43. मेरी आस्था परमेश्वर में है : इंसानों की पूजा क्यों करूँ?

यूक्षिण, दक्षिण कोरिया

जिस दौरान कलीसिया का सुसमाचार कार्य मेरे जिम्मे था, तब हमारी टीम अच्छा काम नहीं कर रही थी और मुझे इस बात की चिंता थी। फिर वू पिंग का तबादला हमारी कलीसिया में कर दिया गया। मैंने सुना कि वह बीस वर्षों से विश्वासी रही है और परमेश्वर के लिए बहुत त्याग किया है, वह हर जगह प्रचार कर चुकी थी, उसने बहुत से खतरे उठाए लेकिन कभी हार नहीं मानी। मेरे मन में उसका सम्मान बढ़ गया। जल्दी ही, मेरी अगुआ ने सुसमाचार कार्य के लिए मुझे वू पिंग के साथ जोड़ दिया, मैं बहुत खुश थी। उसके साथ पहली सभा की यादें आज भी मेरे मन में बसी हैं। उसने बताया था कि सुसमाचार के प्रचार के दौरान, कैसे उसने धार्मिक अगुआओं की रुकावटों का सामना किया, उनसे संगति और बहस कर कैसे उनकी जबान बंद कराई, उन लोगों के साथ भी संगति कर उनकी उलझनें दूर कीं जिनके अंदर धार्मिक धारणाएँ और बाइबल संबंधी ज्ञान भरा था। उसने सुसमाचार के प्रचार में आने वाली मुश्किलों पर बात की, बताया कि अलग-अलग इलाकों में सुसमाचार के प्रचार के लिए उसे और भाई-बहनों को कितनी कीमत चुकानी पड़ी, यह भी बताया कि वरिष्ठ अगुआओं ने उसे कितनी अहमियत दी, उसका पोषण किया और उसे अहम काम सौंपे। इंसान के लिए परमेश्वर के प्रेम की बात करते समय उसकी आँखें छलक आईं, तो मैं बहुत प्रभावित हुई। उसने कहा, हमें परमेश्वर की इच्छा पर विचार करना चाहिए, चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ आएँ, हमें अंत के दिनों का सुसमाचार फैलाना चाहिए, यही हमारा लक्ष्य है। उस समय, मुझे लगा उसके मन में परमेश्वर के लिए असीम प्रेम है, उसके लिए मेरे मन में सम्मान पैदा हो गया। मुझे लगा कि बहुत पुरानी विश्वासी होने के कारण वह हमसे ज्यादा सत्य समझती है, और बड़ा आध्यात्मिक कद रखती है, तो मुझे उससे सीखना चाहिए।

उसके बाद, हम मिलकर काम करने लगे, काम के दौरान मैंने वू पिंग में मुश्किलें झेलने की काबिलियत देखी, वह रात-रात भर काम काम करके चीज़ों की जानकारी लेती और समस्याएँ सुलझाती। मेरे काम की गलतियों और चूक पर मेरा ध्यान दिलाकर अभ्यास के मार्ग पर संगति करती। लोगों के साथ सुसमाचार साझा करते समय, वह मिसालों और रूपकों का प्रयोग करती जिनका सीधा असर पड़ता था, वह लोगों की उलझनें दूर करने में सक्षम थी। सभाओं में अपने काम की कमियों के बारे में बात करते हुए, उसकी आँखें छलक आतीं कि वह परमेश्वर की बहुत ऋणी है। जब कभी सिंचन-कर्मियों के कोई प्रश्न होते, तो वह फौरन उनकी मदद करती। मेरी तबियत खराब होने पर वह मेरा पूरा ख्याल रखती। मैं उसे ज्यादा से ज्यादा पसंद करने लगी। उसके कलीसिया अगुआ चुने जाने पर मुझे और भी यकीन हो गया कि उसमें सत्य की वास्तविकता है, उसकी प्रशंसक बनकर मैं उसका और भी सम्मान करने लगी। उसे लगातार कलीसिया में भाग-दौड़ करते और भाई-बहनों की समस्याएँ दूर करते देखकर, मुझे लगा कलीसिया में सच में उसकी अहम भूमिका है और उसके बिना वाकई हमारा काम नहीं चल सकता। कोई समस्या आने पर मैं फौरन उससे संगति करती, उसके विचारों और बातों को तुरंत नोट करती, उसके हर सुझाव को अमल में लाती। मैं उसके व्यवहार की भी नकल करने लगी, जैसे उसे देर तक जागते देखती तो सोचती कि यह काम के लिए कष्ट उठाना और समर्पित होना है, फिर मैं भी देर तक जागती। जब कोई जरूरी काम नहीं होता, तो मैं जल्दी सो सकती थी, लेकिन वू पिंग को जागते देख, मैं भी जागती रहती। मैंने देखा कि निपटाए जाने पर भी वह मजबूती से अपने काम में लगी रहती थी। मुझे लगता यही आध्यात्मिक कद और वास्तविकता रखना है। मेरे साथ कभी निपटा जाता, तो मैं बेचैन हो जाती, इच्छा होती कि भक्ति-भाव में डूबकर आत्म-चिंतन करूँ, लेकिन वू पिंग के व्यवहार के बारे में सोचकर, मैं भी तुरंत अपना काम करने लगती और खुद के बारे में जानने पर ध्यान नहीं देती। मुझे पता भी नहीं चला कि कब मैं वू पिंग को आदर्श मानकर उसकी पूजा करने लगी। फिर परमेश्वर ने कुछ ऐसे हालात बनाये जिनसे मैं धीरे-धीरे वू पिंग को थोड़ा-बहुत समझने लगी।

