90. जब बीमारी फिर से आए
1998, मैंने अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकारा और प्रभु के लौटने का स्वागत किया। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने जाना कि कैसे परमेश्वर इंसान को शुद्ध करने और बचाने के लिए सत्य व्यक्त करता और अंत के दिनों में न्याय का कार्य करता है, और लोगों को सुंदर मंज़िल की ओर ले जाता है। मैंने सोचा, परमेश्वर का आशीष पाकर अच्छी मंज़िल पर पहुँचना है तो मुझे उसके लिए खुद को खपाना, कष्ट उठाना कीमत चुकाना और नेक कर्म करने चाहिए, नेक काम करने चाहिए। तो मैं सुसमाचार का प्रचार और कभी-कभी भाई-बहनों की मेज़बानी करने लगी, और जो भी संभव था, वह सब करने लगी। मैं मुश्किल हालात में जी रहे भाई-बहनों को पैसों का दान भी देती। एक बार, सुसमाचार का प्रचार करते समय, मुझे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, यातना दी और जेल में डाल दिया। तब भी परमेश्वर को धोखा देकर मैं यहूदा नहीं बनी। मुझे लगा मैंने इतने अच्छे कर्म किए हैं तो यकीनन मुझे परमेश्वर का आशीष मिलेगा। फिर 2018 में, अचानक बीस साल पुरानी दिल की बीमारी ने फिर सिर उठाया, हाई ब्लड-प्रेशर के कारण मैं दो बार अस्पताल पहुँच गई। मैंने सोचा, कुछ भी हो जाए, मैं शिकायत नहीं करूँगी। मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। हैरत की बात थी कि मैं दो हफ्तों में ही ठीक होकर घर आ गयी। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी। मैंने सोचा, इतनी बीमार होकर भी मैंने शिकायत नहीं की, बल्कि ठीक होकर अपने काम में भी लग गयी, मैं परमेश्वर के प्रति सच में निष्ठावान और समर्पित हूँ। फिर, फरवरी 2019 में, मेरी दिल की बीमारी और हाई ब्लड-प्रेशर अचानक फिर उभरे, और यह पहले से ज़्यादा गंभीर थे। जल्द ही पता चला कि मुझे डायबिटीज़ भी है, और भयंकर कमर-दर्द भी था। मैं कुछ करने लायक नहीं बची थी, लेटे-लेटे ही खाती थी, बाथरूम जाने के लिए भी बहू की मदद लेनी पड़ती थी। सारा दिन बिस्तर पर पड़ी रहती थी, इतनी भी ताकत नहीं बची थी कि कुछ बोल या पलक झपका पाऊँ।
एक रात, मेरी हालत ज़्यादा बिगड़ गयी, दिल में इतना दर्द होने लगा कि साँस भी लेना मुश्किल हो गया, मानो साँस लेते ही दम निकल जाएगा। वो दर्द आधे घंटे रहा, लगा किसी भी पल प्राण निकल सकते हैं। इतनी पीड़ा में मैंने सोचा, “इतनी बीमार हूँ कि पलकें भी नहीं झपक सकती, क्या मेरा समय आ गया? अगर मैं मर गयी तो राज्य में प्रवेश कैसे करूँगी? मुझे न कभी राज्य का आशीष मिलेगा, न मैं इसका शानदार दृश्य देख पाऊँगी। क्या मेरे लिए सब-कुछ समाप्त हो गया? ...” जितना सोचती मुझे उतना बुरा लगता। प्रार्थना करने पर भी परमेश्वर का इरादा न समझ पायी। लगातार हो रहे बीमारी के दर्द ने मेरी जीने की इच्छा ही छीन ली। लेकिन मैं यह भी जानती थी कि परमेश्वर नहीं चाहता था कि मैं मरूँ। समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ, मैं अनजाने में परमेश्वर से माँगने लगी : “मैं कब ठीक होऊँगी? मेरी उम्र की सभी परिचित बहनें तंदुरुस्त हैं, लेकिन मैंने खुद को उनसे कम नहीं खपाया या मेरा योगदान कम नहीं है। मैंने परमेश्वर के लिए इतना कुछ दिया है, कंजूसी से खर्चा चलाकर ज़रूरतमंद भाई-बहनों को दान दिया। मैंने अपना हर काम पूरी मुस्तैदी से किया है। जब मैं गिरफ्तार हुई, जेल गयी और कष्ट उठाए, तो भी मैंने परमेश्वर को धोखा नहीं दिया। क्या मैंने पर्याप्त नेक कर्म नहीं किए? परमेश्वर मुझे आशीष देकर मेरी रक्षा क्यों नहीं की, मुझे तंदुरुस्त क्यों नहीं बनाया?” मैं लगातार शिकायतें कर रही थी, मेरा मन कलुषित हो गया था। उसके बाद जब मेरे दिल में और भी ज़्यादा दर्द होने