37. किस चीज ने मुझे सत्य का अभ्यास करने से रोका
कलीसिया में मुझे ग्राफिक डिजाइन के काम में भागीदार बनाया गया। एक दिन अगुआ ने मुझसे कहा कि दो बहनों ने भाई ओलिवर में कुछ समस्याएं बताई हैं, कहा कि वे अपने तरीके से काम कर रफ्तार धीमी कर रहे हैं। अगुआ ने पूछा, क्या उनके साथ काम करते हुए मुझे भी ऐसी समस्याएं दिखीं। मुझे याद आया कि ओलिवर काम में अपनी ही राय से चिपके रहते थे, जब सभी लोग, सिद्धांतों के अनुसार किसी सुझाव पर चर्चा करके किसी फैसले पर पहुँचते, तो उनकी राय हमेशा अलग होती थी, मगर वे अपने सुझाव साफ से समझा नहीं पाते थे। हर किसी को उनके साथ दिमाग लगाना पड़ता, इसमें काफी समय बर्बाद होता था। तस्वीरों को लेकर छोटी-मोटी समस्याएं भी होती थीं, जिन्हें बाद में सुधारा जा सकता था, चर्चा में सभी को शामिल करना जरूरी नहीं था, पर वे आगे बढ़ने से पहले उन समस्याओं को सुधारने पर जोर देते। सबके नतीजे पर पहुँचने तक वे इंतज़ार करते, जिससे काम की प्रगति धीमी हो जाती। मैंने ये समस्याएँ अगुआ को बताईं। जब अगुआ ने देखा कि मुझे इनकी जानकारी थी, तो उसने मुझे फटकार लगाते हुए कहा, "तुम जानती थी ओलिवर मनमानी करके काम की रफ्तार धीमी कर रहे हैं, तो उनका साथ देकर उन्हें खुश करने के बजाय तुमने उन्हें रोका क्यों नहीं? क्या यह काम में देरी करना नहीं है?" अगुआ की बातों से मुझे बुरा लगा।
मैंने सोचा जब मैं ओलिवर के साथ तस्वीर की कौंसेप्ट पर चर्चा कर रही थी, तो वे अपनी राय से चिपके हुए थे, जिससे मुझे चिंता हुई। मैं उनकी समस्या बताना चाहती थी, पर मुझे याद आया कि कैसे मैं पहले एक अहंकारी इंसान थी। अगुआ ने मेरा निपटान किया, मुझे इच्छाओं का त्याग कर दूसरों से सहयोग करने को कहा, क्योंकि मैं अहंकारी और आत्मतुष्ट थी, अपनी राय से चिपकी रहती थी और अपने साथियों से बहस करके काम में देरी करती थी। अगर मैंने ओलिवर की समस्याएं सबके सामने बता दी होतीं या उनकी राय को चुनौती दी होती, तो शायद लोग सोचते कि मैं अभी भी अहंकारी हूँ, मुझमें समझ नहीं है, मैं शांति से दूसरों के सुझाव मानने या सहयोग करने में असमर्थ हूँ। इसलिए, काम में देरी की परवाह न करके, मैंने धैर्य से ओलिवर की बात सुनी। कभी-कभी उनके सुझावों पर सिद्धांतों के अनुरूप विचार करने पर, हमें लगता ये सही नहीं हैं। हम उन्हें समस्या बताते, मगर वे अपने विचारों पर जोर देते हुए इसे ठुकरा देते। उनके सुझाव न मानने पर, वे नाराज होकर हमसे बात तक नहीं करते, हालात इतना बिगाड़ देते कि काम ही रुक जाता। पहले, मैं अगुआ को बताना चाहती थी। मगर फिर सोचा, अगुआ ने अभी तो अहंकार को लेकर मेरा निपटान किया था, अगर मैंने किसी और रिपोर्ट की, तो अगुआ ये न सोचें कि मैं दूसरों की समस्याओं पर ध्यान देकर मीन-मेख निकालती हूँ, मेरे निपटान के बाद भी कुछ नहीं बदला है। ऐसे में, मैं कब तक अपना कर्तव्य निभा पाती? यह सोचकर मैंने ओलिवर की समस्या की रिपोर्ट नहीं की। नतीजतन, हममें मतभेद होते रहे, हम बातचीत और चर्चा करते रहते, आखिर में आधे दिन के काम में पूरा दिन लग जाता, जिससे काम धीमा पड़ जाता। यह सब सोचकर मुझे अपराध-बोध हुआ, मैंने