4. उन लोगों पर संदेह न करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो : क्या यह उचित है?

लिन पिंग, चीन

जुलाई 2020 में मुझे एक अगुआ चुना गया और कई कलीसियाओं के कार्य की जिम्मेदारी मिल गई। बहन लियू जिंग को हाल ही में उन कलीसियाओं में से एक में एक अगुआ के रूप में चुना गया था। मैंने पहले भी उसके साथ कार्य किया था और उसे काफी अच्छी तरह से जानती थी। वह परिपक्व और संतुलित थी, चीजों को हर पहलू से देखती थी और अपने कर्तव्य में बोझ उठाती थी। जब भी मुझे समस्याओं या कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, तो वह हमेशा परमेश्वर के वचनों पर संगति करने में मेरी मदद करती थी। मुझे ऐसा लगने लगा कि वह काफी भरोसेमंद है, इसलिए मैंने सोचा कि उसकी कलीसिया की ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है और मैं अन्य कलीसियाओं पर अधिक ध्यान दे सकती हूँ। इसलिए, लियू जिंग को विभिन्न कार्यों को संभालने के तरीकों के बारे में जानकारी देने के बाद, मैंने उसके कार्य पर अधिक ध्यान नहीं दिया। इस दौरान मैंने देखा कि उसके पास कार्य करने का एक तरीका है और वह अपने कार्य की विभिन्न मदों में अच्छे नतीजे प्राप्त कर रही है तो इससे मुझे और भी तसल्ली हो गई। मैंने सोचा कि अगर मैं उसके कार्य की जाँच नहीं भी करूँ, तो भी वह अपने सामने आने वाली हर कठिनाई या समस्या का तुरंत समाधान कर लेगी। इसलिए मैंने लगातार तीन महीनों तक उसके जिम्मे वाले कार्य की विस्तृत जाँच या निगरानी नहीं की और यहाँ तक कि एक उच्च अगुआई वाले पद के चुनाव में उम्मीदवार के रूप में उसकी सिफारिश भी कर दी।

फिर दिसंबर में अगुआ ने मुझे पत्र भेजा कि कुछ भाई-बहनों ने लियू जिंग का मूल्यांकन करते हुए कहा है कि वह वास्तविक कार्य नहीं कर रही है। उसने मुझे उसके कार्य की निगरानी और जाँच करने को कहा और साथ ही यह भी बताया कि फिलहाल वह चुनाव के लिए उपयुक्त उम्मीदवार नहीं है। यह देखकर मैं हैरान रह गई, “वह वास्तविक कार्य नहीं कर रही है? यह कैसे हो सकता है? अगर ऐसा है, तो पिछले कुछ महीनों से उसकी कलीसिया के कार्य में अच्छे परिणाम कैसे आ रहे हैं? उसकी साथी बहन वू शिनमिंग ने हाल ही में एक अगुआ के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त किया है, इसलिए वह तो कार्य से अधिक परिचित नहीं होगी। क्या लियू जिंग उस कलीसिया का पूरा कार्य खुद नहीं सँभाले हुए है? क्या सभी अगुआ बिना सही तस्वीर को समझे केवल उन मूल्यांकनों के आधार पर यह कह रहे हैं कि वह वास्तविक कार्य नहीं करती? मैं लियू जिंग के साथ पहले भी काम कर चुकी थी और उसे काफी अच्छी तरह जानती थी। हाल ही में उसकी कलीसिया के कुछ भाई-बहनों को गिरफ्तार कर लिया गया था। वह इसके परिणामों से निपटने में व्यस्त है और शायद उसके पास अन्य चीजों के लिए समय नहीं है। अगर ऐसा लगता भी है कि वह वास्तविक कार्य नहीं कर रही है, तो इसका औचित्य समझ में आता है। मैं उसके बारे में गलत नहीं हो सकती।” मैंने उसके बारे में भाई-बहनों के मूल्यांकनों पर एक नजर डाली और मैंने पाया कि उन्होंने इस बारे में लिखा था कि कैसे लियू जिंग ने अतीत में अपने कर्तव्य में वास्तविक कार्य नहीं किए थे। मैं सोच रही थी, “इन्हें क्या हो गया है? यह देखने के बजाय कि लियू जिंग बदल चुकी है या नहीं, वे केवल उसके पुराने अपराधों को लेकर बैठे हैं। वह कलीसिया में जिस कार्य की प्रभारी है, वह इन कुछ महीनों में काफी प्रभावपूर्ण रहा है। वह कुछ वास्तविक कार्य करने में सक्षम रही है।” मैंने तुरंत अगुआ को स्थिति समझाई और सुझाव दिया कि लियू को चुनाव में हिस्सा लेने दिया जाए।

कुछ दिन बाद जब अगुआ ने देखा कि लियू जिंग के वास्तविक कार्य न करने के मामले को मैं गंभीरता से नहीं ले रही हूँ और अब भी उसका पक्ष ले रही हूँ, तो अगुआ ने मुझे याद दिलाया कि “हमें परमेश्वर के वचनों के अनुसार चीजों को देखना चाहिए। भ्रष्ट स्वभाव सबमें होता है; जब तक हम सत्य प्राप्त नहीं कर लेते और पूर्ण नहीं बन जाते, तब तक कोई भी भरोसेमंद नहीं है—हम सब अपने-अपने तरीकों से और हमारे भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर कार्य करेंगे। निगरानी न होने पर कोई भी ऐसा कार्य कर सकता है जो परमेश्वर का विरोध करने वाला और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाने वाला हो। इसलिए कलीसिया के कार्यों के मामले में हम हर किसी पर पूरी तरह