28. परमेश्वर के वचनों के आधार पर लोगों की पहचान
हाल ही में मेरी पर्यवेक्षक मेंग जी ने मुझे बताया कि ली पिंग ने सत्य स्वीकार नहीं किया, हमेशा लोगों और चीजों का अत्यधिक विश्लेषण किया और कलीसिया जीवन को बाधित किया, और भाई-बहनों ने उसके साथ संगति की और उसकी मदद की, फिर भी उसने अपना मार्ग नहीं बदला। उसने मुझसे उसका मूल्यांकन लिखने को कहा। उसने मुझे ये भी बताया कि अधिकांश लोगों के मूल्यांकन के आधार पर अगर यह तय हुआ कि ली पिंग एक छद्म-विश्वासी है, तो उसे कलीसिया से निकाल दिया जाएगा। मुझे थोड़ी हैरानी हुई। मुझे उम्मीद नहीं थी कि ली पिंग इस हद तक जाएगी। पहले तो मेरे लिए इसे स्वीकार करना मुश्किल था। ली पिंग का परिवार पीढ़ियों से परमेश्वर में विश्वास करता आ रहा था। उसने किशोरावस्था में कलीसिया में परमेश्वर की सेवा की थी और 20 से अधिक वर्षों तक परमेश्वर के कार्य की इस अवस्था को स्वीकार किया था। अब उसकी उम्र 50 से थोड़ी ज्यादा थी और वह अभी भी अविवाहित थी। उसका खुद को त्यागना और खपाना, संयमित रहना और कष्ट सहना लगता था जैसे परमेश्वर में उसका सच्चा विश्वास है। अब उसे लोगों और चीजों का अत्यधिक विश्लेषण करने के आधार पर छद्म-विश्वासी बताया जा रहा था। क्या यह थोड़ी कठोरता नहीं थी? जब पहले मैंने ली पिंग के साथ बात की थी, तो मुझे लगा था कि उसमें मानवता नहीं है; बात बस इतनी थी कि जब कोई मुद्दा उठता था तो वह सही-गलत पर बहस करती थी। क्या इस तरह के लोगों को कलीसिया में रहने और श्रम करने का मौका नहीं मिलना चाहिए? बाद में, मैंने मेंग जी को यह कहते हुए सुना कि ली पिंग के एकरूप व्यवहार के आधार पर यह पहले ही निर्धारित हो गया था कि वह छद्म-विश्वासी है। उसने मुझे यह भी याद दिलाया कि मैं अपना परीक्षण करूं कि मैं क्यों उसे समझ नहीं पा रही हूं और इसे सुलझाने के लिए मुझे सत्य की खोज करने को कहा। बाद में, मैंने सचेत रूप से अपनी खोज में इस समस्या पर काम किया, और उस वक्त के बारे में सोचा जब ली पिंग और मैंने बातचीत की थी।
2019 में, ली पिंग और मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए साथ आई थीं। उस समय हमारे समूह की एक बहन यिंगशिन, ली पिंग के साथ मिलकर ठीक से काम नहीं कर रही थी। यिंगशिन इस बारे में ली पिंग से बात करना चाहती थी, लेकिन ली पिंग ने इनकार कर दिया। यिंगशिन कुछ हद तक नकारात्मक हो गई, और जब अगुआ ने उसके और ली पिंग की अवस्था के बारे में पूछताछ की, यिंगशिन ने सच कह दिया कि वे दोनों साथ मिलकर ठीक से काम नहीं कर पा रही थीं। ली पिंग ने सोचा कि यिंगशिन के ऐसा कहने से उसकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा है, और वह यिंगशिन के खिलाफ बहुत पक्षपाती हो गई। इसके बाद, उसने तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया और कहा कि यिंगशिन ने जानबूझकर उसके खिलाफ शिकायत की है ताकि उसे समूह से बाहर रखा जा सके। एक सभा से पहले, यिंगशिन ने सुझाव दिया कि हम पहले अपनी अवस्थाओं के बारे में बात करें और फिर अपनी अवस्थाओं के आधार पर परमेश्वर के वचनों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करें। ली पिंग ने सोचा कि यिंगशिन उसे निशाना बना रही है, यह कहकर कि उसने सभा में भाई-बहनों की दशाओं पर चर्चा को शामिल नहीं किया, और इसलिए उसने गुस्से में कहा कि उनके पास इसके लिए पर्याप्त समय नहीं है, और वे दशाओं के मामले पर बात नहीं करेंगे। एक समीक्षा बैठक भी हुई जिसमें यिंगशिन ने कहा कि कलीसिया के काम के परिणाम हाल ही में अच्छे नहीं रहे हैं और हमें इसके पीछे के कारणों की खोज करने की याद दिलाई। फिर से, ली पिंग को लगा कि यह उसी के बारे में है, और उसने आवेग में कहा, “अगर तुम्हें लगता है कि मैं ठीक नहीं हूं, तो मेरे बारे में पर्यवेक्षक को बताओ और मेरा तबादला करवा दो।” हमें उसके साथ संगति करने में समय लगाना पड़ा और हम काम पर सामान्य रूप से चर्चा नहीं कर सके। उस समय, बहन लुओ वेन अभी-अभी समूह में शामिल हुई थी, और जब उसके काम में कठिनाइयाँ और समस्याएँ आती थीं, तो वह अक्सर यिंगशिन से सलाह लेती थी। ली पिंग ने देखा कि लुओ वेन यिंगशिन के बारे में अच्छी राय रखती है, और इसलिए उसने लुओ वेन को सीधे बताया कि यिंगशिन उसका विश्वास जीतने के लिए कुछ धूर्त तरीके अपना रही है, ताकि वह साथ मिलकर उसे अलग कर दे। जब लुओ वेन ने यह सुना, तो वह इतना क्रोधित हुई कि रोने लगी। उसे लगा कि ली पिंग के साथ काम करना आसान नहीं होगा और वह अब यहाँ अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी। ली पिंग ने न केवल आत्म-चिंतन नहीं किया, बल्कि उसने यहाँ तक कह दिया कि अगर लुओ वेन जाना चाहती है, तो यह उसके ऊपर है। कभी-कभी, हम एक साथ कमरे में कार्य पर चर्चा करते थे, और ली पिंग को शक होता और वह सोचती कि हम पीठ पीछे उसके बारे में बुरा-भला कह रहे हैं। इस वजह से, वह अक्सर समूह की बहनों से झगड़ती रहती थी। वास्तव में, उसकी ये अवस्थाएं काफी