35. दूसरों के प्रति उदार होने की असलियत
कुछ महीनों पहले, एक अगुआ ने भाई कॉनर और मुझे सिंचन का काम सौंपा। कुछ समय बाद, मैंने देखा कि वो अपने काम में अधिक ज़िम्मेदारी नहीं लेता। वो संगति करके भाई-बहनों की समस्या जल्दी से दूर नहीं करता था, काम से जुड़ी चर्चा में भी हिस्सा नहीं लेता था। स्थिति के बारे में जान लेने के बाद, अगुआ ने मुझसे कहा कि कॉनर अनमना था और अपनी गैर-ज़िम्मेदार था, और मुझे उसके साथ सहभागिता करनी चाहिए। मैंने सोचा, शायद वो बस व्यस्त है, और कुछ काम में देरी हो गई थी। भूल जाओ, ऐसा तो नहीं था, कि वो कुछ नहीं कर रहा था। मुझे उससे ज़्यादा अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, और मैं जाकर उसने जिन मसलों पर संगति करके नहीं सुलझाया है, उन्हें मैं संभाल लूँगा। तो, मैंने काम की स्थिति की जाँच नहीं की। कुछ समय बाद, कुछ भाइयों और बहनों के लिए एक सभा से पहले, मैंने कॉनर को याद दिलाया कि वो उनकी समस्याओं और दिक्कतों के बारे में पहले पता कर ले ताकि उनके सुलझाने के लिए संगति के लिए परमेश्वर के सही वचन खोज सके, और सभा ज़्यादा असरदार रहे। बाद में, मैंने कुछ भाइयों और बहनों से पूछा कि कॉनर ने उनकी समस्याओं के बारे में पूछा या नहीं, सभी ने कहा कि नहीं पूछा। मुझे लगा वो कुछ ज्यादा ही गैर ज़िम्मेदारी दिखा रहा है। बाकी लोगों के काम में कई दिक़्क़तें और कमियाँ थीं। उन्हें ज़्यादा मदद और सहभागिता के लिए अधिक सभा चाहिए थी, पर वो इसे लेकर गम्भीर नहीं था। वह बहुत अनमना था! मुझे लगा, अब मुझे इस बारे में बात करनी होगी। पर फिर मैंने सोचा, अगर वो नहीं माना तो, कहा कि मैं उस पर बहुत ज़्यादा सख्ती कर रहा हूँ, और नाराज़ हो गया तो सब सोचेंगे मैं बहुत सख्त हूँ, दूसरों के प्रति निष्ठुर हूँ। फिर, कॉनर अभी युवा था, तो वह अपने देह की तो सोचेगा ही। कभी कभी मैं अनमना हो जाता हूँ, और अपनी देह की सोचता हूँ, तो मुझे ज़्यादा अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। मैं ख़ुद संभाल लूँगा। क्या ऐसी कहावत नहीं है कि, “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो”? ठीक है मैं थोड़ा व्यस्त हो जाऊंगा और थोड़ा आराम कम करूंगा। तो, मैंने कॉनर के साथ संगति नहीं की और उसकी ग़लतियों को उजागर नहीं किया। फिर मैं दूसरों के साथ भी वही करने लगा। जब देखता कि कोई अपना काम ठीक से नहीं कर रहा है, तो ये नहीं सोचता कि ये क्यों हो रहा है, या कि इसका समाधान कैसे किया जाए, बल्कि हमेशा चुपचाप सब कुछ सहता रहता। कभी-कभी किसी के बर्ताव से बहुत नफ़रत करता या उस पर गुस्सा करता, पर मैं उसे ज़ाहिर नहीं होने देता था। सोचता कि, “छोड़ो, जाने दो—वो जितना कर पाते हैं उन्हें करने दो, बाकी सब मैं देख लूँगा।” जैसे-जैसे समय बीता, भाई-बहन अपनी समस्याएँ लेकर मेरे पास आए और कहा उन्हें मेरी मदद चाहिए। जब मैं देखता कि वे मेरी इतनी इज़्ज़त है, तो मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरे साथ गलत हुआ है या मैं परेशान नहीं होता था। तो पूरे समय मुझे ऐसा लगा कि अपने सहयोगों और मेलजोल में अपने साथ सख़्त होकर दूसरों के प्रति सहिष्णु होना अच्छी मानवता वाला इंसान होना है, मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो मीनमेख निकालते हैं, किसी के साथ काम नहीं कर पाते।
