96. दिखावा करने की मूर्खता
जून 2020 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। और अधिक सत्यों की लालसा के साथ, मैंने खुद को परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और सुसमाचार की फिल्में देखने के आनंद में डुबो दिया। धीरे-धीरे, मैं सत्य के कई रहस्यों को समझने लगा, जैसे कि बाइबल की अंदर की कहानी, शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट करने की वास्तविकता, परमेश्वर के देहधारण और नाम के रहस्य, अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय का कार्य, और ऐसी ही अन्य बातें। मैंने यह भी जाना कि परमेश्वर का अंत के दिनों का उद्धार कार्य जल्द ही समाप्त होने वाला है, भयंकर आपदाएँ पहले ही शुरू हो चुकी हैं, और परमेश्वर के अंत के दिनों के न्याय कार्य को स्वीकार करना ही बचाए जाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का एकमात्र मार्ग है। इसलिए मैं सक्रिय रूप से सुसमाचार फैलाने लगा और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए उसकी गवाही की। बाद में, मैंने इस बारे में अनुभवजन्य गवाही वाला एक लेख लिखा कि मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को कैसे स्वीकार किया था। एक बहन ने इसे पढ़ा और खुश होकर कहा, “भाई, तुम्हारी समझ तो बहुत अच्छी है और तुम बहुत ही दूरदर्शी हो।” यह सुनकर मुझे थोड़ा अच्छा लगा, मैंने सोचा कि मेरी काबिलियत बहुत अच्छी है।
कुछ महीनों बाद, मैं समूह अगुआ बन गया और मुझे भाई-बहनों के एक समूह के सिंचन की जिम्मेदारी दी गई। प्रत्येक सभा में, जब मेरी संगति समाप्त हो जाती, तो सभी भाई-बहन कहते कि मेरी समझ अच्छी है, मेरी संगति बहुत प्रबुद्ध करने वाली है, और मेरी संगति सुनकर उन्हें कुछ ऐसी बातें समझ में आई हैं जो पहले उनके लिए स्पष्ट नहीं थीं। मैंने सोचा, “मैंने हाल ही में परमेश्वर का कार्य स्वीकारा है और मैं पहले ही अन्य नए विश्वासियों का सिंचन करने में सक्षम हूँ, साथ ही मुझे भाई-बहनों की प्रशंसा भी मिल रही है। ऐसा लगता है कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ।” इसके बाद, और अधिक भाई-बहनों द्वारा उच्च सम्मान और स्वीकृति पाने के लिए, मैंने पहले से भी अधिक मेहनत की। प्रत्येक सभा से पहले मैं पहले से तैयारी करने लगा, सभा के विषय से संबंधित परमेश्वर के वचनों और फिल्मों की खोज करने लगा। जब भी मुझे किसी फिल्म की संगति से प्रकाश मिलता, तो मैं उसे लिख लेता और सभाओं के दौरान उस पर संगति करता। मैंने मन ही मन में सोचा, “अगर भाई-बहनों को मेरी संगतियों से अधिक लाभ मिलेगा, तो वे पक्का मेरी अधिक प्रशंसा करेंगे और मेरा अधिक आदर करेंगे।” जल्दी ही, भाई-बहनों ने मुझे कलीसिया अगुआ चुन लिया। मैंने मन ही मन में सोचा, “मैं वाकई दूसरों से बेहतर हूँ; वरना सभी लोग मुझे ही क्यों चुनते?” मैं वास्तव में खुद की प्रशंसा करने लगा। बाद में, मैंने कुछ भाई-बहनों से सुना कि वे मुझसे ईर्ष्या करने के कारण नकारात्मक हो गए थे। यह सुनकर मुझे न केवल दुख नहीं हुआ, बल्कि मैं बहुत खुश था, क्योंकि इससे यह साबित हो गया कि मेरी समझ वाकई बहुत अच्छी थी। जब वे नए विश्वासी, जिनका मैंने पहले सिंचन किया था, मुझसे पूछते कि