2. एक सैनिक के सुसमाचार-प्रचार मार्ग के उतार-चढ़ाव
साल 2021 में अंत के दिनों का परमेश्वर का सुसमाचार स्वीकारने के तुरंत बाद मैं सुसमाचार फैलाने लगा। एक बार मैंने 20 से अधिक साथियों को उपदेश सुनने बुलाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़कर और अंत के दिनों के उसके कार्य की संगति और उसकी गवाही के जरिए अंततः उन सबने सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकार लिया। मैं बहुत खुश था, और मुझमें सुसमाचार फैलाना जारी रखने की आस्था थी।
सुसमाचार फैलाना शुरू करने के कुछ ही समय बाद, मेरी पलटन का लीडर मुझे सताने लगा। उसने कहा मैं परमेश्वर में अपनी आस्था में हद पार कर गया हूँ, और उसने सैन्य दस्ते के सामने यह बात कही : “मैं तुम्हें तैयार करके दस्ते का लीडर बनाने की सोच रहा था, मगर अब तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और मेरी बात नहीं सुनते—तुम पछताओगे! आगे से, तुम्हारे माँ-बाप मर भी जाएँ, तो मैं तुम्हें छुट्टी नहीं लेने दूँगा।” पलटन लीडर की बातें सुनकर कुछ साथियों ने भी मेरी खिल्ली उड़ाई : “सभी बुद्ध को मानते हैं; तुम परमेश्वर में विश्वास कर हमारी आस्था को ठेस पहुँचा रहे हो।” इतने सारे लोगों के उपहास और अपमान का सामना करके, मैं थोड़ा कमजोर महसूस करने लगा, और फौरन वहां से निकल गया। मैंने एक शांत जगह ढूँढ़ी और घुटने टेककर प्रार्थना की : “परमेश्वर, पलटन लीडर ने मुझे फटकारकर बेइज्जत किया, साथियों ने मेरा मजाक उड़ाया। मैं बहुत कमजोर हूँ; मुझे आस्था और शक्ति दो। मुझे पता है मेरी परीक्षा ली जा रही है, मैं इसका असर खुद पर या अपने कर्तव्य पर पड़ने नहीं दे सकता।” जल्द ही अग्रिम पंक्तियाँ लड़ाई में उतर गईं और सैन्य दस्ते कमरों पर कड़ी नजर रखने लगे। एक रात मैं नए विश्वासियों के सिंचन की तैयारी कर रहा था, मगर मुझे लगा इन दिनों हमारी सख्त निगरानी की जा रही है, और अगर कोई छिपकर बाहर जाता तो उसे दंड दिया जाता। उसे डाँटा-पीटा जाता या बाँधकर पूरी रात बाहर छोड़ दिया जाता। मुझे डर था कि पलटन लीडर को मेरे अक्सर बाहर जाने का पता चला तो वह यकीनन मुझे डाँट-पीटकर बेइज्जत करेगा। इसी डर से मैंने बाहर जाकर नए सदस्यों के सिंचन की हिम्मत नहीं की। मैंने अपने विचार अपने जोड़ीदार कार्टर को बताए। कार्टर ने कहा : “तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा की बहुत परवाह है। परमेश्वर ने हमारे लिए ऐसा परिवेश बनाया है ताकि हम देख सकें कि हम कैसे इसका अनुभव करते हैं और क्या कोई सबक सीख पाते हैं। तुम्हें परमेश्वर से और अधिक प्रार्थना और आत्मचिंतन करना चाहिए। अगर तुम अपने घमंड और आत्मसम्मान के चक्कर में दूसरों से खिल्ली न झेल पाने के कारण अपना कर्तव्य त्याग देते हो तो यह कैसी समस्या है? अगर तुम गाँव के उन नए विश्वासियों का सिंचन करने नहीं जाते हो, तो क्या तुम अपने कर्तव्य को हल्के में लेकर गैर-जिम्मेदार नहीं बन रहे हो?” उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भी भेजा : “तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए। यह मनुष्य का सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीक़े से विश्वासघात कर रहे हो। इसमें, तुम यहूदा से भी अधिक शोचनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए। परमेश्वर के सौंपे हुए कार्य को कैसे लिया जाए, लोगों को इसकी पूरी समझ हासिल करनी चाहिए, और उन्हें कम से कम यह समझना चाहिए कि वह मानवजाति को जो आदेश देता है, वे परमेश्वर से मिले उत्कर्ष और विशेष कृपाएँ हैं, और वे सबसे शानदार चीजें हैं। अन्य सब-कुछ छोड़ा जा सकता है। यहाँ तक कि अगर किसी को अपना जीवन भी बलिदान करना पड़े, तो भी उसे परमेश्वर का आदेश पूरा