1. जब कुछ होता है तो मैं अब अलग खड़ा नहीं रहता
मैं अपना कर्तव्य करने में काफी व्यस्त रहा, और लंबे समय से मैंने कोई काट-छाँट या अनुशासन का सामना नहीं किया था। रोज अपनी नियमित आध्यात्मिक भक्ति, परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और भजन सुनने के अलावा मैं बस अपना कर्तव्य करता आ रहा था। आखिर में मैंने न कोई सबक सीखा, और न मुझे पता था कि सबक कैसे सीखना है। हर दिन मैं इसी तरह भ्रमित होकर बिताता था, और अंदर से खालीपन महसूस करता था। कुछ समय बाद, मुझे लगा कि मेरा जीवन बिल्कुल भी आगे नहीं बढ़ा है, और मैंने किसी भी पहलू में सत्य में प्रवेश नहीं किया है; सब कुछ केवल शब्द और धर्म-सिद्धांतों के स्तर पर ही था, और मैं इस बारे में बहुत परेशान था। एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “उद्धार की उम्मीद किस आधार पर स्थापित की जाती है? यह सत्य की तरफ प्रयास करने, सत्य पर सोच-विचार करने और हर मामला होने पर सत्य में मेहनत करने की तुम्हारी क्षमता के आधार पर स्थापित की जाती है। तुम सिर्फ इसी आधार पर सत्य समझ सकते हो, सत्य का अभ्यास कर सकते हो और उद्धार प्राप्त कर सकते हो। लेकिन अगर तुम मामले होने पर हमेशा तमाशबीन बने रहते हो—कोई आकलन या विवरण प्रदान नहीं करते हो और कोई व्यक्तिगत राय व्यक्त नहीं करते हो—और किसी भी चीज पर तुम्हारा कोई विचार नहीं होता है या अगर कुछ विचार भी हों, तो भी तुम उन्हें व्यक्त नहीं करते हो और तुम्हें पता नहीं होता है कि वे सही हैं या गलत हैं, तुम बस उन्हें अपने मन में तालाबंद करके रखते हो और उनके बारे में सोचते रहते हो, तो अंत में, तुम सत्य प्राप्त किए बिना ही रह जाओगे। इस बारे में जरा सोचो, यह तो भयंकर अकाल की चपेट में रहते हुए एक बड़े भोज में बैठने जैसा है। क्या तुम दयनीय नहीं हो? अगर तुमने दस वर्षों से परमेश्वर के कार्य में विश्वास रखा है, लेकिन इस पूरे समय में तुम सिर्फ तमाशबीन बने रहे हो या तुमने 20 या 30 वर्षों से विश्वास रखा है और इस पूरे समय में तुम सिर्फ तमाशबीन बने रहे हो, तो अंत में जब तुम्हारे परिणाम निर्धारण का समय आएगा, तो परमेश्वर तुम्हारे रिकॉर्ड को दो अंक देगा और इसलिए तुम दो अंकों वाले बेवकूफ होगे और सत्य प्राप्त करने का अपना अवसर और बचाए जाने की अपनी उम्मीद खुद ही पूरी तरह से बर्बाद कर चुके होगे। अंत में तुम पर दो अंकों वाले बेवकूफ का ठप्पा लग जाएगा और तुम इसी के लायक होगे, है ना? (हाँ।) दो अंकों वाला बेवकूफ न होने के पीछे क्या राज़ है? (इसका राज़ है तमाशबीन न बनना।) तमाशबीन मत बनो। तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो फिर तुम्हें सत्य प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना चाहिए। कुछ लोग पूछ सकते हैं, ‘तो, क्या तुम चाहते हो कि मैं खुद को हर चीज में शामिल करूँ? लेकिन लोग तो कहते हैं, “दूसरे के फटे में टांग मत अड़ाओ।”’ तुम्हें खुद को शामिल करने के लिए कहने का मतलब यह है कि तुमसे सत्य खोजने और उन चीजों से सबक सीखने के लिए कहा जा रहा है जिनका तुम सामना करते हो। मिसाल के तौर पर, जब तुम एक विशेष प्रकार के व्यक्ति से मिलते हो, तो तुम्हें उसकी अभिव्यक्तियों और उसकी की हुई चीजों के जरिए सूझ-बूझ प्राप्त करनी चाहिए। अगर वह सत्य का उल्लंघन करता है, तो तुम्हें यह भेद पहचानना चाहिए कि उसने ऐसा क्या किया जो सत्य का उल्लंघन करता है। अगर दूसरे लोग किसी के बारे में कहते हैं कि वह बुरा व्यक्ति है, तो तुम्हें यह भेद पहचानना चाहिए कि उसने ऐसा क्या कहा और किया और उसके पास बुरे कर्मों की ऐसी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ हैं जिनके कारण उसे बुरे व्यक्ति के रूप में निरूपित किया गया है। अगर दूसरे लोग कहते हैं कि यह व्यक्ति परमेश्वर के घर के हितों का बचाव नहीं करता है और इसकी कीमत पर बाहर के लोगों की मदद करता है, तो तुम्हें यह पता लगाना चाहिए कि यह व्यक्ति क्या कर रहा है। और पता लगाने के बाद सिर्फ इन बातों को जान लेना ही काफी नहीं है। तुम्हें यह भी सोचना पड़ेगा : ‘क्या मैं ऐसा कर सकता हूँ? अगर कोई मुझे याद न दिलाए, तो शायद मैं भी यही चीजें कर सकता हूँ और तब क्या मेरा परिणाम भी उस व्यक्ति जैसा ही नहीं होगा? क्या यह खतरनाक नहीं है? खुशकिस्मती से परमेश्वर ने मुझे सावधान करने के लिए यह परिवेश तैयार किया है, जो मेरे लिए सबसे बड़ी सुरक्षा है!’ इस पर सोच-विचार करने के बाद तुम्हें एक बात का एहसास होता है : तुम उस मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकते जिसका अनुसरण उस प्रकार का व्यक्ति कर रहा है, तुम उस प्रकार के व्यक्ति नहीं बन सकते, तुम्हें खुद को चेताना चाहिए। तुम चाहे जिन चीजों का भी सामना करो, तुम्हें उनसे सबक जरूर सीखना चाहिए। अगर ऐसी चीजें हैं जिन्हें तुम पूरी तरह से नहीं समझते हो और जो तुम्हें अपने दिल में अजीब-सी लगती हैं, तो तुम्हें उनके बारे में प्रश्न पूछने चाहिए, उनके बारे में जानकारी हासिल करनी चाहिए और सत्य खोजकर मामलों की सही स्थिति का पता लगाना चाहिए। यह जिज्ञासा नहीं है; यह गंभीर होना है। गंभीर होने का मतलब औपचारिकताएँ पूरी करना या भीड़ के पीछे-पीछे चलना नहीं है—यह तो जिम्मेदारी लेने का रवैया है। समस्याओं के बारे में स्पष्टता प्राप्त करके और फिर उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजकर ही भविष्य में उसी तरह की परिस्थिति का सामना करने पर तुम्हारे पास अभ्यास का एक मार्ग होगा, बिल्कुल सही तरीके से अभ्यास करने की क्षमता होगी और शांत और सहज होने का एहसास होगा। तुम सभी मामलों में दूसरे लोगों का अनुसरण करने और हवा के रुख के साथ चलने के बजाय तथ्यों और मामलों की वास्तविक स्थिति को समझने का प्रयास करने, उनसे सत्य प्राप्त करने और लोगों और चीजों को देखने का तरीका सीखने के सिद्धांत के आधार पर गंभीर हो। सिर्फ अपने क्रियाकलापों में गंभीर होकर ही तुम सत्य का अभ्यास करना और सिद्धांतों के आधार पर कार्य करना शुरू कर सकते हो। जो लोग गंभीर नहीं हैं, उनके दूसरे लोगों का अनुसरण करने और हवा के रुख के साथ चलने की संभावना है और इस तरह से उनके सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने की संभावना रहती है” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों ने लोगों को सत्य के अनुसरण का मार्ग दिखाया जो कि उन लोगों, घटनाओं और चीजों से सबक सीखना होता है जिनका हम रोज सामना करते हैं। चाहे यह कुछ ऐसा हो जिसे हम देख, सुन या निजी तौर पर अनुभव कर रहे हों, हमें उसमें सत्य की तलाश करनी चाहिए। खासकर जब हम किसी को कलीसिया के काम में बाधा डालते और गड़बड़ी करते देखते हैं, तो ऐसा नहीं हो सकता कि हम सिर्फ जिज्ञासा के चलते सुन लें और उसे वहीं छोड़ दें। इसके बजाय हमें उस व्यक्ति के विशिष्ट व्यवहार को सक्रिय होकर समझना चाहिए, भेद पहचानने के लिए सत्य को खोजना चाहिए और उससे सबक सीखने चाहिए, इस बात पर मंथन करना चाहिए कि हम खुद वही गलतियाँ करने से कैसे बचें और कलीसिया के काम में विघ्न-बाधाएँ न डालें। केवल इसी तरह से हम सत्य को समझ सकते हैं और सबक सीख सकते हैं। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर इतने सारे सत्य व्यक्त करता है और सत्य वास्तविकता में प्रवेश के लिए हमें प्रशिक्षित करने को विभिन्न लोगों, घटनाओं, चीजों और परिवेशों की व्यवस्था करता है। उदाहरण के लिए, कलीसिया में बुरे लोगों, झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों का दिखना हमें लोगों और घटनाओं को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखने के लिए प्रशिक्षित करता है। लेकिन मैं अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों के बारे में गंभीर नहीं था। जो कुछ भी हुआ, मैंने बस सुना और फिर उसे जाने दिया। हर दिन मैंने हमेशा सतही तौर पर मामलों पर ध्यान दिया और मेरा जीवन आगे नहीं बढ़ा। अगर मैं इसी तरह चलता रहा तो मेरे जीवन को बहुत नुकसान होगा। इस पर मंथन करने के दौरान मुझे अंदर से और अधिक उज्ज्वल महसूस हुआ और तभी से मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य का अभ्यास शुरू करना चाहता था।