मैं अब कौन-सा कर्तव्य निभा रहा हूँ, तो मैं गर्व से कहता, “अब मैं एक कलीसिया अगुआ हूँ।” मैं चाहता था कि उन्हें पता चले कि अब मैं बस एक साधारण समूह अगुआ नहीं हूँ और यह कि उन्हें मुझे एक साधारण भाई की तरह नहीं समझना चाहिए। कलीसिया अगुआ बनकर, मैं पहले से ज्यादा व्यस्त हो गया था। हर दिन, मैं परमेश्वर के बहुत-से वचन पढ़ता और सुसमाचार फिल्में देखकर खुद को तैयार करता। सभाएँ करने और नए विश्वासियों के सवालों के जवाब देने के कारण, मैं अक्सर समय पर न तो खा पाता था और न ही आराम कर पाता था। मैंने अपने दिल ही दिल में थोड़ी शिकायत की, लेकिन मैं यह जानकर फिर भी इसे करता रहा कि यह मेरा कर्तव्य है। सभाओं के दौरान, मैं अक्सर भाई-बहनों के साथ इस बारे में संगति करता कि मैंने कैसे कष्ट सहा, कैसे सत्य से खुद को सुसज्जित किया, और कैसे परमेश्वर के लिए खुद को खपाया। मैं यह भी बताता कि हर दिन अपना कर्तव्य निभाने में कितना व्यस्त रहता हूँ, कैसे अक्सर समय पर भोजन नहीं कर पाता हूँ, वगैरह। हालाँकि, मैंने कभी भी अपनी शिकायतों का जिक्र नहीं किया। यह सब सुनने के बाद, भाई-बहनों ने मेरी बहुत प्रशंसा की। उन्होंने मेरी सराहना की कि मैं अपने कर्तव्य का बोझ उठा रहा हूँ और ऐसी चीजें हासिल कर रहा हूँ जो उन्होंने नहीं की थीं, और उन्होंने मुझसे सीखने की इच्छा भी व्यक्त की। यह सुनकर, मुझे बहुत खुशी हुई। इसके बाद, मैं सभाओं में हमेशा इसी तरह से संगति करता था, मैं नहीं चाहता था कि भाई-बहनों को यह लगे कि मैं कष्ट सहन नहीं कर सकता। अगर उन्हें ऐसा लगता, तो फिर कोई भी मेरी प्रशंसा नहीं करता। धीरे-धीरे, भाई-बहनों ने मुझ पर निर्भर रहना शुरू कर दिया, और जब भी वे अपने कर्तव्यों में किसी कठिनाई या समस्या का सामना करते, तो वे शायद ही कभी परमेश्वर पर निर्भर होते और सत्य सिद्धांतों की खोज करते, बल्कि मेरी मदद मांगने को प्राथमिकता देते।
एक बार, क्योंकि मैं काफी समय से अपने कंप्यूटर और फोन देख रहा था, तो मेरी आँखें लाल हो गईं, उनमें खुजली और दर्द होने लगा, रोशनी तेजी से कम हो रही थी, और मैं चीजों को साफ नहीं देख पा रहा था। किसी ने मुझसे कहा कि ये लक्षण काफी गंभीर हैं, और अगर मैंने समय पर इलाज नहीं कराया, तो अंधा भी हो सकता हूँ। उस समय, मैं बहुत डर गया था। मैं थोड़ा नकारात्मक हो गया था, और मैंने यह सोचते हुए शिकायत की, “मैं अपने कर्तव्य में इतनी मेहनत करता हूँ; फिर भी मुझे यह बीमारी क्यों हो गई है?” मेरी आँख की समस्या के कारण मेरे कर्तव्य पर भी असर पड़ा। बाद में, किसी ने मुझे एक घरेलू उपचार बताया, और मेरी नजर आखिरकार बेहतर हो गई। हालाँकि, सभाओं के दौरान, मैंने केवल अपनी अच्छी बातें ही बताईं, इसी पर जोर दिया कि चाहे मैं अपना कर्तव्य निभाने में कितना भी व्यस्त क्यों न था और मेरी आँखों की समस्या ने मुझे कितना भी कष्ट क्यों न दिया हो, मैंने अपने कर्तव्य को नहीं छोड़ा। मैंने तो यहाँ तक कह दिया कि यह परमेश्वर का एक परीक्षण है और मुझे अपनी गवाही में दृढ़ रहना होगा। लेकिन जब बात मेरी कमजोरियों, चिंताओं और भय की आई, और परमेश्वर के प्रति मेरी गलतफहमी और शिकायतों की बात आई, तो मैंने एक शब्द भी नहीं कहा, क्योंकि मैं यह नहीं चाहता था