करना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़कर, मैं समझ गया कि अपना कर्तव्य निभाने के लिए खुद को जिम्मेदार ठहराने का रवैया बहुत महत्वपूर्ण है। परमेश्वर ने मुझे ऊपर उठाकर कर्तव्य निभाने का यह मौका दिया, इसलिए मुझे अपने कर्तव्य पर कायम रहकर उसे पूरा करने के लिए पूरा दमखम लगाना होगा। मैं एक सृजित प्राणी हूँ, मैंने परमेश्वर के बहुत से वचन खाए-पिए हैं, उसकी इच्छा-अपेक्षाओं को समझा है, और अब थोड़ी कठिनाई सामने आते ही अपना कर्तव्य त्याग रहा हूँ। मैंने परमेश्वर को धोखा दिया है। मुझे उन आम लोगों का ख्याल आया जो कभी भी युद्ध का सामना कर सकते हैं, जो रोज घबराहट में जीते हैं। परमेश्वर ने मुझे इस परिवेश में डाला ताकि मैं बिना देरी किए इन लोगों में सुसमाचार फैला सकूँ, इन नए विश्वासियों का ठीक से सिंचन कर सकूँ, जिससे वे सच्चे मार्ग पर अपनी नींव डालकर उद्धार पा सकें, और आपदा के बीच परमेश्वर का संरक्षण पा सकें। परमेश्वर मेरी वफादारी देखना चाहता है, उसे उम्मीद है कि मैं आस्था रखकर अपनी गवाही में अडिग रहूँगा, वह मुझे अपना कर्तव्य निभाते हुए पीछे हटते नहीं देखना चाहता, मगर मैं अपमान का सामना करके अडिग नहीं रह सका, मैंने अपना कर्तव्य हल्के में लेकर अपनी जिम्मेदारी नहीं ली। यह परमेश्वर से धोखा है, यहूदा से भी गंभीर धोखा, और मैं धिक्कारे जाने लायक हूँ। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने समझा कि हालात जैसे भी हों, मुझे कितना भी कष्ट या अपमान सहना पड़े, भले ही मेरी जान चली जाए, मुझे परमेश्वर का सौंपा गया हर कार्य पूरा करना होगा। यही वो जिम्मेदारी और कर्तव्य है जो मुझे पूरा करना चाहिए। उसके बाद, सुसमाचार फैलाने और नए विश्वासियों का सिंचन करने के लिए मैंने दो भाइयों को साथ लिया। एक महीने में 27 लोगों ने सुसमाचार को स्वीकारा, और फिर उन्हें कलीसिया को सौंप दिया गया। मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन का बहुत आभारी था, मैंने अपने दिल में शांति महसूस की।
बाद में हमारे दस्तों की बदली हो गई और मुझे दूसरी जगह भेज दिया गया। कुछ नए विश्वासी नहीं जानते थे कि पलटन लीडर परमेश्वर के विश्वासियों को सताता है, तो उन्होंने उसे सुसमाचार सुनाने की कोशिश की, तब पलटन लीडर गाँव वालों के बीच सुसमाचार फैलाने वाले का पता लगाने में जुट गया। मैं डर गया : “क्या गाँव वालों के बीच मेरे सुसमाचार फैलाने का पता चल जाएगा? क्या दस्ते का लीडर मुझे गिरफ्तार कर जेल भेज देगा? तब मुझे पक्के तौर पर कष्ट और अपमान झेलना होगा। बेहतर होगा कि मैं फिर से सुसमाचार फैलाना शुरू करने के लिए थोड़ा और इंतजार कर लूँ। इस तरह मैं पकड़ा नहीं जाऊँगा; मैं फिर से अपमान नहीं झेलना चाहता।” इसलिए मैं सुसमाचार फैलाने तीन दिन बाहर नहीं निकला। भले ही मैं हर रात ऑनलाइन सभाओं में हिस्सा लेता था, पर अंदर से खाली महसूस करता था। मैंने कर्तव्य निभाने में पहले की तरह सहज महसूस नहीं किया।
बाद में एक बहन ने मेरी मनोदशा भाँपकर परमेश्वर के वचनों का एक अंश मुझे भेजा : “तुम लोगों को लगता है कि तुम्हारे अंदर मेरे प्रति बहुत ईमानदारी और निष्ठा है। तुम लोग सोचते हो कि तुम बहुत ही रहमदिल, बहुत ही करुणामय हो और तुमने मेरे प्रति बहुत समर्पण किया है। तुम लोग सोचते हो कि तुम लोगों ने मेरे लिए पर्याप्त से अधिक किया है। लेकिन क्या तुम लोगों ने कभी इसे अपने कामों से मिलाकर देखा है? मैं कहता हूँ, तुम लोग बहुत ही घमंडी, बहुत ही लालची, बहुत ही लापरवाह हो; और जिन चालबाज़ियों से तुम मुझे मूर्ख बनाते हो, वे बहुत शातिर हैं, और तुम्हारे इरादे और तरीके बहुत घृणित हैं। तुम लोगों की वफ़ादारी बहुत ही थोड़ी है, तुम्हारी ईमानदारी बहुत ही कम है, और तुम्हारी अंतरात्मा तो और अधिक क्षुद्र है। ... जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, तब तुम अपने हितों, अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा, अपने परिवार के सदस्यों के बारे में ही सोच रहे होते हो। तुमने कब मेरे लिए क्या किया है? तुमने कब मेरे बारे में सोचा है? तुमने कब अपने आप को, हर कीमत पर, मेरे लिए और मेरे कार्य के लिए समर्पित किया है? मेरे साथ तुम्हारी अनुकूलता का प्रमाण कहाँ है? मेरे साथ तुम्हारी वफ़ादारी की वास्तविकता कहाँ है? मेरे प्रति तुम्हारे समर्पण की वास्तविकता कहाँ है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें मसीह के साथ अनुकूलता का तरीका खोजना चाहिए)। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़कर आत्मचिंतन किया। पहले, मुझे लगता था कि मैं परमेश्वर के प्रति समर्पित होकर खुद को खपा रहा हूँ। परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के बाद मैंने अग्रिम मोर्चे पर रहकर भी हमेशा सुसमाचार फैलाया। एक बार मैं नए विश्वासियों का सिंचन कर लौट रहा था तो मेरे कमांडर ने दुश्मन समझकर मुझ पर बंदूक तान ली थी। सौभाग्य से एक भाई ने मुझे फौरन पहचान लिया तो उसने बंदूक का घोड़ा नहीं दबाया। मुझे लगता था कि इस तरह से सुसमाचार फैलाकर, परमेश्वर के लिए खुद को खपाकर, काफी कष्ट सहकर और कुछ लोगों को हासिल कर मैं पहले से ही परमेश्वर के प्रति वफादार था, और वह मुझसे संतुष्ट होगा। मगर असल में, मैं बिलकुल वफादार नहीं था। अपना कर्तव्य निभाते हुए मैं सबसे पहले अपनी प्रतिष्ठा और हितों की सोचता था मुझे डर था कि पलटन लीडर ने मुझे बाहर जाकर सुसमाचार फैलाते पकड़ लिया तो डाँट-पीटकर बेइज्जत करेगा; मुझे अपमान का डर था। इसलिए मैंने कर्तव्य निभाना बंद कर न सुसमाचार फैलाया, न नए विश्वासियों का सिंचन किया। पलटन लीडर गाँव वालों के बीच सुसमाचार फैलाने वाले का पता लगाने में जुटा था, मुझे डर था कहीं उसे इसमें मेरा हाथ होने का पता न चल जाए, और वह मुझे गिरफ्तार करके जेल न भेज दे, इसलिए मैंने कर्तव्य निभाना फिर बंद कर दिया। बार-बार ऐसे हालात का सामना करते हुए, मैंने बस अपनी प्रतिष्ठा की परवाह की। जब कभी मेरी प्रतिष्ठा या मेरे अपमान की बात आती, तो मैं अपने कर्तव्य को किनारे कर इसे निभाना बंद कर देता। मैंने देखा कि भले ही मैं परमेश्वर के लिए खपने को तैयार था, लेकिन जब भी अपने हितों की बात आती तो मैं खुद को बचाने की सोचता था और कलीसिया के कार्य की रक्षा बिल्कुल नहीं करता था। मैं अपने कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदार नहीं था, मुझमें अंतरात्मा या विवेक भी नहीं था। अब मैंने पहचान लिया कि मैं परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं था, उतना ईमानदार नहीं था, मैं बहुत स्वार्थी और नीच था!
तब, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे काफी प्रेरणा मिली : “सुसमाचार फैलाना हर किसी की जिम्मेदारी और दायित्व है। किसी भी समय, चाहे हम जो कुछ भी सुनें या जो कुछ भी देखें, या चाहे जिस भी प्रकार के व्यवहार का सामना करें, हमें सुसमाचार फैलाने का यह दायित्व हमेशा निभाना चाहिए। नकारात्मकता या दुर्बलता के कारण किसी भी परिस्थिति में हम इस कर्तव्य को तिलांजलि नहीं दे सकते। सुसमाचार फैलाने के कर्तव्य का निर्वहन सुचारु और आसान नहीं होता, अपितु खतरों से भरा होता है। जब तुम लोग सुसमाचार का प्रसार करोगे, तब तुम्हारा सामना देवदूतों या दूसरे ग्रहों के प्राणियों या रोबोटों से नहीं होगा। तुम लोगों का सामना केवल दुष्ट और भ्रष्ट मनुष्यों, जीवित दानवों, जानवरों से होगा—वे सब मनुष्य हैं जो इस बुरे स्थान पर, इस बुरे संसार में रहते हैं, जिन्हें शैतान ने गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है, और जो परमेश्वर