15. स्नेह सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए
बचपन में माता-पिता और शिक्षकों ने मुझे अच्छी इंसान बनना और कृतज्ञ होने का अभ्यास करना सिखाया, ठीक वैसे जैसे कि कहावत है, “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए।” इसलिए बचपन से ही यह वह सिद्धांत था जिसके अनुसार मैंने खुद आचरण किया और समाज में दूसरों के साथ व्यवहार किया। खासकर जब दूसरे मुझ पर दया दिखाते थे, तो मैं उन्हें उसका दोगुना लौटाने की कोशिश करती थी। समय बीतने के साथ मुझे आसपास के ज्यादातर लोगों से स्वीकृति और तारीफ मिलने लगी और मेरे रिश्तेदार और दोस्त मुझे दयालु और वफादार समझते थे, इसलिए वे मेरे साथ बातचीत करने और घुलने-मिलने के लिए तैयार रहते थे। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद अपने भाई-बहनों के साथ भी मैं यूँ ही घुलती-मिलती रही। मुझे लगता था कि इस तरह का आचरण मुझे जमीर रखने वाली एक नेक इंसान बनाता है। हालाँकि परमेश्वर के वचनों के उजागर होने के जरिए मुझे एहसास हुआ कि परंपरागत संस्कृति के विचार सत्य नहीं हैं, न ही इस बात की कसौटी हैं कि हमें कैसे अपने कार्य-कलाप और आचरण करना चाहिए।
सितंबर 2018 में मुझे व्यावहारिक काम करने में असमर्थता के कारण अगुआ के पद से बरखास्त कर दिया गया। उस समय मैं बहुत नकारात्मक और कमजोर थी, पर सामान्य मामलों के लिए जिम्मेदार बहन लेस्ली ने मेरे समर्थन और मदद के लिए परमेश्वर के वचनों के कई अंश भेजे, जिसने वास्तव में मेरे दिल को छू लिया। मुझे लगा कि लेस्ली ने न केवल मुझे नीची निगाह से नहीं देखा बल्कि मेरा उत्साह बढ़ाकर मदद भी की। इसके बाद लेस्ली ने मेरे लिए सामान्य मामले सँभालने की व्यवस्था की। उसने मेरा बहुत अच्छा ध्यान रखा और अक्सर हमारे काम को लेकर मेरे विचार और मत जानने के लिए पहल भी की। यह देखकर कि लेस्ली मुझे कितना महत्व देती है, मैं उसका और भी आभार मानने लगी। बाद में जब एक अगुआ ने मेरे आकलनों की जाँच की, तो कुछ भाई-बहनों ने मेरे बारे में गलत-सलत बातें कहीं लेकिन लेस्ली को घटना के संदर्भ की जानकारी थी और उसने मौके पर ही मेरे बारे में में इन तथ्यों को स्पष्ट कर दिया। इसके लिए मैं उसकी और भी आभारी हो गई क्योंकि मुझे लगा कि उसने एक नाजुक घड़ी में मेरा साथ देकर मेरी छवि बचाई थी। हालाँकि मैंने शब्दों में उसका आभार प्रकट नहीं किया, पर मैं धन्यवाद देने के लिए अवसर की तलाश में रहती थी।
कुछ ही समय बाद लेस्ली को वास्तविक काम न करने पर बरखास्त कर दिया गया और मुझे टीम अगुआ चुन लिया गया। उसके काम की जाँच करते समय मैंने पाया कि वह अपने काम में काफी अनमनी और भुल्लकड़ थी। मैंने नरमी से उससे पूछा, “लेस्ली, तुम अपने काम में इतनी लापरवाह क्यों हो?” यह सुनकर आत्म-चिंतन करने के बजाय वह बोली, “मैं बूढ़ी हूँ और मेरी याददाश्त खराब है।” बाद में मेरी साथी के रूप में काम करने वाली बहन ने देखा कि लेस्ली अभी भी अपने काम में भुलक्कड़ रहती है, उसने कई बार उसका ध्यान इस तरफ दिलाया पर वह फिर भी नहीं बदली। मैं इस बारे में उससे बात करने के लिए सही समय ढूँढ़ रही थी पर फिर मुझे याद आया कि जब मैं पहली बार बरखास्त हुई थी मैं खराब स्थिति में थी और उसने बहुत प्यार से मेरा साथ देकर मेरी मदद की थी। अब वह अभी-अभी बरखास्त हुई है, इसलिए अगर मैं अभी ही उसकी समस्याएँ उजागर करूँ तो क्या वह मुझे बहुत क्रूर नहीं समझेगी? इसके अतिरिक्त अभी-अभी बरखास्त होने के कारण उसकी स्थिति खराब थी, इसलिए उसका लापरवाह होना क्षम्य था। मुझे बहुत प्यार से उसकी अधिक मदद करनी चाहिए और उसे बदलने का समय देना चाहिए। इसके बाद जब लेस्ली ने अपने कर्तव्य में कुछ काम ठीक से नहीं किया, तो मेरी साथी और मैंने उसके लिए उसे खुद किया। उसके भूलने के डर से मैं अक्सर उसे चीजें याद दिलाती रहती और अक्सर उसके साथ संगति कर उसकी हालत के बारे में पूछती रहती थी। मगर उसकी स्थिति नहीं सुधरी। काम संबंधी बहुत-सी चर्चाओं में उसके सुझाव सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होते थे और ज्यादातर भाई-बहन उन्हें स्वीकार नहीं करते थे पर वह फिर भी अपनी बात पर अड़ी रहती और दूसरों से उसे जबर्दस्ती मनवाना चाहती थी, जिससे आगे चर्चा करना नामुमकिन हो जाता था। मैं उसे बहुत ध्यान दिलाना चाहती थी पर फिर यह भी सोचती थी कि कैसे उसे अभी-अभी बरखास्त किया गया है और वह कितनी दुखी होगी। अगर मैं अभी ही उसकी समस्याएँ उजागर करूँ तो क्या यह उसके जख्मों पर नमक छिड़कना नहीं होगा? इसलिए मैंने जाने दिया, मैंने आशा की कि उसे समय पर खुद ही एहसास हो जाएगा। मैंने उसे कोई अनुस्मारक नहीं दिया और बस यही कोशिश की कि उसे कामकाज की चर्चाओं में ज्यादा शामिल न किया जाए। पर आत्म-चिंतन करने के बजाय उसने यह कहकर मुझे ही अप्रत्यक्ष रूप से दोषी ठहराया कि मैं उसकी राय नहीं सुन रही थी। यह देखकर कि वह अपने बारे में कुछ नहीं जानती, मैंने दिल कड़ा करके उससे कहा, “लेस्ली, तुम बहुत अहंकारी और आत्म-तुष्ट हो। तुम्हें वाकई आत्म-चिंतन करना चाहिए।” उस समय मैंने देखा कि उसका चेहरा थोड़ा तन गया और आवाज धीमी पड़ गई। मुझे अचानक बुरा लगा। क्या उसके साथ मेरा ऐसा करना कुछ ज्यादती नहीं थी? उसकी पहले की मदद को देखते हुए क्या मैं असंवेदनशील नहीं थी? मैंने खुद को दोषी ठहराना शुरू कर दिया।
