37. क्या यह नजरिया सत्य के अनुरूप है कि “इंसान को गुण का न सही, उसकी मेहनत का श्रेय मिलना ही चाहिए”?
अगस्त 2022 की शुरुआत में, हमने अपनी एक सभा समाप्त की और तभी बहन वांग जिंग ने कहा, “झांग मिन को मंथन के लिए घर पर एकांत में रखा गया है।” जब मैंने यह सुना, तो पूछा, “बात क्या है?” वांग जिंग ने कहा, “जब भी भाई-बहन उसके कर्तव्य से जुड़ी समस्याएँ बताते, तो झांग मिन हमेशा ही उन्हें मानने से इनकार कर देती, बहस और अपना बचाव भी करती थी। उसने खू़ब तमाशा किया, रोई और हंगामा खड़ा किया, यहाँ तक कि अपने कर्तव्य पर भी अपनी भड़ास निकाली। इससे सामान्य ढंग से काम कर पाना असंभव हो गया और कलीसियाई जीवन में बाधा और परेशानी पैदा हुई। अगर वह चिंतन और खुद को जानने की कोशिश नहीं करती, और फिर भी अपना बचाव करने की कोशिश करती है तो उसे निकालना होगा।” लेकिन जब मैंने यह सुना तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मुझे लगता था कि परमेश्वर में विश्वास करने के अपने अनेक वर्षों के दौरान झांग मिन ने हमेशा ख़ुद को त्यागा और खपाया था, और नवागंतुकों का सिंचन करते हुए वह स्नेही और मिलनसार रहती थी। भले ही कितनी भी देर हो गई हो, जब भी किसी नवागंतुक को कोई समस्या होती, तो वह उनके साथ संगति करने और उसे हल करने की भरपूर कोशिश करती थी, और कोई पारिवारिक मामला आने पर भी वह अपने कर्तव्य को नहीं छोड़ती थी। भले ही उसने अभी सत्य को स्वीकार नहीं किया था, मगर हो सकता है कि वह इसे अभी तक पहचान नहीं पाई थी। अगर वह धीरे-धीरे सोचे और चिंतन करे और इसे समझ ले, तो क्या यह काफी नहीं होगा? वह निकाले जाने के योग्य नहीं थी। अगर उसके जैसे किसी व्यक्ति को निकाला गया, तो मेरा त्याग और ख़ुद को खपाना उसके सामने कहीं ठहरता ही नहीं, तो क्या अंत में मुझे भी नहीं निकाल दिया जाएगा? उस दौरान, जब भी मैं यह सोचती थी, तो मेरी स्थिति बहुत नकारात्मक हो जाती थी, और मेरे अंदर अपना कर्तव्य निभाने की ऊर्जा भी नहीं बचती थी।
बाद में, एक सभा में, हमारी कलीसिया की अगुआ वांग यू झांग मिन को निकालने की जांच करने आईं, और मैंने अपनी धारणाओं और अपनी दुविधा के बारे में बताते हुए कहा, “झांग मिन ने कई वर्षों तक अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए अपना परिवार और करियर त्याग दिया; वह अपने गुण न सही अपनी कड़ी मेहनत का श्रेय पाने की हकदार तो है। उसे क्यों निकाला जा रहा है? अगर इस तरह अपना कर्तव्य-पालन करते हुए वह उद्धार नहीं पा सकती, तो चूंकि मैं उसकी तरह कठिनाइयां नहीं झेलती हूं और इतनी कीमत नहीं चुकाती हूं तो क्या मुझे भी नहीं निकाल देना चाहिए?” यह देखते हुए कि मैंने धारणाएं बना ली थीं, वांग यू ने धैयर्पूर्वक यह कहते हुए मेरे साथ संगति की, “तुम जो देख रही हो वह यह है कि झांग मिन बाहर से क्या काम करती दिखती है; तुमने इस सबमें सत्य के प्रति उसका रवैया नहीं देखा है। भाई-बहनों के मूल्यांकन के अनुसार, जब बात झांग मिन पर आती थी, तो वह कभी भी परमेश्वर से कुछ स्वीकार नहीं करती थी और हमेशा ही लोगों और