6. परमेश्वर को गलत समझने के मेरे कष्टदायक दिन

मैरिसा, नीदरलैंड

2017 में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। पहले तो मैंने अपने कर्तव्य में कुछ नतीजे पाए लेकिन बाद में मैं रुतबे के आशीष की लालसा करने लगी और वास्तविक कार्य करना बंद कर दिया। मैंने कलीसिया के कार्य को आगे नहीं बढ़ाया और बहाना बनाया कि मेरी काबिलियत कम है और मैं पेशेवर कौशल नहीं समझ सकती। जब एक उच्च अगुआ बहन जूलिया ने मुझसे काम के बारे में पूछा तो मैं उसे कोई जवाब नहीं दे पाई, न ही मैं उन वास्तविक कठिनाइयों को समझ पाई जिनका सामना भाई-बहनों को अपना कर्तव्य निभाने में करना पड़ता है। फिर जूलिया ने मेरी मदद करने के लिए मेरी समस्याएँ बताईं लेकिन मैंने ध्यान नहीं दिया। कुछ मौके ऐसे भी आए जब उसने कई उपयाजकों के सामने मुझे उजागर कर दिया और कहा कि मैं वास्तविक काम नहीं करती, अपने कर्तव्य में ढिलाई बरत रही हूँ, बहुत धोखेबाज हूँ, इत्यादि। मुझे लगा कि जूलिया मुझे परेशान करने और दूसरों के सामने मुझे शर्मिंदा करने की कोशिश कर रही है, इसलिए मैं अपने दिल में प्रतिरोधी हो गई।

एक बार एक सभा के दौरान मुझे जूलिया के काम में कुछ गलतियाँ दिखीं, तो मैंने भाई-बहनों के सामने उसकी आलोचना कर डाली। इससे उन्हें गलती से लगा कि वह एक झूठी अगुआ है। मैंने जो किया उससे कलीसिया का काम बाधित हुआ। मामला उजागर होने के बाद मुझे चिंता हुई कि मेरा अगुआ मेरी काट-छाँट करेगा और मेरे कर्तव्य को समायोजित करेगा, इसलिए मैंने जल्दी से जूलिया से माफी माँग ली और भाई-बहनों के सामने अपना गहन-विश्लेषण और आत्म-चिंतन किया। मुझे लगा कि यह मामला ऐसे ही टल जाएगा। लेकिन मुझे हैरानी हुई कि कुछ दिनों बाद मेरे उच्च अगुआ मेरे पास आए और कहा कि वास्तविक कार्य करने में मेरी विफलता पहले से ही गंभीर लापरवाही थी और मैंने काट-छाँट नहीं स्वीकारी और दूसरों को गुप्त रूप से कमजोर किया। इससे कलीसिया का काम बाधित हो रहा था। यह सुनकर मुझे इसे स्वीकारने में मुश्किल हुई और मैं अपने दिल में बहस करती रही : ऐसा नहीं था कि मैं वास्तविक कार्य नहीं करना चाहती थी लेकिन ऐसा करने के लिए मेरी काबिलियत बहुत कम थी। जहाँ तक दूसरों को गुप्त रूप से कमजोर करने की बात है तो मैंने अपनी गलती पहले ही मान ली थी। मैंने जूलिया से माफी माँगी थी और भाई-बहनों के सामने अपनी भ्रष्टता का गहन-विश्लेषण किया था। तो फिर तुम इस मामले को अभी भी क्यों कसकर पकड़े हुए हो? उस समय चाहे उन्होंने मेरे साथ कैसे भी संगति की हो, मैं इसे स्वीकार नहीं पाई। इसलिए मेरी अवस्था के आधार पर अगुआओं में से एक ने मेरे लिए परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “भाइयों-बहनों में से जो लोग हमेशा अपनी नकारात्मकता का गुबार निकालते रहते हैं, वे शैतान के अनुचर हैं और वे कलीसिया को परेशान करते हैं। ऐसे लोगों को अवश्य ही एक दिन निकाल दिया जाना चाहिए। परमेश्वर में विश्वास रखते हुए अगर लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल न हो, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल न हो, तो ऐसे लोग न सिर्फ परमेश्वर के लिए कोई कार्य कर पाने में असमर्थ होंगे, बल्कि वे परमेश्वर के कार्य में बाधा डालने वाले और उसका विरोध करने वाले लोग बन जाएंगे। परमेश्वर में विश्वास करना किन्तु उसके प्रति समर्पण न करना या उसका भय न मानना और उसका प्रतिरोध करना, किसी भी विश्वासी के लिए सबसे बड़ा कलंक है। यदि विश्वासी अपनी बोली और आचरण में हमेशा ठीक उसी तरह लापरवाह और असंयमित हों जैसे अविश्वासी होते हैं, तो ऐसे लोग अविश्वासी से भी अधिक दुष्ट होते हैं; ये मूल रूप से राक्षस हैं। जो लोग कलीसिया के भीतर विषैली, दुर्भावनापूर्ण बातों का गुबार निकालते हैं, भाई-बहनों के बीच अफवाहें व अशांति फैलाते हैं और गुटबाजी करते हैं, तो ऐसे सभी लोगों को कलीसिया से निकाल दिया जाना चाहिए था। अब चूँकि यह परमेश्वर के कार्य का एक भिन्न युग है, इसलिए ऐसे लोग नियंत्रित हैं, क्योंकि उन्हें निश्चित रूप से निकाला जाना है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। जितना ज्यादा मैंने सुना, मेरे दिल में उतना ही डर बैठता गया, मुझे पता था कि जूलिया की आलोचना से वाकई कलीसिया का काम बाधित हुआ था। लेकिन जब मैंने “शैतान के अनुचर,” “कलीसिया को परेशान,” “निकाल दिया जाना चाहिए,” “निकाला जाना,” जैसे शब्द सुने तो मैंने उन्हें स्वीकार करने की हिम्मत नहीं कर पाई, मुझे डर था कि अगर मैंने ऐसा किया, तो क्या इसके परिणामस्वरूप मेरी निंदा नहीं की जाएगी? फिर मैं कभी उद्धार कैसे पा सकूँगी? मैं इस तथ्य को स्वीकारना नहीं चाहती थी, इसलिए मैंने अगुआ के बारे