फिर एक दिन मैंने “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” होने के बारे में कुछ ईश-वचन पढ़े, और मेरी राय बदल गई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “आओ, अब नैतिक आचरण से संबंधित अगली कहावत पर संगति करते हैं—‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो’—इस कहावत का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम्हें खुद से सख्त अपेक्षाएँ करनी चाहिए और दूसरे लोगों के साथ नरमी बरतनी चाहिए, ताकि वे देख सकें कि तुम कितने उदार और दरियादिल हो। तो, लोगों को ऐसा क्यों करना चाहिए? यह क्या हासिल करने के लिए है? क्या यह करने योग्य है? क्या यह वाकई लोगों की मानवता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है? इसे करने के लिए तुम्हें बहुत समझौता करना होगा! तुम्हें इच्छाओं और अपेक्षाओं से मुक्त होना चाहिए, खुद से कम आनंद महसूस करने, थोड़ा ज्यादा कष्ट उठाने, ज्यादा कीमत चुकाने और ज्यादा काम करने की अपेक्षा करनी चाहिए, ताकि दूसरों को खुद को थकाने की जरूरत न पड़े। और अगर दूसरे लोग ठिनठिनाते हैं, शिकायत करते हैं या खराब प्रदर्शन करते हैं, तो तुम्हें उनसे बहुत ज्यादा माँग नहीं करनी चाहिए—थोड़ा ऊपर नीचे चलता है। लोग मानते हैं कि यह उत्कृष्ट नैतिकताओं का चिह्न है—लेकिन यह मुझे झूठा क्यों लगता है? क्या यह झूठा नहीं है? (है।) सामान्य परिस्थितियों में, एक साधारण व्यक्ति की मानवता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति खुद के प्रति सहिष्णु और दूसरों के प्रति सख्त होना है। यह एक तथ्य है। लोग अन्य सबकी समस्याएँ समझ सकते हैं—‘यह व्यक्ति अहंकारी है! वह व्यक्ति बुरा है! यह स्वार्थी है! वह अपना कर्तव्य निभाने के प्रति अनमना रहता है! यह व्यक्ति बहुत आलसी है!’—जबकि अपने बारे में वह सोचता है : ‘अगर मैं थोड़ा आलसी हूँ, तो क्या हुआ। मैं अच्छी काबिलियत वाला हूँ। भले ही मैं आलसी हूँ, लेकिन दूसरों से बेहतर काम करता हूँ!’ वे दूसरों में दोष ढूँढ़ते और मीनमेख निकालना पसंद करते हैं, लेकिन अपने साथ वे, जहाँ भी संभव हो, सहिष्णु और अनुकूल होते हैं। क्या यह उनकी मानवता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति नहीं है? (है।) अगर लोगों से ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु’ होने के विचार पर खरा उतरने की अपेक्षा की जाती है, तो उन्हें किस पीड़ा से गुजरना होगा? क्या वे सचमुच इसे सहन कर सकते हैं? कितने लोग ऐसा करने में कामयाब होंगे? (कोई नहीं।) और ऐसा क्यों है? (लोग प्रकृति से स्वार्थी होते हैं। वे इस सिद्धांत के अनुसार कार्य करते हैं कि ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’) वाकई, मनुष्य जन्मजात स्वार्थी है, वह एक स्वार्थी प्राणी है और इस शैतानी फलसफे के प्रति गहराई से प्रतिबद्ध है : ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ लोग सोचते हैं कि जब चीजें उन पर आ पड़ें, तब उनके लिए स्वार्थी न होना और वह न करना जो वे अपने लिए सही समझते हैं, विनाशकारी और अप्राकृतिक होगा। लोग यही मानते हैं और वे इसी तरह कार्य करते हैं। अगर लोगों से यह अपेक्षा की जाए कि वे स्वार्थी न हों, खुद से सख्त अपेक्षाएँ करें, और दूसरों से फायदा उठाने के बजाय स्वेच्छा से हार जाएँ, और अगर उनसे यह अपेक्षा की जाए कि जब कोई उनका फायदा उठाए तो वे खुशी से कहें, ‘तुम मेरा शोषण कर रहे हो, लेकिन मैं इससे नाराज नहीं हो रहा। मैं एक सहिष्णु व्यक्ति हूँ, मैं तुम्हारी बुराई या तुमसे बदला लेने की कोशिश नहीं करूँगा, और अगर तुमने अभी तक मेरा पर्याप्त शोषण नहीं किया है, तो बेझिझक जारी रखो’—क्या यह एक व्यावहारिक अपेक्षा है? कितने लोग ऐसा करने में कामयाब हो सकेंगे? क्या भ्रष्ट मनुष्य सामान्य रूप से इसी तरह व्यवहार करता है? जाहिर है, ऐसा होना असंगत है। ऐसा क्यों है? क्योंकि भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग, खासकर स्वार्थी और मतलबी लोग, अपने ही हितों के लिए संघर्ष करते हैं, और दूसरों के बारे में सोचने से उन्हें बिल्कुल भी संतुष्टि महसूस नहीं होगी। इसलिए यह घटना, अगर घटती भी है तो, एक असंगति है। ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो’—नैतिक आचरण के बारे में यह दावा स्पष्ट रूप से केवल एक अपेक्षा है, जो तथ्यों या मानवता से मेल नहीं खाती, जो मानवता को न समझने वाले सामाजिक नैतिकतावादियों द्वारा मनुष्य पर थोपी जाती है। यह चूहे को यह कहने जैसा है कि उसे बिल बनाने की अनुमति नहीं है या बिल्ली से यह कहने जैसा है कि उसे चूहे पकड़ने की अनुमति नहीं है। क्या इस तरह की अपेक्षा करना सही है? (नहीं। यह मानवता के नियमों की अवहेलना करता है।) यह अपेक्षा स्पष्ट रूप से वास्तविकता के अनुरूप नहीं है और बहुत खोखली है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (6))। शुरू में मैं परमेश्वर के इन वचनों को ठीक से समझ नहीं पाया था क्योंकि मैं हमेशा सोचता था कि “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” होना एक सकरात्मक चीज़ है। मैं हमेशा ऐसे लोगों को सराहता था और उनसे प्रेरित होकर उनके जैसा बनना चाहता था। लेकिन इन वचनों पर ध्यान से सोचकर लगा वो बिलकुल सच्चे थे। मुझे पूरा यकीन हो गया। और मैं पूरी तरह चकित रह गया जब मैंने ये पढ़ा : “भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग, खासकर स्वार्थी और मतलबी लोग, अपने ही हितों के लिए संघर्ष करते हैं, और दूसरों के बारे में सोचने से उन्हें बिल्कुल भी संतुष्टि महसूस नहीं होगी। इसलिए यह घटना, अगर घटती भी है तो, एक असंगति है। ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो’—नैतिक आचरण के बारे में यह दावा स्पष्ट रूप से केवल एक अपेक्षा है, जो तथ्यों या मानवता से मेल नहीं खाती, जो मानवता को न समझने वाले सामाजिक नैतिकतावादियों द्वारा मनुष्य पर थोपी जाती है। यह चूहे को यह कहने जैसा है कि उसे बिल बनाने की अनुमति नहीं है या बिल्ली से यह कहने जैसा है कि उसे चूहे पकड़ने की अनुमति नहीं है।” पता चला कि यह विचार कि “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” का विचार जिसे मैं थामे बैठा था वो अव्यावहारिक था, इंसानियत के खिलाफ़ था, और उसे लोग कभी हासिल नहीं कर सकते। यह वह मानक नहीं हो सकता कि जिससे लोग आचरण करें और कार्य करें। मुझे एहसास हुआ कि मैं वैसा ही था जैसा परमेश्वर ने उजागर किया। जब मैं अपने साथ सख़्त, और दूसरों के प्रति उदार था, तब लगता कि मेरे साथ गलत हो रहा है, मैं परेशान हो जाता, सच कहूँ तो उतनी उदारता दिखाने के बावजूद, मैं अंदर से खुश नहीं था। जैसे कॉनर के साथ, मुझे पता था वो अपना फ़र्ज़ नहीं निभा रहा था, वो आलसी, धूर्त और गैर ज़िम्मेदार था। मुझे गुस्सा आता, मैं उसकी कमियाँ सामने लाना चाहता था, ताकि वो उनको जल्दी से दूर करे। पर मुझे लगा, मुझे सख़्ती नहीं करनी चाहिए, मुझे अपने साथ सख़्त और दूसरों के प्रति उदार होना चाहिए, इसलिए मैंने उससे उसकी समस्याओं के बारे में बात नहीं की। मैंने सोचा मैं और तकलीफ़ झेल लूँगा, और कीमत चुकाऊंगा, पर उससे ज्यादा मांग नहीं करूँगा, ताकि मैं निष्ठुर न लगूँ, मीनमेख निकालता हूँ। कई समूहों की ज़िम्मेदारी मुझ पर होने से काम का बोझ पहले ही काफी था। ऊपर से कॉनर के काम में मदद करनी पड़ी, इसलिए मुझे