लगा, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना में कहा, “हे परमेश्वर, मेरी दिल की बीमारी और बढ़ गयी है। मैं तेरा इरादा समझ नहीं पा रही, जान नहीं पा रही हूँ कि इसे अनुभव कैसे करूँ। प्रिय परमेश्वर, मैं तुझसे विद्रोह या तेरा विरोध नहीं करना चाहती। मुझे प्रबुद्ध कर, राह दिखा कि मैं इस अनुभव से सीख सकूँ।” प्रार्थना के बाद, मेरे मन में परमेश्वर के ये वचन आए : “अगर बीमारी आ जाए तो तुम्हें इसका अनुभव कैसे करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के इरादे जानने और टटोलने चाहिए; तुम्हें अपनी जाँच करनी चाहिए कि तुमने ऐसा क्या कर दिया जो सत्य के विरुद्ध है, और तुम्हारी कौन-सी भ्रष्टता दूर नहीं हुई है। कष्ट भोगे बिना तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव दूर नहीं हो सकता है। कष्टों की आँच से तपकर ही लोग स्वच्छंद नहीं बनेंगे और हर घड़ी परमेश्वर के समक्ष रह सकेंगे। जब कोई कष्ट भोगता है तो वह हमेशा प्रार्थना में लगा रहता है। तब उसे खान-पान, कपड़े-लत्तों और दूसरी सुख-सुविधाओं की सुध नहीं रहती; वह मन ही मन प्रार्थना करता रहता है, हमेशा आत्म-परीक्षण करता है कि कहीं वह कुछ गलत तो नहीं कर बैठा या कहीं सत्य के विरुद्ध तो नहीं चला गया। आम तौर पर जब तुम किसी गंभीर या अजीब बीमारी का सामना करते हो और बेहद पीड़ा झेलते हो तो ऐसा संयोगवश नहीं होता। चाहे तुम बीमार हो या खूब तंदुरुस्त हो, इसके पीछे परमेश्वर का इरादा होता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके, मैं उसके इरादे स्पष्टता से समझ पायी। परमेश्वर इस बीमारी के ज़रिए मेरे प्राण नहीं ले रहा था, न ही वह अकारण मुझे कष्ट दे रहा था। बल्कि, मेरी बीमारी भ्रष्टता बेनकाब करने का एक तरीका-मात्र थी, वह मुझे सबक सीखने में मेरी मदद कर रहा था—ये मुझे बचाने का परमेश्वर का तरीका था। मुझे परमेश्वर को गलत समझना या उसे दोष नहीं देना चाहिए, मुझे तो आत्म-चिंतन करने की ज़रूरत है।
वचनों के कुछ ऐसे अंश थे जिनसे मुझे उस समय की अपनी स्थिति को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुज़ारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैं अपना क्रोध लोगों पर उतारता हूँ और कभी उनके पास रही सारी सुख-शांति छीन लेता हूँ, तो मनुष्य शंकालु हो जाता है। जब मैं मनुष्य को नरक का कष्ट देता हूँ और स्वर्ग के आशीष वापस ले लेता हूँ, वे क्रोध से भर जाते हैं। जब लोग मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहते हैं, और मैं उस पर ध्यान नहीं देता और उनके प्रति गहरी घृणा महसूस करता हूँ; तो लोग मुझे छोड़कर चले जाते हैं और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगा। जब मैं मनुष्य द्वारा मुझसे माँगी गई सारी चीजें वापस ले लेता हूँ, तो वे बिना कोई निशान छोड़े गायब हो गया। इसलिए मैं कहता हूँ कि लोग मुझ पर इसलिए विश्वास करते हैं, क्योंकि मेरा अनुग्रह अत्यंत विपुल है, और क्योंकि बहुत अधिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। “मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष लेने वाले और देने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह एक कर्मचारी और एक नियोक्ता के मध्य का संबंध है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम करता है। इस प्रकार के हित-आधारित संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेन-देन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझ नहीं होती, केवल असहाय दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। “मैंने पूरे समय मनुष्य के लिए बहुत कठोर मानक रखा है। अगर तुम्हारी वफादारी इरादों और शर्तों के साथ आती है, तो मैं तुम्हारी तथाकथित वफादारी के बिना रहना चाहूँगा, क्योंकि मैं उन लोगों से घृणा करता हूँ, जो मुझे अपने इरादों से धोखा देते हैं और शर्तों द्वारा मुझसे जबरन वसूली करते हैं। मैं मनुष्य से सिर्फ यही चाहता हूँ कि वह मेरे प्रति पूरी तरह से वफादार हो और सभी चीजें एक ही शब्द : आस्था—के वास्ते—और उसे साबित करने के लिए करे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?)