कि भाई-बहनों को यह पता चले कि मेरे अंदर भी कमजोरियाँ हैं। मेरी संगति सुनकर भाई-बहनों ने मेरी बहुत प्रशंसा की, और कहा कि मेरा अनुभव बहुत महान था। कुछ भाई-बहनों ने यह भी कहा कि, “इस भाई के पास सचमुच आध्यात्मिक कद है। इतनी गंभीर बीमारी का सामना करते हुए भी वह नकारात्मक नहीं हुआ और अपना कर्तव्य निभाता रहा। अगर मैं होता, तो शायद ऐसा नहीं कर पाता।” यह सुनकर, मुझे बेहद खुशी हुई, और मैं यह सोचने से खुद को रोक नहीं पाया कि, “भले ही मैं जवान हूँ और नया विश्वासी बना हूँ, फिर भी मेरी काबिलियत बाकी भाई-बहनों से बेहतर है, और मैं उनसे अधिक लगन से सत्य का अनुसरण करता हूँ।” लेकिन उस सभा के खत्म होने के बाद, मुझे एक अजीब, अज्ञात सा डर महसूस हुआ। यह डर वैसा ही था जैसे बचपन में कोई गलती करने पर मुझे पता होता था कि अब माता-पिता मुझे अनुशासित करेंगे। मैं कुछ भी खा नहीं पा रहा था, और मुझे बहुत बेचैनी हो रही थी। मैं आत्मचिंतन करने से खुद को नहीं रोक सका, मैंने सोचा, “मैंने सभा में जो संगति की थी क्या वह अनुचित थी?” जब मैंने इस बारे में सोचा कि कैसे मैंने सभा में अपनी असली स्थिति के बारे में संगति नहीं की थी और अपनी कमजोरियों को छुपाया था, तो मुझे एहसास हुआ कि मेरी मंशा सही नहीं थी, और मुझे अपने आप पर बहुत पछतावा हुआ।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “अपनी बड़ाई करना और अपनी गवाही देना, स्वयं पर इतराना, दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने की कोशिश करना—भ्रष्ट मनुष्यजाति इन चीज़ों में माहिर है। जब लोग अपनी शैतानी प्रकृतियों से शासित होते हैं, तब वे सहज और स्वाभाविक ढंग से इसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं, और यह भ्रष्ट मनुष्यजाति के सभी लोगों में है। लोग सामान्यतः कैसे अपनी बड़ाई करते हैं और अपनी गवाही देते हैं? वे दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने के इस लक्ष्य को कैसे हासिल करते हैं? वे इस बात की गवाही देते हैं कि उन्होंने कितना कार्य किया है, कितना अधिक दुःख भोगा है, स्वयं को कितना अधिक खपाया है, और क्या कीमत चुकाई है। वे अपनी पूँजी के बारे में बातें करके अपनी बड़ाई करते हैं, जो उन्हें लोगों के दिमाग़ में अधिक ऊँचा, अधिक मजबूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उनकी सराहना करें, उन्हें मान दें, उनकी प्रशंसा करें, और यहाँ तक कि उनकी अराधना करें, उनका आदर करें, और उनका अनुसरण करें। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए लोग कई ऐसे काम करते हैं, जो ऊपरी तौर पर तो परमेश्वर की गवाही देते हैं, लेकिन वास्तव में वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपनी गवाही देते हैं। क्या इस तरह से कार्य करना उचित है? वे तार्किकता के दायरे से परे हैं और उन्हें कोई शर्म नहीं है : अर्थात्, वे निर्लज्ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के लिए क्या-क्या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, विशेष कौशलों पर, सांसारिक आचरण की चतुर तकनीकों पर, लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीक़ों पर इतराते तक हैं। अपनी बड़ाई करने और अपनी गवाही