लगा ये मेरे साथ अन्याय है, मुझे कई शिकायतें भी थीं, पर “अपने साथ सख्त और दूसरों के प्रति उदार” बनने के लिए और इसलिए कि सब लोग मुझे अच्छा समझें, मैं सब कुछ चुपचाप सहता रहा। यह थी मेरी असल स्थिति और मेरी असल सोच। जैसा कि परमेश्वर कहता है : “मनुष्य जन्मजात स्वार्थी है, वह एक स्वार्थी प्राणी है और इस शैतानी फलसफे के प्रति गहराई से प्रतिबद्ध है : ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ लोग सोचते हैं कि जब चीजें उन पर आ पड़ें, तब उनके लिए स्वार्थी न होना और वह न करना जो वे अपने लिए सही समझते हैं, विनाशकारी और अप्राकृतिक होगा। लोग यही मानते हैं और वे इसी तरह कार्य करते हैं।” इंसान प्रकृति से स्वार्थी होते हैं, मैं कोई अपवाद नहीं हूँ। काम ज्यादा होने पर मुझे मेहनत-मशक्कत करना पसंद नहीं है और मैं परेशान हो जाता हूँ, दुखी रहता हूँ। पर मैं फिर भी अपनी मर्ज़ी के खिलाफ़, अपने साथ सख़्त और दूसरों के प्रति उदार रहता हूँ। “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” रहने के विचार के पीछे, असल में कौन सा भ्रष्ट स्वभाव छुपा है? उस व्यवहार के नतीजे क्या होंगे? ये सवाल लिए मैं परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने और खोजने गया।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “‘उठाए गए धन को जेब में मत रखो’ और ‘दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ’ कहावतों की तरह ही ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो’ भी उन माँगों में से एक है, जो परंपरागत संस्कृति लोगों के नैतिक आचरण के संबंध में करती है। इसी तरह, चाहे कोई व्यक्ति इस नैतिक आचरण को प्राप्त या इसका अभ्यास कर सकता हो या नहीं, फिर भी यह उनकी मानवता मापने का मानक या प्रतिमान नहीं है। हो सकता है, तुम वाकई अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनने में सक्षम हो और खुद के लिए विशेष रूप से उच्च मानक रखते हो। हो सकता है, तुम बहुत साफ-सुथरे हो और बिना स्वार्थी हुए और बिना अपने हितों की परवाह किए हमेशा दूसरों के बारे में सोचते हो और उनके प्रति सम्मान दिखाते हो। हो सकता है, तुम विशेष रूप से उदार और निस्स्वार्थ प्रतीत होते हो, और सामाजिक उत्तरदायित्व और सामाजिक नैतिकताएँ रखते हो। हो सकता है, तुम्हारा उच्च व्यक्तित्व और गुण तुम्हारे करीबी लोगों और उनके देखने के लिए हो, जिनसे तुम मिलते और बातचीत करते हो। हो सकता है, तुम्हारा व्यवहार कभी भी दूसरों को तुम्हें दोष देने या तुम्हारी आलोचना करने का कोई कारण न दे, बल्कि अत्यधिक प्रशंसा और सराहना प्राप्त कराए। हो सकता है, लोग तुम्हें ऐसा व्यक्ति समझें, जो वाकई अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु है। लेकिन ये बाहरी व्यवहार से ज्यादा कुछ नहीं हैं। क्या तुम्हारे दिल की गहराई में मौजूद विचार और इच्छाएँ इन बाहरी व्यवहारों, इन कार्यों के अनुरूप हैं जो तुम बाहरी तौर पर जीते हो? जवाब है नहीं, वे उनके अनुरूप नहीं हैं। तुम्हारे इस तरह से कार्य कर पाने का कारण यह है कि इसके पीछे एक मकसद है। वह मकसद आखिर क्या है? क्या तुम उस मकसद का सार्वजनिक होना सहन कर सकते हो? निश्चित रूप से नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि यह मकसद ऐसी चीज है जिसका उल्लेख नहीं किया जा सकता, ऐसी चीज जो अंधकारपूर्ण और बुरी है। ... यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जो लोग खुद से ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु’ होने की नैतिकता पूरी