95. मैं अब परमेश्वर को सीमाओं में नहीं बाँधूंगी

मैं कम उम्र से ही अपनी मां के साथ प्रभु यीशु में आस्था रख रही थी और उसके भरपूर अनुग्रह का आनंद उठा रही थी। इससे मुझे मानवता के प्रति प्रभु यीशु की दया और प्रेम की गहरी समझ हासिल हुई। उसके अनुग्रह के लिए मैं अक्सर उससे याचना करती रहती थी। जब भी मेरे सामने कोई समस्या आती, मैं प्रभु से प्रार्थना करती और पाप करने पर उसके सामने आकर उसे कुबूलती। प्रभु दयालु और प्रेममय है, इसलिए वह हमेशा मेरे पापों को क्षमा कर देता।

मई 2019 में एक दिन, फेसबुक पर मेरी मुलाकात बहन डायना और बहन वनेसा से हुई। हमने एक साथ बाइबल स्टडी ग्रुप में भाग लिया, उस दौरान बाइबल पर बहन वनेसा की संगति मुझे बहुत अंतर्दृष्टि वाली लगी। सभा के दौरान एक बार, बहन वनेसा ने कहा : "प्रभु ने कहा है कि वह अंत के दिनों में फिर से आएगा, तो हम उसका स्वागत कब कर सकेंगे? प्रभु यीशु ने कहा था, 'मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं' (यूहन्ना 10:27)। 'देख, मैं द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूँ; यदि कोई मेरा शब्द सुनकर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके पास भीतर आकर उसके साथ भोजन करूँगा और वह मेरे साथ' (प्रकाशितवाक्य 3:20)। यह भी कहा है, 'जिसके कान हों वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है' (प्रकाशितवाक्य 2:7)। इन अंशों से हम जान सकते हैं कि जब प्रभु अंत के दिनों में आएगा, तो वह वचन व्यक्त करेगा। अंत के दिनों में प्रभु का स्वागत करने की मुख्य बात परमेश्वर की वाणी को ध्यान से सुनना है। परमेश्वर की वाणी सुनकर, हम बुद्धिमान कुंवारियों की तरह प्रभु का स्वागत कर सकते हैं।" बहन वनेसा की संगति सुनकर मुझे बहुत हैरानी हुई। मैंने ऐसी अंतर्दृष्टि वाली बात कभी नहीं सुनी थी। उसने प्रभु का स्वागत करने का गुर पहचान लिया था। मुझे ऐसा एहसास पहले कभी नहीं हुआ था। उसके बाद, बहन वनेसा ने मुझे एक बहुत ही जीवंत भजन वीडियो दिखाया। वीडियो के अंत में कहा गया था, "सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया," मुझे उत्सुकता हुई। बाइबल पाठ पूरा होने पर, मैंने झट से ऑनलाइन खोज करना चाहा। मुझे बहुत-सी नकारात्मक जानकारी दिखी, तो मैंने और जानकारी के लिए तुरंत बहन डायना से बात की। बहन डायना ने कहा कि प्रभु का स्वागत करना बड़ी बात है और मुझे आगाह किया कि मैं कहीं अफवाहों में न बह जाऊँ। मुझे सबसे पहले अपनी आशंकाओं को दरकिनार कर विनम्रता से यह देखना चाहिए कि क्या यह सही मार्ग है। कुछ दिनों बाद, बहन डायना ने मुझे एक सभा में भाग लेने बुलाया। मैं उलझन में पड़ गई : मुझे जाना भी चाहिए या नहीं? बाइबल पर बहन वनेसा की संगति में अंतर्दृष्टि थी, मैं और अधिक सुनना चाहती थी, लेकिन मेरे मन में यह भी चल रहा था कि वह जो प्रचार कर रही है, वह सही मार्ग नहीं है। इस झिझक के चलते, मैंने प्रभु से मार्गदर्शन करने की प्रार्थना की। उसके बाद मैं सभा में शामिल हुई।

सभा के दौरान, बहन वनेसा मुझसे बड़े जोश में बोली : "प्रभु यीशु देहधारी सर्वशक्तिमान परमेश्वर के रूप में लौट आया है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने अनुग्रह का युग समाप्त कर राज्य का युग आरंभ कर दिया है लाखों वचन व्यक्त किए हैं और प्रभु यीशु के छुटकारे के कार्य की बुनियाद पर, वह परमेश्वर के घर से शुरू करके न्याय कार्य कर रहा है, ताकि मानवजाति को पूरी तरह शुद्ध कर बचाया जा सके। सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सभी वचन सत्य हैं, वे परमेश्वर के देहधारण के रहस्य, उसके कार्य के तीन चरणों और बाइबल की आंतरिक कहानी को प्रकट करते हैं। उसके वचन मानवता के पाप का स्रोत भी बताते हैं कि कैसे शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करता है, कैसे परमेश्वर मानवजाति को चरणबद्ध तरीके से बचाता है, वे अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय कार्य का अर्थ भी बताते हैं। परमेश्वर ने हमें वह मार्ग भी दिखाया है जिससे विश्वासी उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। जैसे, परमेश्वर बताता है कि हम अपनी भ्रष्टता दूर करने के लिए उसके वचनों के न्याय का अनुभव कैसे करें, सत्य का अभ्यास कर ईमानदार कैसे बनें, कैसे उसका भय मानकर बुराई से दूर रहें, ताकि उसकी इच्छा पूरी करने वाले इंसान बनें, वगैरह। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों और कार्यों ने प्रभु यीशु की भविष्यवाणी को साकार किया : 'मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा, क्योंकि वह अपनी ओर से न कहेगा परन्तु जो कुछ सुनेगा वही कहेगा, और आनेवाली बातें तुम्हें बताएगा' (यूहन्ना 16:12-13)'जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहरानेवाला तो एक है: अर्थात् जो वचन मैं ने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा' (यूहन्ना 12:48)। 'क्योंकि वह समय आ पहुँचा है कि पहले परमेश्‍वर के लोगों का न्याय किया जाए' (1 पतरस 4:17)।" जब मैंने बहन को यह कहते सुना कि प्रभु यीशु देहधारी सर्वशक्तिमान परमेश्वर के रूप में लौट आया है, मुझे यकीन ही नहीं हुआ, मैंने मन में परमेश्वर से प्रार्थना की और परमेश्वर के वचनों पर विचार किया : "धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है" (मत्ती 5:3)। मैंने सोचा : "परमेश्वर की वापसी एक बड़ी बात है, मैं आँख मूँदकर किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सकती। मुझे विनम्र खोजी बनकर सुनते रहना चाहिए।"