। परमेश्वर के न्याय के वचन सीने में चाकू की तरह घुस गए। मुझे बड़ी शर्म आयी और मैं तुरंत होश में आ गयी। मैं आत्मचिंतन करने लगी, मेरी इतने बरसों की आस्था का लक्ष्य आखिर क्या था? मैंने सोचा कि कैसे मैं विश्वासी बनकर, मुश्किलों में पड़े भाई-बहनों की मदद किया करती थी, कलीसिया का हर ज़रूरी काम अपनी क्षमता के अनुसार किया करती थी, सीसीपी द्वारा गिरफ्तार कर जेल में यातना दिए जाने पर भी मैंने परमेश्वर को धोखा नहीं दिया। मुझे लगा मैंने बहुत अच्छे-अच्छे कर्म किए हैं। लेकिन परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन और तथ्यों के ज़रिए उजागर होने पर, मुझे एहसास हुआ कि मैंने परमेश्वर की संतुष्टि के लिए खुद को खपाया या त्याग नहीं किया, बल्कि मैंने उसका अनुग्रह और आशीष पाने, अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखने और सुंदर मंज़िल पाने के लिए यह सब किया था। तो जब मैं पहली बार बीमार पड़ी, मैंने सोचा चूँकि मैंने परमेश्वर के लिए खुद को इतना खपाया है, तो मेरी बीमारी के बावजूद वह मुझे मरने नहीं देगा, इसलिए मैंने परमेश्वर को दोष नहीं दिया। दूसरी बार हालत ज़्यादा खराब हो गयी, मैं अपना ख्याल रखने लायक न रही, लंबी बीमारी से जूझते हुए सिर पर मौत का खतरा मंडराने लगा, मुझे आशीष पाने और स्वर्ग के राज्य में जाने के आसार धुँधले दिखे, तब मुझे खुद को खपाने का पछतावा हुआ। मैं तो अपने पिछले त्याग और व्यय को लेकर परमेश्वर से बहस भी करने लगी। मैं परमेश्वर से सौदेबाज़ी करके उसे धोखा दे रही थी, जो उसके लिए खुद को खपाने से एकदम विपरीत था! मैंने विचार किया कि मैं इतनी गलत क्यों थी? परमेश्वर के वचनों ने बताया कि मेरी यह सोच भ्रामक थी कि परमेश्वर के लिए खुद को खपाने, त्यागने के कारण वो मुझे आशीष देगा, मुझे अच्छा स्वास्थ्य और अच्छा गंतव्य देगा, जैसा कि लौकिक जगत में, व्यक्ति के काम के आधार पर उसे पारिश्रमिक देना उचित समझा जाता है। मैंने अपने कष्टों और त्याग को पूँजी समझा जिससे मैं अच्छी मंज़िल के लिए परमेश्वर से सौदेबाज़ी कर सकती थी, और जब यह सब नहीं मिला, तो मैं शिकायत करने और विरोध करने पर उतर आयी। मैं एकदम अतर्कसंगत थी! परमेश्वर पवित्र और धार्मिक है—वो चाहता है हम निष्ठा से त्याग करें। लेकिन मेरी घृणित मंशा परमेश्वर से सौदेबाज़ी करने की थी। मैं उससे कपट और उसका विरोध कर रही थी। अगर मैंने जल्द प्रायश्चित नहीं किया, तो परमेश्वर घृणा करते हुए मुझे हटा देगा।
मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उसके वचनों के ज़रिए समस्या की जड़ को समझने की कोशिश की। फिर र्मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी खातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; जब वे चीजें त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं, तो यह धन्य होने के लिए होता है, और जब वे परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं, तो यह भी पुरस्कार पाने के लिए ही होता है। संक्षेप में, यह सब धन्य होने, पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में लोग अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर में वे धन्य होने के लिए कोई कर्तव्य करते हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए ही लोग सब-कुछ छोड़ते हैं और काफी दुःख सहन कर पाते हैं। मनुष्य की शैतानी प्रकृति का इससे बेहतर प्रमाण नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी प्रकृति सार को बेनकाब कर दिया। परमेश्वर के साथ मेरे सौदेबाज़ी करने और उसे धोखा देने की वजह यह थी कि शैतान मुझे बुरी तरह से भ्रष्ट कर चुका था। मेरे विचार और धारणाएँ शैतानी विष से ही प्रभावित थे। मैं इस तरह के शैतानी तर्क और सिद्धांतों के अनुसार जी रही थी कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” और “कभी घाटे का सौदा मत करो,” हमेशा अपने हित के लिए काम करते हुए केवल परमेश्वर से सौदेबाज़ी करने के लिए ही खुद को खपाती थी। मैं परमेश्वर से कुछ न कुछ हासिल करने और छोटे-छोटे खर्चों के बदले उससे आशीष पाने की ताक में रहती थी। मैं शैतान के ज़हर के सहारे जी रही थी, स्वार्थी और नीच बनकर निजी हित चाहती थी। आशीष और लाभ न मिलने पर, परमेश्वर के खिलाफ शिकायत करती थी। मेरे अंदर इंसानियत नाम की चीज़ नहीं थी! मैंने विचार किया कि किस तरह इंसान को बचाने के लिए परमेश्वर ने, पहला देहधारण किया, उसके छुटकारे के लिए वह सूली चढ़ा, अपने दूसरे देहधारण में, वह बड़े लाल अजगर के देश में आया, सीसीपी ने उसका उत्पीड़न किया, धार्मिक जगत ने उसकी निंदा कर उसे नकारा। परमेश्वर ने भयंकर कष्ट और अपमान सहा, फिर भी हमारे सिंचन और पोषण के लिए सत्य व्यक्त किया। परमेश्वर ने हमसे कभी कुछ नहीं माँगा, वह इंसान के लिए चुपचाप खुद को खपाता रहा है। लेकिन मैंने परमेश्वर का प्रेम चुकाने की कभी नहीं सोची, बल्कि उससे शांति, आशीष और अच्छी मंज़िल की माँग की। और इच्छा पूरी न होने पर मैंने परमेश्वर के खिलाफ शिकायत की। मेरा ज़मीर आखिर कहाँ था? मैं तो इंसान कहलाने लायक भी नहीं थी, उसके राज्य में प्रवेश करने की तो बात ही छोड़ो। जब सब समझ आया तो, मुझे खुद से नफ़रत हो गयी और मैंने परमेश्वर का आभार माना। अगर मैंने बीमारी से बिस्तर न पकड़ा होता, मौत का भय न होता, तो मैंने कभी आत्म-चिंतन न किया होता, गलत रास्ते पर ही चलती रहती, मुझे पता भी न चलता और परमेश्वर मुझे त्याग कर निकाल देता। मैंने भावुक होकर परमेश्वर से प्रार्थना की : “प्रिय परमेश्वर! अब मुझे समझ में आया कि यह बीमारी मेरे लिए तेरे प्रेम और उद्धार का अंग है। मैं समर्पण को तैयार हूँ। केवल इस तरह के न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन के ज़रिए ही, मैं एक विश्वासी के नाते अपनी गलत मंशाओं को पहचानकर अपने भ्रष्ट स्वभाव को बदल सकती हूँ। मैं अपने गलत लक्ष्य और धारणाएँ बदलने और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने को तैयार हूँ।” फिर मैंने देहधारी परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। मैं समझ गयी कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ। परमेश्वर के लिए त्याग करना और खुद को खपाना एकदम स्वाभाविक और न्यायसंगत है और यह मेरा कर्तव्य है। मुझे परमेश्वर से कुछ माँगना नहीं चाहिए, लेकिन मैं अपनी घृणित मंशाओं के तहत, अपने खर्च के बदले परमेश्वर से आशीष और अच्छी मंज़िल चाहती थी। मैं कितनी गलत थी! चाहे मेरे पास अच्छा स्वास्थ्य और मंज़िल हो या न हो, मुझे अपने कर्तव्य में उसका अनुसरण और उसके लिए खुद को खपाना चाहिए, जैसे किसी बच्चे को हमेशा अपने माता-पिता का सम्मान करना चाहिए, भले ही वे बच्चे के साथ कैसा भी बर्ताव करें, उसे उनकी संपत्ति मिले या न मिले। क्योंकि ये ज़िम्मेदारियाँ और दायित्व हैं। भले अभी मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं हुआ था और हालत खराब थी, लेकिन अब मैंने परमेश्वर को गलत समझकर उसके खिलाफ शिकायत नहीं की। चाहे मैं ठीक हो पाऊँ या नहीं, मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार थी।