करने की अपेक्षा करते हैं, वे हैसियत के प्रति आसक्त हैं। अपने भ्रष्ट स्वभाव से संचालित होने के कारण वे दूसरों की नजरों में लोगों के बीच प्रतिष्ठा, सामाजिक ख्याति और हैसियत के पीछे दौड़े बिना नहीं रह पाते। ये सभी चीजें उनकी हैसियत पाने की इच्छा से संबंधित हैं, और उनके अच्छे नैतिक आचरण की आड़ में इनके पीछे दौड़ा जाता है। और उनके ये अनुसरण कहाँ से आते हैं? वे पूरी तरह से उनके भ्रष्ट स्वभावों से आते और प्रेरित होते हैं। इसलिए, चाहे कुछ भी हो, चाहे कोई ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु’ होने की नैतिकता पूरी करता हो या नहीं, और चाहे वह ऐसा पूर्णता के साथ करता हो या नहीं, यह उनका मानवता-सार बिल्कुल नहीं बदल सकता। इसका निहितार्थ यह है कि यह किसी भी तरह से जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण या उनकी मूल्य-प्रणाली नहीं बदल सकता, या तमाम लोगों, घटनाओं और चीजों पर उनके रवैये और दृष्टिकोण निर्देशित नहीं कर सकता। क्या ऐसा नहीं है? (है।) जितना ज्यादा कोई व्यक्ति अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनने में सक्षम होता है, उतना ही वह दिखावा करने में, खुद को छिपाने में, और दूसरों को अच्छे व्यवहार और मनभावन शब्दों से गुमराह करने में बेहतर होता है, और उतना ही ज्यादा वह प्रकृति से कपटी और दुष्ट होता है। जितना ज्यादा वह इस प्रकार का व्यक्ति होता है, हैसियत और ताकत के प्रति उसका प्रेम और अनुसरण उतना ही गहरा होता जाता है। उसका बाहरी नैतिक आचरण कितना भी महान, गौरवशाली और सही क्यों न प्रतीत होता हो, और लोगों के लिए उसे देखना कितना भी सुखद क्यों न हो, उसके दिल की गहराइयों में मौजूद अनकहा अनुसरण, और साथ ही उसका प्रकृति-सार, यहाँ तक कि उसकी महत्वाकांक्षाएँ भी किसी भी समय उसके भीतर से फूटकर बाहर आ सकती हैं। इसलिए, उसका नैतिक आचरण कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह उसके आंतरिक मानवता-सार या उसकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ नहीं छिपा सकता। वह उसके भयानक प्रकृति-सार को नहीं छिपा सकता, जो सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता और सत्य से विमुख होता और घृणा करता है। जैसा कि इन तथ्यों से पता चलता है, ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो’ कहावत बहुत बेतुकी है—यह उन महत्वाकांक्षी किस्म के लोगों को उजागर करती है, जो ऐसी कहावतों और व्यवहारों का उपयोग अपनी उन महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को ढकने के लिए करने का प्रयास करते हैं, जिनके बारे में वे बोल नहीं सकते” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (6))। परमेश्वर के वचनों में को उजागर हुआ उससे मुझे ये पता चला, कि “अपने साथ सख़्त और दूसरों के प्रति उदार” होने से, लगता है कि आप दूसरों की परिस्थितियाँ समझते हैं, और आप दूसरों के प्रति बहुत सहिष्णु हैं। पर असल में उसका मक़सद बहुत ही घिनौना, अंधकारमय, दुष्टतापूर्ण होता है, जिसे बयां नहीं किया जा सकता। यह ऊपर से अच्छा व्यवहार करके खुद का दिखावा करना है, जिसका मक़सद अपनी तारीफ़ करवाना और दूसरों द्वारा पूजा जाना है, और दूसरों के बीच अपने रुतबे और हैसियत को बढ़ाना है। उस तरह का इंसान बाहर से बहुत अच्छा लगता है, पर अच्छाई का दिखावा करने वाला असल में अंदर से ढोंगी होता है। मैंने कॉनर के साथ सहयोग करते हुए जो प्रकट किया और जैसे कार्य किया, उसके बारे में सोचा। चाहे वो कितना भी अनमना, काम में कितना ही गैर