से भरोसा नहीं कर सकते। वास्तव में कार्य के बारे में पूछताछ और इसकी निगरानी करके ही हम समय पर समस्याओं का पता लगाकर उन्हें हल कर सकते हैं। इसी को कलीसिया के कार्य की जिम्मेदारी लेना कहते हैं।” मैंने कह तो दिया कि मैं ऐसा करूँगी, लेकिन मैं सोच रही थी, “बेशक निगरानी करना जरूरी है, लेकिन मुझे हर बात पर शक भी नहीं करना चाहिए। कौन नहीं चाहता कि वह सत्य का अनुसरण करे और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाए? परमेश्वर का घर अविश्वासी दुनिया की तरह नहीं है। भाई-बहनों को एक-दूसरे पर भरोसा करना चाहिए और एक-दूसरे पर बाज की तरह कड़ी नजर नहीं रखनी चाहिए। मैंने तुम्हें बता चुकी हूँ कि लियू जिंग के अपने कुछ कार्य न करने के पीछे एक कारण है, लेकिन तुम यह नहीं मानती हो। मैं पूरी तरह से जाँच करूँगी ताकि तुम्हें दिखा सकूँ कि वह वैसी व्यक्ति नहीं हैं।” इसलिए मैं उसके कार्य की जाँच करने लगी। जल्द ही मुझे पता चल गया कि उसकी पिछली साथी शिनमिंग ने उसका अधिकतर कार्य संभाला हुआ था। चूँकि शिनमिंग को हाल ही में दूसरा काम सौंप दिया गया था, इसलिए उनके कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदों के नतीजे बिगड़ने लगे थे। साथ ही मैंने लियू जिंग से कहा था कि वह चेन उपनाम वाले एक अयोग्य टीम अगुआ को बर्खास्त कर दे लेकिन यह अभी तक नहीं हुआ था। वह भी सिंचाई सहायक के साथ मिल कर सद्भाव से कार्य नहीं कर रही थी और नए लोगों की सिंचाई के कार्य पर ध्यान नहीं दे रही थी। मुझे यह देखकर बहुत अपराध बोध हुआ कि लियू जिंग ने कलीसिया के कार्य को कितना नुकसान पहुँचा दिया है। अगुआ ने मुझे ध्यान दिलाया कि मैं उसके कार्य की जाँच और निगरानी करूँ लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि मुझे उस पर बहुत ज्यादा भरोसा था। मुझे लगा था कि चूँकि उसके पास काम का जिम्मा है, इसलिए उसे स्वतंत्र होकर कार्य करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। मैंने कभी नहीं सोचा था कि इसके कारण यह नौबत आ जाएगी। मैंने अपनी पिछली बातचीत को याद किया—वह ऐसी व्यक्ति नहीं लगती थी जो केवल बातें करती हो और वास्तविक कार्य न करती हो। क्या कोई विशेष परिस्थितियां थीं जो उसे रोक रही थीं? जब मैं इस बारे में सोच-विचार में पड़ी थी, तभी लियू जिंग ने कहा, “हमारी कलीसिया के कुछ भाई-बहनों को कुछ समय पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया था। इसके परिणामों से निपटना काफी व्यस्तता भरा रहा है और मेरे पास दूसरी सारी चीजों के लिए समय नहीं रहा।” यह सुनकर मैंने राहत की साँस ली। हकीकत वही थी जो मैंने कहा था—लियू जिंग ऐसी व्यक्ति नहीं थी जो वास्तविक कार्य न करती हो। गिरफ्तारी के बाद की स्थिति से निपटने में उसका काफी समय और ऊर्जा लग गई थी। कुछ कार्य सही ढंग से नहीं हुए थे, लेकिन इसका औचित्य समझ में आता है। कोई भी कर्तव्य को पूर्ण रूप से नहीं निभा सकता है। इसलिए मैंने वास्तविक कार्य न करने के नुकसान और परिणामों पर उसके साथ संगति की और उससे कहा कि वह चेन को तुरंत बर्खास्त कर दे। वह इसके लिए सहमत हो गई। लेकिन कुछ समय बाद मुझे पता चला कि चेन को अभी भी बर्खास्त नहीं किया गया है। मैं तुरंत लियू जिंग के कर्तव्य की स्थिति पता लगाने दौड़ी। उसकी साथी ने मुझसे कहा, “जब भी तुम हमें कोई कार्य सौंपती हो, तो हर बार लियू जिंग इससे पूरी तरह से सहमति जताती है, लेकिन मुझे नहीं दिखता कि वह इसमें से कुछ भी लागू करती है। मैंने अभी-अभी एक अगुआ की भूमिका निभानी शुरू की है, इसलिए मैं कार्य की बारीकियों से परिचित नहीं हूँ और उसने मेरी कोई मदद नहीं की है। समस्याओं या कठिनाइयों का सामना करने पर मुझे परमेश्वर का सहारा लेकर अपना रास्ता टटोलना पड़ता है।” मैं बहन से यह बात सुनकर हैरान रह गई। ऐसा कैसे हो सकता है कि लियू जिंग ने कोई एक भी वास्तविक कार्य नहीं किया था? वह पहले तो ऐसी नहीं थी। इस दौरान मैंने उसके साथ संगति भी की थी—तो फिर मैं उसकी समस्याएँ क्यों नहीं देख पाई? मैंने उस पर बहुत अधिक भरोसा कर लिया था और मैं उसके कार्य की निगरानी या जाँच नहीं कर रही थी। इसके नतीजे में कलीसिया में एक अयोग्य टीम अगुआ बहुत लंबे समय तक अपनी स्थिति में बनी रही और किसी ने भी नए लोगों की सिंचाई पर ध्यान नहीं दिया। इसके कारण कलीसिया के कार्य और दूसरों के जीवन प्रवेश में देरी हुई। मैंने वास्तव में बहुत बुरा काम किया