उसके बाद, बहन वनेसा ने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ने को कहा। "अंत के दिनों का मसीह जीवन लाता है, और सत्य का स्थायी और शाश्वत मार्ग लाता है। यह सत्य वह मार्ग है, जिसके द्वारा मनुष्य जीवन प्राप्त करता है, और यही एकमात्र मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्य परमेश्वर को जानेगा और परमेश्वर द्वारा स्वीकृत किया जाएगा। यदि तुम अंत के दिनों के मसीह द्वारा प्रदान किया गया जीवन का मार्ग नहीं खोजते, तो तुम यीशु की स्वीकृति कभी प्राप्त नहीं करोगे, और स्वर्ग के राज्य के द्वार में प्रवेश करने के योग्य कभी नहीं हो पाओगे, क्योंकि तुम इतिहास की कठपुतली और कैदी दोनों ही हो। जो लोग नियमों से, शब्दों से नियंत्रित होते हैं, और इतिहास की जंजीरों में जकड़े हुए हैं, वे न तो कभी जीवन प्राप्त कर पाएँगे और न ही जीवन का अनंत मार्ग प्राप्त कर पाएँगे। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके पास सिंहासन से प्रवाहित होने वाले जीवन के जल के बजाय बस मैला पानी ही है, जिससे वे हजारों सालों से चिपके हुए हैं। जिन्हें जीवन के जल की आपूर्ति नहीं की जाती, वे हमेशा मुर्दे, शैतान के खिलौने और नरक की संतानें बने रहेंगे। फिर वे परमेश्वर को कैसे देख सकते हैं? यदि तुम केवल अतीत को पकड़े रखने की कोशिश करते हो, केवल जड़वत् खड़े रहकर चीजों को जस का तस रखने की कोशिश करते हो, और यथास्थिति को बदलने और इतिहास को खारिज करने की कोशिश नहीं करते, तो क्या तुम हमेशा परमेश्वर के विरुद्ध नहीं होगे? परमेश्वर के कार्य के कदम उमड़ती लहरों और घुमड़ते गर्जनों की तरह विशाल और शक्तिशाली हैं—फिर भी तुम निठल्ले बैठकर तबाही का इंतजार करते हो, अपनी नादानी से चिपके हो और कुछ नहीं करते। इस तरह, तुम्हें मेमने के पदचिह्नों का अनुसरण करने वाला व्यक्ति कैसे माना जा सकता है? तुम जिस परमेश्वर को थामे हो, उसे उस परमेश्वर के रूप में सही कैसे ठहरा सकते हो, जो हमेशा नया है और कभी पुराना नहीं होता? और तुम्हारी पीली पड़ चुकी किताबों के शब्द तुम्हें नए युग में कैसे ले जा सकते हैं? वे परमेश्वर के कार्य के कदमों को ढूँढ़ने में तुम्हारी अगुआई कैसे कर सकते हैं? और वे तुम्हें ऊपर स्वर्ग में कैसे ले जा सकते हैं? जिन्हें तुम अपने हाथों में थामे हो, वे शब्द हैं, जो तुम्हें केवल अस्थायी सांत्वना दे सकते हैं, जीवन देने में सक्षम सत्य नहीं दे सकते। जो शास्त्र तुम पढ़ते हो, वे केवल तुम्हारी जिह्वा को समृद्ध कर सकते हैं और वे दर्शनशास्त्र के वे वचन नहीं हैं, जो मानव-जीवन को जानने में तुम्हारी मदद कर सकते हों, तुम्हें पूर्णता की ओर ले जाने वाले मार्ग देने की बात तो दूर रही। क्या यह विसंगति तुम्हारे लिए गहन चिंतन का कारण नहीं है? क्या यह तुम्हें अपने भीतर समाहित रहस्यों का बोध नहीं करवाती? क्या तुम अपने बल पर परमेश्वर से मिलने के लिए अपने आप को स्वर्ग पहुँचाने में समर्थ हो? परमेश्वर के आए बिना, क्या तुम परमेश्वर के साथ पारिवारिक आनंद मनाने के लिए अपने आप को स्वर्ग में ले जा सकते हो? क्या तुम अभी भी स्वप्न देख रहे हो? तो मेरा सुझाव यह है कि तुम स्वप्न देखना बंद कर दो और उसकी ओर देखो, जो अभी कार्य कर रहा है—उसकी ओर देखो, जो अब अंत के दिनों में मनुष्य को बचाने का कार्य कर रहा है। यदि तुम ऐसा नहीं करते, तो तुम कभी भी सत्य प्राप्त नहीं करोगे, और न ही कभी जीवन प्राप्त करोगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है)। पढ़ते-पढ़ते मुझे लगने लगा कि इन वचनों में कुछ तो अलग है और मेरे मन में इनके प्रति श्रद्धा पैदा होने लगी : ये वचन बहुत कठोर और चुभने वाले थे—प्रत्येक वचन और वाक्यांश अधिकार और सामर्थ्य से भरपूर था। ऐसा नहीं लगा कि वे वचन किसी इंसान ने बोले हैं। ऐसे तो केवल परमेश्वर ही बोल सकता है। लेकिन फिर यह भी सोचा, "यह सही नहीं है, परमेश्वर तो दयालु और प्रेममय है—उसके वचन तो सांत्वना और कोमलता से भरे होते हैं। लेकिन ये वचन बहुत कठोर हैं, अभिशाप जैसे या मानवजाति की निंदा करने वाले।" मेरे मन में द्वंद्व चल रहा था : "क्या ये सचमुच परमेश्वर के वचन हैं? उन वचनों का अधिकार देखकर तो यही लगा कि ये परमेश्वर के वचन ही होने चाहिए, है न? लेकिन अगर सर्वशक्तिमान परमेश्वर सच में लौटकर आया प्रभु यीशु है, तो उसे उसी की तरह बोलना चाहिए। उसे दयालु और प्रेममय होना चाहिए, उसके वचन कोमल और विचारशील होने चाहिए। लेकिन सर्वशक्तिमान परमेश्वर की वाणी तो बहुत कठोर है, क्या वह वाकई लौटकर आया प्रभु यीशु हो सकता है?" मैं बहुत उलझन में थी।