देने का उनका तरीका स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे छद्मावरणों और पाखंड का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमज़ोरियाँ, कमियाँ और त्रुटियाँ छिपाते हैं, ताकि लोग हमेशा सिर्फ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्मक महसूस करते हैं तब दूसरे लोगों को यह बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ ग़लत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्य निभाने के दौरान उन्होंने कलीसिया के कार्य को जो नुक़सान पहुँचाया होता है उसका तो वे ज़िक्र तक नहीं करते। जब उन्होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतज़ार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्या यह अपनी बड़ाई करने और अपनी गवाही देने का ही तरीका नहीं है?” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मैंने परमेश्वर की पवित्रता और धार्मिकता को महसूस किया; परमेश्वर हर चीज की पड़ताल करता है और मेरे भीतर छिपी हर चीज को उजागर करता है। परमेश्वर यह उजागर करता है कि लोगों में स्वभाव भ्रष्ट होते हैं। जब वे अपने कर्तव्य निभा रहे होते हैं या और कुछ भी कर रहे होते हैं, तो वे न चाहते हुए भी खुद की बड़ाई और दिखावा करते हैं, ताकि वे दूसरों के दिलों में अपना रुतबा और छवि कायम कर सकें और दूसरों से आदर पा सकें या अपनी आराधना करवा सकें। यह सब उनकी भ्रष्ट शैतानी प्रकृति के नियंत्रण में किया गया है। मैंने यह महसूस किया कि मैं हमेशा अपने भाई-बहनों के सामने इस बारे में बात करता रहता था कि मैंने अपने कर्तव्य निभाने में कितने कष्ट सहे, ताकि सबको यह दिखा सकूँ कि मैं कष्ट झेल सकता हूँ, कीमत चुका सकता हूँ और मैं परमेश्वर के प्रति वफादार हूँ, ऐसा करके मैं सभी की प्रशंसा और सम्मान पाना चाहता था। सभाओं के दौरान, मैं केवल अपनी अच्छी चीजों के बारे में ही बात करता था, यह बताता था कि कैसे मैं बीमार रहते हुए भी परमेश्वर पर निर्भर रहा और अपनी गवाही में अडिग रहा और सबके सामने यह दिखावा करना चाहता था कि मेरा आध्यात्मिक कद दूसरों से कितना बड़ा है। लेकिन जब मेरी बीमारी के दौरान प्रकट हुई भ्रष्टताओं और कमजोरियों की बात आती, तो मैं चुप्पी साध लेता था, इस डर से कि अगर भाई-बहनों को मेरे वास्तविक आध्यात्मिक कद के बारे में पता चला, तो वे मुझे ऊँचा नहीं समझेंगे या मेरी आराधना नहीं करेंगे। क्योंकि मैं लगातार खुद की बड़ाई और दिखावा करता रहा, भाई-बहन अपनी समस्याओं और कठिनाइयों के हल के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने और उस पर निर्भर रहने के बजाय मुझसे ही संपर्क करते थे। क्या मैं वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास कर रहा था और अपना कर्तव्य निभा रहा था? क्या मैं लोगों को गुमराह नहीं कर रहा था और उन्हें फँसा नहीं रहा था? भाई-बहनों ने मुझे अगुआ चुना था, लेकिन मैंने न तो परमेश्वर का उन्नयन किया, न ही उसके लिए गवाही दी, और न ही मैं उन्हें परमेश्वर के सामने लाया। इसके बजाय, मैंने उन्हें अपनी आराधना करने और मुझ पर निर्भर रहने पर मजबूर किया। मैं वास्तव में एक घृणित और शर्मनाक इंसान था; परमेश्वर को मुझसे सच में घृणा हुई होगी!