समय से चल रही थीं। हमारे पर्यवेक्षक ने उसके साथ संगति की और कई बार उसकी मदद की, लेकिन उसने कभी अपना रास्ता नहीं बदला। उस समय मैं समूह में शामिल ही हुई थी, और मैंने उसके साथ संगति की और कहा कि उसे सत्य खोजने और सबक सीखने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, लेकिन वह सही-गलत पर बहस करती रही और बहाने बनाती रही। मैं बहुत उलझन में थी। उसने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया था, तो जब उसके साथ कुछ हुआ तो उसने क्यों परमेश्वर से कुछ भी स्वीकार नहीं किया और इसके बजाय लोगों और चीजों का अत्यधिक विश्लेषण क्यों किया? फिर मैंने सोचा, “शायद वह अभी बुरी अवस्था में है। अगर हम संगति करें और उसकी मदद करें, तो शायद वह अपनी अवस्था बदल सके और लोगों और चीजों का इतना विश्लेषण न करे।” बाद में, क्योंकि ली पिंग और यिंगशिन साथ मिलकर ठीक से काम नहीं कर रही थीं, हमारे पर्यवेक्षक ने मेरे और ली पिंग के सहयोगी बनकर काम करने की व्यवस्था की। पहले तो मुझे नहीं लगा कि यिंगशिन से अलग होने के बाद ली पिंग उस पर अब भी इतना ध्यान देगी, लेकिन मैं जब भी यिंगशिन का जिक्र करती, ली पिंग फिर उससे जुड़ी बातें सामने लाती और वही दोहराने लगती। उसके शब्द यिंगशिन के बारे में निहित आलोचनाओं से भरे थे। हालाँकि, मैं उसका सार स्पष्ट रूप से नहीं देख पाई, और सोचा कि वह बस अस्थायी रूप से इससे बाहर नहीं निकल पा रही है, शायद समय बीतने के साथ वह इससे बाहर निकल जाएगी। बाद में, ली पिंग को अपना कर्तव्य निभाने के लिए दूसरे समूह में स्थानांतरित कर दिया गया गया। भाई-बहनों ने बताया कि वह अभी भी इसी तरह से व्यवहार कर रही है, जब भी कोई बात उसके अभिमान को चुभती, तो वह भयंकर उपद्रव मचा देती और दूसरों के साथ मिलकर ठीक से काम नहीं कर पाती। वह दूसरों की अवस्था को भी प्रभावित करती और समूह के काम में देरी करती। हमारे पर्यवेक्षक ने उसके साथ कई बार संगति की और उसे सत्य की खोज और सबक सीखने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा, लेकिन उसने कभी इसे स्वीकार नहीं किया और खुद का बचाव करने में लगी रही, जिससे काम में गड़बड़ियाँ और बाधाएँ आईं। जब तक उसे बर्खास्त नहीं किया गया, वह सही-गलत के बारे में बहस करती रही और उसने आत्म-चिंतन या खुद को जानने की कोशिश नहीं की।
बाद में, मैंने भाई-बहनों को उसके व्यवहार के बारे में बात करते सुना। लोगों और चीजों का अत्यधिक विश्लेषण करने का उसका व्यवहार वास्तव में काफी प्रमुख था। उसने न केवल लोगों को बेबस महसूस कराया, बल्कि उसने कलीसिया के काम को भी बाधित किया। मैंने सोचा, “परमेश्वर ऐसे व्यवहारों को कैसे वर्गीकृत करता है?” इस समस्या के संबंध में, मैंने परमेश्वर के कुछ प्रासंगिक वचन पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “क्या यह घृणित नहीं है कि कुछ लोग अपने साथ कुछ भी घटने पर, उसके बाल की खाल निकालकर बेवजह वक्त जाया करते हैं। यह एक बड़ी समस्या है। साफ सोचवाले लोग ऐसी गलती नहीं करते, बेतुके लोग ही ऐसे होते हैं। वे हमेशा कल्पना करते हैं कि दूसरे लोग उनका जीना दूभर कर रहे हैं, उन्हें मुश्किलों में डाल रहे हैं, इसलिए वे हमेशा दूसरों से दुश्मनी मोल लेते हैं। क्या यह भटकाव नहीं है? सत्य को लेकर वे प्रयास नहीं करते, उनके साथ कुछ घटने पर वे बेकार की बातों में उलझना पसंद करते हैं, सफाई माँगते हैं, लाज बचाने की कोशिश करते हैं, और इन मामलों को सुलझाने के लिए वे हमेशा इंसानी हल ढूँढ़ते हैं। जीवन प्रवेश में यह सबसे बड़ी बाधा है। अगर तुम परमेश्वर में इस तरह विश्वास रखते हो, या इस तरह अभ्यास करते हो, तो कभी भी सत्य हासिल नहीं कर पाओगे, क्योंकि तुम कभी परमेश्वर के सामने नहीं आते। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो कुछ तय कर रखा है, वह पाने के लिए तुम कभी परमेश्वर के सामने नहीं आते, न ही तुम इन सब तक पहुँचने के लिए सत्य का प्रयोग करते हो, इसके बजाय तुम चीजों तक पहुँचने के लिए इंसानी समाधानों का प्रयोग करते हो। इसलिए, परमेश्वर की दृष्टि में, तुम उससे बहुत दूर भटक गए हो। न सिर्फ तुम्हारा दिल उससे भटक गया है, तुम्हारा पूरा अस्तित्व उसकी मौजूदगी में नहीं जीता है। हमेशा जरूरत से ज्यादा विश्लेषण कर बाल की खाल निकालने वालों को परमेश्वर इसी नजर से देखता है। ... मैं तुम लोगों को बताता हूँ कि परमेश्वर के विश्वासी चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ—वे बाहरी मामले संभालते हों, या कोई ऐसा कर्तव्य निभाते हों जिनका संबंध परमेश्वर के घर में विभिन्न कार्यों या विशेषज्ञता के क्षेत्रों से हो—अगर वे अक्सर परमेश्वर के सामने नहीं आते, उसकी मौजूदगी में नहीं रहते, उसकी पड़ताल स्वीकारने की हिम्मत नहीं रखते, और वे परमेश्वर से सत्य प्राप्त करने की कोशिश नहीं करते, तो वे छद्म-विश्वासी हैं, और अविश्वासियों से अलग नहीं हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। “प्रसिद्धि, लाभ या मान-सम्मान से जुड़े किसी मामले में, वे इस बात को स्पष्ट करने पर जोर देते हैं कि कौन सही है कौन गलत है, कौन श्रेष्ठ है कौन निम्न है, और वे कोई बात साबित करने के लिए बहस जरूर करते हैं। दूसरे लोग इसे सुनना नहीं चाहते। लोग कहते हैं, ‘तुम जो कह रहे हो क्या उसे आसान बना सकते हो? क्या तुम स्पष्ट बोल सकते हो? तुम्हें इतना तुच्छ बनने की क्या जरूरत है?’ उनके विचार इतने ज्यादा पेचीदे और कुटिल हैं, और वे बुनियादी समस्याओं का एहसास किए बिना ही इतना थकाऊ जीवन जीते हैँ। वे सत्य खोजकर ईमानदार क्यों नहीं बन सकते? क्योंकि वे सत्य से विमुख हो चुके हैं और ईमानदार नहीं बनना चाहते। तो वे जीवन में किस पर निर्भर रहते हैं? (सांसारिक आचरण के फलसफों और इंसानी तौर-तरीकों पर।) इंसानी तौर-तरीकों पर निर्भर रहना ऐसे परिणामों की ओर ले जाता है जिससे वे या तो हँसी के पात्र बन जाते हैं या अपना भद्दा पहलू उजागर करते हैं। और इसलिए, करीब से देखने पर, उनके क्रियाकलाप, और जो करते हुए वे पूरा दिन बिताते हैं—वे सब उनकी इज्जत, प्रतिष्ठा, लाभ और घमंड से संबंधित होती हैं। ऐसा लगता है, मानो वे किसी जाल में जी रहे हों, उन्हें हर चीज सही ठहरानी पड़ती है या हर बात के लिए बहाने बनाने पड़ते हैं, और वे हमेशा अपनी खातिर बोलते हैं। उनकी सोच जटिल होती है, वे बहुत बकवास करते हैं, उनके शब्द बहुत पेचीदा होते हैं। वे हमेशा इस बात पर बहस करते हैं कि क्या सही है और क्या गलत, इसका कोई अंत नहीं होता। अगर वे इज्जत हासिल करने की कोशिश नहीं कर रहे होते, तो वे प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे होते हैं, और ऐसा कोई समय नहीं होता जब वे इन चीजों के लिए नहीं जीते। और अंतिम परिणाम क्या होता है? हो सकता है कि वे इज्जत पा लें, लेकिन हर कोई उनसे तंग आ जाता है। लोगों ने उनकी असलियत देख ली है, और एहसास कर लिया है कि उनमें सत्य वास्तविकता नहीं है, वे ईमानदारी से परमेश्वर पर विश्वास करने वाले इंसान नहीं हैं। जब अगुआ और कार्यकर्ता या अन्य भाई-बहन उनकी काट-छाँट करने के लिए कुछ शब्दों का प्रयोग करते हैं, तो वे इन्हें स्वीकारने से हठपूर्वक इनकार कर देते हैं, वे खुद को सही ठहराने या बहाने बनाने की कोशिश करने पर जोर देते हैं, और वे अपना दोष दूसरे के सिर मढ़ने की कोशिश करते हैं। सभाओं के दौरान वे अपना बचाव करते हैं, बहस करने लगते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच विवाद खड़ी करके मुसीबत पैदा कर देते हैं। अपने दिल में वे सोच रहे होते हैं, ‘क्या अब मेरे लिए अपना मामले पर बहस करने के लिए कोई जगह नहीं है?’ ये किस तरह के इंसान हैं? क्या ये ऐसे इंसान हैं, जो सत्य से प्रेम करते हैं? क्या ये ऐसे इंसान हैं, जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? जब वे किसी को कुछ ऐसा कहते सुनते हैं जो उनकी इच्छाओं के अनुरूप नहीं होती, तो वे हमेशा बहस करना चाहते हैं और स्पष्टीकरण माँगते हैं, वे इस बात में उलझ जाते हैं कि कौन सही है और कौन गलत, वे सत्य की खोज नहीं करते और उसे सत्य सिद्धांतों के अनुसार उससे पेश नहीं आते। मामला कितना भी सरल क्यों न हो, उन्हें उसे बहुत जटिल बनाना होता है—वे केवल परेशानी को न्योता दे रहे हैं, वे इतना थकने लायक हैं!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा जो लोगों और चीजों का अत्यधिक विश्लेषण करते हैं सैद्धान्तिक रूप से मानते हैं कि परमेश्वर सब चीजों पर संप्रभुता रखता है, और वही उनके दैनिक हालातों को व्यवस्थित करता है। लेकिन, जब इन वास्तविक परिस्थितियों से सामना होता है, वे उन्हें परमेश्वर से स्वीकार नहीं करते, न तो वे सत्य की खोज करते हैं और न ही सबक सीखते हैं। इसके बजाय, वे मानते हैं कि कोई उनके लिए चीजें मुश्किल बना रहा है, और अपने अभिमान और प्रतिष्ठा को फिर से पाने के लिए, वे हमेशा सही-गलत पर बहस करते हैं, भयंकर उपद्रव करते हैं। वे दूसरों और कलीसिया के काम के लिए केवल बाधाएँ ही लाते हैं। ऐसे लोगों का सार छद्म-विश्वासियों का है। उदाहरण के लिए, ली पिंग को ही लो। जब उसे यिंगशिन के साथ रखा गया, तो यह स्पष्ट था कि वे दोनों मिलकर ठीक से काम नहीं कर पा रही हैं और इससे उनका कर्तव्य भी प्रभावित हो रहा है। यिंगशिन ने मदद की उम्मीद में अगुआ को सच्ची स्थिति बताई, लेकिन ली पिंग ने सत्य नहीं खोजा और इस पर विचार नहीं किया, इसके बजाय उसने सोचा कि यिंगशिन उसके खिलाफ शिकायत कर रही है। उसके बाद, वह हमेशा यिंगशिन पर कड़ी नजर रखने लगी। जब कोई सभा या काम पर चर्चा होती, अगर यिंगशिन कुछ समस्याएँ बताती या कोई उचित सुझाव देती, तो ली पिंग उसे ठीक से नहीं समझ पाती, बल्कि उसे लगता कि यिंगशिन उसे निशाना बना रही है और जानबूझकर यिंगशिन का विरोध करती। वह जानबूझकर परेशानी खड़ी करती और कहती कि अगर हमें लगता है कि वह किसी काम की नहीं है तो हम पर्यवेक्षक से कहें कि उसे कोई और कार्य सौंप दे। इन सब बातों