31. मैं अपनी काबिलियत को सही ढंग से ले सकती हूँ

शेली, यूएसए

अप्रैल 2023 में मैं सिंचन टीम की अगुआ चुनी गई थी। जैसे-जैसे नवागंतुकों की संख्या बढ़ी, मुझे टीम के सारे कार्यों पर नजर रखने की जरूरत भी पड़ने लगी। ऐसा लगता था कि दिन-भर का समय पर्याप्त नहीं है। कभी-कभी जब मैं भाई-बहनों के काम की जाँच परख करती थी, तो मैंं खुद नवागंतुकों के सिंचन पर कम समय दे पाती थी और कभी-कभी जब मैं नवागंतुकों के सिंचन को प्राथमिकता देती थी तो मैं टीम के काम पर करीब से नजर नहीं रख पाती थी। मैं कभी भी सभी कामों में संतुलन नहीं रख पाती थी। यह परिस्थिति मुझे बेचैन करती थी, और मुझे डर लगता था कि अगुआ कहेगी कि मेरी कार्यक्षमता अच्छी नहीं है और मुझमें काबिलियत की कमी है। मैं खास तौर से इस बात से डरती थी कि टीम अगुआ का मेरा कर्तव्य बदल दिया जाएगा। मेरे पहले के परिचित भाई-बहनों में से कुछ अगुआ बन गए थे और कुछ सुपरवाइजर। जबकि मैं केवल एक टीम अगुआ थी और मुझ पर कर्तव्य बदले जाने की तलवार लटक रही थी। मैं कुछ असंतुष्ट-सी थी। क्या मैं वास्तव में अपना पूरा जीवन इसी तरह औसत दर्जे की बनी रहने वाली हूँ? क्या मुझमें वाकई अगुआ या सुपरवाइजर बनने की काबिलियत नहीं है? मुझे याद है भाई-बहनों ने बात की थी कि अपने समय की सही योजना बनाने से अपने कर्तव्य की दक्षता में सुधार हो सकता है, मुझे आशा की एक किरण नजर आई। क्या मैं भी इस तरीके से अपनी कार्यक्षमता में सुधार नहीं ला सकती? यही नहीं, जब मैं पीड़ा सहूँगी और अपने कर्तव्य में कीमत चुकाऊँगी, तो क्या परमेश्वर मुझ पर कृपा कर मेरी काबिलियत और कार्यक्षमता में सुधार नहीं करेगा? यह सोचकर मैं इसे फौरन अमल में लाने में जुट गई। मैं प्रतिदिन अपना शेड्यूल बनाती जिसमें हर घंटे के अपने काम का रिकॉर्ड रखती और अपने समय का अधिकतम उपयोग करने का यथासंभव प्रयास करती। कुछ समय तक कठिन परिश्रम करने के बाद भी मुझे अपने कार्य के नतीजों में कुछ खास सुधार होते नहीं दिखा। उस समय मैं बहुत परेशान हो गई; मैं सुधार क्यों नहीं ला पाई? परमेश्वर दूसरे भाई-बहनों पर कृपा कर उन्हें काबिलियत क्यों देता है, उन्हें ही अगुआ और सुपरवाइजर के कर्तव्य के योग्य क्यों बनाता है? जबकि मैंने मैंने समय तक कठिन परिश्रम किया था, लेकिन एक टीम अगुआ बनने में ही इतनी कठिनाई झेलनी पड़ रही थी। क्या वास्तव में मुझ पर परमेश्वर की कृपादृष्टि नहीं थी? खासकर जब मेरे काम में समस्याएँ आईं या नतीजे खराब रहे, तो मैं और अधिक अवसादग्रस्त और निराश हो गई। मैंने अनुमान लगाया कि बर्खास्त होने में अब ज्यादा समय नहीं बचा है। एक बार मेरी सुपरवाइजर मेरी स्थिति जान गई और मुझसे बोली, “तुम्हारे दिल पर बहुत बड़ा बोझ है। तुम्हारी काबिलियत और कार्यक्षमता अधिक काबिल भाई-बहनों की तुलना में कम है, लेकिन तुममें अपनी खूबियाँ हैं, जैसेे कि जब तुम्हारे काम में समस्याएँ और कठिनाइयाँ आती हैं तो तुम खुलकर बात और खोज करती हो। जीवन प्रवेश के मामले में भी तुम हर किसी की मदद करती हो। तुम्हें सिर्फ अपनी खूबियों का भरपूर उपयोग करना और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना है।” हाँ, मुझे लगता था कि मेरा जीवन बहुत बोझिल है और मैं खुद पर बहुत ज्यादा अनावश्यक दबाव डाल रही हूँ।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “तुम्हें लगता है कि तुम जितना ज्यादा ऐसी चीजें प्राप्त करने में समर्थ होते हो जो अलौकिक हों, तुम्हारी अपनी ही काबिलियत और क्षमताओं की सीमा से परे हों, उससे यह साबित होता है कि उतना ही ज्यादा यह परमेश्वर का कार्य है; कि अगर तुम्हारी ईमानदारी और सहयोग करने की तुम्हारी इच्छा लगातार बढ़ती जाती है, तो परमेश्वर तुममें ज्यादा से ज्यादा कार्य करेगा और तुम्हारी काबिलियत और क्षमताएँ लगातार बढ़ती रहेंगी। क्या लोगों की यही धारणा और कल्पना नहीं होती है? (हाँ।) क्या तुम लोगों की विशेष रूप से इस तरह से सोचने की प्रवृत्ति है? (है।) इस तरह से सोचने का क्या नतीजा होता है? क्या यह हमेशा विफलता और कार्यान्वयन का अभाव नहीं होता है? कुछ लोग तो नकारात्मक भी हो जाते हैं और कहते हैं, ‘मैंने परमेश्वर के प्रति भरपूर निष्ठा रखी है तो फिर परमेश्वर मुझे अच्छी काबिलियत क्यों नहीं देता है? परमेश्वर मुझे अलौकिक क्षमताएँ क्यों नहीं देता है? मैं अब भी हमेशा कमजोर क्यों हूँ? मेरी काबिलियत में कोई सुधार नहीं हुआ है, मैं कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता हूँ और पेचीदा मामलों का सामना करने पर घबरा जाता हूँ। पहले भी ऐसा ही था, अब भी ऐसा ही क्यों है? इसके अलावा, मैं अपने कर्तव्य के निर्वहन और समस्याओं से निपटने में कभी भी अपने देह से ऊपर क्यों नहीं उठ पाता हूँ? मैं कुछ धर्म-सिद्धांत समझता हूँ, फिर भी मैं चीजें स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता हूँ और जब मामलों से निपटने की बात आती है, तो मैं ढुलमुल बना रहता हूँ और मैं अब भी ऊँची काबिलियत वाले लोगों जितना अच्छा नहीं हूँ। मेरी कार्य क्षमता भी खराब है और मेरे कर्तव्य का निर्वहन अकुशल है। मेरी काबिलियत में बिल्कुल भी सुधार नहीं हुआ है! यह क्या हो रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि परमेश्वर के प्रति मेरी ईमानदारी अपर्याप्त है? या परमेश्वर मुझे पसंद नहीं करता है? मुझमें कहाँ कमी है?’ कुछ लोग विभिन्न कारण तलाशते हैं और इस सच्चाई को बदलने के लिए कई तरीके आजमा चुके हैं, जैसे कि ज्यादा धर्मोपदेश सुनना, परमेश्वर के ज्यादा वचन याद करना, ज्यादा आध्यात्मिक भक्ति टिप्पणियाँ लिखना, साथ ही लोगों को सत्य की ज्यादा संगति करते हुए सुनना और ज्यादा खोजना, लेकिन अंतिम नतीजा अब भी निराशाजनक ही होता है। उनकी काबिलियत और कार्य क्षमता पहले जैसी ही बनी रहती है, तीन से पाँच वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी उनमें कोई सुधार नहीं होता है(वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। “अगर तुम हमेशा यही मानते हो कि परमेश्वर के कार्य करने और लोगों को सत्य प्रदान करने के लिए बोलने का उद्देश्य मनुष्यों के इन सभी जन्मजात गुणों को बदलना है और सोचते हो कि सिर्फ तभी व्यक्ति को पूरी तरह से फिर से जन्मा, सही मायने में वैसा नया व्यक्ति माना जा सकता है जैसा परमेश्वर ने कहा है, तो तुम्हारा सोचना बहुत ही गलत है। यह एक मानवीय धारणा और कल्पना है। इसे समझ लेने के बाद तुम्हें ऐसी धारणाएँ, कल्पनाएँ, अनुमान या भावनाएँ छोड़ देनी चाहिए। यानी सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में तुम्हें ऐसी चीजों का निचोड़ निकालने के लिए हमेशा भावनाओं या अटकलों पर भरोसा नहीं करना चाहिए, जैसे : ‘क्या मेरी काबिलियत में सुधार हुआ है? क्या मेरी सहज प्रवृत्ति बदल गई है? क्या मेरा व्यक्तित्व अब भी पहले जैसा ही खराब है? क्या मेरे जीने का ढब बदल गया है?’ इन पर सोच-विचार मत करो; ऐसा सोच-विचार करना निष्फल है क्योंकि परमेश्वर का इरादा इन पहलुओं को बदलना नहीं है और परमेश्वर के वचनों और कार्यों ने कभी भी इन चीजों को लक्ष्य नहीं बनाया है। परमेश्वर के कार्य का लक्ष्य कभी भी लोगों की काबिलियत, सहज प्रवृत्तियों, व्यक्तित्व, वगैरह को बदलना नहीं रहा है और न ही परमेश्वर ने लोगों के इन पहलुओं को बदलने के उद्देश्य से बात की है। दूसरे शब्दों में कहें तो परमेश्वर का कार्य लोगों को उनकी जन्मजात स्थितियों के आधार पर सत्य प्रदान करता है, जिसका लक्ष्य पहले लोगों को सत्य समझाना और फिर उनसे सत्य स्वीकार करने और उसके प्रति समर्पण करने के लिए प्रेरित करना है। चाहे तुम्हारी काबिलियत कैसी भी हो और चाहे तुम्हारा व्यक्तित्व और सहज प्रवृत्तियाँ कैसी भी हों, परमेश्वर तुम्हारी जन्मजात काबिलियत, सहज प्रवृत्तियों और तुम्हारे व्यक्तित्व को बदलने के बजाय तुममें सत्य ढालना है और तुम्हारी पुरानी धारणाएँ और भ्रष्ट स्वभाव बदलना चाहता है। अब तुम समझ गए हो, है ना? परमेश्वर का कार्य क्या बदलने का लक्ष्य रखता है? (परमेश्वर का कार्य लोगों में निहित पुरानी धारणाओं और भ्रष्ट स्वभावों को बदलने का लक्ष्य रखता है।) अब जब तुम यह सत्य समझ गए हो, तो तुम्हें वे कल्पनाएँ और धारणाएँ छोड़ देनी चाहिए जो अवास्तविक हैं और अलौकिक चीजों से संबंधित हैं और तुम्हें इन धारणाओं और कल्पनाओं का उपयोग खुद को मापने या खुद से माँगें करने के लिए नहीं करना चाहिए। इसके बजाय तुम्हें परमेश्वर द्वारा तुम्हें दी गई विभिन्न जन्मजात स्थितियों के आधार पर सत्य खोजना और स्वीकारना चाहिए। इसमें अंतिम लक्ष्य क्या है? वह यह है कि तुम अपनी जन्मजात स्थितियों के आधार पर सत्य सिद्धांतों को समझो, हर उस सत्य सिद्धांत को समझो जिसका तुम्हें विभिन्न स्थितियों का सामना करने पर अभ्यास करना चाहिए और इन्हीं सत्य सिद्धांतों के अनुसार तुम लोगों और चीजों को देख सकते हो और आचरण और कार्य कर सकते हो। ऐसा करने से परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी होती हैं(वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद अचानक मुझे समझ आ गया कि मैं अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जी रही थी। मैं सोचती थी कि अगर कोई परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखता है, अपना कर्तव्य ध्यान से निभाता है, पीड़ा सहता है और मूल्य चुकाता है, तो परमेश्वर उस पर कृपा करेगा, उसकी काबिलियत और कार्यक्षमताओं में सुधार लाने में सहायता करेगा और