27. अति ईर्ष्यालु होने के दुष्परिणाम

किनमो, चीन

2016 की बात है, मैं कलीसिया में वीडियो बनाया करती थी। मैंने देखा कि बहन शिन चेंग अपेक्षाकृत अधिक वीडियो बनाती है और हमारे बीच चर्चाओं के दौरान अधिकांशतः उसकी राय मानी जाती है, और सुपरवाइजर भी अक्सर उसे अपने विचार साझा करने को कहता था। मुझे लगा कि वह लंबे समय से अभ्यास करती आ रही है और तकनीकी रूप से दक्ष है, इसलिए मैंने सोचा, “मैं यहाँ नई हूँ, इसलिए मुझे उससे और ज्यादा सीखना चाहिए।” लेकिन बाद में मुझे पता चला कि शिन चेंग यहाँ सिर्फ दो महीनों से है, तो मैं सोचने लगी, “हम दोनों ने यहाँ तकरीबन एक ही समय अपना कर्तव्य निभाना शुरू किया है। हो सकता है दूसरे लोग उससे मेरी तुलना करें। अगर वह सबकी स्वीकृति पा सकती है तो मैं भी उससे पीछे नहीं रह सकती, वरना लोग मुझे हेय दृष्टि से देखेंगे।” बाद में मैंने बड़े गौर से शिन चेंग के बनाए वीडियो देखे लेकिन मुझे उनमें कुछ भी बहुत खास नहीं दिखाई दिया, इसलिए मुझे लगा कि उसमें कुछ भी विशेष कौशल नहीं है—मुझे भी इस स्तर तक पहुँचने में सक्षम होना चाहिए। यह साबित करने के लिए कि मैं शिन चेंग से कोई कमतर नहीं हूँ, मैं हर बार वीडियो प्रस्तुति पर चर्चा के दौरान ध्यान से विचार करती थी और उससे अधिक विचारपूर्ण अंतर्दृष्टियाँ पेश करने की कोशिश करती थी। यहाँ तक कि जब उसके विचार उचित होते थे, तब भी मैं उससे बढ़चढ़कर अपनी अंतर्दृष्टियाँ बताया करती थी ताकि सबको लगे कि मैं उससे ज्यादा समग्र ढंग से समस्याओं पर विचार करती हूँ।

एक बार की बात है, मैंने शिन चेंग का बनाया एक वीडियो देखा जो काफी अच्छा था। यह देखने में ताजगी भरा था। यह बात मैंने मन ही मन मान तो ली, लेकिन उसके वीडियो को अच्छा मानने का ख्याल ऐसा लगा मानो मुझे सरेआम थप्पड़ मारा जा रहा हो और मैं ऐसा कहने का साहस नहीं जुटा सकी। मैंने यह सोचकर खुद को ढाढस बँधाया, “अगर मैं थोड़ा-सा दिल लगाऊँ तो मैं कोई उससे खराब काम नहीं करूँगी।” उसके बाद मैं वीडियो बनाने में खास तौर पर सचेत रहने लगी, मुख्य बिंदुओं पर बार-बार ध्यान देती थी और यह सोचती थी कि अच्छे प्रभाव के लिए किस तरह उनका संपादन करूँ। थोड़ा-सा कठिन परिश्रम करने के बाद मैंने कुछ अच्छे वीडियो बनाए और जब उन्हें जाँचने के लिए शिन चेंग को दिए तो उसे उनमें कोई समस्या नहीं मिली, इसलिए मुझे लगा कि उसका कौशल स्तर लगभग मेरे जैसा ही है। लेकिन बाद में सुपरवाइजर ने शिन चेंग से कहा कि वह मार्गदर्शन कर मेरी मदद करे। मैंने मन ही मन सोचा, “हम दोनों ने तकरीबन एक ही समय शुरुआत की, तो उसे मेरा मार्गदर्शन क्यों करना चाहिए? सुपरवाइजर को जरूर यह लगता होगा कि मैं शिन चेंग जैसी कुशल नहीं हूँ।” यह बात कतई मेरे गले नहीं उतरी और मैं सोचने लगी, “अगर मैं आज्ञापूर्वक उससे सीखती रही तो समझो मैंने यह मान लिया कि मैं उससे कमतर हूँ और अगर मैंने भविष्य में अच्छा कार्य किया तो हर कोई इसका श्रेय मेरी जगह उसी को देगा। मैं ऐसा नहीं होने दूँंगी!” इसलिए शिन चेंग के साथ वीडियो प्रस्तुति पर चर्चा के दौरान मैं उसकी राय की कतई परवाह न कर उसे लापरवाही से खारिज कर देती थी। इसके विपरीत जब मैं अपने विचार साझा करती थी तो शिन चेंग बहुत गौर से सुना करती थी और वह अक्सर उन पहलुओं को सामने लाती थी जिन्हें वह ठीक से नहीं समझ पाती थी और उन पर मेरे विचार माँगा करती थी। मैं इसे यह संकेत मानती थी कि मैं उससे ज्यादा जानती हूँ और उसे अपने ध्यानाकर्षण के लायक नहीं समझती थी। जल्द ही शिन चेंग को तरक्की देकर एक दूसरी जगह कर्तव्य निभाने भेज दिया गया तो मुझे खुशी भी हुई और जलन भी। मुझे उसकी तरक्की से जलन हुई लेकिन साथ ही मुझे इस कारण गुपचुप खुशी भी हुई कि उसके जाने का मतलब है कि मेरी एक प्रतिद्वंद्वी कम हो गई है।

