36. मैंने दमन की भावना का समाधान कैसे किया

गु नियान, चीन

अतीत में मैं कलीसिया में कार्य की एक ही मद पर काम करती थी, काम का बोझ ज्यादा नहीं था और यह अपेक्षाकृत आसान भी था, इसलिए मुझे लगता था कि इस तरह से कर्तव्य निभाना काफी अच्छा है। बाद में मुझे सुसमाचार पर्यवेक्षक चुना गया। मैंने देखा कि मेरे साथ काम करने वाली बहन को हर दिन कई कार्यों का जायजा लेना होता था। भाई-बहनों की समस्याएँ या दशाएँ और मुश्किलें पता चलने पर इनका समाधान करने के लिए उसे समय पर संगति करनी पड़ती थी, सुसमाचार कार्यकर्ताओं को विकसित करना होता था, काम का नियमित सारांश देना होता था, इत्यादि। उसकी दिनचर्या पूरी तरह व्यस्त होती थी। उसे देखकर ही मैं मानसिक रूप से पस्त हो जाती थी। “क्या भविष्य में मेरे कर्तव्य की भी यही अवस्था होगी? इतने सारे विस्तृत कार्य होने पर क्या मुझे हर दिन अपना दिमाग दौड़ाना नहीं पड़ेगा? इसके अलावा जब समस्याएँ आएँगी तो उन्हें तुरंत सुलझाने के लिए मुझे सत्य की तलाश करने की जरूरत पड़ेगी। लेकिन मेरा जीवन प्रवेश उथला है और मेरे पास सुसमाचार प्रचार के बारे में सत्य की कमी है। यह कर्तव्य निभाने के लिए न जाने मेरी देह को कितना कष्ट सहना पड़ेगा!” मैं बहुत दबाव में रहती थी और आने वाले काम सक्रियता से करने के लिए मुझमें कोई उत्साह नहीं रहा।

एक रात को काम खत्म करने के बाद मुझे अंदर से खालीपन और बेवजह चिड़चिड़ापन महसूस हुआ। आगे के काम में आने वाली मुश्किलों और समस्याओं के बारे में सोचकर मैं काफी दमन महसूस कर रही थी और मेरा मन भारी हो रहा था। मुझे एहसास हुआ कि मेरी अवस्था ठीक नहीं है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरा मन शांत नहीं हो रहा है, मैं दमन और चिड़चिड़ापन महसूस करती हूँ और मेरी अवस्था सामान्य नहीं है। हे परमेश्वर, मैं प्रार्थना करती हूँ कि इस अवस्था से बाहर निकालने में तुम मेरी मदद करो। आमीन!” प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों की किताब खोली और परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अगर लोग लगातार भौतिक सुख और खुशी की तलाश करते हैं, अगर वे लगातार भौतिक सुख और आराम के पीछे भागते हैं, और कष्ट नहीं उठाना चाहते, तो थोड़ा-सा भी शारीरिक कष्ट, दूसरों की तुलना में थोड़ा ज्यादा कष्ट सहना या सामान्य से थोड़ा ज्यादा काम का बोझ महसूस करना उन्हें दमित महसूस कराएगा। यह दमन के कारणों में से एक है। अगर लोग थोड़े-से शारीरिक कष्ट को बड़ी बात नहीं मानते और वे भौतिक आराम के पीछे नहीं भागते, बल्कि सत्य का अनुसरण करते हैं और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य निभाने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें अक्सर शारीरिक कष्ट महसूस नहीं होगा। यहाँ तक कि अगर वे कभी-कभी थोड़ा व्यस्त, थका हुआ या क्लांत महसूस करते भी हों, तो भी सोने के बाद वे बेहतर महसूस करते हुए उठेंगे और फिर अपना काम जारी रखेंगे। उनका ध्यान अपने कर्तव्यों और अपने काम पर होगा; वे थोड़ी-सी शारीरिक थकान को कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं मानेंगे। हालाँकि जब लोगों की सोच में कोई समस्या उत्पन्न होती है और वे लगातार शारीरिक सुख की तलाश में रहते हैं, किसी भी समय जब उनके भौतिक शरीर के साथ थोड़ी सी गड़बड़ होती है या उसे संतुष्टि नहीं मिल पाती, तो उनके भीतर कुछ नकारात्मक भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। तो इस तरह का व्यक्ति जो हमेशा जैसा चाहे वैसा करना चाहता है और दैहिक सुख भोगना और जीवन का आनंद लेना चाहता है, जब भी असंतुष्ट होता है तो अक्सर खुद को दमन की इस नकारात्मक भावना में फँसा हुआ क्यों पाता है? (इसलिए कि वह आराम और शारीरिक आनंद के पीछे भागता है।) यह कुछ लोगों के मामले में सच है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। “समाज में कौन लोग होते हैं, जो अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते? वे आलसी, मूर्ख, कामचोर, गुंडे, बदमाश और आवारा—ऐसे