उसके कार्य के नतीजों को ऐसा बना देगा जो उसकी मूल काबिलियत और कार्यक्षमताओं से बढ़कर हो। भले ही ऐसे व्यक्ति में काबिलियत की कमी हो, तो भी वह कलीसिया में अगुआई और देख-रेख का काम कर सकता है और वहाँ एक मजबूत स्तंभ बन सकता है। तो धीरे-धीरे काम करने और खराब कार्यक्षमता रखने के बावजूद, मुझे लगता था कि अगर मैंने अपना काम ध्यान से किया, पीड़ा सही और मूल्य चुकाया तो परमेश्वर मुझ पर कृपा करेगा। तो मैं चाहती थी कि मैं अपने रोज के काम की सूची बनाऊँ, अपने समय की योजना बनाऊँ, पीड़ा सहूँ और मूल्य चुकाऊँ ताकि अपनी काबिलियत और कार्यक्षमता में सुधार कर सकूँ। लेकिन कुछ समय तक कड़ी मेहनत करने के बावजूद, मेरी काबिलियत और कार्यक्षमता में उतना सुधार नहीं हुआ, जितने की मैंने अपेक्षा की थी और इससे मैं निराशा और अवसाद में चली गई। मुझे लगा परमेश्वर मुझ पर कृपा या काम नहीं कर रहा। अब परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मैंने समझा कि परमेश्वर का कार्य अलौकिक नहीं है, बल्कि व्यावहारिक है। मेरी काबिलियत परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है। परमेेश्वर सत्य में प्रवेश करने में लोगों की मदद काम करता है, ताकि वे अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़कर सच्चे मानवीय गुणों को जिएँ। वह लोगों की काबिलियत और कार्यक्षमताओं को बढ़ाने के लिए कार्य नहीं करता है। जब लोग ईमानदारी से अपना काम करते हुए सत्य खोजते हैं तो वे पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन पा सकते हैं और अपने काम में आने वाली कुछ बाधाओं से पार पा सकते हैं। लेकिन यह सब लोगों की मूल काबिलियत पर आधारित है और लोग इसे कड़ी मेहनत के जरिए हासिल कर सकते हैं। खराब काबिलियत वाला ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसने पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने के कारण अगुआ की काबिलियत हासिल की हो। ये सभी मेरी धारणाएँ और कल्पनाएँ थीं। मुझे एहसास हुआ कि अगर परमेश्वर में विश्वास रखने वाले सत्य की खोज न करें और केवल अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार अनुसरण करें, वे न तो सत्य समझ पाएँगे और न ही अच्छे से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर पाएँगे, बल्कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के विपरीत भी चलेंगे।

थोड़ी देर बाद कार्य की आवश्यकताओं को देखते हुए, मेरी सुपरवाइजर ने मेरे लिए व्यवस्था की कि मैं दूसरी कलीसिया में जाकर नवागंतुकों का सिंचन करूँ। जो बहन पहले मेरी भागीदार रह चुकी थी, वह अब कलीसिया की सुपरवाइजर बन चुकी थी जबकि मैं केवल सिंचनकर्मी बनकर रह गई थी। मुझे अचानक महसूस हुआ कि मेरे और उसके बीच बहुत दूरी आ गई है। हालाँकि मैं जानती थी कि परमेश्वर के कार्य में लोगों की काबिलियत नहीं बदलती, फिर भी मैं इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं थी और अपनी काबिलियत से असंतुष्ट थी। मुझे लगता था कि कलीसिया केवल काबिल लोगों को ही बढ़ावा देता और विकसित करता है और वही कलीसिया के स्तंभ भी होते हैं। केवल ऐसे लोगों की ही उज्ज्वल संभावनाएँ होती हैं और अन्य लोग उनके बारे में ऊँचा सोचते हैं। जबकि कम काबिल लोग कोई छोटा-मोटा काम ही कर सकते हैं, लोग उन्हें तुच्छ समझते हैं और परमेश्वर भी उन्हें नापसंद करता है। मैं नहीं चाहती थी मुझ पर “नाकाबिल” होने का ठप्पा लगे। मुझे लगता था कि एक बार अगर मुझ पर ऐसा ठप्पा लग गया, तो यह मान लेना होगा कि मैं कूड़ा-कचरा हूँ। फिर मेरे लिए कोई भी संभावनाएँ नहीं होंगी! ऐसा तो बिल्कुल नहीं चलेगा; मुझे प्रयास करते रहना होगा। भले ही मैं अपनी काबिलियत में अधिक सुधार न कर सकूँ, अगर मैं अपने काम में कष्ट सहकर और मूल्य चुकाकर, दूसरों जितनी काबिलियत हासिल कर पाऊँ तो भी ठीक है। इसलिए मैंने फिर फौरन खुद को अपने काम में झोंक दिया और उसे सक्रिय रूप से किया। जब मैं कुछ हासिल करती तो मैं बहुत खुश होती और उत्सुकता से भाई-बहनों को इसके बारे में बताती, इस उम्मीद से कि उनकी स्वीकृति मिलेगी। लेकिन फिर नवागंतुकों के सिंचन के समय मुझे कुछ ऐसी मुश्किलें आईं जो हल नहीं हो पा रही थीं और कुछ काम ऐसे भी थे जिनकी मैंने उपेक्षा कर दी थी। मैं निराश और दुखी थी। लगता था कि वाकई मेरी काबिलियत में कमी है। उन दिनों मैं पहले से ज्यादा मेहनत कर रही थी, लेकिन फिर भी मैं अच्छा काम नहीं कर पा रही थी। मैंने सोचा छोड़ो; मैं चाहे कितनी भी मेहनत कर लूं, कुछ बदलेगा नहीं। काबिलियत की कमी एक लाइलाज बीमारी है। अनजाने में ही मैं अपने कर्तव्य-निर्वहन में एक बार फिर नकारात्मक और निष्क्रिय हो गई और अपने काम में आ रही समस्याओं को हल करने पर विचार नहीं करना चाहती थी। मैं अपनी जिम्मेदारी से भी बचना चाहती थी और सोच रही थी कि मैं अपनी सीमित काबिलियत के कारण अपना कर्तव्य ठीक ढंग से नहीं निभा पा रही हूँ और इसका मैं कुछ नहीं कर सकती थी। उस दौरान मैं थोड़ी स्तब्ध थी और जब मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े तो मैं बेचैन हो गई। प्रार्थना करते समय मुझे समझ नहीं आया कि परमेश्वर से क्या कहूँ। मैं हमेशा उदास रहने लगी थी।