शिन चेंग के जाने के बाद एक बार हम एक वीडियो की प्रस्तुति पर चर्चा कर रहे थे। कुछ समस्याओं की गूढ़ताएँ समझना मुश्किल हो रहा था जिसके कारण बार-बार बाधाएँ आ रही थीं और प्रगति धीमी हो गई थी। मैं बस सोचने लगी, “पहले जब सुपरवाइजर शिन चेंग को मेरी मदद करने और अपने अनुभव पर मेरे साथ संगति करने को कहता था तो मैं इसे यह सोचकर खारिज कर देती थी कि वह जो कुछ जानती है मैं वह सब समझती हूँ और उसके टीम में रहने या न रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। अब जबकि शिन चेंग को गए ज्यादा समय नहीं हुआ है तो हम कठिनाइयों का सामना करने लगे हैं। इससे लगता है कि सिद्धांतों की मेरी समझ सीमित है। अगर कोई निगरानी करने वाला और लगाम थामने वाला न हो तो मैं मानक स्तरीय वीडियो बिल्कुल नहीं बना सकती हूँ।” उस समय मुझे लगा कि मैं कितनी अहंकारी हूँ, मुझे शिन चेंग की कमी खलने लगी और मैं सोचने लगी कि कितना अच्छा रहता जो हमारे पास राय लेने और सुझाव देने के लिए उस जैसा कोई दूसरा इंसान होता। मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए : “परमेश्वर के कार्य के प्रयोजन के लिए, कलीसिया के फ़ायदे के लिये और अपने भाई-बहनों को आगे बढ़ाने के वास्ते प्रोत्साहित करने के लिये, तुम लोगों को सद्भावपूर्ण सहयोग करना होगा। परमेश्वर के इरादों के प्रति लिहाज दिखाने के लिए तुम्हें एक दूसरे के साथ सहयोग करना चाहिये, एक दूसरे में सुधार करके कार्य का बेहतर परिणाम हासिल करना चाहिये। सच्चे सहयोग का यही मतलब है और जो लोग ऐसा करेंगे सिर्फ़ वही सच्चा प्रवेश हासिल कर पाएंगे(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, इस्राएलियों की तरह सेवा करो)। अचानक मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ने मेरे लिए शिन चेंग के साथ कार्य करने की व्यवस्था की थी ताकि हम वीडियो अच्छे बनाने में एक दूसरे की खूबियों और कमजोरियों के पूरक बन सकें। लेकिन पिछले कुछ महीनों से मैं इस बात पर ध्यान नहीं दे रही थी कि मुझे क्या करना चाहिए, मेरा ध्यान सिर्फ इन बातों पर था कि उसके साथ अपनी तुलना करूँ और अपनी ही क्षमताओं का दिखावा करूँ, उसका बहिष्कार करूँ और उसके साथ सहयोग न करूँ। अब जबकि शिन चेंग जा चुकी है, मेरे पास उससे सीखने का कोई अवसर नहीं था। इस मुकाम पर मुझे तब इतने अविवेकी होने पर खुद से घृणा हुई।

जब मैं खोज रही थी तो मुझे परमेश्वर के ये वचन मिले : “कुछ लोग हमेशा इस बात से डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर और ऊपर हैं, अन्‍य लोगों को पहचान मिलेगी, जबकि उन्हें अनदेखा किया जाता है, और इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह प्रतिभाशाली लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या यह स्‍वार्थपूर्ण और निंदनीय नहीं है? यह कैसा स्वभाव है? यह दुर्भावना है! जो लोग दूसरों के बारे में सोचे बिना या परमेश्वर के घर के हितों को ध्‍यान में रखे बिना केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं, जो केवल अपनी स्‍वार्थपूर्ण इच्छाओं को संतुष्ट करते हैं, वे बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर में उनके लिए कोई प्र‍ेम नहीं होता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। “मसीह-विरोधियों का सबसे स्पष्ट स्वभाव कौन-सा होता है? यानी वह कौन-सा स्वभाव है जिसकी असलियत तुम उनसे संपर्क में आने पर और उनके एक या दो वक्यांश सुनने पर समझ सकोगे? अहंकार ... यह कहना उचित है कि चूँकि वे अकड़बाज हैं, और मानते हैं कि उनकी बराबरी का कोई नहीं है—और इसी वजह से वे अपने किसी भी काम में किसी के भी साथ सहयोग या विचार-विमर्श नहीं करना चाहते। वे धर्मोपदेश सुन सकते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ सकते हैं, कभी-कभी खुद को उसके वचनों से उजागर होते देख सकते हैं और काट-छाँट से गुजर सकते हैं, लेकिन किसी भी स्थिति में वे स्वीकार नहीं करेंगे कि उन्होंने भ्रष्टता प्रकट की है और अपराध किया है, अहंकारी और आत्मतुष्ट होना तो दूर की बात है। वे यह नहीं समझ पाते कि वे बस एक साधारण इंसान हैं, साधारण काबिलियत वाले। वे ऐसी चीजें नहीं समझ सकते। चाहे तुम उनकी जैसे भी काट-छाँट करो, फिर भी उन्हें लगेगा कि उनकी काबिलियत अच्छी है, और वे साधारण लोगों से ऊँचे स्तर के हैं। क्या यह उम्मीद से परे नहीं है? (बिल्कुल है।) यह उम्मीद से परे है। यह मसीह-विरोधी होता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैंने जाना कि मेरा व्यवहार वास्तव में