38. मैं शांति से अपना कर्तव्य क्यों स्वीकार नहीं कर पाई

सोंग चुयिंग, चीन

मार्च 2023 के अंत में अगुआओं ने मुझे कलीसिया के सफाई कार्य की निगरानी करने के लिए कहा। जब उन्होंने मुझे यह बताया तो मैं बहुत दबाव में आ गई और मैंने सोचा, “सत्य के बारे में मेरी समझ उथली है और मुझे भेद की पहचान नहीं है। अगर मैं असली काम न कर पाई तो मुझे जल्द ही बरखास्त किया जा सकता है। यह बहुत शर्मनाक होगा! टीम का सदस्य होने से जिम्मेदारी कम होती है और चीजों की समीक्षा करने के लिए एक पर्यवेक्षक होता है, तो गलतियाँ करने की संभावना कम होती है। अगर मैं पर्यवेक्षक बन गई तो काम का बोझ बढ़ जाएगा और जैसे ही मैंने कोई गलती की तो इससे काम में देरी हो जाएगी या इससे भी बदतर, यह गलत आरोप और दंड का कारण बन सकता है। यह एक गंभीर अपराध होगा! कर्तव्य का पालन अच्छे कर्मों की तैयारी का एक तरीका होता है, लेकिन अगर मैंने बहुत अधिक अपराध किए तो मुझे बरखास्त और शर्मिंदा होकर आसानी से छुटकारा मिल जाएगा और बदतर मामलों में मुझे कलीसिया से भी निकाला जा सकता है। क्या तब भी मेरा परिणाम और गंतव्य अच्छा होगा?” इसे ध्यान में रखकर मैंने यह कहकर इस भूमिका को अस्वीकार करने के बहाने बनाए कि मेरा जीवन प्रवेश उथला था और मैं इस कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं थी। अगुआ ने अधिक कुछ नहीं कहा पर मुझे खोज जारी रखने को कहा। उसके बाद के दिनों में जब भी मैं अगुआ के शब्दों के बारे में सोचती थी तो मुझे बोझ महसूस होता था। बस ऐसा हुआ कि उस दौरान मुझे किसी के व्यवहार का आकलन करने में समस्या हुई। मैंने केवल उसके बुरे कार्यों के गंभीर परिणाम ही देखे थे और उसे बुरा व्यक्ति मान लिया था। मैंने उसके प्रकृति सार या निरंतर व्यवहार की जाँच नहीं की थी। बाद में जाकर मुझे एहसास हुआ कि हालाँकि उसने कुछ कुकर्म किए थे, लेकिन वह बुरी इंसान नहीं थी। इस घटना ने मेरे दिल पर और बोझ का एहसास कराया। मेरी इस गलती ने किसी को लगभग नुकसान पहुँचा ही दिया था और स्वच्छता के कार्य को बाधित कर दिया था। भेद पहचान को लेकर मुझमें वास्तव में कमी थी। अगर मैं एक पर्यवेक्षक बनी और फिर से गलतियाँ कीं तो क्या मैं और अधिक अपराध नहीं कर डालूँगी? फिर मैंने बहन लिन फैंग के बारे में सोचा, वह पर्यवेक्षक जिसे अभी-अभी बरखास्त किया गया था क्योंकि उसने असली कार्य नहीं किया था और काम के निरीक्षण और उन्हें संयमित करने में विफल रही थी। उसके पहले आए दो पर्यवेक्षकों को कलीसिया से निकाल दिया गया था क्योंकि उन्होंने बहुत सारे बुरे कर्म किए थे। इससे मुझे और भी मजबूती से लगा था कि पर्यवेक्षक बनना बहुत जोखिम भरा था और अगर मैंने ठीक से काम न किया तो मुझे बस जल्दी ही बरखास्त कर दिया जाएगा या हटा दिया जाएगा। टीम का सदस्य बनकर रहना अधिक सुरक्षित लगता था। लेकिन सीधे तौर पर कर्तव्य से इनकार करना भी उचित नहीं था, इसलिए मैं दुविधा में थी। अगले कुछ दिनों तक मैं इन चीजों के बारे में सोचती रही, मुझे लगा कि मैं बहुत दबाव में थी और मेरी दशा पर असर पड़ा था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे मार्गदर्शन माँगा।