अप्रत्याशित रूप से उसी दिन मैंने देखा कि बहन विनी ने अचानक सभी कार्य समूहों को छोड़ दिया। मैंने मन ही मन सोचा, क्या उसे बरखास्त कर दिया गया? परमेश्वर की संगति के बारे में सोचते हुए मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर चाहता था कि हम दैनिक जीवन में अपने आसपास होने वाली चीजों के बारे में जिज्ञासु रहें, उनमें शामिल हों, सत्य की तलाश करें और केवल मूकदर्शक बने रहने के बजाय उनसे सबक सीखें। इसलिए मैंने कुछ भाई-बहनों से उसकी बरखास्तगी का कारण पूछा। मुझे पता चला कि वह घमंडी थी और उसे दूसरों को उपदेश देना पसंद था। जब से उसने पर्यवेक्षक की भूमिका सँभाली थी, जब भी वह देखती कि भाई-बहनों के कर्तव्यों की प्रभावशीलता कम हो रही है, तो वह सही-गलत में अंतर किए बिना उन्हें उपदेश देने लगती थी। जब भी वह भाई-बहनों के काम की खोज-खबर लेना चाहती, तो उनमें से कुछ डर जाते थे और वे उसके बारे में बहुत शिकायतें करने लगते थे। जब भाई-बहन सुझाव देते, तो वह स्वीकार नहीं करती थी और इसके बजाय उन्हें कठोरता से डांटती थी। सभी उससे बेबस महसूस करते थे और उन्होंने एक के बाद एक उसके व्यवहार की रिपोर्ट की थी। इसके अलावा उसके कर्तव्य से कोई लाभ नहीं होता था, इसलिए कलीसिया ने सिद्धांतों के अनुसार उसे बरखास्त कर दिया। मैं उसके प्रदर्शन के बारे में सुनकर हैरान था। मुझे उम्मीद नहीं थी कि वह इतनी घमंडी होगी कि वह लोगों को मनमाने ढंग से उपदेश दे, उन्हें बाधित करे और कलीसिया के सुसमाचार कार्य को सीधे प्रभावित करे। उसे बरखास्त किया जाना परमेश्वर की धार्मिकता थी। साथ ही, यह कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के हितों की रक्षा के लिए किया गया था। इसके बाद मैंने आत्म-चिंतन किया। कहीं मुझमें दूसरों को उपदेश देने की वही समस्या तो नहीं है जो विनी में है? मैंने दो साल पुराना अनुभव याद किया। उस समय मैं एक अगुआ के रूप में अपना कर्तव्य निभाने का अभ्यास कर रहा था। जब भाई-बहनों को कठिनाइयाँ होती थीं या वे बुरी स्थिति में होते थे, तो वे संगति के लिए मेरे पास आते थे और मैं उनकी स्थिति के अनुसार अपने अनुभव साझा करता था। इससे भाई-बहनों को कुछ हद तक मदद मिलती थी। जब मेरी सहयोगी बहन रीटा ऐसी समस्याओं का सामना करती थी जिन्हें वह समझ नहीं पाती थी, तो वह अक्सर मुझसे सलाह माँगती थी। मुझे लगने लगा कि मेरे पास कुछ सत्य वास्तविकताएँ हैं और लोगों और चीजों को देखने की मेरी क्षमता दूसरों से बेहतर है। कुछ समय से सुजैन और टिफनी सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग नहीं कर रही थीं। सुजैन अक्सर टिफनी की समस्याओं के बारे में बताती थी और टिफनी भी अक्सर सुजैन के बारे में कुछ भला-बुरा कहती थी। मैं सोचता था कि उन दोनों में ही समस्याएँ थीं और वे सत्य की तलाश नहीं कर रही थीं या आत्म-चिंतन नहीं कर रही थीं। एक बार सुजैन ने फिर से बताया कि टिफनी अपने कर्तव्य में सिद्धांतों का पालन नहीं कर रही है। वास्तविक स्थिति को समझे बिना मैंने मान लिया कि सुजैन फिर से बस छोटी-मोटी बातों पर मीन-मेख निकाल रही है और मैंने उसे कड़ाई से नसीहत दी, “तुम आत्म-चिंतन क्यों नहीं करती? तुम हमेशा दूसरों पर ध्यान केंद्रित करती हो, उनकी गलतियाँ पकड़ती रहती हो और उन्हें छोड़ती नहीं हो। तुम दोनों लगातार एक-दूसरे पर दोष मढ़ती रहती हो। क्या ये सिर्फ जबानी कहा-सुनी नहीं हैं? इससे कलीसिया के जीवन में विघ्न-बाधा पड़ रही है!” बाद में मुझे पता चला कि सुजैन की शिकायत उचित थी, लेकिन जब मैंने “काट-छाँट” की तब वह टिफनी के सिद्धांतों के उल्लंघन के बारे में बताने से बहुत डरने लगी। आखिरकार टिफनी ने सिद्धांतों के विरुद्ध काम किया और कलीसिया के काम को काफी नुकसान पहुँचाया। यह देखते हुए कि मेरी सिद्धांतहीन काट-छाँट ने केवल दूसरों को नुकसान पहुँचाया और परेशानियाँ पैदा कीं, मुझे एहसास हुआ कि विनी की बरखास्तगी मेरे लिए भी एक चेतावनी और ताकीद है। मुझे पता था कि इस पहलू को लेकर मेरा भ्रष्ट स्वभाव भी गंभीर था, इसलिए मैंने मन ही मन प्रार्थना की, परमेश्वर से विनती की कि वह सत्य को समझने और खुद को बेहतर तरीके से जानने में मेरा मार्गदर्शन करे, ताकि मैं भाई-बहनों को और अधिक नुकसान न पहुँचाऊँ।
एक दिन मैंने देखा कि बहन लोर्ना ने बहुत सारे डिजाइन नहीं बनाए हैं और मैंने मन ही मन सोचा कि डिजाइनिंग को लेकर उसकी दक्षता कुछ समय से कम चल रही थी। मैंने उसे पहले कुछ अच्छे तरीके और उपाय बताए थे, लेकिन फिर भी उसकी दक्षता में बहुत सुधार नहीं हुआ था। मुझे लगा कि वह बस बिना कोई जिम्मेदारी उठाए अपना कर्तव्य निभा रही है और सुधार लाने की कोशिश नहीं कर रही है। यह सोचकर मुझे गुस्सा आने लगा और मैं उसकी समस्याओं को लेकर उसे घेरना चाहता था। लेकिन जैसे ही मैं उसकी आलोचना करने वाला था, मुझे याद आया कि विनी भी बिना सोचे-समझे लोगों को डाँटना पसंद करती थी और इससे वे अपने कर्तव्य