45. जिम्मेदारी से डरने के छिपे हुए कारण

मैं कलीसिया में सिंचन कार्य की प्रभारी थी। जब अधिक लोगों ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकार लिया, तो हमारी कलीसिया तीन अलग-अलग कलीसियाओं में बँट गई और एक का प्रभारी मुझे बना दिया गया। विभाजन के बाद, मैंने देखा कि नियमित रूप से न आने वाले बहुत से नवागतों को मेरी कलीसिया में भेज दिया गया है। मैंने सोचा, चूंकि हमारे पास सिंचन कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं की कमी है, तो नियमित न आने वाले लोगों के लिए बहुत समय और मेहनत लगेगी। ठीक से सिंचन न होने के कारण अगर वे छोड़ गए, तो भाई-बहन कहीं यह न कहें कि मैं नाकाबिल और अक्षम हूँ। यह बहुत शर्मनाक होगा। तब शायद मेरी काट-छाँट और निपटारा होगा या उनके छोड़ जाने का जिम्मेदार मुझे माना जाएगा। अगर मैं प्रभारी न होकर, मात्र सिंचन कार्यकर्ता होती, तो मुझे वह जिम्मेदारी नहीं उठानी पड़ती। यह दबाव ऐसा लगा मानो मुझ पर कोई भारी बोझ लाद दिया गया हो, इसका बोझ मेरे दिल पर आ गया। अगुआ चाहते थे कि सिंचन कार्य की कमी को दूर करने के लिए हम और भी लोगों को तैयार करें। लेकिन यह देखते हुए कि बहुत से नए विश्वासी ढंग से नहीं आ रहे थे, मुझे यह काम मुश्किल नजर आ रहा था। यह सोचकर कि लोगों को तैयार करने में समय लगेगा, मैं निराश हो गई। उसके बाद, मैं अपने काम में बहुत अधिक निष्क्रिय हो गई। जिन्हें तैयार करना था, उन्हें मैं प्रशिक्षित और सिंचित नहीं कर रही थी, इससे हमारे काम को नुकसान पहुंचा। बेचैनी और अपराध-बोध के चलते, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरा आध्यात्मिक कद नहीं है। नई कलीसिया की कठिनाइयाँ और समस्याएँ देखते हुए, मैं भाग जाना चाहती हूँ। मैं जानती हूँ यह तेरी इच्छा नहीं है। मुझे मार्गदर्शन दे ताकि आत्मचिंतन कर मैं अपनी त्रुटिपूर्ण स्थिति को बदल सकूँ और इस काम को कर सकूं।”

मैंने अपनी भक्ति में परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए जिम्मेदारी उठाने से डरते हैं। यदि कलीसिया उन्हें कोई काम देती है, तो वे पहले इस बात पर विचार करेंगे कि इस कार्य के लिए उन्हें कहीं उत्तरदायित्व तो नहीं उठाना पड़ेगा, और यदि उठाना पड़ेगा, तो वे उस कार्य को स्वीकार नहीं करेंगे। किसी काम को करने के लिए उनकी शर्तें होती हैं, जैसे सबसे पहले, वह काम ऐसा होना चाहिए जिसमें मेहनत न हो; दूसरा, वह व्यस्त रखने या थका देने वाला न हो; और तीसरा, चाहे वे कुछ भी करें, उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। इन शर्तों के साथ वे कोई काम हाथ में लेते हैं। ऐसा व्यक्ति किस प्रकार का होता है? क्या ऐसा व्यक्ति धूर्त और कपटी नहीं होता? वह छोटी से छोटी जिम्मेदारी भी नहीं उठाना चाहता। जब पेड़ों से पत्ते भी झड़ते हैं तो उसे डर लगता है कि कहीं आसमान न गिर जाए। ऐसा व्यक्ति क्या काम कर सकता है? परमेश्वर के घर में ऐसे व्यक्ति का क्या उपयोग हो सकता है? परमेश्वर के घर का कार्य शैतान से युद्ध करने के कार्य के साथ-साथ राज्य के सुसमाचार का प्रसार करना होता है। ऐसा कौन-सा काम है जिसमें उत्तरदायित्व न हो? क्या तुम लोग कहोगे कि एक अगुआ होना जिम्मेदारी का काम है? क्या उनकी जिम्मेदारियाँ और भी बड़ी नहीं होतीं, क्या उन्हें और भी ज्यादा जिम्मेदारी नहीं उठानी चाहिए? तुम सुसमाचार का प्रसार करते हो, गवाही देते हो, वीडियो बनाते हो, वगैरह-वगैरह। वास्तव में, तुम