23. निगरानी अस्वीकारने पर विचार
मेरे पास पिछले कुछ साल से कलीसिया में सफाई कार्य की जिम्मेदारी है। चूँकि मैं यह काम काफी समय से कर रही हूँ और कुछ सिद्धांत समझ चुकी हूँ, इसलिए मैं आमतौर पर अपने कर्तव्य से ज्यादा दबाव महसूस नहीं करती थी और आसानी से काम पूरा कर लेती थी। अनजाने में ही मैं मनमर्जी के अनुसार कर्तव्य निभाने लगी और आराम से काम करने लगी। कुछ समय बाद अगुआओं ने उन व्यक्तियों को पहचानने के लिए व्यापक जाँच करने का अनुरोध किया जिन्हें बाहर निकालने की जरूरत थी। मैंने पहचाने गए व्यक्तियों के नामों की सूची अगुआओं को सौंप दी। बाद में उन्होंने मुझसे सूची में शामिल हर व्यक्ति से जुड़े विशिष्ट विवरण के बारे में बार-बार पूछताछ की और पूछा कि मैं सफाई के लिए सामग्री की छँटाई कब तक पूरी कर पाऊँगी, इत्यादि। अगुआओं की निगरानी और जाँच का सामना करते हुए मैंने सोचा, “क्या मैं पहले से ही इस पर काम नहीं कर रही हूँ? मैं यहाँ बेकार नहीं बैठी हूँ। क्या तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं है? जानकारी की पूर्ति और सत्यापन इतनी जल्दी कैसे किया जा सकता है? तुम इतनी बारीकी से जाँच क्यों करते हो? क्या तुम मुझे कुछ आजादी नहीं दे सकते?” लेकिन फिर मुझे एहसास हुआ कि अगर मैंने जल्दी से काम पूरा नहीं किया तो अगुआ कह सकते हैं कि मुझे जिम्मेदारी का एहसास नहीं है, इसलिए मेरे पास जानकारी को जल्द से जल्द सत्यापित और पूर्ति करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। उसके बाद मैंने हर दिन का अपना शेड्यूल पूरा भर दिया। ऐसा करने से मैं अपना कर्तव्य निभाने में बेबस हो गई और दबाव में आ गई। बाद में जब मैंने अपने काम की रिपोर्ट दी तो मैंने अपनी जाँच में शामिल कुछ व्यक्तियों के नामों की सूची नहीं दी। अगुआओं ने सोचा कि मैंने कार्य लगभग पूरा कर लिया है और पहले की तरह बार-बार मेरे काम की जाँच और निगरानी बंद कर दी। इस तरह मैं काम के तात्कालिक महत्व की भावना भुला बैठी। कभी-कभी मैं पूरक सामग्री जुटाने के लिए कलीसिया जाने में देरी कर दोपहर तक का समय लगा देती थी, जबकि मैं यह काम सुबह भी कर सकती थी। मेरे पास कोई साफ योजना भी नहीं थी, मैं मनमर्जी से काम करती थी। बाद में अगुआओं को पता चल गया कि मैंने कुछ ऐसे व्यक्तियों के नामों की सूची नहीं भेजी है जिन्हें बाहर निकालने की जरूरत थी। उन्होंने अपने कर्तव्य में मनमर्जी चलाने, पर्यवेक्षण नहीं स्वीकारने और कलीसिया के काम पर जरा भी विचार न करने के लिए मेरी काट-छाँट कर दी। उस समय मैं यह सोचकर बहुत प्रतिरोधी हो गई कि मैंने उन्हें बस नामों की पूरी सूची तो नहीं दी है, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं है कि मैं इस पर काम नहीं कर रही थी। इसके अलावा मैंने अपने कर्तव्य में देरी नहीं की थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “मसीह-विरोधियों दूसरों को उनके लिए गए काम में दखल देने, पूछताछ करने या उनकी निगरानी करने से रोकते हैं। परमेश्वर का घर उनके कार्य की जाँच करने, या उसके बारे में ज्यादा जानने या उसकी निगरानी करने की जो भी व्यवस्थाएँ करता है, वे उसे रोकने और नकारने के लिए हर संभव हथकंडा अपनाएँगे। उदाहरण के तौर पर, जब कुछ लोगों को ऊपरवाले द्वारा कोई परियोजना सौंपी जाती है, तो बिना किसी प्रगति के काफी वक्त गुजर जाता है। वे ऊपरवाले को नहीं बताते कि क्या वे उसमें लगे हुए हैं, या काम कैसा चल रहा है, या क्या इस दौरान कोई कठिनाई या समस्या सामने आई है। वे कोई जानकारी नहीं देते। कुछ कार्य महत्वपूर्ण होते हैं और उनमें देरी नहीं की जा सकती, फिर भी वे टालमटोल करते रहते हैं और लंबे समय तक काम पूरा किए बिना खींचते रहते हैं। तब ऊपरवाला पूछताछ करेगा ही। जब ऊपरवाला ऐसा करता है, तो उन लोगों को यह पूछताछ असहनीय रूप से शर्मनाक लगती है, और वे दिल से उनका प्रतिरोध करते हैं : ‘मुझे यह काम मिले हुए बस दस दिन ही हुए हैं। मैं अभी तक इसे समझ भी नहीं पाया हूँ, और ऊपरवाला पहले ही पूछताछ करने लगा है। लोगों से उसकी अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा ऊँची हैं!’ देखा, वे पूछताछ की खामियाँ ढूँढ़ने लगे हैं। इसमें समस्या क्या है? मुझे बताओ, क्या ऊपरवाले का पूछताछ करना बिल्कुल सामान्य नहीं है? इसका एक अंश तो यह जानने की इच्छा है कि कार्य में कितनी प्रगति हुई है, और कौन-सी कठिनाइयों का समाधान होना बाकी है; इसके अलावा, यह जानने की इच्छा है कि उसने यह काम जिस व्यक्ति को सौंपा है उसकी काबिलियत कैसी है, क्या वह वास्तव में समस्याओं को दूर करने में सक्षम हो पाएगा और काम अच्छे ढंग से कर पाएगा। ऊपरवाला तथ्यों को यथास्थिति में जानना चाहता है, और ज्यादातर वह ऐसी परिस्थितियों में पूछताछ करता है। क्या यह वह काम नहीं है जो उसे करना चाहिए? ऊपरवाला इस बात को लेकर चिंतित है कि कहीं तुम समस्याओं का समाधान करना न जानो और काम को न सँभाल पाओ। वह इसीलिए पूछताछ करता है। कुछ लोग ऐसी पूछताछ के प्रति अत्यंत प्रतिरोधी होते हैं और उससे उन्हें घृणा होती है। वे इस बात के लिए तैयार नहीं होते कि लोग पूछताछ करें और अगर लोग ऐसा करते हैं तो वे प्रतिरोधी हो जाते हैं, और हमेशा यह सोचते हुए आशंकाएँ पालते हैं, ‘वे हमेशा पूछताछ क्यों करते रहते हैं और ज्यादा जानने की कोशिश क्यों करते रहते हैं? ऐसा तो नहीं है कि वे मुझ पर भरोसा नहीं करते और मुझे नीची नजर से देखते हैं? अगर उन्हें मुझ पर भरोसा नहीं है, तो उन्हें मेरा उपयोग नहीं करना चाहिए!’ वे ऊपरवाले की पूछताछ और निगरानी को कभी नहीं समझते, बल्कि उसका प्रतिरोध करते हैं। क्या ऐसे लोगों में विवेक होता है? वे ऊपरवाले को उनसे पूछताछ करने और उनकी निगरानी करने की अनुमति क्यों नहीं देते? इसके अलावा, वे प्रतिरोधी और अवज्ञापूर्ण क्यों रहते हैं। इसमें समस्या क्या है? उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि उनका कर्तव्य निर्वहन प्रभावी है या नहीं, या इससे कार्य की प्रगति में रुकावट पैदा होगी या नहीं। अपना कर्तव्य करते समय वे सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजते, बल्कि वैसे ही करते हैं जैसे वे चाहते हैं। वे कार्य के नतीजों या दक्षता पर कोई विचार नहीं करते, परमेश्वर के घर के हितों का जरा भी ध्यान नहीं रखते, परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं का ध्यान रखना तो दूर की बात है। उनकी सोच होती है, ‘अपना कर्तव्य करने के मेरे अपने तरीके और दस्तूर हैं। मुझसे बहुत ज्यादा अपेक्षाएँ मत रखो या चीजों की बहुत बारीकी से जानकारी मत माँगो। मैं अपना कर्तव्य कर सकता हूँ, यही काफी है। मैं इसके लिए बहुत थक नहीं सकता या बहुत अधिक कष्ट नहीं उठा सकता।’ वे ऊपरवाले के पूछताछ करने और उनके कार्य के बारे में ज्यादा जानने की कोशिशों को नहीं समझते। उनकी इस समझ की कमी में कौन-सी चीजों का अभाव होता है? क्या इसमें समर्पण का अभाव नहीं है? क्या इसमें जिम्मेदारी की भावना का अभाव नहीं है? निष्ठा का? अगर वे अपना कर्तव्य करने में सचमुच जिम्मेदार और निष्ठावान होते, तो क्या वे अपने कार्य के बारे में ऊपरवाले की पूछताछ को अस्वीकार करते? (नहीं।) वे उसे समझने में सक्षम होते। अगर वे सच में नहीं समझ पाते, तो सिर्फ एक ही संभावना होती है : वे अपने कर्तव्य को अपने पेशे और अपनी आजीविका के रूप में देखते हैं और उसे भुनाते हैं, जो कर्तव्य वे करते हैं उसे एक शर्त और सौदेबाजी के रूप में लेते हैं, जिससे हर समय उन्हें पुरस्कार मिल सके। वे बस ऊपरवाले से बच निकलने के लिए बिना परमेश्वर के आदेश को अपना कर्तव्य और दायित्व समझे थोड़ा-सा इज्जत वाला कार्य करेंगे। इसलिए जब ऊपरवाला उनसे कार्य के बारे में पूछताछ करता है या उसकी निगरानी करता है तो वे इनकार और प्रतिरोध की मनोदशा में चले जाते हैं। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) यह समस्या कहाँ से उपजती है? इसका सार क्या है? बात यह है कि कार्य परियोजना के प्रति उनका रवैया गलत है। वे कार्य की प्रभावशीलता और परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचने के बजाय सिर्फ दैहिक सहजता और आराम, और अपने रुतबे एवं गौरव के बारे में सोचते हैं। वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने का जरा भी प्रयास नहीं करते” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो))। परमेश्वर यह उजागर करता है कि मसीह-विरोधी अपने काम की निगरानी लोगों को नहीं करने देना चाहते हैं। जब अगुआ उनके काम को लेकर जाँच और पूछताछ करते हैं तो वे प्रतिरोधी हो जाते हैं और अपने काम की प्रभावशीलता की परवाह किए बिना मनमर्जी से काम करते हैं। आत्म-चिंतन करने पर मैंने जाना कि मैंने भी ऐसा ही व्यवहार दिखाया था। जब अगुआओं ने मेरे काम की प्रगति के बारे में पूछा तो मैं यह सोचकर बहुत प्रतिरोधी हो गई कि मैं कोई कामचोरी नहीं कर रही हूँ और वे बहुत ज्यादा दबाव डाल रहे हैं। भले ही मैं उसके बाद भी काम करती रही, लेकिन मैंने अनिच्छुक होकर ऐसा किया। मैंने जाँच के दौरान पहचाने गए व्यक्तियों का विशिष्ट विवरण ईमानदारी से रिपोर्ट न कर अगुआओं को धोखा तक दे दिया और उनके लिए मेरे काम की निगरानी करना असंभव बना दिया, ताकि मैं अपनी योजनाओं के अनुसार मनमर्जी से अपना कर्तव्य निभा सकूँ। बाहर से मैं आलसी नहीं थी, लेकिन मेरे आरामपसंद रवैये से काम की प्रगति सीधे प्रभावित हुई थी। मुझे एहसास हुआ कि मेरे कर्तव्य में जिम्मेदारी की भावना की कमी थी और मैं भरोसेमंद नहीं थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “यह तो अच्छी बात है कि कोई अगुआ तुम्हारे कार्य की निगरानी करता है। क्यों? क्योंकि इसका यह अर्थ है कि वह कलीसिया के कार्य की जिम्मेदारी ले रहा है; यह उसका कर्तव्य है, उसकी जिम्मेदारी है। यह जिम्मेदारी पूरी करने में समर्थ होना यह साबित करता है कि वह एक योग्य अगुआ है, एक अच्छा अगुआ है। अगर तुम्हें पूरी आजादी और मानवाधिकार दे दिए जाते, और तुम जो चाहते कर पाते, अपनी इच्छाओं का अनुसरण कर पाते, और पूरी आजादी और लोकतंत्र का आनंद ले पाते, और चाहे तुम कुछ भी करते या कैसे भी करते, अगुआ इसकी परवाह या निगरानी नहीं करता, तुमसे कभी भी प्रश्न नहीं करता, तुम्हारे कार्य की जाँच नहीं करता, समस्याएँ पाए जाने पर कुछ नहीं बोलता और सिर्फ तुम्हें या तो मनाता या फिर तुमसे बातचीत करता, तो क्या वह अच्छा अगुआ होता? बिल्कुल नहीं। ऐसा अगुआ तुम्हें नुकसान पहुँचा रहा है। वह तुम्हें कुकर्म करने की खुली छूटदेता है, और तुम्हें सिद्धांतों के खिलाफ जाने और जो चाहो वह करने की अनुमति देता है—वह तुम्हें आग के कुएँ की तरफ धकेल रहा है। यह एक जिम्मेदार, मानक स्तर का अगुआ नहीं है। दूसरी तरफ, अगर कोई अगुआ नियमित रूप से तुम्हारी निगरानी कर सकता है, तुम्हारे कार्य में समस्याओं को पहचान सकता है और तुम्हें फौरन चेता सकता है या फटकार सकता है और उजागर कर सकता है, और समय पर तुम्हारे गलत अनुसरणों और कर्तव्य से विचलनों को ठीक करके तुम्हारी मदद कर सकता है, और उसकी निगरानी, फटकार, प्रावधान और मदद के तहत, तुम्हारा अपने कर्तव्य के प्रति गलत रवैया बदल जाता है, तुम कुछ बेतुके विचारों को छोड़ने में समर्थ हो जाते हो, आवेग से उत्पन्न होने वाले तुम्हारे अपने विचार और चीजें धीरे-धीरे कम हो जाती हैं, और तुम सही और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कथनों और दृष्टिकोणों को शांति से स्वीकार करने में समर्थ हो जाते हो, तो क्या यह तुम्हारे लिए फायदेमंद नहीं है? इसके फायदे सचमुच बेशुमार हैं!” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे यह समझने में मदद की कि कार्य की निगरानी और जाँच करना अगुआओं की जिम्मेदारी है। यह इस बात का भी संकेत है कि वे अपने कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी बरत रहे हैं और कलीसिया का काम अच्छी तरह से करने का लक्ष्य रखते हैं। जिन लोगों में वास्तव में अंतरात्मा और विवेक होता है, वे अगुआओं की निगरानी में रहने पर अक्सर आत्म-चिंतन करेंगे, अपने कर्तव्यों में गलतियों और समस्याओं की समय पर समीक्षा करेंगे और इन्हें सुधारेंगे ताकि अपने कर्तव्यों में बेहतर नतीजे पा सकें। मुझे याद आया कि जब मैंने पहली बार सफाई कार्य शुरू किया था तो मुझे किसी सिद्धांत की समझ नहीं थी। जब भाई-बहनों ने कई बार मेरे साथ संगति और मदद की, तभी मैं कुछ सिद्धांत समझ पाई और विभिन्न लोगों के व्यवहार का भेद पहचान सकी। यह कर्तव्य निभाना मेरे लिए खास एहसान था और यह परमेश्वर का अनुग्रह था। कलीसिया ने मुझे यह कार्य सौंपा था, इसलिए मुझे यह कर्तव्य निभाना चाहिए था और काम में सुचारु प्रगति सुनिश्चित करने के लिए पूरे दिल और ताकत से अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना चाहिए था। यही अंतरात्मा और विवेक होना दर्शाता है। लेकिन मैं बस आराम से अपना कर्तव्य निभा रही थी और काम की प्रगति पर विचार किए बिना बस काम करने से ही संतुष्ट थी। मैंने विशिष्ट विवरण न बताकर अगुआओं को धोखा तक दिया ताकि वे मेरे काम की जाँच और निगरानी न कर सकें। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हुए मैं कैसे कह सकती हूँ कि मुझमें अंतरात्मा या मानवता है? मैं लगातार निगरानी से बच रही थी और बेबस नहीं होना चाहती थी। इससे मेरी देह को तो आराम मिल गया लेकिन काम में देरी हुई और मैं अपराध कर बैठी। मैं बेहद मूर्ख थी!
बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “कर्तव्य आखिर है क्या? यह परमेश्वर द्वारा लोगों को सौंपा गया कार्य होता है, यह परमेश्वर के घर के कार्य का हिस्सा होता है, यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है जिसे परमेश्वर के चुने हुए प्रत्येक व्यक्ति को वहन करना चाहिए। क्या कर्तव्य तुम्हारी आजीविका है? क्या यह व्यक्तिगत पारिवारिक मामला होता है? क्या यह कहना उचित है कि जब तुम्हें कोई कर्तव्य दे दिया जाता है, तो वह कर्तव्य तुम्हारा व्यक्तिगत व्यवसाय बन जाता है? ऐसा बिल्कुल नहीं है। तो तुम्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए? परमेश्वर की अपेक्षाओं, वचनों और मानकों के अनुसार कार्य करके, अपने व्यवहार को मानवीय व्यक्तिपरक इच्छाओं के बजाय सत्य सिद्धांतों पर आधारित करके। कुछ लोग कहते हैं, ‘जब मुझे कोई कर्तव्य दे दिया गया है, तो क्या वह मेरा अपना व्यवसाय नहीं बन गया है? मेरा कर्तव्य मेरा प्रभार है, और जिसका प्रभार मुझे दिया गया है, क्या वह मेरा निजी व्यवसाय नहीं है? यदि मैं अपने कर्तव्य को अपने व्यवसाय की तरह करता हूँ, तो क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं उसे ठीक से करूँगा? अगर मैं उसे अपना व्यवसाय न समझूँ, तो क्या मैं उसे अच्छी तरह से करूँगा?’ ये बातें सही हैं या गलत? ये गलत हैं; ये सत्य के विपरीत हैं। कर्तव्य तुम्हारा निजी काम नहीं है, वह परमेश्वर से संबंधित है, यह परमेश्वर के कार्य का हिस्सा है, और तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार ही काम करना चाहिए; केवल परमेश्वर के प्रति समर्पण वाले हृदय के साथ अपना कर्तव्य निर्वहन करके ही तुम मानक पर खरे उतर सकते हो। यदि तुम हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार और अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कर्तव्य का निर्वहन करते हो, तो तुम कभी भी मानक के अनुसार कार्य नहीं कर पाओगे। हमेशा अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करना कर्तव्य-निर्वहन नहीं कहलाता, क्योंकि तुम जो कर रहे हो वह परमेश्वर के प्रबंधन के दायरे में नहीं आता, यह परमेश्वर के घर का कार्य नहीं हुआ; बल्कि तुम अपना कारोबार चला रहे हो, अपने काम कर रहे हो और परमेश्वर इन्हें याद नहीं रखता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य सिद्धांत खोजकर ही कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि कर्तव्य परमेश्वर से आते हैं; वे