46. मनमानी से अपना और दूसरों का नुकसान होता है

हेक्षि, ऑस्ट्रेलिया

अप्रैल 2020 में मुझे सिंचन कार्य संभालने के लिए कलीसिया अगुआ चुना गया। मैंने देखा कि कुछ नए विश्वासी हाल में नियमित रूप से सभाओं में नहीं आ रहे थे, वे देर से आते, जल्दी चले जाते। कुछ लोग स्कूल या काम में व्यस्त रहते, कहते, समय मिला तो आएँगे। कुछ लोग इसलिए नहीं आते क्योंकि वे सीसीपी और धार्मिक दुनिया के झांसे में आ गए थे। हमने उनसे बात करने की कोशिश की, लेकिन कुछ लोग फोन ही नहीं उठाते थे, वे तो जैसे गायब हो गए थे। मैं सोचने लगी कि हमने उनसे बात करने की कोशिश की, पर वे नहीं आना चाहते, तो हम इसके लिए जिम्मेदार नहीं थे। उन्हें जाने देना चाहिए। फिर परमेश्वर भी तो ज्यादा लोग नहीं, बढ़िया लोग चाहता है। वह उन्हीं को बचाता है, जो उसमें विश्वास रखते हैं, सत्य से प्रेम करते हैं। अगर उनका विश्वास ही सच्चा नहीं है, तो हमारी तमाम कोशिशें बेकार हैं। तो बिना प्रार्थना किए या खोजे, बिना अगुआ से चर्चा किए, मैंने उन नए सदस्यों को निकाल देने का फैसला किया। मैंने उनमें से कुछ से बात करने की कोशिश की, लेकिन वे सभाओं में आना नहीं चाहते थे, तो मुझे यकीन हो गया कि मेरा फैसला सही था। एक बहन ने देखा कि दो महीनों में बहुत-से नए सदस्यों को निकाल दिया गया, तो उसने मुझसे पूछा कि क्या ऐसा करना वाकई सही है। उसने कहा कि शायद हमें अपने अगुआ से संगति कर सिद्धांत जानने चाहिए। मैंने सोचा कि पहले भी हमने ऐसे मामले इसी तरह निपटाए थे। हमने उनसे बात करने की कोशिश की थी, लेकिन संपर्क नहीं हो पाया, कुछ को तो विश्वासी बनने में रुचि ही नहीं रही। सिद्धांत जानने की जरूरत ही नहीं थी। इसलिए, मैंने उसका सुझाव नहीं माना। इसके बाद मुझे थोड़ी बेचैनी हुई, सोचा, क्या ऐसा करना वाकई सही था। फिर लगा कि यह गलत नहीं हो सकता, क्योंकि हमने तो उन्हें सहारा दिया था, मगर वे ही सभाओं में नहीं आना चाहते थे, यह हमारी गलती नहीं थी। मुझे लगा वे सच्चे विश्वासी थे ही नहीं। परेशान होने पर भी मैंने न तो प्रार्थना की, न ही कुछ जानना चाहा, हर महीने कुछ नए सदस्यों को निकालती गई।

बाद में मेरी अगुआ को पता चला कि इस बारे में मैं सिद्धांतों पर नहीं चल रही थी, तो उन्होंने मेरी कड़ी आलोचना की, कहा कि मैं कोई सिद्धांत नहीं जानती, और खोजती भी नहीं, बस आँखें बंद करके मनमानी करती हूँ। और कहा कि उनमें से हरेक के लिए परमेश्वर के सामने आना काफी मुश्किल था, दूसरी कलीसियाओं के भाई-बहनों ने उन्हें सहारा देने में पूरी ताकत लगा दी, और यहाँ मैं उन्हें बेपरवाही से बाहर निकाल रही थी। स्नेहमयी सहारा दिए बिना बड़ी गैरजिम्मेदारी से उन्हें दायरे में बाँध रही थी। फिर उन्होंने पूछा, वे सभाओं में क्यों नहीं आते, क्या मैंने संगति के जरिए उनकी धारणाएँ और मसले सुलझाने की कोशिश की, क्या मैंने किसी और ढंग से उनकी मदद करने की कोशिश की। मैं उनके एक भी सवाल का जवाब नहीं दे पाई, नए विश्वासियों को निकालने के दृश्य मेरे मन में एक फिल्म की तरह चल रहे थे। आखिरकार मुझे एहसास हुआ कि मैं उनके प्रति जिम्मेदार नहीं थी, वास्तव में स्नेह से उनकी मदद नहीं की, सहारा नहीं दिया। स्पष्टता से समझ नहीं सकी कि उनकी अनसुलझी धारणाएँ क्या हैं, या वे सभाओं में क्यों नहीं आते। वे कुछ समय तक सभाओं में नहीं आए, तो मुझे लगा उन्होंने दिलचस्पी खो दी है, फिर मैंने उन पर ध्यान नहीं दिया। मैं नए विश्वासियों के जीवन के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पाई, सिद्धांतों के विपरीत, उन्हें बेपरवाही से ठुकरा दिया। मुझमें सच में इंसानियत नहीं थी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे प्रबुद्ध कर रास्ता दिखाने की विनती की, ताकि मैं उसकी इच्छा समझ सकूँ, आत्मचिंतन कर खुद के बारे में जान सकूँ।