जो कार्य करते हो, चाहे वह कुछ भी हो, अगर वह सत्य के सिद्धांतों से संबंधित है, तो उसमें उत्तरदायित्व है। यदि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में कोई सिद्धांत नहीं हैं, तो उसका असर परमेश्वर के घर के कार्य पर पड़ेगा, और यदि तुम जिम्मेदारी उठाने से डरते हो, तो तुम कोई काम नहीं कर सकते। अगर किसी को कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी लेने से डर लगता है तो क्या वह कायर है या उसके स्वभाव में कोई समस्या है? तुम्हें अंतर बताने में समर्थ होना चाहिए। दरअसल, यह कायरता का मुद्दा नहीं है। यदि वह व्यक्ति धन के पीछे भाग रहा है, या वह अपने हित में कुछ कर रहा है, तो वह इतना बहादुर कैसे हो सकता है? वह कोई भी जोखिम उठा लेगा। लेकिन जब वह कलीसिया के लिए, परमेश्वर के घर के लिए काम करता है, तो वह कोई जोखिम नहीं उठाता। ऐसे लोग स्वार्थी, नीच और बेहद कपटी होते हैं। कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी न उठाने वाला व्यक्ति परमेश्वर के प्रति जरा भी ईमानदार नहीं होता, उसकी वफादारी की क्या बात करना। किस तरह का व्यक्ति जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत करता है? किस प्रकार के इंसान में भारी बोझ वहन करने का साहस है? जो व्यक्ति अगुआई करते हुए परमेश्वर के घर के काम के महत्वपूर्ण पलों में बहादुरी से आगे बढ़ता है, जो अहम और अति महत्वपूर्ण कार्य देखकर बड़ी जिम्मेदारी उठाने और मुश्किलें सहने से नहीं डरता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार होता है, मसीह का अच्छा सैनिक होता है। क्या बात ऐसी है कि लोग कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने से इसलिए डरते हैं, क्योंकि उन्हें सत्य की समझ नहीं होती? नहीं; समस्या उनकी मानवता में होती है। उनमें न्याय या जिम्मेदारी की भावना नहीं होती। वे स्वार्थी और नीच लोग होते हैं, वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं होते। वे सत्य जरा भी नहीं स्वीकारते और इन कारणों से उन्हें बचाया नहीं जा सकता। परमेश्वर के विश्वासियों को सत्य हासिल करने के लिए बहुत भारी कीमत चुकानी ही होगी, उसे अभ्यास में लाने के लिए उन्हें बहुत-सी कठिनाइयों से गुजरना होगा। उन्हें बहुत-सी चीजों का त्याग करना होगा, दैहिक-सुखों को छोड़ना होगा और कष्ट उठाने पड़ेंगे। तब जाकर वे सत्य का अभ्यास करने योग्य बन पाएंगे। तो, क्या जिम्मेदारी लेने से डरने वाला इंसान सत्य का अभ्यास कर सकता है? यकीनन नहीं कर सकता, सत्य हासिल करना तो दूर की बात है। वह सत्य का अभ्यास करने और अपने हितों को होने वाले नुकसान से डरता है; उसे अपमानित और उपेक्षित होने का डर होता है, उसे आलोचना का डर होता है। वह सत्य का अभ्यास करने की हिम्मत नहीं कर पाता, इसलिए उसे सत्य हासिल नहीं होता। परमेश्वर में उसका विश्वास चाहे जितना पुराना हो, वह उसका उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों में जो प्रकट हुआ उसने मुझे बेचैन कर दिया। परमेश्वर कहता है कि जो लोग अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने से डरते हैं, वे बेहद स्वार्थी, नीच और धोखेबाज होते हैं। वे न तो सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, न ही उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। मैं उसी तरह पेश आ रही थी। जब मैंने देखा कि बहुत-से नवागत नियमित नहीं आ रहे हैं और प्रशिक्षण