगे हो, लेकिन यह खूबी तुम्हें परमेश्वर ने दी है, तो तुम्हें इसका उपयोग अपने कर्तव्य को निभाने और अपनी खूबियों के सही इस्तेमाल में करना चाहिए। चाहे तुम कितने भी कुशल या प्रतिभाशाली क्यों न हो, तुम अकेले काम नहीं कर सकते; किसी कर्तव्य को सबसे अधिक प्रभावी ढंग से तभी किया जाता है जब हर कोई उस पेशे के कौशल और ज्ञान को समझने में सक्षम हो। जैसे कि कहावत है, एक सक्षम इंसान को तीन अन्य लोगों का सहारा चाहिए होता है। कोई व्यक्ति कितना भी काबिल क्यों न हो, एक-दूसरे की मदद के बिना वह काफी नहीं होता। इसलिए किसी को भी अहंकारी नहीं होना चाहिए और किसी को भी खुद ही काम करने या फैसले लेने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। लोगों को दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करना चाहिए, अपने विचारों और मतों को किनारे रखकर सबके साथ मिलकर सामंजस्य में काम करना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि हमारा हर व्यक्तिगत अनुभव, समझ और अंतर्दृष्टि बहुत सीमित होती है। परमेश्वर चाहता है कि हम अपने उस हिस्से को सामने लाएँ जो हममें है, न कि हम ऐसा श्रेष्ठ या पूर्ण व्यक्ति बनने का अनुसरण करें जो सारे कार्य का जिम्मा खुद ले। कोई व्यक्ति चाहे कितना भी सक्षम हो, उसकी योग्यताएँ सीमित ही रहेंगी और कभी-कभी उसके अपने तरीके से काम करने की और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा करने की संभावना हो सकती है। भाई-बहन जब एक ही दिल और दिमाग से एकजुट होकर सामंजस्यपूर्ण सहयोग करेंगे, सत्य खोजने और पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन पाने के लिए एकजुट होकर परमेश्वर पर भरोसा करेंगे, हर कोई अपनी खूबियों को सामने लाएगा, केवल तभी कर्तव्यों में बेहतर नतीजे निकलेंगे। इन चीजों का एहसास होने के बाद मैंने दूसरों की राय पर ज्यादा ध्यान देना और उनकी खूबियों से सीखना शुरू किया। जब मैंने अपनी मानसिकता बदली तो मैंने देखा कि मेरे आसपास के भाई-बहनों में ऐसी खूबियाँ थीं जो मुझमें नहीं थीं। कुछ भाई-बहन समस्याओं का सामना होने पर परमेश्वर के इरादे को समझने और सत्य खोजने पर ध्यान देते हैं और अच्छी-बुरी दोनों ही स्थितियों से सबक सीखते हैं; कुछ अपने कर्तव्यों में ईमानदार और जिम्मेदार होते हैं और सिद्धांतों पर मेहनत करने पर ध्यान देते हैं; कुछ की काबिलियत औसत हो सकती है लेकिन वे विनम्र होते हैं और दूसरों से सीखने को तैयार रहते हैं, वे दूसरों से मार्गदर्शन और मदद लेने में सक्षम रहते हैं, इसलिए वे समय के साथ प्रगति कर सकते हैं। इसके विपरीत, भले ही मुझमें कुछ खूबियाँ और काबिलियत थी लेकिन समस्याएँ आने पर मैं परमेश्वर से प्रार्थना करने या सत्य सिद्धांत खोजने पर ध्यान नहीं देता था, मैं सिर्फ अपने कार्य में प्रयास करने पर ध्यान देता था। मैं सही-गलत का विश्लेषण करने के लिए अपनी ही मेधा और ज्ञान पर भरोसा करता था, खूबियों और काबिलियत के आधार पर कार्य करता था, इसलिए मैं शायद ही कभी परमेश्वर के मार्गदर्शन को देख पाया। अपनी खूबियों पर भरोसा करके मैंने धर्मप्रचार के दौरान कुछ लोगों को हासिल किया लेकिन मैंने परमेश्वर की महिमा नहीं गाई। इसके बजाय मैंने अपने ही सिर पर मुकुट सजा दिया, यह सोचा कि इसका सारा श्रेय मेरी अपनी ही योग्यताओं और काबिलियत को जाता है। लिहाजा मेरा स्वभाव अहंकारी होता गया, मैं दूसरों की तौहीन करता था और मैंने अपने दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं रखी। मैं हर दिन व्यस्त दिखता था लेकिन मुझे अपने ही भ्रष्ट स्वभाव की कोई समझ नहीं थी और मैंने जीवन प्रवेश में कोई प्रगति नहीं की, इसलिए आखिरकार मैं अपने कर्तव्यों में परमेश्वर का आशीष और मार्गदर्शन गँवा बैठा। मैंने देख लिया कि सत्य के प्रति समर्पण न करने और हमेशा अहंकारी और जिद्दी बने रहने का कितना बड़ा नुकसान होता है!