चीजों को गलत समझती थी। भाई-बहनों ने उसके साथ संगति की और अनेक बार उसकी मदद की, लेकिन उसने अंश मात्र भी सत्य नहीं स्वीकारा, बल्कि बहस की और खुद को बचाया, यहां तक कि अपने कर्तव्य पर भी अपनी हताशा निकाली।” और अगुआ ने यह कहते हुए एक मिसाल दी, “एक बार उसकी पर्यवेक्षक ने नवागंतुकों के सिंचन को लेकर झांग मिन की एक समस्या बताई। झांग मिंग ने इससे इनकार कर सोचा कि पर्यवेक्षक जानबूझकर उसे निशाना बना रही है। वो आपा खो बैठी और बोली, ‘मैं अब और यह काम नहीं कर सकती; यह करने के लिए किसी और को ढूंढ़ लें!’ फिर वो रोती हुई वहां से चली गई।” अगुआ ने कहा कि शुरू से ही झांग मिन का यही रवैया रहा है, और जब भी बात उसके अहंकार और रुतबे की होती, तो वह बहुत तमाशा खड़ा कर देती, और कोई उसे रोक नहीं पाता। उसकी पर्यवेक्षक भी उसके आगे बेबस है। उसके इस तरह के रवैये ने कलीसियाई जीवन को बाधित किया और उसके सिंचन के काम पर असर डाला। हालांकि झांग मिन इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते हुए अपना कर्तव्य कर रही थी, मगर उसने सत्य का अनुसरण कभी नहीं किया, और जब बात उस पर आई तो उसने कभी परमेश्वर से कुछ स्वीकार नहीं किया, ना ही आत्म-चिंतन किया और नए सबक सीखे, जिसका मतलब यह था कि वो छद्म-विश्वासी थी। फिर वांग यू ने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “मनुष्य जिस मानक से दूसरे मनुष्य को आंकता है, वह व्यवहार पर आधारित है; जिनका आचरण अच्छा है वे धार्मिक हैं और जिनका आचरण घृणित है वे दुष्ट हैं। परमेश्वर जिस मानक से मनुष्यों का न्याय करता है, उसका आधार यह है कि क्या व्यक्ति का सार परमेश्वर को समर्पित है या नहीं; जो परमेश्वर को समर्पित है वह धार्मिक है और जो नहीं है वह शत्रु और दुष्ट व्यक्ति है, भले ही उस व्यक्ति का आचरण अच्छा हो या बुरा, भले ही इस व्यक्ति की बातें सही हों या गलत हों” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। फिर उसने संगति की और कहा, “लोग दूसरों के बाहरी रूप के आधार पर उनका आकलन करते हैं। अगर किसी का व्यवहार अच्छा प्रतीत होता है, तो वे अच्छे व्यक्ति हैं, और अगर बुरा प्रतीत होता है, तो वे बुरे हैं। परमेश्वर लोगों को उनके प्रकृति सार और सत्य के प्रति उनके रवैये के आधार पर देखता है। परमेश्वर यह देखता है कि लोग उसके और सत्य के प्रति समर्पित हो सकते हैं या नहीं, यह नहीं कि वे बाहर से कितना त्याग करते, तकलीफ उठाते और काम करते हैं।” इस संगति के माध्यम से, मैंने विचार किया कि झांग मिन के निकाले जाने पर मैं उसके लिए दुखी इसलिए हुई क्योंकि मैंने केवल उसका बाहरी रूप देखा था। मैंने यही देखा कि उसने अपने परिवार को त्यागा, अपना करियर छोड़ा, कष्ट सहे, और कीमत चुकाई, और नवागंतुकों को समस्या होने पर उसे उनके साथ संगति करने में कोई ऐतराज नहीं था, और इसलिए मुझे विश्वास था कि वह सत्य का अनुसरण करती होगी। मगर, मैंने यह नहीं देखा कि जब बात उस पर आती थी तो क्या वह सत्य स्वीकार पाती थी या उसके प्रति समर्पित हो पाती थी या कि उसके कर्तव्य से प्राप्त परिणाम क्या थे। मैं सोचती थी कि उससे परमेश्वर के घर की माँगें बहुत कठोर थीं, और उसे निकाला नहीं जाना चाहिए था। अब पता चला कि मैं लोगों या चीजों की असलियत नहीं देख पाती थी, और बहुत ज्यादा अज्ञानी थी।