कुछ दिन बाद निरीक्षक ने देखा कि लेस्ली का काम अक्सर मैं और मेरी साथी करती थी, इसलिए उसने हमसे पूछा कि लेस्ली कैसा काम कर रही है। इस सवाल ने मुझे बेचैन कर दिया। अगर मैंने ईमानदारी से लेस्ली की हालत बताई तो उसे बरखास्त किया जा सकता था। मैं सामान्य मामले सँभाल पा रही थी क्योंकि उसी ने उनकी व्यवस्था की थी। उसने आम तौर पर मेरे साथ अच्छा बर्ताव किया था और नाजुक घड़ी में मेरी मदद की थी। मेरे समूह अगुआ रहते हुए अगर वह बरखास्त हो गई तो क्या वह मुझसे नाराज होगी और कहेगी कि मैं अविवेकपूर्ण और निर्मम हूँ? उसे काम पर रहने देने के लिए मैंने उसके बर्ताव के बारे में वस्तुनिष्ठ विवरण दिया और यहाँ तक यह भी जोड़ दिया, “ये बर्ताव हाल ही में बरखास्तगी के बाद उसकी खराब दशा की वजह से हैं। वह सजगतापूर्वक बदलने की कोशिश कर रही है।” बाद में उसे बरखास्त होने से बचाने के लिए कई सभाओं में मैंने उसकी मदद करने के लिए जान-बूझकर उसकी हालत के बारे में संगति की, पर वह हमेशा की तरह ही उलझन में बनी रही और उसके कर्तव्य में निरंतर समस्याएँ आती रहीं। एक बार तो यह भी हुआ जब उसने किसी से सलाह किए बिना गैरजरूरी चीजें खरीद लीं, जिनके दाम सामान्य से बहुत ज्यादा थे। उस समय मुझे बहुत गुस्सा आया और मैं उसकी काट-छाँट करना चाहती थी, पर अपने रिश्ते को बचाने के लिए मैंने गुस्सा पी लिया। मैंने बस उसे समझाया कि दोबारा ऐसा न करे और ज्यादा ध्यान से अपना कर्तव्य करे। उसने ईमानदारी से मान लिया तो मैंने बात को ज्यादा तूल नहीं दिया। इस दौरान भाई-बहन मुझे लेस्ली के काम की समस्याओं के बारे में निरंतर बताते रहे। मैं उसे फटकार कर उसकी काट-छाँट करना चाहती थी पर उसे देखते ही मेरे मुँह से शब्द नहीं निकलते थे। वे मेरी जबान से निकलने को होते पर मैं उन्हें निगल लेती थी। बाद में निरीक्षक लेस्ली के काम के बारे में जानने आई कि वह अपना कर्तव्य कैसा कर रही थी। उसने और हमारे समूह के दूसरे भाई-बहनों ने सिद्धांतों के आधार पर लेस्ली का आकलन किया और तय किया कि लेस्ली सामान्य मामले सँभालते रहने के काबिल नहीं है और मुझे उसे जल्दी बरखास्त करने के लिए कहा। पर यह सोचकर कि लेस्ली को हाल ही में टीम अगुआ के तौर पर बरखास्त किया गया था और अगर उसे फिर से दूसरा कर्तव्य दिया जाएगा—तो यह बड़ा झटका होगा! क्या वह इसे बरदाश्त कर पाएगी? उस क्षण मेरे मन में उन सभी समयों की यादें कौंध गईं जब उसने मेरी मदद की थी। कई दिनों तक जब भी मैं उसे बरखास्त करने की सोचती, तो मैं दुखी और परेशान हो जाती थी। मैं कई रातों तक करवटें बदलती रही, सो नहीं पाई। मुझे लगा कि जैसे मुझे ही बरखास्त कर दिया गया हो। मैं यह सोचे बिना नहीं रह पाई, “उसने पहले मेरी मदद की थी और अब मुझे खुद उसे बरखास्त कर उसका बर्ताव उजागर करना होगा। क्या वह मुझे कृतघ्न समझकर मुझसे नाराज होगी?” अपराध बोध से बचने के लिए मैं निरीक्षक को लेस्ली के साथ संगति करने देना चाहती थी, जबकि मैं पीछे खड़ी रहकर ज्यादा नहीं बोलना चाहती थी या बिल्कुल न जाने का कोई बहाना बनाना चाहती थी। पर मैं जानती थी कि इस तरह के इरादे बहुत घृणित और शर्मनाक हैं, इसलिए मैं बड़ी दुविधा में फँसा हुआ महसूस कर रही थी। परेशान होकर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि लेस्ली को बरखास्त करना सही है पर यह मेरे लिए इतना मुश्किल क्यों है? परमेश्वर, मेरी समस्या कहाँ है? कृपया मुझे राह दिखाओ ताकि मैं खुद को जान सकूँ।”
प्रार्थना के बाद मैं सोचने लगी कि मुझे दूसरे लोगों को बरखास्त करने में इतनी मुश्किल क्यों नहीं होती, तो लेस्ली को बरखास्त करने में मैं इतनी अनिर्णायक क्यों थी। खोज करते हुए मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “कुछ लोग बेहद भावुक होते हैं। रोजाना वे जो कुछ भी कहते हैं और जिस भी तरह से दूसरों के प्रति व्यवहार करते हैं, उसमें वे अपनी भावनाओं से जीते हैं। वे इस या उस व्यक्ति के प्रति स्नेह महसूस करते हैं और स्नेह की बारीकियों में संलग्न रहते हुए दिन बिताते हैं। अपने सामने आने वाली सभी चीजों में वे भावनाओं के दायरे में रहते हैं। ... तुम कह सकते हो कि भावनाएं इस व्यक्ति का घातक दोष है। वह सभी मामलों में अपनी भावनाओं से विवश होता है, वह सत्य का अभ्यास करने या सिद्धांत के अनुसार कार्य करने में अक्षम होता है, और उसमें अक्सर परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने की प्रवृत्ति होती है। भावनाएँ उसकी सबसे बड़ी कमजोरी, उसका घातक दोष होती हैं, और उसकी भावनाएँ उसे तबाहो-बरबाद करने में पूरी तरह से सक्षम होती हैं। जो लोग अत्यधिक भावुक होते हैं, वे सत्य को अभ्यास में लाने या परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में असमर्थ होते हैं। वे देह-सुख में लिप्त रहते हैं, और मूर्ख और भ्रमित होते हैं। इस तरह के व्यक्ति की प्रकृति अत्यधिक भावुक होने की होती है और वह भावनाओं से जीता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। “किन लक्षणों से अनुभूतियों का पता चलता है? निश्चित रूप से वह कोई सकारात्मक चीज नहीं है। यह भौतिक संबंधों और देह की पसंद की संतुष्टि पर ध्यान केंद्रित करना है। पक्षपात करना, दूसरों की कमियों को ढंकना, अत्यधिक स्नेह करना, लाड़-दुलार करना और मनमानी करने देना आदि सब अनुभूतियों में शामिल हैं। कुछ लोग अनुभूतियों के बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं, वे अपने