बतौर कलीसिया अगुआ, वह बहुत ही व्यावहारिक थी और किसी भी हद तक जा सकती थी, लेकिन हमारे काम में समस्याओं का कोई अंत नहीं था, धीरे-धीरे कलीसिया के काम की प्रभावशीलता कम होती गई। एक दिन, सिंचन-उपयाजक बहन यांग ने मुझसे कहा कि उसे वू पिंग के काम में कुछ समस्याएँ दिखी हैं, उसने हर चीज की जिम्मेदारी तो ले रखी है, लेकिन भाई-बहनों को अभ्यास नहीं करने देती, न ही प्रतिभाओं का पोषण कर रही है। वह उपयाजकों और टीम अगुआओं का काम कर रही है, जिससे किसी को भी अभ्यास का अवसर नहीं मिलता। हर किसी को लगने लगा है कि उसकी कोई अहमियत नहीं है, जबकि सभी उसके प्रशंसक हैं। यह तो कोई अच्छा माहौल नहीं था। बहन यांग ने कहा कि दूसरों को अभ्यास के अधिक अवसर देने के बारे में, वह वू पिंग से बात करना चाहती है ताकि सबको अपनी कमियों का पता लगे और वे तेजी से प्रगति कर सकें, तभी वे अपनी प्रतिभा का भी उपयोग भी कर पाएँगे, इससे पक्के तौर पर उनके काम में सुधार होगा। मुझे बहन यांग का विचार अच्छा लगा, तो मैं उसके साथ वू पिंग से बात करने गई। लेकिन वू पिंग को यह अच्छा नहीं लगा। उसका चेहरा लटक गया और असहमति जताई। उसने कहा कि लोगों में बहुत सारी समस्याएँ हैं, उन्हें सिखाना झंझट का काम है, इससे काम में देरी होगी। उसके लिए यही अच्छा है कि वह खुद ही काम करे। उसने इतनी कुशलता से बातें समझाईं कि मैं समझ नहीं पाई अब क्या कहूँ, लेकिन जब इस बारे में बाद में सोचा, तो लगा वह चीजों को ठीक से नहीं संभाल रही थी। इस तरह हम लोगों का पोषण नहीं कर सकते। भाई-बहन प्रशिक्षित नहीं किए जाएँगे तो हम उस पर निर्भर हो जाएँगे, और इस तरह काम ठीक से नहीं हो पाएगा। लेकिन फिर मैंने सोचा, हमें सत्य की समझ नहीं है, तो उसके पीछे चलकर समस्याएँ सुलझाना बेकार होगा, हम चीजों को अटका देंगे। उसे सत्य की बेहतर समझ है, इसलिए चीजों को उसे ही संभालने दें तो अच्छा है। वू पिंग दिन भर काम में लगी रहती, लेकिन ढेरों समस्याएं मुँह बाए खड़ी थीं। भाई-बहन अपने कामों में बेहद निष्क्रिय हो गए थे, वे समस्याओं के निदान के लिए उसी की बाट जोहते। ज्यादातर लोग हर समय खिन्न और उदास रहने लगे। फिर एक वरिष्ठ अगुआ को पता चला कि हमारी कलीसिया में बहुत सारी समस्याएं हैं, वू पिंग का मूल्यांकन भी कराया गया, जिससे पता चला कि वह बहुत अभिमानी और निरंकुश है और किसी से सुझाव नहीं लेती। बस अपना ही उत्कर्ष करते हुए दिखावा करती है और लोगों को अपने करीब लाती है। उसे तुरंत बर्खास्त कर दिया गया। अगुआ ने यह भी कहा कि विवेक न होने के कारण हम वू पिंग को चढ़ाते रहे, उसने हमें अपने कर्तव्यों में सत्य के सिद्धांत खोजने की सलाह दी, और किसी इंसान की पूजा करने से मना किया। तब एहसास हुआ, मैं एक इंसान की पूजा करने में ही लगी रही, इसलिए परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध नहीं जोड़ पाई। मुझे आठवें प्रशासनिक आदेश की याद आई : "जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें परमेश्वर की आज्ञा माननी चाहिए और उसकी आराधना करनी चाहिए। किसी व्यक्ति को ऊँचा न ठहराओ, न किसी पर श्रद्धा रखो; परमेश्वर को पहले, जिनका आदर करते हो उन्हें दूसरे और ख़ुद को तीसरे स्थान पर मत रखो। किसी भी व्यक्ति का तुम्हारे हृदय में कोई स्थान नहीं होना चाहिए और तुम्हें लोगों को—विशेषकर उन्हें जिनका तुम सम्मान करते हो—परमेश्वर के समतुल्य या उसके बराबर नहीं मानना चाहिए। यह परमेश्वर के लिए असहनीय है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए')। यह सोचकर थोड़ा डर गई कि मैंने परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाई है। वू पिंग के संपर्क में आने के बाद से ही मैं उसकी प्रशंसक बन गई थी, अपने कर्तव्य में सत्य के सिद्धांत खोजने के बजाय, मैं उस पर भरोसा करके चल रही थी। मैं अपनी हर समस्या का हल उसी से पूछती और जो वो कहती, मैं वही करती। मैं उसका इतना सम्मान करती थी कि परमेश्वर को भी भूल बैठी थी। मुझे लगने लगा था कि कलीसिया में उसके बिना हमारा काम ही नहीं चल सकता, मानो परमेश्वर के मार्गदर्शन और सत्य के सिद्धांतों के बिना काम चल जाएगा, लेकिन उसके बिना नहीं चलेगा। क्या मैं विश्वासी थी भी? क्या यह सिर्फ इंसान की पूजा और उसका अनुसरण करना नहीं था? परमेश्वर को इससे चिढ़ है। कोई हैरानी नहीं कि मैं अपने काम में पवित्र आत्मा का कार्य हासिल नहीं कर पाई, न ही इतने लंबे समय बाद भी मुझमें कोई प्रगति दिखाई दी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा कि मैं खुद को बदलना और इंसान की पूजा बंद करना चाहती हूँ।