में शिकायत की, मैंने सोचा कि वह जानबूझकर मुझ पर हमला करने और मेरी निंदा करने के लिए परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल कर रही है। मैंनै बहुत भावुक होकर कहा, “तुम समस्या सुलझाने में मेरी मदद करने के लिए सत्य पर संगति नहीं कर रही हो! तुम बस मुझ पर हमला कर रही हो!” अगुआओं को एहसास हुआ कि मुझे अपने बारे में कोई ज्ञान नहीं है और वे मेरी मदद करने के लिए संगति करते रहे। उन्होंने मुझे खुद को समझने में मार्गदर्शन करने के लिए अपने अनुभवों पर भी संगति की। लेकिन चाहे उन्होंने जो भी कहा हो, मुझे कुछ समझ नहीं आया। आखिरकार जब उन्होंने देखा कि मैं कोई वास्तविक कार्य नहीं कर रही थी, कि मैंने सत्य को नहीं स्वीकारा था और पश्चात्ताप का भाव भी नहीं रखा था तो उच्च अगुआओं ने मुझे बर्खास्त कर दिया।

उस पल मैं अचानक निढाल हो गई। मैंने सोचा कि मैं दस वर्षों से अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास करती रही हूँ, मैं कोई नई विश्वासी नहीं हूँ जिसे दो या तीन साल ही हुए हों। परमेश्वर का कार्य अब अपने समापन के करीब पहुँच रहा है। लोगों को उनके प्रकार के अनुसार बेनकाब और वर्गीकृत करने का समय पहले ही आ चुका है। इस महत्वपूर्ण मोड़ पर मुझे ऐसे व्यक्ति के रूप में बेनकाब किया गया है जो सत्य को नहीं स्वीकारता। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि मुझे निकाल दिया गया है? मुझे डर था कि यहाँ से मेरे लिए अपनी आस्था में और अधिक प्रयास करना बेकार होगा और मेरा कोई भविष्य नहीं होगा। मैं बहुत निराश हो गई। मेरी अवस्था हर दिन बिगड़ती गई। मुझे लगा जैसे मैं कोई निकम्मी हूँ जो कोई भी काम ठीक से नहीं कर सकती। परमेश्वर द्वारा त्यागे जाने का लगातार एहसास होने से मेरा दिल हर दिन भय और बेचैनी से भर जाता था। हालाँकि भाई-बहन मेरे साथ परमेश्वर के इरादे के बारे में संगति करते रहे, मुझसे आत्म-चिंतन करने और अपनी असफलता से सीखने का आग्रह करते रहे लेकिन मैंने हठपूर्वक मान लिया कि मैं पहले ही एक ऐसी इंसान के रूप में बेनकाब हो चुकी हूँ जो सत्य का अनुसरण नहीं करती, इसलिए मैंने सोचा कि आगे बढ़ना समय की बर्बादी होगी। तब से चाहे कलीसिया ने मुझे कोई भी कर्तव्य सौंपा हो, मैंने नकारात्मकता और निष्क्रियता के साथ काम किया लापरवाही बरती और बहुत कम या कोई नतीजा नहीं पाया। आखिरकार सिद्धांतों के आधार पर मेरे अगुआओं ने मेरे कर्तव्य रोक दिए और मुझे आत्म-चिंतन के लिए अलग कर दिया। उस पल मेरा दिमाग शून्य हो गया; यह मौत की सजा की तरह लगा। मुझे एहसास हुआ कि मैं पूरी तरह से खत्म हो चुकी हूँ। कर्तव्य के बिना मेरे लिए उद्धार पाने की कोई उम्मीद कैसे हो सकती थी? उन दिनों मैं एक चलती-फिरती लाश की तरह रहती थी, अक्सर महसूस करती थी कि मुझे परमेश्वर ने ठुकरा दिया है। मुझे प्रार्थना करने में बहुत शर्म आती थी और मैं खुद को परमेश्वर के वचन पढ़ने के लायक नहीं समझती थी। उस समय कुछ भाई-बहनों ने मेरा साथ दिया, जो मुझे परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाते थे। हालाँकि मुझे लगता था कि परमेश्वर के वचन उन लोगों के लिए थे जो सत्य का अनुसरण करते हैं, मेरे लिए नहीं, इसलिए मैं उन्हें बिल्कुल भी ग्रहण नहीं कर पाती थी। क्या प्रभु यीशु ने यह नहीं कहा था, “कुत्तों को पवित्र वस्तुएँ मत दो; अपने मोती सूअरों के आगे मत फेंको”? परमेश्वर मेरे जैसे किसी व्यक्ति से कैसे बात कर सकता है? उस दौरान मैं हर दिन भयभीत और बेचैन रहती थी। अगर परमेश्वर ने मुझे सच में त्याग दिया था तो मेरे अस्तित्व का क्या मतलब था? हो सकता है कि मैं भी एक दिन किसी सजा से मर जाऊँ। मेरा दिल भयभीत था, हर दिन पीड़ा में संघर्ष कर रहा था। बाद में कुछ ऐसा हुआ जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया।

मुझे दाई की एक नौकरी मिल गई जहाँ मेरे नियोक्ता ने अच्छी मानवता दिखाई और जीवन में मेरा अच्छा ख्याल रखा। इससे प्रोत्साहित होकर मैंने अपने नियोक्ता के साथ सुसमाचार साझा किया, उसने अंत के दिनों का परमेश्वर का सुसमाचार खुशी से स्वीकार कर लिया। मैं बहुत उत्साहित थी। इस अनुभव से मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ने मुझे त्यागा नहीं था बल्कि वह मुझ पर लगातार दया दिखाकर मुझे बचा रहा था। अपराध बोध से अभिभूत होकर मैंने आँसू बहाते हुए परमेश्वर को पुकारा, “हे परमेश्वर, मैं इस तरह नकारात्मक नहीं रहना चाहती; कृपया मुझे बचा लो!” मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा जो कहता है : “जब कुछ लोग परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और देखते हैं कि वह अपने वचनों में लोगों की निंदा कर रहा है, तो वे धारणाएँ बना कर पसोपेश में पड़ जाते हैं। मिसाल के तौर पर, परमेश्वर के वचन कहते हैं कि चूँकि तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते, इसलिए परमेश्वर तुम्हें पसंद नहीं करता या स्वीकार नहीं करता, तुम दुराचारी हो, मसीह-विरोधी हो, वह बस तुम्हें देखने भर से नाराज हो जाता है, और वह तुम्हें नहीं चाहता। लोग ये वचन पढ़ कर सोचते हैं, ‘क्या ये वचन मुझे लागू होते हैं। परमेश्वर ने तय कर लिया है कि वह मुझे नहीं चाहता, और चूँकि परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया है, इसलिए मैं भी अब उसमें विश्वास नहीं रखूँगा।’ कुछ ऐसे लोग भी हैं जो परमेश्वर के वचन पढ़ कर अक्सर धारणाएँ और गलतफहमियाँ बना लेते हैं, क्योंकि परमेश्वर लोगों की भ्रष्ट दशाओं को उजागर करता है और उनकी निंदा करते हुए कुछ बातें कहता है। वे यह सोच कर निराश और कमजोर हो जाते हैं कि वे ही परमेश्वर के वचनों का निशाना थे, परमेश्वर उन्हें छोड़ रहा है, और वह उन्हें नहीं बचाएगा। वे इतने निराश हो जाते हैं कि उन्हें आँसू आ जाते हैं और अब परमेश्वर का अनुसरण नहीं करना चाहते। यह वास्तव में परमेश्वर को लेकर गलतफहमी है। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अर्थ नहीं समझते, तो तुम्हें परमेश्वर को रेखांकित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। तुम नहीं जानते कि परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति को त्यागता है, और वह लोगों को किन हालात में छोड़ता है, या वह लोगों को किन हालात में किनारे कर देता है; इन सभी के लिए सिद्धांत और संदर्भ हैं। अगर तुम्हें इन विस्तृत मामलों में पूरी अंतर्दृष्टि नहीं है, तो तुम्हारे अतिसंवेदनशील होने की बड़ी संभावना होगी और तुम परमेश्वर के केवल एक वचन के आधार पर खुद को परिसीमित कर लोगे। क्या यह समस्या नहीं है? लोगों का न्याय करते समय परमेश्वर उनके किस मुख्य पहलू की निंदा करता है? परमेश्वर जिसका न्याय कर जिसे उजागर करता है, वह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार होते हैं, वह उनके शैतानी स्वभावों और शैतानी प्रकृति की निंदा करता है, वह परमेश्वर के प्रति उनके विद्रोह और विरोध की विभिन्न अभिव्यक्तियों और व्यवहारों की निंदा करता है, वह परमेश्वर को समर्पित न हो पाने, हमेशा परमेश्वर का विरोध करने, हमेशा अपनी अभिप्रेरणाएँ और लक्ष्य रखने के लिए उनकी निंदा करता है—लेकिन ऐसी निंदा का यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर ने शैतानी स्वभाव वाले लोगों को त्याग दिया है। ... परमेश्वर से निंदा का सिर्फ एक वक्तव्य सुन कर तुम सोचते हो कि परमेश्वर द्वारा निंदित होने के कारण लोग उसके द्वारा त्याग दिए गए हैं और अब वे बचाए नहीं जाएँगे, और इस वजह से तुम निराश हो जाते हो, और खुद को मायूसी में डुबो लेते हो। यह परमेश्वर की गलत व्याख्या करना है। असल में परमेश्वर ने लोगों को नहीं त्यागा है। उन्होंने परमेश्वर की गलत व्याख्या कर खुद को त्याग दिया है। लोग खुद को त्याग दें इससे ज्यादा गंभीर कुछ नहीं होता, जैसा कि पुराने नियम के वचनों में साकार हुआ है : ‘मूढ़ लोग निर्बुद्धि होने के कारण मर जाते हैं’ (नीतिवचन 10:21)। लोग खुद को मायूसी में डुबो लें उससे ज्यादा मूर्खतापूर्ण व्यवहार कुछ भी नहीं है। कभी-कभी तुम परमेश्वर के ऐसे वचन पढ़ते हो जो लोगों को रेखांकित करते हुए-से लगते हैं; असल में ये लोगों को रेखांकित नहीं करते, बल्कि ये परमेश्वर के इरादों और राय की अभिव्यक्ति हैं। ये सत्य और सिद्धांत के वचन हैं, वे किसी का रेखांकन नहीं कर रहे हैं। क्रोध या रोष के समय में बोले गए परमेश्वर के वचन उसका स्वभाव भी दर्शाते हैं, ये वचन सत्य हैं और इसके अलावा सिद्धांत से संबंधित हैं। लोगों को यह बात समझनी चाहिए। यह कहने के पीछे परमेश्वर का उद्देश्य लोगों को सत्य और सिद्धांतों को समझने देना है; यह किसी को भी परिसीमित करने के लिए बिल्कुल नहीं है। इसका लोगों की अंतिम मंजिल और पुरस्कार से कोई लेना-देना नहीं है, यह लोगों का अंतिम दंड तो है ही नहीं। ये महज लोगों का न्याय करने और उनकी काट-छाँट करने के लिए बोले गए वचन हैं, ये लोगों के परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे न उतरने पर उसके क्रोध का परिणाम हैं, ये लोगों को जगाने, उन्हें प्रेरित करने के लिए बोले गए हैं, और ये वचन परमेश्वर के दिल से निकले हैं। फिर भी कुछ लोग परमेश्वर द्वारा न्याय के सिर्फ एक वक्तव्य से गिर पड़ते हैं और उसका त्याग कर देते हैं। ऐसे लोग नहीं जानते कि उनके लिए अच्छा क्या है, उन पर तर्क का प्रभाव नहीं होता, और वे सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1))। मैं