दरअसल, जहाँ तक यह सवाल है कि नेक कर्म कौन-से हैं और किस तरह से खुद को खपाने से परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है, पहले, मैं इन्हें अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परखती थी, लेकिन यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं है। फिर परमेश्वर के वचनों में, न्याय का मानक पता चलने पर, मैं समझ गयी कि नेक कर्म क्या होते हैं। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों को अच्छे या बुरे के रूप में आंका जाता है? वह यह है कि वह अपने विचारों, प्रकाशनों और कार्यों में सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य वास्तविकता को जीने की गवाही रखता है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो बेशक, तुम एक कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को कैसे देखता है? परमेश्वर के लिए, तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हराते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और उस अपमान से निशानों से भरे हुए हैं जो तुमने परमेश्वर का किया है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुमपरमेश्वर के लिये खुद को खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि अपने फायदे के लिए काम कर रहे हो। ‘अपने फायदे के लिए’ इसका क्या मतलब है? इसका सही-सही मतलब है, शैतान के फायदे के लिए काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, ‘हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।’ परमेश्वर की नजर में तुम्हारे कार्यों को अच्छे कर्मों के रूप में नहीं देखा जाएगा, बल्कि उन्हें बुरे कर्म माना जाएगा। उन्हें न केवल परमेश्वर की स्वीकृति हासिल नहीं होगी—बल्कि उनकी निंदा भी की परमेश्वर में ऐसे विश्वास से कोई क्या हासिल करने की आशा कर सकता है? क्या इस तरह का विश्वास अंततः व्यर्थ नहीं हो जाएगा?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। “चूँकि तुम निश्चित हो कि यह रास्ता सही है, इसलिए तुम्हें अंत तक इसका अनुसरण करना चाहिए; तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखनी चाहिए। चूँकि तुमने देख लिया है कि स्वयं परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बनाने के लिए पृथ्वी पर आया है, इसलिए तुम्हें पूरी तरह से अपना दिल उसे समर्पित कर देना चाहिए। भले ही वह कुछ भी करे, यहाँ तक कि बिलकुल अंत में तुम्हारे लिए एक प्रतिकूल परिणाम ही क्यों न निर्धारित कर दे, अगर तुम फिर भी उसका अनुसरण कर सकते हो, तो यह परमेश्वर के सामने अपनी पवित्रता बनाए रखना है। परमेश्वर को एक पवित्र आध्यात्मिक देह और एक शुद्ध कुँवारापन अर्पित करने का अर्थ है परमेश्वर के सामने ईमानदार दिल बनाए रखना। मनुष्य के लिए ईमानदारी ही पवित्रता है, और परमेश्वर के प्रति ईमानदार होने में सक्षम होना ही पवित्रता बनाए रखना है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपनी भक्ति बनाए रखनी चाहिए)। इन्हें पढ़कर मुझे समझ आया कि परमेश्वर चाहता है, हम सच्चे बनें, बिना किसी अपेक्षा के वे उसके लिए त्याग करने को तैयार हों सत्य का अभ्यास करें और अपने कर्तव्यों में परमेश्वर की गवाही दें। असल में नेक कर्मों का यही अर्थ है। पहले नेक कामों की मेरी समझ एक-तरफा थी। मुझे लगता था अगर मैं खुद को खपाती हूँ, कष्ट सहती और कीमत चुकाती हूँ, तो मैं नेक कर्म संचित कर रही हूँ और परमेश्वर मुझे याद रखेगा। फिर मुझे याद आया कि किस तरह अनुग्रह के युग में, प्रभु यीशु ने भेंट