उसके बाद, कुछ ऐसा हुआ कि वू पिंग का असली चेहरा मेरे सामने आ गया। बर्खास्त होने के बाद, यह बात अच्छी तरह जानते हुए भी कि काफी लोग उसे पूजते हैं, न तो उसने आत्म-विश्लेषण किया और न ही सभाओं में अपने बारे में कुछ सीखा, बल्कि वो ऐसे पेश आती रही मानो उसके साथ अन्याय हुआ हो, कहती कि वह अपनी साथी बहन झोउ को पसंद करती थी और उसी की सारी बातें मानती थी। उसे बहन झोउ पर आरोप लगाते देख, मैं चौंक गई। मुझे लगा अगुआ ने उसकी समस्याएँ उजागर कर उनका विश्लेषण कर लिया है, तो फिर वह इन बातों को समझ क्यों नहीं रही या कोई जिम्मेदारी क्यों नहीं ले रही? यह सत्य न स्वीकारने का प्रदर्शन था। उसके बाद, अगुआ ने उसे मेरे साथ सुसमाचार कार्य के लिए फिर से नियुक्त कर दिया, हालाँकि अब मैं पहले की तरह उसकी प्रशंसक नहीं रही, लेकिन फिर भी मैं खुश थी। कहते हैं पहाड़ कितना भी छोटा हो, ऊँट से तो बड़ा ही होता है, मुझे अब भी यही लगता था कि वू पिंग मुझसे बेहतर है। हालांकि काम के मामले में, अब वह पहले की तरह सहज और सुलभ नहीं थी, बहुत कठोर हो गई थी। काम पर चर्चा करते समय, मेरे हर सुझाव को बिना सुने ही सिरे से खारिज कर देती थी। मुझसे मिलने में टाल-मटोल करती, और जाकर उसी बहन से चर्चा करती, जिसके साथ उसने पहले काम किया था। मेरे अंदर बेबसी और नकारे जाने की भावना घर करने लगी। कुछ समय तक तो हम अपने काम में कोई प्रगति ही नहीं कर पाए, मैंने उससे जाकर बात की, कहा कि हमारे बीच तालमेल ठीक से नहीं हो रहा है। मैं हैरान रह गई जब उसने इसे स्वीकारने के बजाय कहा कि उसका कोई दोष नहीं। वो बोली, "सीधी बात सुनकर परेशान मत होना। मुझे तुम्हारे साथ काम करने की आदत नहीं है। तुम्हारे काम करने का तरीका मुझे पसंद नहीं जिसने मुझे बेचैन कर दिया है।" उसकी यह बात सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा। मुझे लगा जैसे मैं उसे भी काम नहीं करने दे रही।

अगुआ ने ये समस्याएं सुनकर, अहंकारी होने और सत्य स्वीकार न करने के लिए वू पिंग का निपटारा किया। फिर एक सभा में, वू पिंग ने सबके सामने कहा कि उसका निपटारा परमेश्वर का प्रेम है और रोते हुए बोली कि अपना काम ठीक से न करने के कारण वह परमेश्वर की ऋणी है। मानो खुद को जानती हो। लेकिन हमारी निजी बातचीत में उसने अपनी नकारात्मकता जाहिर कर दी कि उसका मन ऊब चुका है और अब काम करने में उसका जी नहीं लगता। वह मेरी संगति सुनने को तैयार नहीं थी। खासकर जब अगुआ ने कहा कि कुछ भाई-बहन काफी आगे बढ़ गए हैं और अच्छा काम किया है तो वह और भी दबाव में आ गई, उसे लगा कि अगुआ उसके बजाय औरों को महत्व दे रही है। वह मुझसे निजी तौर पर पूछती थी कि लोग उस पर हंस तो नहीं रहे हैं। हम जब भी इस पर बात करते तो मुझे गुस्सा आ जाता। शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से उसकी हालत ठीक नहीं थी, लेकिन सभाओं में रोबदार और मजबूत दिखती थी, सत्य को स्वीकारने और परमेश्वर की इच्छा का ख्याल रखने वाली नजर आती। यह सब काफी थका देने वाला लगता। कभी-कभी मैं खुद से पूछती, क्या मैं इसी इंसान को पूजती थी? इसमें तो सत्य की वास्तविकता ही नहीं दिखती। उसे तो बस नाम और रुतबे का जुनून था, सत्य को तो स्वीकारती ही नहीं थी। समस्याएँ आने पर उसने अपने बारे में कुछ नहीं सीखा, बल्कि दिखावा करती रही। वह सही नहीं लग रही थी। उसके बाद से ही उसकी हालत खराब होती गई। अगुआ ने कई बार उसके साथ संगति की, लगा उसने बात मान ली है, लेकिन उसमें कोई बदलाव नहीं आया। वह लोगों से नफरत करती और कड़वाहट भरी नज़रों से देखती। अगुआ ने उसका निपटारा कर उसकी समस्याओं को उजागर किया, लेकिन उसने परमेश्वर से घृणा की, उसे दोषी माना। सारा दोष परमेश्वर पर मढ़ने में कोई गुरेज नहीं किया। वह दुष्ट प्रकृति की थी, परमेश्वर और सत्य से घृणा करती थी। वह मसीह-विरोधी राक्षस थी। बाद में उस पर कलीसियाई जीवन जीने या काम करने पर पाबंदी लगा दी गई।