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा : "तुम्हें उन लोगों के प्रति सजग रहना चाहिए, जिनके बीच तुम सुसमाचार का प्रचार करते हो। जब भी तुम किसी के सामने सुसमाचार का प्रचार करते हो, तो यह एक नवजात बच्चे को जन्म देने जैसा होता है। उनका जीवन बहुत नाजुक होता है, और उन्हें हमारी सहनशीलता, हमारे प्रेम की आवश्यकता होती है। इसके अलावा, उन्हें कुछ विधियों और दृष्टिकोणों की आवश्यकता होती है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हम उन्हें वे सभी सत्य संप्रेषित करें जो परमेश्वर ने मानवजाति के उद्धार के लिए व्यक्त किए हैं, ताकि उन्हें लाभ मिल सके, और जहाँ तक संभव हो, उन लोगों को, जो परमेश्वर की वाणी समझ सकते हैं, परमेश्वर के सामने वापस लाएँ। यह प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी और दायित्व है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है')। "कुछ लोग निम्न क्षमता के होते हैं और उन्होंने बहुत लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास नहीं किया होता। हालाँकि वे सत्य को नहीं समझते, फिर भी वे ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं। सिर्फ इसलिए कि वे निम्न क्षमता के होते हैं, सत्य को नहीं समझते, और जब कुछ घटित हो जाता है तो वे सत्य की खोज नहीं करते, वे अकसर नकारात्मक हो जाते हैं, और उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करने में बहुत कठिनाइयाँ होती हैं, और वे पर्याप्त अच्छे नहीं है। वे हमेशा चिंता करते रहते हैं कि उन्हें बचाया नहीं जाएगा, और कभी-कभी तो संघर्ष करना छोड़कर स्वेच्छा से हार मान लेते हैं, जो स्वयं को हटाए जाने के समान ही है। उन्हें लगता है, 'कुछ भी हो, परमेश्वर ने खुद पर मेरे विश्वास के लिए मेरी प्रशंसा नहीं की है। परमेश्वर मुझे पसंद भी नहीं करता। और सभा में जाने के लिए मेरे पास ज्यादा समय नहीं है। मेरा परिवार गरीब है और मेरा पैसा कमाना जरूरी है,' इत्यादि। ये सब उनके सभा में न जा पाने के कारण बन जाते हैं। अगर तुम तुरंत यह पता नहीं लगाते कि क्या चल रहा है, तो तुम्हें लगेगा कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, परमेश्वर से प्रेम नहीं करते, अपना कर्तव्य निभाने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते, दैहिक सुखों की लालसा करते हैं, सांसारिक चीजों के पीछे दौड़ते हैं और उन्हें छोड़ नहीं सकते—और इस वजह से तुम उन्हें त्याग दोगे। वास्तव में, वे अपनी कठिनाइयों के कारण ही नकारात्मक होते हैं। अगर तुम ये समस्याएँ हल कर सको, तो वे इतने नकारात्मक नहीं होंगे, और परमेश्वर का अनुसरण कर पाएँगे। जब वे कमजोर और नकारात्मक होते हैं, तो उन्हें लोगों के समर्थन की जरूरत होती है। अगर तुम उनकी मदद करते हो, तो वे अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं। लेकिन अगर तुम उन्हें नजरअंदाज कर देते हो, तो उनके लिए हार मान लेना आसान हो जाएगा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि कलीसिया का काम करने वाले लोगों में प्रेम है या नहीं, वे यह दायित्व वहन करते हैं या नहीं। अगर कुछ लोग अकसर सभा में नहीं आते, तो इसका यह मतलब नहीं कि वे वास्तव में परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, इसका अर्थ ईमानदारी की कमी होना नहीं है, इसका मतलब यह नहीं कि वे विश्वास नहीं करना चाहते, और न ही यह है कि वे दैहिक सुखों की लालसा करते हैं, और अपने परिवार और काम को एक तरफ रखने में सक्षम नहीं हैं—उनका आकलन अत्यधिक भावुक या पैसे के प्रति आसक्त के रूप में तो बिलकुल भी नहीं किया जाना चाहिए। बस इतना है कि इन मामलों में लोगों के आध्यात्मिक कद और आकांक्षाएँ अलग-अलग होती हैं। कुछ लोगों के लिए सत्य का अनुसरण करना विशेष रूप से महत्वपूर्ण होता है, वे दुख उठाने को तैयार रहते हैं, और ये चीजें त्यागने में सक्षम होते हैं। कुछ लोगों की आस्था कम होती है, और जब उनके सामने वास्तविक कठिनाइयाँ आती हैं, तो वे शक्तिहीन हो जाते हैं और काम पूरा नहीं कर पाते। अगर कोई उनकी मदद या समर्थन नहीं करता, तो वे संघर्ष करना, प्रयास करना छोड़ देते हैं; ऐसे समय में उन्हें लोगों के समर्थन, देखभाल और सहायता की आवश्यकता होती है। लेकिन अगर वे अविश्वासी हों, सत्य के प्रति प्रेम से रहित हों, और बुरे व्यक्ति हों, तो—उस स्थिति में उन्हें नजरअंदाज किया जा सकता है। अगर वे अच्छे इंसान हैं, ग्रहणशील हैं और काफी अच्छी क्षमता वाले हैं, तो उनकी मदद और समर्थन किया जाना चाहिए" (परमेश्‍वर की संगति)