देने के लिए एक गरीब विधवा को स्वीकृति दी थी। ज़्यादातर लोगों को लगा कि उसके दिए कुछ सिक्कों की कोई खास कीमत नहीं थी, लेकिन परमेश्वर यह नहीं देखता कि किसी ने कितना दान दिया है, वह उनकी नीयत देखता है। मैंने खुद को खपाया था, उस विधवा से कई गुना ज़्यादा दिया था, तो परमेश्वर ने मुझे स्वीकृति क्यों नहीं दी? परमेश्वर को मेरे व्यय से चिढ़ नहीं थी, उसे मेरी कपटी मंशाओं और कपट से चिढ़ थी। मैं परमेश्वर के साथ ईमानदार नहीं थी; मेरा खुद को खपाना सौदेबाज़ी और अशुद्ध था। इस तरह से मैंने चाहे जितना दिया होता, वो कभी भी नेक कर्म न कहलाता। परमेश्वर के इरादे का एहसास होने पर, मैंने उससे प्रार्थना की कि अब मुझे चाहे स्वास्थ्य-लाभ और अच्छी मंज़िल मिले या न मिले, लेकिन मैं अब भी परमेश्वर के प्रेम के प्रतिदान के लिए खुद को खपाऊँगी। मेरा कमर-दर्द और दिल की बीमारी बनी रही, लेकिन अब मैं न तो अपनी बीमारी को लेकर परेशान थी, न ही अपनी ख्वाहिश और आशीषों के कब्ज़े में थी—मैं निरंतर परमेश्वर के वचनों को खा-पी रही थी, सभाओं में जा रही थी और यथासंभव अपने कर्तव्य निभा रही थी।
मुझे अपने जीवन में अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकारने का मौका, और उसकी वाणी सुनने का सौभाग्य मिला है—उसने यह सब विशेष रूप से मेरे उत्कर्ष के लिए किया है। परमेश्वर के वचनों के खुलासे और न्याय के ज़रिए, मैंने जान लिया है कि शैतान ने मुझे इतना भ्रष्ट कर दिया कि मैं इंसान कहलाने लायक नहीं हूँ। अब जाकर मैंने थोड़ा-बहुत विवेक और परमेश्वर के प्रति समर्पण हासिल किया है। अब चूँकि मुझमें बदलाव आ गया है, मैं अगर मर भी जाऊँ, तो मेरा जीवन व्यर्थ नहीं जाएगा। आशीषों की इच्छाओं का त्याग करके और बीमारी से बेबस न होकर, मैं बहुत स्थिर महसूस करती हूँ। फिर मैंने अपनी बीमारी का कोई इलाज नहीं कराया, अपने आप ही मेरी सेहत सुधरने लगी। अब मैं बैठकर कंप्यूटर पर काम कर सकती हूँ, और परमेश्वर के लिए गवाही के लेख लिख सकती हूँ। मैं अब अपना ध्यान भी रख सकती हूँ। मैं तहेदिल से परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ कि उसने मेरी बीमारी के ज़रिए मुझे सबक सीखने में मदद की, और मैं अपने लिए उसका उद्धार और प्रेम देख पायी। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “परमेश्वर पर विश्वास करते हुए लोग भविष्य के लिए आशीष पाने में लगे रहते हैं; यही उनकी आस्था का लक्ष्य होता है। सभी लोगों की यही अभिलाषा और आशा होती है, लेकिन उनकी प्रकृति की भ्रष्टता परीक्षणों और शोधन के माध्यम से दूर की जानी चाहिए। तुम जिन-जिन पहलुओं में शुद्ध नहीं हो और भ्रष्टता दिखाते हो, उन पहलुओं में तुम्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाकर उसमें परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपनी भ्रष्टता को जान जाओ। अंततः तुम उस मुकाम पर पहुँच जाते हो जहाँ तुम अपनी योजनाओं और इच्छाओं को छोड़ने और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करने के लिए मर जाना पसंद करते हो। इसलिए अगर लोगों का कई वर्षों तक शोधन न हो, अगर वे एक हद तक पीड़ा न सहें, तो वे अपनी सोच और हृदय में देह की भ्रष्टता की बाध्यताएँ तोड़ने में सक्षम नहीं होंगे। जिन किन्हीं पहलुओं में लोग अभी भी अपनी शैतानी प्रकृति की बाध्यताओं में जकड़े हैं और जिन भी पहलुओं में उनकी अपनी इच्छाएँ और मांगें बची हैं, उन्हीं पहलुओं में उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। केवल दुख भोगकर ही सबक सीखे जा सकते हैं, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे समझने में समर्थ होना” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)।