उसके जाने के बाद काफी समय तक मैं खुद को संभाल नहीं पाई। मैं सोच रही थी कि क्यों मैंने उसे इतना पूजा, यहाँ तक कि उसके जैसा बनना चाहा। मुझे जो भी अच्छा वक्ता मिलता, जिसने परमेश्वर के लिए कष्ट उठाए हों और खुद को खपाया हो, जो परमेश्वर को धोखा दिए बिना गिरफ्तार और प्रताड़ित हुआ हो, मैं उसे पूजने लगती थी। मैं ऐसे लोगों को इतना पूजती क्यों थी? मेरे मन में क्या चल रहा होता था? फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े। "कुछ लोग कठिनायाँ सह सकते हैं; वे कीमत चुका सकते हैं; उनका बाहरी आचरण बहुत अच्छा होता है, वे बहुत आदरणीय होते हैं; और लोग उनकी सराहना करते हैं। क्या तुम लोग इस प्रकार के बाहरी आचरण को, सत्य को अभ्यास में लाना कह सकते हो? क्या तुम लोग कह सकते हो कि ऐसे लोग परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर रहे हैं? लोग बार-बार ऐसे व्यक्तियों को देखकर ऐसा क्यों समझ लेते हैं कि वे परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं, वे सत्य को अभ्यास में लाने के मार्ग पर चल रहे हैं, और वे परमेश्वर के मार्ग पर चल रहे हैं? क्यों कुछ लोग इस प्रकार सोचते हैं? इसका केवल एक ही स्पष्टीकरण है। और वह स्पष्टीकरण क्या है? स्पष्टीकरण यह है कि बहुत से लोगों को, ऐसे प्रश्न—जैसे कि सत्य को अभ्यास में लाना क्या है, परमेश्वर को संतुष्ट करना क्या है, और यथार्थ में सत्य की वास्तविकता से युक्त होना क्या है—ये बहुत स्पष्ट नहीं हैं। अतः कुछ लोग अक्सर ऐसे लोगों के हाथों धोखा खा जाते हैं जो बाहर से आध्यात्मिक, कुलीन, ऊँचे और महान प्रतीत होते हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो वाक्पटुता से शाब्दिक और सैद्धांतिक बातें कर सकते हैं, और जिनके भाषण और कार्यकलाप सराहना के योग्य प्रतीत होते हैं, तो जो लोग उनके हाथों धोखा खा चुके हैं उन्होंने उनके कार्यकलापों के सार को, उनके कर्मों के पीछे के सिद्धांतों को, और उनके लक्ष्य क्या हैं, इसे कभी नहीं देखा है। उन्होंने यह कभी नहीं देखा कि ये लोग वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं या नहीं, वे लोग सचमुच परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहते हैं या नहीं हैं। उन्होंने इन लोगों के मानवता के सार को कभी नहीं पहचाना। बल्कि, उनसे परिचित होने के साथ ही, थोड़ा-थोड़ा करके वे उन लोगों की तारीफ करने, और आदर करने लगते हैं, और अंत में ये लोग उनके आदर्श बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ लोगों के मन में, वे आदर्श जिनकी वे उपासना करते हैं, मानते हैं कि वे अपने परिवार एवं नौकरियाँ छोड़ सकते हैं, और सतही तौर पर कीमत चुका सकते हैं—ये आदर्श ऐसे लोग हैं जो वास्तव में परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं, और एक अच्छा परिणाम और एक अच्छी मंज़िल प्राप्त कर सकते हैं" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें')

"लोगों के ऐसे अज्ञानता भरे कार्य और दृष्टिकोण का, या एकतरफा दृष्टिकोण और अभ्यास का केवल एक ही मूल कारण है, आज मैं तुम लोगों को उसके बारे में बताऊँगा : कारण यह है कि भले ही लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हों, प्रतिदिन उससे प्रार्थना करते हों, और प्रतिदिन परमेश्वर के कथन पढ़ते हों, फिर भी वे परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते। और यही समस्या की जड़ है। यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के हृदय को समझता है, और जानता है कि परमेश्वर क्या पसंद करता है, किस चीज़ से वो घृणा करता है, वो क्या चाहता है, किस चीज़ को वो अस्वीकार करता है, किस प्रकार के व्यक्ति से परमेश्वर प्रेम करता है, किस प्रकार के व्यक्ति को वो नापसंद करता है, लोगों से अपेक्षाओं