मैंने बहन वनेसा को अपनी आशंकाएँ बताईं, उसने धैर्य से मेरे साथ संगति करते हुए कहा : "हमने हमेशा माना है कि परमेश्वर दयालु और प्रेममय है, वह हमसे विनम्र और विचारशील तरीके से बात करता है, इसलिए अगर उसके वचन कठोर हैं, तो वे परमेश्वर के वचन नहीं हैं। लेकिन क्या यह विचार सच में तथ्यों और सच्चाई के अनुरूप है? दरअसल, हर युग में, परमेश्वर ने न केवल विचारशील और उत्साहजनक वचन बोले हैं, बल्कि उसने लोगों को डांटने, धिक्कारने और न्‍याय करने वाले वचन भी बोले हैं। बात सिर्फ इतनी है कि हमने इस पर ध्यान नहीं दिया। आइए देखें कि यह बाइबल में कैसे दर्ज है : परमेश्‍वर यहोवा ने कहा, 'उसके पहरुए अंधे हैं, वे सब के सब अज्ञानी हैं, वे सब के सब गूँगे कुत्ते हैं जो भौंक नहीं सकते; वे स्वप्न देखनेवाले और लेटे रहकर सोते रहना चाहते हैं। वे मरभूखे कुत्ते हैं जो कभी तृप्‍त नहीं होते। वे चरवाहे हैं जिन में समझ ही नहीं; उन सभों ने अपने अपने लाभ के लिये अपना अपना मार्ग लिया है' (यशायाह 56:10-11)। और प्रभु यीशु ने कहा, 'हे साँपो, हे करैतों के बच्‍चो, तुम नरक के दण्ड से कैसे बचोगे?' (मत्ती 23:33)। 'पवित्र वस्तु कुत्तों को न दो, और अपने मोती सूअरों के आगे मत डालो; ऐसा न हो कि वे उन्हें पाँवों तले रौंदें और पलटकर तुम को फाड़ डालें' (मत्ती 7:6)। ऐसे और भी पद हैं। इन पदों से हम जान सकते हैं कि व्यवस्था के युग और अनुग्रह के युग में, परमेश्वर लोगों को डाँटता था, उनकी निंदा कर उन्हें धिक्कारता था। हालाँकि उसके वचन गंभीर लगते थे और चुभने वाले होते थे, लेकिन वे एकदम सच्चे थे। वे लोगों के परमेश्वर-विरोधी और परमेश्वर-विद्रोही सार को उजागर करते थे। वास्तव में, परमेश्वर के वचन चाहे कोमल हों या कठोर, वे सभी परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं। अगर हम परमेश्वर के स्वभाव को समझे बिना उसे केवल दयालु और कृपालु के रूप में सीमित करेंगे, तो हम उसके गंभीर वचनों पर एक निश्चित राय बना लेंगे, यह सोचकर कि परमेश्वर केवल कोमलता से ही बोलता है, उसे कठोर स्वर में नहीं बोलना चाहिए, और इसलिए ऐसे वचन परमेश्वर के नहीं हो सकते। उसके कोमल या कठोर वचनों के आधार पर कोई राय बना लेना गलत है, यह हमारी अपनी धारणाओं और आस्थाओं का परिणाम होता है। जैसे, अगर हमारे माता-पिता हमसे मधुरता से बोलें तब तो वे हमारे माता-पिता हैं, लेकिन अगर हम कोई गलत काम करें और वे हमारे साथ कठोरता से पेश आएँ या हमें फटकारें, तब हम उन्हें अपना माता-पिता न मानें, क्या यह बेवकूफी नहीं होगी?" बहन की संगति सुनकर, मैं इस मामले को साफ तौर पर समझ गई। मुझे लगा : "यह बात सही है, हमारे माता-पिता हमसे नरमी से बोलें या कठोरता से, क्या वे हमेशा ही हमारे माता-पिता नहीं रहेंगे? यहोवा परमेश्वर और प्रभु यीशु सबने कठोर वचन बोले हैं, यह बात मुझे पहले क्यों नहीं समझ में आई? मुझे लगता है, नरमी और कठोरता के आधार पर यह तय करना गलत है कि ये परमेश्वर के वचन हैं या नहीं।" इसका एहसास होने पर, मेरे अंदर से प्रतिरोध का भाव चला गया। लेकिन जब भी मैं परमेश्वर के मानवजाति को उजागर और उसका न्याय करने वाले वचनों के अंश पढ़ती हूं, तो मैं दुखी हो जाती हूँ, मानो मेरी निंदा की गई हो। मैं असमंजस में पड़ जाती हूँ : प्रभु यीशु दयालु और प्रेममय है, तो फिर सर्वशक्तिमान परमेश्वर इतना कठोर क्यों है और लोगों से नाराज क्यों रहता है? एक बार सभा में, मैंने वनेसा से प्रश्न पूछा : "मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर और प्रभु यीशु को एक ही परमेश्वर के रूप में नहीं देख पाती—उनका स्वभाव एकदम अलग है। जब मैं प्रभु यीशु की कल्पना करती हूँ, तो मुझे लगता है कि परमेश्वर बहुत दयालु और प्रेममय है, लेकिन सर्वशक्तिमान परमेश्वर बहुत कठोर लगता है, उसके ज्यादातर वचन लोगों को उजागर करने और उनका विश्लेषण करने वाले होते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर और प्रभु यीशु इतने अलग क्यों हैं?"

बहन ने यह कहते हुए संगति की : "लोगों में अक्सर यह भ्रम होता है, इसकी वजह है कि वे परमेश्वर का स्वभाव नहीं समझते। आइए परमेश्वर के पिछले कार्य पर एक नजर डालें। अगर हम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जाने लें, तो यह समस्या अपने आप सुलझ जाएगी। हम सब जानते हैं कि जब परमेश्वर को सदोम और नीनवे के लोगों के कुकर्मों का पता चला तो उसके स्वभाव में क्रोध पैदा हो गया और उसने इन दोनों नगरों को नष्ट करने का निश्चय कर लिया। उन्हें नष्ट करने से पहले, परमेश्वर ने दो स्वर्गदूतों को सदोम भेजा, वहाँ केवल लूत ने उनकी मेजबानी की। बाकी लोगों ने उनका स्वागत करने के बजाय उन्हें मारना चाहा। परमेश्वर उन लोगों के कुकर्म देखकर क्रोधित हो गया। जब स्वर्गदूतों ने लूत और उसके परिवार को बचा लिया, तो परमेश्वर ने आकाश से आग बरसाकर नगर के सब लोगों, मवेशियों और वनस्पतियों को मिटा दिया। अब नीनवे को देखते हैं। परमेश्वर ने इस नगर को भी नष्ट करने की योजना बनाई, उसने योना को अपना संदेश देने के लिए भेजा : 'अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा' (योना 3:4)। जब नीनवे के राजा ने यह समाचार सुना, तो वह नगर के लोगों को टाट पहनने, राख में बैठकर उपवास करने और प्रार्थना करने के लिए ले गया और उसने कहा कि वे बुराई त्यागकर परमेश्वर के सामने प्रायश्चित करें। यह देखकर परमेश्वर ने अपना कोप वापस ले लिया और दया करके उन्हें विनाश से बचा लिया। नीनवे और सदोम के प्रति परमेश्वर के भिन्न दृष्टिकोण से, हम जान सकते हैं कि परमेश्वर का स्वभाव सच्चा और स्पष्ट होता है। वह न केवल प्रेममय और दयालु है, बल्कि प्रतापी और क्रोधी भी है। जब लोग पाप करते हैं, तो परमेश्वर उन्हें पश्चात्ताप करने का मौका देकर, अपना प्रेममय और दयालु स्वभाव दिखाता है। जब लोग जिद्दी बनकर प्रायश्चित नहीं करना चाहते, जब वे हठपूर्वक परमेश्वर का विरोध करते और उसके विरुद्ध आवाज उठाते हैं, तो परमेश्वर अपना धार्मिक और प्रतापी स्वभाव दिखाते हुए उन पर क्रोध प्रकट करता है। इससे हम समझ सकते हैं कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव न केवल प्रेमपूर्ण और दयालु है, बल्कि प्रतापी और क्रोधी भी है। परमेश्वर के अंतर्निहित स्वभाव में ये दोनों पहलू मौजूद हैं।