ही लोग होते हैं। वे कोई नए कौशल या क्षमताएँ नहीं सीखना चाहते, न ही वे गंभीर करियर बनाना या नौकरी ढूँढ़ना चाहते हैं ताकि अपना गुजारा कर सकें। वे समाज के आलसी और आवारा लोग हैं। वे कलीसिया में घुसपैठ कर लेते हैं, और फिर बिना कुछ लिए कुछ पाना चाहते हैं, और अपने हिस्से के आशीष प्राप्त करना चाहते हैं। वे अवसरवादी हैं। ये अवसरवादी कभी अपने कर्तव्य करने को तैयार नहीं होते। अगर चीजें थोड़ी-सी भी उनके अनुसार नहीं होतीं, तो वे दमित महसूस करते हैं। वे हमेशा स्वतंत्र रूप से जीना चाहते हैं, वे किसी भी तरह का काम नहीं करना चाहते, और फिर भी वे अच्छा खाना और अच्छे कपड़े पहनना चाहते हैं, और जो चाहे खाना और जब चाहे सोना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि जब ऐसा दिन आएगा, तो वह निश्चित ही अद्भुत होगा। वे थोड़ा-सा भी कष्ट नहीं सहना चाहते और भोग-विलास के जीवन की कामना करते हैं। इन लोगों को जीना भी थका देने वाला लगता है; वे नकारात्मक भावनाओं से बँधे होते हैं। वे अकसर थका हुआ और भ्रमित महसूस करते हैं, क्योंकि वे जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते। वे अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देना चाहते या अपने उचित मामले नहीं सँभालना चाहते। वे किसी नौकरी पर टिके रहना और उसे अपना पेशा और कर्तव्य, अपना दायित्व और जिम्मेदारी मानकर शुरू से आखिर तक लगातार करते रहना नहीं चाहते; वे उसे खत्म करके परिणाम प्राप्त करना नहीं चाहते, न ही उसे यथासंभव सर्वोत्तम मानक के अनुसार करना चाहते हैं। उन्होंने कभी इस तरह से नहीं सोचा। वे बस बेमन से कार्य करना चाहते हैं और अपने कर्तव्य को जीविकोपार्जन के साधन के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं। जब उन्हें थोड़ा दबाव या किसी तरह के नियंत्रण का सामना करना पड़ता है, या जब उन्हें थोड़ा ऊँचे स्तर पर रखा जाता है या थोड़ी जिम्मेदारी सौंपी जाती है, तो वे असहज और दमित महसूस करते हैं। उनके भीतर ये नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें जीना थका देने वाला लगता है और वे दुखी रहते हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने से मैं बहुत परेशान और व्यथित हो गई। मैंने देखा कि परमेश्वर की नजरों में जो लोग हमेशा अपने कर्तव्य में आराम खोजते हैं और थोड़ा सा कष्ट सहने पर दमन की स्थिति में आ जाते हैं वे ऐसे लोग हैं जो अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते हैं और ऐसे अवसरवादी हैं जिन्होंने परमेश्वर के घर में घुसपैठ कर ली है। अपनी अवस्था और इस अवधि के दौरान बेनकाब की गई चीजों पर आत्म-चिंतन करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैं बिल्कुल वैसी ही इंसान थी जिसे परमेश्वर ने उजागर किया था। मैंने अभी तक आधिकारिक तौर पर कोई कार्य नहीं सँभाला था; बस इतना ही देखा था कि मेरे साथ काम करने वाली बहन के पास सँभालने के लिए कई काम थे। उसे हर दिन प्रयास करने, कड़ी मेहनत करने और अपना दिमाग खपाने की जरूरत पड़ती थी और उसे सत्य पर संगति के माध्यम से भाई-बहनों की अवस्थाएँ और समस्याएँ भी सुलझानी होती थीं। मैं इसलिए परेशान थी क्योंकि यह सब बहुत व्यस्त और थकाऊ लग रहा था। जब मैंने सोचा कि इन विस्तृत कार्यों की जिम्मेदारी मैं कैसे उठाऊँगी तो मैंने दमन की भावना महसूस की और मेरी मन भारी हो गया, मैं यह जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी। फिर भी मैं जानती थी कि परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैलाना परमेश्वर का अत्यावश्यक इरादा है और जो लोग अंतरात्मा और विवेक के साथ सत्य का अनुसरण करते हैं, वे सभी परमेश्वर के इरादे पर विचार करते हैं, वाकई कष्ट सहते हैं और कीमत चुकाते हैं और इसमें अपना योगदान देते हैं। अब जब मैंने यह कर्तव्य स्वीकार लिया था तो मुझे इस बात पर विचार करना था कि इस कार्य को यथाशीघ्र कैसे किया जाए, जैसे लोगों को विकसित करना, उनकी अवस्थाएँ और मुश्किलें सुलझाना, कार्य में समस्याएँ और गलतियाँ सुधारना, इत्यादि। मैंने पहले कभी इस तरह के कार्य नहीं किए थे, इसलिए मुझे धीरे-धीरे उन्हें समझना और जानना था। लेकिन मेरे पास वे सकारात्मक अभ्यास नहीं थे और मैं पूरे दिन इस बात से चिंतित रहती थी कि मेरी देह को और अधिक कष्ट होगा, जिससे मैं दमन की स्थिति में फँस जाऊँगी। मैं वाकई अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं दे रही थी! इन विचारों से मुझे बहुत अपराध बोध हुआ, इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की और उससे आग्रह किया कि वह मुझे जिम्मेदारी की भावना और कष्ट सहने का दृढ़ संकल्प दे ताकि मैं यह कार्य स्वीकार सकूँ।

शुरुआत में मैं काफी सक्रिय रही, विभिन्न सिद्धांत समझने की कोशिश करती थी और समस्याएँ सुलझाने के लिए सुसमाचार का प्रचार करने के लिए खुद को सत्य से सुसज्जित करती थी। हालाँकि यह चुनौतीपूर्ण था, प्रार्थना करने और परमेश्वर पर भरोसा करने से मैं कुछ लाभ पा सकी और मुझे हर दिन काफी संतोष हुआ। लेकिन कुछ समय बाद मैंने पाया कि विस्तृत कार्य मेरी अपेक्षा से कहीं ज्यादा थे। जब कार्य का सारांश देने का समय आया तो मैंने देखा कि अभी बहुत सारी समस्याएँ सुलझाने की जरूरत थी और मैं व्याकुल हो गई। उदाहरण के लिए सुसमाचार कार्यकर्ताओं को अपने कर्तव्यों के सिद्धांतों की समझ नहीं थी, वे नहीं जानते थे कि संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के प्रश्नों का उत्तर कैसे दिया जाए, कुछ लोगों की अवस्था खराब थी, इत्यादि। इन सभी समस्याओं को एक-एक करके संगति के माध्यम से सुलझाने के लिए बहुत अधिक मानसिक प्रयास की जरूरत थी। इसके अलावा मैं लगभग अनुभवहीन थी और इन समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रासंगिक सिद्धांत खोजने और संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के प्रश्नों का प्रभावी ढंग से उत्तर देने के लिए बहुत अधिक मानसिक प्रयास की जरूरत थी! मुझे बहुत दबाव महसूस हुआ और कंप्यूटर को एकटक ताकते हुए मैं बरबस ही सोचने लगी, “भविष्य में आने वाली प्रत्येक समस्या पर गहन विचार-विमर्श करने और समाधान के लिए कीमत चुकाने की जरूरत होगी। मेरे लिए यह काम बहुत मुश्किल है। मैं बस अदनी सी अनुयायी बनना चाहती हूँ। क्या मैं सिर्फ सुसमाचार प्रचार पर ध्यान केंद्रित नहीं कर सकती और एक आसान कर्तव्य नहीं निभा सकती?” उस दौरान हर सुबह जब मेरी आँख खुलती तो मुझे लगता था कि मेरे ऊपर बहुत सारा काम है और यहाँ तक कि मुझे समस्याएँ सुलझाने के लिए संगति करने के ही सपने आते थे। धीरे-धीरे मैं अपने कर्तव्य में और ज्यादा थकान महसूस करने लगी, खासकर मेरा दिल भारी हो गया और दमनकारी नकारात्मक भावनाएँ अधिक गंभीर हो गईं। हर दिन मैं कम काम और कम समस्याएँ आने की उम्मीद करती थी ताकि मुझे इतनी ज्यादा थकान न हो। मैंने लगातार कई दिन असमंजस में बिताए, बस खुद को अपना कर्तव्य करने के लिए मजबूर करती रही। मेरे दिल में जिम्मेदारी का कोई एहसास नहीं था और मैं उन समस्याओं को टालती रहती थी जिन्हें सुलझाने की जरूरत थी। काम की जाँच करते समय मैं कोई भी समस्या नहीं पहचान पाई; मेरा दिमाग ठस्स हो गया था और मेरी कार्यकुशलता बेहद कम थी। यहाँ तक कि प्रार्थना करने और परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने से भी कोई प्रबोधन या रोशनी नहीं मिली और मेरी आत्मा वाकई अंधकारमय हो गई। भाई-बहनों ने भी मेरी अवस्था में कुछ गड़बड़ देखी और मुझसे पूछा, “इन दिनों तुम किस अवस्था से गुजर रही हो? तुम लगातार ऊँघती रहती हो और सभाओं में संगति के दौरान बहुत सक्रिय नहीं रहती हो।” उनके ऐसा कहने से मैं और भी व्यथित हो गई और मुझे हैरानी हुई कि मेरा यह हाल कैसे हो गया। क्या मैंने पवित्र आत्मा का कार्य गँवा दिया था? क्या परमेश्वर ने मुझे अलग और नजरअंदाज कर दिया था? बाद में खोज के माध्यम से मुझे आखिरकार अपनी अवस्था के बारे में कुछ समझ हासिल होने लगी।

मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “नकारात्मक भावनाएँ होना साबित करता है कि उनके साथ कोई समस्या है। और जब कोई समस्या हो तो तुम्हें उसे सुलझाना चाहिए। जिन समस्याओं को सुलझाया जाना चाहिए, उन्हें सुलझाने की हमेशा एक विधि और एक मार्ग होता है—ऐसा नहीं है कि उन्हें सुलझाना असंभव है। यह बस इस पर निर्भर करता है कि क्या तुम समस्या का सामना कर सकते हो, और तुम उसे सुलझाना चाहते हो या नहीं। अगर तुम चाहते हो, तो फिर इतनी कठिन कोई भी समस्या नहीं है जिसे सुलझाया नहीं जा सकता। तुम परमेश्वर के समक्ष आओ, उसके वचनों में सत्य खोजो, और तुम हर कठिनाई को दूर कर सकते हो। लेकिन तुम्हारा अवसाद, निराशा, मायूसी और दमन तुम्हारी समस्या सुलझाने में तुम्हारी मदद तो करते नहीं, बल्कि इसके विपरीत ये तुम्हारी समस्याओं को और अधिक गंभीर और बद से बदतर बना सकते हैं। क्या तुम लोग यह मानते हो? (हाँ।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। “अंत में, एक ऐसी बात है जो मैं तुम सबको बताना चाहता हूँ : एक मामूली-सी भावना या एक सरल, तुच्छ भावना को अपने शेष जीवन को उलझाने मत दो, जिससे वह तुम्हारी उद्धार-प्राप्ति को प्रभावित कर दे, उद्धार की तुम्हारी आशा को नष्ट कर दे, समझे? (बिल्कुल।) तुम्हारी यह भावना सिर्फ नकारात्मक नहीं, और सटीक रूप से कहें तो यह वास्तव में परमेश्वर और सत्य के विरुद्ध है। तुम सोच सकते हो कि यह तुम्हारी सामान्य मानवता के भीतर की एक भावना है, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, यह बस भावना की एक मामूली बात नहीं है, बल्कि परमेश्वर के विरोध की पद्धति है। यह नकारात्मक भावनाओं द्वारा चिह्नित पद्धति है जो लोग परमेश्वर, उसके वचनों और सत्य का प्रतिरोध करने में प्रयोग करते हैं। इसलिए, यह मानकर कि तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, मुझे आशा है कि तुम बारीकी से आत्म-परीक्षण करोगे और देखोगे कि क्या तुम इन नकारात्मक भावनाओं को पाले हुए हो, और जिद्दी होकर बेवकूफी से परमेश्वर का प्रतिरोध कर उसके साथ होड़ लगा रहे हो। यदि परीक्षा के जरिये तुमने उत्तर पा लिया है, यदि तुम्हें आभास हो गया है और तुम एक स्पष्ट जागरूकता पा चुके हो, तो सबसे पहले मैं तुमसे आग्रह करूँगा कि इन भावनाओं को जाने दो। इन्हें सँजोकर मत रखो, या इन्हें मत पालो, क्योंकि ये तुम्हें नष्ट कर देंगी, तुम्हारी मंजिल बरबाद कर देंगी, और सत्य के अनुसरण और उद्धार प्राप्त करने की तुम्हारी आशा को खत्म कर देंगी(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर ने बहुत साफ कहा। नकारात्मक भावनाएँ छोटी सी समस्या लग सकती हैं, लेकिन ये किसी व्यक्ति के सत्य के अनुसरण और कर्तव्य अच्छे से निभाने पर बहुत असर डालती हैं। मैं सोचती थी कि हर कोई नकारात्मक भावनाओं का अनुभव करता है, यह सिर्फ कुछ खास परिवेशों में सोच और विचारों का बेनकाब होना है और यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। इसलिए जब मैंने देखा कि परमेश्वर द्वारा उजागर की गई नकारात्मक भावनाएँ किसी व्यक्ति को सत्य और परमेश्वर का विरोध करने के लिए उकसा सकती हैं और उसके उद्धार के अवसर को चौपट कर सकती हैं तो मेरे दिल में बहुत अधिक वास्तविक अनुभव या समझ नहीं थी। इस दौरान मैंने जो कुछ भी बेनकाब किया था, उस पर आत्म-चिंतन करते हुए मैं भावुक होने लगी। जब मैंने देखा कि काम बहुत ज्यादा है और कितनी सारी परियोजनाएँ चल रही हैं तो मैंने सोचा कि यह कर्तव्य अच्छे से निभाने से मेरी देह को पीड़ा और थकान होगी और मुझे दमन की भावना महसूस हुई, मेरा मन भारी हो गया और मुझे मुक्ति का एहसास नहीं हो पा रहा था। जब मैंने वास्तव में इस कर्तव्य का जायजा लिया तो मैंने पाया कि सँभालने के लिए कई विशिष्ट कार्य थे और कई समस्याएँ थीं जिन्हें सत्य के बारे में संगति के माध्यम से सुलझाने की जरूरत थी। लेकिन मुझे इस काम में अनुभव की कमी थी और मैंने सोचा कि हर काम अच्छी तरह से सँभालने के लिए मेरी देह को कष्ट सहना होगा। इससे मैं बहुत व्यथित हो गई थी और मेरी नकारात्मक भावनाएँ लगातार उभरती रहती थीं। हर दिन मैं बस खुद को अपना कर्तव्य