15. परमेश्वर के प्रति मेरे त्याग में मिलावट

ज्यांग पिंग, चीन

पिछले साल अप्रैल में, मुझे अचानक पीठ में दाईं ओर बहुत तेज़ दर्द महसूस हुआ। मैंने सोचा मोच आ गई होगी, तो मैंने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, मुझे लगा दवाई की पट्टी लगा लूंगी तो ठीक हो जाएगा। मगर पट्टी कोई काम न आई। पीठ का दर्द काफी बढ़ गया। लगता था जैसे किसी ने सुई चुभो रहा हो—मेरी छाती से लेकर पीठ तक सुई चुभने जैसा दर्द हो रहा था। जब हालत बुरी हो गई, तो लगा जैसे मेरी मांसपेशियों और हड्डियों को कोई नोंच रहा है। दर्द इतना ज़्यादा था कि बता नहीं सकती। कई रातों तक मैं दर्द के मारे सो नहीं पाई। जब दर्द बर्दाश्त से बाहर हो गया तो लगा कि अब डॉक्टर को दिखाना ही होगा, मगर मैंने कुछ लोगों के साथ सुसमाचार साझा करने के लिए एक बैठक तय की थी। चेकअप के लिए गई तो बैठक में ज़रूर देरी हो जाएगी। मैंने सोचा, उनके साथ बैठक करने के बाद किसी दिन चली जाऊँगी, और फिर सब तो परमेश्वर के हाथ में है। मुझे बस अपना कर्तव्य निभाते रहना है, शायद कुछ दिनों बाद मैं बेहतर महसूस करने लगूं। मैंने दर्द सहने के लिए खुद को मजबूत किया और उस बैठक के बाद अस्पताल गई। डॉक्टर ने बहुत गंभीरता से कहा, "आपने यहां आने में इतनी देर क्यों की? ये कोई मामूली बात नहीं है। यह वायरस के कारण पैदा हुआ दाद है और शरीर के अंदरूनी हिस्से में है। यह चमड़ी पर भी दिखने लगा है। अगर आपने फौरन इलाज नहीं कराया और वायरस आपके बोन मैरो में पहुंच गया, तो जान भी जा सकती है।" मुझे ज़ोर का झटका लगा। मैंने कभी सोचा भी नहीं था, समस्या इतनी गंभीर होगी कि मेरी जान भी जा सकती है। मैंने सोचा, "मैं कई सालों से अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, तत्परता से सुसमाचार साझा करती रही हूँ, तो मेरे साथ ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर-बार और करियर भी ध्यान नहीं दिया, मैंने पीड़ा सही और कीमत चुकाई, कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा गिरफ्तार कर भयंकर यातना दिये जाने के भी मैंने कभी परमेश्वर को धोखा नहीं दिया। जेल से छूटने के बाद भी अपना कर्तव्य निभाती रही हूँ। फिर परमेश्वर मेरी रक्षा क्यों नहीं कर रहा?" इस बारे में सोचने पर मैं और परेशान हो गई। दिल में खालीपन महसूस हो रहा था, आंसुओं को रोक नहीं पा रही थी। यह एक लंबे समय तक चलने वाली समस्या है, इसे सिर्फ दवाओं से ही रोका जा सकता है। कलीसिया में भी काम बहुत अधिक था, तो मैं इलाज कराते हुए अपना कर्तव्य निभाती रही। जब मैं साइकल पर बाहर निकलती, तो सड़क पर ठोकर लगते ही मुझे असहनीय दर्द होता। कभी-कभी तो पसीने से भीग जाती, कई बार अचानक इतना तेज़ दर्द होता कि मैं सीधी बैठ भी नहीं पाती। काम से घर लौटकर सीधे बिस्तर पर लेट जाती, ऐसा लगता जैसे मुझमें ज़रा-भी ताकत नहीं बची, मैं बात भी नहीं कर पाती थी।

मैं जानती थी मेरे साथ सब कुछ परमेश्वर की अनुमति से हो रहा था। मैं प्रार्थना करते हुए खोज रही थी, आत्मचिंतन कर रही थी कि मैंने ऐसा क्या किया जो परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं था, मगर मैं अब भी इसी उम्मीद से चिपकी हुई थी कि अगर मैं अपनी गलतियाँ पहचान कर अपना कर्तव्य निभाती रही, तो परमेश्वर मुझे ठीक कर देगा। दो महीने पलक झपकते बीत गये मगर मेरी हालत बेहतर नहीं हुई। मैं बहुत दुखी थी। मेरी तबीयत काफी समय से खराब थी—अगर यह कभी ठीक नहीं हुई तो मैं क्या करूंगी? मैंने अपना