था। इसके बाद जब मैं लियू जिंग से मिली, तो उसने कहा कि कुछ भाई-बहनों ने पिछले दो दिनों में उसकी काट-छाँट की थी क्योंकि उसने वास्तविक कार्य नहीं किया था। वह बहुत पछता रही थी। वह रो पड़ी और कहने लगी कि वह गैर-जिम्मेदार थी और अपने कर्तव्य में लापरवाही कर रही थी और यह कि उसमें कोई मानवता नहीं है। मुझे ऐसा लगा कि उसे एहसास हो गया है कि उसकी समस्याएँ कितनी गंभीर थीं और वह निश्चित रूप से इसके बाद बदल जाएगी इसलिए मुझे उसे पश्चात्ताप करने का एक और मौका देना चाहिए, फिलहाल उसे बर्खास्त नहीं करना चाहिए और उसे सुधरने के लिए और अधिक सहारा देना चाहिए। इसके तुरंत बाद मैंने उसे उसकी समस्याएँ बताईं और उसे तुरंत अपनी गलतियों को सुधारने और साथ ही उस टीम अगुआ को बर्खास्त करने के लिए कहा जिसे बर्खास्त करने की आवश्यकता थी। उसने यह सब करने का वादा किया, लेकिन भले ही उसने बाद में चेन को बर्खास्त कर दिया था, फिर भी उसके कार्य से कुल मिलाकर कोई नतीजा नहीं निकल रहा था। बाद में मुझे दूसरों ने बताया कि उन्हें लियू जिंग में कुछ गंभीर समस्याओं का पता चला है। कुछ भाई-बहनों की गिरफ्तारी के बाद उसने तुरंत कलीसिया की संपत्ति की सुरक्षा नहीं की और कार्य की विभिन्न मदों में सक्रिय रूप से सहयोग नहीं किया, जिसका नतीजा यह निकला कि कोई भी काम पूरा नहीं हुआ था। सबसे क्रोध दिलाने वाली बात यह थी कि उसने कलीसिया में गड़बड़ी पैदा करने वाले बुरे लोगों का तुरंत निपटान नहीं किया, बल्कि वह अपने व्यक्तिगत मामलों में व्यस्त रही और इसके कारण कलीसिया का कार्य अस्त-व्यस्त हो गया था। मैंने देखा कि लियू जिंग कोई भी वास्तविक कार्य नहीं कर रही थी और न ही उसमें कोई सच्चा पश्चात्ताप था। मुझे बहुत अपराधबोध महसूस हुआ। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि यह नौबत आ जाएगी। मैंने उसकी बुराई में भाग लिया था और परमेश्वर के सम्मुख कई अपराध किए थे। हद से ज्यादा भरोसा करने और उसके कार्य की समय पर जाँच-पड़ताल न करने के कारण मुझे खुद से भी नफरत होने लगी। इससे कलीसिया के कार्य को बहुत नुकसान पहुँचा था। मैं तुरंत लियू जिंग से बात करने के लिए गई और मैंने उसके हर व्यवहार को उजागर किया और मैंने अंत में उसे बर्खास्त कर दिया।

इसके बाद अगुआ ने मुझे आड़े हाथों लेकर कहा, “तुमने उस पर इतना भरोसा क्यों किया था? तुमने उसकी निगरानी किए बिना या उसके बारे में पूछताछ किए बिना इतना महत्वपूर्ण कार्य उसे सौंप दिया। तुम इतनी निश्चिंत कैसे हो सकती हो?” उसने मुझे परमेश्वर के कुछ वचन भी पढ़कर सुनाए : “नकली अगुआ उन पर्यवेक्षकों के बारे में कभी पूछताछ नहीं करते जो वास्तविक कार्य नहीं कर रहे होते हैं, या जो अपने उचित कार्यों पर ध्यान नहीं दे रहे होते हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें बस एक पर्यवेक्षक चुनना है और मामला खत्म; और कि बाद में पर्यवेक्षक सभी कार्य-संबंधी मामलों को अपने आप संभाल सकता है। इसलिए नकली अगुआ जब-तब बस सभाएँ आयोजित करता है और काम का पर्यवेक्षण नहीं करता, न ही पूछता है कि काम कैसा चल रहा है, और कार्यस्थल से दूर रहने वाले उच्चाधिकारियों की तरह से व्यवहार करता है। अगर कोई पर्यवेक्षक से जुड़ी समस्या को लेकर आता है, तो नकली अगुआ कहेगा, ‘यह तो मामूली-सी समस्या है, कोई बड़ी बात नहीं है। इसे तो तुम लोग खुद ही सँभाल सकते हो। मुझसे मत पूछो।’ समस्या की रिपोर्ट करने वाला व्यक्ति कहता है, ‘वह पर्यवेक्षक आलसी पेटू है। वह केवल खाने और मनोरंजन पर ध्यान केंद्रित रखता है, एकदम निकम्मा है। वह अपने काम में थोड़ा-सा भी कष्ट नहीं उठाना चाहता, काम और जिम्मेदारियों से बचने के लिए हमेशा छलपूर्वक ढिलाई बरतता है और बहाने बनाता है। वह निरीक्षक बनने लायक नहीं है।’ झूठा अगुआ जवाब देगा, ‘जब उसे पर्यवेक्षक चुना गया था, तब तो वह बहुत अच्छा था। तुम जो कह रहे हो, वह सच नहीं है, और अगर है भी तो यह सिर्फ एक अस्थायी अभिव्यक्ति है।’ झूठा अगुआ निरीक्षक की स्थिति के बारे में अधिक जानने की कोशिश नहीं करेगा, बल्कि उस पर्यवेक्षक के साथ अपने पिछले अनुभवों के आधार पर ही मामले को परखेगा और इस मामले में फैसला सुनाएगा। चाहे कोई भी पर्यवेक्षक से जुड़ी समस्याओं की रिपोर्ट करे, नकली अगुआ उसे अनदेखा करेगा। पर्यवेक्षक वास्तविक काम नहीं कर रहा है, और कलीसिया का काम लगभग ठप हो गया है, लेकिन नकली अगुआ को कोई परवाह नहीं होती, ऐसा लगता है कि उसका इससे मतलब ही नहीं है। ... नकली अगुआओं में यह घातक कमी होती है कि यह भी एक बड़ी विफलता होती है : वे अपनी कल्पनाओं के आधार पर लोगों पर जल्दी भरोसा कर लेते हैं। और यह सत्य को न समझने के कारण होता है, है न? परमेश्वर के वचन भ्रष्ट लोगों का सार कैसे प्रकट करते हैं? जब परमेश्वर ही लोगों पर भरोसा नहीं करता, तो वे क्यों करें? नकली अगुआ बहुत घमंडी और आत्मतुष्ट होते हैं, है न? वे यह सोचते हैं, ‘मैं इस व्यक्ति को परखने में गलत नहीं रहा हो सकता। जिस व्यक्ति को मैंने उपयुक्त समझा है, उसके साथ कोई समस्या नहीं होनी चाहिए; वह निश्चित रूप से ऐसा नहीं है, जो खाने, पीने और मस्ती करने में रमा रहे, आराम पसंद करे और मेहनत से नफरत करे। वे पूरी तरह से भरोसेमंद और विश्वसनीय हैं। वे बदलेंगे नहीं; अगर वे बदले, तो इसका मतलब होगा कि मैं उनके बारे में गलत था, है न?’ यह कैसा तर्क है? क्या तुम कोई विशेषज्ञ हो? क्या तुम्हारे पास एक्सरे जैसी दृष्टि है? क्या तुममें विशेष कौशल है? तुम किसी व्यक्ति के साथ एक-दो साल तक रह सकते हो, लेकिन क्या तुम उसके प्रकृति सार को पूरी तरह से उजागर करने वाले किसी उपयुक्त वातावरण के बिना यह देख पाओगे कि वह वास्तव में कौन है? अगर परमेश्वर द्वारा उन्हें उजागर न किया जाए, तो तुम्हें तीन या पाँच वर्षों तक उनके साथ रहने के बाद भी यह जानने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा कि उनका प्रकृति सार किस तरह का है। और जब तुम उनसे शायद ही कभी मिलते हो, शायद ही कभी उनके साथ होते हो, तो यह भी कितना सच होगा? किसी के साथ थोड़ी-बहुत बातचीत या किसी के द्वारा उनके सकारात्मक मूल्यांकन के आधार पर नकली अगुआ प्रसन्नतापूर्वक उन पर भरोसा कर लेते है और ऐसे व्यक्ति को कलीसिया का काम सौंप देते हो। इसमें क्या वे अत्यधिक अंधे नहीं हो जाते हो? क्या वे उतावली से काम नहीं ले रहे हैं? और जब नकली अगुआ इस तरह से काम करते हैं, तो क्या वे बेहद गैर-जिम्मेदार नहीं होते?(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (3))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, अगुआ ने कहा, “हम वास्तव में किसी व्यक्ति के सार की असलियत नहीं जान सकते, इसलिए हमें नियमित रूप से उसके कार्य की जाँच और निगरानी करनी चाहिए। तभी हम उनके कार्य में विचलन और समस्याएँ पता लगा सकते हैं और समय रहते उन्हें बदल और हल कर सकते हैं। लियू जिंग ने कुछ महीने ही काम करने के बाद कलीसिया के कार्य को पूरी तरह ठप करने की कगार पर पहुँचा दिया था। तुम्हारे अत्यंत दंभी होने, उस पर आँख मूँदकर अत्यंत विश्वास करने और उसके कार्य की निगरानी या जाँच न करने के यही नतीजे हैं। यह तो बुराई करना है!” परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन और अगुआ की संगति से मैं यह अपराध करके डर गई, परेशान हो गई और अपराधबोध महसूस करने लगी। मैं इस कारण खुद से नफरत करने लगी कि मैंने चीजों को परमेश्वर के वचनों के आधार पर नहीं देखा, बल्कि आँख मूँदकर लियू जिंग पर भरोसा किया, जिससे कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचा। लियू जिंग के प्रति अपने विगत व्यवहार के बारे में सोचती हूँ तो ऐसा नहीं है कि मैं उसकी समस्याएँ पता नहीं कर पाई, बल्कि जब भी मैंने पता किया तो मैं अपनी ही बात पर अड़ी रही। मैंने उसके बारे में अपनी पिछली जानकारी के अनुसार चलकर बिना सोचे-समझे यह तय कर लिया कि वह एक जिम्मेदार व्यक्ति है, जिसे अपने कर्तव्य की परवाह है और उस पर भरोसा किया जा सकता है। लेकिन तथ्यों के खुलासे और परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन ने आखिरकार मुझे दिखाया कि कुछ समय के लिए अच्छा व्यवहार करने और वास्तविक कार्य करने का यह मतलब नहीं होता है कि कोई व्यक्ति हमेशा वैसा ही रहेगा। हममें से किसी ने अभी तक सत्य प्राप्त नहीं किया है, हमारे जीवन स्वभाव में परिवर्तन नहीं आया है और हम अपने भ्रष्ट स्वभाव से नियंत्रित होते हैं। हम अभी भी गड़बड़ कर सकते हैं और परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और हम कभी-कभी अपनी इच्छा से कार्य करते हैं, इसलिए हम भरोसे के योग्य नहीं हैं। किसी व्यक्ति से लंबे समय तक बातचीत करने और उसका निरीक्षण करने के बिना उसे पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता और तब भी, हो सकता है कि हम उन्हें पूरी तरह से न जान सकें। किसी व्यक्ति के सार की असलियत जानने के लिए हमें सत्य भी समझना होता है। मैंने लियू जिंग के साथ बस थोड़े समय काम किया, इसलिए मुझे लगा कि मैं उसे वाकई अच्छी तरह जानती हूँ और उसे भाँपने में गलती नहीं करूँगी। मुझे उस पर इतना भरोसा था कि मैं उसके कार्य की निगरानी या जाँच नहीं करती थी। अगुआ ने बार-बार मुझे याद दिलाया, लेकिन मैं फिर भी अपने निर्णय पर अंधविश्वास करती रही—मैं अत्यंत घमंडी और दंभी थी और मैंने कार्य की कोई जिम्मेदारी नहीं ली। जब मुझे यह एहसास हुआ तो मुझे बहुत पछतावा हुआ और मैं वैसी ही बनी नहीं रहना चाहती थी।