का विरोध करते हैं। इसलिए सुसमाचार के प्रसार की प्रक्रिया में निश्चित रूप से सभी प्रकार के खतरे हैं, क्षुद्र लांछनों, उपहासों और गलतफहमियों की तो बात छोड़ ही दें, जो सामान्य घटनाएँ हैं। यदि तुम सुसमाचार फैलाने को सचमुच अपनी जिम्मेदारी, उत्तरदायित्व और कर्तव्य मानते हो, तो तुम इन चीजों पर सही ढंग से ध्यान दे पाओगे और इन्हें सही ढंग से सँभाल भी पाओगे। तुम अपनी जिम्मेदारी और अपने दायित्व को तिलांजलि नहीं दोगे, और न ही इन चीजों के कारण तुम सुसमाचार फैलाने और परमेश्वर की गवाही देने के अपने मूल मंतव्य से भटकोगे, और तुम कभी इस जिम्मेदारी को अलग नहीं रखोगे, क्योंकि यह तुम्हारा कर्तव्य है। इस कर्तव्य को कैसे समझना चाहिए? यह मानव-जीवन का मूल्य और मुख्य दायित्व है। अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य का शुभ समाचार और परमेश्वर के कार्य का सुसमाचार फैलाना मानव-जीवन का मूल्य है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने समझा कि सुसमाचार फैलाना कोई आसान काम नहीं है। हम भ्रष्ट मानवजाति से पेश आ रहे हैं इसलिए सुसमाचार फैलाते हुए हम तमाम खतरों का सामना करेंगे ही, जैसे कि मार-पीट, डाँट-फटकार, अपमान, उपहास और बदनामी—इन्हें टाल नहीं सकते। सुसमाचार फैलाना परमेश्वर के सभी विश्वासियों का अटल कर्तव्य है। चाहे जो जुल्म सहने पड़ें, चाहे दूसरे जैसे भी बेइज्जत करें या खिल्ली उड़ाएँ, कोई भी अपना कर्तव्य नहीं छोड़ सकता और संकट की घड़ी आने पर व्यक्ति को परमेश्वर तभी याद रखेगा जब वह अपना कर्तव्य अच्छे से निभाता हो। परमेश्वर ने मुझे जो कर्तव्य और जिम्मा सौंपा है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है, मुझे अपना घमंड और आत्म-सम्मान छोड़ना चाहिए और सुसमाचार फैलाकर परमेश्वर की गवाही देते रहना चाहिए, और भी ज्यादा लोगों को परमेश्वर के समक्ष लाकर अपनी जिम्मेदारी निभाते रहनी चाहिए। परमेश्वर की गवाही देकर शैतान को अपमानित करने का यही सबसे अच्छा तरीका है। पलटन लीडर चाहे मुझे कितना भी फटकारे या अपमानित करे, साथी मेरा कैसे भी मजाक उड़ाएँ, भले ही वे मुझे किसी पेड़ से बाँधकर लटका दें, फिर भी मुझे सुसमाचार फैलाकर परमेश्वर का गवाह बनना होगा।
बाद में हमारे दस्ते की फिर दूसरी जगह बदली हो गई और मेरे पास बाहर जाकर सुसमाचार फैलाने का रास्ता नहीं बचा, तो मैं अपने कई सैनिक भाइयों के बीच ऑनलाइन सुसमाचार फैलाने लगा। मैंने फोन पर एक ग्रुप बनाकर इन भाइयों को उससे जोड़ दिया। एक बार जब मेरा ध्यान कहीं और था, पलटन लीडर ने अचानक मेरा फोन ले लिया और मुझसे कहा : “अगर तुम लिखित हलफनामा देकर साबित करो कि तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं करते तो मैं फोन लौटा दूँगा।” मैंने कहा : “जब मैंने कुछ भी गलत नहीं किया, तो आपने मेरा फोन क्यों जब्त किया?” पलटन लीडर ने कहा : “तुम परमेश्वर में अपनी आस्था में बहुत आगे बढ़ चुके हो। वा लोगों की आस्था उनकी पार्टी में है—परमेश्वर में विश्वास करना गैरकानूनी है!” यह कहते हुए उसने एक फावड़ा उठाकर मुझे मारा। अगले दिन, पलटन लीडर को मेरे फोन में भाइयों और मेरे बीच की बातचीत का ब्यौरा मिल गया, परमेश्वर के वचन, कलीसिया की फिल्में और वीडियो भी उसके हाथ लग गए। उसने मुख्यालय में अपने वरिष्ठों को इसकी रिपोर्ट कर दी। कमांडर ने मुझसे पूछा : “तुमने सर्वशक्तिमान परमेश्वर को कहाँ स्वीकारा? कलीसिया में तुम्हारा ओहदा क्या है? तुमने किसके साथ सुसमाचार साझा किया है? हमारे दस्ते में कितने विश्वासी हैं?” उसके सवाल सुनकर मैं डर गया और थोड़ा-सा काँपने लगा। मैंने सोचा : “अगर मैंने सच बताया, तो यहूदा की तरह परमेश्वर को धोखा दूँगा, अगर नहीं बताया, तो कमांडर और दूसरे लोग इन भाइयों से पूछने जाएँगे