अपनी एक भक्ति के दौरान मैंने एक अनुभवात्मक गवाही लेख पढ़ा, जिसमें नायक बहाने बनाकर कर्तव्य से इनकार करता रहा क्योंकि वह अपने अभिमान और हितों के बारे में सोच रहा था, लेकिन बाद में उसे एहसास हुआ कि कर्तव्य परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के साथ आते हैं और परमेश्वर कर्तव्य के प्रति उसका रवैया देखता है और पहले उसे समर्पण करने की जरूरत है। मुझे भी पहले परमेश्वर के प्रति समर्पण के सत्य में प्रवेश करना चाहिए था। इसलिए मैंने परमेश्वर के वचन का एक प्रासंगिक अंश देखा। मैंने पढ़ा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जब नूह ने वैसा किया जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था, तो वह नहीं जानता था कि परमेश्वर के इरादे क्या थे। उसे नहीं पता था कि परमेश्वर कौनसा कार्य पूरा करना चाहता था। परमेश्वर ने नूह को सिर्फ एक आज्ञा दी थी और अधिक स्पष्टीकरण के बिना उसे कुछ करने का निर्देश दिया था, नूह ने आगे बढ़कर इसे कर दिया। उसने गुप्त रूप से परमेश्वर की इच्छाओं को जानने की कोशिश नहीं की, न ही उसने परमेश्वर का विरोध किया या निष्ठाहीनता दिखाई। वह बस गया और एक शुद्ध एवं सरल हृदय के साथ इसे तदनुसार कर डाला। परमेश्वर उससे जो कुछ भी करवाना चाहता था, उसने किया और इस काम में परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण कर इन्हें सुनने में विश्वास उसका सहारा बना। इस प्रकार जो कुछ परमेश्वर ने उसे सौंपा था, उसने ईमानदारी एवं सरलता से उसे निपटाया था। समर्पण ही उसका सार था, उसके कार्यों का सार था—न कि अपनी अटकलें लगाना या प्रतिरोध करना, न ही अपने निजी हितों और अपने लाभ-हानि के विषय में सोचना था। इसके आगे, जब परमेश्वर ने कहा कि वह जलप्रलय से संसार का नाश करेगा, तो नूह ने नहीं पूछा कब या उसने नहीं पूछा कि चीज़ों का क्या होगा और उसने निश्चित तौर पर परमेश्वर से नहीं पूछा कि वह किस प्रकार संसार को नष्ट करने जा रहा था। उसने बस वैसा ही किया, जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था। हालाँकि परमेश्वर चाहता था कि इसे बनाया जाए और जिससे बनाया जाए, उसने बिल्कुल वैसा ही किया, जैसा परमेश्वर ने उसे कहा था और तुरंत कार्रवाई भी शुरू कर दी। उसने परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा के रवैये के साथ परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार काम किया(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने से मुझे एहसास हुआ कि किसी भी परिस्थिति में समर्पण करने में सक्षम होना ही परमेश्वर की लोगों से अपेक्षा होती है और यही कारण है कि सृजित प्राणियों में यह गुण होना चाहिए। मैंने देखा कि नूह का परमेश्वर के आदेश के प्रति नजरिया शुद्ध हृदय वाला था। उसने बस आज्ञा का पालन किया और समर्पण किया। उसने यह नहीं सोचा कि जहाज बनाने में उसे कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है या अगर यह अच्छी तरह से नहीं किया गया तो उसे कौन सी जिम्मेदारियाँ उठानी पड़ सकती हैं। वह बस परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहता था, परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार जहाज को जितनी जल्दी हो सके बनाना चाहता था, ताकि परमेश्वर की इच्छा कार्यान्वित की जा सके। लेकिन जब मेरे ऊपर एक कर्तव्य आया तो मेरे विचारों में उथल-पुथल मच गई, मैं अपनी कठिनाइयों, अपने भविष्य और अपनी मंजिल के बारे में सोचती रही। मैंने सोचा कि पर्यवेक्षक बनना बहुत जोखिम भरा है और यह मुझे अपराध के लिए उत्तरदायी बना देगा