बाद में मैंने आत्मचिंतन किया—आखिर मैंने लियू जिंग के कार्य की निगरानी किए बिना उस पर इतना भरोसा क्यों किया? इसका मूल कारण क्या था? एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “यह कहना गलत न होगा कि अधिकांश लोग ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो’ मुहावरे को सच मानते हैं, और वे इससे गुमराह होकर बंध जाते हैं। लोगों को चुनते या उपयोग करते समय वे इससे परेशान और प्रभावित हो जाते हैं, यहाँ तक कि वे इससे उनके कार्यों को भी निर्देशित होने देते हैं। परिणामस्वरूप, बहुत से अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसिया के काम की जाँच करते समय, लोगों को तरक्की देते और उपयोग करते समय हमेशा मुश्किलें आती हैं और आशंका होने लगती है। अंत में, वे बस इन शब्दों से खुद को तसल्ली दे पाते हैं, ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ काम का निरीक्षण या पूछताछ करते समय, वे सोचते हैं, ‘“न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” मुझे अपने भाई-बहनों पर भरोसा करना चाहिए, आखिरकार, पवित्र आत्मा लोगों की जाँच-पड़ताल करता है, इसलिए मुझे हमेशा दूसरों पर संदेह और उनकी निगरानी नहीं करनी चाहिए।’ वे इस मुहावरे से प्रभावित हो गए हैं, है न? इस मुहावरे के प्रभाव से क्या परिणाम सामने आते हैं? सबसे पहले, अगर कोई व्यक्ति इस विचार को मानता है कि ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो,’ तो क्या वह दूसरों के काम का निरीक्षण और मार्गदर्शन करेगा? क्या वह लोगों के काम की निगरानी करेगा और उसकी खोज-खबर लेगा? अगर यह व्यक्ति हर उस व्यक्ति पर भरोसा करता है जिसका वह उपयोग करता है और कभी भी उसके काम का निरीक्षण या मार्गदर्शन नहीं करता है, और कभी भी उसकी निगरानी नहीं करता है, तो क्या वह अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभा रहा है? क्या वह कलीसिया का कार्य सक्षम तरीके से कर सकता है और परमेश्वर के आदेश को पूरा कर सकता है? क्या वह परमेश्वर के आदेश के प्रति निष्ठावान है? दूसरा, यह परमेश्वर के वचनों और कर्तव्यों का पालन करने में तुम्हारी विफलता मात्र नहीं है, बल्कि यह शैतान की साजिशों और सांसारिक आचरण के उसके फलसफों को सत्य मानना है, उनका अनुसरण और अभ्यास करना है। तुम शैतान की आज्ञा का पालन कर रहे हो और शैतानी फलसफे के अनुसार जी रहे हो, है न? तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, तुम परमेश्वर के वचनों का पालन करने वाले व्यक्ति तो बिल्कुल नहीं हो। तुम पूरे बदमाश हो। परमेश्वर के वचनों को दर-किनार कर, शैतानी मुहावरे को अपनाना और सत्य के रूप में उसका अभ्यास करना, सत्य और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना है! तुम परमेश्वर के घर में काम करते हो, फिर भी शैतानी तर्क और सांसारिक आचरण के उसके फलसफे ही तुम्हारे क्रियाकलापों के सिद्धांत हैं, तुम किस तरह के व्यक्ति हो? ऐसा व्यक्ति परमेश्वर से विश्वासघात करता है और उसे बुरी तरह लज्जित करता है। इस हरकत का सार क्या है? खुले तौर पर परमेश्वर की निंदा करना और सत्य को नकारना। क्या यही इसका सार नहीं है? (यही है।) तुम परमेश्वर की इच्छा का पालन करने के बजाय, शैतान की एक दानवी कहावत और सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों को कलीसिया में निरंकुशता करने दे रहे हो। ऐसा करके, तुम खुद शैतान के सहयोगी बन जाते हो और कलीसिया में शैतान की गतिविधियों को अंजाम देने में उसकी सहायता करते हो और कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधाएँ डालते हो। इस समस्या का सार गंभीर है, है ना?