एक दिन अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “खुद को चुनौती मत दो और न ही अपनी सीमाओं के परे जाने का प्रयास करो। परमेश्वर जानता है कि तुम्हारी काबिलियत और क्षमताएँ कैसी हैं। परमेश्वर ने तुम्हें जो काबिलियत और क्षमताएँ दी हैं, वे उसके द्वारा बहुत पहले से पूर्वनिर्धारित हैं। हमेशा इनसे आगे निकलने की इच्छा करने का मतलब घमंडी होना और खुद को ज्यादा आँकना है; यह मुसीबत को दावत देना है और अंततः असफलता ही हाथ लगेगी। क्या ऐसे लोग अपने उचित कार्यों के प्रति लापरवाह नहीं हो रहे हैं? (हाँ।) वे नियमों का पालन करने वाले तरीके से आचरण नहीं कर रहे हैं और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य पूरे करने के लिए उन्होंने अपनी उचित स्थितियों को मजबूती से नहीं थामा हुआ है—वे अपने क्रियाकलापों में इन सिद्धांतों का पालन नहीं कर रहे हैं, बल्कि हमेशा दिखावा करने का प्रयास कर रहे हैं। एक कहावत है : ‘एक बुजुर्ग औरत तुम्हें दिखाने के लिए लिपस्टिक लगाती है।’ ‘बुजुर्ग औरत’ किस उद्देश्य से ऐसा करेगी? (अपनी नुमाइश करने के लिए।) बुजुर्ग औरत तुम्हें दिखाना चाहती है : ‘एक बुजुर्ग औरत के रूप में मैं आम नहीं हूँ—मैं तुम्हें कुछ खास दिखाऊँगी।’ वह नहीं चाहती कि उसे नीची नजर से देखा जाए, बल्कि वह चाहती है कि उसकी सराहना की जाए और उसका सम्मान किया जाए; वह अपनी सीमाओं को चुनौती देना चाहती है और अपनी क्षमताओं से आगे निकलना चाहती है। क्या यह घमंडी प्रकृति नहीं है? (हाँ, है।) अगर तुम घमंडी प्रकृति के हो तो इसका मतलब है कि तुम अपनी सीमाओं में नहीं रहते हो, तुम अपने पद के अनुरूप तरीके से आचरण नहीं करना चाहते हो। तुम हमेशा खुद को चुनौती देना चाहते हो। दूसरे लोग जो कुछ भी कर सकते हैं, तुम भी उसे करने में समर्थ होना चाहते हो। जब दूसरे ऐसी चीजें करते हैं जिनसे वे सबसे अलग दिखते हैं, उन्हें नतीजे हासिल होते हैं या वे योगदान करते हैं और उन्हें सभी से तारीफें मिलती हैं, तो तुम बेचैन, ईर्ष्यालु और असंतुष्ट हो जाते हो। फिर तुम अपना मौजूदा कार्य छोड़कर किसी ऐसे कार्य की जिम्मेदारी लेना चाहते हो जो तुम्हें चमकने दे और साथ ही तुम सम्मान हासिल करने की इच्छा भी रखते हो। लेकिन जब तुम कोई ऐसा कार्य करने में सक्षम हो ही नहीं जिससे तुम सबसे अलग दिखो, तो क्या यह समय की बर्बादी नहीं है? क्या यह अपने उचित कार्यों के प्रति तुम्हारा लापरवाह होना नहीं है? (हाँ, है।) उचित कार्यों के प्रति लापरवाह मत हो क्योंकि उनके प्रति लापरवाह होने से अंत में कोई अच्छा नतीजा नहीं मिलता है। इससे न केवल चीजों में देरी होती है और समय बर्बाद होता है जिससे दूसरे लोग तुम्हें नीची नजर से देखने लगते हैं, बल्कि इससे परमेश्वर भी तुमसे नफरत करने लगता है और अंत में तुम खुद को इतना सताते हो कि काफी नकारात्मक बन जाते हो(वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। “परमेश्वर यह देखता है कि क्या तुम अपने पद के अनुरूप तरीके से आचरण करते हो और क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सृजित प्राणी के कर्तव्यों का निर्वहन अच्छी तरह से करता है। वह यह देखता है कि परमेश्वर द्वारा तुम्हें दी गई अंतर्निहित परिस्थितियों के तहत, क्या तुम अपने कर्तव्य निर्वहन में अपना पूरा दिल और प्रयास लगाते हो और क्या तुम सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप परिणाम प्राप्त करते हो। अगर तुम इन सभी चीजों को पूरा कर पाते हो तो परमेश्वर तुम्हें पूरे अंक देता है। अगर तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार चीजें नहीं करते हो तो इस तथ्य के बावजूद कि हो सकता है तुम प्रयास करो और कार्य में लग जाओ लेकिन अगर तुम जो भी करते हो वह सब अपनी शान दिखाने और दिखावा करने के लिए है और तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने पूरे दिल और शक्ति से अपना कर्तव्य नहीं कर रहे हो और न ही सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजें कर रहे हो, तो तुम्हारी अभिव्यक्तियाँ और तुम्हारे खुलासे, तुम्हारा व्यवहार परमेश्वर को घिनौना लगता है। परमेश्वर उनसे नफरत क्यों करता है? परमेश्वर कहता है कि तुम उचित कार्यों पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रहे हो, तुमने अपने कर्तव्य निर्वहन में अपना पूरा दिल, शक्ति या मन नहीं लगाया है और तुम सही मार्ग पर नहीं चल रहे हो। परमेश्वर ने तुम्हें जो काबिलियत, गुण और प्रतिभाएँ दी हैं, वे पहले से ही पर्याप्त हैं—बात बस इतनी है कि तुम संतुष्ट नहीं हो, अपने कर्तव्य के प्रति वफादार नहीं हो, तुम्हें कभी भी अपनी जगह पता नहीं होती है, तुम हमेशा बड़ी-बड़ी बातें कहने और दिखावा करने की इच्छा रखते हो जिससे अंत में तुम अपने कर्तव्यों में गड़बड़ कर देते हो। परमेश्वर ने तुम्हें जो काबिलियत, गुण और प्रतिभाएँ दी हैं, उन्हें उपयोग में नहीं लाया गया है, कोई पूरा प्रयास नहीं किया गया है और कोई परिणाम प्राप्त नहीं किया गया है। हालाँकि तुम काफी व्यस्त रहते होगे, लेकिन परमेश्वर कहता है कि तुम एक नाचने वाले जोकर जैसे हो, ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो अपनी जगह जानता है और अपने उचित कार्यों पर ध्यान केंद्रित करता है। परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद नहीं करता है(वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे समझ आया कि हमेशा अपनी काबिलियत बढ़ाने की चाह में मेरा स्वभाव अहंकारी होने लगा है। मेरा स्वभाव बहुत अहंकारी था और मैं हमेशा दूसरों से पीछे रहने को तैयार नहीं थी। मैं दूसरों से सम्मान, स्वीकृति और भीड़ से अलग दिखना चाहती थी। मुझे लगता था कि इससे मेरे जीवन को मूल्य मिलेगा, तो मैं इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपनी काबिलियत में सुधार लाना चाहती थी। बचपन में मैं स्कूल में हमेशा एक अव्वल आती थी। अगर किसी ने परीक्षा में मुझसे अधिक अंक हासिल कर लिए तो मैं हार बर्दाश्त नहीं कर पाती थी और मैं अगली बार फिर से अव्वल आने के लिए दृढ़-निश्चय कर लेती थी। मेरी माँ अक्सर कहती थी कि मैं बहुत प्रतिस्पर्धी हूँ। स्कूल में अच्छे अंक लाने की वजह से मुझे अपने माता-पिता और शिक्षकों से शाबाशी मिलती थी और शिक्षक बाकी बच्चों को मुझसे प्रेरणा लेने को कहते थे। मुझे इस तरह की विशिष्टता बहुत पसंद थी और सोचती थी कि इंसान को अपने प्रतिस्पर्धियों से अलग दिखना चाहिए। अब मैं उसी लक्ष्य को लेकर अपना कर्तव्य निभा रही थी, हमेशा अगुआ या सुपरवाइजर बनना चाहती थी। मुझे लगता था कि ये लोग कलीसिया के स्तंभ हैं, हर कोई इनकी प्रशंसा और इन्हें स्वीकार करता है, नाकाबिल लोग तो केवल सामान्य काम ही कर सकते हैं, गुमनाम रहकर काम करते हैं और निकम्मों की तरह जीते हैं। इसलिए जब मैंने देखा कि मेरी पहले वाली भागीदार कलीसिया अगुआ बन चुकी है और मैं केवल एक सामान्य सिंचनकर्मी हूँ, तो मैं यह बर्दाश्त नहीं कर पाई। मैं हमेशा के लिए ऐसी मामूली इंसान बनकर नहीं रहना चाहती थी। मैंने इसे मानने या नाकामी स्वीकारने से इनकार कर दिया, मैं व्यवहारिक बनकर अपना कर्तव्य निभाने को तैयार नहीं थी। मैं हमेशा अपनी काबिलियत बढ़ाकर अगुआ या सुपरवाइजर का कर्तव्य निभाना चाहती थी। हालाँकि परमेश्वर के वचनों ने साफ कहा था कि परमेश्वर का कार्य लोगों की काबिलियत नहीं बदलता है, फिर भी मैं इस बात को मानने को तैयार नहीं थी। मैं हमेशा प्रयास करते रहना और सारा जोर लगा देना चाहती थी, ताकि कड़ी मेहनत और प्रतिदान के जरिए अपनी काबिलियत बढ़ाऊँ। मैं वाकई बेहद विद्रोही और अहंकारी थी! परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर ने तुम्हें जो काबिलियत, गुण और प्रतिभाएँ दी हैं, वे पहले से ही पर्याप्त हैं—बात बस इतनी है कि तुम संतुष्ट नहीं हो, अपने कर्तव्य के प्रति वफादार नहीं हो, तुम्हें कभी भी अपनी जगह पता नहीं होती है, तुम हमेशा बड़ी-बड़ी बातें कहने और दिखावा करने की इच्छा रखते हो जिससे अंत में तुम अपने कर्तव्यों में गड़बड़ कर देते हो।” मेरी कार्यक्षमता खराब थी और मेरी काबिलियत भी बहुत अच्छी नहीं थी; मुझमें अगुआई के गुण नहीं थे। लेकिन मेरे अपने क्षेत्र थे जिनमें मैं कुशल थी। जैसे मैं एक विदेशी भाषा बोल सकती थी और परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करने में मुझे आनंद आता था। जब मैंने सत्य पर अपने ज्ञान के बारे में संगति की तो मेरी सोच भी अपेक्षाकृत स्पष्ट थी। दरअसल मैं अब जो सिंचन-कार्य कर रही थी वह मेरे लिए बिल्कुल उपयुक्त था। लेकिन मैं अपने पद पर टिकी नहीं रह सकती थी, हमेशा अपनी हैसियत में सुधार और सुपरवाइजर का कार्य करना चाहती थी। लेकिन पता चला कि सुधार के मेरे सारे प्रयासों के बावजूद मेरी काबिलियत में कोई बदलाव नहीं आया है, बल्कि उन्होंने मेरी दशा और बिगाड़ दी और मैं अपना काम भी अच्छे से नहीं कर पा रही थी। इस बात को पहचान कर मुझे ग्लानि हुई और खुद को ऋणी महसूस किया।