ने हमें बेबस कर दिया और इससे कलीसिया जीवन और कार्य पर भी असर पड़ा। बहन लुओ वेन अभी-अभी समूह में शामिल हुई थी, और वह सिद्धांतों और पेशेवर कौशल से परिचित नहीं थी, इसलिए वह यिंगशिन से बात करने गई। ली पिंग को शक था कि लुओ वेन उसे नीची नजर से देखती है और यिंगशिन का पक्ष लेकर उसे अलग कर रही है। जब बहनें सामान्य रूप से एक साथ काम पर चर्चा करती थीं, ली पिंग को शक होता था कि हर कोई उसकी पीठ पीछे उसकी आलोचना कर रहा है, और वह जानबूझकर लोगों में गलतियाँ निकालती थी और उनके साथ कठोर व्यवहार करती थी। इससे लोग सामान्य रूप से अपना काम नहीं कर पा रहे थे। वास्तव में, ये सभी चीजें काफी सामान्य और सरल थीं, सामान्य लोग थोड़ा सा विचार करने पर इन चीजों को समझ सकते थे। लेकिन उसने लोगों और चीजों का जरूरत से ज्यादा विश्लेषण किया और उलझ गई; उसके विचार बेहद जटिल थे। बाद में, सभी ने परमेश्वर के वचनों पर संगति की और उसकी मदद की, लेकिन उसने कभी भी खोज करने का इरादा नहीं दिखाया। इसके बजाय, उसने बहाने बनाए और खुद का बचाव किया, और अपनी बात को साबित करने की कोशिश करते हुए सही-गलत पर बहस की। पहले मैं यही सोचती थी कि लोगों और चीजों का अत्यधिक विश्लेषण करना एक अस्थायी बुरी अवस्था है। अब मैंने देखा कि क्षणिक भ्रष्टता दिखाना और छद्म-विश्वासी का सार होना दो अलग-अलग बातें हैं। जैसे कुछ लोगों में लोगों और चीजों का अत्यधिक विश्लेषण करने की अभिव्यक्ति होती है, लेकिन वे केवल कुछ खास मामलों पर परमेश्वर के इरादे को अस्थायी रूप से समझने में असमर्थ होते हैं। या वे अपनी लाज बचाने के लिए बहाने बनाते हैं और अपना बचाव करते हैं, लेकिन प्रार्थना करने और खोजने या भाई-बहनों की संगति और मदद लेने से, वे परमेश्वर का इरादा समझ जाते हैं और फिर अति-विश्लेषण नहीं करते। इस तरह के लोग सत्य स्वीकार करते हैं और उनमें छद्म-विश्वासियों का सार नहीं होता। दूसरी ओर, जो लोग छद्म-विश्वासी होते हैं चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए, वे परमेश्वर से कुछ भी स्वीकार नहीं करते। चाहे बात बहुत छोटी सी ही क्यों न हो जिसे दूसरे लोग आसानी से समझ जाएँ, पर वे हमेशा लोगों और चीजों का अति-विश्लेषण करते हैं और भाई-बहनों से संगति और सहायता स्वीकार करने में असमर्थ होते हैं। इससे पता चलता है कि उनकी प्रकृति सत्य से विमुख होती है और वे चीजों को बेतुके ढंग से समझते हैं। ली पिंग के व्यवहार पर विचार किया तो देखा, वह बिल्कुल ऐसी ही थी जब उसने दो या तीन साल पहले यिंगशिन के साथ काम किया था। बाद में वह और यिंगशिन अलग हो गईं, हालाँकि वह जाहिर तौर पर सही-गलत पर बहस करती हुई नहीं दिखती थी, जब भी यिंगशिन का जिक्र होता, तो वह फिर सही-गलत पर बहस शुरू कर देती थी। स्पष्ट था कि उसने इसे जरा भी भुलाया नहीं था। चाहे वह किसी के भी साथ काम करे, जब भी कोई बात उसके अभिमान और रुतबे से जुड़ी होती, तो वह उस पर अंतहीन विवाद करती थी, और लोगों के लिए सिर्फ परेशानियाँ पैदा करती। बरसों बीत जाने के बाद भी, वह जस की तस थी; उसमें न तो कोई पश्चात्ताप था और न ही कोई बदलाव आया। उसका सार एक छद्म-विश्वासी का था।
पहले, मेरा मानना था कि चूँकि ली पिंग उत्साही दिखती थी, दान देती थी और लोगों की मदद करती थी, और खुद को त्यागने और खपाने में सक्षम थी, इसका मतलब था कि उसके पास अच्छी मानवता है और उसे एक पछतावा करने और मौका मिलना चाहिए। बाद में, मुझे एहसास हुआ मैं अच्छी और बुरी मानवता के बीच अंतर नहीं पहचानती थी। फिर मैंने इस विषय पर परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। परमेश्वर कहता है : “जब लोगों के साथ अलग-अलग चीजें होती हैं तो उनमें तरह-तरह की अभिव्यक्तियाँ दिखाई देती हैं, जिनसे अच्छी मानवता और बुरी मानवता के फर्क का पता चलता है। तो मानवता को मापने का पैमाना क्या है? यह कैसे मापा जाए कि कोई किस तरह का व्यक्ति है, और उसे बचाया जा सकता है या नहीं? यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं और वे सत्य को स्वीकार करने और उसका अभ्यास करने में सक्षम हैं या नहीं। सभी लोगों के भीतर धारणाएँ और विद्रोहीपन होता है, सभी में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, इसलिए उनके सामने ऐसे वक्त आएंगे जब परमेश्वर की माँगें उनके हितों के खिलाफ होंगी, और उन्हें चुनाव करना होगा—ये ऐसी चीजें हैं जिनसे सभी का अक्सर वास्ता पड़ता रहेगा, कोई भी इससे नहीं बच सकता। हरेक के सामने ऐसा वक्त भी आएगा जब वे परमेश्वर की गलत व्याख्या करेंगे और उसके बारे में धारणाएँ पाल लेंगे, या जब वे उसकी शिकायत करेंगे, और उसका प्रतिरोध या उसके प्रति विद्रोही हो जाएँगे—पर क्योंकि सत्य के बारे में लोगों का अलग-अलग रवैया होता है, इसलिए इसके प्रति उनका नजरिया भी अलग होगा। कुछ लोग अपनी धारणाओं के बारे में कभी भी बात नहीं करते, बल्कि सत्य को खोजकर खुद ही उनका समाधान करते हैं। वे उनके बारे में क्यों नहीं