22. मैं जान गया हूँ कि अपने माता-पिता की दयालुता से कैसे पेश आऊँ

वांग ताओ, चीन

जब मैं तीन साल का था तो मेरे माता-पिता का मन न मिलने के कारण तलाक हो गया और जब मैं चार साल का था तो मेरी सौतेली माँ आ गई। मुझे धुँधली-सी याद है कि पड़ोस की कई बुजुर्ग महिलाएँ अक्सर मुझसे कहती थीं, “बेचारा बच्चा, बेटा तुम्हें बाद में कष्ट उठाना पड़ेगा, सौतेली माँएँ कभी अपने बच्चों की परवाह नहीं करतीं! बेटा, अपनी सौतेली माँ को कभी नाराज मत करना, आज्ञाकारी और मेहनती बनना ताकि तुम्हारी पिटाई न हो और तुम्हें खाना-पीना मिलता रहे।” उस समय मैं उनकी बातें आधी-अधूरी ही समझ पाया था और थोड़ा डर गया था, इसलिए मैंने कभी अपनी सौतेली माँ को नाराज करने की हिम्मत नहीं की। लेकिन हैरानी की बात है कि मेरी सौतेली माँ मेरे साथ बहुत अच्छा व्यवहार करती थी मानो मैं उसका अपना बेटा हूँ। बाद में मेरा एक छोटा भाई हुआ और मेरी सौतेली माँ मेरी वैसे ही देखभाल और प्यार करती रही। दरअसल वह मुझे मेरी असली माँ से भी अधिक प्यार करती थी। मेरी सौतेली माँ अक्सर मेरे भाई और मुझसे कहती थी, “तुम्हारे पिता और मैं बहुत मेहनत और तकलीफ से पैसा कमाते हैं और हम सारी मेहनत तुम दोनों के लिए नए घर बनाने के लिए करते हैं ताकि जब तुम दोनों शादी करो तो घर तैयार हों। जब तुम बड़े हो जाओ और अपना परिवार शुरू करो तो तुम्हें हमारे प्रति संतानोचित व्यवहार करना होगा। चाहे हम कितनी भी मुश्किलें सहें वह सब सार्थक होगा!” हर बार मैं दृढ़ता से वादा करता, “माँ, जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो तुम दोनों का ख्याल जरूर रखूँगा।” यह सुनकर मेरी सौतेली माँ के चेहरे पर हमेशा एक राहत भरी मुस्कान आ जाती और वह सिर हिलाती। मेरी सौतेली माँ को मेरा पालन-पोषण करने में बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, उसी की बदौलत मेरी शादी और परिवार शुरू हुआ और मेरा करियर बना। मुझे हमेशा अपनी दादी की बात याद आती : “जन्म देने से ज्यादा महत्वपूर्ण बच्चे को पालना है,” और “आपको वही मिलता है जो आप लोगों को देते हैं, जैसा कि कहावत है, सेर के बदले छटंकी।” मैंने सोचा कि यह इंसानी आचरण का सिद्धांत है और अगर किसी व्यक्ति में जमीर नहीं है और वह कृतघ्न है तो वह मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है।

1994 में हमारा पूरा परिवार प्रभु यीशु में विश्वास रखने लगा। मैं और मेरी पत्नी अक्सर कलीसिया में सेवा के लिए जाते थे, कभी-कभी तो एक-दो दिन वहीं रुक जाते थे, जबकि हमारा बच्चा दो साल का था और खेतों के काम पर भी समय और ध्यान देना पड़ता था। उन सारे कामों की देखभाल माँ करती थी ताकि हम प्रभु की अच्छे से सेवा कर सकें। 2002 में हमारे पूरे परिवार ने अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर लिया। मेरे माता-पिता मेरे कर्तव्यों में मेरा पूरा साथ देते थे। क्योंकि मैं प्रभु में अपनी आस्था के कारण अपने क्षेत्र में प्रसिद्ध हो गया था, कार्य के इस चरण को स्वीकार करने के बाद क्षेत्र में मेरे सुसमाचार कार्य की तरफ पुलिस का ध्यान गया। पुलिस द्वारा गिरफ्तारी से बचने के लिए मैंने घर छोड़ दिया और कई सालों तक कहीं और रहकर अपना कर्तव्य निभाता रहा। छुट्टियों के दौरान दूसरों को अपने परिवारों के साथ मिलते-जुलते देखकर मुझे भी अपने परिवार की चिंता होती और अपने माता-पिता की याद आती। खासकर खेती के मौसम की व्यस्तता के दौरान मुझे माँ का ख्याल आता जिसे पीठ और पैर की समस्या थी और वह गठिया से पीड़ित थी, बरसात के मौसम में उसकी पीड़ा और ज्यादा बढ़ जाती थी, मैं आमतौर पर कोशिश करता था कि उसे घर पर खेती का भारी काम न करना पड़े। लेकिन अब मैं और मेरी पत्नी दोनों अपना कर्तव्य निभा रहे थे और मेरे माता-पिता न केवल हमारे बच्चे की देखभाल कर रहे थे बल्कि खेतों में भी काम कर रहे थे। वे बहुत मेहनत कर रहे थे, मैं सोचता कि खेती के काम में मदद करने के लिए घर लौटने का जोखिम उठाऊँ ताकि उन्हें अब और मेहनत न करनी पड़े। लेकिन अगर मैं वापस गया तो संभव है मैं पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाऊँ और ऐसे में मैं अपने माता-पिता की ज्यादा मदद नहीं कर पाऊँगा। इसके अलावा मैं अपने कर्तव्यों में व्यस्त था और घर लौटने के लिए अपने कलीसिया के काम को छोड़ नहीं सकता था। रास्ते में आते-जाते मैं किसानों को खेतों में गेहूँ की फसल काटते देखता तो ऐसा लगता मानो मैं अपनी माँ को खेतों में सिर उठाकर अपने माथे से पसीना पोंछते हुए देख रहा हूँ। मेरी आँखों से आँसू बहने लगते और मुझे मन ही मन शिकायत होती, “अगर मुझे परमेश्वर में अपनी आस्था और सुसमाचार कार्य के कारण अपनी गिरफ्तारी का खतरा न होता तो मैं फसल काटने के मौसम में अपने माता-पिता की मदद करने के लिए घर लौट सकता था!” सोच-सोचकर मैं खुद को अपने माता-पिता के प्रति और ज्यादा ऋणी महसूस करता। उस शाम खेतों में लड़खड़ाते हुए लगातार मेहनत करते मेरे माता-पिता की छवि मेरी आँखों के सामने तैर गई मैं छिपकर रोने से खुद को रोक न सका। मैं अपने माता-पिता को परमेश्वर के हाथों में सौंपकर अक्सर उससे प्रार्थना करता था।

दिसंबर 2012 में सुसमाचार का प्रचार करते समय मुझे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। पूछताछ के दौरान पुलिस ने मुझे यातना देने के लिए क्रूर तरीकों का इस्तेमाल किया और हक्का-बक्का होकर पुलिस प्रमुख ने मुझे अपने फोन पर एक वीडियो दिखाया। मैंने अपनी नब्बे वर्षीय दादी को देखा जिसकी आँखें धँसी हुईं और निगाहों में खालीपन था, ऐसा लग रहा था मानो वह किसी भी पल मर सकती है। मैंने अपनी माँ को भी देखा, उसके बाल सफेद हो गए थे और चेहरे पर आँसुओं की धारियाँ बन गई थीं। उसके होंठ कांप रहे थे मानो वह किसी बात पर बहस कर रही हो और वह बहुत हिली हुई लग रही थी। वीडियो देखकर मैं अपने आँसू न रोक सका। राष्ट्रीय सुरक्षा दल के प्रमुख ने इस मौके का लाभ उठाते हुए कहा, “हमने तुम्हारे गाँव के लोगों से भी पूछताछ की है और हर कोई तुम्हारे बारे में अच्छा बोलता है। तुम एक कर्तव्यनिष्ठ पुत्र हो। तुम्हारी दादी सौ साल की होने जा रही है और तुम्हारे माता-पिता दोनों सत्तर के दशक में हैं। वे सब इस इंतजार में जी रहे हैं कि पूरा परिवार फिर से एक हो जाए! तुम्हारी दादी मौत के मुहाने पर खड़ी है, क्या तुम उसे आखिरी बार नहीं देखना चाहोगे? जैसे कि कहावत है, ‘जीवन में माता-पिता की देखभाल पहले आती है।’ क्या तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें इसलिए बड़ा नहीं किया ताकि वे अपने जीवन का अंतिम समय सुख से काट सकें? क्या तुम यह बर्दाश्त कर पाओगे कि उनका बुढ़ापा इतने एकाकीपन में कटे? वे दोनों बुजुर्ग हैं। क्या पता तुम उनका चेहरा आखिरी बार कब देख पाओ। अगर तुम्हें अपनी आस्था के कारण आठ-दस साल की सजा हो गई तो हो सकता है कि तुम उन्हें दोबारा कभी देख ही न पाओ और फिर जीवन भर पछताते रहोगे। तुम्हें जो कुछ भी पता है अगर वो तुम हमें बता दो तो मैं तुम्हें अपने परिवार से मिलने सीधे घर भेज दूँगा। इस पर सोच लो!” यह सुनकर मेरी दादी और माँ के हाथों मेरी देखभाल और उनके प्यार-दुलार की यादें मेरे जहन में घूम गईंं और मैं अपने आँसू रोक न सका। मेरी माँ को आशा थी कि जब वे बूढ़े हो जायेंगे तो मैं उनकी देखभाल करूँगा और अब वे दोनों बहुत बूढ़े और अस्वस्थ रहने लगे थे और ऐसे समय में ही उन्हें मेरी सबसे अधिक आवश्यकता थी, एक बेटे के तौर पर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने के लिए मैं वहाँ नहीं था। बल्कि मैंने अपनी गिरफ्तारी के कारण उन्हें खौफ में रहने को मजबूर कर दिया था। अगर मुझे आठ-दस साल की जेल की सजा हो गई तो फिर मैं शायद उन्हें कभी न देख पाऊँ। सोच-सोचकर मैं नकारात्मक होता चला गया, मेरे मन में शिकायतें पलने लगीं और मैं सोचने लगा, “अगर मैं यहाँ सुसमाचार का प्रचार करने न आया होता और गिरफ्तार न होता तो क्या मैं उनकी सेवा न कर पाता? अब मैं क्या करूँ? क्या जेल जाने की तैयारी करूँ या अपने माता-पिता की मेहरबानियों का कर्ज चुकाने के लिए शैतान और राक्षसों से समझौता कर लूँ? अगर मैंने भाई-बहनों या परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात किया तो मैं एक शर्मनाक यहूदा बन जाऊँगा और मेरी अंतरात्मा को कभी शांति नहीं मिलेगी, मुझे परमेश्वर के हाथों शापित होकर नरक जाना पड़ेगा!” मेरे दिल में हलचल मची हुई थी और लग रहा था जैसे मेरा सिर फट जाएगा, मैं टूटने की कगार पर था। मैंने प्रार्थना में परमेश्वर को पुकारा, “हे परमेश्वर, मुझे बचा लो! मैं क्या करूँ?” तभी परमेश्वर के वचनों का एक भाग मन में आया : “मेरे लोगों को, मेरे लिए मेरे घर के द्वार की रखवाली करते हुए, शैतान के कुटिल कुचर्क्रों से हर समय सावधान रहना चाहिए; उन्हें एक दूसरे को सहारा दे पाना और एक दूसरे का भरण-पोषण कर पाना चाहिए, ताकि शैतान के जाल में फँसने से बच सकें, और तब पछतावे के लिए बहुत देर हो जाएगी(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 3)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे बेचैन दिल को शांत कर दिया। शैतान मेरे स्नेह का उपयोग करके मुझे कुचलने और मुझसे परमेश्वर को धोखा दिलाने की साजिश रच रहा था। लेकिन मैं उसकी चालों में नहीं फँस सकता था, मुझे अपनी गवाही पर दृढ़ रहना था! मैंने कहा, “मैं कुछ नहीं जानता। आपको मेरे साथ जो करना है करो!” पुलिस को लाख कोशिशों के बावजूद कोई उपयोगी जानकारी नहीं मिली और अंत में अदालत ने मुझे साढ़े तीन साल जेल की सजा सुनाई।

जुलाई 2016 में धरती के उस नरक में मेरी सजा पूरी हुई। जब मैं घर पहुँचा तो माँ ने मुझे बाँहों में भर लिया और फूट-फूट कर रोने लगी। मैंने उसे दिलासा दी और उसके आँसू पोंछे। मैंने मन ही मन सोचा, “सीसीपी की गिरफ्तारियों और उत्पीड़न के कारण मैं एक दशक से अधिक समय से घर नहीं आ पाया। मेरे माता-पिता मेरी सुरक्षा को लेकर लगातार चिंतित रहे हैं, खासकर उस समय जब मैं जेल में था, उस दौरान वे मेरे बारे में बहुत फिक्रमंद रहते थे। अब वे दोनों सत्तर के दशक में हैं और अब मैं वाकई नहीं चाहता कि उन्हें मेरी और चिंता करनी पड़े। अब जब मैं वापस आ गया हूँ तो मैं उनके साथ अधिक समय बिताना और एक बेटे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना चाहता हूँ।” कुछ दिनों बाद मेरे चाचा मुझसे मिलने आए और शिकायत करने लगे, “बरसों से तुम घर नहीं आए, तुम्हारी माँ को कई बार अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा और तुम्हारा तो कोई अता-पता ही नहीं, हर कोई कहता है कि तुम एक नालायक बेटे हो! तुम्हारे माता-पिता अब बहुत बूढ़े चुके हैं, वे तुम्हारे बच्चे की देखभाल कर रहे हैं और तुम्हारे लिए खेतों में काम कर रहे हैं और अब वे दोनों बीमार हैं। तुम्हें लगता है कि यह सब करना अब उनके लिए आसान है? अब जबकि तुम वापस आ गए हो तो अपने घर को ठीक से वक्त दो और अपने माता-पिता का ख्याल रखो ताकि दुनियावाले तुम्हारे बारे में उल्टी-सीधी बातें न बनाएँ!” चाचा चले गए लेकिन मुझे बेचैन कर गए। मैं सचमुच उनकी नजरों में एक एहसानफरामोश बच्चा बन गया था। मैंने सोचा चलो नजदीक की कलीसिया में ही अपना कर्तव्य निभा लूँगा ताकि मुझे अपने माता-पिता की देखभाल करने का मौका भी मिल जाए। लेकिन जैसे ही मैंने ऐसा सोचा, मुझे लगा कि मैं अनजाने में किसी अंधेरी मानसिकता में डूबता जा रहा हूँ, मैंने सजग रहकर परमेश्वर के इरादे जानने के लिए उससे प्रार्थना की। मुझे एहसास हुआ कि वर्तमान हालात में मैं घर पर रहकर अपने कर्तव्य नहीं निभा सकता, मुझे यहाँ कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता था माता-पिता की देखभाल मुझे मेरा कर्तव्य निभाने से नहीं रोक सकती। इतने साल मैंने परमेश्वर से बहुत अनुग्रह, सिंचन और सत्य के पोषण का आनंद लिया था इसलिए अब मैं अपना जमीर नहीं गँवा सकता था, मुझे परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए अपने कर्तव्यों का पालन करना था। इसलिए मैं फिर से सुसमाचार का प्रचार करने के लिए बाहर गया।