और अगर मैंने बहुत अधिक अपराध किए तो मेरा परिणाम अच्छा नहीं होगा। जब मेरे मन में ये विचार आते थे तो मैंने पाया कि मैं बिल्कुल भी समर्पण नहीं कर पाती थी मैं इस कर्तव्य से बचने के लिए बहाने बनाते रहना चाहती थी। इस बारे में सोचते हुए मुझे वाकई शर्मिंदगी महसूस हुई। मेरा इतने सालों से परमेश्वर पर विश्वास था, लेकिन फिर भी मुझमें बुनियादी समर्पण की कमी थी। मेरे पास सचमुच कोई सत्य वास्तविकताएँ नहीं थीं। मैं इसी तरह नहीं चलती रह सकती थी। हालाँकि मुझे कठिनाइयाँ और चिंताएँ थीं, लेकिन मुझे पहले समर्पण करना था और यह कर्तव्य निभाना था।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और अपनी दशा के बारे में कुछ समझ हासिल की। परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर और उसके द्वारा व्यवस्थित परिवेशों और लोगों, घटनाओं और चीजों और परमेश्वर द्वारा उन्हें प्रकट कर अनुशासित करने इत्यादि के प्रति मसीह-विरोधियों के रवैये से आँकें तो, क्या उनका सत्य खोजने का जरा-सा भी इरादा होता है? क्या उनका परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का जरा-सा भी इरादा होता है? क्या उनमें जरा-सी भी आस्था होती है कि यह सब आकस्मिक नहीं, बल्कि परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है? क्या उनमें यह समझ और जागरूकता होती है? जाहिर है, नहीं होती। कहा जा सकता है कि उनकी सतर्कता की जड़ परमेश्वर के बारे में उनके संदेहों से आती है। परमेश्वर के प्रति उनके संशय की जड़ भी परमेश्वर के बारे में उनके संदेहों से आती कही जा सकती है। उनके द्वारा परमेश्वर की जाँच-पड़ताल से उत्पन्न परिणाम उन्हें परमेश्वर के प्रति और ज्यादा संशयग्रस्त और ज्यादा सतर्क बना देते हैं। मसीह-विरोधियों की सोच से उत्पन्न विभिन्न विचारों, दृष्टिकोणों और साथ ही इन विचारों और दृष्टिकोणों के प्रभुत्व के तहत उत्पन्न विभिन्न नजरियों और व्यवहारों से आँकें तो, ये लोग बहुत ही अविवेकी होते हैं; ये सत्य नहीं समझ सकते, परमेश्वर में वास्तविक आस्था विकसित नहीं कर सकते, परमेश्वर के अस्तित्व पर पूरी तरह से विश्वास कर उसे स्वीकार नहीं सकते, यह मान और स्वीकार नहीं सकते कि परमेश्वर समस्त सृष्टि पर संप्रभुता रखता है, वह हर चीज पर संप्रभुता रखता है। यह सब उनके दुष्ट स्वभाव-सार के कारण होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण पाँच : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि जब चीजें घटित होती हैं तो मसीह-विरोधी परमेश्वर की धार्मिकता पर विश्वास नहीं करते। परमेश्वर का स्वभाव जानने के लिए सत्य की खोज करने के बजाय वे परमेश्वर के कार्य और उसके द्वारा व्यवस्थित स्थितियों का विश्लेषण करने के लिए इंसानी धारणाओं, कल्पनाओं और शैतानी फलसफों का उपयोग करते हैं। इसलिए वे सतर्क हो जाते हैं और परमेश्वर को गलत समझने लगते हैं। यह मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति के कारण होता है। परमेश्वर के वचनों की रोशनी में खुद की जाँच करने पर मैंने पाया कि मेरी दशा भी वैसी ही थी। यह देखते हुए कि पिछले तीन पर्यवेक्षक बरखास्त करके हटा दिए गए थे, मैंने सत्य की खोज नहीं की, इस बात पर विचार नहीं किया कि वे क्यों विफल हुए या भेद नहीं पहचाना और उनकी असफलताओं से सबक नहीं सीखा। इसके बजाय मैं सतर्क हो गई, ऐसे शैतानी फलसफों के