के लिए कुछ ही लोग हैं, तो मैं यह नहीं सोच रही थी कि परमेश्वर की इच्छा पर कैसे विचार किया जाए, सही लोगों को कैसे तैयार किया जाए और नए विश्वासियों का सिंचन कैसे हो, ताकि वे जल्द से जल्द सच्चे मार्ग पर अपने पैर जमा सकें। मैं उन्हें बोझ समझ रही थी और सोच रही थी कि उन्हें तैयार करने में कितना समय और मेहनत लगेगी, अगर मैंने यह काम अच्छे से नहीं किया, तो लोग मुझे हिकारत से देखेंगे। मेरी काट-छाँट और निपटारा किया जाएगा और अगर मामला गंभीर हुआ तो मुझे जिम्मेदार ठहराया जाएगा। मुझे वह काम थकाऊ लगा जिसका शायद कोई परिणाम न निकले, इसलिए मन में प्रतिरोध था। मजबूरन कर तो रही थी, लेकिन उसे लेकर मैं निष्क्रिय थी। मेरे गैर-जिम्मेदाराना रवैये के कारण लोग प्रशिक्षित नहीं किए जा सके, जबकि कुछ ने नियमित तौर पर आना बंद कर दिया। अंत के दिनों का परमेश्वर का सुसमाचार अब तेजी से फैल रहा है, और अधिक लोग परमेश्वर की ओर मुड़ रहे हैं। परमेश्वर की उत्कट इच्छा है कि नए विश्वासियों का सिंचन अच्छे से हो और उन्हें सहारा दिया जाए, लेकिन मुझे परमेश्वर की इच्छा की नहीं, अपने हितों की चिंता थी। मुझे नवागतों के जीवन की भी चिंता नहीं थी। परमेश्वर की नजर में मैं बेहद स्वार्थी और निराशाजनक थी! मैंने देखा कि बाकी नई कलीसियाओं में, लोग कलीसिया के काम को आगे बढ़ा रहे हैं, वे अपने लाभ-हानि के बारे में नहीं सोच रहे। तमाम मुश्किलों के बावजूद, वे नए विश्वासियों के सिंचन के लिए जी-जान लगा रहे हैं। वे अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित सच्चे विश्वासी हैं। मैं लज्जित और अपमानित महसूस कर रही थी। मुझे अपने हितों के बारे में सोचना छोड़कर कलीसिया के काम को कायम रखना था। मुझे इस जिम्मेदारी को अपने कंधों पर लेकर जी-जान से नवागतों का सिंचन करना था। उसके बाद मैंने सक्रिय रूप से सहयोग करना शुरू कर दिया और जिन लोगों को तैयार किया जा सकता था, उनका सिंचन करने का प्रयास करने लगी। परमेश्वर की इच्छा को समझ लेने पर वे भी अपने कर्तव्य में सक्रिय हो गए। हम मिलजुलकर काम करते और नए विश्वासियों को सहारा देते। कुछ समय बाद, काफी नवागत नियमित रूप से आने लगे। मैं बहुत खुश थी और परमेश्वर की आभारी थी।

लेकिन जल्दी ही, मैं फिर से उसी स्थिति में जा पहुँची। एक दिन, अगुआ ने मुझसे कहा, “शुइयुआन कलीसिया नई-नई बनी है। बहुत से नए विश्वासी ठीक से एकत्रित नहीं हो रहे हैं और उनके पास अच्छे सिंचन-कर्ताओं की कमी है। काम धीमा चल रहा है। वह कलीसिया तुम्हें सौंप देते हैं।” जब अगुआ ने यह कहा, तो मुझे लगा इस स्थिति के पीछे परमेश्वर की इच्छा है। पिछली बार जब कलीसिया का विभाजन हुआ था, तो मैं जिम्मेदारी लेने से डर रही थी, जिससे कलीसिया के काम में देरी हुई। इस बार मुझे समर्पित होकर अपना काम ठीक से करना है। लेकिन शुइयुआन कलीसिया की मौजूदा हालत देखकर मैं डगमगा गई। मैं जिस कलीसिया की प्रभारी थी, उसने अभी बेहतर करना शुरू ही किया था और बहुत से काम करने बाकी थे। दूसरी कलीसिया का काम हाथ में लेना यानी बहुत समय और मेहनत लगाना। अगर मैं ठीक से शुइयुआन को न संभाल पाई और अपनी वर्तमान कलीसिया के काम की देखभाल भी न कर सकी, तो लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? एक कलीसिया का प्रबंधन तो इतना मुश्किल नहीं है, मैं अपना काम अच्छे से करने पर ध्यान दे सकती हूँ। तब हर कोई मुझे आदर से देखेगा और शायद मुझे प्रमोशन भी मिल जाए। यह