कर्तव्य निभाना भी कभी नहीं छोड़ा। बीमार रहकर भी सुसमाचार साझा करती रही, तो फिर परमेश्वर मुझे ठीक क्यों नहीं कर रहा? इसके बारे में सोचने पर मुझे लगा कि मेरे साथ गलत हुआ है, मैं और परेशान हो गई। अगर मैं कभी ठीक नहीं हुई, तो एक दिन ऐसा आएगा जब मैं अपना कर्तव्य भी नहीं निभा पाऊँगी। जब मैं अच्छे कर्म नहीं कर पाऊँगी, फिर मुझे कैसे बचाया जा सकेगा? मैंने सोचा, इतने सालों तक मैंने जो कुछ भी किया, वो सब बेकार चला जाएगा। मैंने तय किया, मुझे अपनी सेहत के लिए ऊर्जा बचानी चाहिए, देखूँ क्या होता है। उसके बाद मैंने अपने कर्तव्य में दिल लगाना कम कर दिया। हमारे समूह की सभाओं में, मैं बस सुसमाचार के संभावित लक्ष्यों के बारे में यूं ही पूछ लेती, अगर किसी को मेरी मदद की ज़रूरत नहीं होती, तो मैं घर जाकर आराम करती। मुझे डर लग रहा था कहीं मैं बहुत कमज़ोर और बीमार न हो जाऊँ। उस दौरान, मैं अपनी बीमारी से काफी परेशान थी, मैं बहुत निराशा की हालत में जी रही थी। परमेश्वर के वचनों से मुझे कोई रोशनी नहीं मिल रही थी, सभाओं में मेरी संगति बहुत रूखी होती थी। मुझे लगा मैं परमेश्वर से काफी दूर हो गई हूँ। अपनी पीड़ा में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर! मैं बहुत दुखी हूँ और बहुत कमज़ोर महसूस कर रही हूँ। मुझमें अपने कर्तव्य के लिए कोई उत्साह नहीं है, मैं तो आपसे भी नाराज़ हूँ। कृपा करके अपनी इच्छा को समझने में मेरा मार्गदर्शन करिए। मैं समर्पित होकर आत्मचिंतन करना और सबक सीखना चाहती हूँ।"

अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "पहला, जब लोग परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करते हैं, तब उनमें से किसके पास स्वयं अपने लक्ष्य, कारण, और महत्वाकांक्षाएँ नहीं होती हैं? उनका एक भाग भले ही परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता है और परमेश्वर के अस्तित्व को देख चुका होता है, फिर भी वे कारण परमेश्वर में उनके विश्वास में अब भी समाए होते हैं, और परमेश्वर में विश्वास करने में उनका अंतिम लक्ष्य उसके आशीष और अपनी मनचाही चीज़ें प्राप्त करना होता है। ... प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदय में निरंतर ऐसा गुणा-भाग करता है, और वे परमेश्वर से माँगें करते हैं जिनमें उनके कारण, महत्वाकांक्षाएँ, तथा लेन-देन की मानसिकता होती है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने हृदय में लगातार परमेश्वर की परीक्षा लेता रहता है, परमेश्वर के बारे में लगातार मनसूबे बनाता रहता है, और स्वयं अपने व्यक्तिगत मनोरथ के पक्ष में परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क करता रहता है, और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहलवाने की कोशिश करता है, यह देखने के लिए कि परमेश्वर उसे वह दे सकता है या नहीं जो वह चाहता है। परमेश्वर का अनुसरण करने के साथ ही साथ, मनुष्य परमेश्वर से परमेश्वर के समान बर्ताव नहीं करता है। मनुष्य ने परमेश्वर के साथ हमेशा सौदेबाजी करने की कोशिश की है, उससे अनवरत माँगें की हैं, और यहाँ तक कि एक इंच देने के बाद एक मील लेने की कोशिश करते हुए, हर क़दम पर उस पर दबाव भी डाला है। परमेश्वर के साथ सौदबाजी करने की कोशिश करते हुए साथ ही साथ, मनुष्य उसके साथ तर्क-वितर्क भी करता है, और यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं जो, जब परीक्षाएँ उन पर पड़ती हैं या जब वे अपने आप को किन्हीं निश्चित