उस समय मैंने परमेश्वर के वे वचन याद किए जो मैंने पहले पढ़े थे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जाकर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है कि लोग उन्हें सुनें, उनकी आराधना करें और उनके चारों ओर घूमें। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के दिलों में उनकी एक जगह हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें। उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिलों में एक जगह रखना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। “अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंततः तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से, मैंने महसूस किया कि मैं लगातार खुद की बड़ाई और अपना दिखावा करता था, मुख्य रूप से इसलिए क्योंकि मेरी प्रकृति बहुत ही घमंडी थी। मेरी इस घमंडी और दंभी प्रकृति के कारण, मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं था, और मैं दूसरों को तुच्छ समझता था। मुझे खुद को अच्छा दिखाने और लोगों के सामने अपने बारे में दिखावा करके उनकी सराहना और प्रशंसा पाना बहुत पसंद था। अपनी घमंडी प्रकृति से प्रेरित होकर, मैं गुमनामी में काम करना चाहता था और व्यावहारिक ढंग से चीजें करना चाहता था; मैं हमेशा भीड़ से अलग दिखना चाहता था। क्या मैं परमेश्वर का विरोध करने के पौलुस वाले मार्ग पर नहीं चल रहा था? जब पौलुस ने प्रभु के लिए प्रचार और कार्य किया, तो उसने उस समय की कलीसियाओं को कई पत्र लिखे, जिसमें उसने अक्सर अपना उन्नयन किया और अपने कष्टों और प्रभु के लिए खुद को खपाने के बारे में गवाही दी, जिसके कारण कई लोग उसका आदर और उसकी आराधना करने लगे। पौलुस ने भले ही प्रचार और कार्य करते समय बहुत सारे कष्ट सहे थे, फिर भी उसने कभी प्रभु के वचनों की गवाही नहीं दी और विश्वासियों को प्रभु के सामने नहीं लाया। इसके बजाय, वह उन्हें अपने सामने लाया। उसने कभी अपनी महत्वाकांक्षाओं और मंशाओं पर विचार नहीं किया, यहाँ तक सोचा कि उसने परमेश्वर के लिए बहुत सारी चीजों को त्यागा है और बहुत कुछ खपाया है और यह मानने लगा कि धार्मिकता का एक मुकुट उसके लिए सुरक्षित रखा जाएगा। अंत में, उसने यह भी गवाही दी कि उसके लिए जीने का अर्थ ही मसीह है, उसने दूसरों को भी अपनी मिसाल के अनुसार चलाया। पौलुस की प्रकृति बेहद अहंकारी थी, और आखिरकार, परमेश्वर के स्वभाव को गंभीर रूप से नाराज करने के कारण परमेश्वर ने उसे दंड दिया। अपने खुद के व्यवहार से इसकी तुलना करने पर, मैंने देखा कि मैं भी लगातार अपना उन्नयन करता था और अपने कर्तव्य में दिखावा करता था, भाई-बहनों से प्रशंसा पाने और आराधना करवाने के लिए उनके सामने यह दिखावा करता था कि मैं हर तरह से उनसे बेहतर था। जब सभी भाई-बहन मेरे बारे में उच्च विचार रखने लगे और मेरी अच्छी काबिलियत और अपने कर्तव्य में कष्ट उठाने और कीमत चुकाने की मेरी क्षमता के लिए मेरी प्रशंसा करने लगे, तो न केवल मुझे डर नहीं लगा या मैंने आत्मचिंतन नहीं किया, बल्कि मुझे इसमें आनंद भी आया और मैं आत्म-संतुष्ट था। मैं वास्तव में प्रकृति से बहुत ज्यादा घमंडी और दंभी था, मुझमें रत्ती भर भी परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं था। मैंने जो कुछ भी किया, चाहे वह भाई-बहनों के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए परमेश्वर के वचनों से खुद को सुसज्जित करना हो या सभाओं में अपने अनुभवों पर संगति करना हो, मेरा इरादा और मेरी मंशा सत्य की समझ प्राप्त करने, अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने या ईमानदारी से दूसरों की मदद करने की नहीं थी। इसके बजाय, यह लोगों के दिलों में एक ऊँची छवि बनाने और उनकी प्रशंसा पाने की थी। यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और प्रतिरोध था! कलीसिया अगुआ के रूप में, मुझे परमेश्वर का उन्नयन करना चाहिए और उसके लिए गवाही