निभाते समय बेबस महसूस करते थे। मैंने मन ही मन सोचा, “हो सकता है कि लोर्ना अपने कर्तव्य में लापरवाह न हो, बल्कि उसे दूसरी कठिनाइयाँ हों? अगर मैंने असलियत समझे बिना उसे दोषी ठहरा दिया तो क्या वह बेबस नहीं हो जाएगी? मुझे पहले उसके कर्तव्य के बारे में पूछना चाहिए।” तब जाकर मुझे पता चला कि लोर्ना वास्तव में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहती थी, लेकिन कम काबिलियत और सिद्धांतों पर पकड़ न होने के कारण वह अक्सर कुछ बारीकियों पर अटक जाती थी। वह मेरे द्वारा सिखाए गए तरीकों को लचीले ढंग से लागू नहीं कर पाई थी, इसके कारण उसकी दक्षता कम हो गई थी। फिर मैंने उसकी कठिनाइयों के आधार पर उसे कुछ वास्तविक मार्गदर्शन दिया। बाद में उसकी दक्षता एक निश्चित स्तर तक सुधर गई। इसके बाद मैंने मन ही मन सोचा, “अच्छा हुआ कि मैंने लोर्ना को डाँटने से शुरुआत नहीं की, वरना वह आहत हो जाती।” इसलिए मैंने सत्य खोजा और अपने अंदर मौजूद समस्याओं पर आत्म-चिंतन किया।
अपनी आध्यात्मिक भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “अगर तुम केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देकर भाषण झाड़ते हो और उनकी काट-छाँट करते हो, तो क्या तुम उन्हें सत्य समझा सकते हो और वास्तविकता में प्रवेश करा सकते हो? जिसके बारे में तुम संगति करते हो, अगर वह व्यवहारिक नहीं है, अगर वह शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के अलावा कुछ नहीं है, तो तुम कितना भी उनकी काट-छाँट करो और उन्हें भाषण दो, उसका कोई लाभ नहीं होगा। क्या तुम्हें लगता है कि लोगों का तुमसे डरना और जो तुम उनसे कहते हो वह करना, और विरोध करने की हिम्मत न करना, उनके सत्य को समझने और समर्पण करने के समान है? यह एक बड़ी गलती है; जीवन प्रवेश इतना आसान नहीं है। कुछ अगुआ एक मजबूत छाप छोड़ने की कोशिश करने वाले एक नए प्रबंधक की तरह होते हैं, वे अपने नए प्राप्त अधिकार को परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर थोपने की कोशिश करते हैं ताकि हर व्यक्ति उनके अधीन हो जाए, उन्हें लगता है कि इससे उनका काम आसान हो जाएगा। अगर तुममें सत्य वास्तविकता का अभाव है, तो जल्दी ही तुम्हारे असली आध्यात्मिक कद का खुलासा हो जाएगा और तुम्हारे असली रंग उजागर हो जाएँगे, और तुम्हें हटाया भी जा सकता है। कुछ प्रशासनिक कार्यों में थोड़ी काट-छाँट और अनुशासन स्वीकार्य है। लेकिन अगर तुम सत्य पर संगति करने में अक्षम हो, तो अंत में तुम समस्याएँ हल करने में भी असमर्थ रहोगे और इससे कार्य के नतीजे प्रभावित होंगे। अगर, कलीसिया में चाहे जो भी समस्याएँ आएँ, तुम लोगों को व्याख्यान और दोष देना जारी रखते हो—अगर तुम हमेशा बस अपना आपा खोकर पेश आते हो—तो यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव है जो प्रकट हो रहा है, और तुमने अपनी भ्रष्टता का बदसूरत चेहरा दिखा दिया है। अगर तुम हमेशा किसी आसन पर खड़े होकर इसी तरह लोगों को भाषण देते रहे तो समय बीतने के साथ लोग तुमसे जीवन का पोषण प्राप्त नहीं कर सकेंगे, वे कुछ भी व्यावहारिक हासिल नहीं करेंगे, बल्कि उन्हें तुमसे घृणा और मितली आएगी। इसके अलावा, कुछ लोग ऐसे होंगे जो भेद पहचानने की कमी के कारण तुमसे प्रभावित होंगे और इसी तरह दूसरों को भाषण देंगे और उनकी काट-छाँट करेंगे। वे भी इसी तरह क्रोधित हो जाया करेंगे और अपना आपा खो दिया करेंगे। न केवल तुम लोगों की समस्याएँ हल करने में अक्षम होगे—तुम उनके भ्रष्ट स्वभाव को बढ़ावा भी दोगे। और क्या यह उन्हें विनाश के मार्ग पर नहीं ले जा रहा? क्या यह कुकर्म नहीं है? अगुआ को प्राथमिकता से सत्य और जीवन प्रदान करने के बारे में संगति करते हुए अगुआई करनी चाहिए। अगर तुम हमेशा मंच पर खड़े होकर दूसरों को व्याख्यान देते हो, तो क्या वे सत्य समझ पाएँगे? अगर तुम कुछ समय तक इसी तरह से काम करते रहे, तो जब लोग तुम्हारी असलियत देख लेंगे, वे तुम्हें छोड़ देंगे। क्या तुम इस तरह से काम करके लोगों को परमेश्वर के सामने ला सकते हो? तुम निश्चित रूप से नहीं ला सकते; तुम सिर्फ कलीसिया का काम खराब कर सकते हो और परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों को तुमसे घृणा करने और तुम्हें छोड़ देने के लिए बाध्य कर सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से, मुझे समझ आया कि अपने कार्य