सहारे जीने लगी जैसे “सावधानी ही सुरक्षा की जननी है” और “जो जितना बड़ा होता है, उतनी ही जोर से गिरता है।” मुझे महसूस हुआ कि पर्यवेक्षक बनना बहुत जोखिम भरा है और अगर मैंने कोई गलत आरोप लगाए और सजाएँ दीं तो यह एक बड़ा अपराध होगा और मुझे कोई अच्छा परिणाम या मंजिल नहीं मिलेगी। मुझे लगा कि मुझे खुद को बचाना है और जोखिम से बचना है, इसलिए मैं इस कर्तव्य से बचने के लिए बहाने बनाती रही। बाद में मैंने सोचा, “मुझे यह कर्तव्य सौंपने में परमेश्वर के इरादे क्या हैं? सफाई के काम की निगरानी करना भारी जिम्मेदारियाँ लेकर आता है, लेकिन इससे मैं अलग-अलग तरह के बुरे लोगों, मसीह-विरोधियों और छद्म-विश्वासियों को पहचान पाऊँगी, जिससे मुझे लोगों का भेद पहचानने में तेजी से प्रगति करने में मदद मिलेगी। साथ ही पर्यवेक्षक होने में कई समस्याओं को हल करना शामिल होगा, यह मुझे संबंधित सत्य सिद्धांतों को खोजने और खुद को सत्य से सुसज्जित करने के लिए प्रेरित करेगा, जिससे यह प्रशिक्षण के लिए एक बढ़िया अवसर बन जाएगा। लेकिन इस मामले में सत्य की तलाश करने के बजाय मैं हमेशा यह सोचती रही हूँ कि पर्यवेक्षक होने का मतलब है अधिक जिम्मेदारी उठाना और मुझे जल्दी से बेनकाब करके हटा दिया जाएगा, इसलिए मैं परमेश्वर के प्रति संदेह और सतर्कता से भरी हुई थी। मैंने वाकई परमेश्वर के दिल को ठेस पहुँचाई है!”

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “परमेश्वर सभी के लिए धार्मिक और निष्पक्ष है। परमेश्वर यह नहीं देखता कि तुम पहले कैसे थे या अभी तुम्हारा आध्यात्मिक कद कैसा है, वह देखता है कि तुम सत्य का अनुसरण करते हो या नहीं और तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो या नहीं। ... परमेश्वर तुम्हें ठोकर खाने, असफल होने और गलतियाँ करने देता है। परमेश्वर तुम्हें सत्य को समझने, सत्य का अभ्यास करने, धीरे-धीरे उसके इरादों को समझने, उसके इरादों के अनुसार सब कुछ करने, सच्चे दिल से परमेश्वर के प्रति समर्पण करने, और परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित सत्य वास्तविकता को प्राप्त करने के लिए अवसर और समय देगा। लेकिन, परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति से सबसे अधिक घृणा करता है? ऐसे व्यक्ति से जो अपने दिल में सत्य को जानते हुए भी, उसे अभ्यास में लाना तो दूर, उसे स्वीकारने से भी इनकार करता है। बल्कि, वे अभी भी शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं, फिर भी खुद को परमेश्वर के प्रति बहुत अच्छा और आज्ञाकारी मानते हैं और साथ ही दूसरों को गुमराह कर परमेश्वर के घर में जगह पाने की कोशिश करते हैं। परमेश्वर इस प्रकार के लोगों से सबसे अधिक घृणा करता है, वे मसीह-विरोधी हैं। हालाँकि हर किसी में भ्रष्ट स्वभाव होता है, पर ये कर्म अलग प्रकृति के हैं। यह कोई सामान्य भ्रष्ट स्वभाव नहीं है और न ही भ्रष्टता का कोई सामान्य खुलासा है; बल्कि, इसमें तुम सोच-समझ कर और अड़ियल बनकर अंत तक परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो। तुम जानते हो कि परमेश्वर का अस्तित्व है, तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, फिर भी जान-बूझ कर उसका प्रतिरोध करना चुनते हो। यह परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखने और गलतफहमी होने की समस्या नहीं है; बल्कि तुम जान-बूझ कर अंत तक परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो। क्या परमेश्वर किसी ऐसे व्यक्ति को बचा सकता है? परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को नहीं बचाता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर का दुश्मन है, इसलिए तुम एक दानव और शैतान हो। क्या परमेश्वर अब भी दानवों और शैताओं को बचा सकता है?