सोचकर, मुझे लगा शुइयुआन कलीसिया को संभालना बहुत मुश्किल होगा। उससे मुझे कोई फायदा नहीं होगा, इसलिए मैं उसे स्वीकार नहीं करना चाहती थी। लेकिन अगर मैंने मना कर दिया और किसी दूसरे ने भी नहीं संभाला, तो कलीसिया का काम प्रभावित होगा। मन में दुविधा थी। अगुआ ने मेरी दुविधा देखकर परमेश्वर के वचनों का एक अंश साझा किया : “यदि तुम किसी खास तरह के काम में बहुत अच्छे हो और दूसरों के मुकाबले उस काम को थोड़े ज्यादा समय से कर रहे हो, तो तुम्हें थोड़े और मुश्किल कार्य सौंपे जाने चाहिए। तुम्हें इसे परमेश्वर से प्राप्त कर उसका पालन करना चाहिए। मीन-मेख निकालते हुए यह कहकर शिकायत मत करो, ‘लोग हमेशा मेरे लिए चीजें मुश्किल क्यों बना देते हैं? वे दूसरों को आसान काम और मुझे मुश्किल काम देते हैं। क्या वे मेरे लिए जीवन कठिन बनाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं?’ इसका क्या मतलब है ‘तुम्हारे जीवन को कठिन बनाने की कोशिश’? कार्य व्यवस्था हर व्यक्ति के अनुरूप होती है—जो सक्षम हैं उन्हें अधिक कार्य करना चाहिए। तुमने बहुत कुछ सीखा है और परमेश्वर ने भी तुम्हें बहुत कुछ दिया है, इसलिए तुम्हें भारी बोझ देना सही है। यह तुम्हारे लिए चीजें कठिन बनाने के लिए नहीं किया गया है, तुम्हें दिया गया बोझ तुम्हारे लिए बिल्कुल सही है : यह तुम्हारा काम है, इसलिए मनचाहा काम चुनने या न कहने या इससे बाहर निकलने का प्रयास न करो। तुम इसे कठिन क्यों समझते हैं? वास्तव में, अगर तुम इसे दिल से करते, तो तुम इसे पूरा करने में पूरी तरह सक्षम होते। तुम्हारा इसे कठिन मानना, मानो तुम्हारे साथ गलत व्यवहार किया जा रहा हो, मानो तुम्हें जानबूझकर परेशान किया जा रहा हो, भ्रष्ट स्वभाव प्रकटीकरण है, यह अपना काम करने से इनकार करना है, और परमेश्वर से प्राप्त करना नहीं है; यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है। जब तुम मनचाहा काम चुनते हो, जो आरामदेह और आसान होता है, जो तुम्हें अच्छा दिखाता है, तो यह शैतान का भ्रष्ट स्वभाव होता है। अगर तुम अपना कर्तव्य स्वीकारने और समर्पण करने में असमर्थ हो, तो यह साबित करता है कि तुम अभी भी परमेश्वर के प्रति विद्रोही हो, कि तुम पलटवार कर रहे हो, अस्वीकार कर रहे हो, टाल रहे हो—जो कि एक भ्रष्ट स्वभाव है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। उस अंश ने मुझे बहुत प्रेरित किया। दूसरी कलीसिया का काम देकर अगुआ मेरे लिए मुश्किलें खड़ी करने की कोशिश नहीं कर रहा था। मैं काफी समय से सिंचन कार्य कर रही थी, तो थोड़ा-सा और त्याग करके मुझे उसका प्रबंधन करने में सक्षम होना चाहिए। मैं स्वार्थी बनकर केवल अपने हितों की सोच रही थी और ज्यादा त्याग नहीं करना चाहती थी। मुझे यह भी डर था कि अगर मैंने अच्छा काम नहीं किया तो मैं बुरी दिखूँगी, इसलिए इच्छा न होने के कारण मैंने उस काम को नकार दिया—मैं बिल्कुल भी आज्ञाकारी नहीं थी। कलीसिया का मुझे नए विश्वासियों के सिंचन जैसा अहम काम सौंपना परमेश्वर का अनुग्रह और उत्कर्ष था। मुझे बिना शर्त उसे स्वीकार कर अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहिए। जिसमें अंतरात्मा और विवेक होगा, वह यही करेगा। परमेश्वर पर भरोसा और उसके साथ सहयोग करने से, परमेश्वर अच्छे से काम करने के लिए मेरा मार्गदर्शन करेगा, यह मुझे पता था। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, और अपनी चिंताएँ दूर कर उस जिम्मेदारी को लेने के लिए तैयार हो गई।