के उसके क्या मानक हैं, मनुष्य को पूर्ण करने के लिए वह किस प्रकार की पद्धति अपनाता है, तो क्या तब भी उस व्यक्ति का व्यक्तिगत विचार हो सकता है? क्या वह यूँ ही जा कर किसी अन्य व्यक्ति की आराधना कर सकता है? क्या कोई साधारण व्यक्ति लोगों का आदर्श बन सकता है? जो लोग परमेश्वर की इच्छा को समझते हैं, उनका दृष्टिकोण इसकी अपेक्षा थोड़ा अधिक तर्कसंगत होता है। वे मनमाने ढंग से किसी भ्रष्ट व्यक्ति की आदर्श के रूप में आराधना नहीं करेंगे, न ही वे सत्य को अभ्यास में लाने के मार्ग पर चलते हुए, यह विश्वास करेंगे कि मनमाने ढंग से कुछ साधारण नियमों या सिद्धांतों के मुताबिक चलना सत्य को अभ्यास में लाने के बराबर है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें')। परमेश्वर के वचनों ने सही निशाने पर चोट की। मैंने जाना कि आस्था के इन तमाम बरसों में मेरी सोच ही गलत थी। मुझे लगा मैं बहुत पुरानी विश्वासी हूँ, पूरे जोश से कीमत चुका कर बहुत सारा कार्य कर रही हूँ, तो यही सत्य का अभ्यास और सत्य की वास्तविकता हासिल करना है। सोचा ऐसा इंसान ही परमेश्वर को प्रसन्न करके उसके घर में जगह बना सकता है। वू पिंग के साथ काम और बातचीत के दौरान, जब मैंने देखा उसने बरसों परमेश्वर में आस्था रखी है और बहुत त्याग किए हैं, सुसमाचार के प्रचार के लिए बहुत कुछ सहा है और संगति भी अच्छी करती है, तो मैं उसकी विशाल छवि और प्रभावशाली व्यवहार के झाँसे में आ गई और उसे पूजने लगी। अब समझ आया कि मैं कितनी मूर्ख और अज्ञानी थी, मेरी सोच कितनी बेतुकी थी। अगर कोई अपने काम में त्याग करता है और कष्ट उठाता है, तो यह सिर्फ अच्छे व्यवहार का दिखावा होता है। इसका मतलब यह नहीं कि उसमें इंसानियत है, वो सत्य से प्रेम करता है या उसमें सत्य की वास्तविकता है। वू पिंग बीस बरसों से विश्वासी थी। उसने बहुत से त्याग भी किए थे और एक अच्छी वक्ता भी थी, लेकिन उसने इन चीजों को निजी पूंजी की तरह इस्तेमाल किया, हमेशा दिखावा कर लोगों को अपने करीब लाती थी। उसने न तो कभी सत्य को स्वीकारा, न ही उसका अभ्यास किया। तमाम आलोचनाओं या असफलताओं के बावजूद, उसने कभी आत्म-चिंतन या सच्चा पश्चाताप नहीं किया। जब उसके पास रुतबा और सम्मान था, तो काम के लिए उसमें जोश था, रात-रात भर जागकर जी-जान से काम करती थी। लेकिन बर्खास्त होने के बाद, काम करने का उसका सारा जोश जाता रहा। वह हर समय प्रतिरोध और शिकायत करती रहती और चुपचाप नकारात्मकता उगलती रहती। हालांकि ऊपरी तौर पर परमेश्वर की ऋणी होने और पश्चाताप करने का दिखावा करती, ताकि लोगों को लगे कि उसे परमेश्वर की इच्छा की परवाह है, कि उसके पास आध्यात्मिक कद और वास्तविकता है, जिससे लोग उसका सम्मान करें। काट-छाँट और निपटारे के बाद उसने सबसे कहा कि यह परमेश्वर का प्रेम है, लेकिन मन-ही-मन परमेश्वर को दोष देती, घृणा करती। क्या वह सत्य और परमेश्वर से घृणा करने वाली मसीह-विरोधी नहीं थी? अब समझ आया कि पुराना विश्वासी होने, त्याग कर पाने, अच्छा वक्ता होने, अनुभव रखने और अहमियत पाने का यह मतलब नहीं कि उसमें सत्य की वास्तविकता है, ऐसा इंसान परमेश्वर को खुशी नहीं दे सकता। कोई कितना भी पुराना विश्वासी हो या काम में कितनी भी मेहनत की हो, अगर वो सत्य का अभ्यास कर अपने शैतानी स्वभाव में बदलाव नहीं लाता, तो वो परमेश्वर का विरोध करेगा ही और आखिर में हटा दिया जाएगा। इससे प्रभु यीशु की यह बात पूरी होती है : "उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, 'हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्‍टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्‍चर्यकर्म नहीं किए?' तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, 'मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ'" (मत्ती 7:22-23)। फिर मैंने परमेश्वर के इन वचनों पर विचार किया : "मुझे इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं है कि तुम्हारी मेहनत कितनी उत्कृष्ट है, तुम्हारी योग्यताएँ कितनी प्रभावशाली हैं, तुम कितनी निकटता से मेरा अनुसरण करते हो, तुम