ज़िम्मेदार हो, मैंने कभी भी उसकी काट-छाँट नहीं की, न संगति की, बल्कि उसे बचाता रहा, उसकी मदद और उसे खुश करता रहा। समय की बहुत कमी होने के बावजूद, मैं कॉनर के अधूरे कामों को पूरा करता रहा। मैंने अपनी परवाह नहीं की, मुश्किलों और थकान के बाद भी पीछे नहीं हटा। असल में, मैं कोई उदारता का काम नहीं कर रहा था। मेरी असली मंशा कुछ और थी। मुझे डर था, कि अगर मैंने सीधे-सीधे कुछ कहा, वह मेरे बारे में क्या सोचेगा मुझे इसकी परवाह थी। भले ही उसने जो नहीं किया था उसमें मैं उसकी मदद नहीं करना चाहता था फिर भी मैं सारे काम करने को खुद को मजबूर करता, ताकि मेरी अच्छी छवि बने और सब मुझे बहुत बड़े दिल वाला समझ कर मेरी तारीफ़ करें। नतीजतन मैं ज्यादा धूर्त और धोखेबाज होता चला गया। सब सोचते थे कि मैं उन्हें समझता हूँ, पर उसके पीछे मेरा इरादा कुछ और था। जैसे मैंने काम किया उससे लोगों में मेरी छवि झूठी बनी, मैं लोगों को धोखा दे रहा था, और मैं उनको बेवकूफ़ बना रहा था। उस वक़्त मुझे “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” होने का सार थोड़ा समझ आ गया। मुझे लगा कि मेरे दिल में छुपी घिनौनी मंशा, नफरत के लायक ही है। साथ ही मैं परमेश्वर का बहुत आभारी था। अगर वो पारंपरिक संस्कृति के उस हिस्से के सार से पर्दा ना उठाते, तो मैं भ्रम में ही रहता, सोचता रहता कि “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” होना एक अच्छा इंसान होना है। आखिर एहसास हुआ, कि शैतान इस भ्रांति से लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करता है। यह बिल्कुल भी सत्य नहीं है, न ही ये पैमाना या व्यक्ति की इंसानियत नापने का पैमाना है।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “चाहे लोगों के नैतिक चरित्र के बारे में मनुष्य की तथाकथित अपेक्षाएँ और कहावतें कितनी भी मानकीकृत हों, या चाहे वे जनता की रुचियों, दृष्टिकोणों, इच्छाओं, यहाँ तक कि उसके हितों के लिए कितने भी उपयुक्त हों, वे सत्य नहीं हैं। यह ऐसी चीज है, जिसे तुम्हें समझना चाहिए। और चूँकि वे सत्य नहीं हैं, इसलिए तुम्हें उन्हें जल्दी से नकार और त्याग देना चाहिए। तुम्हें उनके सार का, और उनके अनुसार जीने वाले लोगों से मिलने वाले परिणामों का भी विश्लेषण करना चाहिए। क्या वे वास्तव में तुममें सच्चा पश्चात्ताप जगा सकते हैं? क्या वे वाकई खुद को जानने में तुम्हारी मदद कर सकते हैं? क्या वे वाकई तुम्हें इंसान के समान जीने के लिए मजबूर कर सकते हैं? वे इनमें से कुछ नहीं कर सकते। वे तुम्हें केवल पाखंडी और आत्म-तुष्ट बना सकते हैं। वे तुम्हें और ज्यादा चालाक और दुष्ट बना देंगे। कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, ‘अतीत में जब हम परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं पर विश्वास रखते थे, तो हमें लगा, हम अच्छे लोग हैं। जब दूसरे लोगों ने देखा कि हम कैसा व्यवहार करते हैं, तो उन्हें भी लगा कि हम अच्छे लोग हैं। लेकिन वास्तव में, हम अपने दिल में जानते हैं कि हम किस तरह की बुराई करने में सक्षम हैं। थोड़ा-सा अच्छा करना सिर्फ उसे छिपाता है। लेकिन अगर हम वे अच्छे व्यवहार छोड़ दें, जिसकी परंपरागत संस्कृति हमसे माँग करती है, तो हमें उनके बजाय क्या करना चाहिए? कौन-से व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ हैं जिनसे परमेश्वर की महिमा होगी?’ तुम इस प्रश्न के बारे में क्या सोचते हो? क्या वे अब भी नहीं जानते कि परमेश्वर के विश्वासियों को किन सत्यों का अभ्यास करना चाहिए? परमेश्वर ने बहुत सारे सत्य व्यक्त किए हैं, और बहुत सारे सत्य हैं जिनका लोगों को अभ्यास करना चाहिए। तो तुम क्यों सत्य का अभ्यास करने से इनकार करते हो, और झूठमूठ के सज्जन बनने और पाखंडी होने पर जोर देते हो? तुम दिखावा क्यों कर रहे हो?” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (5))। “संक्षेप में, हालाँकि हमने परंपरागत संस्कृति से नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें सूचीबद्ध कर ली हैं, फिर भी इसका उद्देश्य केवल तुम लोगों को यह सूचित करना नहीं है कि ये लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, और ये शैतान से आती हैं, और कुछ नहीं। यह तुम लोगों को यह स्पष्ट रूप से समझाने के लिए है कि इन चीजों का सार झूठा, गुप्त और कपटपूर्ण है। अगर लोगों में ये अच्छे व्यवहार हों भी, तो इसका किसी भी तरह से यह मतलब नहीं कि वे सामान्य मानवता जी रहे हैं। बल्कि, वे इन झूठे व्यवहारों का इस्तेमाल अपने इरादों और लक्ष्यों पर पर्दा डालने, और अपने भ्रष्ट स्वभाव और प्रकृति-सार छिपाने के लिए कर रहे हैं। नतीजतन, लोग ढोंग करने और दूसरों को धोखा देने में ज्यादा से ज्यादा बेहतर होते जा रहे हैं, जिसके कारण वे और भी ज्यादा भ्रष्ट और दुष्ट बनते जा रहे हैं। भ्रष्ट मनुष्य परंपरागत संस्कृति के जिन नैतिक मानकों से चिपका रहता है, वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्यों के साथ असंगत हैं, और वे परमेश्वर द्वारा लोगों को सिखाए गए किसी भी वचन के साथ संगत नहीं हैं, उनका आपस में कोई संबंध नहीं है। अगर तुम अभी भी परंपरागत संस्कृति के पहलुओं से चिपके रहते हो, तो तुम पूरी तरह से गुमराह और विषाक्त किए जा चुके हो। अगर कोई ऐसा मामला है, जिसमें तुम परंपरागत संस्कृति से चिपके रहते हो और उसके सिद्धांतों और विचारों का पालन करते हो, तो तुम उस मामले में परमेश्वर के प्रति विद्रोह और सत्य का उल्लंघन कर रहे हो, और परमेश्वर के खिलाफ जा रहे हो। अगर तुम नैतिक आचरण के बारे में इन दावों में से किसी से भी चिपके रहते हो और उसके प्रति प्रतिबद्ध रहते हो और उसे लोगों या चीजों को देखने का मानदंड या आधार मानते हो, तो यहीं तुम गलती करते हो, और अगर तुम कुछ हद तक लोगों की आलोचना करते हो या उन्हें नुकसान पहुँचाते हो, तो तुम पाप करते हो। अगर तुम हमेशा सभी को परंपरागत संस्कृति के नैतिक मानकों के अनुसार मापने पर जोर देते हो, तो उन लोगों की संख्या बढ़ती जाएगी, जिनकी तुम निंदा करते और जिनके साथ तुम गलत करते हो, और तुम निश्चित रूप से परमेश्वर की निंदा और विरोध करोगे, और तब तुम घोर पापी हो जाओगे” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (5))। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मुझे स्पष्टता मिली। जब हम देखते हैं कि कोई अपना काम लापरवाही से, या गैर ज़िम्मेदार होकर कर रहा है, तो हमें उसे उसी समय उसकी काट-छाँट करनी चाहिए, ताकि उसकी अनमने होने की प्रकृति और उसका अंजाम समझ आए, और वो समय रहते उनमें सुधर लाए। अच्छी इंसानियत वाले व्यक्ति को यही करना चाहिए। पर अपनी छवि और रुतबे को कायम रखने के लिए, मैं खुश करता और समझौता करता, स्पष्ट समस्याओं को नज़रअंदाज़ करता रहा। नतीजा ये हुआ कि कॉनर अपने भ्रष्ट स्वभाव को जान न पाया, और अपना काम में अनमना और गैर ज़िम्मेदार होकर करता रहा। इससे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को नुकसान होता है, वो एक अपराध है। मैं अपनी उदारता से उसकी मदद नहीं कर रहा था, न ही उसे समझ रहा था, बल्कि मैं तो उसे