आइए अब अनुग्रह के युग पर विचार करें जिसमें प्रभु यीशु ने अपना कार्य किया। जब लोग पाप करके प्रभु के पास आकर कुबूलते और पश्चात्ताप करते हैं, तो वह उन्हें उनके पापों से मुक्त कर भरपूर अनुग्रह प्रदान करता है, इसलिए बहुत से लोग मानते हैं कि प्रभु का स्वभाव केवल प्रेमपूर्ण और दयालु है, वह क्रोधित होकर शाप नहीं देता। जबकि ये लोगों की धारणाएं और कल्पनाएं मात्र हैं। जहाँ तक फरीसियों का सवाल है, वे प्रभु की निंदा और प्रतिरोध करते थे, यहाँ तक कि उसका खुलकर विरोध भी करते थे, उस समय प्रभु यीशु क्रोध से भर गया था। उसने निंदा कर उन्हें शाप दिया और उन पर सात विपत्तियों का ऐलान किया। उनके प्रति उसने जरा भी दया नहीं दिखाई। इससे हमें पता चलता है कि सृष्टि के समय से लेकर आज तक, परमेश्वर ने हमेशा मानवजाति के प्रति अपना धार्मिक स्वभाव व्यक्त किया है। परमेश्वर प्रेममय और दयालु है, लेकिन वह प्रतापी, क्रोधी, शाप और दण्ड देने वाला भी है। जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है, 'परमेश्वर की अनुकंपा और सहिष्णुता तो सचमुच हैं ही, किंतु जब वह अपने कोप का बाँध खोलता है तब परमेश्वर की पवित्रता और धार्मिकता मनुष्य को परमेश्वर का वह पहलू भी दिखाती है जो अपमान सहन नहीं करता। जब मनुष्य परमेश्वर के आदेशों का पालन करने में पूर्णतः सक्षम होता है, और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करता है, तब मनुष्य के प्रति परमेश्वर अपनी अनुकंपा से भरपूर होता है; जब मनुष्य भ्रष्टता, उसके प्रति घृणा और शत्रुता से भर जाता है, तब परमेश्वर अत्यधिक क्रोधित होता है। किस सीमा तक वह अत्यधिक क्रोधित होता है? उसका कोप तब तक बना रहेगा जब तक वह मनुष्य का प्रतिरोध और दुष्ट कर्म अब और नहीं देखता है, जब तक वे उसकी नज़रों के सामने अब और नहीं होते हैं। तब कहीं जाकर परमेश्वर का क्रोध ग़ायब होगा। ... वह उन चीज़ों के प्रति सहिष्णु और दयावान है जो कृपालु, सुंदर और भली हैं; जो चीज़ें बुरी, पापमय और दुष्ट हैं, उनके प्रति वह प्रचंड रूप से कोपपूर्ण है, इतना कि उसका कोप रुकता नहीं है। ये परमेश्वर के स्वभाव के दो सर्वोपरि और सबसे प्रमुख पहलू हैं, और, इतना ही नहीं, इन्हें परमेश्वर ने आरंभ से लेकर अंत तक प्रकट किया है : प्रचुर दया और प्रचंड कोप' (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के वचनों से हम जान सकते हैं 'प्रचुर दया और प्रचंड कोप।' कि परमेश्वर के स्वभाव के दो पहलू हैं जिन्हें वह लगातार मानवजाति पर जाहिर करता है। उसके स्वभाव के इन दो पहलुओं में परस्पर कोई विरोधाभास नहीं है। ये सभी उसके अंतर्निहित स्वभाव का हिस्सा हैं। पहले हमने परमेश्वर का केवल अनुग्रह देखा है, इसलिए वह दयालु है और क्रोध नहीं करता, यह मानकर हमें उसे सीमाओं में नहीं बाँधना चाहिए। इस तरह की समझ बहुत एकतरफा होती है।" यह सुनकर मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर न केवल प्रेमपूर्ण और दयालु हैं, बल्कि वह प्रतापी, क्रोधी और शाप देने वाला भी है। ये सभी परमेश्वर के अंतर्निहित स्वभाव के पहलू हैं। चूँकि मुझे परमेश्वर के स्वभाव की पूरी समझ नहीं थी, मुझे लगता था कि परमेश्वर केवल दयालु और प्रेममय है। दरअसल मेरी ये धारणाएँ और कल्पनाएँ वास्तविकता के अनुरूप नहीं थीं। लगा अपनी समझ को गहराई देने के लिए मुझे और अधिक संगति सुननी चाहिए।