कि उन्हें किसने सुसमाचार सुनाया और अगर उन्होंने मेरा नाम ले लिया तो मेरी किस्मत और खराब होनी तय है।” मैं मन-ही-मन परमेश्वर से बार-बार प्रार्थना करता रहा, अपनी गवाही में अडिग रहने के लिए मुझे रास्ता दिखाने और हिम्मत देने की विनती की, ताकि चाहे कितना भी अपमान या कष्ट सहना पड़े, मैं अपने भाई-बहनों को धोखा देकर यहूदा न बनूँ। और फिर, मैंने कहा : “सर्वशक्तिमान परमेश्वर में मेरी आस्था का मतलब सभाएँ करना और परमेश्वर की आराधना करना है।” उसके बाद मैंने उनके एक भी सवाल का जवाब नहीं दिया।
अंत में, उन्होंने मुझे वापस भेजकर कैदखाने में डाल दिया। उन्होंने मेरे और तीन अन्य लोगों के पैर एक साथ बाँध दिए। खाते, सोते और टॉयलेट जाते हुए भी हम चारों एक साथ होते, चलना-फिरना भी मुश्किल था। मेरा दिल थोड़ा कमजोर पड़ने लगा : “मुझे कैदखाने में डालकर हथकड़ी और बेड़ियाँ लगा दी गई हैं। अविश्वासी साथी मुझे देखकर क्या सोचेंगे? क्या वे भी यही कहेंगे कि मैं परमेश्वर में अपनी आस्था में बहुत आगे बढ़ गया था?” ये बातें सोचकर मुझे शर्मिंदगी हुई और लगा कि मेरी प्रतिष्ठा धूल में मिल गई। मैं मानसिक रूप से टूटने के कगार पर था। मैं इस माहौल से बाहर निकलने में परमेश्वर की मदद चाहता था, अब और इस तरह अपमानित नहीं होना चाहता था। खाना खाते समय भी हथकड़ियाँ लगी होती थीं, और दूसरे सैनिक मेरा मजाक उड़ाते : “तुम अपने परमेश्वर से हथकड़ियाँ खोल देने के लिए क्यों नहीं कहते?” मैं सिर झुकाकर खाना खाता, ऊपर देखने की हिम्मत नहीं होती थी, मन-ही-मन प्रार्थना करता रहता : “परमेश्वर, मैं कष्ट में हूँ। मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। मुझे रास्ता दिखाओ, आस्था और शक्ति दो, ताकि मैं अपमान का सामना कर सकूँ।” प्रार्थना करके मैंने खुद को अधिक मजबूत पाया, मुझे एक भजन याद आया, “अपनी पसंद पर अफ़सोस नहीं” :
1 जब शैतान द्वारा ईसाइयों की गिरफ्तारी और यातना अत्यधिक वहशी हो गई, जब शहर अंधेरे ख़ौफ़ में होता है, और मैं जहाँ भाग सकूँ वहाँ भागूंगा, जब निर्दयतापूर्वक मानवाधिकारों का हनन होता है, जब मेरी एकमात्र साथी एक लम्बी दर्द भरी रात होगी तब मैं परमेश्वर में अपने विश्वास से डिगूँगा नहीं, न ही मैं सृष्टिकर्ता, सच्चे परमेश्वर को कभी धोखा दूँगा। हे सर्वशक्तिमान सच्चे परमेश्वर, मेरा हृदय तुझे अर्पित है। कारागार सिर्फ़ मेरे जिस्म पर पाबंदी लगा सकता है। यह मेरे कदमों को तेरा अनुसरण करने से नहीं रोक सकता। दुखदायी कष्टों में, पथरीले रास्तों पर, तेरे वचनों के मार्गदर्शन, मेरा दिल निर्भय रहता है। तेरे प्रेम के संग, मेरा दिल परितृप्त रहता है।
2 जब शैतानों व दानवों का विध्वंसकारी अत्याचार अधिक गंभीर होता जाता है, जब भयानक पीड़ा मुझे बार-बार सताएगी, जब जिस्म की पीड़ा अपनी हद तक पहुँचने वाली होगी, आख़िरी पल में, जब मेरी जान जाने वाली होगी, मैं बड़े लाल अजगर से कभी हार नहीं मानूँगा। मैं कभी परमेश्वर की शर्मिंदगी का निशान, यहूदा नहीं बनूँगा। हे सर्वशक्तिमान सच्चे परमेश्वर, मैं आख़िरी साँस तक तेरे प्रति निष्ठावान रहूँगा। शैतान सिर्फ मेरे जिस्म को यातना देकर उसे नष्ट कर सकता है। यह मेरी आस्था और तुम्हारे लिए मेरे प्रेम को नष्ट नहीं कर सकता। जीवन और मृत्यु सदा तेरे प्रभुत्व में रहेंगे। मैं तेरी गवाही देने के लिये सब-कुछ त्याग दूँगा। अगर मैं तेरी गवाही देकर शैतान को शर्मिंदा कर सकूँ, तो मैं बिना शिकायत के जान दे दूँगा।
इस जीवन में मसीह का अनुसरण और परमेश्वर को प्रेम करने का अनुशीलन करना मेरे लिए कितने सम्मान की बात है! पूरे दिल और आत्मा से मुझे परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान देना चाहिये; परमेश्वर की गवाही देने के लिये मैं सब-कुछ त्यागने को तैयार हूँ। जब तक मैं ज़िंदा हूँ, परमेश्वर के प्रति अपने पूरे अस्तित्व के समर्पण की अपनी पसंद पर मुझे कभी अफ़सोस न होगा।
—मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ
इस गीत ने मुझे आस्था दी। दूसरे लोग मुझसे चाहे जो सलूक करें, मैं परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकता। परमेश्वर का अनुसरण मेरी ऐसी पसंद है जिस पर मुझे ताउम्र अफ़सोस नहीं होगा। मुझे अपनी प्रतिष्ठा को भूलकर परमेश्वर की गवाही में अडिग रहने के लिए सब कुछ दांव पर लगाना होगा।
पहले, मुझे हमेशा यही लगता था कि परमेश्वर के विश्वासी के रूप में कष्ट सहना अपमान की बात है, मगर फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया, जिसने मेरा नजरिया बदल दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “तुम सृजित प्राणी हो—तुम्हें निस्संदेह परमेश्वर की आराधना और सार्थक जीवन का अनुसरण करना चाहिए। यदि तुम परमेश्वर की आराधना नहीं करते हो बल्कि अपनी अशुद्ध देह के भीतर रहते हो, तो क्या तुम बस मानव भेष में जानवर नहीं हो? चूँकि तुम मानव प्राणी हो, इसलिए तुम्हें स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाना और सारे कष्ट सहने चाहिए! आज तुम्हें जो थोड़ा-सा कष्ट दिया जाता है, वह तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक और दृढ़तापूर्वक स्वीकार करना चाहिए और अय्यूब तथा पतरस के समान सार्थक जीवन जीना चाहिए। इस संसार में, मनुष्य शैतान का भेष धारण करता है, शैतान का दिया भोजन खाता है, और शैतान के अँगूठे के नीचे कार्य और सेवा करता है, उसकी गंदगी में पूरी तरह रौंदा जाता है। यदि तुम जीवन का अर्थ नहीं समझते हो या सच्चा मार्ग प्राप्त नहीं करते हो, तो इस तरह जीने का क्या महत्व है? तुम सब वे लोग हो, जो सही मार्ग का अनुसरण करते हो, जो सुधार की खोज करते हो। तुम सब वे लोग हो, जो बड़े लाल अजगर के देश में ऊपर उठते हो, जिन्हें परमेश्वर धार्मिक कहता है। क्या यह सबसे सार्थक जीवन नहीं है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (2))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि जिन दानवों ने ईसाइयों को गिरफ्तार करके सताया वे परमेश्वर के शत्रु थे, और तानाशाह सरकारें लोगों को परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण करने नहीं देती थीं, उन्हें सिर्फ बुद्ध और प्रेसिडेंट की आराधना करने और यूनाइटेड वा स्टेट पार्टी में विश्वास करने देती थीं। उन्होंने लोगों को अपने दो हाथों पर भरोसा कर अच्छा भविष्य गढ़ना सिखाया, पढ़ाई और कमाई कर अपनी किस्मत बदलना सिखाया। ऐसी जगह परमेश्वर का सुसमाचार फैलाने से कष्ट और बाधाएँ तो आएँगी ही। यहाँ परमेश्वर में विश्वास करने और सुसमाचार फैलाने वालों को कष्ट, उपहास, मार-पीट, फटकार और कैद का सामना करना ही होगा। मगर यह कष्ट धार्मिकता के लिए है—यह पीड़ा सार्थक है। अगर मैं यातना, उपहास और अपमान सहकर यह सोचूँ कि मेरी इज्जत चली गई और मैं किसी से नजर नहीं मिला सकता, तो चीजों को लेकर मेरा दृष्टिकोण सही नहीं है। मैं एक सृजित प्राणी हूँ, और परमेश्वर में विश्वास और उसकी आराधना पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है। सुसमाचार फैलाना और परमेश्वर की गवाही देना सृष्टिकर्ता द्वारा हमें दिया गया मकसद और जिम्मेदारी है, और यह पूरी मानवजाति में सबसे सही चीज भी है। सुसमाचार फैलाते हुए जुल्म सहना अपमान की बात नहीं है—यह धार्मिकता के लिए जुल्म सहना है। यह अय्यूब और पतरस जैसा ही है। जब अय्यूब ने परीक्षणों का सामना किया, लुटेरों ने उसकी पारिवारिक संपत्ति लूट ली, उसके बच्चे मारे गए, उसका पूरा बदन फोड़ों से भर गया। अविश्वासियों ने मजाक उड़ाया कि उसने नकली परमेश्वर में विश्वास किया, उसकी पत्नी ने