बोलते? (उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है।) सही कहा : उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है। उन्हें यह डर होता है कि कुछ कहने से नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इसलिए किसी दूसरे को प्रभावित किए बिना वे बस दिल-ही-दिल में इसका समाधान करने की कोशिश करते हैं। जब वे दूसरों को ऐसी अवस्था में देखते हैं तो अपने अनुभवों से उनकी मदद करते हैं। यह उदारहृदयता है। उदारहृदय लोग दूसरों से स्नेह करते हैं, वे दूसरों की समस्याएँ सुलझाने में उनकी मदद करने के लिए तैयार रहते हैं। जब वे कोई काम करते हैं या दूसरों की मदद करते हैं तो इसके पीछे कुछ सिद्धांत होते हैं, वे समस्याएँ सुलझाने में दूसरों की मदद करते हैं ताकि उनका भला हो सके, वे ऐसा कुछ भी नहीं कहते जिससे उनका भला न हो। यह प्रेम है। इनके पास परमेश्वर से भय मानने वाला दिल होता है, और उनके कृत्य सिद्धांतों के अनुसार और बुद्धिमत्तापूर्ण होते हैं। यह वह पैमाना है जिससे मापा जा सकता है कि लोगों की मानवता अच्छी है या बुरी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य का जो रवैया होना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया अच्छी मानवता वाले लोग सत्य से प्रेम करते हैं, सत्य स्वीकारने को तैयार रहते हैं, और उनके हृदय दयालु होते हैं। ऐसे लोग जब दूसरों से संगति करते हैं, तो स्वयं को उनकी जगह पर रखकर विचार कर सकते हैं कि दूसरों को शिक्षित करने के लिए कैसे बोलना और कार्य करना चाहिए। अगर उनके मन में परमेश्वर के बारे में कोई धारणा होती है या वे लोगों के प्रति पक्षपाती होते हैं, तो वे लापरवाही से कुछ भी नहीं बोल देते हैं। बल्कि वे उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजने में सक्षम होते हैं। वे ऐसी बातें नहीं कहते जो लोगों के लिए फायदेमंद न हों। इस तरह के लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है और उनकी कथनी और करनी में सिद्धांत होते हैं। ये अच्छी मानवता वाले लोग हैं। परमेश्वर के वचनों के आधार पर ली पिंग के व्यवहार की तुलना करें तो, जब भी कोई बात उसकी प्रतिष्ठा और रुतबे से जुड़ी होती थी, तो वह अपनी नाराजगी जाहिर करती थी। वह नहीं सोचती थी कि उसके शब्दों से उसके भाई-बहनों को ठेस पहुंचेगी या नहीं, या इसके क्या परिणाम होंगे। जब दूसरे उसकी समस्याओं की ओर ध्यान दिलाते, तो वह उसे बिल्कुल स्वीकार न करती और बाद में वह क्या सही है और क्या गलत, इस पर बहस करती रहती। ली पिंग ने 20 से अधिक वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास किया था; क्या उसे सच में पता नहीं था कि कैसे समर्पण करना और सत्य खोजना है? ऐसा नहीं था कि उसे ये चीजें समझ नहीं आती थीं, बल्कि उसकी मानवता खराब थी। पहले मैंने केवल उसका बाहरी स्वरूप देखा था। मैंने सोचा कि चूँकि वह लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास करती आई है, लोगों के प्रति दयालु है, खुद को त्यागने और खपाने में सक्षम है, और अक्सर दान देती है और लोगों की मदद करती है, तो उसमें अच्छी मानवता होगी। लेकिन जब लोगों ने उसकी समस्याओं की ओर इशारा किया और उसके साथ संगति की, तो उसने इसे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं किया, और इससे भी बढ़कर, उसने चीजों को पलट दिया और दूसरों पर हमला किया और उनकी आलोचना की। यह वास्तविक अच्छी मानवता नहीं थी।
परमेश्वर के वचनों के खुलासे से, मुझे ली पिंग की मानवता और उसके छद्म-विश्वासी व्यवहार के बारे में कुछ समझ मिली। हालाँकि, जब मैंने सोचा कि कैसे उसने दशकों तक परमेश्वर में विश्वास किया था और कैसे वह खुद को त्यागने, खपाने और कष्ट सहने में सक्षम थी, और अब कैसे उसे बाहर निकाला जा रहा था, तो मुझे उसके लिए कुछ सहानुभूति महसूस हुई। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कुछ लोग कहते हैं, ‘अगर व्यक्ति प्रतिदिन परमेश्वर के वचन खाता-पीता और सत्य के बारे में संगति करता है, सामान्य रूप से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम है, कलीसिया जो भी व्यवस्था करती है वो सब करता है और कभी विघ्न नहीं डालता या गड़बड़ी पैदा नहीं करता है—और भले ही वह कभी-कभी सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन कर देता है लेकिन ऐसा जानबूझकर या इरादतन नहीं करता—तो क्या यह ये नहीं दर्शाता कि वह सत्य का अनुसरण करता है?’ यह अच्छा प्रश्न है। कई लोगों का यही ख्याल होता है। सबसे पहले, तुम्हें यह समझना चाहिए कि क्या व्यक्ति लगातार इस तरह का अभ्यास करके सत्य और सत्य की समझ हासिल करने में सक्षम हो सकता है। तुम लोग अपने विचार साझा करो। (भले ही इस तरह का अभ्यास सही है, यह धार्मिक अनुष्ठान के समान ज्यादा लगता है—यह नियम का पालन करना है। इसके द्वारा सत्य की समझ या सत्य हासिल नहीं हो सकता।) तो, असल में ये किस तरह के व्यवहार हैं? (ये सतही रूप से अच्छे व्यवहार हैं।) मुझे यह उत्तर पसंद आया। ये केवल ऐसे अच्छे व्यवहार हैं, जो व्यक्ति के परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, विभिन्न अच्छी और सकारात्मक शिक्षा द्वारा प्रभावित होने के बाद उसके अंतःकरण और विवेक की नींव पर उत्पन्न होते हैं। लेकिन ये अच्छे व्यवहारों से ज्यादा कुछ नहीं हैं, और वे सत्य का अनुसरण तो बिल्कुल नहीं हैं। तो फिर, इन अच्छे व्यवहारों का मूल क्या है? उन्हें क्या चीज जन्म देती है? ये व्यक्ति के अंतःकरण और विवेक, उसकी नैतिकता, परमेश्वर में विश्वास करने के प्रति उसकी अनुकूल भावनाओं और उसके आत्म-संयम से उत्पन्न होते हैं। चूँकि वे अच्छे व्यवहार हैं, इसलिए सत्य से उनका कोई संबंध नहीं है, और निश्चित रूप से वे एक ही चीज नहीं हैं। अच्छे व्यवहारों का होना सत्य का अभ्यास करने के समान नहीं है, और अगर कोई व्यक्ति अच्छा व्यवहार करता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसे परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त है। अच्छे व्यवहार और सत्य का अभ्यास दो अलग-अलग चीजें हैं—और उनका एक-दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सत्य का अभ्यास करना परमेश्वर की अपेक्षा है और यह पूरी तरह से उसके इरादों के अनुरूप है; अच्छा व्यवहार मनुष्य की इच्छा से उपजता है और इसमें मनुष्य के इरादे और उद्देश्य समाए होते हैं—यह ऐसी चीज है, जिसे मनुष्य अच्छा समझता है। भले ही अच्छे व्यवहार दुष्ट कर्म नहीं हैं, फिर भी वे सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता। ये व्यवहार चाहे जितने भी अच्छे हों, मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के कितने भी अनुरूप हों, इनका सत्य से कोई संबंध नहीं होता। इसलिए अच्छे व्यवहार की मात्रा कितनी भी हो, उसे परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिल सकती। चूँकि अच्छे व्यवहार को इस तरह से परिभाषित किया गया है, इसलिए स्पष्टतः अच्छे व्यवहार का सत्य के अभ्यास से कोई संबंध नहीं है। अगर लोगों को उनके व्यवहार के अनुसार प्रकारों में बाँटा जाए, तो ये अच्छे व्यवहार, ज्यादा से ज्यादा, वफादार श्रमिकों के कार्य होंगे, इससे ज्यादा कुछ नहीं। उनका सत्य के अभ्यास या परमेश्वर के प्रति सच्चे समर्पण से कोई संबंध नहीं है। वे सिर्फ एक प्रकार का व्यवहार हैं और वे लोगों के स्वभावगत परिवर्तन, सत्य के प्रति उनके समर्पण और स्वीकृति, परमेश्वर के भय और बुराई से दूर रहने, या ऐसे किसी भी अन्य व्यावहारिक तत्त्व से पूरी तरह से अप्रासंगिक हैं, जो वास्तव में सत्य से जुड़ा होता है। तो फिर उन्हें अच्छे व्यवहार क्यों कहा जाता है? यहाँ एक व्याख्या है, और स्वाभाविक रूप से यह इस प्रश्न के सार की भी व्याख्या है। वह यह है कि ये व्यवहार केवल लोगों की धारणाओं, उनकी प्राथमिकताओं, उनकी इच्छा और उनके स्व-प्रेरित प्रयासों से उत्पन्न होते हैं। वे पश्चात्ताप की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं जो सत्य और परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकारने के द्वारा सच्चा आत्म-ज्ञान पाने से आता है, न ही ये सत्य का अभ्यास करने के व्यवहार या कार्य हैं, जो तब उत्पन्न होते हैं जब लोग परमेश्वर के प्रति समर्पित होने का प्रयास करते हैं। क्या तुम इसे समझते हो? इसका अर्थ है कि इन अच्छे व्यवहारों में व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन, या परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना से गुजरने का परिणाम, या अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने से उत्पन्न होने वाला सच्चा पश्चात्ताप किसी भी तरह शामिल नहीं है। वे निश्चित रूप से परमेश्वर और सत्य के प्रति मनुष्य के सच्चे समर्पण से जुड़े नहीं होते हैं; और परमेश्वर के प्रति भय और प्रेम से भरा हृदय होने से तो और भी संबंधित नहीं हैं। अच्छे व्यवहारों का इन चीजों से बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है; वे केवल ऐसी चीज हैं जो मनुष्य से आती हैं और जिसे मनुष्य अच्छा समझता है। फिर भी ऐसे बहुत-से लोग हैं जो इन अच्छे व्यवहारों को किसी व्यक्ति के सत्य के अभ्यास का चिह्न समझते हैं। यह एक गंभीर गलती है, एक बेतुका दृष्टिकोण और समझ है। ये अच्छे व्यवहार सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान करना है, और यंत्रवत ढंग से काम करना है। ये सत्य का अभ्यास करने से जरा-सा भी संबंधित नहीं हैं। परमेश्वर शायद सीधे इनकी निंदा न करे, पर वह इन्हें कतई स्वीकृति नहीं देता; यह निश्चित है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मुझे समझ आया कि ली पिंग 10 साल से अधिक समय से परमेश्वर पर विश्वास कर रही है, 20 साल से अधिक समय से परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकार कर रही है, और हमेशा उत्साहपूर्वक खुद को खपाती रही, और इस दौरान अपना परिवार और करियर छोड़ दिया ये सभी उसके सतही उत्साह और