फिर भी माँ के प्रति मेरा भावनात्मक लगाव हमेशा बना रहा और मैं कुछ विशेष स्थितियों में परेशान हो जाता। मेरे मेजबान घर की बुजुर्ग बहन को अक्सर चक्कर आते थे। एक बार वह बीमार पड़ गई और दस दिनों से अधिक समय तक अस्पताल में रही। मुझे अपनी माँ का ख्याल आया, “वह अब लगभग अस्सी वर्ष की हो चुकी है, उसे उच्च रक्तचाप और हृदय रोग है और अक्सर चक्कर आते हैं। अगर वह बीमार पड़ गई और अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा तो? जैसे कि कहावत है, ‘जन्म देना उतना मायने नहीं रखता जितना एक बच्चे की परवरिश करना’ और ‘जीवन में माता-पिता की देखभाल पहले आती है।’ बेटा होकर न मैं अपने माता-पिता के साथ रह पा रहा हूँ, न उनकी सेवा कर पा रहूँ, क्या मेरे रिश्तेदार और पड़ोसी यह नहीं कहेंगे कि मैं नालायक, कृतघ्न और जमीर से रहित हूँ?” उस समय मैं अपनी माँ को कितना याद करता था और उनकी कितनी चिंता करता था, इस बात को मैं भुला नहीं सकता। मेरी माँ की आशा भरी निगाहों की छवि मेरे मन में घूम गई और मेरे रिश्तेदारों और पड़ोसियों का उपहास मेरे कानों में गूंज उठा। मुझे अपने दिल पर एक दबाव-सा महसूस हुआ और मेरे दिन बिना कोई परिणाम प्राप्त किए, बेमन से अपने कर्तव्यों को पूरा करने में बीतने लगे। मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा मेरे कर्तव्यों को निभाने की क्षमता को प्रभावित कर रही है, मैंने मदद पाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की। बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अगर तुम मानते हो कि तुम्हारे माता-पिता दुनिया में तुम्हारे सबसे नजदीकी लोग हैं, वे तुम्हारे सर्वेसर्वा और तुम्हारे अगुआ हैं, उन्होंने ही तुम्हें जन्म दिया और पाल-पोसा है, तुम्हें खाना, कपड़े, घर और आने-जाने का साधन दिया है और तुम्हें बड़ा किया है, वही तुम्हारे हितैषी हैं, तो क्या तुम्हारे लिए उनकी अपेक्षाओं को त्यागना आसान होगा? (नहीं।) अगर तुम इन चीजों पर यकीन करते हो, तो बहुत संभव है कि तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाओं से एक दैहिक नजरिये से पेश आओगे, और तुम्हारे लिए उनकी किसी भी अनुपयुक्त और अविवेकपूर्ण अपेक्षा को त्यागना मुश्किल होगा। तुम उनकी अपेक्षाओं से बँध और दब जाओगे। भले ही तुम मन-ही-मन असंतुष्ट और अनिच्छुक रहो, फिर भी तुम्हारे पास इन अपेक्षाओं से मुक्त होने की ताकत नहीं होगी, और तुम्हारे पास उन्हें स्वाभाविक रूप से होने देने के सिवाय कोई विकल्प नहीं रह जाएगा। तुम्हें उन्हें स्वाभाविक रूप से क्यों होने देना पड़ेगा? क्योंकि अगर तुम्हें अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागना पड़े और उनकी किसी भी अपेक्षा को नजरअंदाज करना या ठुकराना पड़े, तो तुम्हें लगेगा कि तुम संतानोचित बच्चे नहीं हो, तुम कृतघ्न हो, तुम अपने माता-पिता को निराश कर रहे हो और तुम नेक इंसान नहीं हो। अगर तुम दैहिक नजरिया अपनाओगे, तो अपने माता-पिता का कर्ज चुकाने और यह सुनिश्चित करने कि माता-पिता द्वारा तुम्हारी खातिर उठाई गई तकलीफें व्यर्थ नहीं हुईं, तुम अपने जमीर का इस्तेमाल करने की भरसक कोशिश करोगे और उनकी अपेक्षाएँ साकार भी करना चाहोगे। तुम उनका कहा हर काम पूरा करने, उन्हें निराश न करने और उनके साथ सही व्यवहार करने की पुरजोर कोशिश करोगे, और तुम यह फैसला लोगे कि बुढ़ापे में उनकी देखभाल करोगे, यह सुनिश्चित करोगे कि उनके आखिरी साल राजी-खुशी से गुजरें, और तुम थोड़ा और आगे की बातें ध्यान में रखकर उनकी अंत्येष्टि का काम संभालने और उन्हें संतुष्ट करने के साथ ही संतानोचित बच्चा होने की अपनी आकांक्षा पूरी करने के बारे में सोचोगे। इस संसार में जीते वक्त लोग तरह-तरह के जनमत, सामाजिक परिवेश के साथ ही समाज में लोकप्रिय अलग-अलग सोच और विचारों से प्रभावित होते हैं। अगर लोग सत्य को नहीं समझते, तो वे इन चीजों को सिर्फ दैहिक भावनाओं के दृष्टिकोण से देख और सँभाल सकते हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों ने हूबहू मेरी दशा को उजागर कर दिया। मैं चीजों को दैहिक मोह के नजरिए से देख रहा था। मेरा मानना था कि मुझे जो कुछ भी मिला है वह मेरे माता-पिता से आया है और एक इंसान के नाते मुझे अपने माता-पिता का आभारी होना चाहिए और मेरी परवरिश करने के लिए उनका एहसान चुकाना चाहिए, मुझे अपने माता-पिता की माँगों और अपेक्षाओं को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए और विवेकशील व्यक्ति को यही करना चाहिए। मेरे बचपन में ही मेरे माता-पिता का तलाक हो गया था, कई लोगों ने मुझे एक बेचारा बच्चा कहा जिसके साथ उसकी सौतेली माँ दुर्व्यवहार करेगी, लेकिन मेरी सौतेली माँ मुझे अपने बेटे की तरह मानती थी। मेरे नन्हे हृदय में वह मेरी जन्म देने वाली माँ से भी अधिक मेरे करीब थी। मुझे लगा उसने मुझे और मेरे भाई की परवरिश करने के लिए कड़ी मेहनत की है और पाई-पाई बचाई, मुझे