इसके अर्थ के बारे में सोचा, तो मैं बहुत शर्मिंदा हो गई। अंत के दिनों में, परमेश्वर देहधारी होकर हमारे उद्धार के लिए वचन बोलने और कार्य करने आया है। वह जानता है, शैतान ने हमें इतना भ्रष्ट कर दिया है कि हम विद्रोह और प्रतिरोध से सराबोर हैं। वह हर इंसान को बचाने की भरसक कोशिश करता है। किसी इंसान के लिए थोड़ी भी आशा हो तो परमेश्वर उसे यूं ही नहीं ठुकराता। वो इंसानों के लिए कृपा और सहनशीलता का सागर है—हमारे लिए उसका प्रेम अपार है। ये नए विश्वासी नवजात शिशुओं जैसे थे। वे सत्य नहीं समझते थे, अब तक सच्चे मार्ग पर पैर नहीं जमा पाए थे। वे जीवन में कमजोर थे। परमेश्वर चाहता है कि हम उनके प्रति अपार प्रेम और सहनशीलता रखें। अगर उनमें सच्ची आस्था और अच्छी इंसानियत है तो फिर चाहे वे कमजोर हों, धार्मिक धारणाएं रखते हों, व्यस्तता के कारण सभाओं में न आ पाते हों, तो भी हमें उन्हें यूं ही नहीं निकालना चाहिए। छोटी-सी बात पर हम उन्हें नकारा नहीं समझ सकते, सभाओं में न आने से हम उन्हें सच्चे विश्वासी न मानकर, पूरी तरह अनदेखा नहीं कर सकते। यह उन्हें नष्ट कर देना है। जब मैं आस्था में नई थी, तो मैं घर में व्यस्त होने के कारण सभाओं में नहीं जा पाती थी, लेकिन भाई-बहन इस बात को समझकर, मेरी जरूरत का ख्याल रखते हुए सभा का समय बदल देते, और बिना थके मेरे साथ संगति करते। उनकी मदद और सहारे से मैं सत्य का अनुसरण करने के महत्व को समझ सकी, अपने लिए परमेश्वर के प्रेम और सहनशीलता को महसूस कर सकी। फिर, मैं सामान्य रूप से सभाओं में भाग लेकर कर्तव्य निभाने लगी। अगर भाई-बहनों ने उस वक्त मुझसे घृणा करते, सोचते कि मैं सत्य से प्रेम नहीं करती और एक गैर-विश्वासी हूँ, तो वे मुझे पहले ही छोड़ चुके होते और आज मैं यहाँ नहीं होती! मैं समझ गई कि मुझे परमेश्वर की इच्छा का जरा भी ध्यान नहीं था, न नए सदस्यों की मुश्किलों को समझती थी। मैं उन्हें नापसंद करती थी, उनसे असंतुष्ट थी, सोचती थी कि वे बस काम में व्यस्त हैं, उनमें बहुत धारणाएं हैं, मैंने उन्हें एक दायरे में बाँधकर ठुकरा दिया, उनकी मदद के लिए बड़ी कीमत नहीं चुकानी चाही। मेरी इंसानियत बहुत बुरी थी, मैंने नए विश्वासियों के जीवन की जरा भी जिम्मेदारी नहीं ली। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं तुम्हारे सामने प्रायश्चित करना चाहती हूँ। मुझे जल्द-से-जल्द अपनी कमियाँ सुधारने और इन लोगों को प्रेम और सहारा देने का रास्ता दिखाओ।"

तबसे दूसरों के साथ मैं भी नए सदस्यों को सहारा देने के लिए जाने लगी। हमने उनके संघर्षों के बारे में जाना और उनके साथ धैर्य से संगति की, फिर उनमें से कुछ लोग सभाओं में लौट आए। उनमें से एक तो काम में इतनी व्यस्त थी कि उसके लिए सभाओं में आना मुश्किल था, उसने कहा, "अगर मैं मन में विश्वास रखूँ, तो परमेश्वर मुझे कभी दूर नहीं करेगा।" पहले मैं सोचती थी, वह पैसा कमाने में लगी है, उसमें सच्ची आस्था नहीं है, मगर उसको समझने के बाद पता चला कि वह सभाओं में इसलिए नहीं आ पाती क्योंकि हमारा तय किया हुआ समय उसके लिए सही नहीं था। हमने सभाओं का समय उसकी जरूरत के अनुसार कर दिया, और उसके साथ संगति की, ताकि वह समझ सके कि अंत के दिनों में, परमेश्वर सत्य द्वारा मनुष्य को शुद्ध करता और बचाता है, सच्चे विश्वासियों को साथ में परमेश्वर के वचनों पर संगति करनी चाहिए, अनुसरण कर सत्य हासिल करना चाहिए, भ्रष्टता छोड़ देनी चाहिए और जीवन में बदलाव का अनुभव करना चाहिए, परमेश्वर द्वारा बचाए जाने और उसकी स्वीकृति पाने का सिर्फ यही एक रास्ता है। सभाओं में शामिल हुए बिना आस्था रखने, बस मन में विश्वास रखकर परमेश्वर को मानने से या इसे एक शौक की तरह लेने से, परमेश्वर की नजरों में आप एक अविश्वासी बन जाते हैं। आप अंत तक विश्वास रखें, फिर भी आपको परमेश्वर स्वीकृति नहीं देगा। संगति के जरिए, उस बहन को एहसास हुआ कि उसका नजरिया गलत था, वो फिर से सभाओं में आना चाहती थी। जब मैंने उन तमाम नए विश्वासियों को सभाओं में शामिल होने के लिए लौटते देखा, तो अपने किए पर पछतावा हुआ, बहुत बुरा लगा। मैं बस मनमानी से लोगों को त्याग रही थी। मैंने उन सबके उद्धार के मौके लगभग नष्ट कर दिए, यह एक बड़ा कुकर्म होता।