अच्छे व्यवहार के उदाहरण थे। वे सत्य का अभ्यास करने के मानक पर खरे नहीं उतरे। परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद, बहुत से लोग कुछ अच्छा व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, चूँकि उनका स्वभाव सत्य से प्रेम करने वाला नहीं होता, और वे परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार नहीं कर पाते, इसलिए परमेश्वर पर विश्वास करने के वर्षों बाद भी उनका जीवन स्वभाव बिल्कुल नहीं बदलता। ऐसे लोगों को अंत में परमेश्वर द्वारा छोड़ और निकाल दिया जाएगा। अच्छा व्यवहार दिखाने का मतलब यह नहीं है कि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है। अगर कोई सिर्फ अच्छा व्यवहार दिखाता है, लेकिन कभी सत्य नहीं स्वीकारता या अभ्यास नहीं करता, तो ऐसा व्यक्ति कभी भी और कहीं भी परमेश्वर का विरोध कर सकता है। यह वैसा ही है जैसे धर्म में, ऐसे कई लोग थे जिन्होंने जीवन भर परमेश्वर पर विश्वास किया, कड़ी मेहनत की, खुद को त्यागा और खपाया। लेकिन जब सर्वशक्तिमान परमेश्वर, अंत के दिनों का मसीह, कार्य करने, सत्य प्रकट करने और मानवजाति को बचाने के लिए आया, तो उन्होंने उसकी निंदा की, विरोध किया और उसे अस्वीकार कर दिया। उन्होंने उसके द्वारा प्रकट किए गए सत्यों को नकार दिया। चाहे उन्होंने कितना भी अच्छा व्यवहार क्यों न किया हो, परमेश्वर ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। उसने परमेश्वर का विरोध करने वाले लोगों के रूप में उनकी निंदा की। मुझे उन फरीसियों का ख्याल आया जो यहोवा परमेश्वर की सेवा करते थे और उपदेश के लिए समुद्र और जमीन पार करके यात्रा करते थे। लोगों की नजर में उनका व्यवहार बहुत अच्छा था और उनमें कोई दोष नहीं निकाला जा सकता था, लेकिन जब प्रभु यीशु कार्य करने के लिए प्रकट हुआ, तो उन्होंने उसका विरोध किया, उसकी निंदा की और यहाँ तक कि उसे सूली पर चढ़ा दिया। उनका प्रकृति सार सत्य और परमेश्वर से घृणा करने वाला था। प्रभु यीशु ने उन्हें साँप के समान बताया, और अंत में, वे सभी परमेश्वर द्वारा दंडित और शापित हुए। इससे मैंने देखा कि जब हम लोगों के केवल अच्छे बनावटी व्यवहार को देखते हैं और सत्य के प्रति उनके दृष्टिकोण को नहीं समझते, तो बहुत आसानी से गुमराह हो जाते हैं!
फिर मैंने सोचा, “तो ली पिंग जैसे छद्म-विश्वासी लोगों को कैसे देखना चाहिए? कौन से लोग कलीसिया में श्रम करने के लिए रह सकते हैं, और किन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए? इसमें कौन से सिद्धांत शामिल हैं?” मैंने परमेश्वर के वचन का यह अंश पढ़ा : “अगर वे छद्म-विश्वासी, गैर-विश्वासी होकर भी श्रम करने को तत्पर हों, आज्ञाकारी होकर समर्पण कर सकते हों, तो भले ही वे सत्य का अनुसरण न करें, उनसे कुछ न कहो, उन्हें मत हटाओ। इसके बजाय, उन्हें श्रम करते रहने की अनुमति दे दो, और अगर तुम उनकी मदद कर सको तो करो। अगर उन्हें श्रम करने की भी इच्छा नहीं है, और वे लापरवाही से काम करना शुरू कर दें, बुरे काम करें, तो हमने वह सब कर दिया होगा जिसकी जरूरत है। अगर वे छोड़कर जाना चाहें तो उन्हें जाने दो, और उनके जाने के बाद उन्हें याद मत करो। वे ऐसे मुकाम पर हैं कि उन्हें छोड़कर चले जाना चाहिए, ऐसे लोग हमारी दया के लायक नहीं हैं, क्योंकि वे छद्म-विश्वासी हैं। सबसे दयनीय बात तो यह है कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो निहायत बेवकूफ हैं, जो बाहर कर दिए गए लोगों के प्रति नर्म भावनाएँ रखते हैं, उन्हें हमेशा याद करते हैं, उनकी ओर से बोलते हैं, उनकी तरफदारी करते हैं, और उनके लिए रोते, प्रार्थना करते और विनती करते हैं। इन लोगों के ऐसे कृत्यों के बारे में तुम क्या सोचते हो? (यह बहुत बड़ी बेवकूफी है।) यह बेवकूफी कैसे है? (छोड़ कर जाने वाले लोग छद्म-विश्वासी होते हैं, सत्य को नहीं स्वीकारते, वे जरा भी इस लायक नहीं हैं कि उनके लिए प्रार्थना की जाए, उन्हें याद किया जाए। परमेश्वर जिन्हें अवसर देता है और जिनके बचाए जाने की उम्मीद है, बस वही लोग दूसरों के आँसुओं और प्रार्थनाओं के लायक हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी छद्म-विश्वासी या दानव के लिए प्रार्थना करता है, तो वह बहुत बेवकूफ है, अज्ञानी है।) एक पहलू तो यह है कि वे सचमुच यकीन नहीं करते कि परमेश्वर है—वे छद्म-विश्वासी हैं; दूसरा पहलू यह है कि इन लोगों का प्रकृति सार एक गैर-विश्वासी का है। इसमें निहित अर्थ क्या है? वह यह है कि वे इंसान ही नहीं हैं, उनका प्रकृति सार एक दानव, एक शैतान का है, और ये लोग परमेश्वर के विरुद्ध हैं। उनके प्रकृति सार की बात ऐसी ही है। इसके अलावा एक दूसरा पहलू भी है और वह यह है कि परमेश्वर लोगों को चुनता है, दानवों को नहीं। तो बताओ, क्या ये दानव परमेश्वर के चुने हुए लोग हैं, क्या इन्हें परमेश्वर ने चुना है? (नहीं।) वे परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं हैं, इसलिए अगर तुम