साथ होने वाली हर चीज के बारे में अपनी अनुभूतियों के आधार पर ही प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं; अपने दिलों में वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह गलत है, फिर भी वे वस्तुनिष्ठ होने में असमर्थ रहते हैं, सिद्धांत के अनुसार कार्य करना तो दूर की बात है। जब लोग हमेशा अनुभूतियों के वश में रहते हैं, तो क्या वे सत्य का अभ्यास कर पाते हैं? यह अत्यंत कठिन है। सत्य का अभ्यास करने में बहुत-से लोगों की असमर्थता अनुभूतियों के कारण होती है; वे अनुभूतियों को विशेष रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं, वे उन्हें सबसे आगे रखते हैं। क्या वे सत्य से प्रेम करने वाले लोग हैं? हरगिज नहीं। सार में, अनुभूतियां क्या होती हैं? वे एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव हैं। अनुभूतियों की अभिव्यक्तियों को कई शब्दों का उपयोग करते हुए बताया जा सकता है : भेदभाव, सिद्धांतहीन तरीके से दूसरों की रक्षा करने की प्रवृत्ति, भौतिक संबंध बनाए रखना, और पक्षपात; ये ही अनुभूतियां हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि लेस्ली को बरखास्त करने में मुझे इतनी पीड़ा और परेशानी इसलिए हुई क्योंकि उसके लिए मेरी भावनाएँ प्रबल थीं और मैं हमेशा उनसे बेबस महसूस करती थी। मैं सोचती थी कि लेस्ली ने मेरी मदद की थी और वह पहले मेरे लिए दयालु रही थी, इसलिए मुझे उसका आभार मानना चाहिए। जब मैंने उसे कर्तव्य में उलझे हुए, काम में देरी करते और कई बार संगति के बावजूद बदलने से इनकार करते देखा, तो मैं जान गई थी कि मुझे उसकी काट-छाँट करनी चाहिए पर मुझे डर था कि उसके अभिमान को चोट पहुँचेगी और मुझसे नाराज हो जाएगी, इसलिए मैंने उससे बस नरमी से बात की और बात वहीं छोड़ दी। उसके विचार गलत थे, पर वह जोर देती थी कि लोग उसकी बात सुनें और उसकी आज्ञा मानें, जिसके कारण कई बार कार्य-चर्चाएँ ठप हो जाती थीं और अड़चनें पैदा हो जाती थीं। इस पूरे समय मैं उसे उजागर या उसकी काट-छाँट नहीं कर पाई। जब निरीक्षक लेस्ली के काम के बारे में पूछने आई, तो मुझे चिंता हुई कि वह बरखास्त न हो जाए तो मैंने झूठ बोल दिया कि वह बदलने की कोशिश कर रही है, ताकि निरीक्षक भ्रमित हो जाए और उसका सही आकलन न कर पाए। जब मैंने देखा कि लेस्ली अपने कर्तव्य में सिद्धांतहीन थी और कलीसिया का पैसा बरबाद कर रही थी, तो उसे फटकार लगाने के बजाय मैंने आँख मूँदकर उसे बचाने की कोशिश की। अब मुझे उसे बरखास्त करके उसका स्वभाव उजागर करना था लेकिन मैं यह काम निरीक्षक को सौंप देना चाहती थी। मेरी भावनाएँ बहुत प्रबल थीं और मुझमें सत्य के अभ्यास की गवाही नहीं थी। लेस्ली को बचाने के लिए और वह मुझे कृतघ्न कहकर मुझसे नाराज न हो, इसके लिए मैं कलीसिया के काम की परवाह किए बिना उसे बचाने और खुश रखने में लगी रही। मैं अपनी भावनाओं में जीती रही, उसके सुख की चिंता कर उसके साथ अपना निजी रिश्ता बचाती रही। मैंने यहाँ तक सोचा कि मैं प्यार से उसकी मदद कर रही हूँ, स्नेह और निष्ठावश ऐसा कर रही हूँ पर दरअसल मैं सांसारिक फलसफे में फँसी हुई थी। मैं चाहती थी कि वह मुझे सकारात्मक रूप से देखे चाहे इससे कलीसिया के हितों को नुकसान क्यों न पहुँचे। मैंने जो कुछ किया वह अपने लिए था। मैं कितनी बुरी और नीच थी! मुझे गहरा पश्चात्ताप हुआ। मैं भावनाओं से काम ले रही थी, जिससे कलीसिया के काम को नुकसान हुआ और परमेश्वर मुझसे घृणा करने लगा। अगर मैं सत्य का अभ्यास न करके भावनाओं से काम लेती रही तो एक दिन मुझे हटा दिया जाएगा।
इसके बाद मैंने सोचा, “मैंने भावनाओं में बहकर सत्य सिद्धांतों के खिलाफ जाने वाले इतने सारे काम क्यों किए?” अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “इरादे लोगों की अवस्था का एक स्पष्ट और सबसे आम हिस्सों में से एक हैं; ज्यादातर मामलों में, लोगों के अपने विचार और इरादे होते हैं। जब इस तरह के विचार और इरादे आते हैं, तो लोग उन्हें जायज समझते हैं, लेकिन अधिकांश समय वे उनके लिए, उनके अभिमान और हितों के लिए, या फिर कुछ छिपाने के लिए, या किसी तरह से उन्हें संतुष्ट करने के लिए होती हैं। ऐसे समय, तुम्हें यह जाँचना चाहिए कि तुम्हारा इरादा कैसे उत्पन्न हुआ, क्यों उत्पन्न हुआ। उदाहरण के लिए, परमेश्वर का घर तुमसे कलीसिया की सफाई का काम करने के लिए कहता है, और एक व्यक्ति है जो हमेशा अपने कर्तव्य में अनमना रहा है, हमेशा सुस्त रहने के फेर में रहता है। सिद्धांत के अनुसार, इस व्यक्ति को दूर कर दिया जाना चाहिए, लेकिन उसके साथ तुम्हारे अच्छे संबंध हैं। तो तुम्हारे भीतर किस तरह के विचार और इरादे उत्पन्न होंगे? तुम अभ्यास कैसे करोगे? (अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करने की।) और ये प्राथमिकताएँ किससे उत्पन्न होती हैं? चूँकि इस इंसान का व्यवहार तुम्हारे प्रति अच्छा रहा है या इसने तुम्हारे लिए कुछ किया है, इसलिए तुम्हारे मन में उसकी अच्छी छवि है, और इसलिए इस समय तुम उसकी रक्षा करना चाहते हो, उसका बचाव करना चाहते हो। क्या यह भावनाओं का प्रभाव नहीं है? तुम उसके प्रति भावुक महसूस करते हो, और इसलिए ‘जबकि उच्च अधिकारियों की नीतियाँ होती हैं, वहीं मुहल्लों के अपने जवाबी-उपाय होते हैं’ का दृष्टिकोण अपनाते हो। तुम दुरंगी चाल चल रहे हो। एक ओर तुम उससे कहते हो, ‘जब तुम कुछ करते हो तो तुम्हें थोड़ा अधिक प्रयास करना चाहिए। अनमना होना बंद करो, तुम्हें थोड़ी कठिनाई झेलनी ही पड़ेगी; यह हमारा कर्तव्य है।’ दूसरी ओर, तुम ऊपरवाले को यह कहते हुए उत्तर देते हो, ‘वह पहले से सुधर गया है, अपना कर्तव्य निभाते हुए वह अब और अधिक प्रभावी हो गया है।’ लेकिन तुम अपने दिमाग में वास्तव में यह सोच रहे होते हो, ‘ऐसा इसलिए है, क्योंकि मैंने उस पर काम किया है। अगर मैं न करता, तो वह अभी भी वैसा ही होता जैसा वह था।’ अपने दिमाग में तुम हमेशा सोचते रहते हो, ‘मेरे साथ उसका व्यवहार अच्छा है, उन्हें हटाया नहीं जा सकता!’ जब ऐसी बातें तुम्हारे इरादे में हों, तो यह कौन सी अवस्था होती है? यह व्यक्तिगत भावनात्मक संबंधों की रक्षा करके कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाना है। क्या इस प्रकार कार्य करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या तुम्हारे ऐसा करने में समर्पण है? (नहीं।) कोई समर्पण नहीं है; तुम्हारे हृदय में प्रतिरोध है। तुम्हारे साथ जो चीजें होती हैं और जो काम तुम्हें करना चाहिए, उसमें तुम्हारे अपने विचारों में व्यक्तिपरक निर्णय शामिल होते हैं, और यहाँ भावनात्मक कारक मिश्रित होते हैं। तुम भावनाओं के आधार पर चीजें कर रहे होते हो, फिर भी यह मानते हो कि तुम निष्पक्षता से कार्य कर रहे हो, लोगों को पश्चात्ताप करने का मौका दे रहे हो, और उन्हें प्रेमपूर्ण सहायता दे रहे हो; इस प्रकार तुम जैसा चाहते हो वैसा ही करते हो, न कि वैसा, जैसा परमेश्वर कहता है। इस तरह कार्य करना, कार्य की गुणवत्ता को कम करता है, यह प्रभावशीलता घटाता है और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाता है—जो कि सब भावनाओं के अनुसार कार्य करने का परिणाम है। अगर तुम स्वयं की जाँच नहीं करते, तो क्या तुम यहाँ समस्या की पहचान कर पाओगे? तुम कभी नहीं कर पाओगे। शायद तुम्हें पता हो कि इस तरह से कार्य करना गलत है, कि यह समर्पण की कमी है, लेकिन तुम इस बारे में सोचते हो और खुद से कहते हो, ‘मुझे प्रेम से उनकी मदद करनी चाहिए, और मदद के बाद जब वे बेहतर हो जाएँगे, तो उन्हें हटाने की आवश्यकता नहीं होगी। क्या परमेश्वर लोगों को पश्चात्ताप करने का मौका नहीं देता? परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है, इसलिए मुझे भी प्रेम से उनकी मदद करनी चाहिए, और मुझे जैसा परमेश्वर कहता है वैसा ही करना चाहिए।’ ये बातें सोचने के बाद, तुम चीजों को अपने तरीके से करते हो। बाद में, तुम्हारा दिल सुकून महसूस करता है; तुम्हें लगता है कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। इस प्रक्रिया के दौरान, तुमने सत्य के अनुसार अभ्यास किया, या अपनी प्राथमिकताओं और इरादों के अनुसार कार्य किया? तुम्हारे कार्य पूरी तरह से तुम्हारी प्राथमिकताओं और इरादों के अनुसार थे। पूरी प्रक्रिया के दौरान तुमने चीजों को सुचारू बनाने के लिए अपनी तथाकथित दयालुता और प्रेम, और साथ ही भावनाओं और फलसफों का इस्तेमाल किया, और तुमने ढुलमुल रहने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि तुम इस इंसान की प्रेम से मदद कर रहे थे, लेकिन अपने दिल में तुम वास्तव में भावनाओं से बाधित थे—और, इस डर से कि ऊपरवाले को पता चल जाएगा, तुमने समझौता करके उसे जीतने की कोशिश की, ताकि कोई नाराज न हो और काम हो जाए—जो ठीक उसी तरह है, जैसे गैर-विश्वासी तटस्थ रहने की कोशिश करते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य का जो रवैया होना चाहिए)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि मैं क्यों जानती थी कि लेस्ली की समस्याएँ हैं, फिर भी मैं उन्हें उजागर करने के बजाय तब भी बचाती रही। ऐसा इसलिए क्योंकि मैं चाहती थी कि वह मुझे सकारात्मक ढंग से देखे। दरअसल मैं इस विचार से नियंत्रित थी, “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए।” मैंने इस विचार को अपने आचरण और समाज में दूसरों के साथ बर्ताव करने के सिद्धांत के रूप में इस्तेमाल किया। मेरा मानना था कि लोगों को दूसरों के साथ दयालु और वफादार होना चाहिए, इसलिए अगर वे मेरे साथ दयालु हैं, तो मुझे इसका दोगुना लौटाना चाहिए। वरना मैं कृतघ्न हो जाऊँगी और दूसरे मेरी निंदा और तिरस्कार करेंगे। तो जब मैंने लेस्ली को मेरी मदद करते, मेरा ध्यान रखते और मेरा पक्ष लेते हुए देखा, तो मुझे लगा कि इसका बदला चुकाना चाहिए। जब मैंने लेस्ली को लगातार अपने कर्तव्य में गड़बड़ी करते देखा, तो मैंने उसे उजागर करने और काट-छाँट करने के बजाय सिद्धांतों का उल्लंघन करना और कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचाना पसंद किया। ज्यादा गंभीर बात यह रही कि मैं आँख मूँदकर उसकी मदद के लिए प्रेम और संगति करती रही और मैंने निरीक्षक से झूठ बोला और धोखा दिया ताकि यह तथ्य छिपाया जा सके कि वह अपने कर्तव्य में गड़बड़ी कर रही थी और कलीसिया के काम में बाधा डाल रही थी। मैंने यह सब सिर्फ इसलिए किया, ताकि लोग मुझे एक अच्छी, आभारी और दयालु इंसान समझें। परमेश्वर के वचनों के उजागर किए जाने से आखिर मैंने देखा कि ऐसे विचार और नजरिये लोगों को गुमराह करने और भ्रष्ट करने के लिए हैं। मैं सही-गलत जाने बिना इन चीजों के साथ जीती थी और बिना सिद्धांतों के कार्य करती और संचालित करती थी। ऊपर से तो मैं अपना कर्तव्य कर रही थी, पर असल में मैं मर्जी से कार्य कर रही थी और परमेश्वर के आगे समर्पण नहीं कर रही थी। यहाँ तक कि मैंने कलीसिया के काम में रुकावट डाली और बिना एहसास के परमेश्वर का विरोध किया। अगर हम परमेश्वर में विश्वास करके भी सत्य का अभ्यास नहीं करते और फिर भी इन चीजों के अनुसार जीते हैं, तो हमारा ऊपरी व्यवहार कितना भी अच्छा हो और लोगों से हमारी कितनी ही निभे, परमेश्वर की नजरों में हम अभी भी वैसे व्यक्ति हैं जो परमेश्वर का विरोध करता है। सिर्फ तभी मैं इन बेहूदा और घिनौने शैतानी नजरियों का थोड़ा भेद पहचान सकी। मैंने देखा कि ये सब चीजें शैतान की देन हैं और सत्य के खिलाफ जाती हैं; ये सब मनुष्य के हितों और इच्छाओं से दूषित हैं और बुरी और कुरूप हैं। ये मेरे कार्य-कलाप और आचरण की कसौटी नहीं होनी चाहिए।
