21. क्या दूसरों की गलतियों पर चुप रहना बुद्धिमानी है?
अप्रैल 2023 में अचानक मेरी नजर अपने मूल्यांकन पर पड़ी जिसमें अगुआ ने लिखा था कि मैं चापलूस हूँ और मुझमें न्याय बोध नहीं है। इसमें यह उल्लेख किया गया था कि मैंने काफी सह-कर्मियों को उनके कार्य पर असर डालने वाले भ्रष्ट स्वभावों में जीते हुए देखा लेकिन उनके साथ संगति नहीं की या उन्हें यह बताया नहीं; इसमें लिखा था कि मैं कलीसिया के हितों की रक्षा नहीं कर रही हूँ और मेरी मानवता भी खास अच्छी नहीं है। अगुआ का मूल्यांकन देखकर मैं थोड़ी-सी खिन्न हो गई। मैंने सोचा, “मैं हमेशा अपने सहयोगियों के साथ मिल-जुलकर रहती आयी हूँ और मैंने किसी को भी सताने और दबाने का कोई काम नहीं किया। कभी-कभी मैंने सहकर्मियों में समस्याएँ देखीं तो उनके साथ संगति भी की और उन्हें इस बारे में बताया भी। भले ही मुझमें सर्वोत्तम मानवता नहीं है लेकिन यह औसत तो है ही। वे भ्रष्ट स्वभावों में जीते रहे और खुद को पहचान नहीं पाए क्योंकि वे सत्य के लिए प्रयास नहीं करते थे; उसके लिए मैं कैसे जिम्मेदार हो सकती थी? अगुआ ऐसे कैसे कह सकता है कि मुझमें खराब मानवता है?” कहना मुश्किल है कि मैं कितनी मर्माहत थी; मेरे मन में तरह-तरह की भावनाएँ उमड़ रही थीं; मैं बता नहीं सकती कि यह किस तरह की भावना थी। परमेश्वर में मेरी बरसों की आस्था के बावजूद अगुआ ने मेरे नियमित प्रदर्शन को एक ऐसे चापलूस का प्रदर्शन बता दिया जो परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करती है और जिसमें खराब मानवता है। अगर ऐसा है तो क्या मेरा स्वभाव अब भी बदल सकता है? उन दिनों मैं जब कभी अगुआ के शब्दों के बारे में सोचती थी तो मानो मेरे दिल में खंजर चुभते थे। मेरी आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं लेते थे और मुझमें कुछ भी करने की प्रेरणा नहीं बची थी। लेकिन मुझे एहसास हुआ कि मेरे कार्य में अभी कई समस्याएँ हैं; क्या इस मुकाम पर नकारात्मकता में डूबने से मेरी मानवता की कमी और भी प्रकट नहीं होगी? इसलिए मैंने खुद को अपना कर्तव्य निभाने को बाध्य किया और परमेश्वर से प्रार्थना की, मैंने ठान लिया कि मैं पहले अपने सामने आई इस तरह की स्थितियों के प्रति समर्पण करूँगी और उनसे सबक सीखने के लिए आत्मचिंतन करूँगी।
बाद में मैंने यह विचार किया कि दूसरे लोग क्यों मुझे ऐसी चापलूस बताते हैं जो परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करती है। मेरे जेहन में कुछ साल पहले के दृश्य आने लगे जब मैं कई सहकर्मियों के साथ मिलती-जुलती थी। 2019 में मेरी सहयोगी शाओझेन थी जिसके पास पाठ-आधारित कार्य की जिम्मेदारी थी। उस दौरान शाओझेन रक्षात्मक स्थिति में जी रही थी, उसे लगता था कि उसका अहंकारी स्वभाव गंभीर है और अगर वह अपने भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा करती रही तो उसके लिए कोई अच्छा परिणाम और गंतव्य नहीं रहेगा। लिहाजा वह अपना कर्तव्य निभाने में बहुत निष्क्रिय हो गई और हमारे साथ चर्चाओं में शायद ही कभी हिस्सा लेती थी। मैं जानता थी कि शाओझेन रक्षात्मक और गलतफहमी की दशा में जी रही है। उसके पास वास्तव में कुछ कार्य क्षमताएँ हैं और अगर उसकी दशा सामान्य हो तो वह कुछ कार्य कर सकती है। मैं उसकी समस्याएँ बताना चाहती थी। लेकिन मैंने सोचा कि उसने अभी अभ्यास करना शुरू किया ही है, इसलिए उसकी समस्याएँ बताकर क्या मैं निष्ठुर और कठोर नहीं लगूँगी? अगर उसने मेरे बारे में नकारात्मक विचार पाल लिए तो मैं भविष्य में उसके साथ कैसे बनाकर रखूँगी? इसलिए मैंने