बाद में मैंने एक बार फिर सोचा, “मैं हमेशा यह क्यों सोचती हूँ कि काबिलियत में कमी होना कोई बुरी बात है? मैं इसका असर अपने कर्तव्य-निष्पादन पर क्यों पड़ने दे रही हूँ?” जब मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े जो इस पहलू से संबंधित थे तो मेरी स्थिति पलट गई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “चूँकि तुम्हारी काबिलियत और क्षमताएँ सीमित हैं, इसलिए तुम्हारे कर्तव्य करने के प्रभाव हमेशा औसत होते हैं, हमेशा उस स्तर या मानक तक पहुँचने में विफल रहते हैं जिसे तुम आदर्श मानते हो। इसलिए तुम्हें अनजाने में लगातार यह एहसास होता है कि तुम किसी भी तरह से अलग से दिखने वाले, बेहतर या असाधारण व्यक्ति नहीं हो। धीरे-धीरे तुम्हें यह समझ आने लगता है कि तुम्हारी काबिलियत उतनी अच्छी नहीं है जितनी तुमने कल्पना की थी, बल्कि यह बहुत ही आम है। यह लगातार बढ़ने वाली प्रक्रिया आत्म-ज्ञान प्राप्त करने में तुम्हारे लिए बहुत ही उपयोगी है—तुम व्यावहारिक तरीके से कुछ असफलताओं और रुकावटों का अनुभव करते हो और आंतरिक रूप से चिंतन करने के बाद तुम अपने स्तर, क्षमताओं और काबिलियत का आकलन करने में ज्यादा सटीक हो जाते हो। तुम यह ज्यादा-से-ज्यादा जानने लगते हो कि तुम अच्छी काबिलियत वाले व्यक्ति नहीं हो, हालाँकि हो सकता है कि तुम्हारे पास कुछ शक्तियाँ और प्रतिभाएँ हों, थोड़ा-सा विवेक हो या कभी-कभी तुम्हारे पास कुछ विचार या योजनाएँ होती हों, फिर भी तुम सत्य सिद्धांतों से दूर हो, तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य के मानकों से दूर हो और सत्य वास्तविकता को प्राप्त करने के मानकों से तो और भी दूर हो—अनजाने में तुम्हारे मन में अपने बारे में ये राय और आकलन होते हैं। अपने बारे में राय बनाने और अपना आकलन करने की प्रक्रिया में तुम्हारा आत्म-ज्ञान ज्यादा-से-ज्यादा सटीक होता जाएगा और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों और भ्रष्टता के खुलासे लगातार कम होते जाएँगे, वे ज्यादा सीमित और नियंत्रित होते जाएँगे। यकीनन, भ्रष्ट स्वभावों को नियंत्रित करना ही लक्ष्य नहीं है। फिर लक्ष्य क्या है? इसका लक्ष्य नियंत्रण की प्रक्रिया में धीरे-धीरे सत्य की तलाश करना सीखना, शिष्ट तरीके से आचरण करना, हमेशा बड़ी-बड़ी बातें करने या अपने कौशलों का प्रदर्शन करने का प्रयास नहीं करना, हमेशा बेहतरीन या सबसे ताकतवर बनने की होड़ नहीं करना और हमेशा खुद को साबित करने का प्रयास नहीं करना है। जबकि यह जागरूकता लगातार तुम्हारे दिल में अपनी गहरी छाप छोड़ती रहेगी, तुम सोचोगे, ‘मुझे यह तलाश करनी होगी कि ऐसा करने के सत्य सिद्धांत क्या हैं और परमेश्वर इस बारे में क्या कहता है।’ यह जागरूकता धीरे-धीरे तुम्हारे दिल की गहराइयों में अपनी जड़ें जमा लेगी और परमेश्वर के वचन और सत्य की तुम्हारी तलाश, मान्यता और स्वीकृति लगातार बढ़ती जाएगी, जो तुम्हारे लिए बचाए जाने की उम्मीद दर्शाती है। जितना ज्यादा तुम सत्य स्वीकार कर पाओगे, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव खुद को उतना ही कम प्रकट करेंगे; इससे भी बेहतर परिणाम यह होगा कि तुम्हारे पास अभ्यास के मानक के रूप में परमेश्वर के वचन का उपयोग करने के ज्यादा अवसर होंगे। क्या यह धीरे-धीरे उद्धार के मार्ग पर चल पड़ना नहीं है? क्या यह अच्छी बात नहीं है? (हाँ, है।) लेकिन अगर तुम्हारी सभी क्षमताएँ बेहतर और परिपूर्ण हैं और लोगों के बीच असाधारण हैं, तो क्या फिर भी तुम मामलों को संभालते हुए और अपने कर्तव्य करते हुए सत्य की तलाश कर सकते हो? यह कहना मुश्किल है। सभी क्षेत्रों में असाधारण क्षमताओं वाले व्यक्ति के लिए शांत हृदय या विनम्र रवैये के साथ परमेश्वर के सामने आना, खुद को जानना, अपने दोषों और भ्रष्ट स्वभावों को जानना और सत्य की तलाश करने, सत्य स्वीकारने और फिर सत्य का अभ्यास करने की हद तक पहुँच जाना बहुत ही कठिन है। ऐसा करना काफी कठिन है, है ना? (हाँ, है।)” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (7))। “परमेश्वर द्वारा बचाए जाने वालों में से ज्यादातर लोग दुनिया में या समाज के लोगों के बीच ऊँचे पदों पर नहीं होते हैं। चूँकि उनकी काबिलियत और क्षमताएँ औसत या यहाँ तक कि खराब भी होती हैं और वे दुनिया में लोकप्रियता या सफलता पाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, उन्हें हमेशा लगता है कि दुनिया बेरंग और अन्यायी है, इसलिए उन्हें आस्था की जरूरत होती है और अंत में वे परमेश्वर के सामने आते हैं और परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं। लोगों को चुनते समय परमेश्वर की यह एक बुनियादी शर्त है। तुममें सिर्फ इसी जरूरत