5. किसी कर्तव्य को अच्छे से निभाने के लिए ईमानदारी चाहिए
मैं कलीसिया में नए विश्वासियों को सिंचित करने की प्रभारी हूँ। कुछ नए विश्वासी हाल ही में शामिल हुए थे, और मैंने देखा कि उनमें से कुछ सभाओं में ज्यादा बात नहीं करते थे और नियमित रूप से नहीं आते थे। वे तभी आते जब उनका मन होता। जब मैं उनसे अलग-अलग संगति करने पहुँची, तो उन्हें इस बारे में बात करना अच्छा लगा कि पैसा कैसे कमाया जाए और पारिवारिक संपत्ति कैसे बनाई जाए, लेकिन जैसे ही आस्था की बात आई, उन्होंने बातचीत करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। मुझे लगा जैसे उन्हें सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं है, वे सच्चे विश्वासी नहीं लगे। लेकिन मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं थी क्योंकि वे आस्था में नए थे, इसलिए मैं उन्हें समर्थन देती रही। कुछ समय बीत जाने के बाद भी वे वैसे ही थे और धीरे-धीरे उन्होंने सभाओं में आना बंद कर दिया। तब जाकर मैंने अगुआ को उनकी स्थितियों के बारे में बताया। उसने मुझसे पूछा, “तुम उन्हें कैसे सिंचित कर रही हो? क्योंकि जब वे दूसरे सिंचनकर्ताओं के साथ थे, तो सामान्य रूप से उपस्थित होते थे, अब जब वे तुम्हारे साथ हैं, तो चीजें अलग कैसे हो गईं? क्या तुमने वाकई अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं और स्पष्ट रूप से संगति की है? अगर कर्तव्य में हमारी लापरवाही के कारण नए विश्वासी नियमित रूप से सभा नहीं करते हैं, तो जिम्मेदारी केवल हमारी है।” मैं जानती थी कि वह काम के प्रति अपनी जिम्मेदारी की भावना से ऐसा कह रही है, लेकिन मैं औचित्यों के बारे में सोच रही थी। “हर कोई बदल सकता है,” मैंने मन में सोचा। “सिर्फ इसलिए कि नए विश्वासी पहले नियमित रूप से सभाओं में शामिल होते थे, इसका मतलब यह तो नहीं कि वे हमेशा ऐसा ही करेंगे। इसके अलावा, जब मैं उनसे पहली बार मिली तो वे नियमित रूप से सभा में नहीं आते थे, तो यह कोई अचानक आया बदलाव नहीं है। मैं बस थोड़े समय के लिए उनका सिंचन कर देखना चाहती थी कि चीजें कैसे चल रही हैं, इसलिए मैंने तुम्हें तुरंत नहीं बताया। अगर उनकी गैर-हाजिरी के लिए तुमने मुझे जिम्मेदार ठहराने के लिए बुलाया है, तो मुझे इसके परिणाम भुगतने होंगे, और हो सकता है कि मेरी काट-छाँट की जाए या मुझे बरखास्त ही कर दिया जाए। अगर मुझे शुरु में ही पता चल जाता, तो मैंने पहले ही तुम से इस बारे में बात कर ली होती ताकि सारी जिम्मेदारी मुझे तो न लेनी पड़ती।” इसकी जाँच करने पर अगुआ ने इसके लिए मुझे जिम्मेदार तो नहीं ठहराया, लेकिन उसके बाद मैं नए विश्वासियों के साथ इस चीज को लेकर अपनी बातचीत में सचेत रहने लगी। अगर मैं देखती कि उनमें से किसी को कोई समस्या है या कोई सभाओं में नहीं आ रहा है, तो मैं फौरन अगुआ को बताती। कभी-कभी अगुआ मुझसे पूछती कि मैं कहना क्या चाहती हूँ और क्या मेरा इरादा उनका सिंचन रोक देना है। मैं कहती, “नहीं, तुम अगुआ हो। मैं बस तुम्हें बताना चाहती थी कि नए विश्वासियों का क्या चल रहा है।” मेरे इतना कहने के बाद वह कुछ न बोलती। कभी-कभी जब मैं उसे इस बारे में बताती, तो वह कहती कि कुछ समय तक और उनका सिंचन करती रहो और अगर वाकई वे सभा में नहीं आना चाहते, तो उन्हें मजबूर नहीं किया जा सकता और हम उनका सिंचन करना छोड़ देंगे। मैं पूरी तरह सहमत हो जाती और सोचती, “अब जबकि अगुआ को नए विश्वासियों की स्थिति का पता है, तो मुझे बस समर्थन देना है। अगर समर्थन से बात बनती है तो बेहतर है, और अगर नहीं बनती और नये विश्वासी सभा में शामिल ही नहीं होना चाहते, तो इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए, अगुआ यह तो नहीं कहेगी कि मैं अपने कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार थी।” यह सोचकर, मैंने अपने कर्तव्य पर उतना ध्यान देना बंद कर दिया। हर दिन, मैं बस नियमित तरीके से सिंचन करती। जब भी मैं किसी नए विश्वासी को बुलाती, और वह जवाब देता तो मैं उसके साथ थोड़ी देर संगति करती, अगर जवाब न देता तो मैं परवाह न करती। मैंने सोचती