(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण एक : सत्य क्या है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी स्थिति को उजागर कर दिया। मैं इस शैतानी फलसफे के अनुसार जी रही थी : “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” और मैं यह सोचती थी कि चूँकि मुझे कोई व्यक्ति सही लगता है और उसके पास अभी भी जिम्मेदारी है, इसलिए मुझे उस पर विश्वास करना चाहिए। इसी कारण मुझे लियू जिंग पर इतना भरोसा था और मैंने उसके कार्यों की निगरानी नहीं की या जानकारी नहीं ली। यहाँ तक कि जब उसकी समस्याएँ सामने आईं और अगुआ ने मुझे उसके कार्यों की जाँच करने की याद दिलाई, तब भी मैंने इसके बारे में कुछ नहीं सोचा। मुझे लगा कि उसके कार्य की जाँच और निगरानी करने का मतलब भरोसे की कमी होगी और भले ही मुझे पता चल गया था कि वह असली कार्य नहीं कर रही थी और मैंने उसे रोते हुए, अपनी वास्तविक कठिनाइयों के बारे में बात करते हुए और पछतावा व्यक्त करते हुए सुना था, तो मैंने उसे बर्खास्त करने के बजाय उस पर विश्वास करने का फैसला किया और उसे कलीसिया के कार्य को हानि और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को भारी क्षति पहुँचाने दी। एक अगुआ के तौर पर मैं न केवल कलीसिया के कार्य की रक्षा करने में विफल रही, बल्कि मैंने एक झूठे अगुआ के लिए एक ढाल के रूप में कार्य किया। मैं कलीसिया के कार्य के मार्ग में एक बाधा और रुकावट बन गई थी। ये इस बात के नतीजे थे कि मैं लोगों के साथ इस शैतानी भ्रांति के आधार पर व्यवहार करती हूँ : “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” अब जब मैंने परमेश्वर के वचनों के आधार पर इसका भेद पहचाना तो देख लिया कि यह दृष्टिकोण वास्तव में कितना बेतुका था। यह पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं के विरुद्ध था। परमेश्वर की यह अपेक्षा भ्रष्ट मानवजाति के सार को ध्यान में रखकर निर्धारित की गई है कि अगुआ कार्यों की निगरानी करेंगे और उनका फॉलो अप करेंगे। क्योंकि मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव होता है और जब तक हमें सत्य प्राप्त नहीं होता या हमारे जीवन स्वभाव में परिवर्तन नहीं आता, तब तक हम भरोसेमंद नहीं होते और हम पर विश्वास नहीं किया जा सकता। यहाँ तक कि अच्छी मानवता वाले लोग भी अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकते हैं और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ कर सकते हैं और बाधा डाल सकते हैं, क्योंकि वे सत्य को नहीं जानते, वे अपने कार्यों में सिद्धांतनिष्ठ नहीं हैं और उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं। कोई भी इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकता। परमेश्वर लोगों के सार को समझता है, इसीलिए वह यह अपेक्षा करता है कि अगुआ और कार्यकर्ता कार्य की निगरानी करें। कार्यों की निगरानी और जाँच करना हमारे कर्तव्यों के लिए उपयोगी है और इससे कलीसिया के कार्य को लाभ होता है। लेकिन यह शैतानी विचार, “उन लोगों पर संदेह न करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो,” हमें दूसरों पर आँख मूँद कर भरोसा करने के लिए उकसाता है और हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि किसी कार्य को सौंप देने के बाद हमें उस व्यक्ति को उसकी मनमानी करने देनी चाहिए और यह कि उसके कार्यों की निगरानी करना विश्वास की कमी का संकेत होगा। अगर हम अपना कर्तव्य निभाते समय इसी दृष्टिकोण पर अड़े रहते हैं और समय पर कार्यों का फॉलो अप और निगरानी नहीं करते, तो इससे केवल कलीसिया के कार्य में देरी होगी और नुकसान होगा। मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर के वचनों के आधार पर चीजों को नहीं देखती थी या उसकी अपेक्षाओं का अभ्यास नहीं करती थी, बल्कि शैतानी फलसफों में विश्वास और इनका पालन करती थी और शैतान की भ्रांतियों को सत्य मानकर इनका पालन करती थी। यह सत्य का इनकार और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना था। यह शैतान की साथी के रूप कार्य करना और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ करना और बाधा डालना भी था। जैसे-जैसे मैं इस बारे में सोचती रही, मुझे और अधिक डर लगने लगा। मैंने देखा कि मेरे कर्तव्य में सिद्धांतों की कमी थी और मैं परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार नहीं चल रही थी। मैं अनजाने में बुराई कर रही थी। सत्य सिद्धांतों के बिना अपने कर्तव्य को निभाने के परिणाम वास्तव में बहुत भयावह थे!