बहन ने यह कहते हुए अपनी संगति जारी रखी : "परमेश्वर प्रत्येक युग में जो स्वभाव प्रकट करता है, वह उसके उद्धार कार्य की आवश्यकताओं और भ्रष्ट मानवजाति की जरूरतों के अनुसार होता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के इन दो अंशों से यह स्पष्ट हो सकता है : "यीशु ने जो कार्य किया, वह उस युग में मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुसार था। उसका कार्य मानवजाति को छुटकारा दिलाना, उसे उसके पापों के लिए क्षमा करना था, और इसलिए उसका स्वभाव पूरी तरह से विनम्रता, धैर्य, प्रेम, धर्मपरायणता, सहनशीलता, दया और करुणामय प्यार से भरा था। वह मानवजाति के लिए भरपूर अनुग्रह और आशीष लाया, और उसने वे सभी चीज़ें, जिनका लोग संभवतः आनंद ले सकते थे, उन्हें उनके आनंद के लिए दीं : शांति और प्रसन्नता, अपनी सहनशीलता और प्रेम, अपनी दया और अपना करुणामय प्यार। उस समय मनुष्य के आनंद की ढेर सारी चीज़ें—उनके हृदयों में शांति और सुरक्षा का बोध, उनकी आत्माओं में आश्वासन की भावना, और उद्धारकर्ता यीशु पर उनकी निर्भरता—ये चीज़ें उस युग में सबको सुलभ थीं, जिसमें वे रहते थे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, छुटकारे के युग के कार्य के पीछे की सच्ची कहानी)। "युग का समापन करने के अपने अंतिम कार्य में, परमेश्वर का स्वभाव ताड़ना और न्याय का है, जिसमें वह वो सब प्रकट करता है जो अधार्मिक है, ताकि वह सार्वजनिक रूप से सभी लोगों का न्याय कर सके और उन लोगों को पूर्ण बना सके, जो सच्चे दिल से उसे प्यार करते हैं। केवल इस तरह का स्वभाव ही युग का समापन कर सकता है। अंत के दिन पहले ही आ चुके हैं। सृष्टि की सभी चीज़ें उनके प्रकार के अनुसार अलग की जाएँगी और उनकी प्रकृति के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में विभाजित की जाएँगी। यही वह क्षण है, जब परमेश्वर लोगों के परिणाम और उनकी मंज़िल प्रकट करता है। यदि लोग ताड़ना और न्याय से नहीं गुज़रते, तो उनकी अवज्ञा और अधार्मिकता को उजागर करने का कोई तरीका नहीं होगा। केवल ताड़ना और न्याय के माध्यम से ही सभी सृजित प्राणियों का परिणाम प्रकट किया जा सकता है। मनुष्य केवल तभी अपने वास्तविक रंग दिखाता है, जब उसे ताड़ना दी जाती है और उसका न्याय किया जाता है। बुरे को बुरे के साथ रखा जाएगा, भले को भले के साथ, और समस्त मनुष्यों को उनके प्रकार के अनुसार अलग किया जाएगा। ताड़ना और न्याय के माध्यम से सभी सृजित प्राणियों का परिणाम प्रकट किया जाएगा, ताकि बुरे को दंडित किया जा सके और अच्छे को पुरस्कृत किया जा सके, और सभी लोग परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन हो जाएँ। यह समस्त कार्य धार्मिक ताड़ना और न्याय के माध्यम से पूरा करना होगा। चूँकि मनुष्य की भ्रष्टता अपने चरम पर पहुँच गई है और उसकी अवज्ञा अत्यंत गंभीर हो गई है, इसलिए केवल परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव ही, जो मुख्यत: ताड़ना और न्याय से संयुक्त है और अंत के दिनों में प्रकट होता है, मनुष्य को रूपांतरित कर सकता है और उसे पूर्ण बना सकता है। केवल यह स्वभाव ही बुराई को उजागर कर सकता है और इस तरह सभी अधार्मिकों को गंभीर रूप से दंडित कर सकता है। इसलिए, इसी तरह का स्वभाव युग के महत्व के साथ व्याप्त होता है, और प्रत्येक नए युग के कार्य की खातिर उसके स्वभाव का प्रकटन और प्रदर्शन अभिव्यक्त किया जाता है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर अपने स्वभाव को मनमाने और निरर्थक ढंग से प्रकट करता है। मान लो अगर, अंत के दिनों के दौरान मनुष्य का परिणाम प्रकट करने में परमेश्वर अभी भी मनुष्य पर असीम करुणा बरसाता रहता और उससे प्रेम करता रहता, उसे धार्मिक न्याय के अधीन करने के बजाय उसके प्रति सहिष्णुता, धैर्य और क्षमा दर्शाता रहता, और उसे माफ़ करता रहता, चाहे उसके पाप कितने भी गंभीर क्यों न हों, उसे रत्ती भर भी धार्मिक न्याय के अधीन न करता : तो फिर परमेश्वर के समस्त प्रबंधन का समापन कब होता? कब इस तरह का कोई स्वभाव सही मंज़िल की ओर मानवजाति की अगुआई करने में सक्षम होगा? उदाहरण के लिए, एक ऐसे न्यायाधीश को लो, जो हमेशा प्रेममय है, एक उदार चेहरे और सौम्य हृदय वाला न्यायाधीश। वह लोगों को उनके द्वारा किए गए अपराधों के बावजूद प्यार करता है, और वह उनके प्रति प्रेममय और सहिष्णु रहता है, चाहे वे कोई भी हों। ऐसी स्थिति में, वह कब न्यायोचित निर्णय पर पहुँचने में सक्षम होगा? अंत के दिनों के दौरान, केवल धार्मिक न्याय ही मनुष्यों को उनके प्रकार के अनुसार पृथक् कर सकता है और उन्हें एक नए राज्य में ला सकता है। इस तरह, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के धार्मिक स्वभाव के माध्यम से समस्त युग का अंत किया जाता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3))

बहन ने संगति करते हुए कहा : "व्यवस्था के युग में, यहोवा परमेश्वर ने अपने अभिशाप, तपिश और क्रोधयुक्त स्वभाव से स्वयं को अभिव्यक्त किया। उस दौरान लोगों में समझ की भारी कमी थी। उन्हें पता ही नहीं था कि पाप क्या होता है, उन्हें कैसे जीना चाहिए या परमेश्वर की आराधना कैसे करनी चाहिए, तो उस समय की उनकी जरूरतों के अनुसार, परमेश्वर ने लोगों के मार्गदर्शन के लिए व्यवस्थाएँ और आज्ञाएँ जारी कीं। परमेश्वर की व्यवस्थाओं का पालन करने वालों को उसकी दया प्राप्त हुई, लेकिन जिन्होंने व्यवस्था का उल्लंघन किया, वे परमेश्वर की स्वर्गिक आग में झुलस गए या पत्थरों से मार डाले गए। लेकिन व्यवस्था के युग के अंत में, जैसे-जैसे लोग ज्यादा भ्रष्ट होते गए न चाहते हुए भी पाप और व्यवस्था का उल्लंघन करने लगे, अगर उनके कार्यों को उस समय की व्यवस्था के अनुसार आंका जाता, तो उन सभी को मौत के घाट उतार दिया गया होता। फिर अनुग्रह के युग में, परमेश्वर ने स्वयं मानवजाति को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार छुटकारा दिलाने के लिए देहधारी होकर, अपना दयालु और प्रेमपूर्ण स्वभाव दिखाया और लोगों को भरपूर अनुग्रह प्रदान किया। उसने असीम दयालुता दिखाते हुए उनके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार किया, धैर्य दिखाया और उनके पाप क्षमा किए और अंततः उन्हें उनके पापों से छुटकारा दिलाते हुए सूली पर चढ़ गया। उसने उनकी सजा माफ कर दी और जीवित रहने दिया। अनुग्रह के युग में, अगर परमेश्वर अपने स्वभाव को शाप, तपिश और क्रोध के रूप में व्यक्त करना जारी रखता, तो लोगों के पाप कभी क्षमा नहीं होते, व्यवस्था के तहत लोगों को कभी छुटकारा न मिलता, मानवजाति एकदम शून्य हो जाती और वह वहाँ न होती जहां आज है। परमेश्वर ने अनुग्रह के युग में अपना दयालु और प्रेममय स्वभाव व्यक्त किया। अगर लोग परमेश्वर के सामने आकर उसका छुटकारा स्वीकारते हैं, तो वह उनके पाप क्षमा कर देता है। अंत के दिनों में लोग बहुत ज्यादा भ्रष्ट हो गए हैं। प्रभु यीशु के हाथों छुटकारा पाने और पाप क्षमा किए जाने के बावजूद, अहंकार, विश्वासघात, बुराई, अकर्मण्यता और दुष्टता जैसी हमारी पापी प्रकृति अभी भी हमारे भीतर गहरी समाई हुई है। हमारा शैतानी स्वभाव अभी भी पूरी तरह से दूर नहीं हुआ है, इसलिए हम अभी भी झूठ बोलते हैं, पाप करते हैं, परमेश्वर से विद्रोह और उसका विरोध करते हैं। हम अभी भी परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने योग्य नहीं हैं। मानवजाति को बचाने और हमें पाप से पूरी तरह मुक्त करने के लिए, परमेश्वर ने फिर से देहधारण किया है, वह प्रभु यीशु के कार्य की नींव पर न्याय और शुद्धिकरण का कार्य कर रहा है ताकि हमारा शैतानी स्वभाव समूल नष्ट हो सके, हमारे पाप दूर हो सकें और हम परमेश्वर के प्रति समर्पित और श्रद्धावान हो सकें और अंततः हम उसके राज्य में ले जाए जा सकें। अपने कार्य की जरूरतों के कारण, परमेश्वर अब अपना दयालु और प्रेममय स्वभाव व्यक्त नहीं करता, बल्कि इंसान के भ्रष्ट स्वभाव का न्याय करने और उसे उजागर करने के लिए अपना धार्मिक, प्रतापी और क्रोधी स्वभाव प्रकट करता है। ऐसा करके ही वह मानवता को रूपांतरित और शुद्ध कर सकता है। हालाँकि हर युग में परमेश्वर अपना भिन्न स्वभाव प्रकट करता है, लेकिन परमेश्वर का सार कभी नहीं बदलता। परमेश्वर भ्रष्ट मानवता की जरूरतों के अनुसार कार्य करता है और अपना स्वभाव प्रकट करता है, ताकि लोग परमेश्वर को बेहतर ढंग से समझ और जान सकें, उसे और उसके स्वभाव को सीमाओं में न बाँधे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर और प्रभु यीशु अलग-अलग स्वभाव प्रकट करते हैं, इस वजह से हमें उन्हें अलग नहीं समझना चाहिए।"