बाद में, एक छोटे से समूह में सभा करते हुए, मैंने पाया कि झांग मिन के निकाले जाने के संबंध में, कुछ भाई-बहनों का भी यही नजरिया था कि “इंसान को गुण का न सही, उसकी मेहनत का श्रेय मिलना ही चाहिए।” इस समस्या को ध्यान में रखकर, मैंने पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश ढूँढे़। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “पौलुस ने सत्य का अनुसरण नहीं किया। उसने सिर्फ अपने दैहिक सुखों के भविष्य और गंतव्य के लिए परमेश्वर में विश्वास किया। वह सिर्फ फल और तख्त पाना चाहता था। परमेश्वर ने इतने सारे वचन कहे, उसे इतना अनुशासित, प्रबुद्ध और रोशन किया, पर फिर भी उसने परमेश्वर के प्रति समर्पण या सत्य को स्वीकार नहीं किया। उसने हमेशा परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसका प्रतिरोध किया, और अंत में, वह एक मसीह-विरोधी बन गया और निंदा और दंड का भागी बना। पौलुस इस बात का उदाहरण है कि क्या नहीं करना चाहिए। ... मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर, लोग सोचते हैं, ‘परमेश्वर को पौलुस के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था। पौलुस ने इतना कुछ किया था और सहा था। साथ ही वह परमेश्वर के प्रति वफादार और समर्पित था। तो परमेश्वर ने उसके साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया?’ क्या लोगों का यह कहना उचित है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? पौलुस किस तरह परमेश्वर के प्रति वफादार और समर्पित था? क्या वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ नहीं रहे? पौलुस आशीष पाने के प्रति वफादार और समर्पित था। क्या यह परमेश्वर के प्रति वफादारी और समर्पण है? जब लोग सत्य को नहीं समझते, किसी समस्या के सार को साफ-साफ नहीं देख पाते, और अपनी भावनाओं के आधार पर आंख मूंदकर बोलते हैं, तो क्या वे परमेश्वर से विद्रोह और उसका प्रतिरोध नहीं करते? हैरानी की बात नहीं है कि हर कोई पौलुस पर मोहित है। जो शैतान के हैं वे हमेशा शैतान से ही मोह करते हैं, और अपनी भावनाओं के आधार पर शैतान के लिए ही बोलते हैं। इसका मतलब है कि लोग भले ही शैतान से अलग हो गए हों, पर वे अब भी उससे जुड़े हुए हैं। असल में, जब लोग शैतान की बात कहते हैं, तो वे अपनी बात भी कह रहे होते हैं। लोग पौलुस से हमदर्दी जताते हैं क्योंकि वे खुद भी उसी की तरह हैं, और उसी के रास्ते पर चलते हैं। मनुष्य की आम समझ के अनुसार, परमेश्वर को पौलुस के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था, पर उसने जो किया वह मनुष्य के सामान्य ज्ञान के ठीक उलट था। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है, और यह सत्य है। अगर कोई व्यक्ति मनुष्य की आम समझ के अनुसार बात करता है, तो वे कह सकते हैं, ‘भले ही पौलुस ने कुछ खास हासिल न किया हो, लेकिन फिर भी उसने बहुत-से कष्ट सहे, और यदि कष्ट नहीं, तो फिर उसने थकान सही। यह देखते हुए कि उसने कितने वर्षों तक कष्ट उठाए, उसे बख्श दिया जाना चाहिए था। चाहे वह सिर्फ एक श्रमिक बनकर रह जाता, पर उसे दंडित करना या नरक में भेजना ठीक नहीं था।’ यह मनुष्य का सामान्य ज्ञान और भावनाएं हैं—यह सत्य नहीं है। परमेश्वर का सबसे प्यारा पहलू क्या है? यह कि उसमें मनुष्य की आम समझ नहीं है। वह जो कुछ भी करता है वह सत्य के अनुरूप और उसके खुद के सार के अनुरूप होता है। वह एक धार्मिक स्वभाव दिखाता है। परमेश्वर तुम्हारी व्यक्तिपरक इच्छाओं की परवाह नहीं करता, न ही तुम्हारे कृत्यों के वस्तुपरक तथ्यों की। परमेश्वर इस आधार पर कि तुम क्या करते हो, क्या प्रकट करते हो, और किस रास्ते पर चलते हो, यह तय और परिभाषित करता है कि तुम किस तरह के मनुष्य हो, और फिर तुम्हारे प्रति सबसे उपयुक्त रवैया अपनाता है। पौलुस का परिणाम इसी तरह से आया। पौलुस के मामले को देखते हुए, ऐसा लगता है कि परमेश्वर प्रेमविहीन है। पतरस और पौलुस दोनों ही सृजित प्राणी थे, पर परमेश्वर ने जहां पतरस का अनुमोदन कर उसे आशीष दिए, वहीं उसने पौलुस को उजागर किया, उसका विश्लेषण और न्याय किया और उसकी निंदा की। पौलुस का परिणाम तय करने के परमेश्वर के तरीके में तुम परमेश्वर का प्रेम नहीं देख सकते। तो फिर, पौलुस के साथ जो कुछ हुआ उसके आधार पर क्या तुम कह सकते हो कि परमेश्वर प्रेम नहीं करता। नहीं, तुम नहीं कह सकते, क्योंकि परमेश्वर ने कितनी ही बार उसे अनुशासित किया, ज्ञान दिया, और प्रायश्चित के बहुत-से अवसर दिए, पर पौलुस ने हठपूर्वक इन्हें ठुकरा दिया और परमेश्वर के प्रतिरोध के रास्ते पर चलता रहा। इसलिए अंत में, परमेश्वर ने उसकी निंदा की और उसे दंडित किया” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य समझकर ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है)। “कुछ लोग अंततः कहेंगे, ‘मैंने तुम्हारे लिए इतना अधिक कार्य किया है, और मैंने कोई प्रशंसनीय उपलब्धियाँ भले प्राप्त न की हों, फिर भी मैंने पूरी मेहनत से अपने प्रयास किए हैं। क्या तुम मुझे जीवन के फल खाने के लिए बस स्वर्ग में प्रवेश करने नहीं दे सकते?’ तुम्हें जानना ही चाहिए कि मैं किस प्रकार के लोगों को चाहता हूँ; वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो! संसार की स्थापना से लेकर आज तक, मैंने अपने राज्य में उन्हें कभी आसान प्रवेश नहीं दिया जो मेरी चापलूसी करते हैं। यह स्वर्गिक नियम है, और कोई इसे तोड़ नहीं सकता है! तुम्हें जीवन की खोज करनी ही चाहिए। आज, जिन्हें पूर्ण बनाया जाएगा वे उसी प्रकार के हैं जैसा पतरस था : ये वे लोग हैं जो स्वयं अपने स्वभाव में बदलाव लाने का प्रयास करते हैं, और जो परमेश्वर के लिए गवाही देने, और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए तैयार रहते हैं। केवल ऐसे लोगों को ही पूर्ण बनाया जाएगा। यदि तुम केवल पुरस्कारों की प्रत्याशा करते हो, और स्वयं अपने जीवन स्वभाव को बदलने की कोशिश नहीं करते, तो तुम्हारे सारे प्रयास व्यर्थ होंगे—यह अटल सत्य है!