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “क्या तुम लोग मानते हो कि ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो’ वाला दृष्टिकोण सही है? क्या यह मुहावरा सत्य है? परमेश्वर के घर के काम करने में और अपना कर्तव्य करने में वह इस मुहावरे का उपयोग क्यों करेगा? यहाँ क्या समस्या है? ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो’ यह मुहावरा साफ तौर से अविश्वासियों के शब्द हैं, शैतान के मुँह से निकले हुए शब्द हैं—तो वह उनके साथ ऐसे क्यों पेश आता है जैसे कि वे सत्य हों? वह क्यों नहीं बता पाता कि ये शब्द सही हैं या गलत? ये स्पष्ट रूप से मनुष्य के शब्द हैं, भ्रष्ट इंसान के शब्द हैं, ये बिल्कुल सत्य नहीं हैं, ये परमेश्वर के वचनों के अनुरूप बिल्कुल नहीं हैं, इन्हें लोगों के कार्यों, आचरण और परमेश्वर की आराधना के लिए मानदंड नहीं मानना चाहिए। तो इस मुहावरे के साथ कैसे पेश आना चाहिए? यदि तुम वास्तव में पहचानने में सक्षम हो, तो अभ्यास के अपने सिद्धांत के रूप में तुम्हें इसकी जगह किस प्रकार के सत्य सिद्धांत का उपयोग करना चाहिए? सत्य सिद्धांत यह होना चाहिए कि ‘तुम अपना कर्तव्य पूरे दिल, आत्मा और मन से निभाओ।’ अपने पूरे दिल, पूरी आत्मा और पूरे मन से कार्य करना किसी के द्वारा बाधित नहीं किया जाना है; यह एक दिलो-दिमाग से होना चाहिए, न कि आधे-अधूरे मन से। यह तुम्हारी जिम्मेदारी और कर्तव्य है और तुम्हें इसे अच्छी तरह से निभाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करना पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है। तुम्हारे सामने जो भी समस्याएँ आएँ, तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। उनसे तुम वैसे ही निपटो, जैसा जरूरी हो; यदि काट-छाँट की आवश्यकता है, तो वैसे ही करो और यदि बर्खास्तगी अनिवार्य है, तो वही सही। संक्षेप में कहूँ तो, परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर कार्य करो। क्या यही सिद्धांत नहीं है?(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण एक : सत्य क्या है)। “कोई अगुआ या कर्मी चाहे जो भी महत्वपूर्ण कार्य करे, और उस कार्य की प्रकृति चाहे जो हो, उसकी पहली प्राथमिकता यह समझना और पकड़ना है कि कार्य कैसे चल रहा है। चीजों की खोज-खबर लेने और प्रश्न पूछने के लिए उन्हें व्यक्तिगत रूप से वहाँ होना चाहिए और उनकी सीधी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। उन्हें केवल सुनी-सुनाई बातों के भरोसे नहीं रहना चाहिए या दूसरे लोगों की रिपोर्टों पर ध्यान नहीं देना चाहिए। बल्कि उन्हें अपनी आँखों से देखना चाहिए कि कार्मिकों की स्थिति क्या है और काम कैसे आगे बढ़ रहा है, और समझना चाहिए कि कठिनाइयाँ क्या हैं, कोई क्षेत्र ऊपरवाले की अपेक्षाओं के विपरीत तो नहीं है, कहीं सिद्धांतों का उल्लंघन तो नहीं हुआ, कहीं कोई बाधा या गड़बड़ी तो नहीं है, आवश्यक उपकरण की या पेशेवर कामों से जुड़े कार्य में निर्देशात्मक सामग्री की कमी तो नहीं है—उन्हें इन सब पर नजर रखनी चाहिए। चाहे वे कितनी भी रिपोर्टें सुनें या सुनी-सुनाई बातों से वे कितना भी कुछ छान लें, इनमें से कुछ भी व्यक्तिगत दौरे पर जाने और अपनी आँखों से देखने की बराबरी नहीं करता; चीजों को अपनी आँखों से देखना अधिक सटीक और विश्वसनीय होता है। एक बार वे स्थिति के सभी पक्षों से परिचित हो जाएँ, तो उन्हें इस बात का अच्छा अंदाजा हो जाएगा कि क्या चल रहा है। उन्हें खासतौर पर इस बात की स्पष्ट और सटीक समझ होनी चाहिए कि कौन अच्छी क्षमता का है और विकसित किए जाने योग्य है, क्योंकि इसी से वे लोगों को सटीक ढंग से विकसित कर उनका उपयोग कर पाते हैं, जो इस बात के लिए अहम है कि अगुआ और कार्मिक अपना काम ठीक से करें। अगुआओं और कर्मियों के पास अच्छी काबिलियत वाले लोगों को विकसित और प्रशिक्षित करने का मार्ग और सिद्धांत होने चाहिए। इतना ही नहीं, उन्हें कलीसिया के कार्य में मौजूद विभिन्न प्रकार की समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने की अच्छी पकड़ और गहरी समझ होनी चाहिए, और उन्हें पता होना चाहिए कि मुश्किलों को कैसे दूर किया जाए, उनके पास अपने विचार और सुझाव भी होने चाहिए कि काम को कैसे आगे बढ़ाना है और इसकी भविष्य की क्या संभावनाएँ हैं। अगर वे बहुत आसानी से, बिना किसी संदेह या आशंका के ऐसी चीजों के बारे में स्पष्टता से बोलने में सक्षम हों, तो यह काम करना बहुत आसान हो जाएगा। और इस प्रकार कार्य करके अगुआ अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रहा होगा, है ना? उन्हें कार्य की उपरोक्त समस्याओं का समाधान करने के तरीकों से भली-भाँति परिचित होना चाहिए और उन्हें अक्सर इन बातों के बारे में सोचते रहना चाहिए। कठिनाइयाँ आने पर उन्हें सबके साथ इन बातों पर संगति और चर्चा करनी चाहिए और समस्याओं का समाधान करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। इस प्रकार दोनों पाँव