एक दिन, अगुआ ने मुझसे पूछा, "सिंचन कार्य संभालने के बाद से, आपने अपनी गैरजिम्मेदारी से कितने नए सदस्यों को छोड़कर जाने दिया? उन्हें त्यागते समय क्या आपने सत्य के सिद्धांत खोजे?" मुझे समझ नहीं आया क्या कहूँ। उन्होंने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा : "चाहे तुम कुछ भी करो, तुम्हें सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि तुम इसे क्यों कर रहे हो, वह कौन सी मंशा है जो तुम्हें ऐसा करने के लिए निर्देशित करती है, तुम्हारे ऐसा करने का क्या महत्व है, मामले की प्रकृति क्या है, और क्या तुम जो कर रहे हो वह कोई सकारात्मक चीज़ है या कोई नकारात्मक चीज़ है। तुम्हें इन सभी मामलों की एक स्पष्ट समझ अवश्य होनी चाहिए; सिद्धान्त के साथ कार्य करने में समर्थ होने के लिए यह बहुत आवश्यक है। यदि तुम अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए कुछ कर रहे हो, तो तुम्हें यह विचार करना चाहिए : मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे करना चाहिए, ताकि मैं इसे बस लापरवाही से न करूँ? इस मामले में तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। परमेश्वर से प्रार्थना करना सत्य, अभ्यास करने का तरीका, परमेश्वर का इरादा और परमेश्वर को संतुष्ट करने का तरीका खोजने के लिए है। प्रार्थना ये प्रभाव प्राप्त करने के लिए है; वह कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं है। इसी तरह तुम जो कुछ भी करते हो उसमें परमेश्वर के करीब आया जाता है। इसमें कोई धार्मिक अनुष्ठान या बाहरी क्रिया-कलाप करना शामिल नहीं है। यह परमेश्वर की इच्छा को खोजने के बाद सत्य के अनुसार अभ्यास करने के उद्देश्य से किया जाता है। अगर तुम उस समय हमेशा कहते हो 'परमेश्वर को धन्यवाद', जब तुमने कुछ नहीं किया होता, और तुम बहुत आध्यात्मिक और गहरी पहुँच रखने वाले लग सकते हो, लेकिन अगर कार्य करने का समय आने पर भी तुम जैसा चाहते हो वैसा ही करते हो, सत्य की खोज बिलकुल नहीं करते, तो यह 'परमेश्वर का धन्यवाद' एक मंत्र से ज्यादा कुछ नहीं है, यह झूठी आध्यात्मिकता है। अपना कर्तव्य करते समय या किसी चीज़ पर कार्य करते समय, तुम्हें हमेशा सोचना चाहिए: 'मुझे यह कर्तव्य कैसे पूरा करना चाहिए? परमेश्वर की इच्छा क्या है?' जो भी तुम करते हो उसके द्वारा परमेश्वर के करीब जाना तुम्हारा काम है; और ऐसा करने में अपने कार्यों के लिए सिद्धांतों और सत्य की तलाश करना, अपने दिल में परमेश्वर की इच्छा की तलाश करना, जो भी तुम करते हो उसमें परमेश्वर के वचनों या सत्य के सिद्धांतों से न भटकना : केवल ऐसा करने वाला व्यक्ति ही वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करता है। लोग चाहे कुछ भी करें, अगर वे अपने ही विचारों का पालन करते हैं, और चीजों को अत्यधिक एकांगी तरीके से समझते हैं, और जैसा चाहते हैं वैसा ही करते हैं, और सिद्धांत का पूर्ण अभाव होने पर सत्य की तलाश भी नहीं करते, और अपने दिल में इस पर कोई विचार नहीं करते कि परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार या उस तरीके से कैसे कार्य करें जो परमेश्वर को संतुष्ट करता है, और केवल हठपूर्वक अपनी ही इच्छा का पालन करना जानते हैं, तो परमेश्वर के लिए उनके दिल में कोई स्थान नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं, 'जब मेरे सामने कठिनाई आती है, तो मैं केवल परमेश्वर से ही प्रार्थना करता हूँ, लेकिन फिर भी ऐसा नहीं लगता कि इसका कोई प्रभाव होता है—इसलिए आम तौर पर अब जब मेरे साथ कुछ घटता है, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करता, क्योंकि परमेश्वर से प्रार्थना करना बेकार है।' ऐसे लोगों के दिलों से परमेश्वर बिल्कुल नदारद होता है। अधिकांश समय वे सत्य की तलाश नहीं करते, फिर चाहे वे कुछ भी कर रहे हों; वे केवल अपने विचारों का ही पालन करते हैं, और जैसा चाहते हैं वैसा ही करते हैं। तो क्या उनके कार्यों के सिद्धांत हैं? निश्चित रूप से नहीं। वे सब-कुछ एकांगी तरीके से देखते हैं और जैसा चाहते हैं, वैसा ही करते हैं। यहाँ तक कि जब लोग उनके साथ सत्य के सिद्धांतों की संगति करते हैं, तो वे उन्हें स्वीकार नहीं कर पाते, क्योंकि उनके कार्यों में कभी कोई सिद्धांत नहीं रहा होता, और उनके हृदय में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं होता; उनके हृदय में उनके सिवा कोई नहीं होता। उन्हें लगता है कि उनके इरादे नेक हैं, कि वे बुराई नहीं कर रहे, कि उनके इरादों को सत्य का उल्लंघन करने वाला नहीं माना जा सकता, उन्हें लगता है कि अपने इरादों के अनुसार कार्य करना सत्य का अभ्यास करना है, कि इस प्रकार कार्य करना परमेश्वर का आज्ञापालन करना है। वस्तुत:, इस मामले में वे वास्तव में परमेश्वर की तलाश या उससे प्रार्थना नहीं कर रहे, उन्होंने परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं का पालन करने की पूरी कोशिश नहीं की है, उनकी यह वास्तविक स्थिति, यह इच्छा नहीं है। लोगों के अभ्यास में यह सबसे बड़ी गलती होती है। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और फिर भी वह तुम्हारे दिल में नहीं है, तो क्या तुम परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश नहीं कर रहे? और परमेश्वर में ऐसी आस्था का क्या परिणाम हो सकता है? तुम इससे क्या हासिल कर सकते हो? और परमेश्वर में ऐसी आस्था का क्या मतलब है?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर की इच्छा को खोजना सत्य के अभ्यास के लिए है')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी असल दशा और व्यवहार का खुलासा किया। उन नए विश्वासियों को जाने देते हुए मैंने न प्रार्थना की, न सत्य खोजा, न ही अगुआ से चर्चा की। मैंने बस अनुभव के भरोसे काम किया, मैं पहले भी नए सदस्यों का सिंचन कर चुकी हूँ, महीनों तक सभाओं में न आने पर, हम उन्हें जाने देते हैं, अब जब ये लोग लौट कर नहीं आए, तो क्या मुझे वैसा ही नहीं करना चाहिए? मुझे लगा, कि मैं साफ़ तौर पर जानती हूँ कि कौन लोग सत्य नहीं खोजते या गैर-विश्वासी हैं, इसलिए मैंने यूं ही उन्हें दायरे में बाँध कर ठुकरा दिया। इसे लेकर बेचैन होने पर भी मैंने प्रार्थना या खोज नहीं की, मेरी साथी ने मामला उठाया तब भी, मैंने ध्यान नहीं दिया, और मनमानी की। मैंने अपनी धारणाओं और कल्पनाओं को सत्य के सिद्धांत जैसा माना, सोचा, मैं गलत नहीं हो सकती। मैंने न तो लोगों का ख्याल किया और न ही परमेश्वर को अपने दिल में रखा। मैं बहुत ज्यादा मनमानी कर रही थी! नए विश्वासियों में सच्ची आस्था है या नहीं, इसका फैसला मैं उनके सभाओं में आने-न-आने से किया, लगा कि अगर वे कुछ समय तक नहीं आए, और आगे भी नहीं आएंगे, तो हम उन्हें छोड़ सकते हैं। भले ही वे सभाओं में नहीं आते थे, मगर मुझे गैर-विश्वासियों और सच्चे विश्वासियों के बीच भेद करना चाहिए था। मैंने जिन्हें निकाल दिया, उनमें से कुछ बस अपने परिवार वालों की बात मान रहे थे, जो चाहते थे कि वे विश्वासी बनें, मगर जिनका दिल इसमें नहीं था। उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़ना या सभाओं में जाना पसंद नहीं था। कुछ लोग तो शोहरत, दौलत, और बुरे रुझानों के पीछे भाग रहे थे। उन्हें परमेश्वर के अनुसरण में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी। परमेश्वर के वचनों पर संगति करने से उन्हें घृणा थी, वे उसका प्रतिरोध करते थे। इन लोगों की प्रकृति सत्य से घृणा करने की है, इसलिए वे सहज रूप से गैर-विश्वासी हैं। जब ऐसे लोग सभाओं में नहीं आते, तो हम उन्हें छोड़ सकते हैं। कुछ नए सदस्य अच्छी इंसानियत और सच्ची आस्था वाले होते हैं, मगर अभी-अभी शामिल होने के कारण, सत्य या सभाओं के मायने नहीं समझते। उन्हें लगता है मन से परमेश्वर में विश्वास रखना काफी है, सभाएं जरूरी नहीं, इसलिए वे इन्हें बेकार मानते हैं, जब आ सकें, आ जाते हैं, वरना छोड़ देते हैं। कुछ लोग, काम और सभा के समय में टकराव जैसी व्यावहारिक दिक्कतों में फंस जाते हैं, इसलिए नहीं आना चाहते। दरअसल हमें संगति करके स्नेह से उनकी मुश्किलों में मदद करनी चाहिए, परमेश्वर के वचनों द्वारा उनकी धारणाएं सुलझाकर मनुष्य को बचाने की उसकी इच्छा समझानी चाहिए, साथ ही उनके समय के अनुसार सभा का समय तय करना चाहिए। मैं उनके वास्तविक हालात या काम में सिद्धांत पर चलने के बीच फर्क नहीं कर रही थी। मैं सत्य समझे बिना अड़ियल होकर मनमानी कर रही थी, बस बेपरवाही से एक-के-बाद-एक सदस्य को बाहर धकेल रही थी। कुकर्म कर रही थी, परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में बाधा डाल रही थी।