खुद को दोषी माना। ऐसा नहीं है कि मैंने ओलिवर की समस्या नहीं देखी, पर उनके बारे में बताने से खुद को रोक लिया। फिर मुझे ईश-वचन का एक अंश याद आया। "एक बार जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो ईशनिंदा करता है, परमेश्वर का भय नहीं मानता, कार्य करते समय लापरवाह और अनमना होता है या कलीसिया के काम में बाधा डालता और हस्तक्षेप करता है, तो तुम सत्य के सिद्धांतों के अनुसार प्रतिक्रिया दोगे, तुम आवश्यकतानुसार उसे पहचानकर उजागर कर पाओगे। अगर सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है और तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के भीतर रहते हो, तो जब तुम्हें उन दुष्ट लोगों और शैतानों का पता चलता है जो कलीसिया के कार्य में रुकावट डालते हैं और बाधाएँ खड़ी करते हैं, तुम उन पर ध्यान नहीं दोगे और उन्हें अनसुना कर दोगे; अपने विवेक द्वारा धिक्कारे जाए बिना, तुम उन्हें नजरअंदाज कर दोगे। यहाँ तक कि तुम यह भी सोचोगे कि जो कोई कलीसिया के कार्य में बाधाएँ खड़ी कर रहा है, तुम्हारा उससे कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे कितना भी नुकसान पहुँचे, तुम परवाह नहीं करते, हस्तक्षेप नहीं करते, या दोषी महसूस नहीं करते—जो तुम्हें एक विवेकहीन या नासमझ व्यक्ति, एक गैर-विश्वासी, एक सेवाकर्ता बनाता है। तुम जो खाते हो वह परमेश्वर का है, तुम जो पीते हो वह परमेश्वर का है, और तुम परमेश्वर से आने वाली हर चीज का आनंद लेते हो, फिर भी तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान तुमसे संबंधित नहीं है—जो तुम्हें गद्दार बनाता है, जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो क्या तुम इंसान भी हो? यह एक दानव है, जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है। तुम परमेश्वर में विश्वास का दिखावा करते हो, चुने हुए होने का दिखावा करते हो, और तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो। तुम एक इंसान का जीवन नहीं जी रहे, और स्पष्ट रूप से गैर-विश्वासियों में से एक हो। अगर तुम्हें परमेश्वर में सच्चा विश्वास है, तब यदि तुमने सत्य और जीवन नहीं भी प्राप्त किया है, तो भी तुम कम से कम परमेश्वर की ओर से बोलोगे और कार्य करोगे; कम से कम, जब परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान किया जा रहा हो, तो तुम उस समय खड़े होकर तमाशा नहीं देखोगे। यदि तुम अनदेखी करना चाहोगे, तो तुम्हारा मन कचोटेगा, तुम असहज हो जाओगे और मन ही मन सोचोगे, 'मैं चुपचाप बैठकर तमाशा नहीं देख सकता, मुझे दृढ़ रहकर कुछ कहना होगा, मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, इस दुष्ट बर्ताव को उजागर करना होगा, इसे रोकना होगा, ताकि परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान न पहुँचे और कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त न हो।' यदि सत्य तुम्हारा जीवन बन चुका है, तो न केवल तुममें यह साहस और संकल्प होगा, और तुम इस मामले को पूरी तरह से समझने में सक्षम होगे, बल्कि तुम परमेश्वर के कार्य और उसके घर के हितों के लिए भी उस