देनी चाहिए और भाई-बहनों को सत्य और परमेश्वर के इरादों को समझने में मदद करनी चाहिए ताकि वे परमेश्वर के सामने आ सकें, उस पर भरोसा कर सकें और उसकी ओर देख सकें। लेकिन, मैं लगातार दिखावा करता रहा और खुद पर इतराता रहा, जिसके कारण भाई-बहनों के दिलों में परमेश्वर के लिए तो कोई जगह नहीं थी, लेकिन मेरे लिए जगह जरूर थी। वे अपने हर काम में मुझ पर निर्भर रहते थे और मेरी ही आराधना करते थे। मैं वास्तव में इतना घमंडी था कि मैंने सारी सूझ-बूझ खो दी थी! भले ही मैं सतही तौर पर अपना कर्तव्य निभाता था, लेकिन वास्तव में, मैं भाई-बहनों को नुकसान ही पहुँचा रहा था, उन्हें परमेश्वर से दूर ले जा रहा था और उनसे एक व्यक्ति की आराधना करवा रहा था। मेरे कार्यों की प्रकृति परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने वाली थी; मैं परमेश्वर का विरोध करने के मार्ग पर चल रहा था। अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, तो निश्चित रूप से पौलुस की तरह ही परमेश्वर मुझे भी दंड और शाप देगा। यह सोचकर, मुझे डर लगने लगा। मुझे एहसास हुआ कि अगर मैंने अभी भी पश्चात्ताप नहीं किया, तो मैं पवित्रात्मा का कार्य खो दूँगा, अंधकार में गिर जाऊँगा, और परमेश्वर द्वारा ठुकराकर हटा दिया जाऊँगा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरी प्रकृति बहुत अहंकारी है, और मुझमें तेरा भय मानने वाला दिल नहीं है। मैं हमेशा दूसरों के सामने दिखावा करता हूँ, जिसके कारण तू मुझसे बहुत घृणा करता होगा। मैं अब इस तरह से और नहीं जीना चाहता। कृपया मेरी मदद कर; मैं तेरी अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करने को तैयार हूँ।”
इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े जिसमें कहा गया है : “यह मत सोचो कि तुम सब-कुछ समझते हो। मैं तुम्हें बता दूँ कि तुमने जो कुछ भी देखा और अनुभव किया है, वह मेरी प्रबन्धन योजना के हजारवें हिस्से को समझने के लिए भी अपर्याप्त है। तो फिर तुम इतने अहंकार से पेश क्यों आते हो? तुम्हारी जरा-सी प्रतिभा और अल्पतम ज्ञान यीशु के कार्य में एक पल के लिए भी उपयोग किए जाने के लिए पर्याप्त नहीं है! तुम्हें वास्तव में कितना अनुभव है? तुमने अपने जीवन में जो कुछ देखा और सुना है और जिसकी तुमने कल्पना की है, वह मेरे एक क्षण के कार्य से भी कम है! तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि तुम आलोचक बनकर दोष मत ढूँढो। चाहे तुम कितने भी अभिमानी हो जाओ, फिर भी तुम्हारी औकात एक सृजित प्राणी से बढ़कर नहीं है, एक चींटी जितनी भी नहीं है! तुम्हारे पेट में उतना भी नहीं है जितना एक चींटी के पेट में होता है! यह मत सोचो चूँकि तुमने बहुत अनुभव कर लिया है और वरिष्ठ हो गए हो, इसलिए तुम बेलगाम ढंग से हाथ नचाते हुए बड़ी-बड़ी बातें कर सकते हो। क्या तुम्हारे अनुभव और तुम्हारी वरिष्ठता उन वचनों के परिणामस्वरूप नहीं है जो मैंने कहे हैं? क्या तुम यह मानते हो कि वे तुम्हारे परिश्रम और कड़ी मेहनत द्वारा अर्जित किए गए हैं?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दो देहधारण पूरा करते हैं देहधारण के मायने)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके, मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। मुझे परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किए हुए अभी कुछ ज्यादा समय नहीं हुआ था, और मैं अपने कर्तव्य में थोड़ा उत्साही था, कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझता था, और मैंने अपने काम में कुछ नतीजे भी प्राप्त किए थे, और इसलिए मैं इन चीजों को अपना आध्यात्मिक कद मानने लगा था, और यह सोचता था कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ और उनसे बेहतर सत्य समझता हूँ। मैं अक्सर इसका इस्तेमाल दिखावा करने और दूसरों से अपना आदर करवाने की पूँजी के तौर पर करता था। मैं सचमुच बहुत घमंडी था और मुझमें जरा-सा भी आत्म-ज्ञान