पढ़ाया-लिखाया, मेरी शादी की और करियर शुरू करने में मदद की, वही मेरे जीवन में एक ऐसी इंसान थी जिसका मैं सबसे अधिक आदर और सम्मान करता था। मैंने मन ही मन एक प्रतिज्ञा की कि मैं एक अच्छा बेटा बनकर रहूँगा और बुढ़ापे में उसकी देखभाल करूँगा। मेरी माँ को मुझसे बस एक ही अपेक्षा थी और वो यह कि जब वह और मेरे पिता बूढ़े हो जाएँ तो मैं उनकी देखभाल करूँ और यह सुनिश्चित करूँ कि उनके सहारे के लिए कोई उनके पास हो। मेरी माँ की मुझसे यही एकमात्र अपेक्षा थी। मैंने मन में सोचा, “एक विवेकशील इंसान के नाते मुझे अपने माता-पिता की इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए और मुझे अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना चाहिए। अगर मैं ऐसा नहीं करता तो मैं एक ऐसा नालायक और कृतघ्न इंसान हूँ जिसमें जमीर नाम की कोई चीज नहीं है और मैं समाज की निंदा का पात्र बनूँगा।” चूँकि मैं अपना कर्तव्य कहीं और निभा रहा था, छुट्टियों और खेती के मौसम में मुझे अक्सर बहुत चिंता सताती थी, मुझे डर रहता कि मेरे माता-पिता दिन-रात मेहनत करके बीमार पड़ जाएँगे और इसलिए मैं उनकी मदद करने के लिए घर लौटना चाहता था। मैं कहने को तो अपने कर्तव्यों का पालन कर रहा था लेकिन मेरे मन में शांति नहीं थी और मैं बस बेमन से अपने कर्तव्यों का पालन कर रहा था। मेरी गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने मेरे माता-पिता के प्रति मेरे स्नेह का इस्तेमाल करते हुए मुझे भाई-बहनों को धोखा देने के लिए उकसाया और अगर परमेश्वर के मुझे प्रबुद्ध करने वाले और मार्गदर्शन देने वाले वचन न होते तो शायद मैंने अपने स्नेह के कारण परमेश्वर को धोखा दे दिया होता। जब मैंने अपने मेजबान घर की बुजुर्ग बहन को बीमार होकर अस्पताल में भर्ती होते देखा तो मुझे अपनी माँ की याद आ गई, मैंने सोचा कि वह कितनी कमजोर और बीमार थी और मैं उसकी देखभाल के लिए वापस नहीं जा सका था। मुझे ग्लानि हुई और मैं व्यथित हो गया, मैं नकारात्मक और कमजोर हो गया। मैंने अंदर ही अंदर अपने हृदय में परमेश्वर के विरुद्ध शिकायतें पाल लीं और यह मान बैठा कि मैं अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सका या मैं लायक संतान नहीं बन सका और इन सबका कारण परमेश्वर में मेरी आस्था और मेरे कर्तव्य हैं। मैंने देखा कि इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी मुझे सत्य प्राप्त नहीं हुआ और मैं अभी भी चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखने में असमर्थ था। जब भी कोई मामला मेरे परिवार से जुड़ा होता तो मैं हमेशा अपने आप को अपने दैहिक मोह के नियंत्रण में पाता जिसका मतलब था कि मैं अभी भी एक अविश्वासी के विचार रखता हूँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे प्रबुद्ध करे और सत्य समझने में मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं अपनी समस्याओं को हल कर सकूँ।

बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “चीनी परंपरागत संस्कृति के अनुकूलन के कारण चीनी लोगों की परंपरागत धारणाओं में यह माना जाता है कि लोगों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए। जो भी संतानोचित निष्ठा का पालन नहीं करता, वह कपूत होता है। ये विचार बचपन से ही लोगों के मन में बिठाए गए हैं, और ये लगभग हर घर में, साथ ही हर स्कूल में और बड़े पैमाने पर पूरे समाज में सिखाए जाते हैं। जब किसी व्यक्ति का दिमाग इस तरह की चीजों से भर जाता है, तो वह सोचता है, ‘संतानोचित निष्ठा किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर मैं इसका पालन नहीं करता, तो मैं एक अच्छा इंसान नहीं हूँ—मैं कपूत हूँ और समाज मेरी निंदा करेगा। मैं ऐसा व्यक्ति हूँगा, जिसमें जमीर नहीं है।’ क्या यह नजरिया सही है? लोगों ने परमेश्वर द्वारा व्यक्त इतने अधिक सत्य देखे हैं—क्या परमेश्वर ने अपेक्षा की है कि व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाए? क्या यह कोई ऐसा सत्य है, जिसे परमेश्वर के विश्वासियों को समझना ही चाहिए? नहीं, यह ऐसा सत्य नहीं है। परमेश्वर ने केवल कुछ सिद्धांतों पर संगति की है। परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। ... शैतान इस तरह की परंपरागत संस्कृति और नैतिकता की धारणाओं का इस्तेमाल तुम्हारे दिल, दिमाग और विचारों को बाँधने के लिए करता है, और तुम्हें परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं छोड़ता; तुम शैतान की इन चीजों के वश में आ चुके हो और परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं रहे। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहते हो तो ये चीजें तुम्हारे मन में खलल पैदा करती हैं, इनके कारण तुम सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध करने लगते हो, और तुममें इतनी शक्ति नहीं रहती कि अपने कंधे से परंपरागत संस्कृति का जुआ उतारकर फेंक सको। कुछ देर संघर्ष करने के बाद तुम समझौता कर लेते हो : तुम यह विश्वास करना पसंद करते हो कि नैतिकता की परंपरागत धारणाएँ सही हैं और सत्य के अनुरूप भी हैं, और इसलिए तुम परमेश्वर के वचन ठुकरा या त्याग देते हो। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और तुम बचाए जाने को महत्वपूर्ण नहीं समझते, तुम्हें लगता है कि तुम अभी भी इस संसार में जी रहे हो और इन्हीं लोगों पर निर्भर रहकर जीवित रह सकते हो। समाज के आरोप-प्रत्यारोप झेलने में असमर्थ होकर तुम सत्य और परमेश्वर के वचन तज देना पसंद करते हो, खुद को नैतिकता की परंपरागत धारणाओं और शैतान के प्रभाव के हवाले छोड़ देते हो, और परमेश्वर को नाराज करना और सत्य का अभ्यास न करना बेहतर समझते हो। मुझे बताओ, क्या इंसान दीन-हीन नहीं है? क्या उन्हें परमेश्वर से उद्धार पाने की जरूरत नहीं है?