ज़िम्मेदारी को पूरा करोगे जो तुम्हें उठानी चाहिए, और उससे तुम्हारे कर्तव्य की पूर्ति हो जाएगी" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के प्रति वास्तव में समर्पित होने वालों में ही उसका भय मानने वाला हृदय होता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि जिनके पास जमीर होता है, जो सचमुच परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे उसके साथ एकमन होकर उसका पक्ष लेते हैं। किसी को कलीसिया का काम बिगाड़ते देख, उसे उजागर कर रोकते हैं। कलीसिया के कार्य की रक्षा करते हैं। मगर मैं? मैंने साफ देखा कि ओलिवर अपनी राय से चिपके रहते हैं, दूसरों की नहीं सुनते। बार-बार काम की रफ्तार धीमी कर देते हैं फिर भी लोग यह न कहें कि मैं अहंकारी हूँ, लड़ती हूँ, मैंने उन्हें नहीं रोका या समस्याएं बताकर उनकी मदद नहीं की, मैंने उदासीन रहकर अपनी आँखें मूँद ली, काम की प्रभावशीलता के बजाय सिर्फ अपने हितों की रक्षा करने की सोची। नतीजतन, काम में देरी हो गई। बाहर से, मैं हर दिन अपना कर्तव्य निभाने में व्यस्त दिखती थी। मगर असल में, मैं अपने कर्तव्य में बोझ नहीं उठा रही थी, परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी वफादार नहीं थी। आपदाएं बढ़ती जा रही हैं, बहुत-से लोग सच्चे मार्ग की खोज और छानबीन कर रहे हैं। अगर हम सुसमाचार की ज्यादा तस्वीरें जल्दी तैयार कर सके, तो सुसमाचार कार्य में छोटा-सा योगदान कर सकते हैं। मगर मैंने परमेश्वर की इच्छा का ध्यान नहीं रखा। काफी समय तक मैंने काम की धीमी रफ्तार देखी, पर सही समय न तो उसे रोका, न ही समस्या हल की। मेरे पास जरा-सा भी जमीर या मानवता नहीं थी, जैसे परमेश्वर के वचन में उजागर किया गया है, "ऐसा गद्दार जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है।" मैंने रोजी-रोटी के लिए कलीसिया का इस्तेमाल किया, मगर अहम मौकों पर नकारा साबित हुई। इसका एहसास होने पर, मुझे काफी पछतावा हुआ, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैंने खुद की रक्षा के लिए कलीसिया के काम की अनदेखी की। मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ, मुझे राह दिखाओ ताकि मैं खुद को जान सकूं।"
फिर मैं चिंतन करने लगी कि सत्य का अभ्यास करना मेरे लिए मुश्किल क्यों था, कौन-सी चीज मुझे रोक रही थी। मैंने ईश-वचनों के दो अंश खाए-पिए, जो मेरे हालात के अनुरूप थे। "कुछ लोग कार्य करते समय अपनी इच्छा का अनुसरण करते हैं। वे सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने पर वे केवल मौखिक रूप से यह स्वीकार करते हैं कि वे अभिमानी हैं, और उन्होंने केवल इसलिए भूल की क्योंकि वे सत्य से अनभिज्ञ हैं। लेकिन अपने दिलों में वे अभी भी शिकायत करते हैं, 'कोई और ज़िम्मेदारी उठाने आगे नहीं आता है, बस मैं ही ऐसा करता हूँ, और अंत में, जब कुछ गलत हो जाता है, तो वे सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर डाल देते हैं। क्या यह मेरी मूर्खता नहीं है? मैं अगली बार ऐसा नहीं कर सकता, इस तरह आगे नहीं आ सकता। बाहर निकली हुई कील ही ठोकी जाती है!' इस रवैये