कुछ दिन बाद मुझे परमेश्वर की संगति का एक अंश मिला और इसने मेरे दिल में चीजों को और भी स्पष्ट कर दिया। परमेश्वर कहता है : “लोगों को सतत जीवन वृद्धि हासिल करने और अपने जीवन स्वभाव में बदलाव हासिल करने के लिए अपने कर्तव्य निभाते हुए न्याय, ताड़ना और काट-छाँट का अनुभव जरूर करना चाहिए; जब वे खुद को वास्तव में जानने के मुकाम पर पहुँच जाते हैं तो उनमें बदलाव आने लगता है। इसका अनुभव खास तौर से कैसे होता है? ऐसा सबसे पहले यह अपने साथ घटने वाली हर चीज के प्रति समर्पण की मानसिकता रखने से होता है। समर्पण की मानसिकता होना पहली बाधा है जिसे पार करना होता है और पहली शर्त है जो लोगों को पूरी करनी चाहिए। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। ... हालाँकि लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं लेकिन सत्य के बारे में उनकी समझ बहुत ही उथली होती है और उन्हें अभी भी यह एहसास नहीं होता कि जब वे परमेश्वर के समक्ष आते हैं तो उन्हें अपने स्थान का पता जरूर होना चाहिए। अपना स्थान पता होने का निहितार्थ क्या है? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितने महत्वपूर्ण व्यक्ति हो, तुम्हारा पद कितना ऊँचा है या तुम्हारी क्षमताएँ कितनी महान हैं, अगर तुम एक सृजित प्राणी हो तो परमेश्वर के समक्ष आते समय पहला नियम है परमेश्वर के प्रति समर्पण करना, सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण करना। कुछ लोग कहते हैं, ‘मैं पहले बहुत बड़ी खूबियाँ हासिल कर चुका हूँ।’ तो क्या तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए? भले ही तुम बहुत बड़ी खूबियाँ हासिल कर चुके हो, तो भी तुम एक सृजित प्राणी ही हो। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। तुम्हारी प्राथमिक जिम्मेदारी परमेश्वर के प्रति समर्पण करना है। परमेश्वर जो भी कहे, तुम्हें पूरी तरह समर्पण करना चाहिए, तुम्हारी अपनी पसंद नहीं होनी चाहिए। क्या यह सर्वोच्च सत्य है? यह सर्वोच्च सत्य है और सबसे बुनियादी सत्य भी है। लेकिन परमेश्वर में दस-बीस साल विश्वास रखने के बावजूद अधिकतर लोग अभी भी परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के इस बुनियादी सत्य को नहीं समझते हैं। यहाँ क्या समस्या है? अगर लोग यह भी नहीं समझते कि परमेश्वर में विश्वास रखने का सबसे महत्वपूर्ण सत्य परमेश्वर के प्रति समर्पण करना है तो भला वे कौन-सा सत्य समझ सकते हैं? तुम जानते हो कि सृष्टिकर्ता कौन है और तुम उसके समक्ष आने को तैयार हो, लेकिन तुम यह नहीं जानते कि परमेश्वर के प्रति समर्पण करना तुम्हारी जिम्मेदारी, तुम्हारा दायित्व और तुम्हारा कर्तव्य है, यह वह विवेक और सहज-ज्ञान है जो एक मनुष्य होने के नाते तुममें होना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखने का सबसे बुनियादी सत्य भी नहीं समझते हो तो क्या तुम्हारा यह कहना सिर्फ कोरी बात नहीं हैं कि तुम सत्य समझते हो? तुम जो कुछ समझते हो वह सब खोखला धर्म-सिद्धांत है; इसी कारण तुम परमेश्वर की पड़ताल करने, परमेश्वर को लेकर धारणाएँ और गलतफहमियाँ रखने, परमेश्वर के प्रति शंकालु रहने, उसकी आलोचना करने, उससे बहस करने और उसका विरोध करने में सक्षम रहते हो—भ्रष्टता के ये खुलासे और परमेश्वर का प्रतिरोध करने के कार्यकलाप सब उभरकर आ जाते हैं। अगर लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का सत्य नहीं समझते हैं तो उनके द्वारा प्रकट किए जा रहे विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं हो सकता है” (परमेश्वर की संगति)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैं बहुत द्रवित हो गया। हकीकत में, हर दिन जो लोग, घटनाएँ और चीजें हमारी इच्छाओं के अनुरूप नहीं होती हैं—इनमें भाई-बहनों के भिन्न दृष्टिकोण और सुझाव, काट-छाँट, आलोचना और डाँट-डपट होना साथ ही हमारे कर्तव्यों में कठिनाइयाँ, पराजय और विफलताएँ शामिल होंगे, तो क्या ये सभी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन नहीं होंगे? एक विश्वासी के रूप में समस्याएँ सामने आने पर मुझे जो पहला काम करना चाहिए वह है इन चीजों से सबक सीखने के लिए समर्पण करना और सत्य खोजना। लेकिन मैंने अपनी इच्छाओं के अनुरूप न होने वाली इन चीजों को परेशानियाँ और बाधाएँ माना और मेरी शुरुआती भावनाएँ प्रतिरोध, अधीरता और स्वीकार करने की अनिच्छा वाली थीं और मैंने यह विचार नहीं किया कि दूसरे लोग मेरे विचारों का अनुमोदन क्यों नहीं करते हैं या मेरे विचार सत्य के अनुरूप हैं भी या नहीं। भले ही मैंने समय-समय पर दूसरों के सुझाव अनिच्छा से स्वीकार कर लिए हों, फिर भी मुझे यही लगता था कि मानो मेरा गला घोंटा जा रहा है और मेरे पास कोई दूसरा चारा नहीं है, मुझमें समर्पण का सबसे बुनियादी रवैया भी नहीं होता था। अपने कर्तव्यों में मैंने हमेशा अपने अहंकारी स्वभाव के आधार पर कार्य किया, मनमाने ढंग से कार्य कर अपने ही दम पर फैसले किए, अपने दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी और उसके प्रति कतई कोई समर्पण नहीं किया। मैं किसी अविश्वासी से अलग कैसे था? मुझे हर मामले में परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण करना सीखने की जरूरत थी और समर्पण की प्रक्रिया में अपने ही इरादों को परे रखने की जरूरत थी ताकि मेरा अहंकारी स्वभाव बदल सके।
बाद में भाई-बहनों के साथ कार्य करते समय मैंने सचेत होकर परमेश्वर के प्रति समर्पण के सत्य में प्रवेश करने और दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग करने पर ध्यान दिया और जब समस्याएँ सामने आईं तो वे चाहे मेरी इच्छाओं के अनुरूप हों या न हों, मैंने उन्हें पहले परमेश्वर से स्वीकार करने और समर्पण भाव कायम रखने का अभ्यास किया। मैंने भाई-बहनों के सुझावों पर जल्दबाजी में राय कायम करना बंद कर दिया और मैं सबके साथ चर्चा और खोज करता था। कार्य पर चर्चा करते समय अगर मैंने यह देखा कि भाई-बहनों के सुझाव मेरे अपने विचारों के अनुरूप नहीं हैं तो भले ही मैं परेशान हो जाता था, लेकिन परमेश्वर से प्रार्थना कर और पहले खुद को समर्पण की स्थिति में रखने की विनती कर मैं उनके सुझावों में गुणदोष देखता था। भले ही सुझाव अभी सटीक या विशिष्ट नहीं होते थे, फिर भी हम विषय पर चर्चा और संगति करते रहते थे और चूँकि हर कोई बारी-बारी से संगति करता था, इसलिए मेरा दिल स्पष्ट होता गया। मैंने यह अनुभव किया कि हर चीज में सत्य के प्रति समर्पण करने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करने से वास्तव में व्यक्ति को परमेश्वर का मार्गदर्शन और कर्म दिखाई देता है और यह अभ्यास दिल में आभा और आनंद लेकर आता है और दूसरों की खूबियों से सीखने में भी मदद करता है। यह मेरी पुरानी हठधर्मिता और आत्मतुष्टता से बहुत अलग था। इस छोटे-से बदलाव ने मुझे आस्था प्रदान की है और मैं अब अपने बारे में फैसला नहीं सुनाता हूँ। मैं मानता हूँ कि अगर मैं सत्य के लिए कीमत चुकाने और प्रयास करने के लिए तैयार हूँ तो मेरा भ्रष्ट स्वभाव अवश्य ही बदलेगा। परमेश्वर के उद्धार के लिए धन्यवाद!