कितने प्रसिद्ध हो, या तुमने अपने रवैये में कितना सुधार किया है; जब तक तुम मेरी अपेक्षाएँ पूरी नहीं करते, तब तक तुम कभी मेरी प्रशंसा प्राप्त नहीं कर पाओगे। अपने विचारों और गणनाओं को जितनी जल्दी हो सके, बट्टे खाते डाल दो, और मेरी अपेक्षाओं को गंभीरता से लेना शुरू कर दो; वरना मैं अपना काम समाप्त करने के लिए सभी को भस्म कर दूँगा और, खराब से खराब यह होगा कि मैं अपने वर्षों के कार्य और पीड़ा को शून्य में बदल दूँ, क्योंकि मैं अपने शत्रुओं और उन लोगों को, जिनमें से दुर्गंध आती है और जो शैतान जैसे दिखते हैं, अपने राज्य में नहीं ला सकता या उन्हें अगले युग में नहीं ले जा सकता" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे')। "मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिलकुल भी तय नहीं करता, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो')। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को छू लिया। परमेश्वर किसी की मंजिल इस आधार पर तय नहीं करता कि उसने कितने प्रयास किए, उसका व्यवहार कितना अच्छा है या उसने कितना काम किया है, बल्कि इस आधार पर तय करता है कि क्या उसमें सत्य है। परमेश्वर लोगों के दिखावे से नहीं, उनके सार से परखता है। वह देखता है कि क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं और क्या उसे व्यवहार में ला सकते हैं, क्या परमेश्वर के प्रति समर्पित होकर उसकी इच्छा पूरी करते हैं। मैंने देखा कि परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है। लोगों का न्याय करने के लिए उसके अपने मानक और सिद्धांत हैं, वह भावनाओं को आड़े नहीं आने देता। परमेश्वर लोगों की धार्मिकता या अच्छाई इससे तय नहीं करता कि वह कितना उत्साही है, उसका कितना योगदान है या कितना कष्ट उठाया है। दूसरी ओर, कोई कितना भी पुराना विश्वासी हो, उसने कितना भी काम किया हो या वह कितना भी मशहूर हो, अगर वो सत्य का अभ्यासी नहीं है और अपना स्वभाव नहीं बदलता, तो परमेश्वर उसे पक्के तौर पर हटा देगा। जब इस बात को समझा, तो जाना कि मैं कितनी अज्ञानी और दीन-हीन हूँ। बरसों की आस्था में भी, मैंने न तो सत्य का अनुसरण किया और न ही परमेश्वर की इच्छा को समझा। आस्था में अपनी धारणाओं के आधार पर, मैं सिर्फ इंसान की पूजा करती रही। मैं एकदम अंधी और मूर्ख थी। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। "समस्त मानवता में, ऐसाएक भी व्यक्ति नहीं है जो दूसरों के लिए एक आदर्श बन सकता है, क्योंकि सभी मनुष्य मूलतः एक समान हैं और उनमें आपस में कोई अंतर नहीं है, ऐसी कुछ ही बातें हैं जो उन्हें एक दूसरे से अलग करती हैं। इसी कारण, मनुष्य आज भी मेरे कार्यों को पूरी तरह जानने में असमर्थ हैं। जब मेरी ताड़ना समस्त मानवजाति के ऊपर उतरती है, क्या केवल तभी मनुष्य, अनजाने में, मेरे कार्यों से अवगत होगा, और मेरे कुछ किए अथवा किसी को बाध्य किए बिना, मनुष्य मुझे जानने लगेगा, और इस प्रकार मेरे कार्यों का साक्षी होगा। यह मेरी योजना है, यह मेरे कार्य का वह पहलू है जो ज़ाहिर किया गया है, और यह वह है जिसे मनुष्य को जानना चाहिए" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन' के 'अध्याय 26')। परमेश्वर के वचन एकदम स्पष्ट हैं। लोगों को शैतान ने भ्रष्ट किया है और हममें शैतान का सार है। हम शैतानी स्वभाव के अलावा कुछ नहीं दिखाते। हममें से कोई एक भी पूजा के लायक नहीं है। अगर मैंने इस बात को पहले समझा होता, तो किसी को आदर्श मानकर पूजा न होता।