कि अगर वह जवाब नहीं दे रहा है तो उसमें मैं क्या कर सकती हूँ, और मैं इस बारे में न सोचती कि उसके मुद्दों को हल करने में मदद के लिए क्या कर सकती हूँ। बाद में एक सभा में, अगुआ ने कहा कि अब से सिंचन कार्य का जायजा लेते समय, जब सिंचनकर्ता नए विश्वासियों की स्थितियों के बारे बताएँगे, तब अगुआ यह भी जानना चाहेगी कि सिंचनकर्ताओं ने सत्य के किन पहलुओं पर उनके साथ संगति की थी और विशेष रूप से उन्होंने ने किस तरह उन्हें समर्थन दिया। उस आधार पर, वह आकलन करेगी कि सिंचनकर्ता वास्तविक कार्य कर रहे हैं या नहीं। अगर कोई सिंचनकर्ता पूरे मन से नए विश्वासियों के साथ सत्य पर संगति नहीं कर रहा है, और उसके कारण वे नियमित रूप से सभाओं में नहीं आ रहे हैं या छोड़ रहे हैं, तो इसकी जिम्मेदारी सिंचनकर्ता की होगी। जब मैंने यह सुना तो सोचने लगी कि कैसे, नए विश्वासियों के साथ संगति करते समय, मैंने यह नोट नहीं किया कि मैंने परमेश्वर के कौन से वचन पढ़े या किन सत्यों पर संगति की। इसका मतलब यह हुआ कि अगर कोई नया विश्वासी सभाओं में आना बंद कर दे तो मेरे पास काम का कोई सबूत नहीं होगा। कहीं अगुआ यह तो नहीं सोचेगी कि मैं कोई वास्तविक काम नहीं कर रही हूँ और सिंचन कार्य करने में गैर-जिम्मेदार हूँ, और फिर मेरी काट-छाँट न कर दे? इसलिए मैंने नए विश्वासियों को परमेश्वर के संदेश और वचन भेजने पर ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया, और जब किसी नए विश्वासी के साथ संगति करती, तो मैं उसके साथ अपनी चर्चा का रिकॉर्ड रखने लगी। कभी-कभी जब मैं किसी नए विश्वासी को संदेश भेजती, तो वह कोई जवाब न देता, लेकिन मैं ज्यादा परेशान नहीं होती थी। मुझे लगता कि मैंने उसे भेजने लायक परमेश्वर के सारे वचन भेज दिये हैं और जिस चीज पर संगति करनी थी वह कर ली है। अगर उसने सभाओं में आना बंद कर दिया तो अगुआ मेरे रिकॉर्ड देख लेगी और शायद मुझे गैरजिम्मेदार नहीं कहेगी।
कुछ समय बाद, अगुआ ने देखा कि कुछ नये विश्वासी अभी भी सभा में नहीं आना चाहते थे, और पूछा कि मैंने किस तरह उनका सिंचन किया। मैंने यह सोचकर तुरंत उसे अपने नोट्स दिखाए, “अच्छा हुआ मैंने रिकॉर्ड तैयार करके रख लिए। वरना मेरे पास दिखाने को कुछ ठोस न होता और फिर क्या पता अगुआ मुझे क्या सुनाती।” जब मैं खुद को बधाई दे रही थी, तो अगुआ ने कहा, “मुझे इन नोट्स में कोई समस्या नजर नहीं आती, लेकिन बहुत से नए विश्वासियों ने एक के बाद एक सभाओं में भाग लेना बंद कर दिया, तो जरूर तुम्हारे काम में कोई समस्या होगी। मैं अभी स्पष्ट रूप से नहीं समझ पा रही हूँ कि क्या वजह हो सकती है, लेकिन हाल ही में हमारी बातचीत में तुमने नए विश्वासियों की समस्याओं पर बहुत सारी बातें की हैं, जो सामान्य बात नहीं है। तुम्हें खुद से पूछना होगा कि समस्या कहाँ है। अगर तुम्हारे बेमन से काम करने और अच्छे से सिंचन न करने के कारण नए विश्वासी कलीसिया छोड़ रहे हैं और आस्था त्याग रहे हैं, तो यह तुम्हारे गैर-जिम्मेदार होने और अपना कर्तव्य ठीक से न निभाने का मसला है।” उसने जो कहा वह सचमुच एक झटका था। मैं स्तब्ध रह गई। मैं इस बात से डर गई कि अगर मेरी समस्याओं के कारण नए विश्वासी छोड़ रहे हैं, तो यह कुकर्म करना हुआ। तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, तुम्हारी रजामंदी से अगुआ ने आज मुझे चकित कर दिया, इसलिए मेरे लिए सीखने को जरूर कोई सबक होगा। मैं नहीं चाहती कि मेरे मसलों के कारण इन नए विश्वासियों को कोई नुकसान पहुँचे, लेकिन मैं इसे लेकर सुन्न हो गई हूँ और नहीं जानती कि मेरी समस्या कहाँ है। मुझे प्रबुद्ध करके मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं खुद को जानकर समय रहते बदलाव कर सकूँ।”