प्रतिभाशाली लोगों से ईर्ष्या करने वाला और विवेक से परे अहंकार वाला है, जिसे परमेश्वर ने उजागर किया है। मैं उन दिनों के बारे में सोचने लगी जब मैं बस आई ही थी और वीडियो बनाने शुरू किए थे, जब मैंने देखा कि भले ही शिन चेंग भी अभी-अभी आई है लेकिन वह हर व्यक्ति की स्वीकृति पाने में सक्षम है तो मैं यह सोचकर उससे अपनी तुलना करने लगी कि अगर वह यह काम कर सकती है तो मैं भी कर सकती हूँ। चाहे वीडियो बनाने की बात हो या विचार साझा करने की, मैंने अपनी होशियारी दिखाने के लिए अपना दिमाग मथ रखा था। मैं शिन चेंग की खूबियाँ स्वीकारने को भी तैयार नहीं थी। उसका वीडियो निर्माण कौशल स्पष्ट रूप से मुझसे कहीं श्रेष्ठ था और भले ही मैं इस बात को मन ही मन मानती थी लेकिन मैंने इसे अपने मुँह से स्वीकारने से इनकार कर दिया था। सुपरवाइजर ने शिन चेंग से कहा था कि वह मेरा और मार्गदर्शन करे ताकि मैं तेजी से सिद्धांतों पर पकड़ बना लूँ और अपना कौशल सुधार लूँ लेकिन मैंने इसे नीचा दिखाने का संकेत माना और शिन चेंग के साथ व्यवहार में बार-बार छिछोरापन दिखाया। जलन के मारे मैं अपने ही तौर-तरीकों में फँस कर रह गई, मुझमें सुधार की कोई इच्छा नहीं थी और मैंने उसके साथ सहयोग के जरिए कुछ भी नहीं सीखा। यही नहीं, चूँकि मैंने अभी-अभी वीडियो निर्माण का प्रशिक्षण लेना शुरू किया था, मेरे कौशल में कई कमियाँ थीं, फिर भी मुझे लगता था मानो मैं सब कुछ जानती हूँ और मैं अहंकार में अंधी और अड़ियल हो गई थी। शिन चेंग वीडियो बनाने में मुझसे बेहतर थी और इतनी विनम्र थी कि मुझसे मार्गदर्शन माँग लेती थी और समस्याओं पर चर्चा कर लेती थी, लेकिन मैं उसकी खूबियों की अनदेखी करती रही, यहाँ तक कि बेशर्मी से खुद को उससे बेहतर मानती रही। अगर मुझमें रत्तीभर भी विवेक होता कि मैं कमियाँ स्वीकार कर लूँ, अपना दंभ छोड़ सकूँ और शिन चेंग से सीख सकूँ तो मैं इतनी असहाय और दयनीय नहीं होती जितनी अभी हूँ। यह एहसास होने पर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मुझे जो करना चाहिए उस पर मैं ध्यान नहीं दे रही हूँ और तुम्हारे ईमानदार इरादे को धता बता चुकी हूँ। यहाँ तक कि मैंने अभी तक कौशल नहीं सीखा है जिससे मेरे कर्तव्य में देरी हुई है। मैं पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हूँ।”

दो साल बाद एक नई सुपरवाइजर वांग लू की नियुक्ति हो गई। पहले कभी वांग लू के कार्य की देखरेख की जिम्मेदारी मेरे पास होती थी लेकिन अब वह सुपरवाइजर बनकर मेरे कार्य का जायजा ले रही थी और निगरानी कर रही थी, जिससे मैं काफी असहज हो गई। मैंने सोचा, “मैं उससे भी पहले से अपना कर्तव्य निभाती आ रही हूँ लेकिन वह आते ही सुपरवाइजर बन गई है। क्या भाई-बहनों को यह लगेगा कि ज्यादा लंबे समय से प्रशिक्षण लेने के बावजूद मैं एक नवागत जितनी कुशल भी नहीं हूँ?” हालाँकि मेरा इरादा कभी भी सुपरवाइजर बनने का नहीं रहा, पर मैं यह भी नहीं चाहती थी कि कोई मुझे हेय दृष्टि से देखे। इसलिए मैंने यूँ ही एक बहन से वांग लू के बारे में उसकी राय पूछ ली, तो बहन ने कहा कि वांग लू की सिद्धांतों पर अच्छी खासी पकड़ है और उसके बनाए वीडियो के नतीजे काफी अच्छे होते हैं। यह बात मेरे गले नहीं उतरी और मुझे विश्वास नहीं हुआ कि वह वास्तव में इतनी कुशल है। फिर तो अपने मन का संत्रास दूर करने के लिए मैं वांग लू की छोटी से छोटी गलती ढूँढ़ने में जुट गई। एक शाम को वांग लू हमारे कार्य में समस्याओं की समीक्षा करने आई और मैं यह देखना चाहती थी कि उसका स्तर वास्तव में क्या है, इसलिए मैंने उसकी संगति का इंतजार किया। लेकिन वह काफी समय तक चुप रही। मैंने सोचा, “एक सुपरवाइजर के रूप में तुम शुरुआत क्यों नहीं कर रही हो? ऐसा लगता है कि तुम सिर्फ नाम की सुपरवाइजर हो। तुम इतना भर काम भी नहीं सँभाल सकती हो।” बाद में मैंने जानबूझकर बहनों को बता दिया कि वांग लू अपने कर्तव्यों में निष्क्रिय और अक्षम है और वे मेरे दृष्टिकोण से सहमत थीं। उसके संकट से मुझे थोड़ी-सी खुशी हुई और मैंने सोचा, “भले ही अब उसका खूब सम्मान है लेकिन उसकी कार्य क्षमता किसी भी रूप में जानदार नहीं है। शायद वह ज्यादा समय तक