बाद में मैंने आत्म-चिंतन कर खोज की। मैं हमेशा कर्तव्य को ठुकराकर बोझ उठाने से बचना क्यों चाहती थी? मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : “मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कार्य कर रहे हों, वे पहले अपना हित देखते हैं, वे तभी कार्य करते हैं जब वे हर चीज पर अच्छी तरह सोच-विचार कर लेते हैं; वे बिना समझौते के, सच्चाई से, ईमानदारी से और पूरी तरह से सत्य का पालन नहीं करते, बल्कि वे चुन-चुन कर अपनी शर्तों पर ऐसा करते हैं। यह कौन-सी शर्त होती है? शर्त है कि उनका रुतबा और प्रतिष्ठा सुरक्षित रहे, उन्हें कोई नुकसान न हो। यह शर्त पूरी होने के बाद ही वे तय करते हैं कि क्या करना है। यानी मसीह-विरोधी इस बात पर गंभीरता से विचार करते हैं कि सत्य के सिद्धांतों, परमेश्वर के आदेशों और परमेश्वर के घर के कार्य से किस ढंग से पेश आया जाए या उनके सामने जो चीजें आती हैं, उनसे कैसे निपटा जाए। वे इन बातों पर विचार नहीं करते कि परमेश्वर की इच्छा कैसे पूरी की जाए, परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने से कैसे बचा जाए, परमेश्वर को कैसे संतुष्ट किया जाए या भाई-बहनों को कैसे लाभ पहुँचाया जाए; वे लोग इन बातों पर विचार नहीं करते। मसीह-विरोधी किस बात पर विचार करते हैं? वे सोचते हैं कि कहीं उनके अपने रुतबे और प्रतिष्ठा पर तो आँच नहीं आएगी, कहीं उनकी प्रतिष्ठा तो कम नहीं हो जाएगी। अगर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कुछ करने से कलीसिया के काम और भाई-बहनों को लाभ पहुँचता है, लेकिन इससे उनकी अपनी प्रतिष्ठा को नुकसान होता है और लोगों को उनके वास्तविक कद का एहसास हो जाता है और पता चल जाता है कि उनकी प्रकृति और सार कैसा है, तो वे निश्चित रूप से सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करेंगे। यदि व्यावहारिक काम करने से और ज्यादा लोग उनके बारे में अच्छी राय बना लेते हैं, उनका सम्मान और प्रशंसा करते हैं, या उनकी बातों में अधिकार आ जाता है जिससे और अधिक लोग उनके प्रति समर्पित हो जाते हैं, तो फिर वे काम को उस प्रकार करना चाहेंगे; अन्यथा, वे परमेश्वर के घर या भाई-बहनों के हितों पर ध्यान देने के लिए अपने हितों की अवहेलना करने का चुनाव कभी नहीं करेंगे। यह मसीह-विरोधी की प्रकृति और सार है। क्या यह स्वार्थ और नीचता नहीं है?(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन))। “जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। वह प्रकृति विशिष्ट रूप से किस चीज को अपरिहार्य बनाती है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गया है। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे उसे बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति, भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर बन गए हैं, और यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है; कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। मुझे परमेश्वर के वचनों में उत्तर मिल गया। बड़ी जिम्मेदारी से बचने का मुख्य कारण मेरा मसीह-विरोधी स्वभाव था, मैं स्वार्थी और धोखेबाज थी। मैंने हर काम को अपने हितों से जोड़ दिया था, मैं अपने निजी हितों से समझौता नहीं करना चाहती थी। मुझे न परमेश्वर की इच्छा का ख्याल रहा, न कलीसिया के कार्य को सर्वोपरि रखने का। मेरी नई कलीसिया में