परमेश्वर अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने वाले हर नए विश्वासी के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकाता है। भाई-बहनों ने भी सब्र और स्नेह से उनके साथ कई बार सुसमाचार साझा किया, लेकिन मैंने सत्य खोजे बिना, ये मान लिया कि परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा, मैंने उन्हें दायरे में बाँध दिया। मैं सचमुच बहुत ही अहंकारी थी। सभाओं में न आने की समस्या उनकी नहीं थी, बल्कि इसलिए थी कि मैंने उनकी दिक्कत नहीं समझी, उनका साथ देकर जो मदद करनी थी, वो मैं नहीं कर रही थी। नए सदस्यों को छोड़ने के लिए मैंने बहाने बनाते हुए कहा कि परमेश्वर बढ़िया लोग चाहता है, ज्यादा लोग नहीं। मगर इस बयान का असल अर्थ यह है कि परमेश्वर के राज्य को ऐसे लोग चाहिए जो उसमें सच्चा विश्वास रखते हों, सत्य से प्रेम करते हों, परमेश्वर गैर-विश्वासियों, दुराचारियों और मसीह-विरोधियों को नहीं बचाएगा। पर मुझे लगा कि सभाओं में न आने वाले नए विश्वासियों को परमेश्वर नहीं बचाएगा। मैं उसके वचनों का गलत अर्थ लगा रही थी। मैंने कोई व्यावहारिक संगति नहीं की, मदद नहीं की, कीमत नहीं चुकाई, वह नहीं किया, जो करना चाहिए था। मैंने यह भी नहीं समझा कि उन्हें सच में सत्य की परवाह है या नहीं, या वे सच में गैर-विश्वासी हैं या नहीं, बल्कि मैंने आँखें बंद करके, सिरे से उन्हें ठुकरा दिया। अगर अगुआ ने मेरी काट-छाँट और मेरा निपटान न किया होता, तो समझ ही नहीं पाती कि मैं उन सबका उद्धार का मौका तबाह कर रही थी। मैंने समझ लिया कि मेरा बर्ताव कितना घृणापूर्ण था। मैं सिद्धांत नहीं जानती थी, कोई खोज नहीं की, बस शैतानी स्वभाव से ये सब करती रही। ये सब अपराध थे! मैं जानती थी अगर प्रायश्चित करके नहीं बदली तो परमेश्वर यकीनन मुझसे घृणा करेगा।

एक कलीसिया अगुआ के नाते, मेरे लिए परमेश्वर की इच्छा है कि मैं आस्था में नए भाई-बहनों का सिंचन और पोषण करूँ, ताकि उनकी धारणाएँ और समस्याएँ सुलझाई जा सकें, वे परमेश्वर के कार्य के बारे में जानकर सच्चे मार्ग पर अपने पाँव जल्द जमा सकें। लेकिन मैं तो मनमानी कर रही थी। मैं न सिर्फ मनमर्जी कर रही थी, बल्कि अंधों की अगुआई करने वाली अंधी बनकर, दूसरों को भटका रही थी, जिससे भाई-बहन भी नए विश्वासियों को ठुकराकर, उद्धार का उनका मौका तबाह कर रहे थे। मैं कुकर्म कर रही थी। मनमानी के गंभीर परिणामों के बारे में समझकर, मैं बहुत डर गई। मैं खुद से भी घृणा करने लगी। उस वक्त मैंने परमेश्वर से प्रार्थना क्यों नहीं की, सत्य के सिद्धांत क्यों नहीं खोजे? मैं अगुआ के पास क्यों नहीं गई? मैंने ऐसा अक्खड़पन क्यों दिखाया? मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, फिर उसके वचनों का एक अंश पढ़ा। "अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुमको दिखावे में रखवाएंगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हें खुद को अन्य लोगों और परमेश्वर से श्रेष्ठ समझने के लिए मजबूर करेंगे, और अंतत: तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुम्हारे विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजें। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। मैं यह कई बार पढ़ चुकी थी, लेकिन इस अनुभव के बाद इसने सच में मुझे छू लिया। मै कुछ ही समय से कलीसिया अगुआ थी और मैं सत्य की वास्तविकता नहीं जानती थी। मैं सत्य के बहुत-से सिद्धांत भी नहीं समझती थी, फिर भी खुद को तेज मानती थी, मानो सब-कुछ समझती हूँ। नए विश्वासियों की मैंने सिर्फ करनी देखी, उनका सार नहीं देखा। मैं खुद को खास भी मानती थी, इसलिए न प्रार्थना की, न सत्य खोजा, न ही अगुआ से बात की, न ही अपने साथी की सलाह मानी। मैं बहुत ज्यादा अहंकारी थी। मेरे अगुआ ने सिद्धांत न समझने और सत्य न खोजने पर मेरी आलोचना की, वह सौ फीसदी सही थीं। नए विश्वासियों से कैसे पेश आएं इस बारे में बहुत-से सिद्धांत हैं, जैसे कि स्नेह से मदद करने का सिद्धांत, निष्पक्ष बर्ताव करने का सिद्धांत। उनकी धारणाओं को ठीक करने के सिद्धांत, आदि। अगर मेरे मन में परमेश्वर के प्रति जरा भी श्रद्धा होती, खुद पर इतना विश्वास न करती, और इन सिद्धांतों पर विचार किया होता, तो मैं अपने काम में कभी इतनी अड़ियल बनकर बाधा न डालती। मुझे एहसास हुआ कि अहंकारी स्वभाव के साथ जीने के कारण मैं कुकर्म कर रही थी, परमेश्वर का प्रतिरोध कर रही थी। मुझे खुद से और घृणा हुई, लगा कि मैं सचमुच उसके धिक्कार के लायक हूँ। मैंने शपथ ली कि मुझे अपने अहंकारी स्वभाव को ठीक करने के लिए सत्य खोजना होगा।