के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या यह पश्चात्ताप का रवैया है? (नहीं।) यह कैसा रवैया है? क्या वे अविश्वसनीय और धोखेबाज नहीं बन जाते? अपने दिलों में वे सोचते हैं, 'मैं भाग्यशाली हूँ कि इस बार यह आपदा में नहीं बदला। दूसरे शब्दों में, अनुभव सिखाता है। मुझे भविष्य में और अधिक सावधान रहना होगा।' वे सत्य की तलाश नहीं करते, बल्कि मामले को देखने और संभालने के लिए अपने ओछेपन और धूर्त योजनाओं का प्रयोग करते हैं। क्या वे इस तरह सत्य हासिल कर सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि उन्होंने पश्चात्ताप नहीं किया है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है)। "वह कैसा स्वभाव होता है, जब लोग अपने कर्तव्य के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं लेते, उसे लापरवाह और अनमने ढंग से निभाते हैं, जी-हुजूरी करने वालों जैसे कार्य करते हैं, और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते? यह चालाकी है, यह शैतान का स्वभाव है। इंसान के जीवन-दर्शनों में चालाकी सबसे अधिक उलल्रेखनीय है। लोग सोचते हैं कि अगर वे चालाक न हों, तो वे दूसरों को नाराज करेंगे और खुद की रक्षा करने में असमर्थ होंगे; उन्हें लगता है कि कोई उनसे आहत या नाराज न हो जाए, इसलिए उन्हें पर्याप्त रूप से चालाक होना चाहिए, जिससे वे खुद को सुरक्षित रख सकें, अपनी आजीविका की रक्षा कर सकें, और जन-साधारण के बीच पाँव जमाने के लिए एक सुदृढ़ जगह हासिल कर सकें। सभी अविश्वासी शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हैं। वे सभी जी-हुजूरी करते हैं और किसी को ठेस नहीं पहुँचाते। तुम परमेश्वर के घर आए हो, तुमने परमेश्वर के वचन पढ़े हैं, और परमेश्वर के घर के उपदेश सुने हैं। तो तुम हमेशा जी-हुजूरी क्यों करते हो? जी-हुजूरी करने वाले केवल अपने हितों की रक्षा करते हैं, कलीसिया के हितों की नहीं। जब वे किसी को बुराई करते और कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचाते देखते हैं, तो इसे अनदेखा कर देते हैं। उन्हें जी-हुजूरी करने वाला बनना पसंद है, और वे किसी को ठेस नहीं पहुँचाते। यह गैर-जिम्मेदाराना है, और ऐसा व्यक्ति बहुत चालाक होता है, भरोसे लायक नहीं होता" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को झकझोर दिया, आखिर मैं सत्य का अभ्यास न करने या इसके सिद्धांतों को कायम न रख पाने की असली वजह समझ गई, असल में मेरी प्रकृति बहुत धूर्त थी। अगुआ ने मेरे अहंकार का निपटान किया, तबसे मैंने न तो कभी आत्मचिंतन किया, न ही अपने अहंकारी स्वभाव को ठीक करने का मार्ग ढूंढा। इसके बजाय, मैंने अपनी रक्षा के लिए साजिश रची, ऊपर से सहनशीलता दिखाई, दूसरों को गलतफहमी में डाला कि मैं सौम्य हूँ, मेरा अहंकारी स्वभाव बदल गया है। ताकि अगुआ फिर से मेरा निपटान न करें, मुझे बर्खास्त न करें। मैं इन शैतानी विचारों से जी रही थी, "सबसे बाहर निकली कील ही हथौड़ी से ठोकी जाती है", "चुप्पी सोना है और बोल चांदी हैं, और जो ज्यादा बोलता है, वह ज्यादा गलतियाँ करता है" और "सिर्फ गलतियों से बचने की कोशिश करो, खूबियों से