दृढ़ता से जमीन पर रखे हुए वास्तविक कार्य करने से ऐसी कोई कठिनाई नहीं होगी जिसका समाधान न किया जा सके(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे वास्तविक कार्य करने के लिए अभ्यास का मार्ग दिखाया। हमें अपने पूरे दिल और पूरे मन से अपनी जिम्मेदारियों को निभाना चाहिए। चाहे किसी भी व्यक्ति का उपयोग किया जा रहा हो, चाहे हम उसे जानते हों या न जानते हों, एक सच्चे बोझ और सच्ची जिम्मेदारी की भावना रखने वाला अगुआ लगातार कार्य की प्रगति का फॉलो अप करेगा और उसके बारे में जानता रहेगा और जैसे ही वह समस्याओं को देखेगा, तो उन्हें तुरंत हल करेगा और अनुपयुक्त कार्मिकों को समय रहते हटाकर दूसरा काम सौंप देगा। वह हर किसी के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग भी करेगा और किसी भी कठिनाई या समस्या का समाधान करने के लिए एक साथ मिल कर सत्य खोजेगा। इससे यह सुनिश्चित होता है कि कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदों में व्यवस्थित और उचित प्रगति हो। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैंने देखा कि मैं अभी भी इस शैतानी भ्रांति से क्यों चिपकी हुई हूँ, “उन लोगों पर संदेह न करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो,” जबकि मुझे पता था कि मुझे अपने कर्तव्य में जिम्मेदार होना है। इसका कारण यह था कि मैं एक बेतुके दृष्टिकोण को पकड़े हुए थी, मैं यह सोचती थी कि किसी के कार्य की निगरानी करना उस पर भरोसा न होना है, कि यह उसे विवश करने और उसकी स्वतंत्रता छीनने जैसा है, जैसे दुनिया में एक सुपरवाइजर का कार्य होता है। अब मैंने देखा कि जब परमेश्वर का घर अगुआओं और कार्यकर्ताओं से यह माँग करता है कि वे कार्यों की निगरानी करें और उन्हें लागू करें, तो इसका उद्देश्य किसी को विवश करना या उन पर अविश्वास करना नहीं है। बल्कि इसका उद्देश्य समस्याओं को ढूँढ़ना और जल्द से जल्द गलतियाँ सुधारना है। यह भाई-बहनों को उनके कर्तव्यों को बेहतर ढंग से निभाने और कलीसिया के हितों की रक्षा करने में मदद भी करता है। किसी अगुआ और कार्यकर्ता की एक प्रमुख जिम्मेदारी यह है कि कार्य की निगरानी और जाँच की जाए, कार्य के बारे में प्रत्येक व्यक्ति के दृष्टिकोण को जाना और समझा जाए, भटकाव और समस्याएँ ढूँढ़ी जाएँ और उन्हें तुरंत सुधारा और हल किया जाए। इससे लोगों के कर्तव्यों के प्रति गैरजिम्मेदारी के कारण होने वाली गलतियों की हानि कम से कम की जा सकती है। इसे भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश और कलीसिया के कार्य के लिए जिम्मेदारी लेना कहते हैं। इसके बाद मैंने प्रत्येक कलीसिया के अगुआ के कार्य की विस्तार से जाँच की और चाहे मैं उनसे परिचित थी या नहीं थी, मैंने उनके जिम्मे वाले विभिन्न कार्यों की प्रगति की ईमानदारी से जाँच की। इस वास्तविक जाँच के जरिए मुझे शीया उपनाम वाला एक अगुआ मिल गया जो न तो वास्तविक कार्य कर रहा था, न ही वास्तविक समस्याओं का समाधान कर रहा था। उसकी मानवता भी दुष्ट थी और वह दूसरों पर हमला कर रहा था और उन्हें बाहर निकाल रहा था; ये वास्तव में निंदनीय प्रकृति के कार्य थे और हमने उसे तुरंत बर्खास्त कर दिया। बाद में भाई-बहनों के प्रकाशन और रिपोर्टों के माध्यम से हमें उसके कई अन्य बुरे कार्यों का पता चला और अंत में बहुत सारी संगति कर उसे उजागर किया गया, फिर भी उसने पश्चात्ताप नहीं किया। आखिरकार हमने उसे एक मसीह-विरोधी ठहराया और उसे कलीसिया से निकाल दिया। ये नतीजे देखकर मैंने डरते-डरते अतीत में झाँका। अगर मैं लियू जिंग के साथ उस अनुभव से न गुजरी होती, जिसने मेरे इस गलत दृष्टिकोण को बदला था “उन लोगों पर संदेह न करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो,” तो मैं शीया के कार्य की निगरानी या पड़ताल करने के बारे में न सोचती। तब वह मसीह-विरोधी कलीसिया में भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाता रहता। इसके परिणामों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इसका अभ्यास करने से मुझे कार्य की निगरानी और जाँच करने का महत्व दिख गया। मैंने महसूस किया कि मैंने आखिरकार कुछ सच्चा कार्य किया है और मुझे अपने दिल में सुकून महसूस हुआ।

इस अनुभव ने मुझे दिखाया कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखे बिना या सत्य का अभ्यास किए बिना कर्तव्य को निभाना और इसके बजाय शैतानी तर्क और विचारों का पालन करना, वास्तव में परमेश्वर का विरोध करने और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ करने और बाधा डालने जैसा है। हमें कार्य की देखरेख और जाँच के बारे में परमेश्वर की अपेक्षाओं का पालन करना है ताकि हम अच्छे से कर्तव्य निभाएँ और कलीसिया के कार्य की रक्षा करें। परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन ने मेरे गलत दृष्टिकोण को बदल दिया। परमेश्वर का धन्यवाद!

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