कुछ दिन बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा और इस मामले की प्रकृति के बारे में थोड़ी समझ हासिल की। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “यह परमेश्वर के वचनों और कर्तव्यों का पालन करने में तुम्हारी विफलता मात्र नहीं है, बल्कि यह शैतान की साजिशों और सांसारिक आचरण के उसके फलसफों को सत्य मानना है, उनका अनुसरण और अभ्यास करना है। तुम शैतान की आज्ञा का पालन कर रहे हो और शैतानी फलसफे के अनुसार जी रहे हो, है न? तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, तुम परमेश्वर के वचनों का पालन करने वाले व्यक्ति तो बिल्कुल नहीं हो। तुम पूरे बदमाश हो। परमेश्वर के वचनों को दर-किनार कर, शैतानी मुहावरे को अपनाना और सत्य के रूप में उसका अभ्यास करना, सत्य और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना है! तुम परमेश्वर के घर में काम करते हो, फिर भी शैतानी तर्क और सांसारिक आचरण के उसके फलसफे ही तुम्हारे क्रियाकलापों के सिद्धांत हैं, तुम किस तरह के व्यक्ति हो? ऐसा व्यक्ति परमेश्वर से विश्वासघात करता है और उसे बुरी तरह लज्जित करता है। इस हरकत का सार क्या है? खुले तौर पर परमेश्वर की निंदा करना और सत्य को नकारना। क्या यही इसका सार नहीं है? (यही है।) तुम परमेश्वर की इच्छा का पालन करने के बजाय, शैतान की एक दानवी कहावत और सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों को कलीसिया में निरंकुशता करने दे रहे हो। ऐसा करके, तुम खुद शैतान के सहयोगी बन जाते हो और कलीसिया में शैतान की गतिविधियों को अंजाम देने में उसकी सहायता करते हो और कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधाएँ डालते हो। इस समस्या का सार गंभीर है, है ना?” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण एक : सत्य क्या है)। परमेश्वर के वचनों से ऐसा महसूस हुआ जैसे मेरे दिल को चीर रहे हों। “पूरे बदमाश,” “सत्य के साथ विश्वासघात करने वाले,” “परमेश्वर को बुरी तरह लज्जित करने वाले,” और “शैतान के सहयोगी” जैसे वचन तीर की तरह मेरे दिल में उतर गए। मैं परंपरागत संस्कृति के इन विचारों के मुताबिक जी रही थी। परमेश्वर की नजर में यह सिर्फ सत्य के अभ्यास और कलीसिया के हितों की रक्षा करने के बजाय भावनाओं के आधार पर काम करने का यह सिर्फ क्षणिक उदाहरण नहीं था, यह परमेश्वर और अपने कर्तव्य से विश्वासघात था और यह सत्य को नकारना, परमेश्वर को शर्मिंदा करना और धोखा देना था। इसकी प्रकृति बहुत गंभीर थी! यह एहसास करते हुए मैंने बहुत व्यथित और भयभीत महसूस किया। मुझे पता न था कि परमेश्वर में विश्वास रखते हुए और अपना कर्तव्य करते हुए शैतानी विचारों पर भरोसा करना इतनी गंभीर समस्या है! मुझे खुद को शांत करने में काफी समय लगा।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “संपूर्ण मानवजाति में, एक भी जाति ऐसी नहीं है जिसमें सत्य की सत्ता हो। किसी जाति ने चाहे कितने भी ऊँचे, प्राचीन, रहस्यमय विचार या पारंपरिक संस्कृति को जन्म दिया हो, उसने कैसी भी शिक्षा प्राप्त की हो या उसके पास कैसा भी ज्ञान हो, एक बात तो निश्चित है : इनमें से कोई भी चीज सत्य नहीं है या सत्य से उसका कोई नाता नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, ‘पारंपरिक धारणाओं में निहित कुछ नैतिकताएँ या सही-गलत, उचित-अनुचित, काले-सफेद को मापने की अवधारणाएँ सत्य के काफी करीब लगती हैं।’ सुनने में ये सत्य के करीब लगती हैं, इस तथ्य का यह मतलब नहीं होता कि वे अर्थ में इसके करीब हैं। भ्रष्ट मानवजाति की बातें शैतान से उत्पन्न होती हैं, वे कभी भी सत्य नहीं होती, जबकि केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य होते हैं। इस प्रकार, भले ही मानवजाति की कुछ बातें परमेश्वर के वचनों के कितने भी करीब क्यों न लगें, वे सत्य नहीं होती हैं और सत्य नहीं बन सकती हैं; यह बात संदेह से परे है। वे केवल शब्दों और अभिव्यक्ति में करीब हैं, लेकिन वास्तव में, ये पारंपरिक धारणाएं परमेश्वर के वचनों के सत्य से मेल नहीं खातीं। हालाँकि इन शब्दों के शाब्दिक अर्थ में कुछ निकटता हो सकती है, लेकिन उनका स्रोत एक नहीं है। परमेश्वर के वचन सृष्टिकर्ता से आते हैं, जबकि पारंपरिक संस्कृति के शब्द, विचार और दृष्टिकोण शैतान और राक्षसों से आते हैं। कुछ लोग कहते हैं, ‘पारंपरिक संस्कृति के विचारों, दृष्टिकोण और प्रसिद्ध कहावतों को सार्वभौमिक रूप से सकारात्मक माना जाता है; भले ही वे झूठ और भ्रांतियाँ हैं, लेकिन अगर लोग उन्हें सैकड़ों-हजारों साल तक कायम रखें तो क्या वे सच बन जाएँगी?’ बिल्कुल नहीं। ऐसा दृष्टिकोण उतना ही हास्यास्पद है जितना कि यह कहना कि इंसान बंदर से विकसित हुआ है। पारंपरिक संस्कृति कभी सच नहीं बनेगी। संस्कृति संस्कृति ही रहती है, चाहे वह कितनी भी नेक क्यों न हो, फिर भी वह भ्रष्ट मानवजाति द्वारा निर्मित अपेक्षाकृत सकारात्मक चीज ही है। सकारात्मक होना सत्य होने के समतुल्य नहीं होता, सकारात्मक होना कोई मानदंड नहीं है; यह केवल अपेक्षाकृत सकारात्मक होने से अधिक कुछ नहीं है। तो क्या अब यह हमें स्पष्ट है कि इस ‘सकारात्मकता’ के पीछे, मानवजाति पर पारंपरिक संस्कृति का प्रभाव अच्छा है या बुरा? निस्संदेह, मानवजाति पर इसका बुरा और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण एक : सत्य क्या है)। “मानव जाति पारंपरिक संस्कृति के इन पहलुओं से अनुकूलित, सुन्न और भ्रष्ट हो गई है। और अंतिम परिणाम क्या होता है? मानवजाति पारम्परिक संस्कृति से गुमराह, नियंत्रित, और बाधित होती है, और इससे एक प्रकार की मानसिकता और सिद्धांत स्वाभाविक रूप से पैदा होते हैं मानवजाति जिनकी हिमायत करती और जिन्हें फैलाती है, व्यापक रूप से प्रसारित करती है और लोगों से स्वीकार करवाती है। अंततः, ये हर किसी के दिल पर कब्जा कर लेते हैं, हर किसी से इस प्रकार की मानसिकता और विचार का समर्थन करवाते हैं, और हर कोई इस विचार से भ्रष्ट हो जाता है। जब लोग एक सीमा तक भ्रष्ट हो जाते हैं, तो सही या ग़लत के बारे में उनकी अब कोई अवधारणाएँ नहीं होतीं; वे अब यह भेद करना नहीं चाहते कि न्याय क्या है और दुष्टता क्या है, न ही वे अब और यह परखना चाहते हैं कि सकारात्मक चीजें क्या हैं और नकारात्मक चीजें क्या। यहाँ तक कि एक दिन ऐसा भी आता है जब वे स्पष्ट नहीं होते हैं कि वे वास्तव में इंसान हैं भी कि नहीं, और कई बीमार लोग ऐसे भी हैं जो नहीं जानते कि वे पुरुष हैं या महिला। इस तरह की मानवजाति, विनाश से कितनी दूर है? ... यह दर्शाता है कि शैतान के फलसफों, नियमों, विचारों और तथाकथित मानसिकताओं से समस्त मानवजाति गुमराह और भ्रष्ट हो गई है। लोग किस हद तक गुमराह और भ्रष्ट हो गए हैं? सभी लोगों ने शैतान की भ्रांतियों और दुष्ट बातों को सत्य मान लिया है; वे सभी शैतान की आराधना करते हैं और शैतान का अनुसरण करते हैं। वे सृष्टिकर्ता परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते। सृष्टिकर्ता चाहे जो भी कहे, जितना भी कहे, और उसके वचन कितने ही स्पष्ट एवं व्यावहारिक क्यों न हों, कोई भी नहीं समझता है; कोई भी नहीं बूझता है। वे सभी सुन्न और मंदबुद्धि हैं, और उनकी सोच और उनके दिमाग उलझे हुए हैं। उन्हें कैसे उलझाया गया था? यह शैतान है जिसने उन्हें उलझाया है। शैतान ने लोगों को पूरी तरह से भ्रष्ट कर दिया” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण एक : सत्य क्या है)। अतीत में, मैं सिर्फ यह जानती थी कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ,” जैसे सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे सत्य के उलट हैं और ऐसी चीजें नहीं थीं जो सामान्य मानवता वाले लोगों के पास होनी चाहिए। पर परंपरागत संस्कृति से जुड़ी हुई कहावतें जो अंतरात्मा और नैतिकता से मेल खाती लगती थीं, जैसे “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” “मनुष्य निर्जीव नहीं है; वह भावनाओं से मुक्त कैसे हो सकता है?” और सभ्य और उदात्त प्रतीत होने वाली दूसरे परंपरागत नैतिकताएँ, मैं उनका भेद नहीं पहचान पाई थी। मुझे लगता था कि ये चीजें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपी गई हैं और अच्छे लोगों को इनका पालन करना चाहिए। मैंने इन परंपरागत विचारों के भेद की पहचान नहीं की और इन सभी को अनुसरण और अभ्यास के लिए सकारात्मक चीजें माना। अगर मैं इनके खिलाफ जाती, तो मुझे अपराध-बोध होता और मुझे डर था कि लोग मेरी निंदा करके मुझे ठुकरा देंगे। अब परमेश्वर के वचनों के उजागर करने से आखिर मैंने देखा कि इन विचारों और नजरियों के नियंत्रण में लोग एक दूसरे से बातचीत करने के दौरान सिद्धांतों के बजाय केवल भावनाओं के बारे में सोचते हैं और अच्छे-बुरे का या सही और गलत का भेद नहीं पहचान पाते। जब तक दूसरे मुझ पर दयालु थे, भले ही वे खराब या बुरे लोग हों और भले ही उनकी मदद करना बुराई की मदद करना हो, मुझे उनकी दयालुता का बदला चुका कर उनकी मदद करनी थी। ऊपर से मैं विवेकशील प्रतीत होती थी पर हकीकत में मैं भ्रमित और मूर्ख थी और मेरे अपने मकसद और इरादे थे। मैंने यह अपनी छवि और प्रतिष्ठा बचाने के लिए किया; यह पूरी तरह अपने हितों के लिए था। मैं बहुत स्वार्थी, घिनौनी और पाखंडी थी। मैं सचमुच एक अच्छी इंसान बिलकुल नहीं थी। अगर मैं इन शैतानी फलसफों और सिद्धांतों से चिपकी रहती, तो मैं दिनों-दिन ज्यादा धूर्त, धोखेबाज, स्वार्थी और बुरी होती जाती। मैंने जाना कि ये उदात्त और वैध प्रतीत होने वाले परंपरागत विचार और कहावतें चाशनी में लिपटी जहरीली गोलियां हैं। वे बहुत ऊँची और इंसानी नैतिकता और आचार नीति के अनुरूप लगती तो हैं, पर असल में वे सत्य की दुश्मन हैं और लोगों को भ्रष्ट करने का शैतान का एक साधन हैं। मुझे एहसास हुआ कि मैं कई बरसों से परमेश्वर में विश्वास कर रही थी, पर चूँकि मैंने सत्य का अभ्यास नहीं किया था और इन परंपरागत विचारों के सहारे जी रही थी, मैंने अपनी अंतरात्मा को अपने