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और सबसे कम, इस आधार पर तय नहीं करता कि वह किस हद तक दया का पात्र है, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित भी किए जाएँगे। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे कोई व्यक्ति नहीं बदल सकता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचनों से, मैंने देखा कि परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है। किसी व्यक्ति का परिणाम क्या है और वह बचाया जाएगा या नहीं यह इस पर निर्भर नहीं करता कि वह कितना काम करता दिखता है या वह कितना त्याग करता और खुद को खपाता दिखता है। महत्वपूर्ण यह है कि यह व्यक्ति ऐसा है या नहीं जो सत्य का अनुसरण करता है, और उसने अपना जीवन स्वभाव बदला है या नहीं। अगर वह केवल मेहनत करने पर ध्यान देगा और जीवन स्वभाव को बदलने का प्रयास नहीं करेगा, तो अंततः वह अडिग नहीं रह पाएगा और देर-सबेर उसे निकालना पड़ेगा। यह एकदम अनुग्रह के युग में पौलुस की तरह है। उसने अनेक वर्ष काम किया, बहुत कष्ट सहे, सुसमाचार का उपदेश देते हुए कुछ लोगों को पाया भी, और बहुत सारी कलीसियाओं की स्थापना की, लेकिन उसका खुद को खपाना केवल पुरस्कार और ताज पाने की खातिर था, और उसका इरादा परमेश्वर से लेनदेन करना था। और तो और, पौलुस की प्रकृति बेहद अंहकारी और दंभी थी, और वह किसी का सम्मान नहीं करता था, यहां तक कि उसने गवाही दी कि वह मसीह की तरह रहता है। पौलुस परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले मसीह-विरोधी मार्ग पर चला, और अंत में, उसने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया और परमेश्वर के दंड का भागी बना। इस एहसास के बाद मुझे झांग मिन का मुद्दा और अधिक स्पष्ट रूप से समझ में आया। अतीत में मेरा मानना था कि झांग मिन बहुत मेहनत करती थी और उसने अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपना परिवार और करियर छोड़ दिया, उसे अपने गुण का नहीं तो मेहनत का श्रेय मिलना चाहिए, या कम से कम इसका कि वह कितना थक गई थी और उसे प्रायश्चित का कम से कम दूसरा अवसर दिया जाना चाहिए था। हमेशा की उसकी अभिव्यक्ति को देखते हुए मैंने पाया कि उसने अंश मात्र भी सत्य को स्वीकार नहीं किया था और वह सत्य से विमुख थी और जब भी कोई बात उस पर आती और अगर बात उसके अहंकार और रुतबे को छूती तो हर बार वह तमाशा खड़ा करती। उसने केवल भाई-बहनों की सलाह और मदद को ही अस्वीकार नहीं किया, बल्कि अविवेकी होकर परेशानी खड़ी की, कोसा और बकवास की, और अपने कर्तव्य पर अपनी हताशा निकाली। वह ऐसी व्यक्ति दिखती ही नहीं थी जिसे परमेश्वर में विश्वास हो। जब भाई-बहनों ने उसकी समस्याओं को उजागर कर उसे बताया, तो उसने सोचा कि वे जानबूझकर उसे शर्मिंदा कर रहे हैं, कभी उसे लगता कि उसके साथ अन्याय हो रहा है और इसलिए वह अगुआ की उपेक्षा करती जिससे अगुआ काम का क्रियान्वयन न कर पाते। कलीसिया में होने से वह भाई-बहनों के लिए और काम में बाधा डालती थी और कह सकते थे कि उसकी बुराइयाँ अच्छाइयों से ज्यादा थीं। कलीसिया द्वारा उसे निकाला जाना पूरी तरह परमेश्वर की धार्मिकता को प्रकट करता था। मगर मैंने इस मुद्दे को सत्य सिद्धांतों पर नहीं परखा था। जब मैंने सुना कि उसे निकाला जा रहा है तो मैं परमेश्वर को गलत समझ बैठी और झांग मिन का बचाव करने लगी। मैंने देखा कि मेरे पास सत्य नहीं था और मैं नहीं जानती थी कि लोगों को कैसे परखूं, और मैं किसी भी समय परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकती थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “जो लोग अविवेकी और जानबूझकर परेशानी पैदा करने वाले होते हैं, हो सकता है वे आमतौर पर कोई अहम विश्वासघाती या बुरे कर्म न करें, लेकिन जैसे ही उनकी रुचियाँ, प्रतिष्ठा या गरिमा शामिल होती हैं, तो तुरंत उनका गुस्सा उबाल पर आ जाता है, वे झल्ला जाते हैं, बेकाबू होकर कार्य करते हैं, और यहाँ तक कि आत्महत्या तक की धमकी देते हैं। मुझे बताओ, अगर ऐसा बेतुका और अनुचित रूप से अपरिष्कृत इंसान किसी परिवार में सामने आ जाए, तो क्या पूरा परिवार कष्ट नहीं सहेगा? फिर घर-परिवार में खलबली मच जाएगी, चीखने-चिल्लाने का शोर भर जाएगा, और जीना दूभर हो जाएगा। कुछ कलीसियाओं में ऐसे लोग होते हैं; हालाँकि सब-कुछ सामान्य होने पर हो सकता है यह स्पष्ट दिखाई न दे, फिर भी तुम्हें पता नहीं चलेगा कि ज्वालामुखी कब फटेगा और वे कब खुद को प्रकट कर देंगे। ऐसे लोगों की मुख्य अभिव्यक्तियों में शामिल होते हैं झल्लाहट दिखाना, बेमतलब की बहसबाजी करना, सार्वजनिक रूप से कसमें खाना, वगैरह-वगैरह। भले ही ये व्यवहार सिर्फ महीने में एक बार या हर छह महीने में एक बार दिखाई दें, फिर भी इनसे जबरदस्त संताप और कठिनाई पैदा होती है, जिससे ज्यादातर लोगों के कलीसियाई जीवन में किसी-न-किसी हद तक बाधा उत्पन्न होती है। अगर यह सचमुच पक्का हो जाता है कि कोई व्यक्ति इस श्रेणी में है, तो उससे मुस्तैदी से निपटना चाहिए और उसे कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं, ‘ये लोग कोई बुरे काम नहीं करते। इन्हें बुरे लोग नहीं माना जा सकता; हमें उनके साथ सहनशील और धैर्यवान होना चाहिए।’ मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों से न निपटना ठीक रहेगा? (नहीं, यह ठीक नहीं रहेगा।) क्यों नहीं? (क्योंकि उनके क्रियाकलापों से ज्यादातर लोगों को बहुत अधिक तकलीफ और खीझ होती है, और साथ ही कलीसियाई जीवन भी बाधित होता है।) इस परिणाम के आधार पर, यह स्पष्ट है कि जो लोग कलीसियाई जीवन को बाधित करते हैं, भले ही वे बुरे लोग या मसीह-विरोधी न हों, उन्हें कलीसिया में नहीं रहना चाहिए। क्योंकि ऐसे लोग सत्य से प्रेम नहीं करते बल्कि उससे विमुख होते हैं, और वे चाहे जितने भी वर्ष परमेश्वर में विश्वास रखें, या वे चाहे जितने भी धर्मोपदेश सुन लें, वे सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे। एक बार जब वे कुछ बुरा करते हैं, और उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे झल्लाहट दिखाते हैं, और बेकार की बातें उगलने लगते हैं। भले ही कोई उनके साथ सत्य पर संगति करे, वे उसे स्वीकार नहीं करते। कोई भी उनके साथ तर्क नहीं कर सकता। यहाँ तक कि जब मैं भी उनके साथ सत्य पर संगति करता हूँ, हो सकता है वे बाहर से मौन रहें, लेकिन वे इसे अंदर से स्वीकार नहीं करते। वास्तविक स्थितियों का सामना होने पर भी वे हमेशा की ही तरह कार्य करते हैं। वे मेरे वचन नहीं सुनते, इसलिए तुम लोगों का परामर्श तो उनके लिए और भी कम स्वीकार्य होगा। हालाँकि ये लोग हो सकता है कोई बड़े बुरे कर्म न करें, फिर भी वे सत्य को लेशमात्र भी स्वीकार नहीं करते हैं। उनके प्रकृति सार को देखें, तो न केवल उनमें अंतरात्मा और विवेक का अभाव है, बल्कि वे अविवेकी, जानबूझकर परेशानी पैदा करने वाले और तर्क के लिए अभेद्य होते हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं! जो लोग सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं कर सकते वे छद्म-विश्वासी होते हैं, वे शैतान के नौकर-चाकर हैं। जब चीजें उनके ढंग से नहीं होतीं, तो वे झल्लाते हैं, लगातार बेमतलब की बहसबाजी करते हैं, और सत्य के बारे में चाहे जैसे संगति की जाए वे उसे नहीं सुनते। ऐसे लोग अविवेकी और जानबूझकर परेशानी पैदा करने वाले होते हैं, विशुद्ध रूप से दानव और दुष्टात्मा होते हैं; वे जानवरों से भी बदतर होते हैं! वे असंतुलित विवेकवाले मानसिक रोगी होते हैं, और कभी भी सच्चा प्रायश्चित्त करने में सक्षम नहीं होते हैं। वे कलीसिया में जितने लंबे समय तक रहते हैं, परमेश्वर के बारे में उतनी ही अधिक धारणाएँ पालते हैं, वे परमेश्वर के घर से उतनी ही ज्यादा अनुचित माँगें करते हैं, और कलीसियाई जीवन को वे उतनी ही बड़ी बाधा और हानि पहुँचाते हैं। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश और कलीसियाई कार्य की सामान्य प्रगति पर उतना ही ज्यादा असर डालता है। कलीसियाई कार्य को उनके द्वारा पहुँचाई जानेवाली हानि बुरे लोगों के मुकाबले कम नहीं होती; उन्हें कलीसिया से जल्दी ही बाहर निकाल देना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, ‘क्या वे सिर्फ थोड़े-से बेकाबू नहीं हैं? वे बुरे होने की कगार पर नहीं पहुँचे हैं, तो क्या यह बेहतर नहीं होगा कि उनसे प्रेम से पेश आया जाए? अगर हम उन्हें रखे रहें, तो हो सकता है वे बदल जाएँ और उन्हें बचाया जा सके।’ मैं तुमसे कहता हूँ, यह असंभव है! इस बारे में ‘हो सकता है’ की कोई गुंजाइश नहीं है—इन लोगों को बिल्कुल भी बचाया नहीं जा सकता। क्योंकि वे सत्य को नहीं समझ सकते, उसे स्वीकार करना तो दूर की बात है; उनमें अंतरात्मा और विवेक का अभाव है, उनकी विचार प्रक्रियाएँ असामान्य हैं और उनमें इंसान होने के लिए आवश्यक सबसे बुनियादी आम समझ का भी अभाव है। वे असंतुलित तर्कशक्ति वाले इंसान हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (26))। परमेश्वर के वचनों से, मैंने देखा कि वे लोग जो बेवजह परेशान करते हैं, वे कोई बहुत बुरा काम नहीं करते हैं, लेकिन जब किसी चीज में उनके हित