बहुत से नवागतों के नियमित रूप से न आने से, मुझे लगा कि इसका असर मेरे काम की कामयाबी पर पड़ेगा, जिससे मेरी प्रतिष्ठा धूमिल होगी। जब अगुआ ने मुझसे शुइयुआन कलीसिया की देखरेख करने को कहा, तो मुझे पता था अगर वहाँ के नए विश्वासियों का सिंचन जल्दी नहीं हुआ, तो वे धार्मिक पादरियों के बहकावे में आकर कलीसिया छोड़ सकते हैं। फिर भी, मैं वहाँ सिंचन कार्य नहीं स्वीकारना चाहती थी। मैं अपना नफा-नुकसान तौल रही थी, बस सोच रही थी कि जो काम पहले से मेरे जिम्मे है, उसे ही पूरा करूँ। इस तरह, उतना दबाव नहीं होगा और मुझे ज्यादा कष्ट भी नहीं झेलना पड़ेगा। अगर अंत में मैंने कुछ सफलता पा ली तो मुझे दूसरों की स्वीकृति मिल जाएगी और एक अच्छी छवि बनेगी। मैं इस शैतानी जहर में जी रही थी, “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।” जो भी चीज सामने आती, पहले मैं यही सोचती कि क्या यह मेरी प्रतिष्ठा के लिए अच्छा होगा। अगर मेरे हितों को नुकसान होगा, तो फिर भले ही यह कलीसिया के काम के लिए अच्छा हो, मैं उसे नहीं करना चाहूँगी। मैं प्रतिरोध और इनकार करूंगी, यह परमेश्वर के प्रति सच्चा या समर्पित होना नहीं है। परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने वाले नए लोगों को अभी तक सत्य का पता नहीं था। वे पादरियों के हस्तक्षेप से प्रभावित होकर धोखा खा सकते थे और छोड़ सकते थे, इसलिए कलीसिया ने उनके सिंचन और सहायता का कार्य मुझे सौंपा था। इतने महत्वपूर्ण कार्य की जिम्मेदारी न लेकर, मैंने अपना कर्तव्य नहीं निभाया था, मैं इस बात से डर गई कि अगर मैंने अच्छा काम नहीं किया तो मेरी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाएगी। यह बिल्कुल मसीह-विरोधी जैसा स्वभाव है—स्वार्थी, घिनौना और अपने हित का। मैं पछतावे और ग्लानि से भर गई। मुझे लगा मैं परमेश्वर की ऋणी हूँ, मैं उसके आगे प्रायश्चित करना चाहती थी।

उसके बाद मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े। “वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों का न्याय अच्छे या बुरे के रूप में किया जाता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें अपने विचारों, अभिव्यक्तियों और कार्यों में सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य की वास्तविकता को जीने की गवाही है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो बेशक, तुम एक कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को किस नज़र से देखता है? तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हरा पाते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और ऐसे निशानों से भरे पड़े हैं जिनसे परमेश्वर शर्मिंदा होता है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुम परमेश्वर के लिये अपने आपको खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि तुम अपने फ़ायदे के लिये काम कर रहे हो। ‘अपने फ़ायदे के लिए’, इसका क्या मतलब है? इसका सही-सही मतलब है शैतान के लिये काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, ‘हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।’ परमेश्वर की नज़र में तुमने अच्छे कर्म नहीं किये हैं, बल्कि तुम्हारा व्यवहार दुष्टों वाला हो गया है। इसे न केवल परमेश्वर की स्वीकृति हासिल नहीं होगी—बल्कि इसकी निंदा भी की जाएगी। परमेश्वर में ऐसी आस्था रखने वाला इंसान क्या हासिल करने का प्रयास करता है? क्या इस तरह की आस्था अंतत: व्यर्थ नहीं हो जाएगी?