इन लोगों के साथ हमेशा भावनाओं में उलझ जाओ और उनके जाने पर दुखी हो जाओ, तो क्या तुम बेवकूफ नहीं हो? क्या इससे तुम परमेश्वर के विरुद्ध नहीं हो जाते? अगर तुम्हारे भीतर सच्चे भाई-बहनों के प्रति गहरी भावनाएँ नहीं हैं, लेकिन तुम इन दानवों के लिए गहरी भावनाएँ रखते हो, तो तुम क्या हो? और कुछ नहीं तो तुम एक भ्रमित व्यक्ति तो हो ही, लोगों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देखते, और अभी भी सही दृष्टिकोण के साथ आचरण नहीं करते, मामलों को सिद्धांतों के साथ नहीं संभालते। तुम एक भ्रमित व्यक्ति हो” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। छद्म-विश्वासियों के रूप में उजागर हुए लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इस बारे में परमेश्वर बहुत स्पष्टता से कहता है। यदि वे आज्ञाकारी, विनम्र और मेहनत करने के लिए तैयार हैं, तो भले ही वे सत्य का अनुसरण न करें, जब तक वे व्यवधान या गड़बड़ी पैदा नहीं करते, तब तक श्रम कर सकते हैं। अगर वे ठीक से श्रम नहीं करते, बेपरवाह हो जाते हैं या बुरे काम करते हैं और कलीसिया के काम में विघ्न-बाधाएँ डालते हैं, जब भाई-बहन उन्हें उजागर कर उनकी काट-छाँट करते हैं तो वे इसे स्वीकार या पश्चात्ताप नहीं करते हैं और अपना कर्तव्य निभाते समय लाभ के बजाय नुकसान अधिक करते हैं, तो उन्हें दूर कर देना चाहिए। परमेश्वर मनुष्य को बचाता है, और मनुष्य की अंतरात्मा का एक आधार होना चाहिए। भले ही कोई सत्य का अनुसरण न करे, कम से कम उसे व्यवधान या गड़बड़ी पैदा नहीं करनी चाहिए। जो लोग बुराई करने और परमेश्वर के घर के काम में बाधा डालकर गड़बड़ी करते हैं, उनका सार राक्षस और शैतान का होता है। ऐसे लोग कलीसिया में रहकर भी किसी काम के नहीं होते। उन्हें दूर कर देना चाहिए। मैंने इसकी तुलना ली पिंग के व्यवहार से की : उसने वर्षों परमेश्वर में विश्वास किया था, उसके साथ जो कुछ हुआ उसके बाद उसने सत्य की खोज नहीं की और लगातार लोगों और चीजों का अति-विश्लेषण करती रही, भाई-बहनों और कलीसिया के काम में बाधा डालती रही। भाई-बहनों ने उसके साथ संगति की और कई बार उसकी मदद की, लेकिन वह नहीं जागी और न ही उसने थोड़ा भी पश्चाताप किया। उसका प्रकृति सार सत्य से विमुख होना और उससे घृणा करना था, और वह एक प्रकट कि जा चुकी छद्म-विश्वासी थी। कलीसिया द्वारा ली पिंग को स्वच्छ किए जाने के द्वारा परमेश्वर की धार्मिकता पूरी तरह से प्रकट कर दी गई। पहले जब ली पिंग का न्याय करने की बात आई, तो मैंने उसका न्याय परमेश्वर के वचनों के आधार पर नहीं किया था, बल्कि अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर किया। मुझे लगा था चूँकि खुद को त्याग रही है, खपा रही है, पीड़ा सह रही है नियंत्रित कर रही और अच्छा व्यवहार भी कर रही है, तो उसमें परमेश्वर के प्रति सच्चा विश्वास है। तो मेरा नेक इरादा यह था कि मैं उसे कलीसिया में रहने के लिए राजी कर लूँ। मैं एकदम अंधी थी! परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि जो कोई अच्छा आचरण करता है, उसकी परमेश्वर में सच्चा विश्वास होता है। परमेश्वर लोगों को उनके प्रकृति सार, सत्य के प्रति उनके दृष्टिकोण, और वे किस मार्ग पर चल रहे हैं, इस आधार पर मापता है। लोगों को उनके प्रकार के अनुसार छाँटने का परमेश्वर का कार्य पहले ही अंतिम अवस्था में पहुँच चुका है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं और उसे स्वीकार कर सकते हैं, जो लोग उससे विमुख हैं और उससे घृणा करते हैं, जो लोग गेहूँ हैं, और जो लोग खरपतवार हैं—परमेश्वर उन सभी को उजागर करने जा रहा है। वे छद्म-विश्वासी, बुरे लोग और मसीह विरोधी जो सत्य से विमुख हैं और उससे घृणा करते हैं परमेश्वर द्वारा सभी निकाल दिए जाएंगे। मुझे अब भी ली पिंग से सहानुभूति थी, जो एक छद्म-विश्वासी के रूप में उजागर हुई थी; क्या मैं परमेश्वर के खिलाफ खड़ी होकर उसका विरोध नहीं कर रही थी? मैं वास्तव में बहुत मूर्ख थी! मुझे उसे पहचान कर दिल से अस्वीकार कर देना चाहिए और परमेश्वर के घर के काम की रक्षा के लिए तुरंत कलीसिया को उसके छद्म-विश्वासी होने के व्यवहार के बारे में बताना चाहिए। मैं अब और भ्रमित नहीं हो सकती थी! इसके तुरंत बाद, मैंने ली पिंग के छद्म-विश्वासी होने के व्यवहार को कलीसिया को बताया, और कुछ ही समय में उसे निकाल दिया गया।
ली पिंग को बाहर निकालने की इस प्रक्रिया का अनुभव कर, मुझे छद्म-विश्वासियों की थोड़ी पहचान हुई, साथ ही अपने अंदर के भ्रामक विचारों की भी थोड़ी समझ मिली। मुझे समझ आया कि किसी व्यक्ति की परमेश्वर में सच्चा विश्वास सिर्फ इसलिए नहीं हो जाता क्योंकि वह अच्छा व्यवहार करता है। अगर कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता या उसे स्वीकार नहीं करता, तो उसे अभी या बाद में उजागर कर दिया जाएगा और निकाल दिया जाएगा। मैंने देखा कि लोगों को केवल परमेश्वर के वचनों के आधार पर पहचानना ही सही है।