इसके बाद मैंने कुछ और अंश पढ़े। "अपने कार्य में, कलीसिया के अगुवाओं और कार्यकर्ताओं को दो चीज़ों पर ध्यान अवश्य देना चाहिए : एक यह कि उन्हें ठीक कार्य प्रबंधनों के द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार ही कार्य करना चाहिए, उन सिद्धांतों का कभी भी उल्लंघन नहीं करना चाहिए, और अपने कार्य को अपने विचारों या ऐसी किसी भी चीज़ के आधार पर नहीं करना चाहिए जिसकी वे कल्पना कर सकते हैं। जो कुछ भी वे करें, उन्हें परमेश्वर के घर के कार्य के लिए परवाह दिखानी चाहिए, और हमेशा इसके हित को सबसे पहले रखना चाहिए। दूसरी बात, जो बेहद अहम है, वह यह है कि जो कुछ भी वे करें उसमें पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन का पालन करने के लिए ध्यान अवश्य केन्द्रित करना चाहिए, और हर काम परमेश्वर के वचनों का कड़ाई से पालन करते हुए करना चाहिए। यदि तुम तब भी पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के विरुद्ध जा सकते हो, या तुम जिद्दी बनकर अपने विचारों का पालन करते हो और अपनी कल्पना के अनुसार कार्य करते हो, तो तुम्हारे कृत्य को परमेश्वर के प्रति एक अति गंभीर विरोध माना जाएगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कार्य के मुख्य सिद्धांत')। "अगर तुमने कुछ ऐसा किया है, जो सत्य के सिद्धांतों का उल्लंघन और परमेश्वर को अप्रसन्न करता है, तो तुम्हें आत्मचिंतन करके खुद को जानने की कोशिश कैसे करनी चाहिए? जब तुम उसे करने जा रहे थे, तब क्या तुमने उससे प्रार्थना की थी? क्या तुमने कभी यह सोचा, 'यदि यह बात परमेश्वर के सामने लाई जाएगी, तो उसे कैसी लगेगी? अगर उसे इसका पता चलेगा, तो वह खुश होगा या कुपित? क्या वह इससे घृणा करेगा?' तुमने यह जानने की कोशिश नहीं की, है ना? यहाँ तक कि अगर दूसरे लोगों ने तुम्हें याद भी दिलाया, तो तुम तब भी यही सोचोगे कि यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, और यह किसी भी सिद्धांत के खिलाफ नहीं जाता और न ही कोई पाप है। परिणामस्वरूप, तुमने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज़ कर दिया और उसे बहुत क्रोध करने के लिए उकसाया, इस हद तक कि उसे तुमसे नफ़रत हो जाए। यदि तुमने जानने की कोशिश की होती और जाँच की होती, और करने से पहले मामले को स्पष्ट रूप से देखा होता, तो क्या तुम इसे सँभाल न पाते? भले ही ऐसा भी समय आ सकता है जब लोगों की स्थिति अच्छी न हो, या नकारात्मक हो, लेकिन अगर वे जो कुछ करने की योजना बना रहे हैं, उसे प्रार्थना में पहले निष्ठापूर्वक परमेश्वर के सामने ले आते हैं, और फिर परमेश्वर के वचनों के आधार पर सत्य खोजते हैं, तो वे कोई बड़ी भूल नहीं करेंगे। सत्य का अभ्यास करते समय लोगों के लिए भूल करने से बचना कठिन होता है, लेकिन अगर चीज़ों को करते समय तुम जानते हो कि उन्हें सत्य के अनुसार कैसे करना है, लेकिन फिर भी तुम उन्हें सत्य के अनुसार नहीं करते, तो फिर समस्या यह है कि तुम्हें सत्य से कोई प्रेम नहीं है। सत्य के प्रति प्रेम से रहित व्यक्ति का स्वभाव नहीं बदलेगा। यदि तुम परमेश्वर की इच्छा को ठीक से नहीं समझ पाते, और नहीं जानते कि अभ्यास कैसे करना है, तो तुम्हें दूसरों के साथ सहभागिता करनी चाहिए और सत्य की खोज करनी चाहिए। और अगर दूसरे भी संघर्ष कर रहे हों, तो तुम्हें साथ मिलकर प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर से जानने की कोशिश करनी चाहिए, परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करते हुए इस बात का इंतजार करना चाहिए कि वह निकलने का कोई रास्ता खोले। तुम भी अच्छी तरह से कोई समाधान निकाल सकते हो, जो तुम्हें निकलने का अच्छा रास्ता दे दे, और यह पवित्र आत्मा के प्रबोधन से हो सकता है। यदि तुम्हें अंततः यह पता चले कि इसे इस तरह से करने में तुमने थोड़ी-सी भूल कर दी है, तो तुम्हें जल्दी से उसे सही कर लेना चाहिए, और तब परमेश्वर इस भूल को पाप के रूप में नहीं गिनेगा। चूँकि इस मामले को व्यवहार में लाते समय तुम्हारे इरादे सही थे, और तुम सत्य के अनुसार अभ्यास कर रहे थे और केवल स्पष्ट रूप से सिद्धांतों को नहीं जानते थे, और तुम्हारे कार्यों के परिणामस्वरूप कुछ भूलें हो गईं, तो यह एक अपराध घटाने वाली परिस्थिति थी। किंतु, आजकल बहुत-से लोग काम करने के लिए केवल अपने दो हाथों पर, और बहुत-कुछ करने के लिए केवल अपने मन पर भरोसा करते हैं, और वे शायद ही कभी इन सवालों पर कोई विचार करते हैं : क्या इस तरह से अभ्यास करना परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है? अगर मैं इसे इस तरह से करूँगा, तो