परमेश्वर के हर अनुयायी की जिम्मेदारी और दायित्व हैं। यह घरेलू मामले सँभालने जैसा नहीं है, जहाँ लोग मनमर्जी से काम कर सकते हैं। इसके बजाय उन्हें सत्य की खोज करनी चाहिए और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने चाहिए। मैं कलीसिया में सफाई कार्य के लिए जिम्मेदार थी। इस कर्तव्य को लेकर परमेश्वर अपेक्षा करता है कि जितनी जल्दी हो सके कलीसिया से मसीह-विरोधियों, बुरे लोगों और छद्म-विश्वासियों को दूर किया जाए ताकि भाई-बहनों के लिए अच्छा कलीसिया जीवन दिया जा सके। लेकिन मैं परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील नहीं थी। मैंने इस बात पर विचार नहीं किया था कि सिद्धांतों के अनुसार इस कार्य को कैसे तेजी से पूरा किया जाए। इसके बजाय हर दिन मैंने यही सोचा कि कैसे मेरी देह को आराम मिले और मैं कष्ट और थकान से बची रहूँ। मैंने अपना कर्तव्य मनमर्जी, आराम और बिना किसी जल्दबाजी के किया था। जो कार्य पहले पूरे हो सकते थे, मैंने उन्हें आगे नहीं बढ़ाया था और जब मैं कर सकती थी तो भी मैं और अधिक करने को तैयार नहीं थी और मैंने जानबूझकर उन व्यक्तियों के नामों की सूची छिपाई थी जो बाहर निकाले जाने के मानदंड पूरा करते थे। मैंने अगुआओं को काम की प्रगति की बारीकियों के बारे में जानने से रोका था ताकि वे मेरी निगरानी न कर सकें और मुझे बहुत व्यस्तता या थकान न हो। दैहिक आराम के लिए मैंने झूठ बोला और धोखा दिया। मैं वाकई इस कर्तव्य के लायक नहीं थी!
बाद में मैंने आत्म-चिंतन किया। मैं अपनी निगरानी स्वीकारने के लिए क्यों अनिच्छुक थी और हमेशा मनमर्जी से क्यों कार्य करना चाहती थी? बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “अपना उचित कार्य करने वाले लोग कैसे होते हैं? वे भोजन, कपड़े, मकान और परिवहन जैसी अपनी बुनियादी जरूरतों को सरल तरीके से लेने वाले लोग होते हैं। अगर ये चीजें सामान्य मानक तक होती हैं, तो उनके लिए यही पर्याप्त होता है। वे जीवन में अपने मार्ग, मनुष्यों के रूप में अपने मिशन, अपने जीवन-दृष्टिकोण और मूल्यों के बारे में ज्यादा परवाह करते हैं। मंदबुद्धि लोग पूरे दिन किस बारे में सोचा करते हैं? वे उचित मामलों पर विचार न करके हमेशा इस बारे में सोचा करते हैं कि कैसे काम में ढिलाई बरतें, कैसे चालें चलें ताकि जिम्मेदारी से बच सकें, कैसे अच्छा खाएँ और मौज-मस्ती करें, कैसे शारीरिक आराम और सुख से रहें। इसलिए वे परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य करने की व्यवस्था और परिवेश में दमित महसूस करते हैं। ... ये व्यक्ति जो अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते और मनमर्जी करते हैं, ये उचित चीजें नहीं करना चाहते। जो कुछ भी वे चाहते हैं, उसे करके वे जो अंतिम लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं, वह है शारीरिक सुख, आनंद और आराम, और किसी भी तरह से प्रतिबंधित या अपकृत न होना। वे जो चाहते हैं यह उसे पर्याप्त रूप से खा पाने और जैसा चाहे वैसा कर पाने के लिए होता है। यह उनकी मानवता की गुणवत्ता और उनके आंतरिक लक्ष्यों के कारण होता है कि वे अक्सर दमित महसूस करते हैं। चाहे तुम उनके साथ सत्य के बारे में कैसे भी संगति कर लो, वे नहीं बदलेंगे और उनके दमन का समाधान नहीं होगा। वे बस इसी तरह के लोग होते हैं; वे बस ऐसी चीजें हैं जो अपना उचित कार्य नहीं करतीं। हालाँकि सतही तौर पर ऐसा प्रतीत नहीं होता कि उन्होंने कोई बड़ी बुराई की है या वे बुरे लोग हैं, और हालाँकि वे सिर्फ सिद्धांतों और विनियमों को कायम रखने में विफल रहे प्रतीत होते हैं, पर वास्तव में उनका प्रकृति सार यह होता है कि वे अपना उचित कार्य नहीं करते या सही मार्ग पर नहीं चलते। इस तरह के लोगों में सामान्य मानवता के जमीर और विवेक का अभाव होता है और वे सामान्य मानवता की बुद्धिमत्ता प्राप्त नहीं कर सकते। वे उन लक्ष्यों के बारे में नहीं सोचते, उन पर विचार नहीं करते या उनका अनुसरण नहीं करते, जिनका सामान्य मानवता वाले लोगों को अनुसरण करना चाहिए, या उन जीवन रवैयों और अस्तित्व के उन तरीकों के बारे में जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोगों को अपनाना चाहिए। उनका दिमाग रोजाना इस विचार से भरा रहता है कि शारीरिक आराम और आनंद कैसे पाया जाए। लेकिन कलीसियाई जीवन-परिवेश में वे अपनी शारीरिक प्राथमिकताएँ पूरी नहीं कर पाते, इसलिए वे असहज और दमित महसूस करते हैं। उनकी ये भावनाएँ इसी तरह उत्पन्न होती हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों का जीवन थका देने वाला नहीं होता? (होता है।) क्या उनका जीवन दयनीय होता है? (नहीं, वह दयनीय नहीं होता।) यह सही है, वह दयनीय नहीं होता। हलके ढंग से कहें तो ये ऐसे लोग होते हैं जो अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते। समाज में कौन लोग होते हैं, जो अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते? वे आलसी, मूर्ख, कामचोर, गुंडे, बदमाश और आवारा—ऐसे ही लोग होते हैं। वे कोई नए कौशल या क्षमताएँ नहीं सीखना चाहते, न ही वे गंभीर करियर बनाना या नौकरी ढूँढ़ना चाहते हैं ताकि अपना गुजारा कर सकें। वे समाज के आलसी और आवारा लोग हैं। वे कलीसिया में घुसपैठ कर लेते हैं, और फिर बिना कुछ लिए कुछ पाना चाहते हैं, और अपने हिस्से के आशीष प्राप्त करना चाहते हैं। वे अवसरवादी हैं। ये अवसरवादी कभी अपने कर्तव्य करने को तैयार नहीं होते। अगर चीजें थोड़ी-सी भी उनके अनुसार नहीं होतीं, तो वे दमित महसूस करते हैं। वे हमेशा स्वतंत्र रूप से जीना चाहते हैं, वे किसी भी तरह का काम नहीं करना चाहते, और फिर भी वे अच्छा खाना और अच्छे कपड़े पहनना चाहते हैं, और जो चाहे खाना और जब चाहे सोना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि जब ऐसा दिन आएगा, तो वह निश्चित ही अद्भुत होगा। वे थोड़ा-सा भी कष्ट नहीं सहना चाहते और भोग-विलास के जीवन की कामना करते हैं। इन लोगों को जीना भी थका देने वाला लगता है; वे नकारात्मक भावनाओं से बँधे होते हैं। वे अकसर थका हुआ और भ्रमित महसूस करते हैं, क्योंकि वे जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते। वे अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देना चाहते या अपने उचित मामले नहीं सँभालना चाहते। वे किसी नौकरी पर टिके रहना और उसे अपना पेशा और कर्तव्य, अपना दायित्व और जिम्मेदारी मानकर शुरू से आखिर तक लगातार करते रहना नहीं चाहते; वे उसे खत्म करके परिणाम प्राप्त करना नहीं चाहते, न ही उसे यथासंभव सर्वोत्तम मानक के अनुसार करना चाहते हैं। उन्होंने कभी इस तरह से नहीं सोचा। वे बस बेमन से कार्य करना चाहते हैं और अपने कर्तव्य को जीविकोपार्जन के साधन के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं। जब उन्हें थोड़ा दबाव या किसी तरह के नियंत्रण का सामना करना पड़ता है, या जब उन्हें थोड़ा ऊँचे स्तर पर रखा जाता है या थोड़ी जिम्मेदारी सौंपी जाती है, तो वे असहज और दमित महसूस करते हैं। उनके भीतर ये नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें जीना थका देने वाला लगता है और वे दुखी रहते हैं। जीना थका देने वाला लगने का एक बुनियादी कारण यह है कि ऐसे लोगों में समझ की कमी होती है। उनकी समझ क्षीण होती है, वे पूरा दिन कल्पनाओं में डूबे रहते हैं, सपनों में जीते हैं, दिवा-स्वप्न देखते हैं, हमेशा अत्यधिक अजीबोगरीब चीजों की कल्पना करते हैं। यही कारण है कि उनके दमन का समाधान करना बहुत कठिन होता है। उन्हें सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं होती, वे छद्म-विश्वासी होते हैं। एकमात्र चीज जो हम कर सकते हैं, वह यह है कि उन्हें परमेश्वर का घर छोड़ने, दुनिया में लौटने और आराम और सुख की अपनी जगह खोजने के लिए कह दें” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि जो लोग अपने कर्तव्य मनमाने तरीके से निभाते हैं और ठीक से काम नहीं करते, वे कभी उचित मामलों के