बार-बार परमेश्वर के वचन पढ़ती रही, अपराध बोध में आँसू बहाती रही। ऐसा लगा मानो परमेश्वर मेरे आमने-सामने आकर सांत्वना दे रहा था, खासकर जब परमेश्वर ने कहा : “ये महज लोगों का न्याय करने और उनकी काट-छाँट करने के लिए बोले गए वचन हैं, ये लोगों के परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे न उतरने पर उसके क्रोध का परिणाम हैं, ये लोगों को जगाने, उन्हें प्रेरित करने के लिए बोले गए हैं, और ये वचन परमेश्वर के दिल से निकले हैं। फिर भी कुछ लोग परमेश्वर द्वारा न्याय के सिर्फ एक वक्तव्य से गिर पड़ते हैं और उसका त्याग कर देते हैं। ऐसे लोग नहीं जानते कि उनके लिए अच्छा क्या है, उन पर तर्क का प्रभाव नहीं होता, और वे सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते।” परमेश्वर के वचनों ने मुझे जगा दिया। परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने रवैये पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि जब अगुआ ने परमेश्वर की ओर से प्रकाशन और निंदा करने वाले वचन मुझे सुनाए तो मैंने दोषी महसूस किया। मेरा दिल परमेश्वर के वचनों में न्याय और प्रकाशन स्वीकारने के लिए बहुत प्रतिरोधी था। इस बिंदु पर आकर मैं आखिर समझ गई कि भले ही परमेश्वर के वचन कठोर हों, उनका उद्देश्य हमें खुद को जानने, पश्चात्ताप करने और बदलने में मदद करना है। अगुआ ने मुझे उजागर किया था क्योंकि मेरे कार्यों की गंभीरता के कारण इसकी जरूरत थी लेकिन मेरे जिद्दी स्वभाव ने मुझे इस तथ्य को स्वीकारने से रोके रखा। बरखास्त होने के बाद भी मुझे होश नहीं आया, गलत तरीके से यह मानती रही कि परमेश्वर मुझे बेनकाब कर निकाल रहा है। मैं नकारात्मक अवस्था में फँसी रही, खुद पर से भरोसा खोती रही, निराशा में डूबती रही। मैंने जितना आत्म-चिंतन किया, उतना ही पश्चात्ताप करने लगी, अपनी जिद और विद्रोहीपन से घृणा करने लगी। मुझे एहसास हुआ कि मैं वाकई परमेश्वर के कार्य को कितना कम समझती थी। मुझे परमेश्वर के वचन याद आए जो कहते हैं : “परमेश्वर द्वारा मनुष्य की पूर्णता किन साधनों से संपन्न होती है? वह उसके धार्मिक स्वभाव द्वारा संपन्न होती है। परमेश्वर के स्वभाव में मुख्यतः धार्मिकता, क्रोध, प्रताप, न्याय और शाप शामिल हैं, और वह मनुष्य को मुख्य रूप से न्याय द्वारा पूर्ण बनाता है। कुछ लोग नहीं समझते और पूछते हैं कि क्यों परमेश्वर केवल न्याय और शाप के द्वारा ही मनुष्य को पूर्ण बना सकता है। वे कहते हैं, ‘यदि परमेश्वर मनुष्य को शाप दे, तो क्या वह मर नहीं जाएगा? यदि परमेश्वर मनुष्य का न्याय करे, तो क्या वह दोषी नहीं ठहरेगा? तो वह फिर भी पूर्ण कैसे बनाया जा सकता है?’ ऐसे शब्द उन लोगों के होते हैं, जो परमेश्वर के कार्य को नहीं जानते। परमेश्वर मनुष्य की विद्रोहशीलता को शापित करता है और वह मनुष्य के पापों का न्याय करता है। यद्यपि वह कठोरता और निर्ममता से बोलता है, फिर भी वह वो सब उजागर करता है जो मनुष्य के भीतर होता है, और इन कठोर वचनों के द्वारा वह वो सब उजागर करता है जो मूलभूत रूप से मनुष्य के भीतर होता है, फिर भी ऐसे न्याय द्वारा वह मनुष्य को देह के सार का गहन ज्ञान प्रदान करता है, और इस प्रकार मनुष्य परमेश्वर के समक्ष समर्पण कर देता है। मनुष्य की देह पाप और शैतान की है, वह विद्रोही है और परमेश्वर की ताड़ना की पात्र है। इसलिए मनुष्य को आत्मज्ञान प्रदान करने के लिए परमेश्वर के न्याय के वचनों से उसका सामना और हर प्रकार का शोधन परम आवश्यक है; तभी परमेश्वर का कार्य प्रभावी हो सकता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो)। मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पहले भी कई बार पढ़ा था, फिर भी मैं परमेश्वर का इरादा क्यों नहीं समझ पाई? अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य न्याय और ताड़ना के वचनों के माध्यम से मानवजाति को शुद्ध करना और बचाना है। शैतान ने मानवजाति को इतना भ्रष्ट कर दिया है कि न्याय और प्रकाशन के परमेश्वर के वचनों के बिना हम कभी भी अपनी भ्रष्टता का सार और वास्तविकता सही मायने में नहीं पहचान सकते, सच्चा पश्चात्ताप और परिवर्तन पाना तो दूर की बात है। लेकिन मैंने भ्रांतिपूर्ण ढंग से यह मान लिया था कि जब परमेश्वर ने न्याय करके हमें उजागर किया तो इसका मतलब निंदा और हमेशा के लिए हटाना था, जिसका अर्थ यह कि हमें कभी भी अच्छा परिणाम और गंतव्य नहीं मिल सकता। मेरी समझ बेतुकी और गुमराह थी। मैं परमेश्वर के कार्य और मानवजाति को बचाने के उसके ईमानदार इरादों के बारे में बहुत कम जानती थी। मुझे याद आया कि परमेश्वर ने पहले क्या कहा था : “हर वक्त, मनुष्य को बचाने का परमेश्वर