भी उसे परमेश्वर को छोड़कर मर जाने की बात कही, पर वह परमेश्वर से प्रार्थना करता रहा, उसका नाम जपता रहा, और उसके लिए गवाही में अडिग खड़ा रहा। पतरस को भी सुसमाचार फैलाने पर जुल्म सहने पड़े, अंत में उसे क्रूस पर कील ठोंककर उल्टा लटका दिया गया, मगर उसने इसे अपमान की बात नहीं माना। इसके उलट, उसने सोचा कि वह भ्रष्ट मानवजाति का हिस्सा है, और वह प्रभु यीशु की तरह क्रूस पर चढ़ाए जाने लायक नहीं है, इसलिए उसने परमेश्वर की जोरदार और स्पष्ट गवाही देने के लिए क्रूस पर उलटा लटकना पसंद किया। उनके जीवन सर्वाधिक सार्थक थे; परमेश्वर द्वारा धार्मिक कहलाया जाना सबसे बड़ा सम्मान है। मैं परमेश्वर की इच्छा भी समझ गया। मैं अपनी प्रतिष्ठा की बहुत अधिक फिक्र कर अपमान के डर से अपना कर्तव्य निभाने की हिम्मत नहीं करता था। मेरे लिए इस तरह का माहौल बनाकर परमेश्वर यह मौका दे रहा था कि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव और इस माहौल में चीजों पर अपने गलत नजरिये को पहचानूँ और इनका समाधान करूँ। इसका उद्देश्य मुझे पूर्ण बनाना और बचाना था, इससे मैंने यह भी जाना कि वा लोगों की सरकार दानवी थी जो सत्य से घृणा और परमेश्वर का प्रतिरोध करती थी, और वे मुझे कितना भी सताते या रोकते, मैं उनके आगे नहीं झुक सकता था। परमेश्वर इस संसार और मानवजाति का नियंता है, मेरी किस्मत उसके हाथों में है। किसी भी देश की सरकार मेरी किस्मत या मेरा भविष्य नहीं बदल सकती। मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं। चाहे कितना भी कठिन हो, मैं हमेशा परमेश्वर का अनुसरण करूँगा और उसके लिए गवाही में अडिग खड़ा रहूँगा। यह पहचान हो जाने पर, मुझे लगा कि परमेश्वर में विश्वास करना और इतना कष्ट सहना सार्थक है। अब मैं दूसरे लोगों के उपहास और अपमान सहने से नहीं डरता था, खाना खाने जाते समय दूसरों को देखकर शर्मिंदगी नहीं होती थी। मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करता, लगता वह मेरे साथ ही है, और हर दिन पिछले दिन के मुकाबले अधिक खुश रहता।
करीब पंद्रह दिन की कैद के बाद पता चला कि मुझे कोविड-19 का संक्रमण हो गया है, तो उन्होंने मुझे क्वारंटाइन करके ब्रिगेड मुख्यालय भेज दिया। मुख्यालय जाने के रास्ते में उन्होंने मेरे साथ एक हत्यारे से भी बुरा बर्ताव किया। उन्होंने मेरे पैरों में तीन बेड़ियाँ डाल दीं। पलटन लीडर और दूसरों ने मेरा मजाक उड़ाया : “तुम तो परमेश्वर में विश्वास करते थे, है ना? तुम्हें कोविड-19 कैसे हो गया? तुम तो कहते थे कि परमेश्वर है, पर असल में इस संसार में कोई परमेश्वर नहीं है।” ये बातें सुनकर अब मैंने उतना कमजोर महसूस नहीं किया। पलटन लीडर और दूसरे लोगों ने मेरा कितना भी मजाक उड़ाया, दूसरे लोगों ने कैसे भी बर्ताव किया, मैं समर्पण के लिए तैयार था। फिर पलटन लीडर ने कहा कि वह मुझे सुरक्षा सेक्शन वाले कैदखाने भेज रहा है। मेरे दिल में भय की लहर दौड़ गई, क्योंकि सुरक्षा सेक्शन में बहुत सख्ती थी, मुझे जेल में अपमानित होने का भी डर सता रहा था। यही नहीं, अगर मैं जेल में रहा तो घर नहीं जा पाऊँगा। उस दौरान, मुझे एक कमरे में बंद करके रखा जाता था। मेरे पास फोन नहीं था, मैं परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ सकता था। वहाँ एक गिटार रखा था, और मैं बस गिटार बजाकर भजन गा सकता था। मैं परमेश्वर के वचन पढ़ने को तड़प रहा था, मैंने उससे प्रार्थना कर रास्ता दिखाने की विनती की। कई दिन बाद, मैंने भाई इवान से फोन माँगकर उस पर एक फिल्म देखी, “मेरी कहानी, हमारी कहानी”। उस फिल्म में कुछ भाइयों को परमेश्वर में विश्वास करने और सुसमाचार फैलाने के कारण चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने गिरफ्तार कर लिया था। उन्हें बुरी