बारे में नहीं सोचते। हर दिन वे सिर्फ यही सोचते हैं कि कैसे अपनी देह को आराम पहुँचाया जाए। चाहे वे कितने भी वर्षों से अपने कर्तव्य निभा रहे हों, वे हमेशा बस काम चलाने का रवैया रखते हैं, जो लौकिक दुनिया के आलसी और आवारा लोगों से अलग नहीं हैं। ऐसे लोग सत्य से विमुख होते हैं और सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते, जिससे वे निरे छद्म-विश्वासी बन जाते हैं। अगर वे पश्चात्ताप नहीं करते हैं तो उन्हें बेनकाब कर निकाला जाना तय है। मैं आलसी और आवारा लोगों को नीची नजर से देखती थी, सोचती थी कि वे लोग उचित काम नहीं करते और इसके बजाय बस इधर-उधर घूमते रहते हैं। परमेश्वर के वचनों से अपनी तुलना करने पर अब मुझे लगा कि मैं भी ऐसे ही लोगों की तरह हूँ। मैं नहीं चाहती थी कि मेरे कर्तव्य में कोई मेरी निगरानी करे या मुझे बाध्य करे; मैं बस स्वतंत्रता चाहती थी और कोई रोक-टोक नहीं चाहती थी, अपने प्राथमिक कार्य के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं दिखाना चाहती थी। मैं उचित काम नहीं करती थी और आराम में लिप्त रहती थी। क्या मुझमें ईमानदारी और गरिमा का जरा भी भाव था? भले ही मैं कुछ काम करते हुए दिखती थी, लेकिन मैं परमेश्वर के प्रति निष्ठाहीन थी, अपने कर्तव्य में ढिलाई बरत रही थी, मुझे लगता था कि परमेश्वर का आशीष पाने के लिए मैं उसे मूर्ख बनाकर सफल हो सकती हूँ। मैंने कुछ कर्तव्य सिर्फ अपनी संभावनाओं और गंतव्य के लिए निभाए थे। क्या मैं निरी अवसरवादी नहीं थी? परमेश्वर हर चीज की पड़ताल करता है और जो कोई भी अपने कर्तव्यों में निष्ठाहीन है, उसे बेनकाब कर निकाल दिया जाएगा। मैंने खुद को यह सोचकर भ्रमित किया था कि मैं धोखेबाज तरीकों से परमेश्वर का आशीष पा सकती हूँ। क्या यह बेहद मूर्खतापूर्ण नहीं था? मेरी सभी अभिव्यक्तियाँ उन छद्म-विश्वासियों से कैसे अलग थीं जिन्हें हटा दिया गया था? अगर मैं ऐसे ही चलती रही तो मैं अपना परिणाम और गंतव्य बर्बाद कर दूँगी। जितना अधिक मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही मैं डर गई। इसलिए मैंने पश्चात्ताप करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की और अपनी समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य खोजने को तैयार हो गई।
बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे सभी ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अपना उचित कार्य करते हैं, वे सभी अपने कर्तव्य निभाने के इच्छुक होते हैं, वे किसी कार्य का दायित्व लेकर उसे अपनी काबिलियत और परमेश्वर के घर के विनियमों के अनुसार अच्छी तरह से करने में सक्षम होते हैं। निस्संदेह शुरू में इस जीवन के साथ सामंजस्य बैठाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। तुम शारीरिक और मानसिक रूप से थका हुआ महसूस कर सकते हो। लेकिन अगर तुम में वास्तव में सहयोग करने का संकल्प है और एक सामान्य और अच्छा इंसान बनने और उद्धार प्राप्त करने की इच्छा है, तो तुम्हें थोड़ी कीमत चुकानी होगी और परमेश्वर को तुम्हें अनुशासित करने देना होगा। जब तुममें जिद्दी होने की तीव्र इच्छा हो, तो तुम्हें उसके खिलाफ विद्रोह कर उसे त्याग देना चाहिए, धीरे-धीरे अपना जिद्दीपन और स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ कम करनी चाहिए। तुम्हें निर्णायक मामलों में निर्णायक समय पर और निर्णायक कार्यों में परमेश्वर की मदद लेनी चाहिए। अगर तुम में संकल्प है, तो तुम्हें परमेश्वर से कहना चाहिए कि वह तुम्हें ताड़ना देकर अनुशासित करे, और तुम्हें प्रबुद्ध करे ताकि तुम सत्य समझ सको, इस तरह तुम्हें बेहतर परिणाम मिलेंगे। अगर तुम में वास्तव में दृढ़ संकल्प है और तुम परमेश्वर की उपस्थिति में उससे प्रार्थना कर विनती करते हो, तो परमेश्वर कार्य करेगा। वह तुम्हारी अवस्था और तुम्हारे विचार बदल देगा। अगर पवित्र आत्मा थोड़ा-सा कार्य करता है, तुम्हें थोड़ा प्रेरित और थोड़ा प्रबुद्ध करता