नहीं," इन विचारों ने ही मुझे बेहद स्वार्थी, नीच, कपटी और धूर्त बना दिया था। मैंने साफ देखा कि ओलिवर हमारे काम पर असर डाल रहे थे। मुझे उनकी समस्या को उजागर कर रोकना चाहिए था। लेकिन, मैंने विवाद खत्म करने के लिए खुशामदी जैसा बर्ताव किया। समस्याएं या मतभेद होने पर, मैंने अपना मुँह बंद ही रखा। दूसरों के साथ कभी बहस नहीं की, सिद्धांतों को कायम नहीं रखा। मैंने अपने हितों की रक्षा कर कलीसिया के कार्य का नुकसान होने दिया। मैं बहुत झूठी और मक्कार थी। मैं सच में परमेश्वर की नफरत और घृणा की पात्र थी। जब मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा, "वे सत्य की तलाश नहीं करते, बल्कि मामले को देखने और संभालने के लिए अपने ओछेपन और धूर्त योजनाओं का प्रयोग करते हैं। क्या वे इस तरह सत्य हासिल कर सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि उन्होंने पश्चात्ताप नहीं किया है।" मुझे और भी ज्यादा पछतावा हुआ। पहले, मैंने अहंकारी स्वभाव के साथ अपना कर्तव्य निभाया। हमेशा अपने विचारों को सही मानती थी, दूसरों के सुझाव नहीं सुनती थी। इससे न सिर्फ लोग बेबस हो गए, कलीसिया के काम पर भी असर पड़ा। अगुआ ने मेरा निपटान किया, ताकि मैं आत्मचिंतन कर खुद को जानूँ, सही समय पर तौर-तरीकों में बदलाव लाकर अच्छे से कर्तव्य निभाऊँ। मगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया। इसके बजाय, परमेश्वर और दूसरों से बचने लगी। मैंने न तो अपना कर्तव्य अच्छे से निभाया, न ही कलीसिया के काम में रुकावट आने पर कोई परवाह की। मैंने देखा, मैं किसी भी तरह सत्य को स्वीकारने वाली इंसान नहीं थी। ऐसे ही चलता रहा, तो मेरा भ्रष्ट स्वभाव और भी बुरा हो जाएगा, आखिर में मुझे उजागर कर निकाल दिया जाएगा! यह सोचकर मैं डर गई, मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, अब मैं इन सांसारिक फलसफों के जरिये अपने हितों की रक्षा करना नहीं चाहती। मैं सत्य खोजना और भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करना चाहती हूँ। अभ्यास का मार्ग ढूँढने में मुझे तुम्हारी मदद चाहिए।"
उसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "अगर तुम बहस से बचना चाहते हो, तो क्या समझौता ही एकमात्र उपाय है? तुम किन स्थितियों में समझौता कर सकते हो? अगर इसका संबंध छोटी-मोटी बातों से है, जैसे कि तुम्हारा स्वार्थ या तुम्हारी प्रतिष्ठा, तो इसके बारे में बहस करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम सहनशील होना या समझौता करना चुन सकते हो। लेकिन जो मामले कलीसिया का कार्य प्रभावित कर सकते हैं और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचा सकते हैं, उनमें तुम्हें सिद्धांतों पर टिके रहना चाहिए। अगर तुम इस सिद्धांत का पालन नहीं करते, तो तुम परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं हो। अगर तुम अपनी इज्जत बचाने या अपने पारस्परिक संबंध बनाए रखने के लिए सिद्धांतों से समझौता करने और उन्हें त्यागने का चुनाव करते हो, तो क्या यह तुम्हारा स्वार्थ और नीचता नहीं है? क्या यह अपने कर्तव्य के प्रति गैरजिम्मेदार