कुछ समय बाद ही मुझे बर्खास्त कर दिया गया, क्योंकि मैंने अपने काम में कुछ भी हासिल नहीं किया था। उस समय मैंने बहुत सोच-विचार किया कि मेरी नाकामी की वजह क्या है। फिर पता चला कि मैं यह सोचकर वू पिंग की पूजा में ही अटक कर रह गई थी कि वह बहुत पुरानी विश्वासी है, बरसों सुसमाचार का प्रचार किया है, बहुत कष्ट सहे हैं, और उसे काम का भी काफी अनुभव है, तो उसमें सत्य की समझ और वास्तविकता होगी। इसलिए मैं उसके व्यवहार की नकल करने की कोशिश करती थी, सारे सवाल उसी के पास लेकर जाती थी। उसकी हर बात को मैं बिना विचार किए, आँख मूँदकर मान लेती थी। मेरे दिल में परमेश्वर का तो कोई स्थान ही नहीं था। समस्याएँ आने पर न तो मैं सत्य खोजती और न ही मेरे कोई सिद्धांत थे। मैं बस एक ही इंसान की बात सुनती थी, वू पिंग की। मैं परमेश्वर का नहीं, एक इंसान का अनुसरण कर रही थी। जैसा कि परमेश्वर ने कहा है : "तुम मसीह की विनम्रता की प्रशंसा नहीं करते, बल्कि विशेष हैसियत वाले उन झूठे चरवाहों की प्रशंसा करते हो। तुम मसीह की मनोहरता या बुद्धि से प्रेम नहीं करते, बल्कि उन व्यभिचारियों से प्रेम करते हो, जो संसार के कीचड़ में लोटते हैं। तुम मसीह की पीड़ा पर हँसते हो, जिसके पास अपना सिर टिकाने तक की जगह नहीं है, लेकिन उन मुरदों की तारीफ करते हो, जो चढ़ावे हड़प लेते हैं और ऐयाशी में जीते हैं। तुम मसीह के साथ कष्ट सहने को तैयार नहीं हो, लेकिन खुद को उन धृष्ट मसीह-विरोधियों की बाँहों में प्रसन्नता से फेंक देते हो, जबकि वे तुम्हें सिर्फ देह, शब्द और नियंत्रण ही प्रदान करते हैं। अब भी तुम्हारा हृदय उनकी ओर, उनकी प्रतिष्ठा, उनकी हैसियत, उनके प्रभाव की ओर ही मुड़ता है। अभी भी तुम ऐसा रवैया बनाए रखते हो, जिससे मसीह के कार्य को गले से उतारना तुम्हारे लिए कठिन हो जाता है और तुम उसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुममें मसीह को स्वीकार करने की आस्था की कमी है। तुमने आज तक उसका अनुसरण सिर्फ इसलिए किया है, क्योंकि तुम्हारे पास कोई और विकल्प नहीं था। बुलंद छवियों की एक शृंखला हमेशा तुम्हारे हृदय में बसी रहती है; तुम उनके किसी शब्द और कर्म को नहीं भूल सकते, न ही उनके प्रभावशाली शब्दों और हाथों को भूल सकते हो। वे तुम लोगों के हृदय में हमेशा सर्वोच्च और हमेशा नायक रहते हैं। लेकिन आज के मसीह के लिए ऐसा नहीं है। तुम्हारे हृदय में वह हमेशा महत्वहीन और हमेशा श्रद्धा के अयोग्य है। क्योंकि वह बहुत ही साधारण है, उसका बहुत ही कम प्रभाव है और वह ऊँचा तो बिल्कुल भी नहीं है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी स्थिति को साफ कर दिया। बरसों की अपनी आस्था पर विचार करने पर पाया कि मैं उन्हीं लोगों की प्रशंसा करती जिनमें क्षमता और हुनर होता, जिन्हें मदद और अहमियत मिलती। मैं उनकी हर बात और काम को अनुकरणीय मानती लेकिन कभी परमेश्वर की इच्छा न खोजती, या यह न सोचती कि परमेश्वर क्या चाहता है और क्या यह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है। मैं बस आँख मूँदकर उनकी पूजा और अनुसरण करती और उनके जैसा बनना चाहती। मैं हर समय गलत रास्ते पर थी, कष्ट उठाने और अधिक से अधिक काम करने की कोशिश करती। अपने काम में मैंने काबिलियत और अनुभव पर भरोसा किया, मैंने न तो कभी सत्य के सिद्धांतों को खोजा और न ही अपने जीवन प्रवेश पर ध्यान दिया, मैंने बरसों की आस्था में भी अधिक सत्य नहीं सीखा और जीवन में दुख उठाए। मुझे लगा मैं वाकई बहुत अज्ञानी और दीन-हीन हूँ। परमेश्वर ने हमें ढेरों वचन दिए हैं, लेकिन मैंने उनमें से किसी पर भी ध्यान नहीं दिया। हालांकि मैंने वू पिंग की हर बात और राय को अपने मन में बसा कर रखा और उस पर तुरंत अमल किया। अपने काम में हमेशा उसी पर निर्भर रही, परमेश्वर को अपने दिल में कोई जगह नहीं दी। वू पिंग के साथ जो कुछ हुआ, उससे मैं पूरी तरह उजागर हो गई। खासकर जब उसे बर्खास्त कर दिया गया, तो उसकी समस्याएँ सामने आ गईं जिनके बारे में मैं जानती थी, लेकिन जब हम फिर से साथ काम करने लगे, तो अभी भी मेरे मन में उसकी वही विशाल और दमदार छवि थी। मैं अब भी अपने कामों को लेकर उसी पर निर्भर थी, सोचती थी कि पहाड़ कितना भी छोटा हो, होता तो ऊँट से बड़ा ही है, भले ही उसकी कुछ समस्याएँ हों, फिर भी वह मुझसे बेहतर ही है। चीजों को मैं इसी नजरिए से देखती थी। मैं एक इंसान की पूजा करती थी। अपनी बातचीत में न तो सत्य के सिद्धांत खोजती थी और न ही मुझमें कोई समझ थी। मैं शैतानी झूठ के नजरिए से चीजों को देखती थी। धीरे-धीरे वू पिंग की समस्याएं सामने आ रही थीं। तब भी मुझे कुछ समझ नहीं आया, मैं उसका अनुसरण करती रही, उसके हाथों