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह समझ आया कि चूँकि मैं बचपन से ही पारंपरिक संस्कृति से प्रभावित रहा हूँ और अपनी परवरिश के प्रभाव के कारण भी मैं इन पारंपरिक विचारों को कि “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए,” और “अपने माता-पिता के जीवित रहते दूर की यात्रा मत करो,” अपने आचरण के सिद्धांतों के रूप में मानता था। मैंने अपने माता-पिता को अपने हितैषी और आजीवन ऋणदाता के रूप में देखा और मेरा मानना था कि अगर मैं लायक पुत्र बनकर अपने माता-पिता को उनके बुढ़ापे में सुख नहीं दे सका तो मैं नालायक कहलाऊँगा जिसमें कोई जमीर नहीं है और जो समाज के तिरस्कार और निंदा का पात्र है। पारंपरिक सांस्कृतिक मूल्यों के प्रभाव के तहत छुट्टियों और खेती के मौसम में या जब मैंने बड़ी उम्र के भाई-बहनों को बीमार पड़ते और अस्पताल में भर्ती होते देखता तो मुझे फिर से अपने माता-पिता की याद आने लगती और चूँकि मैं अपने माता-पिता की देखभाल के लिए घर नहीं लौट पाता था तो कई दिनों तक मेरी मनोदशा खराब रहती जिसका असर मेरे कर्तव्य-निर्वहन पर पड़ता। मेरी माँ की मुझसे उम्मीदें मेरे दिल पर एक भावनात्मक ऋण बन गई थीं जिसे मैं कभी नहीं चुका सकता था। जब पुलिस ने मुझे गिरफ्तार किया और पूछताछ की तो उन्होंने मुझे गुमराह करने के लिए “जीवन में माता-पिता की देखभाल पहले आती है” जैसी कहावतों का इस्तेमाल किया और अगर परमेश्वर के मुझे प्रबुद्ध करने और मार्गदर्शन देने वाले वचन न होते तो शायद मैं अपने दैहिक मोह के आगे झुक जाता और परमेश्वर को धोखा दे बैठता। गिरफ्तारी के बाद जिन्होंने अपने मोह के कारण परमेश्वर को धोखा दिया उन लोगों पर जब विचार किया तो मुझे एहसास हुआ कि भले ही उन्होंने अपने परिवारों और अपनी दैहिक इच्छाओं को संतुष्ट किया पर उन्होंने परमेश्वर का उद्धार खो दिया। मैंने देखा कि मोह के मसलों को हल किए बिना कोई भी किसी भी समय परमेश्वर को धोखा दे सकता है। परमेश्वर में अपनी आस्था और अपने कर्तव्यों के पालन के जरिए मुझे कुछ सत्यों की समझ हासिल हुई, मुझे जीवन का महत्व समझ में आया और मेरा भ्रष्ट स्वभाव भी थोड़ा-बहुत बदला। मेरा जीवन के सही रास्ते पर चल पाना परमेश्वर का अनुग्रह था। लेकिन आभारी होने के बजाय मैंने परमेश्वर के प्रति शिकायतें पाल लीं, सोचा अगर परमेश्वर में मेरी आस्था न होती और सीसीपी मेरे पीछे न पड़ी होती तो मुझे अपने घर से मुंह न मोड़ना पड़ता और मैं अभी भी अपने माता-पिता के प्रति एक पुत्र होने का फर्ज निभा रहा होता। मैं अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित फर्ज साफ तौर पर सीसीपी द्वारा गिरफ्तारी और उत्पीड़न के कारण नहीं निभा पाया और फिर भी मैंने परमेश्वर को दोषी ठहराया। मैंने देखा कि शैतान के बहकाने के कारण मैं भ्रमित हो गया था और सही-गलत को पहचानने में असमर्थ था और बिना इसका एहसास किए ही मैं परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और विरोध कर रहा था। यह जानकर मुझे अपने हृदय में गहरा पश्चात्ताप हुआ और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं जानता हूँ कि इस दशा में रहना तुम्हारे प्रति विद्रोह है और मैं शैतान द्वारा मुझमें डाले गए इन विचारों के अनुसार नहीं जीना चाहता। मुझे प्रबुद्ध कर मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं सत्य समझ पाऊँ और सही-गलत में भेद कर पाऊँ।”

तब मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “आओ तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें जन्म देने के मामले पर गौर करें। यह किसने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें : तुमने या तुम्हारे माता-पिता ने? किसने किसे चुना? अगर इस पर तुम परमेश्वर के दृष्टिकोण से गौर करो, तो जवाब है : तुममें से किसी ने भी नहीं। न तुमने और न ही तुम्हारे माता-पिता ने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें। अगर तुम इस मामले की जड़ पर गौर करो, तो यह परमेश्वर द्वारा नियत था। इस विषय को फिलहाल हम अलग रख देंगे, क्योंकि लोगों के लिए यह मामला समझना आसान है। अपने नजरिये से, तुम निश्चेष्टा से, इस मामले में बिना किसी विकल्प के, अपने माता-पिता के यहाँ पैदा हुए। माता-पिता के नजरिये से, उन्होंने तुम्हें अपनी स्वतंत्र इच्छा से जन्म दिया, है ना? दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के विधान को अलग रखकर तुम्हें जन्म देने के मामले को देखें, तो ये तुम्हारे माता-पिता ही थे जिनके पास संपूर्ण शक्ति थी। उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है और उन्होंने ही तमाम फैसले लिए। उनके लिए तुमने नहीं चुना कि वे तुम्हें जन्म दें, तुमने निश्चेष्टा से उनके यहाँ जन्म लिया, और इस मामले में तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं था। तो चूँकि तुम्हारे माता-पिता के पास संपूर्ण शक्ति थी और उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है, तो यह उनका दायित्व और जिम्मेदारी है कि वे तुम्हें पालें-पोसें, बड़ा करें, शिक्षा दें, खाना, कपड़े और पैसे दें—यह उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है, और यह उन्हें करना ही चाहिए। वे जब तुम्हें बड़ा कर रहे थे, तब तुम हमेशा निश्चेष्ट थे, तुम्हारे पास चुनने का हक नहीं था—तुम्हें उनके हाथों ही बड़ा होना था। चूँकि तुम छोटे थे, तुम्हारे पास खुद को पाल-पोस कर बड़ा करने की क्षमता नहीं थी, तुम्हारे पास निश्चेष्टा से अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किए जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। तुम उसी तरह बड़े हुए जैसे तुम्हारे माता-पिता ने चुना, अगर उन्होंने तुम्हें बढ़िया चीजें खाने-पीने को दीं, तो तुमने बढ़िया खाना खाया-पिया। अगर तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जीने का ऐसा माहौल दिया जहाँ तुम्हें भूसा और जंगली पौधे खाकर जिंदा रहना पड़ता, तो तुम भूसे और जंगली पौधों पर जिंदा रहते। किसी भी स्थिति में, अपने पालन-पोषण के समय तुम निश्चेष्ट थे, और तुम्हारे माता-पिता अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे। यह वैसी ही बात है जैसे कि तुम्हारे माता-पिता किसी फूल की देखभाल कर रहे हों। चूँकि वे फूल की देखभाल की चाह रखते हैं, इसलिए उन्हें उसे खाद देना चाहिए, सींचना चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे धूप मिले। तो लोगों की बात करें, तो तुम्हारे माता-पिता ने सावधानी से तुम्हारी देखभाल की हो या तुम्हारी बहुत परवाह की हो, किसी भी स्थिति में, वे बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे। तुम्हें उन्होंने जिस भी कारण से पाल-पोस कर बड़ा किया हो, यह उनकी जिम्मेदारी थी—चूँकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, इसलिए उन्हें तुम्हारी जिम्मेदारी उठानी चाहिए। ... किसी भी स्थिति में, तुम्हें पाल-पोसकर तुम्हारे माता-पिता एक जिम्मेदारी और एक दायित्व निभा रहे हैं। तुम्हें पाल-पोस कर वयस्क बनाना उनका दायित्व और जिम्मेदारी है, और इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता। अगर इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता, तो क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिसका तुम्हें मजा लेना चाहिए? (जरूर है।) यह एक प्रकार का अधिकार है जिसका तुम्हें आनंद लेना चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किया जाना चाहिए, क्योंकि वयस्क होने से पहले तुम्हारी भूमिका एक पाले-पोसे जा रहे बच्चे की होती है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे प्रति सिर्फ एक जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं, और तुम बस इसे प्राप्त कर रहे हो, लेकिन निश्चित रूप से तुम उनसे अनुग्रह या दया प्राप्त नहीं कर रहे हो(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह समझ आया कि माता-पिता के लिए अपने बच्चों का पालन-पोषण करना परमेश्वर का सर्वोच्च आदेश है। माता-पिता अपने बच्चों की देखभाल में चाहे कितना भी कष्ट उठाएँ और संघर्ष करें, यह उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है, इसे मेहरबानी नहीं माना जा सकता। ऐसे परिवार में परवरिश पाना भी मेरे लिए परमेश्वर की व्यवस्था थी और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरे माता-पिता ने मुझे बड़ा करने में कितना कष्ट सहा या कितनी कीमत चुकाई, वे महज अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभा रहे थे। यह पहले से ही परमेश्वर द्वारा पूर्व निर्धारित था, इसे मेहरबानी नहीं माना जाना चाहिए और मुझे इसे चुकाने की जरूरत नहीं थी। परमेश्वर ने मेरी देखभाल और दुलार करने के लिए एक सौतेली माँ की व्यवस्था की और यह परमेश्वर का अनुग्रह ही था इसलिए मुझे परमेश्वर का आभारी होना चाहिए और सारा श्रेय अपने माता-पिता को नहीं देना चाहिए। लेकिन मुझे सत्य समझ नहीं आया था और मुझे लगता था कि माता-पिता न होते तो मेरे पास कुछ भी नहीं होता, माँ के दुलार ने ही मेरी दुर्भाग्यपूर्ण जिंदगी बदली थी। उसने मुझे जन्म भले ही न दिया हो लेकिन वह मुझे जन्म देने वाली मेरी माँ से भी ज्यादा मेरे करीब थी, इसलिए मैं उसे अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति मानता था और हमेशा उसकी प्रेमपूर्ण देखभाल का ऋण चुकाना चाहता था लेकिन मुझे ख्याल नहीं आता था कि परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य कैसे निभाऊँ। क्या मुझमें मानवता का सर्वथा अभाव नहीं था? यह वैसा ही है जब माता-पिता किसी आया को काम पर रखते हैं और वे अपने बच्चे को कुछ समय के लिए उसकी देखभाल में सौंप देते हैं और आया बच्चे को उसकी जरूरत की हर चीज मुहैया कराती है। लेकिन अगर वह बच्चा आया को ही अपनी माँ के रूप में पहचाने, केवल आया की देखभाल को ही देखे और उन माता-पिता को न स्वीकारे जिन्होंने उसके लिए सब-कुछ किया है तो क्या इससे माता-पिता का दिल नहीं टूटेगा? क्या यह वास्तव में कृतघ्नता नहीं होगी और महत्वपूर्ण को महत्वहीन बनाना नहीं होगा? मेरा जीवन परमेश्वर से आता है, परमेश्वर की सुरक्षा और देखभाल के कारण ही मैं आज तक जीवित हूँ। मेरे माता-पिता ने मुझे बड़ा करके केवल अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाया है और इसमें दयालुता की कोई अवधारणा नहीं है। मुझे खुद को अपने माता-पिता का ऋणी नहीं मानना चाहिए बल्कि मुझे परमेश्वर का आभारी होना चाहिए और उसका बदला चुकाना चाहिए जो सबका संप्रभु है। अगर मैं माता-पिता की सेवा के कारण परमेश्वर के समक्ष अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता तब मैं वाकई अंतरात्मा-विहीन एक कृतघ्न अभागा बन जाऊँगा! परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को पूरा करने की कोशिश करना किसी इंसान को एक पात्र सृजित प्राणी, अंतरात्मा रखने वाला और विवेकपूर्ण व्यक्ति बनाता है। अगर मैं अपने माता-पिता की देखभाल के लिए घर लौट गया, फिर भले ही लोग एक लायक पुत्र के रूप में मेरी प्रशंसा करें, लेकिन अगर मुझे परमेश्वर की स्वीकृति ही नहीं मिली तो इसका क्या महत्व होगा?