तरह यातना देकर सताया गया था और कई लोगों ने उनका अपमान किया था। उन्हें जेल की सजा हुई और वे कई साल कैद में रहे; कुछ तो 10 साल से भी ज्यादा समय कैद रहे। उन्हें कोई आजादी नहीं थी, हर दिन बहुत ज्यादा काम कराया जाता, मगर जेल में भी वे परमेश्वर से प्रार्थना कर पा रहे थे, एक दूसरे को परमेश्वर के वचन सुना पा रहे थे। उनमें परमेश्वर के प्रति समर्पण का रवैया था, उन्हें पता था कि वे जीवन के सही मार्ग पर चल रहे हैं। उन सबमें आस्था थी और वे परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग रहे। जब मैंने उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए सुना, तो काफी प्रेरणा मिली। मैंने उनकी काफी प्रशंसा की। इतने कष्ट सहकर भी वे अपनी आस्था में, परमेश्वर का अनुसरण करने और कभी पीछे न हटने को लेकर दृढ़ थे। एक मैं था, जो दूसरों से अपमान, मार और फटकार झेलते समय अडिग नहीं रह पाया। मैं जेल भेजे जाने से डर गया, जरा-सा कष्ट सहते ही अपनी इच्छाशक्ति खो बैठा, मैं चाहता था ऐसे माहौल से मुक्त होने में परमेश्वर मेरी मदद करे। मुझे लगा मैं परमेश्वर का ऋणी हूँ, मुझे उम्मीद थी परमेश्वर मुझे एक और मौका देगा। मैं चाहे कितने ही साल जेल में रहूँ, और चाहे मुझे कितना भी अधिक अपमान सहना पड़े, मैं समर्पित होकर इसका सामना करूँगा। 10 दिन से अधिक क्वारंटाइन रहने के बाद, अग्रिम मोर्चे से लौटे सैनिकों के लिए एक महीने की छुट्टी लेने का समय आया। मुझे जरा भी उम्मीद नहीं थी कि आर्मी मुझे भी यह छुट्टी लेने देगी। एक अविश्वासी साथी ने कहा : “देखो, ऐडन ने गलती की और अब वह श्रम सुधार घर में है, मगर लगता है उसे हमसे भी पहले छुट्टी मिल गई।” मैं परमेश्वर का बहुत आभारी था। मैंने सोचा था मुझे कई साल जेल में बंद रहना पड़ेगा, यह उम्मीद नहीं थी कि मुझे छुट्टी मिलेगी और मैं घर लौट सकूँगा। मुझे परमेश्वर का अद्भुत कर्म दिखा, उसकी सर्वशक्तिमत्ता दिखी, शासन दिखा। जेल से छूटने से पहले कमांडर ने कहा कि मैं घर जाकर सुसमाचार न फैलाऊँ। मैंने सोचा : “जब मैं सेना में सुसमाचार फैलाता था, तो तुम मुझे रोकते-पीटते थे। अब मैं घर जा रहा हूँ, मेरे पास परमेश्वर की गवाही देने का इतना अच्छा अवसर है—मैं कैसे चूक सकता हूँ? मैं अपनी सारी ऊर्जा सुसमाचार फैलाने में लगाने जा रहा हूँ; मैं तुम्हारी एक बात भी नहीं मानने वाला।” घर जाकर मैं भाई-बहनों को इकट्ठा करके एक गाँव में जाकर सुसमाचार फैलाने की तैयारी में लग गया। उस समय 6 लोगों ने अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारा। 10 दिन के बाद मैं आर्मी में लौटा, तो पलटन लीडर ने मुझे एक चेकपॉइंट पर गार्ड बनकर खड़े रहने के लिए भेज दिया। मैं परमेश्वर का बहुत आभारी था। पहले, मैं सेना में बहुत व्यस्त रहता था, मेरे पास सुसमाचार फैलाने के लिए अधिक समय नहीं होता था। इस भूमिका में आकर अब मैं उतना व्यस्त नहीं रहा, मेरे पास सुसमाचार फैलाने के लिए अधिक समय था। आर्मी का अत्याचार भले ही कभी न रुका हो, मगर मैंने सुसमाचार फैलाने और परमेश्वर के लिए गवाही देने में दृढ़ता दिखाई, और अधिक लोगों को परमेश्वर का उद्धार पाने के लिए उसके समक्ष लेकर आया।
सुसमाचार फैलाने के दौरान, भले ही मैंने थोड़ा कष्ट सहा, मार-पीट, अपमान और फटकार का सामना किया, कैदखाने में भी डाला गया, मगर मैंने अपनी भ्रष्टता और खामी देखी और परमेश्वर का प्रेम देखा। हालात चाहे जैसे भी रहे हों, हर बार परमेश्वर के वचनों ने मुझे रास्ता दिखाया, मुझे अपना घमंड और प्रतिष्ठा भुलाकर आस्था और शक्ति बनाए रखने दी। इन अनुभवों ने मुझे दिखाया कि सुसमाचार फैलाने के नाम पर पीड़ा और कष्ट सहना सार्थक है। परमेश्वर का अनुसरण करना, उसके लिए खुद को खपाना, और अपना कर्तव्य निभाना ही सबसे सार्थक जीवन है।