उसे साधारण-सा उपदेश दिया, “हमें हर समय अपने भ्रष्ट स्वभावों में नहीं जीना चाहिए; हमें सक्रिय होकर और आगे बढ़कर अपने पेशेवर कौशल सीखने चाहिए और सुधार के प्रयास करने चाहिए।” बाद में यह देखकर कि उसकी दशा में ज्यादा सुधार नहीं हुआ है, मुझे लगा, “मैं तुम्हें चेता चुकी हूँ, अगर तुम सुधरती नहीं हो तो फिर मैं कुछ नहीं कर सकती।” इसलिए मैंने आगे संगति नहीं की। आखिरकार शाओझेन की दशा नहीं सुधरी और अपने कर्तव्य में अप्रभावी रहने के कारण उसे बर्खास्त कर दिया गया। फिर एक दूसरी बहन लिन लिन भी थी जो यह देखकर हीनभावना की शिकार और अपने कर्तव्य में कम सक्रिय हो गई कि उसका नया सहयोगी भाई यांग झी इस पेशे में ज्यादा कुशल है और उसकी कुछ सिद्धांतों पर पकड़ है। एक बार संगति के दौरान उसने अपनी दशा के बारे में खुलकर बात की और रो भी पड़ी। यह देखकर कि वह अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की बहुत ज्यादा परवाह करती है, मैं पहले तो उसके लिए इन चीजों के अनुसरण की प्रकृति और दुष्परिणामों का गहन-विश्लेषण करना चाहती थी, लेकिन मुझे लगा कि वह पहले ही बहुत व्यथित है और सीधे-सीधे उसकी समस्याएँ बताना शायद उसे शर्मिंदा कर सकता है और उसे लग सकता है कि मैं निष्ठुर हूँ। फिर भविष्य में हममें कैसे निभेगी? इसलिए मैंने हल्के-फुल्के ढंग से कहा, “हमेशा प्रतिष्ठा और रुतबे के सहारे मत रहा करो; सहयोग करते समय दूसरों की खूबियों से सीखने की कोशिश किया करो।” बाद में लिन लिन ने प्रतिष्ठा और रुतबे के अनुसरण की प्रकृति और परिणामों की समझ फिर भी हासिल नहीं की। उसकी दशा कभी अच्छी रहती थी तो कभी बिगड़ जाती थी। वह अपने कर्तव्य में बहुत ही निष्क्रिय रहती थी और आखिरकार उसे भी बर्खास्त कर दिया गया।
अनेक बहनों के साथ सहयोग और काम करने के तमाम क्षणों को याद कर और परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्मचिंतन कर मैंने अपनी दशा की कुछ समझ हासिल की। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का केवल संकल्प और इच्छा ही होती है; सत्य उनका जीवन नहीं बना है। इसके परिणाम स्वरूप, जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे राक्षसी लोगों या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह कलीसिया के कार्य में बाधा पड़ती है, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फ़िर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? दोनों में से कुछ नहीं; यह मुख्य रूप से भ्रष्ट स्वभावों द्वारा बेबस होने का परिणाम है। तुम्हारे द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों में से एक है कपटी स्वभाव; जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो पहली चीज जो तुम सोचते हो वह है तुम्हारे हित, पहली चीज जिस पर तुम विचार करते हो वह है नतीजे, कि यह तुम्हारे लिए फायदेमंद होगा या नहीं। यह एक कपटी स्वभाव है, है न? दूसरा है स्वार्थी और नीच स्वभाव। तुम सोचते हो, ‘परमेश्वर के घर के हितों के नुकसान से मेरा क्या लेना-देना? मैं कोई अगुआ नहीं हूँ, तो मुझे इसकी परवाह क्यों करनी चाहिए? इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है।’ ऐसे विचार और शब्द तुम सचेतन रूप से नहीं सोचते, बल्कि ये तुम्हारे अवचेतन द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं—जो वह भ्रष्ट स्वभाव है जो तब दिखता है जब लोग किसी समस्या का सामना करते हैं। ऐसे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे सोचने के तरीके को नियंत्रित करते हैं, वे तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देते हैं और तुम जो कहते हो उसे नियंत्रित करते हैं। अपने दिल में, तुम खड़े होकर बोलना चाहते हो, लेकिन तुम्हें आशंकाएँ होती हैं, और जब तुम बोलते भी हो, तो इधर-उधर की हाँकते हो, और बात बदलने की गुंजाइश छोड़ देते हो, या फिर टाल-मटोल करते हो और सत्य नहीं बताते। स्पष्टदर्शी लोग इसे देख सकते हैं; वास्तव में, तुम अपने दिल में जानते हो कि तुमने वह सब नहीं कहा जो तुम्हें कहना चाहिए था, कि तुमने जो कहा उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, कि तुम सिर्फ बेमन से कह रहे थे, और समस्या हल नहीं हुई है। तुमने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है, फिर भी तुम खुल्लमखुल्ला कहते हो कि तुमने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है, या जो कुछ हो रहा था वह तुम्हारे लिए अस्पष्ट था। क्या यह सच है? और क्या तुम सचमुच यही सोचते हो? क्या तब तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव के नियंत्रण में नहीं हो?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मुझे लगा कि परमेश्वर वास्तव में लोगों के दिलों की गहराइयों की पड़ताल करता है और उसने मेरे अंतर्मन के इरादे उजागर कर दिए हैं। मुझे याद आया कि कुछ सहकर्मियों के साथ कार्य करते हुए मैंने वास्तव में उनकी समस्याएँ नहीं बताई थीं। कभी-कभी तो संगति करते समय भी मैं सिर्फ साधारण-से उपदेश दे दिया करती थी या उनकी समस्याओं को हल्के में लिया करती थी। मैं स्पष्ट रूप से यह बताने की हिम्मत नहीं करती थी कि उनकी समस्याओं का कारण वास्तव में यह है कि वे कपटी स्वभावों में जी रहे हैं, मुझे यह डर सताता था कि ऐसा करके मैं उनके साथ अपना संबंध बिगाड़ दूँगी और इससे भविष्य में साथ निभाना मुश्किल हो जाएगा। उदाहरण के लिए, जब मैं शाओझेन और लिन लिन की सहयोगी थी तो मैंने देख लिया था कि शाओझेन हमेशा अपनी संभावनाओं और नियति को लेकर चिंतित रहती है और खुद को अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित नहीं कर पाती है, जबकि लिन लिन अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को लेकर चिंतामग्न रहती थी और उसमें अपना कर्तव्य निभाने के प्रति रुझान नहीं था। मैंने उनकी इन समस्याओं को देख लिया था लेकिन यह देखते हुए कि हम हर दिन साथ बिताते हैं, सुबह से शाम तक हर समय एक दूसरे को देखते रहते हैं, तो क्या उनकी समस्याएँ बताने से उन्हें ऐसा नहीं लगेगा कि मैं उनकी समस्याओं के प्रति बेदर्द, अत्यंत ही कठोर और निष्ठुर हूँ और इससे वे मेरे खिलाफ पूर्वाग्रह पाल लेंगी? इस डर से कि इससे उनके साथ भविष्य में मिल-जुलकर रहना कठिन हो सकता है, मैंने उनकी समस्याओं की प्रकृति और दुष्परिणाम को रेखांकित नहीं किया। असल में दूसरों से अपनी समस्याएँ जानना सामान्य है। जो वास्तव में सत्य स्वीकार करते हैं वे ऐसे सुधारों की रोशनी में आत्मचिंतन करेंगे, अपनी समस्याएँ पहचानेंगे और पछतावा महसूस करके खुद को पूरी तरह बदलने में सक्षम रहेंगे—यह उनके लिए सच्ची मदद है। लेकिन मैं कपटी स्वभाव में जी रही थी और जब मैंने कलीसिया के कार्य को प्रभावित करने वाली उनकी समस्याओं को देख लिया था तो मैंने संक्षेप में इनका उल्लेख करने के सिवाय कुछ नहीं किया। जब वे आखिरकार बर्खास्त कर दिए गए तो मैंने साफ अंतरात्मा के साथ यहाँ तक सोच लिया कि इसका कारण उनमें सत्य का अनुसरण और प्रयास करने की कमी होना है, और मैंने अपनी समस्याओं पर बिल्कुल भी आत्मचिंतन नहीं किया—मैं इतनी स्वार्थी और कपटी थी!