बहन की संगति सुनकर ही मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर अपने उद्धार कार्य की आवश्यकताओं और भ्रष्ट मानवता की जरूरतों के आधार पर तय करता है कि उसे हर युग में कैसा स्वभाव प्रकट करना है। अंत के दिनों में अपने न्याय कार्य में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर अपना धार्मिक और प्रतापी स्वभाव प्रकट करता है ताकि मानवजाति को शुद्ध कर बचाया जा सके—भले ही वह प्रभु यीशु से अलग स्वभाव व्यक्त करता हो, उसका प्रकटन भ्रष्ट मानवता की जरूरतों को पूरा करने के लिए ही होता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर और प्रभु यीशु दोनों एक ही परमेश्वर हैं। बहन की संगति बहुत स्पष्ट थी जिसने मेरी सारी उलझनें दूर कर दीं।

अगली सभा में, बहन वनेसा ने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़कर सुनाया : "परमेश्वर द्वारा मनुष्य की पूर्णता किन साधनों से संपन्न होती है? वह उसके धार्मिक स्वभाव द्वारा संपन्न होती है। परमेश्वर के स्वभाव में मुख्यतः धार्मिकता, क्रोध, प्रताप, न्याय और शाप शामिल हैं, और वह मनुष्य को मुख्य रूप से न्याय द्वारा पूर्ण बनाता है। कुछ लोग नहीं समझते और पूछते हैं कि क्यों परमेश्वर केवल न्याय और शाप के द्वारा ही मनुष्य को पूर्ण बना सकता है। वे कहते हैं, 'यदि परमेश्वर मनुष्य को शाप दे, तो क्या वह मर नहीं जाएगा? यदि परमेश्वर मनुष्य का न्याय करे, तो क्या वह दोषी नहीं ठहरेगा? तो वह फिर भी पूर्ण कैसे बनाया जा सकता है?' ऐसे शब्द उन लोगों के होते हैं, जो परमेश्वर के कार्य को नहीं जानते। परमेश्वर मनुष्य की अवज्ञा को शापित करता है और वह मनुष्य के पापों का न्याय करता है। यद्यपि वह कठोरता और निर्ममता से बोलता है, फिर भी वह वो सब प्रकट करता है जो मनुष्य के भीतर होता है, और इन कठोर वचनों के द्वारा वह वो सब प्रकट करता है जो मूलभूत रूप से मनुष्य के भीतर होता है, फिर भी ऐसे न्याय द्वारा वह मनुष्य को देह के सार का गहन ज्ञान प्रदान करता है, और इस प्रकार मनुष्य परमेश्वर के समक्ष समर्पण कर देता है। मनुष्य की देह पाप और शैतान की है, वह अवज्ञाकारी है और परमेश्वर की ताड़ना की पात्र है। इसलिए मनुष्य को आत्मज्ञान प्रदान करने के लिए परमेश्वर के न्याय के वचनों से उसका सामना और हर प्रकार का शोधन परम आवश्यक है; तभी परमेश्वर का कार्य प्रभावी हो सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो)। बहन वनेसा ने अपनी संगति में बस यही बात कही थी। उसने कहा : "अंत के दिनों में, परमेश्वर का न्याय कार्य मानवजाति के उद्धार में कार्य का अंतिम चरण है और यह उसकी 6,000 साल की प्रबंधन योजना का अंतिम छोर है। अपना धार्मिक और प्रतापी स्वभाव व्यक्त करते हुए, वह पूरे युग को समाप्त कर रहा है और हर एक को उसकी किस्म के अनुसार, अच्छे और बुरे में छांट रहा है। अगर परमेश्वर केवल दयालु और प्रेममय स्वभाव ही व्यक्त करे, हमेशा सहनशील, सहिष्णु और हमारे प्रति क्षमाशील बना रहे, तो फिर हम कितने भी पाप करें, हम अपने पापों से कभी मुक्त नहीं हो पाएँगे और हमेशा के लिए शैतान के कब्जे में रहकर तबाह होते रहेंगे। फिर कभी भी परमेश्वर का उद्धार कार्य पूरा नहीं हो पाएगा और न ही कभी अच्छे-बुरे में ठीक से भेद हो पाएगा। इसलिए, अंत के दिनों में, परमेश्वर अपने कार्य में धार्मिक, प्रतापी और क्रोधी स्वभाव व्यक्त करता है और अपनी कठोर भाषा से लोगों की शैतानी प्रकृति को उजागर करता है। सत्य से प्रेम करने वाले खुद को जानकर परमेश्वर के वचनों का न्याय स्वीकार लेते हैं और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को समझ लेते हैं जो अपराध सहन नहीं करता, इस प्रकार, उनमें परमेश्वर के प्रति श्रद्धा-भाव पैदा होता है और वे बुराई से दूर रहते हैं, जिससे उनके स्वभाव में बदलाव आता है। जो सत्य से ऊबे होते हैं, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को नकार देते हैं, उन्हें परमेश्वर उजागर कर त्याग देता है। इस तरह, सबको उनकी किस्म के अनुसार छाँटा जाता है।"

मुझे एहसास हुआ, अगर सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों में अपना न्याय कार्य ठीक उसी तरह करे जैसे प्रभु यीशु ने छुटकारे का कार्य किया था, अगर वह केवल लोगों पर दया, प्रेम दिखाए और बिना कठोर हुए उनका न्याय करे, तो वह हर एक को उसकी किस्म के अनुसार नहीं छाँट पाएगा, फिर हमारी पापी और परमेश्वर-विरोधी प्रकृति कभी दूर नहीं होगी, तब न तो हम कभी बचाए जा सकेंगे और न ही परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर पायेंगे। अंत के दिनों में उसके स्वभाव की धार्मिकता, प्रताप, न्याय और ताड़ना में गहरा अर्थ छिपा है!