अगले कुछ दिनों में, मैंने इस बारे में परमेश्वर से काफी प्रार्थना की। फिर एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के साथ एक अनुभवात्मक साक्ष्य लेख पढ़ा जिसने मुझे प्रभावित किया। परमेश्वर कहता है : “यह देखने के लिए कि तुम एक सही व्यक्ति हो या नहीं, तुम्हें सावधानीपूर्वक स्वयं की जाँच करनी चाहिए। क्या तुम्हारे लक्ष्य और इरादे मुझे ध्यान में रखकर बनाए गए हैं? क्या तुम्हारे शब्द और कार्य मेरी उपस्थिति में कहे और किए गए हैं? मैं तुम्हारी सभी सोच और विचारों की जाँच करता हूँ। क्या तुम दोषी महसूस नहीं करते? तुम दूसरों को झूठा चेहरा दिखाते हो और शांति से आत्म-धार्मिकता का दिखावा करते हो; तुम यह अपने बचाव के लिए करते हो। तुम यह अपनी बुराई छुपाने के लिए करते हो, और किसी दूसरे पर उस बुराई को थोपने के तरीके भी सोचते हो। तुम्हारे दिल में कितना कपट भरा हुआ है!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। परमेश्वर के वचन उजागर करते हैं कि लोग झूठ बोलेंगे और दूसरों पर जिम्मेदारी थोपने के लिए बहानेबाजी करेंगे, ताकि अपने हितों की रक्षा कर सकें और अपने कुकर्मों को छिपा सकें और इस तरह खुद को बचा सकें। यह कपटपूर्ण व्यवहार है। मुझे लगा जैसे इन वचनों से मेरी अपनी अवस्था उजागर हो गई हो। मैं आत्मचिंतन करते हुए, खुद से पूछने लगी कि मैं हमेशा नए विश्वासियों के साथ समस्याओं के बारे में अगुआ को क्यों बताती थी। जब भी मैं देखती कि किसी को कोई समस्या है या वह सभाओं में नहीं आ रहा है, तो मैं फौरन अगुआ को बताती। लगता ऐसा था जैसे मैं सिर्फ तथ्य साझा कर रही हूँ, जबकि असल में मेरे व्यक्तिगत लक्ष्य और इरादे होते थे। मुझे डर रहता था कि अगर किसी ने आना बंद कर दिया, तो अगुआ मुझे जिम्मेदार ठहराएगी या बरखास्त ही कर देगी, इसलिए मैं तुरंत कार्रवाई करके नए विश्वासी की समस्याओं को साझा करती, अगुआ को यह कहकर झूठी तस्वीर दिखाती कि नया विश्वासी अच्छा नहीं है और इसकी जिम्मेदार मैं नहीं हूँ। अगर मैं उसका पर्याप्त समर्थन नहीं कर पाई और वह उपस्थित नहीं हो रहा है, तो यह उसकी समस्या है। इस तरह मैं बिल्कुल साफ बच निकलती। अगर इसके बाद, वह फिर से सभाओं में आना चाहता, तो मैं उसका श्रेय लेने का दावा कर सकती थी। इस मुकाम पर मैंने आत्मचिंतन किया तो मैं चौंक गई। मैंने कभी नहीं सोचा भी था कि मैंने अपनी बातों में ऐसे नीच और घृणित मकसद छिपा रखे हैं। मैं बहुत कपटी थी!
बाद में, मुझे हैरानी हुई कि मैं अनजाने में इतना बेईमानी से भरा और कपटी काम कैसे कर सकती थी। आत्मचिंतन के दौरान, लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़कर ही मैंने खुद को थोड़ा-बहुत समझना शुरू किया था। परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधियों की दुष्टता की एक स्पष्ट विशेषता होती है, और इसे पहचानने का राज़ मैं तुम लोगों के साथ साझा करूँगा : इसका राज़ है कि उनके भाषण और कार्य दोनों में, तुम उनकी गहराई नहीं समझ सकते या उनके दिल में नहीं झाँक सकते। तुमसे बात करते हुए उनकी आँखें हमेशा इधर-उधर नाचती रहती हैं, और तुम यह नहीं बता सकते कि वे कैसी योजना बना रहे हैं। कभी-कभी, वे तुमको यह एहसास दिलाते हैं कि वे निष्ठावान या काफी ईमानदार हैं, लेकिन ऐसा है नहीं—तुम उनकी असलियत कभी नहीं समझ सकते। तुम्हारे दिल में एक खास अनुभूति होती है, एक बोध कि उनके विचारों में एक गहरी सूक्ष्मता है, उनमें अथाह गहराई है, कि वे कपटपूर्ण हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। “मसीह-विरोधी अपने व्यवहार में कुटिल होते हैं। वे कैसे कुटिल होते हैं? उनका व्यवहार हमेशा छल-कपट पर निर्भर होता है, लेकिन उनकी बातों से कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता, इसलिए लोगों के लिए उनके इरादे और मकसद को समझना मुश्किल होता है। यह कुटिलता होती है। वे अपनी किसी भी कथनी या करनी में आसानी से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचते; वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि उनके अधीनस्थ और उन्हें सुनने वाले उनके इरादे समझ सकें और वे लोग जो मसीह-विरोधी को समझ चुके हैं, उनके एजेंडे और प्रेरणाओं के अनुसार कार्य और उनके आदेशों का पालन करें। यदि कोई कार्य पूरा हो जाता है, तो मसीह-विरोधी खुश होता है। यदि ऐसा नहीं होता है, तो कोई भी उनके विरुद्ध कोई बात खोज नहीं पाता और न ही वे जो करते हैं उसके पीछे की प्रेरणाओं, इरादों