बाद में मैंने आत्मचिंतन करना जारी रखा। मैं अपने सहकर्मियों की समस्याएँ देखकर हमेशा नरमी से क्यों बात करती हूँ और उनकी समस्याएँ सीधे-सीधे क्यों नहीं उजागर कर पाती हूँ? मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “सांसारिक आचरण के फलसफों में एक सिद्धांत है, जो कहता है, ‘अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।’ इसका मतलब है कि मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए अपने मित्र की समस्याओं के बारे में चुप रहना चाहिए, भले ही वे स्पष्ट दिखें—उन्हें लोगों के चेहरे पर वार न करने या उनकी कमियों की आलोचना न करने के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। लोगों को एक-दूसरे को धोखा देना चाहिए, एक-दूसरे से छिपाना चाहिए, एक दूसरे के साथ साजिश करने में लिप्त होना चाहिए; और हालाँकि वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति किस तरह का है, पर वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते, बल्कि अपना मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए शातिर तरीके अपनाते हैं। ऐसे संबंध व्यक्ति क्यों बनाए रखना चाहेगा? यह इस समाज में, अपने समूह के भीतर दुश्मन न बनाना चाहने के लिए होता है, जिसका अर्थ होगा खुद को अक्सर खतरनाक स्थितियों में डालना। यह जानकर कि किसी की कमियाँ बताने या उसे चोट पहुँचाने के बाद वह तुम्हारा दुश्मन बन जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुँचाएगा, और खुद को ऐसी स्थिति में न डालने की इच्छा से तुम सांसारिक आचरण के ऐसे फलसफों का इस्तेमाल करते हो, ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।’ इसके आलोक में, अगर दो लोगों का संबंध ऐसा है, तो क्या वे सच्चे दोस्त माने जा सकते हैं? (नहीं।) वे सच्चे दोस्त नहीं होते, एक-दूसरे के विश्वासपात्र तो बिल्कुल नहीं होते। तो, यह वास्तव में किस तरह का संबंध है? क्या यह एक मूलभूत सामाजिक संबंध नहीं है? (हाँ, है।) ऐसे सामाजिक संबंधों में लोग अपनी भावनाएँ जाहिर नहीं कर सकते, न ही गहन विचार-विनिमय कर सकते हैं, न यह बता सकते हैं कि वे क्या चाहते हैं। वे अपने दिल की बात, या जो समस्याएँ वे दूसरे में देखते हैं, या ऐसे शब्द जो दूसरे के लिए लाभदायक हों, जोर से नहीं कह सकते। इसके बजाय, वे अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं ताकि औरों का समर्थन मिलता रहे। वे सच बोलने या सिद्धांतों का पालन करने की हिम्मत नहीं करते, कि कहीं लोगों के साथ उनकी दुश्मनी न हो जाए। जब किसी व्यक्ति को कोई भी धमका नहीं रहा होता, तो क्या वह व्यक्ति अपेक्षाकृत आराम और शांति से नहीं रहता? क्या ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ को प्रचारित करने में लोगों का यही लक्ष्य नहीं है? (हाँ, है।) स्पष्ट रूप से, यह अस्तित्व का एक शातिर, कपटपूर्ण तरीका है, जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है। इस तरह जीने वाले लोगों का कोई विश्वासपात्र नहीं होता, कोई करीबी दोस्त नहीं होता, जिससे वे जो चाहें कह सकें। वे एक-दूसरे के साथ रक्षात्मक होते हैं, एक दूसरे का शोषण कर रहे हैं और एक दूसरे को मात दे रहे हैं, दोनों ही उस रिश्ते से जो चाहते हैं, वह लेते हैं। क्या ऐसा नहीं है? मूल रूप से ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ का लक्ष्य दूसरों को ठेस पहुँचाने और दुश्मन बनाने से बचना है, किसी को चोट न पहुँचाकर अपनी रक्षा करना है। यह व्यक्ति द्वारा खुद को चोट पहुँचने से बचाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीका है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे स्पष्ट रूप से दिखा दिया कि दूसरों के साथ मेरी साझेदारी और बातचीत सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे से बंधी होती थी, जैसे, “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है” और “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।” मैं यह मानती थी कि दूसरों के साथ बातचीत करते समय मुझे खुद को बचाना सीखना चाहिए; मुझे यह भी लगता था कि दूसरों की समस्याएँ उजागर करना उनके लिए अपमानजनक होता है और इससे