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। परमेश्वर यह नहीं देखता कि हम कितना कष्ट सहते हैं, बल्कि यह देखता कि हमारे दिल में क्या है और कर्तव्य-निर्वहन में हम क्या प्रकट करते हैं, और क्या हमारे पास सत्य का अभ्यास करने की गवाही है। यदि अपने कर्तव्य में व्यक्ति का उद्देश्य परमेश्वर की संतुष्टि नहीं है, यदि वह सत्य का अभ्यास नहीं कर रहा है, तो फिर वह चाहे कुछ भी करे, परमेश्वर उसे बुराई करने और अपने विरुद्ध जाने के रूप में देखता है। उस दौरान की अपनी मानसिकता पर विचार किया तो जाना, मैं हमेशा अपने हितों के बारे में सोचकर योजना बनाती थी और अपने कर्तव्य से बचना चाहती थी। मैंने अनिच्छा से उसे स्वीकार तो लिया, लेकिन मैं जिम्मेदारी नहीं दिखा रही थी। मुझे जिन्हें प्रशिक्षित करना था, नहीं किया, कुछ नए विश्वासी नियमित रूप से नहीं आ रहे थे क्योंकि मैंने समय पर उनका सिंचन नहीं किया। मेरे इरादे और व्यवहार परमेश्वर के लिए घृणित थे। परमेश्वर की नजरों में, मैं बुराई और उसका विरोध कर रही थी। मैं वर्षों से विश्वासी थी और परमेश्वर से सत्य के भरपूर पोषण का आनंद लिया था, पर मैंने परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान देने की कभी नहीं सोची। जब कलीसिया के काम को सबसे ज्यादा सहारे की जरूरत थी, उस समय मैं भारी बोझ नहीं उठाना चाहती थी। मैं कर्तव्य निभाकर परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर रही थी। मुझमें वाकई ज़मीर या इंसानियत नहीं थी। मैंने मन ही मन प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, अपने कर्तव्य में मैं कलीसिया के काम की रक्षा करने के बजाय अपने ही नाम और रुतबे के पीछे भाग रही हूँ। मैं बहुत स्वार्थी हूँ। मैंने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया है, मैं तेरी बहुत ऋणी हूँ। हे परमेश्वर, मुझे एक और मौका देने के लिए धन्यवाद। मैं पश्चात्ताप कर इस बोझ को उठाना चाहती हूँ और अपने पिछले अपराधों की भरपाई के लिए अच्छे से कर्तव्य निभाना चाहती हूँ।”

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। परमेश्वर कहते हैं, “अपने कर्तव्य को निभाने वाले उन तमाम लोगों के लिए, चाहे सत्य की उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत इरादों, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान रखना चाहिए, परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होना चाहिए, कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए, और इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपने रुतबे की स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे इन चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौता कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम ऐसा कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना मुश्किल नहीं है। इसके साथ ही, तुम्हें अपनी ज़िम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, अपनी स्वार्थी इच्छाएँ, व्यक्तिगत अभिलाषाएँ और इरादे त्याग देने चाहिए, परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। इस तरह से कुछ समय अनुभव करने के बाद, तुम पाओगे कि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। नीच या निकम्मा व्यक्ति बने बिना, यह सरलता और नेकी से जीना है, न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है, एक नीच और ओछे व्यक्ति की तरह नहीं। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही जीना और काम करना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को पूरा करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों से, मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। किसी भी अवस्था में अपने हितों के बजाय कलीसिया के हितों को पहले रखना चाहिए। मैं वही करना चाहती थी जो परमेश्वर के वचन कहते हैं, इस पर विचार नहीं करना चाहती कि कहीं मेरे अपने हितों को नुकसान तो नहीं होगा, और यह भी नहीं सोचना चाहती कि लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मुझे काम का बोझ उठाकर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना था। मुझे यह भी एहसास हुआ कि मैं कभी चुनौतीपूर्ण काम नहीं करना चाहती थी, मुझे यह डर रहता कि अगर मैंने इसे अच्छे से नहीं किया तो मुझे हिकारत से देखा या निपटा जाएगा। मुझे इंसान को बचाने के परमेश्वर के नेक इरादों की समझ नहीं थी। मुझे मुश्किल काम देना परमेश्वर का अनुग्रह था। परमेश्वर इस चुनौती के जरिए मुझे उस पर निर्भर रहना और समस्याओं के समाधान के लिए सत्य की खोज करना सिखा रहा था। कर्तव्य-निर्वहन के दौरान, भारी बोझ उठाना, कठिनाइयाँ आने पर काट-छाँट और निपटारा या उजागर किया जाना सभी अच्छी चीजें हैं। उनसे मुझे अपनी गलतियों और कमियों को बेहतर ढंग से जानने का मौका मिलता है ताकि मैं सत्य खोजने और स्वयं को उससे युक्त करने पर अधिक ध्यान दे सकूँ और अपनी कमजोरियाँ दूर कर सकूँ। यह सत्य की मेरी समझ और जीवन में प्रगति के लिए लाभदायक है। यह परमेश्वर का प्रेम है।

परमेश्वर की इच्छा को समझते ही, अपने कर्तव्य के प्रति मेरा दृष्टिकोण बदल गया। मैंने जाना कि दो कलीसियाओं के कार्य-प्रबंधन के लिए, मैं केवल अपनी क्षमताओं पर ही भरोसा नहीं कर सकती। मेरी कार्य-क्षमता सीमित थी, तो जरूरी था कि मैं और लोगों को प्रशिक्षित करूँ। जब अधिक भाई-बहन परमेश्वर की इच्छा जान जाएँगे, तो वे भी काम संभाल सकेंगे और इससे काम आसान हो जाएगा। तब मैं अपनी ऊर्जा को महत्वपूर्ण कार्यों में लगा सकती हूँ। इसलिए, मैंने चर्चा कर लोगों को सिंचन कार्यकर्ताओं के साथ प्रशिक्षित करने की पुष्टि की, फिर परमेश्वर के वचनों पर सभाएँ और संगति की ताकि उनकी वास्तविक कठिनाइयाँ और समस्याएँ हल की जा सकें। मैं तब चौंक गई जब कुछ भाई-बहनों ने परमेश्वर के कार्य की समझ और आस्था प्राप्त कर ली और कार्य करना चाहा। मिलकर काम करने से मेरी कार्य-कुशलता बढ़ गई और कुछ परियोजनाएँ तुरंत पूरी हो गईं। उन्हें भी थोड़ा-बहुत अभ्यास हो गया और अपने काम के लिए अधिक ऊर्जा मिल गई। कुछ समय बाद सिंचन और समर्थन मिलने से, बहुत-से नए विश्वासियों ने परमेश्वर के कार्य की थोड़ी-बहुत समझ हासिल कर ली, सच्चे मार्ग पर उनकी नींव पड़ गई और वे सक्रिय रूप से सभाओं में भाग लेने लगे। यह सब देखकर मैं भावुक हो गई। जब मैंने अपने हितों का त्याग किया, भार वहन किया और पूरे मनोयोग से अपने कर्तव्य-निर्वहन का प्रयास किया, तो मुझे पता भी नहीं चला और मैंने थोड़ी-बहुत प्रगति कर ली, मेरी कार्य-कुशलता भी बहुत बढ़ गई। अब मुझे जिम्मेदारी लेने से डर नहीं लगता, मैं सत्य का अभ्यास कर परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ।

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