का इरादा कभी नहीं बदलता(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। आज तक मुझे एहसास नहीं हुआ कि वे वचन कितने व्यावहारिक थे। परमेश्वर पूरी तरह से मानवजाति को बचाता है, और वह आसानी से किसी के लिए हार नहीं मानेगा जब तक कि मनुष्य खुद सत्य के अनुसरण को त्यागने का विकल्प न चुन ले। मैं खुद से ईमानदारी से पूछा, “अगर परमेश्वर मुझे मेरे कार्यों के आधार पर न बचाना चाहता तो क्या उसने मुझे पहले ही न निकाल दिया होता? अगर यह सच था तो क्या उसे मेरा न्याय कर उजागर करने, मेरी भ्रष्टता को बेनकाब करने के लिए परिस्थितियाँ बनाने की, और आत्म-चिंतन और खुद को समझने के लिए मेरा मार्गदर्शन करने और प्रबुद्ध करने की जरूरत थी? भाई-बहनों ने मेरी काट-छाँट की और चेतावनी दी ताकि मैं पीछे मुड़कर आत्म-चिंतन कर सकूँ। क्या ये कार्य-कलाप वाकई परमेश्वर के व्यावहारिक और वास्तविक उद्धार नहीं थे? लेकिन मैं उन तरीकों को नहीं समझ पाई जिनसे परमेश्वर मानवजाति को बचाता है, न ही मैंने उसके प्रेम को पहचाना। इसके बजाय मैंने परमेश्वर को गलत समझा और उसका विरोध करते हुए नकारात्मकता में जीती रही। मैं कितनी अनुचित थी!” जैसे ही मैंने इस बारे में सोचा तो लंबे समय से सुन्न पड़े मेरे दिल को आखिरकार कुछ महसूस होने लगा और मुझे अपने किए पर गहरा पछतावा हुआ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, भविष्य में चाहे मुझे कितनी भी बाधाएँ या असफलताएँ क्यों न मिलें, मैं अब तुम्हें गलत नहीं समझना चाहती। मैं गंभीरता से आत्म-चिंतन करने, सबक सीखने, सत्य का परिश्रमपूर्वक अनुसरण करने और अपने शेष जीवन में अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए तैयार हूँ, ताकि मैं सच्चा पश्चात्ताप हासिल कर सकूँ।”

बाद में मैंने उस अवधि के दौरान अपने अनुभवों के बारे में एक लेख लिखा। एक बहन ने इसे पढ़ा और मुझे परमेश्वर के कुछ वचन भेजे और मुझे याद दिलाते हुए कहा, “तुम्हें उन कारणों पर आत्म-चिंतन करना चाहिए जिनके चलते तुम्हारी काट-छाँट की गई थी। अगुआओं द्वारा उजागर की गई हर समस्या पर विचार करना चाहिए और उन्हें सुलझाने के लिए संबंधित सत्य का प्रयोग करना चाहिए। तभी तुम इन मुद्दों को सही मायने में सुलझा पाओगी।” इसलिए मैंने शांत होकर आत्म-चिंतन किया : अगुआओं ने ऐसा क्यों कहा कि मैंने सत्य नहीं स्वीकारा? किन व्यवहारों से पता चला कि मैंने सत्य स्वीकारने से इनकार कर दिया है? अगुआ के रूप में अपने समय को याद करते हुए मुझे एहसास हुआ कि जब भी मेरे सामने कठिनाइयाँ आईं, मैंने अपने देह सुख को प्राथमिकता दी। मैंने समाधान के लिए सत्य खोजने के लिए प्रयास करने या कीमत चुकाने से परहेज किया। मैंने धोखेबाजी की तरकीबें भी अपनाईं और मानने लगी कि समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य की खोज बहुत थकाऊ और परेशान करने वाली होगी। अगर मैं अपनी खराब काबिलियत को बहाना बनाकर उच्च अगुआओं को समस्या बताती तो मैं परेशानी से बच सकती थी। अगर समस्याएँ अंतत : हल न भी हो पातीं तो भी मुझे कोई जिम्मेदारी नहीं उठानी पड़ती। मुझे याद आया कि एक बार जब मैंने अपने अगुआओं को काम की समस्याओं के बारे में बताया था तो उन्होंने जवाब दिया, “जब तुम समस्याओं का सामना करती हो तो तुम उन्हें सुलझाने का कोई प्रयास नहीं करती। इसके बजाय तुम कठिनाइयों को बोझ की तरह मानकर उन्हें दूसरों पर डाल देती हो। अगर तुमने अपनी मुश्किलों के बारे में सत्य की तलाश की होती तो तुम्हारे पास उन्हें सुलझाने के अपने विचार होते।” यह सुनकर आत्म-चिंतन करने के बजाय मैं क्रोधित हो गई : समस्याओं की रिपोर्ट करने में क्या गलत है? तुम यह कैसे कह सकते हो कि मैंने कठिनाइयों का सामना करते समय सत्य की खोज नहीं की? मैं मन ही मन बहस करने लगी। जब मैंने इस बारे में सोचा तो मुझे अचानक एहसास हुआ कि ठीक यही हुआ था जब मैंने सत्य की खोज नहीं की थी या उसे स्वीकारा नहीं था। मुझे यह भी याद आया कि कैसे जूलिया ने कई बार मेरी समस्याओं की ओर इशारा किया था और संगति के दौरान उन्हें उजागर किया था। आत्म-चिंतन करने के बजाय मैंने नाराजगी पाल ली थी और बदला लेना चाहा। मैंने काम पर उसकी गलतियों पर ध्यान दिया, पीठ पीछे उसकी आलोचना की और उसे कमतर आंका, जिससे कलीसियाई जीवन बाधित हो गया। जब मेरा दुराचार उजागर हुआ तो जिम्मेदारी से बचने के लिए मैंने जूलिया से झूठे मन से माफी माँग ली और भाई-बहनों के सामने खुद को उजागर किया और जाना, इस मुद्दे की गंभीरता कम करने का प्रयास किया। जब अगुआओं ने परमेश्वर के वचनों के अनुसार मेरे व्यवहार को उजागर किया तो मैंने उन्हें अपने दिल में स्वीकारा लेकिन मौखिक रूप से नहीं माना। फिर भी मैंने अनुचित रूप से अगुआओं पर हमला करने और मेरी निंदा करने के लिए परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया। क्या यह सभी कार्य सत्य स्वीकारने से मेरे इनकार करने की अभिव्यक्तियाँ नहीं थीं? बाद में जब मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े तो मुझे अपनी आंतरिक स्थिति की साफ समझ पाने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अगर तुम भ्रष्टता से स्वच्छ होना चाहते हो और अपने जीवन-स्वभाव में बदलाव से गुजरते हो, तो तुममें सत्य के लिए प्रेम करने और सत्य को स्वीकार करने की योग्यता होनी चाहिए। सत्य स्वीकार करने का क्या अर्थ है? सत्य स्वीकारने का यह अर्थ है कि चाहे तुममें किसी भी प्रकार का भ्रष्टाचारी स्वभाव हो या बड़े लाल अजगर के जो विष—शैतान के विष—तुम्हारी प्रकृति में हों, जब परमेश्वर के वचन इन चीजों को उजागर कर दें, तो तुम्हें उन्हें स्वीकारना और उनके प्रति समर्पित होना चाहिए, तुम कोई और विकल्प नहीं चुन सकते, तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद को जानना चाहिए। इसका मतलब है परमेश्वर के वचनों और सत्य को स्वीकारने में सक्षम होना। चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे, चाहे उसके कथन कितने भी कठोर हों, चाहे वह किन्हीं भी वचनों का उपयोग करे, तुम इन्हें तब तक स्वीकार कर सकते हो जब तक कि वह जो भी कहता है वह सत्य है, और तुम इन्हें तब तक स्वीकार कर सकते हो जब तक कि वे वास्तविकता के अनुरूप हैं। इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम परमेश्वर के वचनों को कितनी गहराई से समझते हो, तुम इनके प्रति समर्पित हो सकते हो, तुम उस रोशनी को स्वीकार कर सकते हो और उसके प्रति समर्पित हो सकते हो जो पवित्र आत्मा द्वारा प्रकट की गयी है और जिसकी तुम्हारे भाई-बहनों द्वारा सहभागिता की गयी है। जब ऐसा व्यक्ति सत्य का अनुसरण एक निश्चित बिंदु तक कर लेता है, तो वह सत्य को प्राप्त कर सकता है और अपने स्वभाव के रूपान्तरण को प्राप्त कर सकता है। अगर सत्य से प्रेम न करने वाले लोगों में थोड़ी-बहुत इंसानियत है, वे नेक कार्य कर सकते हैं, देह-सुख त्यागकर परमेश्वर के लिए खुद को खपा सकते हैं, पर वे सत्य को लेकर भ्रमित हैं और उसे गंभीरता से नहीं लेते, तो उनका स्वभाव कभी नहीं बदलता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि जो व्यक्ति सत्य स्वीकारता है, उसका रवैया परमेश्वर के वचनों के प्रति बिना शर्त प्रवेश, स्वीकार्यता और समर्पण वाला होना चाहिए। चाहे परमेश्वर के वचन कठोर हों या कोमल, चाहे उनमें न्याय और प्रकाशन करने की बात हो या उपदेश और सांत्वना की, हमें हमेशा स्वीकारना चाहिए और समर्पण करना चाहिए। यही विवेक हर व्यक्ति के पास होना चाहिए। कभी-कभी हमें परमेश्वर के वचनों द्वारा उजागर की गई अवस्था पहचानने में मुश्किल हो सकती है लेकिन हमें स्वीकृति और समर्पण का रवैया बनाए रखना चाहिए। कम से कम हमें मानना चाहिए कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, उसके प्रकाशन तथ्यात्मक हैं, वे हमारे भ्रष्ट स्वभाव के छिपे हुए पहलुओं को बेनकाब करते हैं और हमें परमेश्वर के वचनों के लिए “आमीन” कहना चाहिए। लेकिन भले ही मुझे साफ पता था कि परमेश्वर के वचन मेरी असली अवस्था को उजागर कर रहे थे, मैंने उन्हें नहीं स्वीकारा और यहाँ तक कि अनुचित रूप से अगुआओं पर परमेश्वर के वचनों का उपयोग करके मुझे दोषी ठहराने और नकारात्मक बनाने का आरोप लगाया। न केवल मैं परमेश्वर के वचनों का न्याय और प्रकाशन स्वीकार करने में नाकाम रही, बल्कि मैंने दूसरों पर जिम्मेदारी भी डाल दी। मैंने वाकई सत्य को बिल्कुल भी नहीं स्वीकारा था। मैं कितनी अनुचित थी! यहाँ तक कि जब भाई-बहनों से मुझे सुझाव, मदद और काट-छाँट जैसी सकारात्मक चीजें मिलीं, तो भी मैं उन्हें परमेश्वर से स्वीकार नहीं कर पाई और समर्पण नहीं कर सकी। इसके बजाय मैंने उन लोगों पर आरोप लगाया जिन्होंने काट-छाँटकर मुझे उजागर किया। जितना अधिक मैंने खुद पर चिंतन किया, उतना ही मुझे खुद में मानवता की कमी का एहसास हुआ और मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। मैंने अपने दिल की गहराई से माना कि मैं सत्य स्वीकारने वाली इंसान नहीं थी।

बाद में मैंने परमेश्वर के उन वचनों पर फिर से विचार किया जो मेरे अगुआओं ने मेरे साथ साझा किए थे और उन पर मनन किया और प्रार्थना करते हुए पढ़ा। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जो लोग हमेशा अपनी कथनी-करनी से चालें चलते हैं और अपने कर्तव्य निर्वहन में हमेशा धूर्तता बरतकर जिम्मेदारी से भागते हैं, वे ऐसे लोग हैं जो सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते। उनके पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है, जो दलदल में, अँधेरे में जीने जैसा है। वे चाहे कैसे भी ढूँढें लें, चाहे कितनी भी कोशिश कर लें, वे न तो प्रकाश देख सकते हैं और न ही कोई दिशा पा सकते हैं। वे प्रेरणा और परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना अपने कर्तव्य निभाते हैं, कई मामलों में एक मुकाम से आगे नहीं बढ़ पाते और कुछ चीजें करते समय वे अनजाने में बेनकाब हो जाते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सृजित प्राणी का कर्तव्य भली-भाँति निभाने में ही जीने का मूल्य है)। “भाइयों-बहनों में से जो लोग हमेशा अपनी नकारात्मकता का गुबार निकालते रहते हैं, वे शैतान के अनुचर हैं और वे कलीसिया को परेशान करते हैं। ऐसे लोगों को अवश्य ही एक दिन निकाल दिया जाना चाहिए(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचनों मुझे एहसास हुआ कि मैं वास्तव में एक ऐसी इंसान थी जो अपने कर्तव्यों में धोखेबाज थी, फिसड्डी थी और जिम्मेदारियों से भागती थी। मेरे अंदर परमेश्वर के प्रति वफादारी की कमी थी। जब भी मुझे समस्याओं और मुश्किलों का सामना करना पड़ा मैंने लगातार आराम करने को प्राथमिकता दी। मैं सत्य की खोज करने और मुद्दे सुलझाने के लिए प्रयास करने और कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं थी। इसके बजाय मैंने खुद परेशानी से बचने के लिए अक्सर समस्याओं को उच्च अगुआओं पर डाल दिया, वास्तविक काम न करने के लिए खुद पर दोष डालने से बचने के लिए अपनी खराब काबिलियत का बहाना बनाया। मैं कितनी स्वार्थी और धोखेबाज थी! मैं आदतन अपने कर्तव्य अनमने ढंग और गैर-जिम्मेदारी से निभाती थी, इसलिए मैं पवित्र आत्मा से मार्गदर्शन और प्रबोधन नहीं पा सकी और न ही मैं किसी समस्या का पता लगा सकी। जब अगुआ ने मेरी काट-छाँट की तो आत्म-चिंतन करने के बजाय मुझे नाराजगी महसूस हुई क्योंकि मैं शर्मिंदा थी। अपनी व्यक्तिगत नाराजगी निकालने के लिए मैंने पीठ पीछे उसकी आलोचना और निंदा की, जिससे कलीसिया का काम बाधित हुआ। मेरे बुरे कर्मों को देखते हुए क्या ये वही व्यवहार नहीं थे जिन्हें परमेश्वर ने “शैतान के अनुचर” और “कलीसिया को परेशान करने वाले” के रूप में उजागर किया था? लेकिन उस समय मैं खुद को क्यों नहीं जानती थी? परमेश्वर और उसके वचनों के प्रति अपने रवैये पर आत्म-चिंतन करते हुए, साथ ही अपने सभी अपराधों पर विचार करते हुए मुझे अत्यधिक पश्चात्ताप और आत्म-घृणा महसूस हुई। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं बहुत विद्रोही रही हूँ। मैं पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हूँ। मैं अब तुम्हें गलत नहीं समझना चाहती। मैं मानती हूँ कि तुम जो कुछ भी करते हो वह मुझे स्वच्छ करने और बचाने के लिए है!” प्रार्थना के बाद मुझे बहुत भावुक महसूस हुआ। अपने दिल में मैंने परमेश्वर से कहा, “हे परमेश्वर, अब से मैं तुम्हें कभी नहीं छोडूँगी। तुमसे दूर रहने के दिन बहुत दर्दनाक हैं।” उस क्षण से मेरी नकारात्मक अवस्था पूरी तरह से बदल गई। मैंने सक्रियता से संगति में भाग लिया, अपने कर्तव्य निभाने के लिए प्रेरित महसूस किया और अनुभवात्मक गवाही लेख लिखना शुरू कर दिया। हर दिन मैं वाकई अपनी अवस्था में सुधार महसूस कर पा रही थी। यह ऐसा था मानो गंभीर बीमारी से ग्रस्त कोई मरीज दिन-प्रतिदिन ठीक होने लगा हो। लगभग एक साल तक कर्तव्य के बिना मैं परमेश्वर के प्रति गलतफहमी में और रक्षात्मक होकर जी रही थी, मुझे दिल में डर और बेचैनी महसूस होते थे। पवित्र आत्मा का कार्य गँवाने की पीड़ा पूरी तरह से अनुभव करने के बाद आज मैं आखिरकार अपनी नकारात्मक अवस्था से बाहर निकल आई। यह सब परमेश्वर की असीम दया और उद्धार के कारण है। कुछ समय बाद मुझे अगुआ से एक संदेश मिला जिसमें मुझे अपने कर्तव्य निभाने के लिए कलीसिया में वापस आने के लिए कहा गया था। इसे पढ़ने के बाद मैं इतनी भावुक हो गई कि कुछ नहीं कह पाई, लेकिन मैं बार-बार परमेश्वर को धन्यवाद देती रही।