निभाने के लिए मजबूर कर रही थी और मेरे दिल में जिम्मेदारी का कोई असल भाव नहीं था। मैं देह की परवाह करती थी, दमनकारी भावनाओं में डूबी रहती थी और अपने कर्तव्य में कमजोर और निष्क्रिय थी। यह अनिवार्य रूप से मेरे असंतोष को बाहर निकालने और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश के प्रति अवज्ञाकारी होने के बराबर था। यह सत्य और परमेश्वर का प्रतिरोध करना था और परमेश्वर के विरोध में खड़ा होना था। परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की पड़ताल करता है और अपने कर्तव्य के प्रति मेरे रवैये ने परमेश्वर को मुझसे घृणा करने पर मजबूर कर दिया था। मैंने अपने कर्तव्य में पवित्र आत्मा का कार्य गँवा दिया था। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव ही था जो मुझ पर आ रहा था। इस एहसास ने मुझे भयभीत कर दिया और मुझे पता था कि मुझे जितनी जल्दी हो सके अपनी नकारात्मक भावनाओं को हल करना होगा।

बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “यदि तुम लोग सत्य नहीं स्वीकारते—सत्य का अभ्यास तो बिल्कुल नहीं करते—और परमेश्वर के घर में बस निरुद्देश्य कार्य करते हो, तो असल में तुम्हारा मकसद क्या है? क्या तुम परमेश्वर के घर को अपना सेवानिवृत्ति का घर या खैरात घर बनाना चाहते हो? यदि ऐसा सोच रहे हो, तो यह तुम्हारी भूल है—परमेश्वर का घर मुफ्तखोरों और उड़ाने-खाने वाले लोगों के लिए नहीं है। जिन लोगों की मानवता अच्छी नहीं है, जो खुशी-खुशी अपना कर्तव्य नहीं निभाते, जो कर्तव्य निभाने योग्य नहीं हैं, उन सबको साफ किया जाना चाहिए; जो छद्म-विश्वासी सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते, उन्हें हटा देना चाहिए। कुछ लोग सत्य समझते तो हैं लेकिन कर्तव्य निभाते हुए उसे अमल में नहीं ला पाते। समस्या देखकर भी वे उसका समाधान नहीं करते और भले ही वे जानते हों कि यह उनकी जिम्मेदारी है, वे उसे अपना सर्वस्व नहीं देते। जिन जिम्मेदारियों को तुम निभाने के काबिल होते हो, जब तुम उन्हें नहीं निभाते हो, तो तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का क्या मूल्य या प्रभाव रह जाता है? क्या इस तरह से परमेश्वर में विश्वास रखना सार्थक है? अगर कोई व्यक्ति सत्य समझकर भी उस पर अमल नहीं करता, उन कठिनाइयों को सह नहीं पाता जो उसे सहनी चाहिए, तो ऐसा व्यक्ति कर्तव्य निभाने योग्य नहीं होता। कुछ लोग सिर्फ पेट भरने के लिए कर्तव्य निभाते हैं। वे भिखारी होते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे परमेश्वर के घर में कुछ काम करेंगे, तो उनके रहने और जीविका का ठिकाना हो जाएगा, बिना नौकरी के ही उनके लिए हर चीज की व्यवस्था हो जाएगी। क्या ऐसी सौदेबाजी जैसी कोई चीज होती है? परमेश्वर का घर आवारा लोगों की व्यवस्था नहीं करता। यदि कोई व्यक्ति सत्य का थोड़ा भी अभ्यास नहीं करता, और जो अपने कर्तव्य निर्वहन में लगातार लापरवाह रहता है और खुद को परमेश्वर का विश्वासी कहता है, तो क्या परमेश्वर उसे स्वीकारेगा? ऐसे तमाम लोग छद्म-विश्वासी होते हैं और जैसा कि परमेश्वर उन्हें समझता है, वे कुकर्मी होते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। “आज, तुम मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते, और उन पर ध्यान नहीं देते; जब इस कार्य को फैलाने का दिन आएगा, और तुम उसकी संपूर्णता को देखोगे, तब तुम्हें अफसोस होगा, और उस समय तुम भौंचक्के रह जाओगे। आशीषें हैं, फिर भी तुम्हें उनका आनंद लेना नहीं आता, सत्य है, फिर भी तुम्हें उसका अनुसरण करना नहीं आता। क्या तुम अपने-आप पर अवमानना का दोष नहीं लाते? आज, यद्यपि परमेश्वर के कार्य का अगला कदम अभी शुरू होना बाकी है, फिर भी तुमसे जो कुछ अपेक्षित है और तुम्हें जिन्हें जीने के लिए कहा जाता है, उनमें कुछ भी अतिरिक्त नहीं है। इतना सारा कार्य है, इतने सारे सत्य हैं; क्या वे इस योग्य नहीं हैं कि तुम उन्हें जानो? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुम्हारी आत्मा को जागृत करने में असमर्थ हैं? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुममें खुद के प्रति नफरत पैदा करने में असमर्थ हैं? क्या तुम शैतान के प्रभाव में जी कर, और शांति, आनंद और थोड़े-बहुत दैहिक सुख के साथ जीवन बिताकर संतुष्ट हो? क्या तुम सभी लोगों में सबसे अधिक निम्न नहीं हो? उनसे ज्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा तो है लेकिन उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह से देह-सुख में लिप्त होकर शैतान का आनंद लेते हैं। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्‍हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्‍मे हो!(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए लगा कि मेरा गहराई से न्याय किया गया है। परमेश्वर उन लोगों से घृणा करता है जो लगातार दैहिक सुख और आनंद के पीछे भागते हैं। ऐसे लोग कष्ट नहीं सहते या अपने कर्तव्य में कोई कीमत नहीं चुकाते और उनके लिए अपनी जिम्मेदारी पूरी करना या परमेश्वर के लिए खुद को वाकई खपाना असंभव है। मैंने हमेशा दैहिक सुख की तलाश की है, मैं शैतानी जहर के अनुसार जीती थी कि “जिंदगी छोटी है; जब तक उठा सकते हो आनंद उठाओ,” “आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना” और “जिंदगी छोटी है, मस्त रहो।” मेरा मानना था कि इस दुनिया में जिंदगी परेशानियों और दुखों से भरी है और किसी को अपने लिए चीजों को मुश्किल नहीं बनाना चाहिए, बल्कि जीवन का आनंद लेना और खुद से अच्छा व्यवहार करना सीखना चाहिए। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद मुझे पता चला कि सत्य का अनुसरण करना और अपना कर्तव्य निभाना जीवन का सही मार्ग है और सत्य पाने के लिए व्यक्ति को कष्ट सहने चाहिए और कीमत चुकानी चाहिए। लेकिन जब मुझे पर्यवेक्षक चुना गया और मुझे और ज्यादा जिम्मेदारियाँ उठाने की जरूरत थी तो काम अच्छी तरह से करने के लिए ज्यादा कष्ट सहने और आरामदायक व आसान जीवन नहीं जी पाने के विचार से मुझे दमन की भावना महसूस हुई और मेरा मन भारी हो गया। काम का बोझ बढ़ता देखकर मैं असंतुष्ट, प्रतिरोधी और बेहद शिकायती महसूस करने लगी और मैंने अपनी काबिलियत के अनुसार समस्याएँ सुलझाने में भी देरी की। मैंने देखा कि मैं ठीक वैसी ही इंसान थी जैसा परमेश्वर ने उजागर किया था : एक ऐसी इंसान जो अपने कर्तव्य निभाने को तैयार नहीं है, एक मुफ्तखोर और निकम्मी इंसान जो आरामपसंद है और कार्य से घृणा करती है। मैंने सोचा कि कितने सुसमाचार-प्रचारक भाई-बहनों ने धार्मिक लोगों से दुर्व्यवहार और अपमान सहा, साथ ही बड़े लाल अजगर द्वारा उत्पीड़न और गिरफ्तारी भी झेली और यहाँ तक कि अपनी जान गँवाने का जोखिम भी उठाया। उनमें से कुछ ने संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं की समस्याएँ सुलझाने के लिए खुद को सत्य से सुसज्जित करने का प्रयास किया, धर्मालु लोगों की धारणाएँ सुलझाने के लिए बार-बार संगति की। चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न आई हों, वे पीछे नहीं हटे या उन्होंने हार नहीं मानी, परमेश्वर के इरादों पर विचार करने और ज्यादा से ज्यादा लोगों तक सुसमाचार का प्रचार करने के लिए तैयार रहे। जिन लोगों में सचमुच मानवता है उन्हें यही करना चाहिए। फिर अपने बारे में सोचने पर अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया विशेष रूप से अपमानजनक और ढीला था, मानो कि पर्यवेक्षक बनाए जाने से मेरे लिए जानबूझकर चीजें मुश्किल बनाई जा रही होंं और मैं बस परमेश्वर के घर में कष्ट या मेहनत से बचना चाहती थी और मुफ्तखोर बनकर दिन गुजारना चाहती थी। ऐसी मानवता वाली मेरे जैसी इंसान कर्तव्य निभाने की हकदार नहीं थी। मैं वाकई स्वार्थी और नीच थी! दरअसल परमेश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति को उसके वास्तविक आध्यात्मिक कद के अनुसार जिम्मेदारी दी है और उसके कर्तव्य का उपयोग करके उसकी कमियाँ पूरी की हैं और सत्य पाने में उसकी मदद की है। पहली बार अपना यह कर्तव्य निभाना शुरू करने के समय के