या लक्ष्यों की थाह पा सकता है। मसीह-विरोधी जो कुछ करते हैं उसकी कुटिलता छिपी हुई साजिश और गुप्त मंशाओं में निहित होती है, जिनका मकसद लोगों को धोखा देना, उनके साथ खिलवाड़ करना और उन्हें नियंत्रित करना होता है। यह कुटिल व्यवहार का सार है। कुटिलता बस झूठ बोलना या कुछ बुरा करना नहीं होता; इसके बजाय इसमें बड़े इरादे और लक्ष्य शामिल होते हैं, जो आम लोगों के लिए अथाह होते हैं। यदि तुमने कुछ ऐसा किया है, जिसके बारे में तुम नहीं चाहते कि किसी को पता चले, और झूठ बोलते हो, तो क्या यह कुटिलता मानी जाएगी? (नहीं।) यह सिर्फ छल है, इसे कुटिलता की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा। कौन-सी चीज कुटिलता को छल से अधिक गहरा बनाती है? (लोग उसकी थाह नहीं ले पाते।) लोगों के लिए उसकी थाह लेना मुश्किल होता है। यह तो एक बात हो गई। और क्या? (लोगों के पास कुटिल व्यक्ति के खिलाफ कुछ नहीं होता।) यह बात सही है। बात यह है कि लोगों के लिए उनके खिलाफ कुछ भी खोजना मुश्किल होता है। अगर कुछ लोगों को पता भी चल जाए कि फलाँ व्यक्ति ने बुरे काम किए हैं, तो वे यह तय नहीं कर पाते कि वह व्यक्ति अच्छा है या बुरा, बुरा व्यक्ति है या मसीह-विरोधी। लोग उसकी असलियत नहीं जान पाते, उन्हें लगता है कि वह अच्छा इंसान है और वे उसके हाथों गुमराह हो सकते हैं। यह कुटिलता है। आम तौर पर झूठ बोलना और छोटी-मोटी साजिश रचना लोगों की प्रवृत्ति होती है। यह सिर्फ छल है। लेकिन मसीह-विरोधी आम छल करने वाले लोगों से अधिक धूर्त होते हैं। वे शैतान राजाओं की तरह होते हैं; कोई उनकी करतूतों की थाह नहीं पा सकता। वे न्याय के नाम पर बहुत-से कुकृत्य कर सकते हैं और लोगों को नुकसान पहुँचाते हैं, लेकिन लोग तब भी उनका गुणगान करते हैं। इसे कुटिलता कहते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह)। मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि मसीह-विरोधियों का स्वभाव दुष्ट होता है और वे कुटिल तरीकों से काम करते हैं। यह छल-कपट की भ्रष्टता को प्रदर्शित करने से अलग होता है। धोखेबाज होने का मतलब स्पष्ट रूप से झूठ बोलना और धोखा देना है, और यह देखना आसान है। सोच-समझकर काम करने का अर्थ है अपने व्यक्तिगत इरादों, लक्ष्यों और एजेंडे को बहुत गहराई से छिपाना, गलत प्रभाव पैदा करना ताकि दूसरों को उनकी कथनी और करनी में कोई समस्या न दिखे। और अगर दूसरों को कोई समस्या दिखती भी है, तो उन्हें उनके खिलाफ कुछ न मिल पाए। लोगों के लिए उनकी थाह पाना बहुत मुश्किल होता है। इस तरह एक कुटिल व्यक्ति लोगों को गुमराह कर अपने गुप्त उद्देश्य हासिल करता है। परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में खुद को परखकर, मैंने जाना कि जब मैं नए विश्वासियों के बारे में अगुआ से तुरंत और सक्रिय रूप से बात करती हूँ, तो उसके मन में यह छाप छोड़ देती हूँ कि मुझे अपने कर्तव्य के प्रति भार का एहसास है और मुझे उसकी निगरानी स्वीकार करके खुशी होती है, असल में मैं नए विश्वासियों के मसले उस पर डाल रही थी ताकि उसके मन पर उन नए विश्वासियों का नकारात्मक प्रभाव पड़े जो नियमित रूप से उपस्थित नहीं हो रहे थे। इस तरह, अगर कोई नया विश्वासी किसी दिन सभाओं में भाग लेना बंद कर देता है, तो वह इसके लिए मुझे जिम्मेदार नहीं ठहरा पाए। साथ ही, जब अगुआ मेरे काम के बारे में विस्तार से जानना चाहती तो ऐसा प्रतीत होता कि मेरी संगति की सामग्री में कोई समस्या नहीं है। मैंने नए विश्वासियों के साथ संगति करने के लिए समय की व्यवस्था कर दी थी और मैं उन्हें परमेश्वर के वचन भेज रही थी, ताकि अगुआ मुझे मेहनती और उनके प्रति प्रेमपूर्ण समझे। लेकिन वास्तव में मुझे पता था कि मैं नए विश्वासियों के साथ अपनी संगति में बिल्कुल भी ईमानदार नहीं हूँ। मैं अनिच्छा से यंत्रवत ढंग से काम कर रही थी क्योंकि मैं जानती थी कि अगुआ कार्य-रिकॉर्ड की समीक्षा करेगी और मुझे उसका हिसाब देना होगा। मैंने विचार किया, मैं तरह-तरह के हथकंडे अपनाती, जब बोलती तो दूसरों को गुमराह करती और सावधानी बरतती कि चीजें करते वक्त किसी को कुछ पता न चले ताकि मुझे जवाबदेह न ठहराया जाए, और मेरा रुतबा और भविष्य सुरक्षित रहे। जाहिर है, मेरा मन अपने कर्तव्य में नहीं था, और इस कारण कुछ नए विश्वासियों ने नियमित रूप से उपस्थित होना बंद कर दिया था। अगुआ को भी लगा जैसे मेरे कर्तव्य में दिक्कतें हैं, लेकिन वह नहीं जानती थी कि वे कौन-सी दिक्कतें हैं और मुझे जवाबदेह ठहराने के लिए उसे कोई सबूत नहीं मिल पाया। मैं लोगों को गुमराह करने में बहुत अच्छी थी। मैं जिस ढंग से बर्ताव कर रही थी और पेश आ रही थी, उसे मैंने पहले कभी अपने कुटिल होने से जोड़कर नहीं देखा था। मैं हमेशा यही सोचती थी कि ज्यादातर लंबे अनुभव वाले बुजुर्ग लोग ही चतुर, हिसाब-किताब करने वाले और कुटिल होते हैं, जबकि मैं तो युवा हूँ, न ज्यादा अनुभव है न जटिल मानसिकता। मेरे व्यवहार को कुटिलता कहना उपयुक्त नहीं लगा। फिर भी तथ्यों से स्पष्ट था कि मुझमें मसीह-विरोधियों का दुष्ट स्वभाव है। फिर मुझे एक और बात याद आई। एक नई विश्वासी थी जो अक्सर प्रश्न पूछती थी और बहुत स्पष्टवादी थी। अगर किसी सभा के दौरान मैंने जो संगति की, उसे वह समझ न आई, तो वह सीधे तौर पर मेरी बात का खंडन कर देती जिससे शर्मिंदगी होती थी। अपनी लाज बचाने के लिए मैं आगे किसी सभा में उसके साथ भाग नहीं लेना चाहती थी, लेकिन मैं इस बात को खुलकर नहीं कह सकती थी क्योंकि मुझे डर था कि अगुआ मेरी काट-छाँट कर देगी। मैं उसे किसी और सिंचनकर्ता पर थोप देना चाहती थी। एक अवसर पर, नई विश्वासी ने यूँ ही यह बात कही कि इस समूह में उसके पिछले समूह की तुलना में कम लोग हैं। मैंने इस अवसर का फायदा उठाते हुए अगुआ को यह बात बता दी कि उस विश्वासी को हमारी सभा बहुत छोटी लगती है और उसे बड़ा समूह पसंद है, और अगुआ ने उसे किसी और समूह में डालने को कहा। अगुआ ने तुरंत इसकी व्यवस्था कर दी। इस तरह मैं नई विश्वासी को अपने समूह से बाहर निकालने में कामयाब रही। अगुआ को यह गलतफहमी हो गई कि मुझे कर्तव्य के प्रति भार का एहसास है और मैं नए विश्वासियों के बारे में सोचती हूँ। जबकि असल में मैं धोखेबाज और दुष्ट थी, और दूसरों को मूर्ख बनाने में लगी थी।
बाद में मैंने अपनी अवस्था से जुड़े परमेश्वर के और भी वचन खाए और पिए। मैंने ये वचन पढ़े : “तुम सब जान लो, परमेश्वर इसी प्रकार के हठी लोगों से सबसे अधिक घृणा करता है और इन्हें ही त्यागना चाहता है। वे अपने गलत कर्मों से पूरी तरह वाकिफ होते हैं पर पश्चात्ताप नहीं करते, कभी अपनी गलतियाँ नहीं मानते और खुद को सही ठहराने और दूसरों पर दोष मढ़ने के लिए हमेशा बहाने बनाते हैं और तर्क देते हैं, और वे अपने कर्मों को दूसरों की नजरों से बचाते हुए, बिना किसी पछतावे के या अपने दिल में बिना किसी स्वीकार के लगातार गलतियाँ करते रहते हैं और उनसे बचने के लिए आसान और टालमटोल वाले रास्ते खोजने की कोशिश करते हैं। ऐसा व्यक्ति बहुत कष्टदायक होता है, और उसके लिए उद्धार प्राप्त करना आसान नहीं होता है। ये वही लोग हैं जिनका परमेश्वर परित्याग करना चाहता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है)। इस पर विचार करने पर मुझे एहसास हुआ कि चाहे कुछ भी हो जाए, मुख्य बात सत्य को स्वीकार करना है। ऐसा व्यक्ति जो अपने कर्तव्य में कोई गलती नहीं स्वीकारता, काट-छाँट किये जाने पर भी अपने आपको सही साबित करने या पर्दा डालने में लगा रहता है, वह किसी भी सूरत में सत्य नहीं स्वीकारता। परमेश्वर के लिए ऐसे लोग घिनौने और घृणित होते हैं। मैंने विचार किया कि कैसे कलीसिया ने मुझे सिंचनकर्ता के रूप में नियुक्त किया था, मुझे प्रेम और धैर्य के साथ नए विश्वासियों की सहायता और समर्थन करना चाहिए था, दर्शनों के सत्यों पर स्पष्ट रूप से संगति करनी चाहिए थी और उन्हें शीघ्रता से सत्य मार्ग पर स्थापित होने में सहायता करनी चाहिए थी। मैं पूरी तरह से समझ गई थी कि कुछ नए विश्वासी नियमित रूप से सभाओं में भाग नहीं ले पाते थे, और यह जिम्मेदारी मुझ पर थी, लेकिन जब अगुआ ने इस बारे में पूछताछ की और मेरी काट-छाँट की तो मैंने इसे परमेश्वर की ओर से स्वीकार नहीं किया या अगुआ की फटकार और चेतावनी को नहीं स्वीकारा। नए विश्वासियों का समर्थन कैसे करें, इस पर तुरंत सोचने के बजाय, मैं अपना कर्तव्य ठीक से न निभाने पर पर्दा डालने के लिए हिसाब-किताब करने वाली, धूर्त और कुटिल बन गई। मैं अगुआ को अंधेरे में रख रही थी ताकि उसे मेरे काम में मुद्दों और विचलनों का पता न चले। मैं बच निकलने पर आत्मतुष्ट थी और अपनी चतुराई पर आनंदित थी। लेकिन अब परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि वास्तव में परमेश्वर मेरी छिपी हुई साजिशों और छोटी-मोटी चालों के बारे में सब-कुछ जानता है। उन्हें कोई छिपा नहीं सकता। मैंने अपना कर्तव्य कैसे निभाया, ये मुद्दे सामने आने ही थे। अगर अगुआ ने मुझे सचेत न किया होता, तो मैं आत्मचिंतन करना न जान पाती, पश्चात्ताप करने की इच्छा तो बिल्कुल न होती। मैं वाकई सुन्न थी। मैंने सत्य नहीं स्वीकारा, या अपने काम में विचलनों और समस्याओं को सारांशित कर उनमें सुधार नहीं किया। मैं केवल अपनी लाज और रुतबा बचाने के लिए अगुआ की आंखों पर पर्दा डालने की सोचती थी। मैं अपना कर्तव्य अच्छे से न निभाने की वास्तविकता को छिपाने के लिए धूर्तता और कुटिलता कर रही थी। मैं नए विश्वासियों को सिंचित करने और उनकी समस्याओं और कठिनाइयों से निपटने में मदद करने में पूरा दिल नहीं लगा रही थी, और परिणामस्वरूप उनमें से कुछ की समस्याओं का लंबे समय तक समाधान नहीं हो पाया था। अभी भी उनमें से कुछ नियमित रूप से सभाओं में भाग नहीं ले रहे थे। मुझे बाद में विशेष रूप से इस बात ने डरा दिया कि जिस नई विश्वासी को मैंने एक अलग समूह में भेजा था वह अब सभाओं में शामिल नहीं होना चाहती थी क्योंकि वह अचानक नए सिंचनकर्ता की अभ्यस्त नहीं हो पाई थी। इससे पहले कि वह सभाओं में वापस आने के लिए सहमत होती, दूसरे भाई-बहनों को धैर्यपूर्वक और लंबे समय तक उसके साथ संगति करनी पड़ी। यह सोचकर मैं वाकई बेचैन हो गई कि मैं कैसी हो गई थी और मैंने क्या कर डाला था। हर नए विश्वासी के लिए परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारना आसान नहीं होता, और इसके लिए उनकी ओर से बहुत मेहनत और प्रयास करने होते हैं। लेकिन मैं इस मामले में बहुत ढीली हो गई थी। मैं कुकर्म कर रही थी। अगर अगुआ सतर्क न होती और काट-छाँट न करती, तो मुझे एहसास ही न हुआ होता कि मैं पतन के कगार पर थी। मैं एक मसीह-विरोधी के दुष्ट स्वभाव के अनुसार जीते नहीं रहना चाहती थी। मैं उस बुरे रास्ते से हटना और परमेश्वर से पश्चात्ताप करना चाहती थी।
जैसे ही मुझे थोड़ा ज्ञान मिला, अगुआ ने मुझसे मेरी हाल की मनोदशा के बारे में पूछा। मैंने उसे बताया कि आत्म-चिंतन के जरिए मुझे क्या समझ आया। उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा। परमेश्वर कहता है : “ईमानदारी के अभ्यास के कई पहलू हैं। दूसरे शब्दों में, ईमानदार होने का मानक केवल एक तरीके से हासिल नहीं होता; ईमानदार होने से पहले, तुम्हें कई मामलों में मानक पर खरा उतरना होगा। कुछ लोगों को हमेशा लगता है कि ईमानदार होने के लिए उन्हें बस यह देखना है कि वे झूठ न बोलें। क्या यह दृष्टिकोण सही है? क्या ईमानदार होने का मतलब केवल झूठ नहीं बोलना है? नहीं—इसके और भी कई पहलू हैं। पहली बात तो यह कि तुम्हारे सामने कोई भी मामला आए, चाहे यह तुम्हारी आँखों देखी बात हो या तुम्हें किसी और ने बताया हो, चाहे लोगों के साथ बातचीत करना हो या किसी समस्या को सुलझाने का मामला हो, चाहे यह तुम्हारा कर्तव्य हो जिसे तुम्हें निभाना ही चाहिए या परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया कोई कार्य हो, तुम्हें इन सारे मामलों में पूरी ईमानदारी से पेश आना चाहिए। इंसान चीजों को ईमानदार हृदय से देखने का अभ्यास कैसे करे? जो तुम सोचते और बोलते हो, उसे ईमानदारी से कहो; खोखली, आडंबरपूर्ण या मीठी लगने वाली बातें मत बोलो, चापलूसी वाली या पाखंडपूर्ण झूठी बातें मत बोलो, बल्कि वह बोलो जो तुम्हारे दिल में हैं। यह ईमानदार होना है। अपने दिल की सच्ची बातें और विचार व्यक्त करना—यही वह है जो ईमानदार लोगों को करना चाहिए। अगर तुम जो सोचते हो, वह कभी नहीं बोलते, तुम्हारे मन में कटु शब्द पलते रहते हैं और तुम जो कहते हो वह कभी तुम्हारे विचारों से मेल नहीं खाता, तो यह ईमानदार होना नहीं है। उदाहरण के लिए, मान लो, तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते, और जब लोग पूछते हैं कि क्या चल रहा है, तो तुम कहते हो, ‘मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहता हूँ, लेकिन बहुत-सी वजहों से, मैंने ऐसा नहीं किया है।’ वास्तव में, अपने दिल में तुम जानते हो कि तुम कर्मठ नहीं थे, लेकिन तुम सच नहीं बताते। इसके बजाय, तुम तथ्यों को छिपाने और जिम्मेदारी से बचने के लिए हर तरह के कारण, औचित्य और बहाने बनाते हो। क्या एक ईमानदार व्यक्ति ऐसा करता है? (नहीं।) तुम इन बातों के जरिए लोगों को बेवकूफ बनाकर जैसे-तैसे काम करते रहते हो। लेकिन तुम्हारे अंदर जो कुछ है, तुम्हारे जो इरादे हैं, उनका सार भ्रष्ट स्वभाव है। अगर तुम अपने अंदर की चीजें और इरादे सबके सामने लाकर उसका विश्लेषण नहीं कर सकते, तो उन्हें शुद्ध नहीं किया जा सकता—और यह कोई छोटी बात नहीं है! तुम्हें सच बोलना चाहिए : ‘मैं अपने काम में टाल-मटोल करता रहा हूँ। मैं अनमना और असावधान रहा हूँ। जब मेरी मनोदशा अच्छी होती है, तो थोड़ी-बहुत मेहनत कर लेता हूँ, पर जब यह अच्छी नहीं होती, तो मैं सुस्त हो जाता हूँ, मेहनत नहीं करना चाहता और दैहिक-सुख का लालच करता हूँ। इसलिए, काम करने के मेरे सारे प्रयास अप्रभावी रहते हैं। पिछले कुछ दिनों से स्थिति बदल रही है, और मैं अपना सर्वस्व देने, अपनी दक्षता में सुधार करने और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने की कोशिश कर रहा हूँ।’ यह दिल से बोलना हुआ। पहले वाली बात दिल से नहीं निकली थी। काट-छाँट किए जाने, लोगों को तुम्हारी समस्याओं का पता लगने और तुम्हें जवाबदेह ठहराए जाने के डर से, तुमने तथ्यों को छिपाने के लिए हर तरह के कारण, औचित्य और बहाने ढूँढ़े, पहले तो तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारी स्थिति के बारे में बात न करें, फिर जिम्मेदारी किसी और पर डालना चाहते हो ताकि तुम्हारी काट-छाँट न की जाए। यह तुम्हारे झूठ का स्रोत है। झूठा व्यक्ति चाहे कितने भी झूठ बोले, उसकी बातों में कुछ तो सच्चाई और तथ्य होना निश्चित है। लेकिन उसकी कही कुछ मुख्य बातों में झूठ और उसकी अपनी मंशा की मिलावट तो होगी। इसलिए, जरूरी है कि सच और झूठ की पहचान और उनमें विभेद किया जाए। हालाँकि, यह करना आसान नहीं है। उनकी बातों में थोड़ी मलिनता और सजावट होगी, कुछ तथ्यों के अनुरूप होगा और उनकी कुछ बातें तथ्यों का खंडन करेंगी; तथ्य और कल्पना के इस प्रकार उलझ जाने से सत्य और असत्य का पता लगाना कठिन होता है। ऐसे लोग बेहद कपटी होते हैं और उन्हें पहचानना बहुत मुश्किल होता है। अगर वे सत्य नहीं स्वीकारते या ईमानदारी का अभ्यास नहीं करते, तो उन्हें जरूर हटा दिया जाएगा। तो फिर लोगों को कौन-सा मार्ग अपनाना चाहिए? ईमानदारी का अभ्यास करने का मार्ग कौन-सा है? तुम लोगों को सच बोलना सीखना चाहिए और अपनी वास्तविक अवस्थाओं और समस्याओं के बारे में खुलकर बातचीत करनी चाहिए। ईमानदार लोग ऐसे ही अभ्यास करते हैं और यह अभ्यास सही है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़ना मेरे लिए सचमुच मार्मिक था। परमेश्वर हमें बहुत अच्छे से जानता है। वह जानता है कि हम सभी को अपने कर्तव्यों में समस्याएँ और विचलन होंगे। ऐसा होना तय है। लेकिन मुख्य बात यह है कि समस्याएँ आने पर इंसान का रवैया किस तरह का होता है। क्या वह सच्चा रहता है, ईमानदारी से गलती स्वीकार कर उसे सुधारता है? या वह खुद को सही ठहराने की कोशिश करता है और समस्या को छुपाने के लिए कपट में लिप्त रहता है? मैं अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीती थी। मैं धोखेबाज और कपटी थी और गलत रास्ते पर जा रही थी। मैं उसी रास्ते पर चलती नहीं चल रह सकती थी। मैं एक ईमानदार व्यक्ति बनकर परमेश्वर की जाँच को स्वीकारना चाहती थी। चाहे मेरे कर्तव्य में कोई भी विचलन या समस्याएँ क्यों न आएँ, या अगुआ मेरे काम के बारे में पूछताछ क्यों न करे, मुझे सच्चाई से इसका सामना करना था और इससे ईमानदारी से निपटना था, और सत्यनिष्ठ होकर जो कुछ दिल में हो, वो कहना था। मुझे उसे वैसे ही बताना था जैसा था, और अगर ऐसा कुछ था जिसे करने में मैंने उपेक्षा की थी, उसके बारे में सीधे तौर पर बताना था, झूठ बोलकर या बहस करके कोई रास्ता निकालने की कोशिश नहीं करनी थी। ईमानदारी से बोलने के अलावा, मैं अपने शब्दों और कार्यों में अंतर्निहित इरादों पर नियमित रूप से विचार करने का अभ्यास करना चाहती थी, और अगर वे सही न हों तो उन्हें तुरंत बदलना चाहती थी। मुझे अपने हितों की रक्षा के लिए लोगों को धोखा देना बंद करना था।
एक दिन मैंने देखा कि एक नया विश्वासी लगातार कई सभाएँ चूक गया था। मैंने उसे कई बार फोन किया, लेकिन वह मेरा फोन नहीं उठा रहा था और न ही मेरे संदेशों का जवाब दे रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या परेशानी है। मुझे चिंता होने लगी कि कहीं वह सभाओं में आना बंद न कर दे और सोच रही थी कि क्या मुझे यह बात अगुआ को बतानी चाहिए ताकि अगर वह किसी दिन आना बंद कर दे तो अगुआ मुझे जिम्मेदार न ठहराए। यह विचार आते ही, मुझे एहसास हुआ कि चालाकी करने का मेरा पुराना मसला फिर से सिर उठा रहा है। तब मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। यह सच है। परमेश्वर हमारे अंतर्मन को जाँचता है। मैं अपनी कुटिल चालों से लोगों को मूर्ख बनाने में भले ही कामयाब हो जाऊँ, लेकिन परमेश्वर हर चीज की जाँच स्पष्टता से करता है, और वह अंत में सब-कुछ प्रकट कर देता है। मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य निभा रही थी, किसी व्यक्ति के लिए काम नहीं कर रही थी। मुझे चालें चलकर लोगों के सामने खुद को छिपाने की जरूरत नहीं थी। अतीत की तरह, ऐसे नए विश्वासी आए थे जिनका समर्थन करने के लिए मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया था लेकिन फिर भी वे सभाओं में शामिल नहीं हुए या आस्था और सत्य में रुचि नहीं दिखाई। जब अगुआ को वास्तविक स्थिति समझ आई, तो उसने मान लिया कि वे सच्चे विश्वासी नहीं थे और इसलिए मुझे जिम्मेदार नहीं ठहराया। मैंने देखा कि लोगों के साथ व्यवहार करने के कलीसिया के अपने सिद्धांत हैं। चतुराई से खुद को जिम्मेदारी से मुक्त करने या कोई रास्ता निकालने की कोई जरूरत नहीं थी। मैं पहले अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जी रही थी और अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा रही थी। इस बार मैं गड़बड़ी नहीं कर सकती थी। मुझे सही सोच रखकर अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी थीं। मैंने चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं बदलने को तैयार थी और नए विश्वासियों की सहायता और समर्थन के लिए जो कुछ भी कर सकती थी, करना चाहती थी। अगर मुझे जिन सत्यों पर संगति करनी चाहिए उन पर मैं संगति करूँ, और फिर भी वे सभाओं में शामिल नहीं होना चाहें, तब मैं उसका दृढ़ता से सामना कर अगुआ को सही स्थिति से रूबरू करा सकती थी। अपनी मानसिकता बदलने के बाद, मैंने फिर से उस नए विश्वासी से संपर्क किया और जब उसने तुरंत उत्तर दिया तो मैं हैरान रह गई, वह कहने लगा कि वह काम में व्यस्त चल रहा था और बहुत थक जाता था, इसलिए वह सभाओं में नहीं आ पाता था। मैंने परमेश्वर के वचनों का उपयोग कर उसके साथ संगति की, और इनसे उसने परमेश्वर के इरादे को समझा और अभ्यास का मार्ग पाया, और फिर से उसने नियमित रूप से आना शुरू कर दिया। उसके बाद, जब भी नए विश्वासी नियमित रूप से सभाओं में शामिल नहीं हो पाते थे, तो मैंने उनका समर्थन और मदद करने की पूरी कोशिश करती और परमेश्वर के वचनों पर उनके साथ संगति करती। मैं सच्चे मन से उनका समर्थन करती। इसके बाद, जिन नए विश्वासियों को मैंने सिंचित किया, उनमें से अधिकांश नियमित रूप से सभाओं में भाग लेने लगे। इस तरह अभ्यास करने से मुझे एक भावनात्मक सहजता और शांति का एहसास होता है। परमेश्वर का धन्यवाद!