और निष्ठाहीन होने का प्रतीक नहीं है? (हाँ, है।) इसलिए, अगर तुम्हारे कर्तव्य के दौरान एक ऐसा समय आता है, जब हर कोई असहमत होता है, तो तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? क्या अपनी पूरी ताकत से बहस करने से समस्या का समाधान हो जाएगा? (नहीं।) तो फिर तुम्हें समस्या का समाधान कैसे करना चाहिए? इस स्थिति में, जो इंसान सत्य समझता है, उसे मुद्दा हल करने के लिए आगे आना चाहिए, पहले मुद्दे को मेज पर रखना चाहिए और दोनों पक्षों को अपनी राय रखने देनी चाहिए। फिर, सभी को एक-साथ सत्य की तलाश करनी है, और परमेश्वर से प्रार्थना करने के बाद, संगति करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचन और सत्य खोज निकालना है। सत्य के सिद्धांतों पर संगति करने और स्पष्टता प्राप्त करने के बाद दोनों पक्ष समर्पण कर पाएँगे। ... अगर कोई इंसान परमेश्वर के घर के हितों और कलीसिया के काम की प्रभावशीलता की रक्षा के लिए दूसरों के साथ संघर्ष और बहस करता है, और उसका रवैया थोड़ा अडिग है, तो क्या तुम लोग कहोगे कि यह एक समस्या है? (नहीं।) क्योंकि उसका इरादा सही है; यह परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने के लिए है। यह एक ऐसा व्यक्ति है, जो परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होता है और सिद्धांतों पर टिका रहता है, एक ऐसा व्यक्ति जिससे परमेश्वर प्रसन्न होता है। परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करते समय एक मजबूत, दृढ़ रवैया रखना, एक दृढ़ रुख और सिद्धांतों पर टिके रहने का प्रतीक है, और परमेश्वर इसका अनुमोदन करता है। लोगों को लग सकता है कि इस रवैये में कोई समस्या है, लेकिन यह कोई बड़ी समस्या नहीं है; इसका भ्रष्ट स्वभाव के प्रदर्शन से कोई लेना-देना नहीं है। याद रखो, सिद्धांतों पर टिके रहना सबसे महत्वपूर्ण है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अभ्यास में ही होता है जीवन-प्रवेश)। वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई। चाहे कोई भी मौका हो, अपने फायदों को त्यागना, सत्य के सिद्धांतों को कायम रख कलीसिया के कार्य की रक्षा करना ही सबसे अहम है। इसकी वजह से भले ही कभी-कभार लोगों से विवाद हो जाए या तुम थोड़ी रुखाई से बात करो, पर ये बड़ी समस्याएं नहीं हैं। परमेश्वर सत्य के प्रति हमारे रवैये को देखता है। वह देखता है कि क्या हम सत्य के सिद्धांतों को कायम रख सत्य का अभ्यास कर पाते हैं। पहले, मैं हमेशा सोचती थी कि सत्य के सिद्धांतों पर चलने से कोई विवाद हुआ, तो लगेगा कि मैं अहंकारी स्वभाव दिखा रही हूँ, दूसरों से सहयोग नहीं कर रही। दूसरे मुझे अहंकारी न कहें, इस वजह से मैंने समझौता किया, सत्य के सिद्धांतों को कायम रखने के लिए कुछ नहीं किया। अब जानती हूँ कि बहस और विवाद से बचने के लिए अभ्यास का सबसे अच्छा मार्ग है सिद्धांतों के अनुसार चलना, हर किसी को अपने विचार रखने देना और फिर मिलकर सत्य की खोज करना। अगर सत्य खोजने के बाद तुम्हें यकीन है कि तुम्हारे कर्म सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप हैं, तो उसे कायम रखना चाहिए। यही सही तरीका है। अगर तुम्हारे विचार गलत हैं, फिर भी उसे मानने पर जोर देते हो, और चाहते हो कि, लोग तुम्हारी सुनें तो ये अहंकार और दंभ है। ऐसे में, तुम्हें अपनी इच्छा त्याग कर दूसरों से सहयोग करना सीखना होगा। फिर, ओलिवर के साथ काम करते हुए, मैंने परमेश्वर के वचनों का अभ्यास किया।