सभी व्यवहारों के केंद्र में रखा, हमेशा लोगों की दयालुता का बदला चुकाना चाहा, लेकिन अच्छे-बुरे में भेद नहीं पहचान सकी। मैं कितनी भ्रमित बेवकूफ थी कि गलत और सही में अंतर नहीं बता सकती थी! परमेश्वर ने अंत के दिनों में बहुत सारा सत्य व्यक्त किया है और सत्य के सभी पहलुओं को ठोस विवरण में प्रकट किया है जिसका हमें अभ्यास करना चाहिए, इस उम्मीद में कि हम सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण करें और कार्य करें और ताकि हम परमेश्वर की गवाही दे सकें और उसका महिमामंडन कर सकें। पर मैंने अपना कर्तव्य सिर्फ दैहिक रिश्तों के लिए निभाया और सत्य की खोज नहीं की या कलीसिया के हितों की रक्षा नहीं की। एक बार इसकी पहचान होने पर मुझे अपने किए पर अपराध-बोध और पश्चात्ताप हुआ। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं शैतानी विषों के सहारे जी रही हूँ। मैंने सत्य के खिलाफ और तुम्हारे प्रतिरोध में कितने ही काम किए हैं। परमेश्वर, मैं प्रायश्चित्त कर सत्य सिद्धांतों के अनुसार चलना चाहती हूँ।”
इसके बाद मैंने सोचा, “यदि इन परंपरागत विचारों और नजरियों के अनुसार जीने का यह अर्थ नहीं है कि मुझमें अच्छी मानवता है तो अच्छी मानवता होने का क्या मतलब है?” बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा जिसने मुझे चीजों के सही आकलन की कसौटी दी। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अच्छी मानवता होने का कोई मानक अवश्य होना चाहिए। इसमें संयम का मार्ग अपनाना, सिद्धांतों से चिपके न रहना, किसी को भी नाराज नकरने का प्रयत्न करना, जहाँ भी जाओ वहीं चापलूसी करके कृपापात्र बनना, जिससे भी मिलो उससे चिकनी-चुपड़ी बातें करना और सभी से अपने बारे में अच्छी बातें करवाना शामिल नहीं है। यह मानक नहीं है। तो मानक क्या है? यह परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम होना है। यह अपने कर्तव्य को और सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों को सिद्धांतों के साथ और जिम्मेदारी की भावना से लेना है। सब इसे स्पष्ट ढंग से देख सकते हैं; इसे लेकर सभी अपने हृदय में स्पष्ट हैं। इतना ही नहीं, परमेश्वर लोगों के हृदयों की जाँच-पड़ताल करता है और उनमें से हर एक की स्थिति जानता है; चाहे वे जो भी हों, परमेश्वर को कोई मूर्ख नहीं बना सकता। कुछ लोग हमेशा डींग हाँकते हैं कि वे अच्छी मानवता से युक्त हैं, कि वे कभी दूसरों के बारे में बुरा नहीं बोलते, कभी किसी और के हितों को नुकसान नहीं पहुँचाते, और वे यह दावा करते हैं कि उन्होंने कभी अन्य लोगों की संपत्ति की लालसा नहीं की। जब हितों को लेकर विवाद होता है, तब वे दूसरों का फायदा उठाने के बजाय नुकसान तक उठाना पसंद करते हैं, और बाकी सभी सोचते हैं कि वे अच्छे लोग हैं। परंतु, परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते समय, वे कुटिल और चालाक होते हैं, हमेशा स्वयं अपने हित में षड़यंत्र करते हैं। वे कभी भी परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचते, वे कभी उन चीजों को अत्यावश्यक नहीं मानते हैं जिन्हें परमेश्वर अत्यावश्यक मानता है या उस तरह नहीं सोचते हैं जिस तरह परमेश्वर सोचता है, और वे कभी अपने हितों को एक तरफ़ नहीं रख सकते ताकि अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। वे कभी अपने हितों का परित्याग नहीं करते। यहाँ तक कि जब वे दुष्ट लोगों को बुरे कर्म करते हुए देखते हैं, वे उन्हें उजागर नहीं करते; उनके रत्ती भर भी कोई सिद्धांत नहीं हैं। यह किस प्रकार की मानवता है? यह अच्छी मानवता नहीं है। ऐसे व्यक्तियों की बातों पर बिल्कुल ध्यान न दो; तुम्हें देखना चाहिए कि वे किसके अनुसार जीते हैं, क्या प्रकट करते हैं, और अपने कर्तव्य निभाते समय उनका रवैया कैसा होता है, साथ ही उनकी अंदरूनी दशा कैसी है और उन्हें किससे प्रेम है। अगर अपनी शोहरत और फायदे के प्रति उनका प्रेम परमेश्वर के प्रति उनकी निष्ठा से बढ़कर है, अगर अपनी शोहरत और फायदे के प्रति उनका प्रेम परमेश्वर के घर के हितों से बढ़कर है, या अगर अपनी शोहरत और फायदे के प्रति उनका प्रेम उस विचारशीलता से बढ़कर है जो वे परमेश्वर के प्रति दर्शाते हैं, तो क्या ऐसे लोगों में मानवता है? वे मानवता वाले लोग नहीं हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मेरी समझ में आया कि अच्छी मानवता वाला व्यक्ति सिर्फ इसलिए समझौता नहीं करता कि कोई भी नाराज न हो और हर कोई उसका समर्थन करे और उसे स्वीकार करे। इसके बजाय वे सत्य को प्रेम कर सकते हैं, सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं और अपने कर्तव्यों में जिम्मेदार होते हैं, सत्य सिद्धांतों को कायम रख सकते हैं और कलीसिया के कार्य की रक्षा करते हैं। केवल ऐसे लोग ही सचमुच अच्छे लोग होते हैं। अगर हम सिर्फ लोगों के साथ अपने रिश्ते, अपना नाम और रुतबा बचाते हैं और लोगों के साथ ठीक से निभाते हैं, पर अपने कर्तव्य में परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं रहते और कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाने की कीमत पर लोगों के साथ रिश्ते निभाते हैं, तो हम बेहद स्वार्थी और नीच हैं। ऊपर से तुम्हारा बर्ताव चाहे कितना भी नैतिक रूप से स्वीकार्य क्यों न हो, यह लोगों को गुमराह करता है और सत्य के लिए शत्रुतापूर्ण होता है। मैंने सोचा कि मैं इन परंपरागत विचारों और नजरियों के साथ कैसे जीती रही, कैसे एक अच्छी इंसान होने का दिखावा किया। वास्तव में मैं अंदर से ज्यादा से ज्यादा स्वार्थी, धोखेबाज और बुरी होती गई। मैंने जो कुछ किया वह अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने के लिए और निजी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करने के लिए था। मैं बिल्कुल भी मानव समान नहीं थी; मैं जो कुछ भी जी रही थी वह शैतानी था। अतीत में जब मैं किसी में मानवता का आकलन करती थी, तो वह मेरी धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित होता था। वह सत्य के अनुरूप बिल्कुल भी नहीं होता था और वह लोगों के मूल्यांकन के लिए परमेश्वर के मापदंडों के अनुरूप भी नहीं होता था।