क्या परमेश्वर खुश होगा? अगर मैं इसे इस तरह से करूँगा, तो क्या परमेश्वर मुझ पर भरोसा करेगा? अगर मैं इसे इस तरह से करूँगा, तो क्या मैं सत्य को अभ्यास में लाऊँगा? यदि परमेश्वर इसके बारे सुनेगा, तो क्या वह कह सकेगा, 'तुमने यह सही तरह से और उपयुक्त तरीके से किया है। इसे जारी रखो'? क्या तुम अपने हर काम की सावधानीपूर्वक जाँच करने में सक्षम हो? क्या इस बात की संभावना है कि तुम अपने हर काम पर चिंतन करने के लिए परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं का आधार के रूप में उपयोग करो, इस बात पर विचार करो कि इस प्रकार कार्य करना परमेश्वर को प्रिय है या वह इससे घृणा करता है, और जब तुम ऐसा करोगे तो परमेश्वर के चुने हुए लोग क्या सोचेंगे, वे इसका मूल्यांकन किस रूप में करेंगे? ... जब तुम ऐसी बातों पर विचार करने, अपने आपसे ये प्रश्न पूछने और खोजने में अधिक समय व्यतीत करोगे, तो तुम्हारी गलतियाँ छोटी से छोटी होती जाएँगी। चीज़ों को इस तरह करना यह साबित करेगा कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो, जो वास्तव में सत्य की तलाश करता है और तुम एक ऐसे व्यक्ति हो, जो परमेश्वर के प्रति श्रद्धा रखता है, क्योंकि तुम चीज़ों को उस निर्देशन के अनुसार कर रहे हो जो परमेश्वर द्वारा अपेक्षित है और सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर की इच्छा को खोजना सत्य के अभ्यास के लिए है')

उसके वचनों ने मुझे अभ्यास का रास्ता दिखाया। अगुआओं और कर्मियों को कार्य व्यवस्थाओं और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार ही काम करना चाहिए, हमेशा पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन का पालन करना चाहिए। हमें अपने काम में प्रार्थना और खोज भी करनी चाहिए, मन में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा रखनी चाहिए, अपने विचारों, धारणाओं या पुराने अनुभवों पर नहीं चलना चाहिए, मनमानी नहीं करनी चाहिए। हम आँख बंद करके खुद के भरोसे नहीं रह सकते, बल्कि हमें सत्य के सिद्धांत खोजने चाहिए, जब कोई बात समझ न आए, तो पहले सिद्धांत समझने के लिए दूसरों के साथ खोजना और संगति करनी चाहिए। यही है परमेश्वर की इच्छा। इस अनुभव से मैंने सबक सीखा। अगर परमेश्वर ने ऐसा माहौल बनाकर अगुआ से मेरी आलोचना न करवाई होती, तो अब भी नहीं समझ पाती कि मेरी करनी के परिणाम कितने गंभीर होंगे। मैंने खुद से कहा, अब से मुझे सत्य खोजना है, सिद्धांतों के आधार पर अपना काम करना है। बाद में, कुछ नए सदस्यों ने सभाओं में आना बंद कर दिया, लेकिन मैंने उनके बारे में राय बनाकर लापरवाही से उन्हें ठुकराया नहीं। उनमें से एक का हमने कई बार साथ देने की कोशिश की, उसकी हालत के बारे में अगुआ से भी बात की। जब हमें यकीन हो गया कि वह गैर-विश्वासी है, तो हमने उसे जाने दिया। एक और बहन थी जो करीब दो साल से परमेश्वर में विश्वास कर रही थी, उसे परमेश्वर के वचन पढ़ना पसंद था, वो पूरी लगन से काम करती थी, जब वह लोगों का न्याय कर भ्रष्टता उजागर करने वाले वचन पढ़ती, तो उनसे अपनी तुलना करती, उसे लगता कि वह बहुत ज्यादा भ्रष्ट है, तो उसने छोड़ देना चाहा। हमने साथ मिलकर उससे परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति की, ताकि वह समझ सके कि परमेश्वर का उद्धार उनके लिए है जिन्हें शैतान भ्रष्ट कर चुका है, परमेश्वर हमारी दिक्कतों और कमजोरियों को वैसे ही समझता है, जैसे एक माँ समझती है, अगर हम सत्य का अनुसरण करते रहें तो परमेश्वर हमारा त्याग नहीं करेगा, क्योंकि वो मनुष्य को यथासंभव बचाता है। हमारी बात सुनकर उसकी आँखों में आंसू आ गए, वह परमेश्वर का प्रेम महसूस कर सकी। हमने कई बार उसकी मदद की, वह अब फिर से सामान्य रूप से सभा में आती है।

इस अनुभव ने मुझे भ्रष्ट मनुष्य को बचाने का परमेश्वर का सच्चा इरादा और अपार प्रेम दिखाया है। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना के जरिए, मैं अपने अहंकारी स्वभाव को थोड़ा समझ सकी हूँ, और काम में मनमानी करने के खतरों और परिणामों को देख सकी हूँ। अब मेरे मन में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा है। उसके मार्गदर्शन के कारण अब मैं सिद्धांतों के अनुसार अपना काम कर सकती हूँ। परमेश्वर का धन्यवाद!

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