वे मेरे खिलाफ पूर्वाग्रह पाल सकते हैं, मेरे दुश्मन बन सकते हैं और मैं अजीब स्थिति में पड़ सकती हूँ। लिहाजा मैंने दूसरों की समस्याएँ उजागर करने की हिम्मत नहीं की। इस बारे में दोबारा सोचते हुए मैंने जाना कि मैं बचपन से ही सांसारिक आचरण के इन फलसफों का पालन कर रही थी और दूसरों को नाराज करने के डर से कभी भी उनकी समस्याएँ सीधे-सीधे नहीं बताया करती थी। ऊपरी तौर पर लगता था कि मैं लोगों के साथ अच्छे संबंध रखती हूँ और रिश्ते बनाकर चलती हूँ। दूसरों के साथ इस तरीके से बातचीत करना ऊपरी तौर पर किसी को नाराज नहीं करता था लेकिन इससे दूसरों के साथ ईमानदार संवाद नहीं होता था और हमारे बीच एक तरह की निरंतर बाधा खड़ी हो जाती थी। लिहाजा मेरे पास कोई सच्चा विश्वासपात्र नहीं था। कलीसिया में मैं इन्हीं फलसफों के अनुसार जीती रही। शाओझेन और लिन लिन के साथ सहयोग के दौरान मैंने देख लिया था कि वे भ्रष्ट स्वभावों में जी रही हैं और अपने कर्तव्यों में बोझ नहीं उठाती हैं। मुझे यह चिंता थी कि उनकी समस्याएँ बताकर मैं उनकी भावनाओं को आहत कर बैठूँगी और निष्ठुर लगूँगी, इसलिए मैं अपनी अंतदृष्टि को लेकर चुप रही, उन्हें उनके भ्रष्ट स्वभावों में जीने दिया और कर्तव्यों में देरी होने दी, जिसके कारण उन्हें अंततः बर्खास्त होना पड़ा। सांसारिक आचरण के फलसफों, जैसे, “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है” और “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” को मैं सकारात्मक चीजें मानती थी, मुझे लगता था कि ऐसा करके मैं दूसरों की दुश्मनी मोल लेने से बच सकती हूँ और यह कोई होशियारी भरा कदम है। केवल अब जाकर मुझे एहसास हुआ कि सांसारिक आचरण के इन फलसफों के अनुसार जीते हुए भले ही ऐसा लगता रहा हो कि मैं किसी को नाराज नहीं करती हूँ और अपने सहकर्मियों के साथ अच्छे रिश्ते बनाकर चलती हूँ, लेकिन मैं निहायत स्वार्थी और कपटी बन चुकी थी और दूसरों के साथ मेरे सहयोग और बातचीत में बहुत रूखापन आ चुका था और इससे उनके जीवन प्रवेश में कोई फायदा नहीं हो रहा था, साथ ही कलीसिया के कार्य को भी नुकसान हो रहा था। यह देखते हुए कि सांसारिक आचरण के इन फलसफों के अनुसार जीना न सिर्फ मुझे और दूसरों को नुकसान पहुँचाता है, बल्कि उससे भी बढ़कर कलीसिया के कार्य को बर्बाद करता है, तो मुझे एहसास हुआ कि वास्तव में यह मार्ग चलने के लिए अच्छा नहीं है।
बाद में मैंने आत्मचिंतन करना जारी रखा और जाना कि चापलूस बनने की कोशिश करते समय मेरे अंदर एक और गलत परिप्रेक्ष्य था। मुझे लगता था कि कुछ सहकर्मियों की बर्खास्तगी उनके द्वारा सत्य का अनुसरण न करने के कारण हुई और इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए जब उन्हें बर्खास्त किया गया तो मैंने खुद को दोष नहीं दिया। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “सहयोग क्या होता है? तुम्हें एक-दूसरे के साथ चीजों पर विचार-विमर्श करने और अपने विचार और राय व्यक्त करने में सक्षम होना चाहिए; तुम्हें एक-दूसरे का पूरक बनना चाहिए, परस्पर निगरानी करनी चाहिए, एक-दूसरे से माँगना चाहिए, एक-दूसरे से पूछताछ करनी चाहिए, और एक-दूसरे को प्रोत्साहित करना चाहिए। सामंजस्य के साथ सहयोग करना यही होता है। उदहारण के लिए मान लो, तुमने अपनी इच्छा के अनुसार किसी चीज को सँभाला, और किसी ने कहा, ‘तुमने यह गलत किया, पूरी तरह से सिद्धांतों के विरुद्ध। तुमने सत्य को खोजे बिना, जैसे चाहे वैसे इसे क्यों सँभाला?’ जवाब में तुम कहते हो, ‘बिल्कुल सही—मुझे खुशी है कि तुमने मुझे सचेत किया! यदि तुमने नहीं चेताया होता, तो तबाही मच गई होती!’ यही है एक-दूसरे को प्रोत्साहित करना। तो फिर एक-दूसरे की निगरानी करना क्या होता है? सबका स्वभाव भ्रष्ट होता है, और हो सकता है कि वे परमेश्वर के घर के हितों की नहीं, बल्कि केवल अपने रुतबे और गौरव की सुरक्षा करते हुए अपना कर्तव्य निभाने में लापरवाह हो जाएँ। प्रत्येक व्यक्ति में ऐसी अवस्थाएँ होती हैं। यदि तुम यह जान जाते हो कि किसी व्यक्ति में कोई समस्या है, तो तुम्हें उसके साथ संगति करने की पहल करनी चाहिए, उसे सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने की याद दिलानी चाहिए, और साथ ही इसे अपने लिए एक चेतावनी के रूप में लेना चाहिए। यही है पारस्परिक निगरानी। पारस्परिक निगरानी से कौन-सा कार्य सिद्ध होता है? इसका उद्देश्य परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना होता है, और साथ ही लोगों को गलत मार्ग पर कदम रखने से रोकना होता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे यह समझा दिया कि कलीसिया कई लोगों के मिल-जुलकर कार्य करने की व्यवस्था करती है ताकि वे एक दूसरे की खूबियों और कमियों के पूरक बन सकें, एक दूसरे को चेता सकें और आपसी निगरानी कर सकें। खासकर जब हम यह देखें कि कोई व्यक्ति कार्य को प्रभावित करने वाली गलत दशा में जी रहा है तो हमें उसे चेताना चाहिए, उसकी मदद या काट-छाँट तक करनी चाहिए ताकि हम उसे ऐसे गलत मार्ग पर चलने से रोक सकें जो कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचा सकता है। ऐसा करना कलीसिया के हितों की रक्षा करना भी है और हमारी जिम्मेदारी है। कुछ बहनों की सहयोगी होने के दौरान जब मैंने उन्हें उनके कार्य को नुकसान पहुँचाने वाले भ्रष्ट स्वभावों में जीते देख लिया था तो मुझे उनके साथ संगति और उनकी मदद करने की पहल करनी चाहिए थी और जरूरी होता तो उन्हें उजागर कर उनकी काट-छाँट करनी चाहिए थी। अगर वे सत्य स्वीकारने वाले लोग होते तो इस संगति और प्रकाशन के जरिए वे अपनी समस्याएँ पहचान सकते थे, समय पर खुद को बदल सकते थे और अपने जीवन में नुकसान झेलने से बच सकते थे। अपनी दशा पूरी तरह बदलने के बाद वे अपने कर्तव्य भी बेहतर ढंग से निभा सकते थे। अगर वे सत्य न स्वीकारते तो कम से कम मेरी अंतरात्मा साफ होती क्योंकि उनके साथ संगति और उनकी मदद कर मैंने अपनी जिम्मेदारी अच्छे से निभाई होती। बाद में मुझे पता चला कि बर्खास्त होने के बाद शाओझेन और लिन लिन ने आत्मचिंतन कर अपनी समस्याएँ पहचान ली थीं और फिर अपने कर्तव्य निभाने दोबारा शुरू कर दिए थे। इससे साबित हो गया कि वे सत्य स्वीकार न करने वाली इंसान नहीं थीं, बल्कि सिर्फ कुछ समय से भ्रष्ट दशा में जीते हुए गलत मार्ग पर चल रही थीं। लेकिन मैं सिर्फ मूकदर्शक बनकर उन्हें भ्रष्ट स्वभावों के बंधनों में बँधी देखती रही, मैंने उन्हें संगति और मदद की पेशकश न करके कलीसिया के कार्य को प्रभावित किया। मैं सचमुच गैर-जिम्मेदार थी!
मैं सोचती थी कि मैं दूसरों के साथ तालमेल बनाकर चल सकती हूँ और मैंने लोगों को दबाने या सताने के लिए जाहिर तौर पर कुछ नहीं किया है, इसलिए मैं मानती थी कि मेरी मानवता अपेक्षाकृत अच्छी है। लेकिन परमेश्वर के वचनों पर खुद को परखने के बाद मुझे अपने बारे में थोड़ी समझ मिलने लगी। मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “अच्छी मानवता होने का कोई मानक अवश्य होना चाहिए। इसमें संयम का मार्ग अपनाना, सिद्धांतों से चिपके न रहना, किसी को भी नाराज न करने का प्रयत्न करना, जहाँ भी जाओ वहीं चापलूसी करके कृपापात्र बनना, जिससे भी मिलो उससे चिकनी-चुपड़ी बातें करना और सभी से अपने बारे में अच्छी बातें करवाना शामिल नहीं है। यह मानक नहीं है। तो मानक क्या है? यह परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम होना है। यह अपने कर्तव्य को और सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों को सिद्धांतों के साथ और जिम्मेदारी की भावना से लेना है। सब इसे स्पष्ट ढंग से देख सकते हैं; इसे लेकर सभी अपने हृदय में स्पष्ट हैं। इतना ही नहीं, परमेश्वर लोगों के हृदयों की जाँच-पड़ताल करता है और उनमें से हर एक की स्थिति जानता है; चाहे वे जो भी हों, परमेश्वर को कोई मूर्ख नहीं बना सकता। कुछ लोग हमेशा डींग हाँकते हैं कि वे अच्छी मानवता से युक्त हैं, कि वे कभी दूसरों के बारे में बुरा नहीं बोलते, कभी किसी और के हितों को नुकसान नहीं पहुँचाते, और वे यह दावा करते हैं कि उन्होंने कभी अन्य लोगों की संपत्ति की लालसा नहीं की। जब हितों को लेकर विवाद होता है, तब वे दूसरों का फायदा उठाने के बजाय नुकसान तक उठाना पसंद करते हैं, और बाकी सभी सोचते हैं कि वे अच्छे लोग हैं। परंतु, परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते समय, वे कुटिल