के दौरान, हम लोगों की अंधाधुंध तरीके से काट-छाँट नहीं कर सकते और उन्हें भाषण नहीं दे सकते; हमें असल पृष्ठभूमि और वास्तविक स्थिति को लेकर विचारशील होना चाहिए। यदि मामला कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा डालने या परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने से जुड़ा है, तो उस व्यक्ति की काट-छाँट की जा सकती है या उसे बरखास्त कर दूसरा काम दिया जा सकता है। हालाँकि, यदि कोई भाई या बहन सत्य सिद्धांतों को नहीं समझता, जिससे उसके कर्तव्य करने में कुछ विचलन और समस्याएँ आती हैं, या अपने भ्रष्ट स्वभाव के कारण वह अपने कर्तव्य खराब तरीके से करता है, तो हमें सत्य पर अधिक संगति करनी चाहिए और उसे निर्देश और सहायता प्रदान करनी चाहिए, जिससे उसे अपने मुद्दों को देखने और अभ्यास का मार्ग अपनाने की अनुमति मिले। यदि हम हमेशा क्रोधित होते हैं और हालात या पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना लोगों को भाषण देते हैं, तो न केवल यह उनकी असली समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने में विफल रहेगा, बल्कि यह उन्हें बेबस भी करेगा और कार्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा। उदाहरण के लिए, जब मैंने देखा कि लोर्ना की अपने कर्तव्य करने की दक्षता में सुधार नहीं हुआ है और उसने कुछ समय से बहुत प्रगति नहीं की है, तो मैंने मान लिया था कि वह अपना दिल नहीं लगा रही है, और मैंने अंदर ही अंदर उग्रता प्रकट की और उसे सबक सिखाना चाहा। लेकिन वास्तव में, वह भी अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहती थी; बस उसकी काबिलियत का स्तर कम था और उसकी सिद्धांतों पर पूरी तरह से पकड़ नहीं थी, जिसके कारण वह इसे करने में कम दक्ष थी। उसे मेरी अधिक मदद चाहिए थी। यदि मैं पृष्ठभूमि या प्रत्येक व्यक्ति की काबिलियत और आध्यात्मिक कद पर विचार किए बिना लोगों की काट-छाँट करता और उन्हें भाषण देता, तो मैं न केवल उनकी मदद न कर पाता, बल्कि उन्हें बेबस भी कर सकता था, जिससे वे नकारात्मक और उदास हो जाते और अपना कर्तव्य ठीक से नहीं कर पाते। क्या इससे गड़बड़ी नहीं होती? समय के साथ, भाई-बहन संभवतः मुझे पहचान लेते और मुझे अस्वीकार कर देते। इसने मुझे विनी की याद दिला दी। जब भी वह देखती कि भाई-बहन उसकी इच्छानुसार काम नहीं कर रहे हैं या अपने काम में थोड़ी-बहुत गलतियाँ कर रहे हैं, तो वह उन्हें अपना रुतबा दिखाती और भाषण देती, जिससे वे बेबस महसूस करते, इसलिए भाई-बहन जब भी सुनते कि वह उनके काम की जाँच करने आ रही है, तो डर जाते थे। उसकी मनमानी काट-छाँट के कारण, उसने सुसमाचार के कार्य में गंभीर रूप से विघ्न-बाधा डाली, जिसके कारण उसके खिलाफ व्यापक शिकायतें और कई रिपोर्टें सामने आईं। अंततः उसे सिद्धांत के आधार पर कलीसिया द्वारा बरखास्त कर दिया गया। इससे साफ हो गया कि सत्य के अनुसार कार्य न करना और अपनी इच्छानुसार लोगों को भाषण देने के बहुत गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
मैंने फिर गंभीरता से सोचा : मुझमें दूसरों को अंधाधुंध भाषण देने की प्रवृत्ति क्यों थी? इसके पीछे मूल कारण क्या था? इसलिए, मैंने परमेश्वर के संबंधित वचनों को ढूँढ़ा और मुझे यह अंश मिला : “अहंकार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की जड़ है। लोग जितने ज्यादा अहंकारी होते हैं, उतने ही ज्यादा अविवेकी होते हैं और वे जितने ज्यादा अविवेकी होते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का प्रतिरोध किए जाने की संभावना होती है। यह समस्या कितनी गम्भीर है? अहंकारी स्वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं और उनके दिल में परमेश्वर का कोई भय नहीं होता। भले ही लोग परमेश्वर में विश्वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्वर क़तई नहीं मानते। उन्हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्छ मसला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक व्यक्ति का अहंकारी स्वभाव उसे परमेश्वर, उसकी संप्रभुता और उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्यक्ति हमेशा दूसरों पर नियंत्रण स्थापित करने व सत्ता के लिए परमेश्वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्त होता है। इस तरह के व्यक्ति के हृदय में परमेश्वर के प्रति तनिक