सुपरवाइजर की भूमिका नहीं सँभाल पाएगी। तब तक भाई-बहन सोचने लगेंगे कि भले ही मुझमें सुपरवाइजर बनने की काबिलियत नहीं है, लेकिन कम से कम मैं अपने कर्तव्य में भरोसेमंद और टिकाऊ हूँ और उससे कतई बुरी नहीं हूँ।” एक और सभा के दौरान वांग लू ने मेरी दशा के बारे में पूछा तो मैंने एक उपेक्षापूर्ण उत्तर दिया, इस कारण उसके लिए मेरी असली दशा जानना मुश्किल हो गया और मैंने जानबूझकर उसे एक कठिन स्थिति में डाल दिया। रोजमर्रा की सभाओं में अगर मेरे पास अंतर्दृष्टियाँ होती भी थीं तो मैं तुरंत संगति नहीं करती थी और उत्सुक होकर यह उम्मीद करती थी कि दूसरे भी खामोश रहें ताकि यह देख सकूँ कि वांग लू स्थिति को कैसे सँभालती है। लेकिन सब खुलकर बोलने और संगति करने की पहल करते थे और वांग लू जो कुछ पूछती थी उस पर वे सक्रिय होकर जवाब देते थे। यह देखते हुए कि हर कोई मुक्त और सहज महसूस कर रहा है जबकि मैं असहज रहती हूँ, मैंने खुद से पूछा, “हर कोई वांग लू के साथ सही ढंग से व्यवहार क्यों कर लेता है जबकि मैं हमेशा उसके खिलाफ खड़ी रहती हूँ?” आत्मचिंतन कर मैंने जाना कि मेरी ईर्ष्या एक बार फिर जोर मार रही है।

एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति को देखता है जो उनसे बेहतर है, तो लोगों के मन में अपनी जगह बचाए रखने के लिए वह उन्हें नीचे गिराने की कोशिश करता है, उनके बारे में अफवाहें फैलाता है, या उन्हें बदनाम करने और उनकी प्रतिष्ठा कम करने के लिए कुछ घिनौने तरीकों का इस्तेमाल करता है—यहाँ तक कि उन्हें रौंदता है—यह किस तरह का स्वभाव है? यह केवल अहंकार और दंभ नहीं है, यह शैतान का स्वभाव है, यह द्वेषपूर्ण स्वभाव है। यह व्यक्ति अपने से बेहतर और मजबूत लोगों पर हमला कर सकता है और उन्हें अलग-थलग कर सकता है, यह कपटपूर्ण और दुष्ट है। वह लोगों को नीचे गिराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगा, यह दिखाता है कि उसके अंदर का दानव काफी बड़ा है! शैतान के स्वभाव के अनुसार जीते हुए, संभव है कि वह लोगों को कमतर दिखाए, उन्हें फँसाने की कोशिश करे, और उनके लिए मुश्किलें पैदा कर दे। क्या यह कुकृत्य नहीं है? इस तरह जीते हुए, वह अभी भी सोचता है कि वह ठीक है, अच्छा इंसान है—फिर भी जब वह अपने से बेहतर व्यक्ति को देखता है, तो संभव है कि वह उसे परेशान करे, उसे पूरी तरह कुचले। यहाँ मुद्दा क्या है? जो लोग ऐसे बुरे कर्म कर सकते हैं, क्या वे अनैतिक और स्वेच्छाचारी नहीं हैं? ऐसे लोग केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं, वे केवल अपनी भावनाओं का खयाल करते हैं, और वे केवल अपनी इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और अपने लक्ष्यों को पाना चाहते हैं। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि वे कलीसिया के कार्य को कितना नुकसान पहुँचाते हैं, और वे अपनी प्रतिष्ठा और लोगों के मन में अपने रुतबे की रक्षा के लिए परमेश्वर के घर के हितों का बलिदान करना पसंद करेंगे। क्या ऐसे लोग अभिमानी और आत्मतुष्ट, स्वार्थी और नीच नहीं होते? ऐसे लोग अभिमानी और आत्मतुष्ट ही नहीं, बल्कि बेहद स्वार्थी और नीच भी होते हैं। वे परमेश्वर के इरादों को ले कर बिल्कुल विचारशील नहीं हैं। क्या ऐसे लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है? उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता। यही कारण है कि वे बेतुके ढंग से आचरण करते हैं और वही करते हैं जो करना चाहते हैं, उन्हें कोई अपराध-बोध नहीं होता, कोई घबराहट नहीं होती, कोई भी भय या चिंता नहीं होती, और वे परिणामों पर भी विचार नहीं करते। यही वे अकसर करते हैं, और इसी तरह उन्‍होंने हमेशा आचरण किया है। इस तरह के आचरण की प्रकृति क्या है? हल्‍के-फुल्‍के ढंग से कहें, तो इस तरह के लोग बहुत अधिक ईर्ष्‍यालु होते हैं और उनमें अपनी निजी प्रतिष्ठा और हैसियत की बहुत प्रबल आकांक्षा होती है; वे बहुत धोखेबाज और धूर्त होते हैं। और अधिक कठोर ढंग से कहें, तो समस्‍या का सार यह है कि इस तरह के लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता। उन्हें परमेश्वर का भय नहीं होता, वे अपने आपको सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, और वे अपने हर पहलू को परमेश्वर से भी ऊंचा और सत्य से भी बड़ा मानते हैं। उनके दिलों में, परमेश्वर जिक्र करने के योग्य नहीं है और महत्वहीन है, उनके दिलों में परमेश्वर का बिलकुल भी महत्व नहीं होता। क्‍या वो लोग सत्‍य का अभ्यास कर सकते हैं जिनके हृदयों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, और जिनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है? बिल्कुल नहीं। इसलिए, जब वे सामान्यतः मुदित मन से और ढेर सारी ऊर्जा खर्च करते हुए खुद को व्‍यस्‍त बनाये रखते हैं, तब वे क्‍या कर रहे होते हैं? ऐसे लोग यह तक दावा करते हैं कि उन्‍होंने परमेश्वर के लिए खपाने की खातिर सब कुछ त्‍याग दिया है और बहुत अधिक दुख झेला है, लेकिन वास्‍तव में उनके सारे कृत्‍य, निहित प्रयोजन, सिद्धान्‍त और लक्ष्‍य, सभी खुद के रुतबे, प्रतिष्ठा के लिए हैं; वे केवल सारे निजी हितों की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं। तुम लोग ऐसे व्यक्ति को बहुत ही बेकार कहोगे या नहीं कहोगे? किस तरह के लोगों में कई वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी, परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता? क्या वे अहंकारी नहीं हैं? क्या वे शैतान नहीं हैं? और किन चीजों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल सबसे कम होता है? जानवरों के अलावा, बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों में, दानवों और शैतान के जैसों में। वे सत्य को जरा-भी नहीं स्वीकारते; उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता। वे किसी भी बुराई को करने में सक्षम हैं; वे परमेश्वर के शत्रु हैं, और उसके चुने हुए लोगों के भी शत्रु हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए मुझे लगा कि वे मेरे दिल को गहरे बेध रहे हैं। “बुरे लोग,” “मसीह-विरोधी,” “दानवों” और “शैतान” जैसे शब्दों ने मुझे शर्मसार कर दिया। मैं स्पष्ट रूप से सुपरवाइजर नहीं बन सकती थी, फिर भी मैं चाहती थी कि दूसरे मेरी तारीफ करें। एक नवागत वांग लू को दूसरों से आगे बढ़ते देखकर मुझे डर था कि लोग कहेंगे कि लंबे समय तक प्रशिक्षण लेने के बावजूद मैं अब भी नवागत से भी खराब हूँ, जिससे मैं कमतर लगती हूँ। जलन और असंतोष के कारण मैंने उसकी कमियाँ ढूँढ़ने पर ध्यान दिया। जब वांग लू शुरुआत में यहाँ आई ही थी और काम से अपरिचित ही थी तो मैंने उसमें कमी ढूँढ़ने की कोशिश की ताकि निष्क्रिय और अक्षम होने के लिए उसकी आलोचना कर सकूँ, उसकी तौहीन करूँ और उसके प्रयासों को कम करके आँकूँ। सभाओं के दौरान मैं संगति में सक्रिय नहीं रहती थी और दूसरे भाई-बहनों को भी अपने विचार साझा नहीं करने देना चाहती थी, मैं जानबूझकर उसे लज्जित करना चाहती थी। मैं वास्तव में घृणास्पद और दुर्भावनापूर्ण थी, मुझे परमेश्वर का कोई भय नहीं था! ऊपरी तौर पर मैं उससे जलती थी और उसे कमजोर करने का काम कर रही थी लेकिन हकीकत में मैं कलीसिया के कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा कर रही थी और परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर रही थी। यह बुराई करना था! मैं खुद एक सुपरवाइजर की भूमिका नहीं निभा सकती थी, फिर भी मैं दूसरों की कमियों का फायदा उठाकर उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर रही थी और यह चाहती थी कि वे भी नाकाम हो जाएँ। मैं शैतान की चाकर बनकर कार्य कर रही थी। अगर मैं ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा में जीती रहती तो कई बुरे कर्म करने के कारण मुझे देर-सबेर परमेश्वर के दंड का सामना करना पड़ता।