नहीं था। मैं सभाओं में अपनी थोड़ी-बहुत समझ पर जो भी संगति कर सका, भाई-बहनों के सवालों के जो भी जवाब दे सका, और अपने काम में जो नतीजे प्राप्त कर सका, यह सब इसलिए था क्योंकि परमेश्वर ने जो वचन व्यक्त किए हैं, उनसे मुझे कुछ सत्य समझ में आए। अगर परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य, परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्य, तथा पवित्रात्मा की प्रबुद्धता और रोशनी न होती, तो मैं कभी भी सत्य को समझ ही नहीं पाता। चाहे वह परमेश्वर के कार्य के संबंध में हो या मेरे अपने भ्रष्ट स्वभाव के संबंध में, मैं इनमें से किसी की भी असलियत नहीं देख पा रहा था। मेरे पास इतराने के लिए कुछ भी नहीं था। हालाँकि, मैं कभी परमेश्वर के सिंचन और पोषण का आभारी नहीं रहा, इसके बजाय मैं सारा श्रेय खुद को देता था मैं इसका इस्तेमाल दिखावा करने और दूसरों से अपना आदर करवाने की पूँजी के तौर पर कर रहा था। मैं वास्तव में बहुत घमंडी, अज्ञानी और बेशर्म और सूझ-बूझ से रहित था! मैं अपनी भ्रष्टता को पहचानने में मेरी मदद करने के लिए परमेश्वर का बहुत आभारी था, और खुद को बदलना चाहता था। इसलिए, मैंने यह सोचते हुए सत्य की खोज जारी रखी कि, “मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव को कैसे हल करना चाहिए और खुद की बड़ाई और दिखावा करना कैसे बंद करना चाहिए? परमेश्वर का उन्नयन करने और उसके लिए गवाही देने के लिए मुझे कैसे अभ्यास करना चाहिए?”
बाद में, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और कैसे लोगों को ताड़ना देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुम लोगों को इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुम्हारे अनुभव में कितनी भ्रष्टता उजागर हुई, तुमने कितना कष्ट सहा, परमेश्वर का विरोध करने के लिए तुमने कितनी चीजें कीं, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुम लोगों को जीता; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुम्हें परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और कैसे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए। तुम्हें इन बातों को सरलता से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा में सत्व डालना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार चीजों का अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊंचा दिखाने की कोशिश मत करो, दिखावा करने के लिए खोखले सिद्धांतों की बात मत करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्कहीन माना जाएगा। तुम्हें अपने वास्तविक अनुभव की असली, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज्यादा बोलना चाहिए; यह दूसरों के लिए सबसे अधिक लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। “पहले, अनिवार्य स्तर पर अपनी समस्याएँ समझने और आत्म-विश्लेषण कर खुद को उजागर करने के लिए व्यक्ति के पास एक ईमानदार दिल और संजीदा रवैया होना चाहिए, और अपने स्वभाव की समस्याओं के बारे में वे जो कुछ भी समझ सकते हैं, उसके बारे में बोलना चाहिए। दूसरे, अगर व्यक्ति को यह महसूस हो कि उसका स्वभाव बहुत बुरा है, तो उसे सबसे कहना ही चाहिए, ‘अगर मैं फिर से इस तरह का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करूँ, तो बेझिझक मुझे इसके प्रति सचेत करो, और मेरी काट-छाँट करो। अगर मैं इसे स्वीकार न कर पाऊँ, तो मुझसे आशा रखना मत छोड़ना। मेरे भ्रष्ट स्वभाव का यह पक्ष बहुत गंभीर है, और मुझे उजागर करने के लिए सत्य की कई बार संगति करनी आवश्यक है। मैं सबके द्वारा काट-छाँट को सहर्ष स्वीकारता हूँ, और आशा करता हूँ कि सब मुझ पर नजर रखेंगे, मेरी मदद करेंगे, और मुझे भटकने से बचाएँगे।’ यह कैसा रवैया है? यह सत्य को स्वीकारने का रवैया है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सामंजस्यपूर्ण सहयोग के बारे में)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं समझ गया कि परमेश्वर के लिए गवाही देने में मुख्य रूप से इस बात की गवाही देना शामिल है कि कैसे परमेश्वर लोगों का न्याय और परीक्षण करता है, व्यक्ति अपने अनुभवों में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है, व्यक्ति अपने अंदर कौन-सी कमजोरियाँ और कमियाँ देखता है, परमेश्वर के कार्य और उसके वचनों के बारे में व्यक्ति में कितनी सच्ची समझ होती है, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में व्यक्ति में कितनी समझ होती है और कितना प्रत्यक्ष अनुभव होता है। इन सभी विषयों पर संगति करने का अर्थ है परमेश्वर के प्रति सच्ची गवाही देना। लेकिन जहाँ तक मेरी बात है, सभाओं के दौरान संगति करने में मेरा इरादा यह था कि दूसरे मेरे बारे में अच्छा सोचें और मेरी आराधना करें। मैं केवल अपने अच्छे और सक्रिय पक्षों की बात करता था, और मैं अपनी कमजोरियों और अपने द्वारा प्रकट की गई भ्रष्टताओं का शायद ही कभी जिक्र करता था। इस तरह मैं खुद की बड़ाई और दिखावा कर रहा था, जिससे परमेश्वर घृणा और नफरत करता है। मुझे एक ईमानदार व्यक्ति बनना चाहिए, अपनी भ्रष्टताओं के बारे में खुलकर बताना चाहिए और अपने सच्चे विचार व्यक्त करने चाहिए, जिससे दूसरे मेरा असली चेहरा देख सकें, साथ ही मुझे भाई-बहनों की निगरानी और मदद भी स्वीकारनी चाहिए। मुझे इसी तरह अभ्यास करना चाहिए। इसके बाद, सभाओं के दौरान, मैंने भाई-बहनों के सामने खुलकर बताया कि मैं कैसे दिखावा करता हूँ और अपने लिए गवाही देता हूँ, और अपने दिल में छिपे घृणित इरादों और मेरे द्वारा प्रकट की गई भ्रष्टता के बारे में भी बताया। मैंने उनसे यह भी कहा कि मुझमें भी कमजोरियां और नकारात्मकताएँ हैं और उन्हें अब मेरा आदर या मेरी आराधना नहीं करनी चाहिए। इस तरह से संगति करने के बाद, मुझे बहुत सुकून और आराम महसूस हुआ। मेरे अनुभवों के बारे में सुनकर, कुछ भाई-बहनों ने कहा कि उन्हें भी अपनी भ्रष्टताओं की कुछ समझ प्राप्त हुई थी। इसके बाद, भाई-बहनों ने पहले की तरह मेरी आराधना करना या मुझ पर निर्भर रहना छोड़ दिया, और भले ही कुछ लोग अब भी कभी-कभार मेरी संगति की प्रशंसा करते, लेकिन मैं अब उनके शब्दों से प्रभावित नहीं होता था।
तब से, मैंने लगभग हर सभा से पहले परमेश्वर से प्रार्थना की कि, “हे सर्वशक्तिमान परमेश्वर, केवल तेरी ही स्तुति की जानी चाहिए। मैं बस एक भ्रष्ट व्यक्ति हूँ। मुझे खुलकर बात करनी चाहिए और अपने सच्चे विचार व्यक्त करने चाहिए। कृपया मेरे दिल की पड़ताल कर ताकि मेरी कथनी और करनी खुद का दिखावा करने के लिए न हो, बल्कि तेरी गवाही देने के लिए हो।” इस प्रकार, प्रत्येक सभा में, मैंने परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करने और उनके बारे में अपनी समझ और बोध पर संगति करने पर ध्यान केंद्रित किया, और मैं अक्सर खुलकर बात करता था और अपने भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करता था। इसके अलावा, मैंने भाई-बहनों से कहा कि वे मेरी निगरानी करें, और अगर वे देखें कि मैं खुद को छिपा रहा हूँ, तो वे मुझे उजागर करके मेरी काट-छाँट कर सकते हैं, जिससे मुझे मेरी भ्रष्टताओं को समझने और इन भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण से मुक्त होने में मदद मिलेगी। मैं पहले सोचता था कि दूसरे लोग अच्छी तरह से संगति नहीं करते हैं, और मैं कभी भी उनकी संगति को ध्यान से नहीं सुनता था, लेकिन अब जब कोई भी भाई-बहन अपने अनुभवों और समझ के बारे में चर्चा करते हैं तो मैं उन पर पूरा ध्यान देता हूँ। जब पवित्रात्मा की तरफ से कोई भी प्रबुद्धता होती है, तो मैं इसे नोट कर लेता हूँ, और मैं भाई-बहनों के अनुभवों से बहुत कुछ सीख सकता हूँ। अब जो मैं इन चीजों का अभ्यास करने में सक्षम हो गया हूँ यह केवल परमेश्वर के वचनों के न्याय, प्रकाशन, प्रबुद्धता और रोशनी के कारण ही है। परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद!