36. निगरानी का विरोध करने के बाद चिंतन

2021 में, मैं कलीसिया में सिंचन कार्य की प्रभारी थी। उस दौरान, अगुआ अक्सर हमारे काम की प्रगति के बारे में पूछते थे ताकि निगरानी और खोज-खबर रख सकें। वे यह भी पूछते कि काम में कोई समस्या तो नहीं आ रही। शुरुआत में, मैं तत्परता से जवाब देती थी, पर कुछ समय बाद, मैं सब्र खोने लगी। मैंने सोचा : "बार-बार प्रगति की जानकारी देना झंझट का काम है, इससे काफी समय बर्बाद होता है। क्या इससे मेरे काम पर बुरा असर नहीं पड़ेगा? और कार्य का प्रदर्शन खराब होगा, तो वे मुझे बर्खास्त कर देंगे।" ये एहसास होने पर, काम की निगरानी को लेकर मैं अगुआ का विरोध करने लगी।

एक बार, अगुआ ने पत्र लिखकर मुझसे पूछा कि काम कैसा चल रहा है। यह भी पूछा कि इस महीने कितनों ने सुसमाचार स्वीकारा, कौन नियमित रूप से सभा में नहीं आ रहा था और क्यों, उसकी धार्मिक धारणाएँ क्या थीं, और हमने संगति से कैसे उनका समाधान किया। इतने सारे सवालों से मैं थोड़ी परेशान-सी हो गयी। मुझे बहुत सारी सामग्री तैयार करनी थी, सिंचन कर्मियों के साथ इनकी चर्चा करनी थी। सवाल-जवाब से बहुत देरी हो जाती, तो मैंने विरोध किया : "आप इतने सवाल पूछ रहे हैं—इसमें हमें कितनी देर होगी? अगर सिंचन कार्य के अच्छे नतीजे नहीं मिले, तो क्या आप कहेंगे कि मैं व्यावहारिक कार्य नहीं करती और योग्य नहीं हूँ?" जब मैंने देखा कि मेरी साथी बहनों को भी इसी बात का डर था, तो मैंने सोचा : "अगर सबको लगता है कि इससे देरी होगी, तो हम साथ में कोई सुझाव दे सकते हैं, ताकि खोज-खबर लेते समय अगुआ इतने सारे सवाल न करें। इससे मेरे काम की खामियां ज्यादा उजागर नहीं होंगी।" मैंने मजाकिया अंदाज में कहा : "अगुआ इतने सवाल कर रहे हैं, जरूर हमारे लिए बहुत फिक्रमंद होंगे।" एक बहन ने सहमति जताते हुए कहा : "लगता है जैसे जिरह कर रहे हैं!" उसे सहमत देखकर, मैंने हँसते हुए जवाब दिया : "हम पहले ही इतने व्यस्त हैं। ऊपर से इन सवालों का जवाब देना बहुत परेशानी वाला काम है। इससे हमारे सिंचन कार्य पर असर नहीं पड़ेगा?" दूसरी बहनों ने भी सहमति में सिर हिलाया। मैं मन-ही-मन खुश हुई : "लगता है सिर्फ मैं ही इसका विरोध नहीं कर रही। हम साथ में अगुआ को सुझाव दे सकते हैं, फिर वे हर वक्त काम की जानकारी माँगना बंद कर देंगे।" मेरे बहकावे में आकर, मेरी साथी बहनें, अगुआ द्वारा काम की जानकारी मांगने पर मुँह बना लेतीं और जवाब देते हुए भी बस बेमन से कुछ बता देती थीं। वे काम की समस्याओं और परेशानियों की पूरी जानकारी नहीं देती थीं जिससे अगुआ को हमारी समस्याओं का पता नहीं चल पाया और सिंचन कार्य की प्रगति रुक गयी।

एक बार, अगुआ ने देखा कि हम सिंचन कर्मियों के विकास पर ध्यान नहीं दे रहे, तो उन्होंने इस काम के महत्व पर संगति करते हुए एक पत्र भेजा और हमें अभ्यास के कुछ मार्ग बताए। उन्होंने कहा कि हम इस प्रोजेक्ट की जिम्मेदारी नहीं उठा रहे थे, धीमे काम करके प्रभावहीन बन गए थे। इससे, नए विश्वासियों का प्रशिक्षण रुक गया और इसका सीधा असर सिंचन कार्य पर पड़ा। उन्होंने हमसे कहा कि हम इस पर ध्यान दें, नए विश्वासियों को सिंचनकर्मी के रूप में प्रशिक्षित करें। पत्र देखकर मैं थोड़ी प्रतिरोधी हो गई : "ऐसी उम्मीद रखना तो बहुत ज्यादा है। इन नए विश्वासियों ने अभी अपना कर्तव्य निभाना शुरू किया है—उनका विकास इतना आसान नहीं है! आपको लोगों को विकसित करने का बहुत अनुभव है, हमें अपने स्तर का न समझें!" मगर फिर मैंने सोचा, "अगर मैंने सीधे उनसे शिकायत की, तो क्या वे मुझे एक अयोग्य कर्मी नहीं समझेंगे? ऐसे नहीं चलेगा! मुझे साबित करना ही होगा कि पूरी टीम ये उम्मीद पूरी नहीं कर सकती, इससे उन्हें हमारी बात माननी ही पड़ेगी और मैं अकेली इसके लिए जवाबदेह नहीं रहूँगी।" तो मैंने अपनी भौंहें चढ़ाकर फिक्र जताते हुए कहा : "अगुआ की उम्मीदें कुछ ज्यादा ही हैं। हम उनके जैसे अनुभवी नहीं हैं।" दूसरी बहनों ने फौरन सहमति में सिर हिलाया। उनमें से एक ने कहा : "अगुआ के पास अच्छी काबिलियत है, वे अपने कार्य में बहुत प्रभावशाली भी हैं, उनसे हमारी क्या तुलना?" दूसरी बहन ने कहा : "अगुआ हमसे बहुत ज्यादा माँग कर रहे हैं। यह काम हम कैसे पूरा करेंगे?" सबको एकमत देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। अब अगुआ को हमारी बात माननी ही होगी। वे पूरी टीम को बर्खास्त तो नहीं कर सकते! अगले दिन, मैंने अगुआ के पत्र का जवाब दिया और कार्य में आने वाली समस्याएँ बताईं ताकि उन्हें हमारे मौजूदा हालात का पता चले। अंत में, मैंने एक और बात लिखी : "अभी के लिए हमारे काम के नतीजे ऐसे ही रहेंगे। इससे बेहतर करना मुश्किल है," मैंने उस पत्र में "हमारा" शब्द पर ज्यादा जोर दिया ताकि अगुआ जान सकें कि यह हम सबकी राय थी। इस तरह अगुआ हमें ऊँचे मानक से नहीं आंकेंगे। मगर, मुझे हैरानी हुई, जब अगली सभा में, अगुआ ने मेरा निपटान करते हुए उजागर किया, कहा मैं कर्तव्य का बोझ नहीं उठा रही थी, सुधार के लिए प्रेरित नहीं थी, मैंने भाई-बहनों के बीच नकारात्मक विचार फैलाये, गिरोह बनाकर दूसरों को अपने साथ किया और उन्हें अगुआ के खिलाफ भड़काया। नए विश्वासियों को विकसित करने में भी लापरवाही की, जिससे कलीसिया के कार्य में बाधा आई और टीम के कार्य में भी कोई भूमिका नहीं निभाई। इसके बाद मुझे बर्खास्त कर दिया गया।

बर्खास्त होने के बाद, मैं दोषी और दुखी महसूस करने लगी। मैं जानती थी मैंने मुश्किलें खड़ी कीं, कुकर्म किये और परमेश्वर को नाराज किया था। समस्या आने पर मैंने सत्य नहीं खोजा गलत धारणाएँ भी फैलाईं जिससे सभी निराशा और निष्क्रियता की हालत में जीने लगे। मैंने वाकई कलीसिया के कार्य में बाधा डाली थी। फिर चिंतन करते हुए, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "चूँकि अपने दिलों में मसीह-विरोधी हमेशा मसीह के दिव्य सार पर संदेह करते हैं और हमेशा एक अवज्ञाकारी स्वभाव रखते हैं, इसलिए जब मसीह उन्हें करने के लिए कार्य सौंपता है, तो वे हमेशा उनकी जाँच और उन पर चर्चा करते हैं, और लोगों से यह तय करने के लिए कहते हैं कि वे सही हैं या गलत। यह एक गंभीर समस्या है, है न? (हाँ।) वे इन चीजों को सत्य के प्रति आज्ञाकारिता के दृष्टिकोण से नहीं लेते; इसके बजाय, वे उन्हें परमेश्वर के प्रति विरोध के दृष्टिकोण से लेते हैं। यह मसीह-विरोधियों का स्वभाव है। जब वे मसीह की आज्ञाएँ और कार्य-व्यवस्थाएँ सुनते हैं, तो वे उन्हें स्वीकार कर उनका पालन नहीं करते, बल्कि चर्चा करना शुरू कर देते हैं। और वे किस बात पर चर्चा करते हैं? वे चर्चा करते हैं कि मसीह के वचन और आदेश सही हैं या गलत, और जाँच करते हैं कि उन्हें कार्यान्वित किया जाना चाहिए या नहीं। क्या उनका रवैया वास्तव में इन चीजों को कार्यान्वित करना चाहने का होता है? नहीं—वे ज्यादा लोगों को प्रोत्साहित करना चाहते हैं कि वे उनकी तरह बनें, इन चीजों को न करें। और क्या इन्हें न करना आज्ञाकारिता के सत्य का अभ्यास करना है? स्पष्ट रूप से नहीं। तो वे क्या कर रहे हैं? (विद्रोह।) न केवल वे खुद परमेश्वर के प्रति विद्रोह कर रहे हैं, बल्कि वे सामूहिक विद्रोह भी चाहते हैं। यह उनके कर्मों की प्रकृति है, है न? सामूहिक विद्रोह : सबको अपने जैसा बनाना, सबको अपने जैसा सोचने, अपने जैसा कहने, अपने जैसा निर्णय करने पर मजबूर करना, मसीह के निर्णय और आज्ञाओं का सामूहिक रूप से विरोध करना। यह मसीह-विरोधियों की कार्य-प्रणाली है। मसीह-विरोधियों का विश्वास यह होता है, 'अगर हर कोई ऐसा करता है, तो यह कोई अपराध नहीं है,' इसलिए वे दूसरों को परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रेरित करते हैं, और सोचते हैं कि ऐसा होने पर परमेश्वर का घर उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। क्या यह बेवकूफी नहीं है? मसीह-विरोधियों की परमेश्वर के विरुद्ध लड़ने की क्षमता अत्यंत सीमित है, वे बिलकुल अकेले हैं। इसलिए वे लोगों को सामूहिक रूप से परमेश्वर का विरोध करने के लिए भर्ती करने की कोशिश करते हैं, और अपने दिलों में सोचते हैं कि 'मैं लोगों के एक समूह को बहकाऊँगा, और उन्हें उसी तरह सोचने और कार्य करने के लिए प्रेरित करूँगा जैसा मैं करता हूँ। हम एक-साथ मसीह के वचनों को नकारेंगे, और परमेश्वर के वचनों को बाधित करेंगे, और उन्हें सफल होने से रोकेंगे। और कोई मेरे कार्य की जाँच करने आएगा, तो मैं कहूँगा कि सभी ने इसे इसी तरह करने का फैसला किया था—और फिर हम देखेंगे कि तुम इसे कैसे सँभालते हो। मैं इसे तुम्हारे लिए नहीं करने वाला, मैं इसे पूरा नहीं करने वाला—और देखते हैं, तुम मेरे साथ क्या करते हो!' ... क्या ये चीजें, जो मसीह-विरोधियों में प्रकट होती हैं, घृणित नहीं हैं? (वे बेहद घृणित हैं।) और क्या उन्हें घृणित बनाता है? ये मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर में सत्ता हथियाना चाहते हैं, जहाँ वे होते हैं वहाँ मसीह के वचन कार्यान्वित नहीं किए जाते, वे उन्हें कार्यान्वित नहीं करेंगे। निस्संदेह, एक अन्य प्रकार की स्थिति भी हो सकती है, जब लोग मसीह के वचनों का पालन करने में असमर्थ होते हैं : कुछ लोग खराब क्षमता के होते हैं, वे परमेश्वर के वचन सुनकर उन्हें समझ नहीं पाते, और नहीं जानते कि उन्हें कैसे कार्यान्वित किया जाए; भले ही तुम उन्हें सिखा दो कि कैसे करना है, फिर भी वे नहीं कर पाते। यह अलग बात है। जिस विषय पर हम अभी संगति कर रहे हैं, वह है मसीह-विरोधियों का सार, जो इस बात से संबंधित नहीं है कि लोग काम करने में सक्षम हैं या नहीं, या उनकी क्षमता कैसी है; यह मसीह-विरोधियों के स्वभाव और सार से संबंधित है। वे पूरी तरह से मसीह, परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं और सत्य के सिद्धांतों के विरुद्ध होते हैं। उनमें आज्ञाकारिता नहीं होती, केवल विरोध होता है। मसीह-विरोधी ऐसा ही होता है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार))। परमेश्वर के वचनों पढ़कर मैं समझी कि मैंने जो किया वो बड़ा अपराध था। मैं परमेश्वर के इस व्याख्या से सहम गई कि कैसे मसीह-विरोधियों में विद्रोही स्वभाव होता है, कैसे वे परमेश्वर की मांगों और उसके घर की कार्य व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होकर उसे स्वीकारना नहीं चाहते, वे प्रतिरोध और विद्रोह से भरे होते हैं, अपने साथ दूसरों को भी प्रतिरोध करने के लिए बहकाते हैं। जो कुछ हुआ उस बारे में सोचें, तो मैंने भी ऐसा ही बर्ताव किया था। जब अगुआ ने कार्य की प्रगति की जानकारी लेनी चाही, तो मैं चिढ़ गई, सोचने लगी कि इससे कर्तव्य में देरी होगी, कार्य के नतीजे पर बुरा असर पड़ेगा, मैं इसे स्वीकार नहीं कर पाई और अगुआ के खिलाफ धारणाएँ फैलाने लगी, दूसरी बहनों को भी अपने साथ करके अगुआ का विद्रोह करने के लिए उकसाया। जब अगुआ ने हमारी धीमी प्रगति और खराब नतीजों की बात की, और हमें कार्यक्षमता बढ़ाने के तरीके बताये, तब भी मैंने विरोध किया, बहस की, समर्पण नहीं किया। लगा कि अगुआ हमें ऊँचे मानक से आंक रहे थे, उन्हें वास्तविक समस्याएँ नहीं पता। जब अगुआ कार्यक्षमता बढ़ाने के तरीकों पर संगति करते, तो मैं ध्यान नहीं देती थी। अगुआ को मनाने और हमारे लिए मानकों को नीचे रखने के लिए, और यह पक्का करने के लिए कि उन्हें पता हो कि हमारे खराब नतीजों की जिम्मेदार बस मैं नहीं हूँ, मैंने दूसरों के बीच यह धारणा फैला दी कि अगुआ की मांगें बहुत ऊंची थीं, मैंने उन्हें यह मानने को उकसाया कि अगुआ हमें बहुत काम दे रहे थे, मैंने उन्हें भी विरोध करने के लिए भड़काया, ताकि अकेली मैं ही जवाबदेह न मानी जाऊं। मैं बहुत धूर्त थी, मेरी बातों में निजी मंशाएं और शैतान का छल-कपट छिपा था। मैं हमेशा यही सोचती कि अपनी मंशाएं पूरी करने के लिए दूसरों का इस्तेमाल कैसे करूँ। अगुआ ने हमारे कार्य की जानकारी मांगी ताकि वे समय रहते हमारी समस्याओं का पता लगाकर उन्हें हल कर सकें, कार्यक्षमता बढ़ाने में हमारी मदद कर पायें और नए विश्वासियों को प्रशिक्षण देकर जल्द उन्हें कर्तव्य सौंपे। वे तो परमेश्वर की अपेक्षाओं और कलीसिया की व्यवस्थाओं के अनुसार ही काम कर रहे थे, पर मैंने उनका विरोध किया। यह अगुआ के साथ असहमत होना नहीं था, बल्कि यह कलीसिया के कार्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति मेरा विरोध था। मैं पूरी तरह से परमेश्वर के खिलाफ थी। मैंने सबको मेरा साथ देने के लिए बहकाया और उकसाया, ताकि हमारी सोच समान हो और कलीसिया की व्यवस्थाओं के विरोध में एक-सी बातें कहें। मैंने एक मसीह-विरोधी का स्वभाव दिखाया, मैं शैतान की सेविका की तरह काम कर रही थी। मैंने सबको बहकाने के लिए निराशाजनक बातें कहीं, जिससे वे सुधार करने की प्रेरणा खो बैठे, मौजूदा स्तर से संतुष्ट हो गए और कार्य में लापरवाह हो गए। नतीजतन, सिंचन कार्य में लगातार नाकामी मिलती रही। नए विश्वासियों के प्रशिक्षण में इस तरह रुकावट और बाधा डालना कुकर्म था! इसका एहसास होने पर, मुझे थोड़ा डर लगा। अगर मैं उसी राह पर चलती रहती, तो और ज्यादा कुकर्म करती, अंत में मसीह-विरोधी बन जाती, उजागर करके निकाल दी जाती। कलीसिया का मुझे बर्खास्त करना परमेश्वर की धार्मिकता और सुरक्षा का प्रतीक था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मेरी बर्खास्तगी तुम्हारी धार्मिकता प्रतीक है। तुम्हारे वचनों से उजागर होने, न्याय किये जाने से, मैंने अपने मसीह-विरोधी स्वभाव को पहचान लिया है। इस बर्खास्तगी द्वारा तुम मेरी रक्षा करके मुझे बचा रहे थे, इसके लिए मैं तुम्हारी आभारी हूँ!"

फिर, मैंने ईश-वचनों के दो और अंश पढ़े, जो ऐसे भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा करते हैं : "मसीह-विरोधी अक्सर लोगों को ठगने के लिए सिद्धांत फैलाते हैं। मसीह-विरोधी चाहे जो भी कार्य कर रहे हों, उन्हें हमेशा अपनी चलानी होती है। वे सत्य के सिद्धांतों का पूर्णरूपेण उल्लंघन करते हैं। तो जो कुछ मसीह-विरोधियों में प्रकट होता है, उसे देखते हुए, मसीह-विरोधियों का स्वभाव कैसा होता है? क्या वे सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं? क्या उनमें परमेश्वर के प्रति सच्ची आज्ञाकारिता होती है? (नहीं।) उनका सार सत्य से उकताहट और घृणा वाला होता है। और तो और, वे इतने अहंकारी होते हैं कि अपनी संपूर्ण तर्क-शक्ति खो देते हैं, उनमें थोड़ा भी जमीर और समझ नहीं होती; वे मनुष्य कहलाने लायक नहीं होते। सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि वे शैतान के किस्म के हैं—वे राक्षस हैं। जिनमें सत्य की स्वीकृति नहीं है, वे सभी राक्षस हैं, इसमें कोई संदेह नहीं" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार))। "मसीह-विरोधियों के दिलों में, सत्य का अभ्यास और मसीह का आज्ञापालन करने के प्रति क्या दृष्टिकोण होता है? एक शब्द : विरोध। वे विरोध करते रहते हैं। और इस विरोध में निहित स्वभाव कैसा होता है? इसे कौन-सी चीज जन्म देती है? अवज्ञा इसे जन्म देती है। स्वभाव में, यह सत्य से उकताहट है, यह उनके दिलों में अवज्ञा का होना है, यह उनका आज्ञापालन करने की इच्छा न रखना है। इसलिए जब परमेश्वर का घर एक ही व्यक्ति द्वारा निर्णय लिए जाने के बजाय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को एक-साथ मिलकर काम करना और चर्चा करने का तरीका सीखने के लिए कहता है, तो मसीह-विरोधी अपने दिलों में क्या सोचते हैं? 'लोगों के साथ हर बात पर चर्चा करने में बहुत परेशानी होती है! मैं इन चीजों के बारे में निर्णय ले सकता हूँ। दूसरों के साथ काम करना, इस पर उनके साथ बात करना, सिद्धांत के अनुसार काम करना—कितना बेवकूफी भरा और शर्मनाक है!' मसीह-विरोधी सोचते हैं कि वे सत्य समझते हैं, उन्हें सब-कुछ स्पष्ट है, काम करने की उनकी अपनी अंतर्दृष्टियाँ और तरीके हैं, इसलिए वे दूसरों के साथ काम करने में असमर्थ हैं, वे लोगों के साथ किसी चीज पर चर्चा नहीं करते, वे सब-कुछ अपने तरीके से करते हैं और किसी और की नहीं सुनते! हालाँकि मुँह से मसीह-विरोधी यही कहते हैं कि वे आज्ञापालन और दूसरों के साथ काम करने के लिए तैयार हैं, लेकिन उनके उत्तर बाहर से चाहे कितने भी अच्छे लगते हों, उनके शब्द कितने भी कर्णप्रिय हों, वे अपनी विद्रोही स्थिति और अपना शैतानी स्वभाव बदलने में असमर्थ रहते हैं। अंदर से वे भयंकर विद्रोही होते हैं—किस हद तक? अगर ज्ञान की भाषा में समझाया जाए, तो यह एक ऐसी घटना है जो दो अलग-अलग प्रकृति की चीजें एक-साथ रखने पर घटित होती है : अस्वीकृति, जिसकी व्याख्या हम 'प्रतिरोध' के रूप में कर सकते हैं। मसीह-विरोधियों का ठीक यही स्वभाव होता है : ऊपरवाले का विरोध। उन्हें ऊपरवाले का विरोध करना अच्छा लगता है और वे किसी का आज्ञापालन नहीं करते" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार))। परमेश्वर कहता है कि मसीह-विरोधियों की प्रकृति और सार सत्य से नफरत करने वाला और परमेश्वर-विरोधी होता है। मुझे एहसास हुआ कि मेरा स्वभाव भी मसीह-विरोधी जैसा ही था। मैं अगुआ की निगरानी से चिढ़ जाती और उसका विरोध करती थी, सोचती कि इससे देरी होगी, अगुआ का हमसे बेहतर नतीजे माँगना, बहुत ऊंची मांग लगी, तो मैंने समर्पण नहीं किया, शोर मचाकर विद्रोह करना जारी रखा। वास्तव में, मुझे अगुआ की बात सुननी चाहिए थी, जो काम की समस्याएं बता रहे थे, कर्तव्यनिष्ठ होकर सोचना चाहिए था कि काम में अच्छे नतीजे क्यों नहीं मिले, क्या इसकी वजह काम में हमारी लापरवाही थी या हमें चीजों की परख नहीं थी और हम सत्य द्वारा भाई-बहनों की समस्याएं हल करने में सक्षम नहीं थे। समस्या पता चलने पर, मुझे जल्द-उसे हल करके सुधार लाना चाहिए था। मगर मैंने सत्य नहीं स्वीकारा या जरा भी चिंतन नहीं किया, न ही अच्छे से कर्तव्य नहीं निभा पाने के लिए खुद को जिम्मेदार या दोषी माना। बर्खास्तगी से बचने के लिए, मैंने दूसरों को अपने साथ मिलाकर अगुआ का विरोध करने के लिए उकसाया। अगुआ का काम की खोज-खबर लेना और निगरानी करना एक सकारात्मक चीज और परमेश्वर की अपेक्षा है, पर मैंने इसका विरोध और विद्रोह किया। कहने को तो मैं अगुआ से टकरा रही थी, पर सार में मैं सत्य से ऊबती थी, सकारात्मक चीजों से नफरत करती थी। मैंने कलीसिया के कार्य में रुकावट डाली और परेशानी खड़ी की थी। सत्य से ऊबने और परमेश्वर के खिलाफ अपने विद्रोह को देखकर, मुझे अपने शैतानी स्वभाव से डर लगने लगा। मैंने कुछ मसीह-विरोधियों को याद किया जिन्हें कलीसिया से निष्कासित कर दिया गया था। जब लोग उनकी आलोचना, मदद, काट-छाँट या निपटान करते, तब वे कभी सत्य नहीं स्वीकारते, न आत्मचिंतन करते थे। जब लोग उनके काम की निगरानी करते या कोई सुझाव देते, तो उनका गुस्सा भड़क उठता और वे उनके दुश्मन बन जाते थे। वे अंत तक अड़ियल बनकर जोर-शोर से विद्रोह और विरोध करते थे। कलीसिया के कार्य को गंभीर नुकसान पहुँचाने वाले कुकर्म के बाद भी, वे पश्चात्ताप नहीं करते थे, अंत में कलीसिया से निष्कासित कर दिए गए। यह सब उनके मसीह-विरोधी स्वभाव के कारण हुआ, जो सत्य से ऊबता और नफरत करता था। क्या मेरा स्वभाव भी इन मसीह-विरोधियों जैसा नहीं था? अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, तो अंत में मुझे भी उजागर करके निकाल दिया जाएगा।

बाद में, मैंने इस पर भी विचार किया कि मैंने दूसरों को अगुआ के विरोध के लिए क्यों बहकाया। इन सबके पीछे मूल वजह क्या थी? तब, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। वह प्रकृति विशिष्ट रूप से किस चीज को अपरिहार्य बनाती है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, 'लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?' तो लोग जवाब देंगे, 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।' यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गया है। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे उसे बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये'—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति, भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर बन गए हैं, और यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है; कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है। शैतान का हर काम अपनी भूख, महत्वाकांक्षाओं और उद्देश्यों के लिए होता है; वह परमेश्वर से आगे जाना चाहता है, परमेश्वर से मुक्त होना चाहता है, और परमेश्वर द्वारा रची गई सभी चीजों पर नियंत्रण पाना चाहता है। आज लोग शैतान द्वारा इस हद तक भ्रष्ट कर दिए गए हैं : उन सभी की प्रकृति शैतानी है, वे सभी परमेश्वर को नकारने और उसका विरोध करने की कोशिश करते हैं, वे अपने भाग्य पर अपना नियंत्रण चाहते हैं और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं का विरोध करने की कोशिश करते हैं—उनकी महत्वाकांक्षाएँ और भूख बिल्कुल शैतान की महत्वाकांक्षाओं और भूख जैसी हैं। इसलिए, मनुष्यों की प्रकृति शैतान की प्रकृति है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि मेरा यह परमेश्वर-विरोधी संगीन अपराध सिर्फ मेरे भ्रष्ट स्वभाव का प्रदर्शन नहीं था, बल्कि यह सब मेरी शैतानी प्रकृति और शैतानी स्वभाव के कारण हुआ था। इसी कारण, मैं कभी भी परमेश्वर का विरोध कर सकती थी। शैतान ने मुझे गहराई तक भ्रष्ट कर दिया था। मैं "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" के सांसारिक फलसफे से जी रही थी, और बेहद स्वार्थी और कपटी बन गयी थी। मेरी कथनी-करनी में, सिर्फ अपना बचाव करने और फायदे पाने की मंशा छिपी थी। निगरानी के दौरान जब अगुआ को मेरे काम में समस्याएँ दिखीं, तो इस डर से कि अगुआ कहीं मुझे अयोग्य बताकर बर्खास्त न कर दें, मैंने साजिश रची, चाल चली, अगुआ के खिलाफ असंतोष फैलाया, दूसरों को अपने साथ अगुआ का विरोध करने, उनकी निगरानी से बचने के लिए उकसाया ताकि अगुआ को लगे कि सिर्फ मैं ही नहीं थी जो खराब काम कर रही थी, बल्कि यह हम सबकी समस्या थी। अपना रुतबा बनाए रखने, और अगुआ से लड़कर अपनी रक्षा करने के लिए मैंने साजिश रची। इससे कलीसिया के कार्य को भारी नुकसान हुआ। जितना सोचा, खुद को उतना ही स्वार्थी, नीच और बेशर्म पाया। मैंने इतना बड़ा कुकर्म किया—मुझमें वाकई जरा भी मानवता नहीं थी! मुझे बहुत पछतावा हुआ और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की: "हे परमेश्वर! मैंने कुकर्म किया है और कलीसिया के कार्य में बाधा डाली है। मैं पूरी तरह पश्चात्ताप करने, अपने अगुआ की निगरानी और मार्गदर्शन स्वीकारने, और सृजित प्राणी की तरह ईमानदारी से कर्तव्य निभाने को तैयार हूँ।"

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े जिनसे मुझे अगुआ की निगरानी और मार्गदर्शन के प्रति सही रवैये का पता चला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "हालाँकि, आज, बहुत से लोग कर्तव्य का निर्वहन करते हैं, लेकिन कुछ ही लोग सत्य का अनुसरण करते हैं। लोग अपने कर्तव्य-पालन के दौरान सत्य का अनुसरण करते हुए सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कम ही करते हैं; अधिकांश लोगों के काम करने के तरीके में कोई सिद्धांत नहीं होते, वे अब भी सच्चाई से परमेश्वर की आज्ञा का पालन नहीं करते; केवल जबान से कहते हैं कि उन्हें सत्य से प्रेम है, सत्य का अनुसरण करने और सत्य के लिए प्रयास करने के इच्छुक हैं, लेकिन पता नहीं उनका यह संकल्प कितने दिनों तक टिकेगा। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनका भ्रष्ट स्वभाव किसी भी समय या स्थान पर बाहर आ सकता है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनमें अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे अक्सर लापरवाह और अनमने होते हैं, मनमर्जी से कार्य करते हैं, यहाँ तक कि काट-छाँट और निपटारा स्वीकार नहीं पर पाते। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे नकारात्मक और कमजोर होते ही हार मान लेते हैं—ऐसा अक्सर होता रहता है, यह सबसे आम बात है; सत्य का अनुसरण न करने वाले लोगों का व्यवहार ऐसा ही होता है। और इसलिए, जब लोगों को सत्य की प्राप्ति नहीं होती, तो वे भरोसेमंद और विश्वास योग्य नहीं होते। उनके भरोसेमंद न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जब उन्हें कठिनाइयों या असफलताओं का सामना करना पड़ता है, तो बहुत संभव है कि वे गिर पड़ें, और नकारात्मक और कमजोर हो जाएँ। जो व्यक्ति अक्सर नकारात्मक और कमजोर हो जाता है, क्या वह भरोसेमंद होता है? बिल्कुल नहीं। लेकिन जो लोग सत्य समझते हैं, वे अलग ही होते हैं। जो लोग वास्तव में सत्य की समझ रखते हैं, उनके अंदर परमेश्वर का भय मानने वाला, उसकी आज्ञा का पालन करने वाला हृदय होता है, एक ऐसा हृदय जो परमेश्वर की आज्ञा का पालन करता है, और जिन लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, वही लोग भरोसेमंद होते हैं; जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, वे लोग भरोसेमंद नहीं होते। जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, उनसे कैसे संपर्क किया जाना चाहिए? उन्हें प्रेमपूर्वक सहायता और सहारा देना चाहिए। जब वे कर्तव्य निभा रहे हों, तो उनकी अधिक निगरानी करनी चाहिए, अधिक से अधिक मदद कर उनका मार्गदर्शन करना चाहिए; तभी वे अपना कार्य प्रभावी ढंग से कर पाएँगे। और ऐसा करने का उद्देश्य क्या है? मुख्य उद्देश्य परमेश्वर के घर के काम को बनाए रखना है। दूसरा मकसद है समस्याओं की तुरंत पहचान करना, तुरंत उनका पोषण करना, उन्हें सहारा देना, उनसे निपटना और उनकी काट-छाँट करना, भटकने पर उन्हें सही मार्ग पर लाना, उनके दोषों और कमियों को दूर करना। यह लोगों के लिए फायदेमंद है; इसमें दुर्भावनापूर्ण कुछ भी नहीं है। लोगों की निगरानी करना, उन पर नजर रखना, वे जो कर रहे हैं उसके बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करना—यह सब उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते में प्रवेश करने में मदद करने के लिए है, ताकि वे परमेश्वर की अपेक्षा और सिद्धांत के अनुसार अपना कर्तव्य निभा सकें, ताकि वे किसी प्रकार की गड़बड़ी या व्यवधान उत्पन्न न करें, ताकि वे समय बर्बाद न करें। ऐसा करना पूरी तरह से उनके और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति जिम्मेदारी की भावना से उपजी है; इसमें कोई दुर्भावना नहीं है" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। "परमेश्वर का घर कर्तव्य निभाने वालों का निरीक्षण, अवलोकन और जाँच करता है। क्या तुम लोग परमेश्वर के घर का यह सिद्धांत स्वीकारने में सक्षम हो? (हाँ।) अगर तुम परमेश्वर के घर को अपना निरीक्षण, अवलोकन और जाँच करने दे सको, तो यह एक अद्भुत बात है। यह तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने, अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभा पाने और परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में तुम्हारी मदद के लिए है। यह बिना किसी नुकसान के लोगों को लाभ पहुँचाता है और उनकी मदद करता है। जब व्यक्ति इस संबंध में सिद्धांतों को समझ लेता है, तो क्या फिर उसे अगुआओं, कार्यकर्ताओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के निरीक्षण के खिलाफ प्रतिरोध या बचाव की भावना रखनी चाहिए, या नहीं रखनी चाहिए? कभी-कभी तुम्हारी जाँच और निरीक्षण किया जा सकता है, और तुम्हारे कार्य की निगरानी की जा सकती है, लेकिन यह व्यक्तिगत रूप से लेने वाली बात नहीं है। ऐसा क्यों है? क्योंकि जो कार्य अब तुम्हारे हैं, जो कर्तव्य तुम निभाते हो, और कोई भी कार्य जो तुम करते हो, वे किसी एक व्यक्ति के निजी मामले या व्यक्तिगत कार्य नहीं हैं; वे परमेश्वर के घर के कार्य को स्पर्श करते हैं और उस कार्य के एक भाग से संबंध रखते हैं। इसलिए, जब कोई तुम्हारी निगरानी या निरीक्षण करने में थोड़ा समय लगाता है या तुमसे गहन प्रश्न पूछता है, तुम्हारे साथ खुले दिल से बातचीत करने और यह पता लगाने की कोशिश करता है कि इस दौरान तुम्हारी स्थिति कैसी रही है, यहाँ तक कि कभी-कभी जब उसका रवैया थोड़ा कठोर होता है, और वह तुमसे थोड़ा निपटता है और तुम्हारी थोड़ी काट-छाँट करता है, और तुम्हें अनुशासित करता और धिक्कारता है, तो वह यह सब इसलिए करता है क्योंकि उसका परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति एक ईमानदार और जिम्मेदारी भरा रवैया होता है। तुम्हें इसके प्रति नकारात्मक विचार या भावनाएँ नहीं रखनी चाहिए। अगर तुम दूसरों की निगरानी, निरीक्षण और पूछताछ स्वीकार कर सकते हो, तो इसका क्या मतलब है? यह कि अपने दिल में तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करते हो। अगर तुम लोगों के द्वारा अपनी निगरानी, निरीक्षण और पूछताछ स्वीकार नहीं करते—अगर तुम इस सबका विरोध करते हो—तो क्या तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करने में सक्षम हो? परमेश्वर की जाँच लोगों की पूछताछ से ज्यादा विस्तृत, गहन और सटीक होती है; परमेश्वर जो पूछता है, वह इससे अधिक विशिष्ट, कठोर और गहन होता है। इसलिए अगर तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा निगरानी की जाना स्वीकार नहीं कर सकते, तो क्या तुम्हारे ये दावे कि तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर सकते हो, खोखले शब्द नहीं हैं? परमेश्वर की जाँच और परीक्षा स्वीकार करने में सक्षम होने के लिए तुम्हें पहले परमेश्वर के घर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, और भाई-बहनों द्वारा निगरानी स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों से एहसास हुआ कि हमारे भीतर शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव मौजूद होता है, इसलिए हम कार्य में मनमानी करते हैं। इसके अलावा, अपनी नीच और आलसी प्रकृति के कारण, हम अक्सर अपने कर्तव्य में लापरवाही करते हैं, अच्छे नतीजे पाने की कोशिश नहीं करते। कई तरह से सिद्धांत के खिलाफ जाते हैं, इसलिए हमें निगरानी और जांच के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जरूरत होती है, ताकि कलीसिया का कार्य निर्बाध तरीके से आगे बढ़ता रहे। परमेश्वर अगुआओं और कार्यकर्ताओं से यही चाहता है, यह उनके कार्य का महत्वपूर्ण पहलू है। मुझे अगुआओं और कार्यकर्ताओं की निगरानी और मार्गदर्शन को स्वीकारना और मानना चाहिए। इतना ही नहीं, मेरे मन में एक गलत धारणा भी बनी हुई थी, मैं सोचती थी कि अगुआ की निगरानी और जांच-पड़ताल से मेरे काम में देरी होगी जिसका असर मेरे कार्य के प्रदर्शन पर पड़ेगा। मगर असल में अगुआ काम की जानकारी इसलिए मांगते हैं ताकि समस्याओं का पता लगाकर, उन्हें हल कर सकें, उन्हें दूर करने में मदद कर सकें। वास्तव में इससे हमारे कार्य का प्रदर्शन बेहतर होता है—इससे हमारी प्रगति में देरी नहीं होती। जैसे, एक बार जब अगुआ हमारे काम की जांच-पड़ताल कर रहे थे, तो उन्होंने पाया कि हम नए विश्वासियों का प्रेम और धैर्य से सिंचन नहीं कर रहे थे, उनसे बहुत अपेक्षाएँ रखी हुई थीं। इससे कुछ नए विश्वासी निराश हो गए और कर्तव्य निभाना बंद कर दिया। अगुआ की संगति से ही हम अपने काम में आई समस्याओं को पहचान पाये। इसके बाद, हमने नए विश्वासियों की समस्याएं हल करने के लिए परमेश्वर के वचनों द्वारा संगति की, उन्हें अपना कर्तव्य निभाने का अर्थ बताया नए विश्वासियों को उनके आध्यात्मिक कद के अनुसार काम सौंपे। फिर, उनकी हालात में सुधार आया, वे सामान्य रूप से अपना कर्तव्य निभाने लगे। मैंने देखा कि अगुआ की निगरानी और मार्गदर्शन से हमारे काम पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि कर्तव्य में सिद्धांतों पर हमारी पकड़ बेहतर हो जाती है। ये सब हमारे काम में अगुआ की निगरानी और मार्गदर्शन स्वीकारने के फायदे थे। मैं समझ गई कि अगुआ की निगरानी स्वीकारना कलीसिया के कार्य के प्रति एक जिम्मेदार रवैया और अभ्यास का वह सिद्धांत है जिसका पालन कर्तव्य में करना चाहिए।

कुछ समय बाद, अगुआ ने नए विश्वासियों का सिंचन-कार्य मुझे फिर से सौंप दिया, मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी। इसके बाद, जब भी अगुआ निगरानी या हमारा मार्गदर्शन करने आते, तो मैं विरोधी महसूस नहीं करती और अगुआ की ढूंढी समस्याओं पर ध्यान देकर कर्तव्य की समस्याओं पर साथियों के साथ सक्रियता से चर्चा कर पाती हूँ। जैसे-जैसे काम में मौजूद समस्याएँ स्पष्ट होने लगीं, हमारे कार्य का प्रदर्शन बेहतर होने लगा। मुझे सच में एहसास हुआ कि कर्तव्य में अगुआ की निगरानी और मार्गदर्शन स्वीकार करके, सत्य को स्वीकारने का रवैया अपनाकर और सिद्धांतों के अनुसार काम करके ही हम कर्तव्य में अच्छे नतीजे हासिल कर सकते हैं। परमेश्वर का धन्यवाद!

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