है, तो तुम्हारा हृदय बदल जाएगा और तुम्हारी अवस्था रूपांतरित हो जाएगी। जब यह रूपांतरण होता है, तो तुम महसूस करोगे कि इस तरह से जीना दमनात्मक नहीं है। तुम्हारी दमित अवस्था और भावनाएँ रूपांतरित होकर हलकी हो जाएँगी, और वे पहले से अलग होंगी। तुम महसूस करोगे कि इस तरह जीना थका देने वाला नहीं है। तुम्हें परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने में आनंद मिलेगा। तुम महसूस करोगे कि इस तरह से जीना, आचरण करना और अपना कर्तव्य निभाना, कठिनाइयाँ सहना और कीमत चुकाना, नियमों का पालन करना और सिद्धांतों के आधार पर काम करना अच्छा है। तुम महसूस करोगे कि सामान्य लोगों को इसी तरह का जीवन जीना चाहिए। जब तुम सत्य के अनुसार जीते हो और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाते हो, तो तुम महसूस करोगे कि तुम्हारा दिल स्थिर और शांत है और तुम्हारा जीवन सार्थक है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि परमेश्वर के सच्चे विश्वासी उचित कार्य करते हैं, लगातार यह सोचते हैं कि अपने कर्तव्य कैसे अच्छी तरह से निभाएँ और कैसे बेहतरीन नतीजे पाएँ। वे कष्ट सहने और कीमत चुकाने के लिए तैयार रहते हैं और वे दूसरों की निगरानी में रहना भी स्वीकारते हैं। वे अपने कार्य में भटकावों पर बार-बार आत्म-चिंतन करते हैं और किसी भी समस्या का पता चलने पर उसे तुरंत ठीक करते हैं। मैं यह भी समझ गई कि परमेश्वर के घर के कार्य पर अधिक विचारशील होने और उचित मामलों को ध्यान में रखने से कोई व्यक्ति थोड़े से कष्ट के कारण उदास या बेबस नहीं होगा। कुछ समय के बाद मैंने एक बुरे व्यक्ति के बारे में जानकारी जमा की। अगुआओं को पता चला तो उन्होंने पूछा कि मैं इस जानकारी को कब तक व्यवस्थित रूप दे सकती हूँ। मैंने सोचा, “यह व्यक्ति अभी-अभी दूसरी कलीसिया से हमारी कलीसिया में स्थानांतरित हुआ है। उनके कुछ कुकर्मों को लेकर मुझे उसकी पिछली कलीसिया से पूछताछ और सत्यापन करने की जरूरत है, इसलिए इसे संकलित करना आसान नहीं होगा। इसके अलावा मेरे पास अन्य सामग्रियाँ भी हैं जिन्हें जल्द से जल्द पूरा करने की जरूरत है। ऐसा लगता है कि मेरी देह को फिर से कुछ कष्ट सहना पड़ेगा।” उसी पल मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपनी देह पर विचार कर रही हूँ। यह विचार कर कि कैसे मैंने पहले काम की प्रगति धीमी कर दी थी, अब मुझे पता था कि मैं फिर से देरी नहीं कर सकती। इतना ही नहीं, यह व्यक्ति कलीसिया में भाई-बहनों के बीच मतभेद पैदा कर रहा था और उन्हें दबा रहा था। इस व्यक्ति को जल्द से जल्द बाहर निकालने की जरूरत थी। मैंने जानकारी को समझने और सत्यापित करने में मदद पाने के लिए तुरंत संबंधित लोगों को लगाया। मैंने जल्द ही सभी जरूरी विवरण जुटा लिए। कलीसिया के 80% भाई-बहनों की सहमति से उस बुरे व्यक्ति को कलीसिया से निकाल दिया गया। जब मैंने अपनी देह की परवाह किए बिना अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित किया तो मुझे अपने दिल में बहुत दृढ़ता महसूस हुई। इसके बाद से मैंने अपने कर्तव्य निभाते हुए समयबद्ध ढंग से अपने काम की रिपोर्ट दी। जब अगुआओं ने मेरे काम की निगरानी और जाँच की तो मुझमें अब प्रतिरोध की भावना नहीं रही। बल्कि मैंने उनकी निगरानी के माध्यम से अपने काम में भटकाव खोजे और फिर तुरंत उन्हें ठीक कर दिया। उदाहरण के लिए जब धीमी कार्य प्रगति के बारे में पूछा गया तो मैंने हमारे सारांश पर आत्म-चिंतन किया और महसूस किया कि इसकी वजह मुख्य रूप से ज्यादा अहम कार्यों को प्राथमिकता देने में मेरी असमर्थता थी। इसलिए मैंने तुरंत सुधार किया। जब मैंने इस तरह से अभ्यास किया तो मैं अब और बेबस या प्रतिरोधी नहीं रही। इसके अलावा मेरे कर्तव्य की प्रभावशीलता में काफी सुधार हुआ, एक महीने में छाँटी गई सामग्रियाँ पहले की तुलना में दोगुनी हो गईं। मैं जानती हूँ कि यह सब परमेश्वर के वचनों का नतीजा है और मैं परमेश्वर के प्रति बहुत आभारी हूँ!