विवश होती रही। मैं लगातार नकारात्मकता और दुख की स्थिति में थी। मैं सच में इसी लायक थी। मैं वू पिंग की प्रशंसक थी और अपने काम को लेकर उस पर निर्भर थी, लेकिन उससे मुझे क्या मिला? धोखा, बेबसी और अस्वीकृति। मैं दुखी और बेबस महसूस कर रही थी, परमेश्वर से दूर होती जा रही थी। मुझमें आस्था तो थी लेकिन मैंने न तो परमेश्वर पर भरोसा किया और न ही सत्य का अनुसरण किया। मैंने सिर्फ एक इंसान की पूजा की, उसका अनुसरण किया। मैं विवेकहीन और मूर्ख थी। मैं असफल होकर पथभ्रष्ट हो चुकी थी, यही मेरे लिए परमेश्वर की धार्मिकता और उद्धार था। इस प्रकाशन ने मुझे अपने गलत मार्ग पर विचार करने के लिए मजबूर किया, ताकि अपनी गलत धारणाओं की जाँच करूँ, और ये समस्याएँ दूर करने के लिए सत्य खोजने लायक बनूँ। मैंने सत्य का अनुसरण करने का महत्व भी जाना। परमेश्वर के ये वचन, "जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे अंत तक अनुसरण नहीं कर सकते," कितने वास्तविक हैं। जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, परमेश्वर उन्हें उजागर करके हटा देता है। मेरी और मेरे आदर्श इंसान की असफलता के अनुभव इसके सटीक प्रमाण हैं।

कुछ महीनों बाद, सुसमाचार कार्य के लिए मुझे वांग ली के साथ जोड़ दिया गया। मैंने सुना था कि विश्वासी बनने के बाद, उसने अपने कर्तव्य के लिए अच्छी-खासी नौकरी छोड़ दी थी और जी-जान लगा दिया था, उसमें जबर्दस्त काबिलियत थी। उसने बहुत सुसमाचार कार्य किया था और एक अनुभवी विश्वासी थी। मैं उसे काफी समय से जानती थी, मुझे पता था वह कलीसिया के काम का बहुत ख्याल रखती है। वह सभाओं की संगति में बहुत सक्रिय थी, कोई भी परिस्थिति हो, कितने भी लोग हों, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था। वह बड़ी संतुलित और बेखौफ अंदाज में बोलती थी। किसी को कोई समस्या होती, तो तुरंत संगति कर उसकी मदद करती, सभी उसे बहुत पसंद करते थे। मुझे लगता था वो सत्य पर चलती है, इस कारण मैं उसका सम्मान करती। उसके साथ काम करना मैं अपना सौभाग्य समझती थी, लेकिन मुझे अपनी पिछली असफलता याद आ गई, मैंने वू पिंग की काबिलियत और हुनर को बहुत महत्व दिया था, उसकी पूजा और अनुसरण करती थी। गलत मार्ग पर चलने से मेरे जीवन को बहुत नुकसान पहुँचा। वांग ली के साथ संपर्क में मैं जानती थी कि मैं गलत धारणाओं पर निर्भर नहीं रह सकती, चीज़ों को समझने के लिए मुझे सत्य के सिद्धांतों के अनुसार चलना होगा। वांग ली के पास अच्छी काबिलियत थी, सुसमाचार साझा करने का अनुभव था, तो अपनी कमियों को दूर करने के लिए मुझे उससे बहुत कुछ सीखना होगा। लेकिन भ्रष्ट स्वभाव और कमियों के साथ, वह एक भ्रष्ट इंसान भी थी। मैं उसे आदर्श मानकर भरोसा नहीं कर सकती थी। अगर उसके काम में समस्याएं और चूक हैं, तो आँख मूँदकर अनुसरण नहीं कर सकती थी। मुझे विवेकशील बनकर उसके साथ सत्य के सिद्धांतों के अनुसार बर्ताव करना चाहिए। बाद में काम की चर्चा के दौरान, मैंने देखा कि वांग ली के अधिकांश सुझाव बहुत व्यावहारिक नहीं हैं। कुछ बहनों को भी लगा वो सुझाव काम के नहीं हैं, लेकिन वो अपनी बात पर अड़ी रही। जिस सुझाव पर हमारी असहमति होती, वो उस पर अड़ जाती, उसके अड़ने पर एक लंबा गतिरोध आ जाता, जिससे हमारे काम की प्रगति रुक जाती। धीरे-धीरे, मैंने जाना कि वांग ली सच में घमंडी और जिद्दी है, अपने सुझावों को नकारे जाते देख, वह तुनक जाती। उसका मुँह फुलाना दूसरों को बेबस कर देता। वह सुसमाचार टीम में काम बिगाड़ने वाली और उसकी प्रगति में बाधक थी। मैंने अगुआ को उसके व्यवहार के बारे में बताया। यह जानने के बाद, अगुआ ने उसकी समस्याओं को उजागर कर उनका विश्लेषण किया, लेकिन वो मानने को तैयार नहीं थी, उसके बाद उसका काम बदल दिया गया। इससे मुझे बड़ा सुकून मिला। मुझे लगा मैंने गलत विचार त्याग दिए हैं, अब मैं पहले की तरह लोगों को पूजती नहीं थी। मैं परमेश्वर की आभारी थी कि उसने ऐसे हालात पैदा किये, जिनसे मुझे समझ हासिल हुई, मैं वे सबक सीख पाई। परमेश्वर का धन्यवाद!

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