अगले कुछ दिनों तक मैंने सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर के इरादों के अनुसार अभ्यास करने पर चिंतन किया। परमेश्वर के वचनों में मैंने पढ़ा : “ये संबंध देह पर नहीं, बल्कि परमेश्वर के प्रेम की बुनियाद पर निर्मित होंगे। दूसरे लोगों के साथ तुम्हारे लगभग कोई दैहिक संपर्क नहीं होंगे, बल्कि तुम्हारे बीच आध्यात्मिक स्तर पर संगति और आपसी प्रेम, सुख और पोषण होगा। यह सब परमेश्वर को संतुष्ट करने की बुनियाद पर किया जाता है—ये संबंध इंसानी सांसारिक आचरण के फलसफों के जरिये नहीं बनाए रखे जाते, ये स्वाभाविक रूप से तब बनते हैं, जब व्यक्ति परमेश्वर के लिए दायित्व वहन करता है। उनके लिए तुम्हारी ओर से किसी कृत्रिम, इंसानी प्रयास की आवश्यकता नहीं होती, तुम्हें सिर्फ परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की आवश्यकता है। ... सामान्य पारस्परिक संबंध अपना हृदय परमेश्वर की ओर मोड़ने की नींव पर स्थापित होते हैं, इंसानी प्रयासों के जरिये नहीं। अगर व्यक्ति के हृदय से परमेश्वर अनुपस्थित है, तो अन्य लोगों के साथ उसके संबंध केवल दैहिक हैं। वे सामान्य नहीं हैं, वे कामुक आसक्तियाँ हैं, परमेश्वर उनसे घृणा करता है और उन्हें नापसंद करता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण है)। परमेश्वर की अपेक्षा है कि हम लोगों से सत्य सिद्धांतों के अनुसार बर्ताव करें, अपने भाई-बहनों के साथ बातचीत में परमेश्वर के प्रेम को आधार की तरह उपयोग करें, सत्य और जीवन में एक-दूसरे का समर्थन और मदद करें और सांसारिक आचरण के लिए दैहिक फलसफों में लिप्त न हों। लेस्ली ने अतीत में मेरी मदद की थी और यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था थी; मुझे इसे पहचानना चाहिए था और इसे परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए था। मगर इसके बजाय मैंने इसका श्रेय स्वयं लेस्ली को दे दिया और हर चीज में उसका आभार मानने लगी। मैंने देखा कि लेस्ली के साथ मेरा रिश्ता देह पर आधारित था, कि मैंने जो किया और जिस तरह आचरण किया वह बिल्कुल भी परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं था और मेरे पास कोई सिद्धांत नहीं था। असल में जब भाई-बहन विफलता या झटकों के शिकार होकर नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं तो उनकी मदद के लिए परमेश्वर के वचनों पर संगति करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होता है और यह ऐसा कुछ है जो हमें जरूर करना चाहिए। पर जो लोग अपने कर्तव्यों में लगातार ढीले और गैरजिम्मेदार होते हैं और जो कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा डालते हैं, उन्हें प्रतिबंधित कर उजागर करना चाहिए, उनकी काट-छाँट या उन्हें बरखास्त किया जाना चाहिए। उन्हें भावनावश आश्रय नहीं देना चाहिए या बचाना नहीं चाहिए। यहाँ तक कि हमें स्नेह में भी सिद्धांतों के अनुसार चलना चाहिए। बरखास्तगी के बाद भी लेस्ली अपने काम में गैरजिम्मेदार और लापरवाह थी और उसे अपनी समस्याओं की कोई वास्तविक समझ नहीं थी। अगर मैं परमेश्वर के वचनों का उपयोग संगति करके उसके बर्ताव और समस्या की प्रकृति के गहन विश्लेषण के लिए करती ताकि वह आत्म-चिंतन कर सके, प्रायश्चित्त कर बदल सके, तो यह दरअसल उसके लिए मेरा प्रेम होता। इससे कलीसिया के कार्य को भी लाभ होता। इसका एहसास होते ही मुझे अचानक राहत महसूस हुई और अब मैं अपने दैहिक रिश्तों को नहीं बचाना चाहती थी।
इसके बाद मैंने कर्तव्य के प्रति लेस्ली का रवैया और उसके विभिन्न व्यवहारों को उजागर करने के लिए परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल किया और उसे दूसरा काम सौंप दिया। संगति के बाद मैंने बहुत राहत महसूस की। लेस्ली ने नाराजगी नहीं जताई और इसे परमेश्वर की देन मानकर स्वीकार किया। उसने कहा कि उजागर और बरखास्त हुए बिना उसे कभी यह एहसास न होता कि उसने जो किया उससे इतनी अड़चनें और परेशानियाँ पैदा हुईं और उसे अपने निपटान से कोई शिकायत नहीं थी। जब मैंने उसे यह कहते सुना तो मुझे सचमुच लगा कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीकर ही हम दूसरों को सच्चा लाभ दे सकते हैं और उनकी मदद कर सकते हैं और हम भी काफी राहत महसूस करते हैं। मैंने व्यक्तिगत रूप से महसूस किया है कि परंपरागत संस्कृति की सभ्य और उदात्त लगने वाली इन बातों का—चाहे लोग कितना भी बखान और तारीफ करें—ये सत्य नहीं हैं। ये सब विकृत और बुरी बातें हैं और ये दूसरों को और हमें नुकसान ही पहुँचा सकती हैं। सत्य ही हमारे कार्य-कलापों और आचरण की कसौटी है।