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि परमेश्वर लोगों के प्रति निष्पक्ष होता है। परमेश्वर क्षणिक गलतियों या असफलताओं के लिए लोगों को नहीं हटाता, बल्कि जब लोग लगातार सत्य को ठुकराते हैं और हठपूर्वक उसका विरोध करते हैं तो वह लोगों को बेनकाब कर हटा देता है। मैंने सोचा कि कैसे सत्य की मेरी समझ की कमी ने मुझे लोगों के भेद को पहचानने में गलतियाँ करने को प्रेरित किया, फिर भी किसी ने मुझे इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया या मुझे इस कर्तव्य को करने से नहीं रोका। परमेश्वर मेरी गलतियों का उपयोग करके मुझे बुरे लोगों का भेद पहचानने के बारे में सत्य से सुसज्जित कर रहा था ताकि मेरी कमियों की भरपाई हो सके। मैंने इस बारे में और सोचा कि लिन फैंग क्यों विफल हुई। हाल ही में मैंने उसे अपने कर्तव्य में अपने गलत इरादों के बारे में बात करते सुना था। जब उसने काम के खराब नतीजे देखे, तो उसने उस काम का भार अपनी साथी पर डाल दिया और खुद जिम्मेदारी नहीं ली। जब ऊपरी अगुआओं ने संगति की और उसे सुधारा तो वह बहाने बनाती रही और खुद का बचाव करने की कोशिश करती रही, इन मुद्दों के बारे में आत्म-चिंतन करने और खुद को जानने से इनकार कर दिया। लिन फैंग को उसकी गलतियों के कारण बरखास्त नहीं किया गया था, बल्कि मुख्यत: इसलिए बरखास्त किया गया क्योंकि उसने सत्य स्वीकार करने से इनकार किया और वह गैर-जिम्मेदार थी। दो अन्य पर्यवेक्षक भी थे। उनमें से एक का स्वभाव अहंकारी था, वह निरंकुश था और हमेशा सारा अधिकार खुद रखना चाहता था, जब दूसरे उसकी बात नहीं सुनते थे तो वह उन्हें दबाने और सताने की कोशिश करता था। दूसरा पर्यवेक्षक लगातार प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागता था, असहमतिपूर्ण राय को दबाता और अलग करता जाता था। दोनों ही मसीह-विरोधी मार्ग पर चले और अपने कई बुरे कर्मों के कारण निष्कासित कर दिए गए। मैंने देखा कि परमेश्वर धार्मिक है और वह लोगों को सिर्फ उनके कर्तव्य में गलतियाँ करने के कारण बरखास्त नहीं करता या नहीं निकालता, बल्कि सत्य और परमेश्वर के प्रति लोगों के रवैये और उनके द्वारा अपनाए गए मार्ग के आधार पर निकालता है। उनके निरंतर व्यवहार से यह स्पष्ट था कि उनका प्रकृति सार सत्य के प्रति विमुख और उससे घृणा करने वाला था, वे केवल प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागते रहे और कलीसिया के काम की बिल्कुल भी रक्षा नहीं की, जिसके कारण परमेश्वर ने उन्हें बेनकाब करके हटा दिया। लेकिन मैं सोचती थी कि जिनके पास रुतबा या बड़ी जिम्मेदारी होती है, उनके बेनकाब होने और हटा दिए जाने की संभावना अधिक होती है, जबकि एक साधारण बहन या भाई, जिसके पास कम काम होते हैं, कम अपराध करेगा क्योंकि उसमें कम चीजें शामिल होती हैं और इस तरह वह बेनकाब करके हटा दिए जाने से बचता है। लेकिन ये सिर्फ मेरी धारणाएँ और कल्पनाएँ थीं। मैं हमेशा परमेश्वर के खिलाफ सतर्क