आत्मचिंतन करते हुए मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “शैतान के खेमे में चाहे समाज में हो या सरकारी हलकों में, कैसा माहौल है? कौन सी प्रथाएँ प्रचलित हैं? तुम सबको इसकी कुछ समझ होनी चाहिए। उनके कार्यों के सिद्धांत और दिशानिर्देश क्या होते हैं? प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में एक नियम है; हर कोई अपने हिसाब से चलता है। वे अपने हित में और अपनी मर्जी के कार्य करते हैं। जिसके पास अधिकार होता है उसी का निर्णय अंतिम होता है। वे दूसरों के बारे में जरा भी नहीं सोचते। जैसा वे चाहते हैं, वैसा ही करते हैं, और प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए संघर्ष करते हैं तथा पूरी तरह से अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हैं। जैसे ही उन्हें शक्ति प्राप्त होती है, वे इसका प्रयोग फौरन दूसरों पर करते हैं। यदि तुम उन्‍हें ठेस पहुँचाते हो, तो वे तुम पर शिकंजा कसना चाहते हैं, और तुम उन्हें उपहार देने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। वे बिच्छुओं की तरह हानिकारक हैं, कानून, सरकारी नियमों का उल्लंघन करने और यहाँ तक कि अपराध करने को तैयार हैं। वे यह सब करने में सक्षम हैं। तो शैतान के खेमे में इतना अँधेरा और दुष्टता है। अब, परमेश्वर मानवता को बचाने, लोगों को सत्य स्वीकार करवाने, सत्य समझाने और शैतान के बंधन और शक्ति से मुक्त करवाने आया है। यदि तुम लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते और सत्य का अभ्यास नहीं करते तो क्या तुम अब भी शैतान की सत्ता में नहीं जी रहे हो? उस स्थिति में, तुम लोगों की वर्तमान स्थिति और दानवों और शैतान की स्थिति में क्या अंतर है? तुम लोग ठीक वैसे ही प्रतिस्पर्धा करोगे जैसे अविश्वासी करते हैं। तुम लोग उसी तरह लड़ोगे जैसे अविश्वासी लड़ते हैं। सुबह से लेकर रात तक तुम लोग षड्यंत्र और प्रपंच रचने, ईर्ष्‍या करने और विवादों में उलझे रहोगे। इस समस्या की जड़ क्या है? इसका कारण यह है कि लोगों के स्‍वभाव भ्रष्ट हैं और वे इन भ्रष्‍ट स्‍वभावों के अनुसार जीते हैं। भ्रष्ट स्वभावों का शासन शैतान का शासन है; भ्रष्‍ट मानवता शैतानी स्वभाव में निवास करती है और कोई भी अपवाद नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे याद आया कि परमेश्वर में विश्वास करने से पहले मैं जीवित रहने के इन नियमों का पालन करती थी, जैसे “सिर्फ़ एक अल्फा पुरुष हो सकता है” और “सच्चाई विजेता की है; हारने वाले हमेशा ही गलत होते हैं।” मुझे लगता था कि अपने आसपास वालों को पछाड़ने और दूसरों से सम्मान और समर्थन पाने वाला इंसान बनने में ही अस्तित्व का महत्व है। इस मानसिकता के प्रभुत्व में आकर मैं स्कूल में ऊँचे अंक पाने वाले या शिक्षकों का ज्यादा ध्यान खींचने वाले छात्रों से गुपचुप रूप से अपनी तुलना करती थी। कार्यक्षेत्र में आने के बाद मैं अक्सर यह सुनती थी कि एक टिकाऊ पद और सम्मान पाने के लिए व्यक्ति को सबसे अलग और विलक्षण होना चाहिए। जब मेरे आसपास कोई मुझसे ज्यादा योग्य होता था तो मुझे संकट महसूस होने लगता था, क्योंकि इसका मतलब अपना एक अतिरिक्त प्रतिस्पर्धी होना है और किसी क्षेत्र में अगर किसी अनुभवी व्यक्ति को एक नवागत पछाड़ दे तो यह और भी शर्मनाक होता है। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी मैंने चीजों को इसी तरीके से देखना जारी रखा। लोगों के किसी भी समूह में मैं सबसे पहले यह देखती थी कि मुझसे बेहतर कौन है या मेरे पद के लिए कौन खतरा बन सकता है। अगर किसी भी क्षेत्र में मुझे कोई पछाड़ देता था तो मैं शर्म महसूस करती थी और ईर्ष्यालु और असहज हो जाती थी। जब मैं अपने से बेहतर भाई-बहनों को देखती थी तो मैं जलने लगती थी और उनका बहिष्कार कर देती थी और हमेशा उन्हें नीचा दिखाने और खुद को ऊँचा उठाने की कोशिश करती थी। उनसे आगे निकलने के लिए मैं साजिशों का सहारा तक ले सकती थी, उनकी गलतियाँ लपक लेती थी और पीठ पीछे उनकी आलोचना करती थी और अपनी संतुष्टि के लिए उनके पतन की उम्मीद करती थी। मुझे यह एहसास हुआ कि शैतान के जीवित रहने के नियमों के अनुसार जीते हुए मैं अहंकारी, विद्वेषी और मानवता रहित बन चुकी थी और मैंने कलीसिया का कार्य भी बाधित कर दिया था। फिर भी परमेश्वर ने मुझसे मेरे बुरे कर्मों के अनुसार व्यवहार नहीं किया, बल्कि मुझे पश्चात्ताप का अवसर दिया। मैंने तहेदिल से परमेश्वर का धन्यवाद किया, मैं अब और अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार नहीं जीना चाहती थी।

बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा और हैसियत पर विचार मत कर। तुम्‍हें सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उन्‍हें अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुम्‍हें परमेश्वर के इरादों का ध्‍यान रखना चाहिए और इस पर चिंतन से शुरुआत करनी चाहिए कि तुम्‍हारे कर्तव्‍य निर्वहन में अशुद्धियाँ रही हैं या नहीं, तुम वफादार रहे हो या नहीं, तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही तुम अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार करते रहे हो या नहीं। तुम्‍हें इन चीज़ों के बारे में अवश्‍य विचार करना चाहिए। अगर तुम इन पर बार-बार विचार करते हो और इन्हें समझ लेते हो, तो तुम्‍हारे लिए अपना कर्तव्‍य अच्‍छी तरह से निभाना आसान हो जाएगा। अगर तुम्‍हारे पास ज्यादा काबिलियत नहीं है, अगर तुम्‍हारा अनुभव उथला है, या अगर तुम अपने पेशेवर कार्य में दक्ष नहीं हो, तब तुम्‍हारेतुम्‍हारे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, हो सकता है कि तुम्‍हें अच्‍छे परिणाम न मिलें—पर तब तुमने अपना सर्वश्रेष्‍ठ दिया होगा। तुमतुम अपनी स्‍वार्थपूर्णइच्छाएँ या प्राथमिकताएँ पूरी नहीं करते। इसके बजाय, तुम लगातार कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हो। भले ही तुम्‍हें अपने कर्तव्‍य में अच्छे परिणाम प्राप्त न हों, फिर भी तुम्‍हारा दिल निष्‍कपट हो गया होगा; अगर इसके अलावा, इसके ऊपर से, तुम अपने कर्तव्य में आई समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो, तब तुम अपना कर्तव्‍य निर्वहन मानक स्तर का कर पाओगे और साथ ही, तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। किसी के पास गवाही होने का यही अर्थ है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास के सिद्धांत बता दिए : स्थितियों का सामना करते समय मुझे अपने ही हितों, छवि या रुतबे की रक्षा करने को प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए, बल्कि परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करने के लिए जो भी जरूरी हो, वह करना चाहिए। जब मुझे यह दिखाई दे कि दूसरे लोग मुझसे बेहतर हैं और वास्तविक कार्य कर सकते हैं तो मुझे उनकी मदद और समर्थन करना चाहिए। भले ही उनमें कमियाँ हों, मुझे उनके साथ उचित ढंग से व्यवहार करना चाहिए, उनसे अति उच्च अपेक्षाएँ नहीं रखनी चाहिए और उनकी खूबियों और सद्गुणों से सीखना चाहिए। वांग लू ने अभी-अभी सुपरवाइजर के रूप में अभ्यास शुरू किया था और उसमें कुछ कमियाँ होना सामान्य बात थी। अगर वह सही इंसान है और कुछ असली कार्य कर सकती है तो मुझे प्रेमपूर्वक उसकी मदद करनी चाहिए और साथ में अच्छे से कार्य करने के लिए उसके साथ सहयोग करना चाहिए। यही कलीसिया के कार्य को कायम रखना है। जब मैंने अपनी मानसिकता सुधार ली तो मुझे अब वांग लू से कोई जलन नहीं होती थी, बल्कि मैं उसकी सराहना करने लगी थी। अपनी कम उम्र के बावजूद वह समस्याओं पर सोच-समझकर विचार करती थी, धैर्य रखकर और स्थिर होकर कार्य करती थी और सिद्धांत खोजने पर ध्यान देती थी। ये सारे गुण मुझमें नहीं थे। मेरे मन में अब उसके लिए प्रतिरोध की भावना नहीं होती थी, मैं काम में आने वाली कोई भी समस्या उसे रिपोर्ट करने और उस पर चर्चा करने की पहल भी कर लेती थी और जब वह हमारे कार्य में कमियाँ गिनाती थी तो मैं उसका फीडबैक स्वीकारने को भी तैयार रहती थी। इस तरीके से अभ्यास कर मैं शर्मिंदा नहीं होती थी; बल्कि मुझे मुक्ति का और अधिक एहसास होता था।

बाद में मुझे जियान रान के साथ काम करने के लिए एक और टीम में भेज दिया गया। हालाँकि हम दोनों लगभग एक ही समय से यह कर्तव्य निभा रही थीं, लेकिन मैंने देखा कि उसकी दक्षता और पेशेवर कौशल मुझसे स्पष्ट रूप से श्रेष्ठ हैं। शुरुआत में मुझे काफी शर्म आई और यह चिंता हुई कि दूसरे लोग शायद मुझे हेय दृष्टि से देखें। लेकिन तभी मुझे एहसास हुआ कि उसमें अच्छा कौशल होने के कारण मैं अपनी कमियों की भरपाई करने के लिए उससे और ज्यादा सीख सकती हूँ, इसलिए मैं उसके साथ सहयोग करने के लिए खूब इच्छुक थी। लेकिन बाद में जब सुपरवाइजर ने उसे कार्य का प्रभारी नियुक्त किया और दूसरी बहनें