बाद में, हमने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े, जिनसे मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य और उसके द्वारा व्यक्त स्वभाव की बेहतर समझ हासिल हुई। "आज परमेश्वर तुम लोगों का न्याय करता है, तुम लोगों को ताड़ना देता है, और तुम्हारी निंदा करता है, लेकिन तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि तुम्हारी निंदा इसलिए की जाती है, ताकि तुम स्वयं को जान सको। वह इसलिए निंदा करता है, शाप देता है, न्याय करता और ताड़ना देता है, ताकि तुम स्वयं को जान सको, ताकि तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन हो सके, और, इसके अलावा, तुम अपनी कीमत जान सको, और यह देख सको कि परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक और उसके स्वभाव और उसके कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार हैं, और वह मनुष्य के उद्धार के लिए अपनी योजना के अनुसार कार्य करता है, और कि वह धार्मिक परमेश्वर है, जो मनुष्य को प्यार करता है, उसे बचाता है, उसका न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है। ... परमेश्वर मारने या नष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि न्याय करने, शाप देने, ताड़ना देने और बचाने के लिए आया है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए)। "यद्यपि मेरे वचन कठोर हो सकते हैं, किंतु वे सब मनुष्य के उद्धार के लिए कहे जाते हैं, क्योंकि मैं केवल वचन बोल रहा हूँ, मनुष्य की देह को दंडित नहीं कर रहा हूँ। इन वचनों के कारण मनुष्य प्रकाश में रह पाता है, यह जान पाता है कि प्रकाश मौजूद है, यह जान पाता है कि प्रकाश अनमोल है, और, इससे भी बढ़कर, यह जान पाता है कि ये वचन उसके लिए कितने फायदेमंद हैं, साथ ही यह भी जान पाता है कि परमेश्वर उद्धार है। यद्यपि मैंने ताड़ना और न्याय के बहुत-से वचन कहे हैं, लेकिन वे जिसका प्रतिनिधित्व करते हैं, वह तुम्हारे साथ किया नहीं गया है। मैं अपना काम करने और अपने वचन बोलने के लिए आया हूँ, मेरे वचन सख्त हो सकते हैं, लेकिन वे तुम्हारी भ्रष्टता और विद्रोहशीलता का न्याय करने के लिए बोले जाते हैं। मेरे ऐसा करने का उद्देश्य मनुष्य को शैतान के अधिकार-क्षेत्र से बचाना है; मैं अपने वचनों का उपयोग मनुष्य को बचाने के लिए कर रहा हूँ। मेरा उद्देश्य अपने वचनों से मनुष्य को नुकसान पहुँचाना नहीं है। मेरे वचन कठोर इसलिए हैं, ताकि मेरे कार्य में परिणाम प्राप्त हो सकें। केवल ऐसे कार्य से ही मनुष्य खुद को जान सकता है और अपने विद्रोही स्वभाव से दूर हो सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए)। बहन वनेसा ने संगति करते हुए कहा : "परमेश्वर के वचनों से, हम जान सकते हैं कि अंत के दिनों में, परमेश्वर अपने वचनों से लोगों का न्याय और शुद्धिकरण करता है। उसके वचन कितने भी कठोर और कटु हों, उनका उद्देश्य यही होता है कि हम अपनी भ्रष्टता की सच्चाई को पहचानकर, शैतान के दुष्प्रभाव से मुक्त हों और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करें। हम सब जानते हैं कि परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है, जबकि शैतान के हाथों बुरी तरह से भ्रष्ट हुए हम इंसान, दुष्ट सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागते हैं, धन-दौलत और लाभ के लिए आपस में लड़ते हैं और एक-दूसरे के खिलाफ साजिश रचते हैं, हममें एक सच्चे इंसान की थोड़ी-सी भी झलक नहीं होती। यहां तक ​​कि प्रभु के विश्वासी भी परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाते, बस परमेश्वर से अनुग्रह और आशीष मांगते रहते हैं। वे जो भी योगदान करते हैं वह सिर्फ स्वर्ग में प्रवेश करने और अनंत जीवन पाने के लिए होता है, न कि इसलिए कि वे प्रभु से प्रेम करते हैं और उसे संतुष्ट करना चाहते हैं। यह सब केवल अपना नीच मकसद पूरा करने की खातिर प्रभु का इस्तेमाल करने के लिए होता है। कुछ धार्मिक अगुआ विनम्र, धैर्यवान और परमेश्वर के उत्साही सेवक दिखते हैं, लेकिन लोगों से प्रशंसा और सम्मान पाने के लिए वे अपने उपदेशों में, केवल अपना उत्कर्ष करते और अपनी ही गवाही देते हैं। जब परमेश्वर कार्य करने के लिए देहधारण कर प्रकट हुआ, तो किसी ने उसका स्वागत नहीं किया, उसकी वापसी की निंदा और विरोध करने के लिए पूरे धार्मिक जगत ने नास्तिक सरकार के साथ मिलकर, सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया को बदनाम किया और लोगों को सच्चे मार्ग की जाँच करने से रोकने के लिए जानबूझकर झूठ फैलाया। यानी, पूरी मानवजाति परमेश्वर की निंदा और विरोध कर रही है और उसके आगमन को नकार रही है। जैसा कि बाइबल कहती है, 'और सारा संसार उस दुष्‍ट के वश में पड़ा है' (1 यूहन्ना 5:19)। भ्रष्ट मानवजाति हर तरह से परमेश्वर का विरोध करती है। सभी लोग शैतान और जहरीले सांपों की तरह हैं। परमेश्वर जब मानवजाति की भ्रष्टता की वास्तविकता को उजागर करने के लिए कठोर वचन व्यक्त करता है, तो सिर्फ सत्य से प्रेम करने वाले ही अपना परमेश्वर-विरोधी और उससे दगा करने वाला शैतानी स्वभाव पहचान पाते हैं और समझ पाते हैं कि अपनी आस्था में वे परमेश्वर को जानना नहीं चाहते, उनका मकसद सिर्फ परमेश्वर का आशीर्वाद पाना और उससे सौदेबाजी करना होता है। वे शैतान के हाथों अपनी भयंकर भ्रष्टता की कड़वी सच्चाई को साफ तौर पर देखकर, ईमानदारी से परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करते हैं और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने की शपथ लेते हैं, और आखिरकार उनमें मानवता का संचार होता है। इससे हम जान सकते हैं कि परमेश्वर के वचन चाहे कितने भी कठोर और कटु हों, वे सभी हमारी भ्रष्टता की सच्चाई को उजागर करते हैं और हमारी सुन्न आत्माओं को पुनर्जीवित करने में हमारी मदद करते हैं, इससे हम अपने भ्रष्ट सार को पहचानकर, पाप की बेड़ियों से मुक्त और शुद्ध हो जाते हैं। परमेश्वर के प्रबोधन और न्याय के कठोर वचन हमें स्वयं को जानने और बचाए जाने के लिए बहुत फायदेमंद हैं!"