भी भय नहीं होता, परमेश्वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे जो इतने घमंडी होते हैं कि अपना विवेक खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पण नहीं कर पाते, यहाँ तक कि अपनी ही बड़ाई कर गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं और उन्हें परमेश्वर का बिल्कुल भी भय नहीं होता। यदि लोग उस मुकाम पर पहुँचना चाहते हैं जहाँ उनके दिल में परमेश्वर के प्रति भय हो तो सबसे पहले उन्हें अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करना होगा। जितना अधिक तुम अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करोगे, तुम्हारे दिल में परमेश्वर के लिए उतना ही अधिक भय होगा और केवल तभी तुम उसके प्रति समर्पित होकर सत्य प्राप्त कर सकते हो और उसे जान सकते हो। केवल सत्य को प्राप्त करने वाले ही वास्तव में मनुष्य होते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि लोगों को अंधाधुंध भाषण देने की मेरी प्रवृत्ति मेरे अहंकारी और दंभी स्वभाव से उपजी है। इस अहंकार और दंभ का मतलब था कि मैं अपने सामने आने वाले हालात की प्रकृति का तर्कसंगत रूप से गहन विश्लेषण करने में विफल रहा, वास्तव में मुद्दों की पृष्ठभूमि को नहीं समझ पाया, लोगों और घटनाओं को अपने अनुभवों और कल्पनाओं के आधार पर देखा, अपने स्वयं के निर्णय पर अत्यधिक भरोसा किया, लोगों पर अंधाधुंध फैसले सुनाए और उन्हें उपदेश दिए। एक अगुआ के रूप में कर्तव्य करते समय आत्म-चिंतन करते हुए मैंने देखा कि चूँकि मैं सत्य पर संगति करने और कुछ समस्याओं को हल करने में सक्षम था, और जिन बहनों के साथ मैंने सहयोग किया था, वे अक्सर उन मुद्दों की तलाश और चर्चा करने के लिए मेरे पास आती थीं, मुझे महसूस होने लगा कि लोगों और चीजों को देखने की मेरी क्षमता दूसरों की तुलना में बेहतर थी। इस प्रकार, मैंने इसे पूँजी की तरह देखा और मैं अहंकारी होना शुरू हो गया। उदाहरण के लिए, जब सुजैन ने बताया कि टिफनी के कर्तव्य के प्रदर्शन में कुछ समस्याएँ थीं, तो सामान्य परिस्थितियों में मुझे पहले हालात को समझना और उसे सत्यापित करना चाहिए था और फिर असल परिस्थितियों के अनुसार इससे निपटने के लिए संगति करनी चाहिए थी। हालाँकि, मैंने स्थिति का व्यक्तिपरक रूप से आकलन किया था। यह देखकर कि वे दोनों आमतौर पर सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग नहीं करती थीं और मामले सामने आने पर उन्हें आत्म-चिंतन करना नहीं आता था, मैंने निष्कर्ष निकाल लिया था कि टिफनी के बारे में सुजैन की रिपोर्ट शायद उग्रता से प्रेरित रही थी, और वह सिर्फ मीन-मेख निकाल रही थी, और मैंने सुजैन को बिना यह पता लगाए फटकार लगा दी थी, कि कौन सही है और कौन गलत। परिणामस्वरूप, सुजैन बाधित हो गई, जब बाद में उसने देखा कि टिफनी अपने कर्तव्य करने में सिद्धांतों का उल्लंघन कर रही थी, तो उसने इसकी रिपोर्ट करने की हिम्मत नहीं की, जिससे कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचा। इसी तरह, लोर्ना के मामले में भी मैंने अपने अनुभव के आधार पर उसका गहन विश्लेषण किया था, यह सोचा था कि चूँकि मैंने पहले ही उसका मार्गदर्शन किया था और उसने प्रगति नहीं की थी, तो इसका मतलब यह होना चाहिए कि वह अपने कर्तव्य को दिल से नहीं कर रही थी। मेरे अहंकारी स्वभाव ने मुझे उसे डाँटने के लिए मजबूर कर दिया था, जिसने उसे बाधित और व्यथित कर दिया होता। इससे मुझे एहसास हुआ कि मेरा अहंकारी स्वभाव बहुत गंभीर था। मैं अपनी कल्पनाओं के आधार पर लोगों के साथ व्यवहार कर रहा था, अपने माप के मानकों को सत्य सिद्धांतों के रूप में मान रहा था—मेरा अहंकार वास्तव में अनुचित था! जब भी मैं भविष्य में किसी समस्या का सामना करूँ, तो मुझे परमेश्वर का भय मानने वाले दिल से उनका सामना करना चाहिए, पहले परमेश्वर के सामने आकर और अधिक खोजना चाहिए, और भाई-बहनों के मुद्दों को अच्छी तरह से समझना चाहिए। मैं अपने अहंकारी स्वभाव के आधार पर आँख मूंदकर निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकता या लोगों को अंधाधुंध ढंग से फटकार नहीं लगा सकता, क्योंकि इससे न केवल भाई-बहनों को नुकसान पहुँचता है, बल्कि कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा आती है और परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचती है। इसके बाद मैंने अपने भ्रष्ट स्वभाव के इस पहलू को हल करने के लिए सत्य की खोज की।