रहती थी और अपने कर्तव्य से बचती थी। भले ही मैंने कोई अपराध न किया हो, अगर मैं सत्य का अनुसरण न करूँ, तो मेरा भ्रष्ट स्वभाव स्वच्छ नहीं होगा या बदलेगा नहीं और मुझे उद्धार नहीं मिलेगा और अंततः मुझे अभी भी कोई अच्छा परिणाम नहीं मिलेगा। इसे ध्यान में रखते हुए मैं यह कर्तव्य स्वीकार करने के लिए तैयार हो गई। परमेश्वर व्यक्ति के कर्तव्य में भटकाव और समस्याएँ होने देता है और अगर कोई व्यक्ति बाद में सत्य की तलाश कर सकता है, आत्म-चिंतन कर सकता है और इन भटकावों को तुरंत ठीक कर सकता है, परमेश्वर उसका मार्गदर्शन करना जारी रखेगा। जब मैंने इसके बारे में सोचा तो मैंने देखा कि मैं काफी समय से सफाई का काम कर रही थी, मुझे भेद पहचानने के कुछ सिद्धांत समझ में आ गए थे। कलीसिया का कार्य करने के लिए लोगों की तत्काल आवश्यकता थी तो मुझे परमेश्वर के इरादे पर विचार कर शुद्धिकरण का काम करने की पूरी कोशिश करनी थी, क्योंकि यही वह सूझ-बूझ और समर्पण था जो मुझमें होना चाहिए। लेकिन मेरा मन केवल अपने हितों, परिणाम और मंजिल के विचारों से भरा था। मैं कितनी स्वार्थी और नीच थी!

बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “आशीषों के अनुसरण को उचित उद्देश्य मानना किस तरह से गलत है? यह पूरी तरह से सत्य का विरोधी है, और लोगों को बचाने के परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं है। चूँकि आशीष प्राप्त करना लोगों के अनुसरण के लिए उचित उद्देश्य नहीं है, तो फिर उचित उद्देश्य क्या है? सत्य का अनुसरण, स्वभाव में बदलावों का अनुसरण, और परमेश्वर के सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना : ये वे उद्देश्य हैं, जिनका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो, काट-छाँट किए जाने कारण तुम धारणाएँ और गलतफहमियाँ पाल लेते हो, और समर्पण में असमर्थ हो जाते हो। तुम समर्पण क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि तुम्हें लगता है कि तुम्हारी मंजिल या आशीष पाने के तुम्हारे सपने को चुनौती दी गई है। तुम नकारात्मक और परेशान हो जाते हो, और अपना कर्तव्य त्याग देना चाहते हो। इसका क्या कारण है? तुम्हारे अनुसरण में कोई समस्या है। तो इसे कैसे हल किया जाना चाहिए? यह अनिवार्य है कि तुम ये गलत विचार तुरंत त्याग दो, और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या हल करने के लिए तुरंत सत्य की खोज करो। तुम्हें खुद से कहना चाहिए, ‘मुझे छोड़कर नहीं जाना चाहिए, मुझे अभी भी एक सृजित प्राणी का कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए और आशीष पाने की अपनी इच्छा एक तरफ रख देनी चाहिए।’ जब तुम आशीष पाने की इच्छा छोड़ देते हो और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, तो तुम्हारे कंधों से एक भार उतर जाता है। और क्या तुम अभी भी नकारात्मक हो पाओगे? हालाँकि अभी भी ऐसे अवसर आते हैं जब तुम नकारात्मक हो जाते हो, लेकिन तुम इसे खुद को बाधित नहीं करने देते, और अपने दिल में प्रार्थना करते और लड़ते रहते हो, और आशीष पाने और मंजिल हासिल करने के अनुसरण का उद्देश्य बदलकर सत्य के अनुसरण को लक्ष्य बनाते हो, और मन ही मन सोचते हो, ‘सत्य का अनुसरण एक सृजित प्राणी का कर्तव्य है। आज कुछ सत्यों को समझना—इससे बड़ी कोई फसल नहीं है, यह सबसे बड़ा आशीष है। भले ही परमेश्वर मुझे न चाहे, और मेरी कोई अच्छी मंजिल न हो, और आशीष पाने की मेरी आशा चकनाचूर हो गई है, फिर भी मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाऊँगा, मैं इसके लिए बाध्य हूँ। कोई भी वजह मेरे कर्तव्य-प्रदर्शन को प्रभावित नहीं करेगी, वह मेरे द्वारा परमेश्वर के आदेश की पूर्ति को प्रभावित नहीं करेगी; मैं इसी सिद्धांत के अनुसार आचरण करता हूँ।’ और इसमें, क्या तुमने दैहिक विवशताएँ पार नहीं कर लीं?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अभ्यास में ही होता है जीवन प्रवेश)। “मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कर्तव्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी। जो लोग अपना कर्तव्य बेमन से करते हैं और सत्य की खोज नहीं करते, वे अंत में निकाल दिए जाएँगे, क्योंकि ऐसे लोग सत्य के अभ्यास में अपना कर्तव्य पूरा नहीं करते, और अपना कर्तव्य निभानेमें सत्य का अभ्यास नहीं करते। ये वे लोग हैं, जो अपरिवर्तित रहते हैं और जिन्हें दुर्भाग्य सहना पड़ेगा। उनकी न केवल अभिव्यक्तियाँ अशुद्ध हैं, बल्कि वे जो कुछ भी व्यक्त करते हैं, वह दुष्टतापूर्ण होता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि चाहे कोई व्यक्ति आशीष प्राप्त करे या दुर्भाग्य का सामना करे, एक सृजित प्राणी के लिए अपना कर्तव्य करना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है। चूँकि लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, इसलिए उन्हें अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए, क्योंकि यही एक मूल्यवान और सार्थक जीवन जीने का तरीका है। परमेश्वर के इरादे होते हैं कि लोग अपने कर्तव्य के माध्यम से सत्य वास्तविकता में प्रवेश करें। किसी के कर्तव्य के दौरान विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों के खुलासे होंगे और कई कमियाँ उजागर होंगी। इस अवसर के माध्यम से कोई व्यक्ति सत्य की तलाश कर सकता है और आत्म-चिंतन कर सकता है और इस तरह स्वच्छ और रूपांतरित हो सकता है। भले ही मैं अब एक पर्यवेक्षक के रूप में प्रशिक्षण में कठिनाइयों का सामना कर रही थी, मैं परमेश्वर पर अधिक भरोसा कर पाई, सत्य की तलाश करने पर ध्यान केंद्रित कर पाई, सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य कर पाई, अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर पाई और अपनी वफादारी दिखा पाई। अगर प्रशिक्षण की अवधि के बाद अपर्याप्त काबिलियत के कारण फिर से मेरा काम बदला जाता है तो मुझे कोई पछतावा नहीं होगा।

आगे बढ़ते हुए, जैसा कि मैंने एक पर्यवेक्षक का कर्तव्य निभाया, चाहे मुझे कठिनाइयों का सामना करना पड़ा हो या मेरे कर्तव्य में विचलन हुआ, मैंने इसे सत्य प्राप्त करने के एक अच्छे अवसर के रूप में देखा, अपने भाई-बहनों के साथ इन चीजों पर संगति की और उनका सारांश दिया और प्रासंगिक सत्य सिद्धांतों की खोज की। धीरे-धीरे जो सत्य मुझे पहले समझ में नहीं आए थे, वे स्पष्ट हो गए और मैंने कुछ प्रगति की। मैं परमेश्वर को लेकर अब और सतर्क नहीं रहती, मैं बस हर परिस्थिति में व्यावहारिक रूप से सबक सीखना चाहती हूँ जो परमेश्वर व्यवस्थित करता है। मैं परमेश्वर को धन्यवाद देती हूँ कि उसने मुझे वास्तविक लाभ प्राप्त करने और कुछ असली अंतर्दृष्टि प्राप्त करने की अनुमति दी।

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