एक दिन, मैं इलियाना और ओलिवर के साथ तस्वीरें चुनते हुए सुझावों पर चर्चा कर रही थी। ओलिवर ने एक सुझाव दिया। हमें लगा कि उनकी डिजाइन का हमारी थीम के साथ सही तालमेल नहीं बैठ रहा, पर हम यकीन से नहीं कह सकते थे। पहले तो मैं समझौता करके उनकी बात मान लेना चाहती थी। मैंने सोचा, "पहले आपके सुझाव को आजमाकर देखते हैं, ताकि लोग ये न कहें कि मैं अहंकारी हूँ, अपनी ही राय से चिपकी रहती हूँ।" मगर फिर मैंने डिजाइन के सिद्धांतों और जरूरतों का सोचा, तो पाया कि ओलिवर के कौंसेप्ट में वाकई समस्याएं थीं। अगर हम उसके अनुसार डिजाइन करें और फिर दोबारा काम करना पड़े, तो क्या वक्त की बर्बादी नहीं होगी, काम में देरी नहीं होगी? तब एहसास हुआ कि मुझे सिद्धांतों के अनुसार चलना होगा, फिर मैंने ओलिवर को उनकी कौंसेप्ट से जुड़ी समस्याएं बताईं और उन्हें अपने विचारों पर चिपके रहने के बजाय मूल कौंसेप्ट को स्वीकारने को कहा। इलियाना इससे सहमत थी, ओलिवर ने भी आगे कुछ नहीं कहा। मगर इस तरह के हालात दिन भर में कई बार पैदा होते। जब भी हमारी राय अलग होती, ओलिवर हमेशा अपनी बात पर अड़ जाते, जिससे काम में देरी हो जाती। साथ ही, उनके सुझाव के अनुसार बदलाव न करते, तो वे परेशान हो जाते और बात करना भी बंद कर देते। ऐसे ही चलता रहा तो काम में जरूर देरी होगी, तो मैंने अगुआ को हालात के बारे में बता दिया। अगुआ ने हमें साथ लेकर ओलिवर की समस्या उजागर करना और सत्य पर संगति कर उनकी मदद करनी चाही। मैं जानती थी यह मेरे लिए सत्य के अभ्यास का मौका है, तो मैंने ओलिवर से मिलने से पहले परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े। "कलीसिया का सारा कार्य सीधे तौर पर परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैलाने के कार्य से जुड़ा है। विशेष रूप से, सुसमाचार फैलाने के कार्य और उस कार्य की प्रत्येक मद का, जिसमें पेशेवर ज्ञान शामिल है, सुसमाचार फैलाने के कार्य के साथ एक महत्वपूर्ण, अटूट संबंध है। इसलिए, जो सुसमाचार फैलाने के कार्य से संबंधित है, वह परमेश्वर के हितों और परमेश्वर के घर के हितों से संबंधित है। अगर लोग सुसमाचार फैलाने के कार्य को सही तरह से समझ सकते हों, तो उन्हें, जो कर्तव्य वे निभाते हैं उसके और दूसरों के कर्तव्य के प्रति सही दृष्टिकोण रखना चाहिए। और यह सही दृष्टिकोण क्या है? इसका अर्थ है, जैसा परमेश्वर कहता है, वैसा करने का भरसक प्रयास करना। कम से कम उनका व्यवहार और उनके कार्य जानबूझकर हानिकारक या बाधक नहीं होने चाहिए। उन्हें जानबूझकर अपराध नहीं करना चाहिए। अगर वे जानते हैं कि वे कलीसिया का कार्य बाधित और अव्यवस्थित कर रहे हैं, फिर भी वे ऐसा करने पर अड़े रहते हैं, चाहे कोई भी उनसे ऐसा न करने का आग्रह करे, तो यह बुराई करना और मौत माँगना है; यह