समस्याओं पर चर्चा करने के लिए अक्सर उसके पास जाने लगीं तो मैंने खुद को फिर से असंतुलित पाया। मैंने सोचा, “क्या यह इतनी-सी बात नहीं है कि वह अपने कार्य में थोड़ी-सी ज्यादा योग्य और सक्षम है? क्या यह वाकई ऐसा कोई कारण है कि हर कोई उसके आसपास मँडराए? ऐसा लगता है कि मैं अदृश्य हो गई हूँ।” मेरा दिल असहज हो गया, लेकिन उस क्षण मुझे एहसास हुआ कि मेरी ईर्ष्या फिर से जोर मार रही है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और इस स्थिति को सही ढंग से सँभालने के लिए उससे मार्गदर्शन माँगा। बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अपने जीवन में तुम जो भूमिका और कर्तव्य निभाते हो—उन्‍हें परमेश्वर ने बहुत पहले ही नियत कर दिया था। कुछ लोग देखते हैं कि दूसरों के पास ऐसी क्षमताएँ हैं जो उनके पास नहीं हैं और असंतुष्ट रहते हैं। वे अधिक सीखकर, अधिक देखकर, और अधिक मेहनती होकर चीजों को बदलना चाहते हैं। लेकिन उनकी मेहनत जो कुछ हासिल कर सकती है, उसकी एक सीमा है, और वे प्रतिभा और विशेषज्ञता वाले लोगों से आगे नहीं निकल सकते। तुम चाहे जितना भी लड़ो, वह व्‍यर्थ है। परमेश्वर ने तय किया हुआ है कि तुम क्या होगे, और उसे बदलने के लिए कोई कुछ नहीं कर सकता। तुम जिस भी चीज में अच्छे हो, तुम्हें उसी में प्रयास करना चाहिए। तुम जिस भी कर्तव्य के उपयुक्त हो, तुम्‍हें उसी कर्तव्य को करना चाहिए। अपने कौशल से बाहर के क्षेत्रों में खुद को विवश करने का प्रयास न करो और दूसरों से ईर्ष्या मत करो। सबका अपना कार्य है। हमेशा दूसरे लोगों का स्थान लेने या आत्म-प्रदर्शन करने की इच्छा रखते हुए यह मत सोचो कि तुम सब-कुछ अच्छी तरह कर सकते हो, या तुम दूसरों से अधिक परिपूर्ण या बेहतर हो। यह भ्रष्ट स्वभाव है। ऐसे लोग भी हैं जो सोचते हैं कि वे कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते, और उनके पास बिल्कुल भी कौशल नहीं है। अगर ऐसी बात है तो तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो शालीनता से सुने और समर्पण करे। तुम जो कर सकते हो, उसे अच्छे से, अपनी पूरी ताकत से करो। इतना पर्याप्त है। परमेश्वर संतुष्ट होगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह समझ में आया कि हर व्यक्ति की काबिलियत और खूबियाँ अलग होती हैं, ये सब परमेश्वर पहले से निर्धारित कर चुका होता है और हम इनके लिए स्पर्धा नहीं कर सकते हैं। परमेश्वर का इरादा यह है कि हम अपनी और दूसरों की खूबियों और कमियों को सही ढंग से लें, अपने स्थान पर रहें और अपने कर्तव्य अच्छे से निभाएँ। यह एक तथ्य था कि मेरी कार्य क्षमता और सिद्धांतों पर पकड़ रियान रान जैसी अच्छी नहीं थी और भाई-बहन अमूमन अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने की खातिर उससे सलाह लेते थे, न कि उसे सिर आँखों पर बैठाने और मुझे नीचा दिखाने के लिए। हर कोई अपनी-अपनी भूमिका में एक सृजित प्राणी के रूप में अपना-अपना कर्तव्य निभा रहा था; कोई भी एक दूसरे से ऊँचा या नीचा नहीं था। रियान रान की खूबियाँ वास्तव में मेरी कमियों की पूरक थीं, इसलिए मुझे और अधिक हासिल करने के लिए सक्रिय होकर उससे सलाह लेनी चाहिए और उससे सीखना चाहिए। इस क्षण मुझे रोशनी का एहसास हुआ। मुझे अपनी काबिलियत और कमियों का सामना करने की जरूरत है, अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ परे रखकर वह कार्य करने की जरूरत है जो मैं अच्छे से कर सकती हूँ। मुझमें यही विवेक होना चाहिए। बाद में मैंने अपनी पूरी क्षमता से वह कार्य करने पर ध्यान दिया जो मुझे करना चाहिए और जब मेरा सामना उन चीजों से होता था जिनकी मैं असलियत नहीं जान पाती थी तो मैं जियान रान के साथ मिलकर खोज और चर्चा करती थी। बाद में जब मैं अपने से बेहतर लोगों से मिलती थी तो ईर्ष्या उभरने के मौके अब भी आते थे, लेकिन मैं सचेत होकर आत्मचिंतन कर लेती थी और उसके खिलाफ विद्रोह करने के लिए प्रार्थना करती थी और मेरा दिल उतना बेबस और बँधनयुक्त महसूस नहीं करता था। इस तरीके से जीने से कहीं अधिक सहजता और मुक्ति मिली। परमेश्वर का धन्यवाद!

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