और चालाक होते हैं, हमेशा स्वयं अपने हित में षड्यंत्र करते हैं। वे कभी भी परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचते, वे कभी उन चीजों को अत्यावश्यक नहीं मानते हैं जिन्हें परमेश्वर अत्यावश्यक मानता है या उस तरह नहीं सोचते हैं जिस तरह परमेश्वर सोचता है, और वे कभी अपने हितों को एक तरफ़ नहीं रख सकते ताकि अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। वे कभी अपने हितों का परित्याग नहीं करते। यहाँ तक कि जब वे दुष्ट लोगों को बुरे कर्म करते हुए देखते हैं, वे उन्हें उजागर नहीं करते; उनके रत्ती भर भी कोई सिद्धांत नहीं हैं। यह किस प्रकार की मानवता है? यह अच्छी मानवता नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि वास्तव में अच्छी मानवता वाले इंसान में परमेश्वर के लिए ईमानदार दिल होता है, भाई-बहनों के लिए स्नेह होता है और वह दूसरों के साथ सिंद्धांतों के अनुसार सहयोग करता है, स्पष्ट रुख अपनाता है और कलीसिया के कार्य में किसी को गड़बड़ी पैदा करते या असर डालते देखकर वह इसे उजागर करने के लिए खड़ा हो सकता है और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा कर सकता है। लेकिन लोगों के साथ रिश्ते कायम रखने के लिए मैंने दूसरों को भ्रष्ट स्वभाव में जीते हुए और गलत राह पर चलते हुए देखकर भी उनके साथ संगति नहीं की या उनकी मदद नहीं की, जिससे काम को कुछ नुकसान हुआ। सिर्फ अब जाकर मैंने स्पष्ट देखा कि मेरी मानवता वास्तव में अच्छी नहीं है और मैंने अगुआ के मूल्यांकन को ईमानदारी के साथ अपने दिल से स्वीकार लिया।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिसने चापलूस बनने की समस्या हल करने के लिए अभ्यास का मार्ग प्रदान किया। परमेश्वर कहता है : “अगर तुम्हारे पास एक ‘खुशामदी व्यक्ति’ होने की प्रेरणाएं और दृष्टिकोण हैं, तब तुम सभी मामलों में सत्य का अभ्यास और सिद्धांतों का पालन नहीं कर पाओगे, तुम हमेशा असफल होकर नीचे गिरोगे। यदि तुम जागरूक नहीं होते और कभी सत्य नहीं खोजते, तो तुम छद्म-विश्वासी हो और कभी सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाओगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? इस तरह की चीजों से सामना होने पर, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे पुकारना चाहिए, उद्धार के लिए विनती करनी चाहिए और माँगना चाहिए कि वह तुम्हें अधिक आस्था और शक्ति दे, और तुम्हें सिद्धांतों का पालन करने में समर्थ बनाए, वो करो जो तुम्हें करना चाहिए, चीजों को सिद्धांतों के अनुसार संभालो, उस स्थिति में मजबूती से खड़े रहो जहाँ तुम्हें होना चाहिए, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करो और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने स्वार्थों को, अपने अभिमान और एक ‘खुशामदी व्यक्ति’ होने के दृष्टिकोण के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो, और अगर तुम एक ईमानदार, अविभाजित हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिए, तो तुम शैतान को हरा चुके होगे, और सत्य के इस पहलू को प्राप्त कर चुके होगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गई कि जब कभी मेरा मन और इरादा चापलूस बनने का हो तो मुझे परमेश्वर से और अधिक प्रार्थना करनी चाहिए और उससे अपने खिलाफ विद्रोह करने की शक्ति माँगनी चाहिए। दूसरों के साथ रिश्ते कायम रखने के बजाय मुझे सत्य का अभ्यास करना चाहिए, सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और कलीसिया के कार्य की रक्षा करने वाला बनना चाहिए। इस तरीके से मैं धीरे-धीरे इस पहलू की सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकती हूँ।