जब मेरे साथ कुछ हुआ तो तर्कसंगत होने की मेरी प्रवृत्ति को जानते हुए मैंने परमेश्वर के वचनों की ओर रुख किया और अपनी अवस्था से संबंधित सत्य की तलाश की। एक दिन जब मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा तो मेरा हृदय बहुत द्रवित हो गया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “परमेश्वर के किसी व्यक्ति या किसी एक प्रकार के व्यक्तियों के प्रति इतना कुपित होने का एक कारण है। यह कारण परमेश्वर की प्राथमिकता से नहीं, बल्कि सत्य के प्रति उस व्यक्ति के दृष्टिकोण से निर्धारित होता है। जब कोई व्यक्ति सत्य से विमुख हो जाता है, तो यह निस्संदेह उसकी उद्धार प्राप्ति के लिए घातक बात है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे माफ किया या नहीं किया जा सकता, यह व्यवहार का एक रूप या कुछ ऐसा नहीं है जो उनमें क्षणिक रूप से अभिव्यक्त हुआ हो। यह किसी व्यक्ति का स्वभाव सार है, और परमेश्वर ऐसे लोगों से सबसे अधिक चिढ़ता है। यदि तुम कभी-कभी सत्य से विमुख होने का भ्रष्टाचार प्रकट करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर जांच करनी चाहिए कि ये प्रकाशन सत्य के प्रति तुम्हारी नापसंदगी के कारण हैं या सत्य की समझ की कमी के कारण। इसकी खोज करने की आवश्यकता है, और उसके लिए परमेश्वर की प्रबुद्धता और सहायता की आवश्यकता है। यदि तुम्हारा स्वभाव सार ऐसा है कि तुम सत्य से विमुख हो, और तुम सत्य को कभी स्वीकार नहीं करते, और विशेष रूप से इससे घृणा करते हो और इसके प्रति शत्रुतापूर्ण हो, तो परेशानी की बात है। निश्चय ही तुम दुष्ट हो, और परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाएगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्‍य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्‍य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि परमेश्वर कुछ लोगों के प्रति इतना गंभीर रूप से क्रोधित क्यों है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सत्य से विमुख हैं और उसे अस्वीकारते हैं। परमेश्वर ही सत्य व्यक्त करता है। सत्य के प्रति हमारा रवैया परमेश्वर के प्रति हमारे रवैया दर्शाता है। सत्य से विमुख होना और उससे घृणा करना परमेश्वर के विपक्ष में खड़ा होने और परमेश्वर का शत्रु बनने के समान होता है। सत्य से विमुख और परमेश्वर से घृणा करने वाली प्रकृति वाला व्यक्ति निश्चित रूप से सत्य नहीं स्वीकारेगा। ऐसा व्यक्ति चाहे अपने भ्रष्ट स्वभाव का कितना भी खुलासा करे या उसकी कितनी भी काट-छाँट की जाए, वह कभी पश्चात्ताप नहीं करता। चाहे वह कितने ही वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करे, उसका भ्रष्ट स्वभाव कभी नहीं बदलता और आखिरकार वह निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा ठुकराकर हटा दिया जाएगा। बिल्कुल पौलुस की तरह, जिसका स्वभाव सत्य से विमुख होने और घृणा करने वाला था, उसने कभी आत्म-चिंतन नहीं किया। परिणामस्वरूप, कई वर्षों तक काम करने के बाद भी वह घमंडी और स्वार्थी बना रहा। उसका भ्रष्ट स्वभाव जरा भी नहीं बदला था, इसलिए अंत में उसे परमेश्वर द्वारा निंदित और दंडित किया गया। मैंने पौलुस में खुद का प्रतिबिंब देखा। मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया था, न ही मैंने काट-छाँट को स्वीकारा था। मैंने जो जिया और खुलासा किया वह सत्य से विमुख होने का शैतानी स्वभाव था। परिणामस्वरूप, मैं लंबे समय तक अंधकार, भय और पीड़ा में रही और मुझे परमेश्वर ने अलग कर दिया। वे सभी परिणाम सत्य के प्रति मेरे विमुख होने के कारण हुए थे। परमेश्वर का स्वभाव वास्तव में धार्मिक, पवित्र और अपमान न करने योग्य होता है। अगर मैं हमेशा सत्य नहीं स्वीकारती या परमेश्वर द्वारा मेरी काट-छाँट नहीं की जाती तो मैं कभी भी परमेश्वर द्वारा स्वच्छता और उद्धार कैसे पा सकती थी? अगर ऐसा है तो क्या अंत में परमेश्वर में मेरा विश्वास व्यर्थ नहीं जाएगा? मुझे एहसास हुआ कि सत्य से विमुख होने के स्वभाव को अनसुलझा रखना बहुत खतरनाक है! बाद में मैंने जानबूझकर सत्य की खोज करने और अपने भ्रष्ट स्वभाव के विरुद्ध विद्रोह करने पर ध्यान केंद्रित किया। फिर से काट-छाँट का सामना होने पर बहस करने और विरोध करने का मेरा मकसद कमजोर पड़ गया था। चाहे भाई-बहन मुझसे जो कुछ भी कहें, वह कितना भी सही क्यों न हो, जब तक वह तथ्यों के अनुरूप होता, मैं उसे स्वीकार कर लेती थी। कभी-कभी जब मैं अपनी समस्या नहीं पहचान पाती और बहस करना चाहती तो मैं सबसे पहले परमेश्वर से प्रार्थना करती और समर्पित हो जाती। बाद में मैं आत्म-चिंतन करके कुछ समझ और पोषण पाती।

यह सोचकर कि मैं कितनी जिद्दी और विद्रोही हुआ करती थी, सत्य स्वीकारने के लिए पूरी तरह से अनिच्छुक रहती थी, और यह देखकर कि आज मैं कैसे इस तरह कुछ समझ और पोषण पा सकती हूँ, मुझे एहसास होता है कि यह वाकई परमेश्वर का उद्धार है। इस अनुभव से मैं अंततः खुद को थोड़ा जान पाई और परमेश्वर द्वारा मानवजाति को बचाने के तरीकों और साथ ही परमेश्वर के इरादे के बारे में भी कुछ समझ पाई। मैंने वाकई महसूस किया है कि परमेश्वर की ताड़ना, अनुशासन और काट-छाँट लोगों को स्वच्छ करने और बचाने के लिए है, न कि उनकी निंदा करने या उन्हें हटाने के लिए।

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