बाद में मैं प्रार्थना करने और परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने के लिए फिर से उसके सामने आया कि मुझे सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपने माता-पिता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। तब मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अगर अपने जीवन-परिवेश और उस संदर्भ के आधार पर, जिसमें तुम खुद को पाते हो, अपने माता-पिता का सम्मान करने से परमेश्वर का आदेश पूरा करने और अपना कर्तव्य निभाने में कोई टकराव नहीं होता—या, दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता का सम्मान करने से तुम्हारे निष्ठापूर्वक कर्तव्य-प्रदर्शन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता—तो तुम एक ही समय में उन दोनों का अभ्यास कर सकते हो। तुम्हें अपने माता-पिता से बाहरी रूप से अलग होने, उन्हें बाहरी रूप से त्यागने या नकारने की जरूरत नहीं। यह किस स्थिति में लागू होता है? (जब अपने माता-पिता का सम्मान करना व्यक्ति के कर्तव्य-प्रदर्शन से नहीं टकराता।) यह सही है। दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालने की कोशिश नहीं करते, और वे भी विश्वासी हैं, और वे वाकई तुम्हें अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाने और परमेश्वर का आदेश पूरा करने में समर्थन और प्रोत्साहन देते हैं, तो तुम्हारे माता-पिता के साथ तुम्हारा रिश्ता, आम शाब्दिक अर्थ में, रिश्तेदारों के बीच का दैहिक रिश्ता नहीं है, वह कलीसिया के भाई-बहनों के बीच का रिश्ता है। उस स्थिति में, उनके साथ कलीसिया के साथी भाई-बहनों की तरह बातचीत करने के अलावा तुम्हें उनके प्रति अपनी कुछ संतानोचित जिम्मेदारियाँ भी पूरी करनी चाहिए। तुम्हें उनके प्रति थोड़ा अतिरिक्त सरोकार दिखाना चाहिए। अगर इससे तुम्हारा कर्तव्य-प्रदर्शन प्रभावित नहीं होता, यानी, अगर वे तुम्हारे दिल को विवश नहीं करते, तो तुम अपने माता-पिता को फोन करके उनका हालचाल पूछ सकते हो और उनके लिए थोड़ा सरोकार दिखा सकते हो, तुम उनकी कुछ कठिनाइयाँ हल करने और उनके जीवन की कुछ समस्याएँ सुलझाने में मदद कर सकते हो, यहाँ तक कि तुम उनके जीवन-प्रवेश के संदर्भ में उनकी कुछ कठिनाइयाँ हल करने में भी मदद कर सकते हो—तुम ये सभी चीजें कर सकते हो। दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा नहीं डालते, तो तुम्हें उनके साथ यह रिश्ता बनाए रखना चाहिए, और तुम्हें उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। और तुम्हें उनके लिए सरोकार क्यों दिखाना चाहिए, उनकी देखभाल क्यों करनी चाहिए और उनका हालचाल क्यों पूछना चाहिए? क्योंकि तुम उनकी संतान हो और तुम्हारा उनके साथ यह रिश्ता है, तुम्हारी एक और तरह की जिम्मेदारी है, और इस जिम्मेदारी के कारण तुम्हें उनकी थोड़ी और खैर-खबर लेनी चाहिए और उन्हें और ज्यादा ठोस सहायता प्रदान करनी चाहिए। अगर यह तुम्हारे कर्तव्य-प्रदर्शन को प्रभावित नहीं करता और अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और तुम्हारे कर्तव्य-प्रदर्शन में बाधा नहीं डालते या गड़बड़ी नहीं करते, और वे तुम्हें रोकते भी नहीं, तो तुम्हारे लिए उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना स्वाभाविक और उचित है और तुम्हें इसे उस हद तक करना चाहिए, जिस हद तक तुम्हारा जमीर तुम्हें न धिक्कारे—यह सबसे न्यूनतम मानक है, जिसे तुम्हें पूरा करना चाहिए। अगर तुम अपनी परिस्थितियों के प्रभाव और बाधा के कारण घर पर अपने माता-पिता का सम्मान नहीं कर पाते, तो तुम्हें इस नियम का पालन करने की जरूरत नहीं। तुम्हें अपने आपको परमेश्वर के आयोजनों के हवाले कर देना चाहिए और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए, और तुम्हें अपने माता-पिता का सम्मान करने पर जोर देने की जरूरत नहीं है। क्या परमेश्वर इसकी निंदा करता है? परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता; वह लोगों को ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं करता। अब हम किस पर संगति कर रहे हैं? हम इस बारे में संगति कर रहे हैं कि जब अपने माता-पिता का सम्मान करना लोगों के कर्तव्य-प्रदर्शन के साथ टकराता है, तो उन्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए; हम अभ्यास के सिद्धांतों और सत्य पर संगति कर रहे हैं। अपने माता-पिता का सम्मान करना तुम्हारी जिम्मेदारी है, और अगर परिस्थितियाँ अनुकूल हों तो तुम यह जिम्मेदारी निभा सकते हो, लेकिन तुम्हें अपनी भावनाओं से विवश नहीं होना चाहिए। उदाहरण के लिए, अगर तुम्हारे माता-पिता में से कोई बीमार पड़ जाए और उसे अस्पताल जाना पड़े, और उनकी देखभाल करने वाला कोई न हो, और तुम अपने कर्तव्य में इतने व्यस्त हो कि घर नहीं लौट सकते, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? ऐसे समय, तुम अपनी भावनाओं से विवश नहीं हो सकते। तुम्हें मामला प्रार्थना के हवाले कर देना चाहिए, उसे परमेश्वर को सौंप देना चाहिए और उसे परमेश्वर के आयोजनों की दया पर छोड़ देना चाहिए। इसी तरह का रवैया तुम्हारे अंदर होना चाहिए। अगर परमेश्वर तुम्हारे माता-पिता का जीवन लेना चाहता है और उन्हें तुमसे दूर करना चाहता है, तो भी तुम्हें समर्पित होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : ‘भले ही मैं समर्पण कर चुका हूँ, फिर भी मैं दुखी महसूस करता हूँ और मैं इस बारे में कई दिनों से रो रहा हूँ—क्या यह एक दैहिक भावना नहीं है?’ यह कोई दैहिक भावना नहीं है, यह मानवीय दयालुता है, यह मानवता होना है और परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता। ... अगर तुम अपनी भावनाओं में फँस जाते हो और इससे तुम्हारा कर्तव्य-प्रदर्शन बाधित होता है, तो यह पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के विपरीत है। परमेश्वर ने तुमसे कभी ऐसा करने की अपेक्षा नहीं की, परमेश्वर सिर्फ यह माँग करता है कि तुम अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करो, बस। संतानोचित निष्ठा होने का यही अर्थ है। जब परमेश्वर ‘अपने माता-पिता का सम्मान करने’ की बात कहता है, तो इसका एक संदर्भ होता है। तुम्हें बस कुछ जिम्मेदारियाँ निभाने की जरूरत है, जिन्हें हर तरह की परिस्थितियों में हासिल किया जा सकता है, इसके अलावा कुछ नहीं। जहाँ तक तुम्हारे माता-पिता के गंभीर रूप से बीमार पड़ने या उनकी मृत्यु का सवाल है, तो क्या ये बातें तुम्हें तय करनी हैं? उनका जीवन कैसा है, वे कब मरेंगे, किस बीमारी से मरेंगे या कैसे मरेंगे—क्या इन बातों का तुमसे कोई लेना-देना है? (नहीं।) उनका तुमसे कोई लेना-देना नहीं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (4))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे सिद्धांत और अभ्यास का मार्ग प्राप्त हुआ। अगर मैं उपयुक्त परिस्थितियों में घर पर अपने कर्तव्य निभा सकूँ तो मैं लायक पुत्र दिख सकता था और अपने माता-पिता की देखभाल कर सकता था लेकिन अगर परिस्थितियाँ मुझे उनकी देखभाल करने की अनुमति नहीं देतीं तो परमेश्वर इसके लिए मेरी निंदा नहीं करेगा। इस बारे में विचार करने पर देखा कि यह ऐसा मामला नहीं था कि मैं अपने माता-पिता की देखभाल नहीं करना चाहता था बल्कि यह था कि चूँकि मुझे सीसीपी ने गिरफ्तार कर लिया था और मैं उनकी कड़ी निगरानी में था, अगर मैं परमेश्वर में विश्वास रखता और घर पर रहते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करता तो मुझे फिर से गिरफ्तार कर लिया जाता और कहीं ज्यादा क्रूर उत्पीड़न का सामना करना पड़ता। भविष्य में अगर उपयुक्त परिस्थितियाँ उपस्थित हुईं और घर लौटने का मौका मिला तो मैं अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करूँगा और उनके साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति करूँगा। लेकिन जब तक वैसी परिस्थितियाँ न हों तो मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति ही समर्पित रहकर अपने कर्तव्य अच्छे से निभाऊँगा। मुझे अपने माता-पिता के स्वास्थ्य और बुढ़ापे में उनकी देखभाल के बारे में परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और ये चीजें उसे सौंप देनी चाहिए। परमेश्वर ने मानवता की रचना की और जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु के नियमों की व्यवस्था की और पूरे इतिहास में कभी कोई इस कानून का उल्लंघन नहीं कर पाया, न ही कोई परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था से बच सकता है। यह एक सामान्य नियम है कि उम्र बढ़ने पर माता-पिता को कुछ बीमारियाँ हो जाती हैं और इसे टाला नहीं जा सकता। इसके अलावा अगर मैं उनके पास रहता तो भी मैं वाकई क्या कर पाता? क्या उनकी जगह मैं उनकी पीड़ा झेल सकता था? और फिर उनकी देखभाल के लिए मेरा छोटा भाई है न। हर किसी के पास अपना मार्ग होता है जिस पर वह चलता है और जीवन में अपने अनुभव होते हैं जिनसे वह गुजरता है और इन्हें न तो हटाया जा सकता है और न ही बदला जा सकता है। मेरे माता-पिता की नियति परमेश्वर के हाथों में है और मैं केवल उनके लिए प्रार्थना और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकता हूँ। मुझमें बस यही विवेक होना चाहिए।

इस अनुभव से मुझे यह समझ में आया कि पारंपरिक संस्कृति और पैतृक विरासत के विचार जिन्हें लोग अच्छा और सही मानते हैं और जिन्हें नैतिकता और सदाचार की लोकप्रिय धारणाओं के अनुरूप देखा जाता है, सत्य नहीं हैं, न ही वे मानवता के लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानव आचरण के लिए मानक हैं। केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं और लोगों को उन्हीं का पालन करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार जीवन जीते हैं केवल उन्हें ही वास्तव में अंतरात्मा-युक्त और विवेकशील माना जा सकता है। परमेश्वर के वचनों ने ही मुझे समझाया है कि मैं अपने माता-पिता की मेहरबानी को किस ढंग से लूँ और पारंपरिक विचारों से न बंधूँ या बेबस न हो जाऊँ। परमेश्वर का धन्यवाद!

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