नुकसान पहुंचा रहा था। मुझे एहसास हुआ कि वास्तव में मैं अच्छा इंसान बिल्कुल नहीं हूँ। मैं न सिर्फ भाई-बहनों का नुकसान कर रहा था, बल्कि कलीसिया के काम पर भी बुरा असर डाल रहा था। उस पल मुझे सच में एहसास हुआ कि “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” सत्य नहीं है, यह वह कसौटी नहीं है जिसके अनुसार लोगों को आचरण करना चाहिए, बल्कि एक विधर्म और भ्रांति है जिसे शैतान लोगों को गुमराह, मार्ग से भटकाता और भ्रष्ट करने के लिए इस्तेमाल करता है। मैं शैतान को ख़ुद को बेवकूफ बनाने नहीं दे सकता—मुझे वो करना चाहिए जो परमेश्वर चाहता है, मुझे लोगों और चीजों पर अपने विचार और साथ ही अपने आचरण और क्रियाकलापों के लिए परमेश्वर के वचनों को आधार और सत्य को कसौटी बनानी चाहिए, चीजों को देखना और काम करना चाहिए। उसके बाद, जब मुझे कॉनर में कुछ समस्याएँ दिखीं, तो मैंने उसे सहा नहीं या बढ़ावा नहीं दिया। मैंने उसे समस्याएँ बतायीं, ताकि उसे उनका एहसास हो और वो उन्हें सुधार सके।
जल्दी ही, मुझे एक दूसरे काम के मद की ज़िम्मेदारी सौंपी गई, जो कि सामान्य मामले संभालना था। उस काम के निरीक्षण में, मैंने देखा कि एक भाई अपने काम में ज़िम्मेदार नहीं था और बहुत ज़्यादा लापरवाह था। मैं बस खुद ही उसकी गलतियाँ ठीक करना चाहता था और उन्हें निपटा देना चाहता था, ताकि मुझे उन्हें बताना न पड़े और उसे शर्मिंदा न करना पड़े। पर फिर मुझे एहसास हुआ, कि मेरे मन में ये विचार, अपने हितों की रक्षा और दूसरों के बीच अच्छी छवि बनाने के लिए प्रकट हो रहे हैं। मैं समस्या नहीं बताना चाहता था क्योंकि मुझे उसकी नाराजगी का डर था। ये बहुत ही घिनौना इरादा है! मुझे परमेश्वर द्वारा कही एक बात याद आई : “साथ ही अपने कर्तव्य का उचित ढंग से पालन करते हुए, तुम्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि तुम ऐसा कुछ भी न करो जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को लाभ न हो, और ऐसा कुछ भी न कहो जो भाई-बहनों की मदद न करे। तुम्हें ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जो तुम्हारे जमीर के विरुद्ध हो और वह तो बिलकुल नहीं करना चाहिए जो शर्मनाक हो। तुम्हें खासकर ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जो परमेश्वर से विद्रोह करे या उसका विरोध करे, और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जो कलीसिया के कार्य या जीवन को बाधित करे। अपने हर कार्य में न्यायसंगत और सम्माननीय रहो और सुनिश्चित करो कि तुम्हारा हर कार्य परमेश्वर के समक्ष प्रस्तुत करने योग्य हो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कैसा है?)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे कार्य करने के सिद्धांत स्पष्ट रूप से दिखाए। मैं जो भी करूँ, वो सबके जीवन-प्रवेश को लाभ देने के लिए और शिक्षाप्रद होना चाहिए। साथ ही मुझे परमेश्वर की जांच को स्वीकार करना होगा। जब मुझे वो भाई अनमने ढंग से काम करता दिखा, तो मुझे उसे बताना चाहिए था, ताकि वो उस समस्या को जल्दी से दूर कर सके। वो उसके जीवन-प्रवेश और कलीसिया के काम के लिए लाभदायक होगा। अगर मैं उसकी ग़लतियों पर पर्दा डाल कर उसकी मदद करता रहूँगा, तो वो उन्हें कभी नहीं देख पाएगा, और उसके काम में सुधार नहीं होगा। ये सोच कर, मैंने उसे बताया कि उसके काम में मुझे क्या दिक्कतें दिखी हैं। वो मेरी बात सुनने के बाद बदलना चाहता था। मुझे उस पर अमल करके सच में काफी शांति और सुकून मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!