स्थितियों में पाते हैं, तो प्रायः कमज़ोर, निष्क्रिय और अपने कार्य में सुस्त पड़ जाते हैं, और परमेश्वर के बारे में शिकायतों से भरे होते हैं। मनुष्य ने जब पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया था, उसी समय से मनुष्य ने परमेश्वर को एक अक्षय पात्र, एक स्विस आर्मी चाकू माना है, और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा साहूकार माना है, मानो परमेश्वर से आशीष और प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार और कर्तव्य है, जबकि परमेश्वर का दायित्व मनुष्य की रक्षा और देखभाल करना, और उसे भरण-पोषण देना है। ऐसी है 'परमेश्वर में विश्वास' की मूलभूत समझ, उन सब लोगों की जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और ऐसी है परमेश्वर में विश्वास की अवधारणा की उनकी गहनतम समझ" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II')। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मुझे काफी अपराध बोध महसूस हुआ। अपनी आस्था में मैं परमेश्वर को परमेश्वर नहीं मान रही थी, बल्कि उससे सिर्फ आशीष पाना चाहती थी। विश्वासी बनने के बाद से ही, मैं परमेश्वर को एक अक्षय पात्र समझ बैठी थी, सोचती थी कि अगर मैं परमेश्वर के लिए खुद को खपाती हूँ, तो वह यकीनन मुझे सुरक्षित और सेहतमंद रखेगा, मुझे कभी बीमारी या त्रासदी का सामना नहीं करना पड़ेगा, और मैं सभी तरह की आपदाओं से बच जाऊँगी। अंत में मुझे बचाया जाएगा और मुझे एक खूबसूरत मंज़िल हासिल होगी। मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर-बार और करियर पर भी ध्यान नहीं दिया, मैंने पीड़ा सही और कीमत चुकाई, सीसीपी द्वारा गिरफ्तार कर भयंकर यातना दिये जाने के भी मैंने पाँव पीछे नहीं किए। मगर जब मैं बीमार पड़ी, खासकर जब मैंने देखा कि मेरी सेहत की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं, तो मैंने परमेश्वर को दोष दिया, उससे तर्क करने की कोशिश की। मैं अपने सारे कष्टों का हिसाब लगा रही थी, सोच रही थी कि मैंने जो कुछ भी दिया वो सब बेकार चला गया, मैंने अपने कर्तव्य में ध्यान देना कम कर दिया। फिर समझ आया कि इतने बरसों की मेरी आस्था सत्य पाने और परमेश्वर का आज्ञापालन करने के लिए नहीं थी, बल्कि अपने कष्टों और कड़ी मेहनत के बदले परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष पाने के लिए थी। मैं परमेश्वर के साथ इंसानी लेनदेन वाली सोच अपनाना चाहती थी। क्या यह परमेश्वर को धोखा देना और उसका इस्तेमाल करना नहीं है? मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी! मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर इंसान को बचा रहा है। उसने हमारे पोषण के लिए कई वचन बोले हैं, वह हमारे लिये सभी तरह के हालात बनाता है ताकि हम उसके कार्य का अनुभव कर सकें, अपनी भ्रष्टता से छुटकारा पाकर बचाये जा सकें। मगर मैं नहीं जानती थी कि मुझे उसके प्रेम का मूल्य चुकाना था। मैं बस हिसाब-किताब करते हुए परमेश्वर का इस्तेमाल कर रही थी। जब उसने वो नहीं किया जो मैं चाहती थी, तो मैंने अपने कर्तव्य में ध्यान देना और परवाह करना कम कर दिया। मैं परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी ईमानदार नहीं थी। मुझमें सचमुच विवेक या समझ नाम की चीज़ नहीं थी। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करने लगी, "परमेश्वर, मैं अपनी आस्था में तुम्हारा इस्तेमाल करके तुम्हें धोखा देती रही हूँ। मैं बहुत स्वार्थी और नीच हूँ। मैं तो इंसान कहलाने लायक भी नहीं हूँ! परमेश्वर, मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ। मुझे राह दिखाओ।"