शैतान अपना सिर उठा रहा है। भाई-बहनों को इसे जल्दी से समझने दो, फिर उस दुष्ट व्यक्ति को कलीसिया से बाहर निकाल दो। अगर वह दुष्कर्मी क्षणिक रूप से भ्रमित हो गया हो और जानबूझकर बुराई न कर रहा हो, तो इस मुद्दे से कैसे निपटा जाना चाहिए? क्या हमें उसे सिखाकर उसकी मदद नहीं करनी चाहिए? अगर वह सिखाए जाने पर भी न सुने, तो क्या किया जाना चाहिए? भाई-बहन एक साथ खड़े होकर उसे फटकारें" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग एक))। "तुम लोगों को सत्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए—तभी तुम जीवन में प्रवेश कर सकते हो, जीवन में प्रवेश करने के बाद ही तुम दूसरों का पोषण और अगुआई कर सकते हो। अगर यह पता चले कि दूसरों के कार्य सत्य के विपरीत हैं, तो हमें प्रेम से सत्य के लिए प्रयास करने में उनकी मदद करनी चाहिए। अगर दुसरे लोग सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हों, और उनके काम करने के तरीके में सिद्धांत हों, तो हमें उनसे सीखने और उनका अनुकरण करने का प्रयास करना चाहिए। यही पारस्परिक प्रेम है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पूरे हृदय, मन और आत्मा से अपना कर्तव्य निभाने वाला ही परमेश्वर से प्रेम करने वाला व्यक्ति होता है)। परमेश्वर के वचन स्पष्ट हैं। दूसरों में समस्याएं देखने पर हमें फौरन संगति करनी चाहिए; जरूरत होने पर उन्हें उजागर करके फटकारना चाहिए। यह सब कलीसिया के कार्य की रक्षा करने के लिए है, इससे लोगों को अपनी समस्याएं जानने, उन्हें फौरन हल करने और कर्तव्य निभाने में मदद मिलती है। ओलिवर के पास तस्वीरें बनाने की थोड़ी प्रतिभा जरूर थी, पर अपने भ्रष्ट स्वभाव के कारण वे कुछ ऐसा कर बैठते थे जिससे हमारा काम बिगड़ जाता था। अगर वे खुद को जान पाते, सत्य खोजते और अपने भ्रष्ट स्वभाव को बदल पाते, सभी के साथ मिल-जुलकर सहयोग कर पाते, और अपनी खूबियों के अनुसार काम करते, तो इससे कलीसिया के काम और उनके जीवन प्रवेश को लाभ मिलता। फिर मैंने ओलिवर की समस्याएं हल करने के लिए परमेश्वर के कुछ वचन खोजे, उन्हें अपने अनुभवों के साथ जोड़ा और ओलिवर के साथ संगति की। इसे सुनकर ओलिवर को अपने भ्रष्ट स्वभाव की कुछ समझ आई, उन्होंने यहाँ तक कहा, कभी-कभी उन्हें भी लगता था कि वे गलत हैं, पर अपनी इच्छाओं का त्याग नहीं कर पाते थे। अब समस्याएं बताये जाने के बाद, उन्हें थोड़ा बुरा जरूर लगा, पर वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को बदलने के लिए सत्य खोजने और परमेश्वर पर भरोसा करने को तैयार थे। यह सुनकर मुझे ओलिवर के रवैये पर खुशी हुई। मगर अफसोस भी हुआ कि सांसारिक फलसफों के अनुसार जीते हुए, मैंने समस्याएं बताने में देर कर दी। उनके साथ कलीसिया के काम का भी नुकसान किया।
उस घटना के बाद, अपने कर्तव्य के दौरान, किसी को सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य न करते और काम में देरी करते देखती, तो सजग होकर सत्य का अभ्यास करती और समस्याओं के बारे में बताकर अपनी जिम्मेदारी निभाती। इस तरह अभ्यास करने से मुझे शांति और सुकून मिला। परमेश्वर का धन्यवाद!