बाद में मुझे एक दूसरी कलीसिया के कार्य की निगरानी सौंप दी गई। यहाँ आने के कुछ दिन बाद मैंने देखा कि मेरे सहयोगी भाई-बहन रोज विभिन्न कार्यों में बहुत व्यस्त रहते हैं और कभी-कभी तो इतने व्यस्त रहते हैं कि वे संगति भी नहीं कर पाते हैं। उनका कलीसियाई जीवन सामान्य नहीं था। मैंने मन ही मन सोचा, “एक अगुआ और कार्यकर्ता होने की प्राथमिक जिम्मेदारी यह है कि एक अच्छा कलीसियाई जीवन सुनिश्चित किया जाए और परमेश्वर के वचन खाने-पीने और समझने के लिए भाई-बहनों की अगुआई की जाए ताकि वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करें। लेकिन अगर हर कोई रोज अपने कार्य में व्यस्त है और अपने ही जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित नहीं करता है तो वह एक अच्छा कलीसियाई जीवन जीने के लिए भाई-बहनों की अगुआई कैसे कर सकता है?” मैं वास्तव में यह समस्या सबको बताना चाहती थी लेकिन मैं यह सोचकर हिचकिचा गई, “मैं अभी-अभी यहाँ आई हूँ और अगर यह समस्या अभी बता दूँ तो कहीं ऐसा न लगे कि मैं यह दिखाना चाहती हूँ कि मैं कितनी लगन से सत्य का अनुसरण करती हूँ। यही नहीं, रोज करने के लिए ढेरा सारा कार्य होता है जो एक वास्तविक समस्या है। अगर मैं इस समस्या को अभी उठाती हूँ तो क्या उन्हें यह नहीं लगेगा कि मैं निष्ठुर हूँ और सिर्फ मीन-मेख निकालती रहती हूँ और इससे मेरी बुरी छवि बनेगी? इससे भविष्य में हमारे सहयोग और बातचीत में वास्तव में अजीब स्थिति पैदा हो जाएगी!” जब मैंने इस तरीके से सोचा तो मैं मुँह नहीं खोल पाई, लेकिन न बोलने के कारण मैं खुद को दोष भी देने लगी। मुझे लगा कि भले ही हम रोज व्यस्त रहते हैं लेकिन उचित योजना बनाकर हम अब भी सभाएँ करने का समय निकाल सकते हैं। यही नहीं, अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में अगर हम कलीसियाई जीवन जीने पर ध्यान नहीं देते और सत्य के लिए प्रयास नहीं करते हैं तो रास्ते से भटकना बहुत आसान हो जाएगा। अब ऐसा नहीं हो सकता था कि मैं समस्याएँ देखकर भी उन्हें न बताऊँ और पहले की तरह दूसरों के साथ रिश्ते कायम रखना जारी रखूँ। इससे मुझे और दूसरों को नुकसान होगा और कलीसिया के कार्य में भी देरी होगी। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “अगर तुम अपने स्वार्थों को, अपने अभिमान और एक ‘खुशामदी व्यक्ति’ होने के दृष्टिकोण के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो, और अगर तुम एक ईमानदार, अविभाजित हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिए, तो तुम शैतान को हरा चुके होगे, और सत्य के इस पहलू को प्राप्त कर चुके होगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। यह सोचकर मैंने सबके सामने वे समस्याएँ रख दीं जो मैंने देखी थीं और कलीसियाई जीवन जीने पर ध्यान न देने के दुष्परिणामों पर संगति की। अनेक सहकर्मियों ने भी बताया कि वे हाल-फिलहाल कलीसियाई जीवन जीने पर ध्यान नहीं दे रहे थे। भले ही वे रोज व्यस्त रहते थे, अंदर से वे खालीपन महसूस करते थे और अपनी ही दशाओं या अपने कार्य की समस्याओं के पीछे की असलियत नहीं जान पाते थे। वे इसे पूरी तरह बदलने के लिए तैयार थे। उसके बाद हमने सोच-समझकर अपने समय को नियोजित किया, नियमित रूप से संगति के लिए मिले, परमेश्वर के वचनों की रोशनी में अपनी दशाओं पर चिंतन किया और अपने कार्य में आने वाली किसी भी समस्या या भटकाव पर तुरंत संगति की। इस तरीके से अभ्यास करके हरेक को कुछ फायदा हुआ। हमें न सिर्फ अपने भ्रष्ट स्वभावों को और चीजों के बारे में अपने भ्रामक विचारों को पहचानने का विवेक हासिल हुआ, बल्कि हम अपने कार्य में आने वाली समस्याओं और भटकावों को भी ज्यादा स्पष्ट ढंग से देखने लगे।
इस अनुभव से गुजरने के बाद मैं अच्छी मानवता की सही समझ हासिल कर चुकी हूँ। अच्छी मानवता होने का मतलब सिर्फ इतना नहीं है कि हम दूसरों से लड़ते, झगड़ते, उन्हें दबाते या सताते न दिखाई दें। सच्ची अच्छी मानवता का मतलब है दूसरों में दिखाई देने वाली समस्याओं को बताने और उन पर संगति करने में सक्षम होना, लोगों को उनके कर्तव्य निभाने और जीवन प्रवेश में सहायता देना, सत्य के अनुरूप न दिखाई देने वाली चीजों के खिलाफ स्पष्ट रुख अपनाना, इन्हें बताने के लिए सिद्धांतों का पालन करना और कलीसिया के कार्य की रक्षा करना। इस बीच मैं चापलूस बनने की प्रकृति और दुष्परिणामों को और भी स्पष्टता से देखने लगी हूँ और मैं सचेत होकर अपने खिलाफ विद्रोह करने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण करने में सक्षम हो गई हूँ। परमेश्वर के उद्धार के कारण ही यह छोटा-सा परिवर्तन आया और मुझे समझ हासिल हुई। परमेश्वर का धन्यवाद!