के साथ परमेश्वर का उद्धार स्वीकारने की इच्छा हो सकती है। अगर हर दृष्टि से तुम्हारी स्थितियाँ बहुत अच्छी हैं और दुनिया में उद्यम करने के लिए उपयुक्त हैं और तुम हमेशा अपने लिए नाम कमाना चाहते हो, तो तुममें परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने की इच्छा नहीं होगी और न ही तुम्हारे पास परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने का अवसर ही होगा। भले ही तुम्हारी काबिलियत औसत या खराब हो, फिर भी तुम अविश्वासियों की तुलना में कहीं ज्यादा धन्य हो क्योंकि तुम्हारे पास परमेश्वर द्वारा बचाए जाने का अवसर है। इसलिए, खराब काबिलियत होना तुम्हारा दोष नहीं है और न ही यह भ्रष्ट स्वभाव छोड़ने और उद्धार प्राप्त करने में कोई रुकावट है। अंतिम विश्लेषण में, परमेश्वर ने ही तुम्हें यह काबिलियत दी है। तुम्हारे पास बस उतना ही है जितना परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। अगर परमेश्वर तुम्हें अच्छी काबिलियत देता है तो तुम्हारे पास अच्छी काबिलियत होती है। अगर परमेश्वर तुम्हें औसत काबिलियत देता है तो तुम्हारी काबिलियत औसत है। अगर परमेश्वर तुम्हें खराब काबिलियत देता है तो तुम्हारी काबिलियत खराब है। जब तुम यह बात समझ जाते हो तो तुम्हें इसे परमेश्वर से स्वीकार लेना चाहिए और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में समर्थ हो जाना चाहिए। कौन-सा सत्य समर्पण करने का आधार बनता है? यह सत्य कि परमेश्वर द्वारा की गई ऐसी व्यवस्थाओं में परमेश्वर के अच्छे इरादे निहित होते हैं; परमेश्वर श्रमसाध्य रूप से विचारशील है और लोगों को परमेश्वर के दिल के बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए या उसे गलत नहीं समझना चाहिए। परमेश्वर तुम्हारी अच्छी काबिलियत के कारण तुम्हारा सम्मान नहीं करेगा और न ही वह तुम्हारी खराब काबिलियत के कारण तुम्हारा तिरस्कार करेगा या तुमसे नफरत करेगा। परमेश्वर किस चीज से नफरत करता है? परमेश्वर जिस चीज से नफरत करता है वह है लोगों का सत्य से प्रेम नहीं करना या उसे स्वीकार नहीं करना, लोगों का सत्य समझना लेकिन उसका अभ्यास नहीं करना, लोगों का वह कार्य नहीं करना जिसे करने में वे सक्षम हैं, लोगों का अपने कर्तव्यों में अपना सर्वस्व नहीं दे पाना फिर भी हमेशा अत्यधिक इच्छाएँ रखना, हमेशा रुतबे की चाहत रखना, पद के लिए होड़ करना और हमेशा परमेश्वर से माँगें करते रहना। यही बात परमेश्वर को खराब और घिनौनी लगती है(वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (7))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे छू लिया। मैं समझ गई कि मेरी खराब काबिलियत परमेश्वर द्वारा निर्धारित है और इसमें उसी की सद्भावना है; यह एक अच्छी बात थी; सच तो यह है कि मेरा स्वभाव हमेशा से ही बहुत अहंकारी रहा है। अपने इसी स्वभाव के कारण पहले मैं सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य नहीं निभा पाई थी, मैंने अपने काम को नुकसान पहुंचाकर अपराध किया था। अगर मेरे पास अच्छी काबिलियत और तगड़ी कार्यक्षमता होती, तो मेरा स्वभाव और भी अधिक अहंकारी हो गया होता और मैं भाई-बहनों की राय बिल्कुल न सुनती। मैं विनम्र बनकर सत्य सिद्धांतों की खोज न कर पाती। इस तरह बुराई करना, कलीसिया के काम में बाधा डालना और गड़बड़ करना आसान हो जाता। चूँकि मुझमें काबिलियत की कमी थी और मैं बड़ा दायित्व संभाल नहीं पाती थी, तो मैं अपने काम को पहले से ज्यादा स्थिरता और समझदारी से कर पा रही थी। जब कभी मेरी राय दूसरों से थोड़ी भिन्न होती तो मैं उतनी जिद्द नहीं करती थी। यह अनजाने में ही आत्म-सुरक्षा का एक रूप था जिससे मेरी बुराई करने की संभावना कम हो गई थी। मुझे उस बहन का ख्याल आया जिससे मैं पहले मिल चुकी थी और जिसे सभी बहुत काबिल मानते थे, मुझे उससे ईर्ष्या होती थी। आगे चलकर उसे अगुआ बना दिया गया और उसकी निगरानी में आने वाले काम का दायरा भी बढ़ गया। लेकिन उसने न तो कभी सत्य का अनुसरण किया, न परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने पर ध्यान दिया और न ही अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़ने के लिए सत्य की खोज की। आखिरकार जब उसे परीक्षणों का सामना करना पड़ा तो उसने परमेश्वर को धोखा देकर अपना कर्तव्य त्याग दिया। इससे मुझे एक बात समझ में आई कि आप चाहे कितने भी काबिल हों, आपमें कितनी भी कार्यक्षमता हो, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या आप सत्य का अनुसरण कर अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकते हैं। कोई व्यक्ति बचाया जा सकता है या नहीं, यह पूरी तरह उनके काबिलियत के स्तर पर निर्भर नहीं करता। जरूरी नहीं कि ज्यादा काबिलियत का होना अच्छा ही हो, वैसे ही जरूरी नहीं कि कम काबिलियत का होना बुरी बात हो। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या कोई व्यक्ति परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर अपनी काबिलियत का सही मूल्यांकन कर सकता है, विनम्र रहकर सत्य का अनुसरण कर सकता है और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकता है। यही सबसे गंभीर बात है।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और अभ्यास करने का एक मार्ग पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “हर प्रकार से अपनी काबिलियत को बदलने या हर दृष्टि से अपनी क्षमताओं में सुधार करने का प्रयास मत करो, बल्कि अपनी जन्मजात काबिलियत और क्षमताओं को सटीकता से पहचानो और उनका सही ढंग से उपयोग करो। अगर तुम्हें यह पता लग जाता है कि तुममें कहाँ कमी है तो जल्दी से उन क्षेत्रों का अध्ययन करो जिनमें तुम कम समय में प्रगति हासिल कर सकते हो ताकि तुम इन कमियों की भरपाई कर सको। जो क्षेत्र तुम्हारी पहुँच से बाहर हैं, उनके लिए जबरदस्ती मत करो। अपनी वास्तविक स्थिति के अनुसार कार्य करो; अपनी खुद की काबिलियत और क्षमताओं के आधार पर चीजें करो। अंतिम सिद्धांत है परमेश्वर के वचन, मनुष्यों के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य करना। तुम्हारी काबिलियत का स्तर चाहे जो भी हो, तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने और अपने कर्तव्य करने के अलग-अलग स्तर हासिल कर सकते हो; तुम परमेश्वर के मानक पूरे कर सकते हो या उनके उनके अनुसार जी सकते हो। ये सत्य सिद्धांत बिल्कुल भी खोखली बातें नहीं हैं; वे बिल्कुल भी मानवता से परे नहीं हैं। वे सभी सृजित मानवजाति के भ्रष्ट स्वभावों, सहज प्रवृत्तियों और विभिन्न क्षमताओं और काबिलियतों के लिए विशेष रूप से तैयार किए गए अभ्यास के मार्ग हैं। इसलिए चाहे तुम्हारी काबिलियत कुछ भी हो, चाहे तुम्हारी क्षमताएँ किसी भी पहलू से अपर्याप्त या दोषपूर्ण हों, यह कोई समस्या नहीं है; अगर तुम सही मायने में सत्य समझते हो और सत्य का अभ्यास करने को तैयार हो, तो आगे बढ़ने का एक मार्ग जरूर होगा। किसी व्यक्ति की काबिलियत और क्षमताओं के कुछ पहलुओं में कमियाँ उसके सत्य के अभ्यास में बिल्कुल भी बाधा नहीं बनती हैं। अगर तुममें विवेक या किसी दूसरी क्षमता की कमी है, तो तुम और तलाश कर सकते हो और ज्यादा संगति कर सकते हो—सत्य समझने वाले लोगों से निर्देश और सुझाव माँगो। जब तुम अभ्यास के सिद्धांतों और मार्गों को समझते हो और उनकी सारी जानकारी रखते हो, तो तुम्हें उन्हें अपने आध्यात्मिक कद के आधार पर अपने पूरे प्रयास के साथ अभ्यास में लाना चाहिए। स्वीकार करना और अभ्यास करना—तुम्हें यही करना चाहिए(वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (7))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि इंंसान को अपनी काबिलियत बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक जाने की जरूरत नहीं है, उसे उसी हद तक जाना चाहिए जितनी उसमें काबिलियत हो, अपना कर्तव्य पूरी ऊर्जा और दिमाग लगाकर निभाना चाहिए। उसे पूरी लगन से अध्ययन करना और जो पेशेवर ज्ञान उसने सीखना है उस पर गहन शोध करना चाहिए और अपनी काबिलियत का पूरा उपयोग करना चाहिए। जहाँ तक किसी की काबिलियत और कार्यक्षमता का सवाल है, अगर संभव हो तो उनमें थोड़ा सुधार किया जा सकता है, लेकिन अगर वह कार्य में सक्षम नहीं है तो उसे जबर्दस्ती ऐसा नहीं करना चाहिए। यह समझ आने पर मेरा मन एकदम साफ हो गया।

तब से मैंने सोचा कि अपनी काबिलियत की सीमाओं में रहकर अपने कर्तव्य-निर्वहन में अपना मन और ऊर्जा कैसे लगाऊँ। मुझे एहसास हुआ कि मैं नवागंतुकों को उनके कर्तव्य निभाने के लिए तैयार करने में अच्छी नहीं हूँ, इसलिए मैंने उसके आसपास के सिद्धांतों को खोजने और उन पर विचार करने की कोशिश की। भाई-बहन जो साझा करते और बातचीत करते, उसे भी मैं गंभीरता से सुनती। जब कभी मैं किसी समस्या में फंस जाती और समझ नहीं आता कि उसे कैसे सुलझाऊँ, तो मैं उससे बचने की कोशिश न करती या अपनी काबिलियत की कमी के लिए परमेश्वर को दोष न देती। बल्कि मैं परमेश्वर से प्रार्थना और उस पर भरोसा करती, साथ ही भाई-बहनों से जानकारी लेती और उनसे संगति करती। इस अभ्यास प्रक्रिया के दौरान अनजाने में ही कुछ मामलों को सुलझाने की योजनाएँ मेरे दिमाग में आ जातीं। अब भी मुझमें उतनी ही काबिलियत है जितनी पहले थी। उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है। लेकिन मुझे अपने आपको जानने की समझ आ गई है और मेरा हृदय मुक्त और आजाद हो गया है।

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