अपनी खोज के दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “परमेश्वर के चुने हुए लोगों में जमीर और विवेक तो कम से कम होना ही चाहिए और उन्हें दूसरों के साथ परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित सिद्धांतों और मानकों के अनुसार बातचीत करना, जुड़ना और मिलकर काम करना चाहिए। यह सबसे अच्छा नजरिया है। यह परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम है। तो परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सत्य सिद्धांत क्या हैं? यह कि जब दूसरे कमजोर और नकारात्मक हों तो लोग उन्हें समझें, उनके दर्द और कठिनाइयों के प्रति विचारशील हों, और इन चीजों के बारे में पूछताछ करें, सहायता और समर्थन की पेशकश करें, उनकी समस्याएँ हल करने में उनकी मदद करने के लिए उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाएँ, उन्हें परमेश्वर के इरादे समझने और कमजोर न बने रहने में समर्थ बनाएँ और उन्हें परमेश्वर के सामने लाएँ। क्या अभ्यास का यह तरीका सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है? इस प्रकार अभ्यास करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। स्वाभाविक रूप से, इस प्रकार के संबंध और भी सिद्धांतों के अनुरूप होते हैं। जब लोग जानबूझकर बाधा डालते हैं और गड़बड़ी पैदा करते हैं, या जानबूझकर अपना कर्तव्य अनमने ढंग से निभाते हैं, अगर तुम यह देखते हो और सिद्धांतों के अनुसार उन्हें इन चीजों के बारे में बताने, फटकारने, और उनकी मदद करने में सक्षम हो, तो यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। अगर तुम आँखें मूँद लेते हो, या उनके व्यवहार की अनदेखी करते हो और उनके दोष ढकते हो, यहाँ तक कि उनसे अच्छी-अच्छी बातें कहते, उनकी प्रशंसा और वाहवाही करते हो, लोगों के साथ बातचीत करने, मुद्दों से निपटने और समस्याएँ सँभालने के ऐसे तरीके स्पष्ट रूप से सत्य सिद्धांतों के विपरीत हैं, और उनका परमेश्वर के वचनों में कोई आधार नहीं है। तो, लोगों के साथ बातचीत करने और मुद्दों से निपटने के ये तरीके स्पष्ट रूप से अनुचित हैं, और अगर परमेश्वर के वचनों के अनुसार उनका गहन विश्लेषण और पहचान न की जाए, तो वास्तव में इसका पता लगाना आसान नहीं है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (14))। “परमेश्वर हर एक व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है? कुछ लोग अपरिपक्व कद वाले होते हैं; या कम उम्र के होते हैं; या उन्होंने सिर्फ कुछ समय के लिए परमेश्वर में विश्वास किया होता है; या वे प्रकृति-सार से बुरे नहीं होते, दुर्भावनापूर्ण नहीं होते, बस थोड़े अज्ञानी होते हैं या उनमें क्षमता की कमी होती है। या वे बहुत अधिक बाधाओं के अधीन हैं, और उन्हें अभी सत्य को समझना बाकी है, जीवन-प्रवेश पाना बाकी है, इसलिए उनके लिए मूर्खतापूर्ण चीजें करने या नादान हरकतें करने से खुद को रोक पाना मुश्किल है। लेकिन परमेश्वर लोगों के मूर्खता करने पर ध्यान नहीं देता; वह सिर्फ उनके दिलों को देखता है। अगर वे सत्य का अनुसरण करने के लिए कृतसंकल्प हैं, तो वे सही हैं, और अगर यही उनका उद्देश्य है, तो फिर परमेश्वर उन्हें देख रहा है, उनकी प्रतीक्षा कर रहा है, परमेश्वर उन्हें वह समय और अवसर दे रहा है जो उन्हें प्रवेश करने की अनुमति देता है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर उन्हें एक अपराध के लिए भी खारिज कर देगा। ऐसा तो अक्सर लोग करते हैं; परमेश्वर कभी भी लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता। जब परमेश्वर लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता, तो लोग दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं? क्या यह उनके भ्रष्ट स्वभाव को नहीं दर्शाता है? यह निश्चित तौर पर उनका भ्रष्ट स्वभाव है। तुम्हें यह देखना होगा कि परमेश्वर अज्ञानी और मूर्ख लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, वह अपरिपक्व अवस्था वाले लोगों के साथ कैसे पेश आता है, वह मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के सामान्य प्रकाशनों से कैसे पेश आता है और दुर्भावनापूर्ण लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार करता है। परमेश्वर अलग-अलग तरह के लोगों के साथ अलग-अलग ढंग से पेश आता है, उसके पास विभिन्न लोगों की अलग-अलग दशाओं को प्रबंधित करने के भी कई तरीके हैं। तुम्हें इन सत्यों को समझना होगा। एक बार जब तुम इन सत्यों को समझ जाओगे, तब तुम मामलों को अनुभव करने का तरीका जान जाओगे और लोगों के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने लगोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि हर व्यक्ति की काबिलियत और आध्यात्मिक कद अलग-अलग होते हैं, और अलग-अलग समय पर वे जिस पृष्ठभूमि और परिवेश में होते हैं, वह भी अलग-अलग होता है। उनकी दशा और कठिनाइयाँ भी अलग-अलग होती हैं। हालाँकि, कर्तव्य करने में उन सभी को समस्याएँ और विचलन आते हैं, लेकिन इन समस्याओं की प्रकृति अलग-अलग होती है। अभी-अभी कर्तव्य करना शुरू करने वाले कुछ लोगों को पेशेवर कौशल से अनजान होने के कारण संघर्ष करना पड़ सकता है, और ऐसे मामलों में, हमें उन्हें परमेश्वर के इरादे समझने के लिए उनका मार्गदर्शन करते हुए प्रेम से सहायता और संगति देनी चाहिए, ताकि वे अपने कर्तव्य करने में अभ्यास का मार्ग पा सकें। दूसरों के लिए, यदि वे सत्य समझते हैं, लेकिन इसे अभ्यास में लाने में विफल रहते हैं, लगातार लापरवाह रहते हैं और कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा पैदा करते हैं, तो उन्हें काट-छाँट की जरूरत है। यदि प्रकृति गंभीर है, तो सिद्धांतों के अनुसार उन्हें दूसरा काम सौंपना या बरखास्त करना जरूरी हो सकता है। परमेश्वर के घर में लोगों के साथ व्यवहार करने के सिद्धांत होते हैं; यह उनकी पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है और इसका सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। हालाँकि, भाई-बहनों के साथ व्यवहार करते समय अक्सर मेरे पास सिद्धांतों की कमी होती थी, मैं मनमाने ढंग से फैसले सुनाता था और अहंकारी स्वभाव से उन्हें फटकार लगाता था, जो पूरी तरह से अनुचित था! बहन सुजैन के बारे में आत्म-चिंतन करते हुए, हालाँकि वह टिफनी के खिलाफ पक्षपाती हो गई थी, मुझे पहले यह सत्यापित करना चाहिए था कि टिफनी द्वारा अपने कर्तव्य में सिद्धांतों का उल्लंघन करने को लेकर उसकी रिपोर्ट सच थी या नहीं। अगर मैं बिना समझे सिर्फ मीन-मेख निकालने के तौर पर हालात से निपटता, तो न सिर्फ इससे सुजैन की मदद नहीं होती, बल्कि इससे उसे नुकसान होता और वह बाधित होती। इसी तरह, हालाँकि बहन लोर्ना की अपने कर्तव्य को करने की दक्षता कम थी, मुझे यह समझना था कि क्या यह उसकी काबिलियत की कमी के कारण था या इसलिए कि वह अपने कर्तव्य करने में लापरवाह और उदासीन थी। मुझे पहले एक स्पष्ट समझ हासिल करनी होगी और फिर सिद्धांतों के अनुसार इसे सँभालना होगा। महज दिखावे के आधार पर निर्णय लेना और निष्कर्षों तक पहुँच जाना न सिर्फ दूसरों की मदद करने में नाकाम रहता है, बल्कि उन्हें और अधिक नकारात्मक और निष्क्रिय बना सकता है। अब जब मैं लोगों के साथ व्यवहार करने के कुछ सिद्धांतों को समझ गया हूँ, तो मुझे भविष्य में परमेश्वर के वचनों के अनुसार भाई-बहनों के साथ व्यवहार करने का अभ्यास करना चाहिए।
हाल ही में, हालाँकि मुझे किसी भी तरह की काट-छाँट का सामना नहीं करना पड़ा है, लेकिन विनी की विफलता पर आत्म-चिंतन करने से मुझे दूसरों को अंधाधुंध तरीके से फटकार लगाने की अपनी प्रवृत्ति का एहसास हुआ है। मुझे एहसास हुआ है कि यह मेरे अहंकारी स्वभाव के हावी होने के कारण होता है, मैंने भाई-बहनों के साथ व्यवहार करने के सिद्धांतों को भी सीखा है, जिससे मुझे कुछ लाभ हुआ। अब, मैं देखता हूँ कि सत्य की खोज और दैनिक परिस्थितियों से सबक सीखना सचमुच आवश्यक है। मुझे एहसास हुआ है कि अगर हम सत्य को समझना चाहते हैं और जीवन में आगे बढ़ना चाहते हैं, तो हमें कुछ हासिल करने के लिए बड़ी काट-छाँट, परीक्षण या शोधन की प्रतीक्षा नहीं करनी है। कुंजी हमारे आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से शुरू करना है। भले ही वह वह हो जिसे हम देखते हैं, सुनते हैं, या व्यक्तिगत रूप से अनुभव करते हैं, हमें उनमें ऐसे दिल से शामिल होना चाहिए जिसे सत्य की तलाश है। फिर हमें परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों की तलाश करनी चाहिए और लोगों और चीजों को देखना, खुद को ढालना और सत्य के अनुसार कार्य करना सीखना चाहिए। इस तरह हमारा जीवन बढ़ता रह सकता है।