बहन वनेसा की संगति सुनकर, मुझे लगा कि परमेश्वर ने अंत के दिनों में हमारे असली स्वरूप को उजागर करने के लिए इतने कठोर वचन व्यक्त किए हैं। यह उसका उद्धार है, निंदा नहीं। मुझे ख्याल आया कि कैसे मैं केवल परमेश्वर से आशीर्वाद और अनुग्रह पाने के लिए ही आस्था रखती थी, यहां तक ​​​​कि परमेश्वर को दयालु और कृपालु के रूप में सीमित कर दिया था, कैसे मैं उसके कठोर वचनों को पहचानने में नाकाम रही। मैं बहुत विवेकशून्य थी! तब से, मैं परमेश्वर के कठोर और न्यायपूर्ण वचनों को स्वीकारने लगी, बल्कि मेरे मन में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के और वचन पढ़ने की इच्छा जागी। मुझे यकीन हो गया कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही लौटकर आया प्रभु यीशु है।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य के सत्य होने की पुष्टि के बाद, मैं पूरे जोश से सभाओं में भाग लेने लगी और हर दिन सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़ने लगी। एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा। "यदि लोग अनुग्रह के युग में अटके रहेंगे, तो वे कभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं पाएँगे, परमेश्वर के अंर्तनिहित स्वभाव को जानने की बात तो दूर! यदि लोग सदैव अनुग्रह की प्रचुरता में रहते हैं, परंतु उनके पास जीवन का वह मार्ग नहीं है, जो उन्हें परमेश्वर को जानने और उसे संतुष्ट करने का अवसर देता है, तो वे उसमें अपने विश्वास से उसे वास्तव में कभी भी प्राप्त नहीं करेंगे। इस प्रकार का विश्वास वास्तव में दयनीय है। जब तुम इस पुस्तक को पूरा पढ़ लोगे, जब तुम राज्य के युग में देहधारी परमेश्वर के कार्य के प्रत्येक चरण का अनुभव कर लोगे, तब तुम महसूस करोगे कि अनेक वर्षों की तुम्हारी आशाएँ अंततः साकार हो गई हैं। तुम महसूस करोगे कि केवल अब तुमने परमेश्वर को वास्तव में आमने-सामने देखा है; केवल अब तुमने परमेश्वर के चेहरे को निहारा है, उसके व्यक्तिगत कथन सुने हैं, उसके कार्य की बुद्धिमत्ता को सराहा है, और वास्तव में महसूस किया है कितना वास्तविक और सर्वशक्तिमान है वह। तुम महसूस करोगे कि तुमने ऐसी बहुत-सी चीजें पाई हैं, जिन्हें अतीत में लोगों ने न कभी देखा था, न ही प्राप्त किया था। इस समय, तुम स्पष्ट रूप से जान लोगे कि परमेश्वर पर विश्वास करना क्या होता है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होना क्या होता है। निस्संदेह, यदि तुम अतीत के विचारों से चिपके रहते हो, और परमेश्वर के दूसरे देहधारण के तथ्य को अस्वीकार या उससे इनकार करते हो, तो तुम खाली हाथ रहोगे और कुछ नहीं पाओगे, और अंततः परमेश्वर का विरोध करने के दोषी ठहराए जाओगे। वे जो सत्य का पालन करते हैं और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करते हैं, उनका दूसरे देहधारी परमेश्वर—सर्वशक्तिमान—के नाम पर दावा किया जाएगा। वे परमेश्वर का व्यक्तिगत मार्गदर्शन स्वीकार करने में सक्षम होंगे, वे अधिक और उच्चतर सत्य तथा वास्तविक जीवन प्राप्त करेंगे। वे उस दृश्य को निहारेंगे, जिसे अतीत के लोगों द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया था : 'तब मैं ने उसे, जो मुझ से बोल रहा था, देखने के लिये अपना मुँह फेरा; और पीछे घूमकर मैं ने सोने की सात दीवटें देखीं, और उन दीवटों के बीच में मनुष्य के पुत्र सदृश एक पुरुष को देखा, जो पाँवों तक का वस्त्र पहिने, और छाती पर सोने का पटुका बाँधे हुए था। उसके सिर और बाल श्‍वेत ऊन और पाले के समान उज्ज्वल थे, और उसकी आँखें आग की ज्वाला के समान थीं। उसके पाँव उत्तम पीतल के समान थे जो मानो भट्ठी में तपाया गया हो, और उसका शब्द बहुत जल के शब्द के समान था। वह अपने दाहिने हाथ में सात तारे लिये हुए था, और उसके मुख से तेज दोधारी तलवार निकलती थी। उसका मुँह ऐसा प्रज्‍वलित था, जैसा सूर्य कड़ी धूप के समय चमकता है' (प्रकाशितवाक्य 1:12-16) यह दृश्य परमेश्वर के संपूर्ण स्वभाव की अभिव्यक्ति है, और उसके संपूर्ण स्वभाव की यह अभिव्यक्ति वर्तमान देहधारण में परमेश्वर के कार्य की अभिव्यक्ति भी है। ताड़ना और न्याय की बौछारों में मनुष्य का पुत्र कथनों के माध्यम से अपने अंर्तनिहित स्वभाव को अभिव्यक्त करता है, और उन सबको जो उसकी ताड़ना और न्याय स्वीकार करते हैं, मनुष्य के पुत्र के वास्तविक चेहरे को निहारने की अनुमति देता है, जो यूहन्ना द्वारा देखे गए मनुष्य के पुत्र के चेहरे का ईमानदार चित्रण है। (निस्संदेह, यह सब उनके लिए अदृश्य होगा, जो राज्य के युग में परमेश्वर के कार्यों को स्वीकार नहीं करते।) परमेश्वर का वास्तविक चेहरा मनुष्य की भाषा के इस्तेमाल द्वारा पूर्णतः व्यक्त नहीं किया जा सकता, और इसलिए परमेश्वर उन साधनों का इस्तेमाल करता है, जिनके द्वारा वह मनुष्य को अपना वास्तविक चेहरा दिखाने के लिए अपना अंर्तनिहित स्वभाव अभिव्यक्ति करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि प्रकाशितवाक्य में यूहन्ना को जो दर्शन मिला, वो यह पूर्वाभास देता है कि कैसे अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय के वचन आग की लपटों या धारदार तलवार की तरह हैं और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव से भरे हैं। जो लोग अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य स्वीकारते हैं दरअसल वही परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को समझ सकते हैं और अपने वचनों के जरिए मानवजाति का न्याय करने और उसे बचाने के उसके गंभीर इरादों को समझ सकते हैं। इस एहसास ने मुझे भीतर तक हिला दिया : "हे सर्वशक्तिमान परमेश्वर! तेरे वचनों के प्रबोधन और न्याय से, मैंने जान लिया है कि तू न केवल प्रेममय और दयालु है, बल्कि प्रतापी और क्रोधी भी है। ये सब तेरे निहित धार्मिक स्वभाव के पहलू हैं। हे सर्वशक्तिमान परमेश्वर! तेरे वचन वाकई अनमोल हैं। मैं अपने आपको जानने के लिए तेरे वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकारने को व्यग्र हूँ। अब से मैं तेरे वचनों को कर्मठता से खाऊंगी और पिऊंगी, तेरे वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर सत्य की खोज के मार्ग पर चलूँगी!"

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