शामिल होते हैं, तो वे बखेड़ा खड़ा करते हैं और फालतू बहस करते हैं। कोई चाहे सत्य पर उनके साथ कितनी भी संगति करे, मगर वे इसे स्वीकार नहीं करते, और कलीसियाई जीवन को बुरी तरह बाधित करते हैं। इसके अलावा, अनुचित ढंग से परेशानी खड़ी करने वाले लोगों के अंदर जमीर और सामान्य मानवता की समझ नहीं होती, और चाहे वे कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते हों, वे अंश भर भी सत्य नहीं समझते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। झांग मिन इसी तरह की इंसान थी। अगर कोई चीज उसके हितों से टकराती तो वो परेशानी खड़ी कर देती और तमाशा बना देती, और एक अच्छी-खासी सभा में अस्त-व्यस्तता फैला देती। दूसरों के लिए शांत रह पाना और परमेश्वर के वचनों पर संगति करना असंभव था। कलीसियाई जीवन को सुरक्षित रखने के लिए इस तरह के लोगों से समय रहते निपट लेना चाहिए। वास्तव में, थोड़े जमीर और तर्कबुद्धि वाले लोग जानते हैं कि निष्कासन कोई दुर्घटना नहीं है, और वे अपने हृदय को शांत करके भली-भांति चिंतन करेंगे और इससे सबक सीखेंगे। भले ही उस समय वे इसे न समझते हों, कम से कम वे अपनी धारणाएँ नहीं फैलाएंगे और अपनी भावनाएँ व्यक्त नहीं करेंगे; इस तरह के लोगों में थोड़ा परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है और उनके पास अभी भी प्रायश्चित करने का अवसर होता है। लेकिन जब बात झांग मिन पर आई तो उसने न तो सत्य खोजा न आत्म-चिंतन किया, बल्कि वह परमेश्वर के प्रति धारणाओं और गलतफहमियों से भरी हुई थी, उसे अधार्मिक कहकर आलोचना करती थी, और उससे यहाँ तक पूछती थी कि उसने दूसरों को मौका दिया पर उसे क्यों नहीं। निकाले जाने के बाद भी उसने आत्म-चिंतन नहीं किया, परमेश्वर के विरुद्ध कुतर्क किए और शोर मचाया, अपने असंतोष और आक्रोश की भड़ास निकाली, साथ ही साथ अपनी धारणाएँ फैलाईं और लोगों को गुमराह किया। ये देखते हुए कि उसके अंदर लेशमात्र भी पछतावा नहीं है, उसे निकाला जाना पूरी तरह से परमेश्वर की धार्मिकता थी!
इस अनुभव से, मुझे यह समझ आया कि परमेश्वर के वचनों के आधार पर लोगों के सार को समझना कितना महत्वपूर्ण है। यह कहावत “इंसान को गुण का न सही, उसकी मेहनत का श्रेय मिलना ही चाहिए” एक भ्रांति थी और सत्य के अनुरूप नहीं थी। जो लोग यह नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों के आधार पर दूसरों को कैसे पहचानें, वे गुमराह हो जाएंगे और छद्म-विश्वासियों और बुरे लोगों को भी अपना भाई-बहन मानेंगे और उनका बचाव करेंगे। केवल परमेश्वर के वचनों के अनुसार ही लोगों और चीजों को देखना उचित है। अब मैं झांग मिन के निकाले जाने पर दुखी नहीं थी, और मैं यह सुनिश्चित करने के लिए अपने प्रति कहीं ज्यादा सजग थी कि जब मेरी काट-छाँट की जाए या मेरा न्याय किया जाए और मुझे ताड़ना दी जाए तो मैं सत्य को खोज सकूँ, आत्म-चिंतन करने, और यह विश्वास करने में समर्थ हो सकूं कि परमेश्वर जो भी करता है, वह धार्मिक होता है। मैं यह जो थोड़े लाभ पा सकी हूं, वह परमेश्वर के वचनों द्वारा प्राप्त परिणाम है।