बारे में सोचती हूँ तो मैंने कार्य में मुश्किलों और समस्याओं का सामना किया और सत्य सिद्धांत खोजने के लिए प्रार्थना करके और परमेश्वर पर भरोसा करके मैंने कुछ लाभ हासिल किए। बाद में जब सुसमाचार कार्यकर्ताओं की अवस्थाओं या काम में कुछ समस्याएँ आईं तो इन्हें सुलझाने के लिए उनके साथ संगति के माध्यम से मैंने कुछ प्रगति भी की, जो कुछ ऐसा था जिसे एक आरामदायक परिवेश में नहीं पाया जा सकता था। लेकिन शैतानी जहर के प्रभाव में मैं बेकार और नीच चीजों का अनुसरण करती थी, हमेशा अपने दैहिक हितों की रक्षा करने के अपने कर्तव्य से बचने के बारे में सोचती रही, नकारात्मक भावनाओं में जीती रही और परमेश्वर की प्रतिरोधी हो गई। मैं वाकई विद्रोही थी और सही और गलत में फर्क करने में असमर्थ थी! अगर मैं देह के लिए जीना जारी रखती तो मैं अपने कर्तव्य निर्वहन के जरिए सत्य पाने का अवसर निश्चित तौर पर चौपट कर देती। इसका एहसास होने पर मुझे गहरा अपराध बोध और पछतावा हुआ और मैंने रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं गलत थी। अपने कर्तव्य के प्रति मेरे रवैये ने तुम्हें खीझ और निराशा का अनुभव कराया है। मैंने तुम्हारे इरादे पर खरी नहीं उतरी हूँ। हे परमेश्वर मैं अब तुम्हारे खिलाफ विद्रोही नहीं होना चाहती और मैं अपने देह के खिलाफ विद्रोह करने और यह जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार हूँ।”

बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे सभी ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अपना उचित कार्य करते हैं, वे सभी अपने कर्तव्य निभाने के इच्छुक होते हैं, वे किसी कार्य का दायित्व लेकर उसे अपनी काबिलियत और परमेश्वर के घर के विनियमों के अनुसार अच्छी तरह से करने में सक्षम होते हैं। निस्संदेह शुरू में इस जीवन के साथ सामंजस्य बैठाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। तुम शारीरिक और मानसिक रूप से थका हुआ महसूस कर सकते हो। लेकिन अगर तुम में वास्तव में सहयोग करने का संकल्प है और एक सामान्य और अच्छा इंसान बनने और उद्धार प्राप्त करने की इच्छा है, तो तुम्हें थोड़ी कीमत चुकानी होगी और परमेश्वर को तुम्हें अनुशासित करने देना होगा। जब तुममें जिद्दी होने की तीव्र इच्छा हो, तो तुम्हें उसके खिलाफ विद्रोह कर उसे त्याग देना चाहिए, धीरे-धीरे अपना जिद्दीपन और स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ कम करनी चाहिए। तुम्हें निर्णायक मामलों में निर्णायक समय पर और निर्णायक कार्यों में परमेश्वर की मदद लेनी चाहिए। अगर तुम में संकल्प है, तो तुम्हें परमेश्वर से कहना चाहिए कि वह तुम्हें ताड़ना देकर अनुशासित करे, और तुम्हें प्रबुद्ध करे ताकि तुम सत्य समझ सको, इस तरह तुम्हें बेहतर परिणाम मिलेंगे। अगर तुम में वास्तव में दृढ़ संकल्प है और तुम परमेश्वर की उपस्थिति में उससे प्रार्थना कर विनती करते हो, तो परमेश्वर कार्य करेगा। वह तुम्हारी अवस्था और तुम्हारे विचार बदल देगा। अगर पवित्र आत्मा थोड़ा-सा कार्य करता है, तुम्हें थोड़ा प्रेरित और थोड़ा प्रबुद्ध करता है, तो तुम्हारा हृदय बदल जाएगा और तुम्हारी अवस्था रूपांतरित हो जाएगी। ... अगर तुम इस तरह के रूपांतरण से गुजर सको, तो परमेश्वर का घर तुम्हारे वहाँ रहकर अपना कर्तव्य निभाने, अपना मिशन पूरा करने और हाथ में लिए अपने काम को पूरी तरह से खत्म करने के लिए स्वागत करेगा। निस्संदेह जिन लोगों में ये नकारात्मक भावनाएँ हों, उनकी मदद सिर्फ प्रेमपूर्ण हृदय से ही की जा सकती है। अगर कोई व्यक्ति लगातार सत्य स्वीकारने से इनकार करता है और बार-बार चेताने के बावजूद पश्चात्ताप नहीं करता, तो हमें उसे विदा कर देना चाहिए। लेकिन अगर कोई वास्तव में बदलने, पलटने, अपना ढर्रा बदलने का इच्छुक है, तो हम उनके रहने का हार्दिक स्वागत करते हैं। अगर वे वास्तव में रहने और अपने पिछले नजरिए और जीने के तरीके बदलने के इच्छुक हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय धीरे-धीरे रूपांतरण से गुजरने में सक्षम हैं, और जितने ज्यादा समय तक अपना कर्तव्य निभाते हैं उतना ही बेहतर होते जाते हैं, तो हम ऐसे लोगों के रहने का स्वागत करते हैं और आशा करते हैं कि उनमें सुधार होता जाएगा। हम उनके लिए बड़ी शुभकामना भी व्यक्त करते हैं : हम कामना करते हैं कि वे अपनी नकारात्मक भावनाओं से उबरें, उनमें और न उलझें या उनकी छाया में और न घिरें, इसके बजाय वे अपना उचित कार्य करें और सही मार्ग पर चलें, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार सामान्य लोगों को जो करना चाहिए वही करें और जैसे जीना चाहिए वैसे ही जिएँ, और परमेश्वर के घर में परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार नियमित रूप से अपने कर्तव्य निभाएँ, जीवन में और न भटकें। हम उनके अच्छे भविष्य की कामना करते हैं, और यह भी कि वे अब जैसा चाहे वैसे न करें, या सिर्फ सुख-प्राप्ति और शारीरिक आनंद की चिंता न करें, बल्कि अपने कर्तव्य निभाने, जीवन में जिस मार्ग पर वे चलते हैं उसके और सामान्य मानवता को जीने से संबंधित मामलों के बारे में ज्यादा सोचें। हम तहे-दिल से कामना करते हैं कि वे परमेश्वर के घर में खुशी से, स्वतंत्रतापूर्वक और मुक्त होकर रहें और यहाँ अपने जीवन में दैनिक शांति और खुशी अनुभव करें, गर्मजोशी और आनंद महसूस करें। क्या यह सबसे बड़ी शुभकामना नहीं है? (हाँ, है।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। दमन की स्थिति में फँसे लोगों को कायम रखने के परमेश्वर के प्रयास और उनके लिए उसकी इच्छा देखकर मुझे गर्मजोशी का एहसास हुआ और मैं बहुत भावुक और प्रोत्साहित हो गई। परमेश्वर उम्मीद करता है कि मैं उसकी अपेक्षाओं के अनुसार आचरण कर सकती हूँ, सामान्य मानवता का जीवन जी सकती हूँ, अपना उचित कार्य कर सकती हूँ और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकती हूँ। मैंने यह भी महसूस किया कि मानवता वाला इंसान बनने और जीवन में सही मार्ग पर चलने के लिए किसी को सकारात्मक चीजें आगे बढ़ाने का संकल्प लेना चाहिए, अपने कर्तव्य करने में मुश्किलों और समस्याओं का सामना होने पर सचेत होकर देह के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए और समस्याएँ सुलझाने के लिए वाकई कीमत चुकानी चाहिए और इस तरह एक वयस्क की जिम्मेदारियाँ उठानी चाहिए। इसके अलावा हर दिन अपना कर्तव्य निभाने से पहले व्यक्ति को सच्चे दिल से परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसकी जाँच-पड़ताल स्वीकारनी चाहिए। जब मैं खुद को देह के प्रति विचारशील होते और अपने कर्तव्य की उपेक्षा करते देखूँ तो मुझे परमेश्वर से कहना चाहिए कि वह मुझे फटकारे और अनुशासित करे और मुझे अपना कर्तव्य पूरे दिल और ताकत से निभाने का प्रयास करना चाहिए। सिर्फ इस तरह जीने से ही मैं मानव के समान बन पाऊँगी। इन बातों को समझने के बाद मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना और उनमें प्रवेश करना चाहती थी। तब से मैं जिस भी कार्य में शामिल हुई, मैंने उसे परमेश्वर को सौंप दिया और उस पर भरोसा किया और मैंने सामग्री पर शोध करके, प्रार्थना और खोज करके वाकई कीमत चुकाई और यह चिंतन किया कि अच्छे नतीजे पाने के लिए संगति कैसे की जाए। जब ऐसी चीजों का सामना करना पड़ता था जो मुझे समझ में नहीं आती थीं या जिन्हें मैं सँभाल नहीं पाती थी तो मैं अपने भाई-बहनों के साथ संवाद करती थी। मेरे कर्तव्य में आने वाली समस्याएँ धीरे-धीरे सुलझ रही थीं। हालाँकि मेरे कर्तव्य में काम का बोझ पहले जैसा ही था, लेकिन अब मुझे दमन की भावना महसूस नहीं होती थी, बल्कि मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए प्रयास करना और कीमत चुकाना उचित समझती थी। मुझे अपने दिल में सुख और तृप्ति की भावना का अनुभव भी हुआ और मैंने अपने कार्य में कुछ वास्तविक कौशल भी सीख लिए। मुझे लगता है कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना वाकई महान है और अब मैं मूल्यवान और सम्मानजनक जीवन जी रही हूँ!

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