मैंने, "सत्‍य के बारंबार चिन्‍तन से ही मार्ग मिलता है" का एक अंश पढ़ा : "कई मामलों में परमेश्वर के परीक्षण एक बोझ होते हैं जो वह लोगों को देता है। परमेश्वर तुम्हें कितना भी भारी बोझ क्यों न दे, तुम्हें उस बोझ का भार उठाना चाहिए, क्योंकि परमेश्वर तुम्हें समझता है, और यह जानता है कि तुम वह बोझ उठा पाओगे। परमेश्वर तुम्हें जो बोझ देता है, वह तुम्हारी कद-काठी, या तुम्हारी सहनशक्ति की अधिकतम सीमा से अधिक नहीं होगा; इसलिए तुम निश्चित रूप से उसे वहन करने में सक्षम होगे। परमेश्वर चाहे तुम्हें किसी भी तरह का बोझ या किसी भी तरह का परीक्षण दे, एक बात याद रखो : प्रार्थना करने के बाद चाहे तुम परमेश्वर की इच्छा को समझ पाओ या नहीं, चाहे तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन और प्रकाश प्राप्त कर पाओ या नहीं; और इस परीक्षण द्वारा परमेश्वर चाहे तुम्हें अनुशासित कर रहा हो या तुम्हें चेतावनी दे रहा हो, अगर तुम इसे नहीं समझ पाते हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर तुम अपना वह कर्तव्य निभाना नहीं छोड़ते, जो तुम्हें अवश्य निभाना चाहिए, और निष्ठापूर्वक उसका निर्वाह करते रहते हो, तो परमेश्वर तुमसे संतुष्ट रहेगा और तुम अपनी गवाही में मजबूती से खड़े रहोगे। ... अगर परमेश्वर में अपनी आस्था और सत्य की खोज में तुम यह कहने में सक्षम हो, 'परमेश्वर कोई भी बीमारी या अप्रिय घटना मेरे साथ होने दे—परमेश्वर चाहे कुछ भी करे—मुझे आज्ञापालन करना चाहिए, और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर रहना चाहिए। अन्य सभी चीजों से पहले मुझे सत्य के इस पहलू—आज्ञापालन—को अभ्यास में लाना चाहिए, मैं इसे कार्यान्वित करता हूँ और परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता की वास्तविकता को जीता हूँ। साथ ही, परमेश्वर ने जो आदेश मुझे दिया है और जो कर्तव्य मुझे निभाना चाहिए, मुझे उनका परित्याग नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।' क्या यह गवाही देना नहीं हुआ? जब तुम्हारा इस तरह का संकल्प होता है और तुम्हारी इस तरह की अवस्था होती है, तो क्या तब भी तुम परमेश्वर की शिकायत कर सकते हो? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके, मैं उसकी इच्छा को समझ पाई। मैं चाहे कैसी भी मुश्किलों का सामना करूँ—सब परमेश्वर की अनुमति से होता है, वह मुझे बोझ उठाने का मौका दे रहा है, मुझे बस स्वीकार कर आज्ञापालन करना चाहिए, गवाही देनी चाहिए। मैंने पतरस के बारे में सोचा, जो हर हालात में परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने में सक्षम था, उसने बीमारी का सामना किया और अभाव में जीवन बिताया, मगर वह हमेशा परमेश्वर के प्रति समर्पित रहा, कभी शिकायत नहीं की। मुझे पतरस की तरह एक सृजित प्राणी का स्थान लेना होगा, परमेश्वर द्वारा बनाए हालात के प्रति समर्पित होकर सबक सीखना होगा। मैं दवाएं लेते हुए अपना कर्तव्य निभाती रही, मैंने खुद को अपनी सेहत से मजबूर नहीं पाया। कुछ महीनों तक धीरे-धीरे सुधार होने के बाद, मेरी समस्या खत्म हो गई। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी।

सितंबर में, एक दिन मैं सुसमाचार साझा करके घर आई, तो उन्हें देखकर लगा जैसे उनके मन में कुछ चल रहा हो। उन्होंने बताया कि वे एक दिन पहले नियमित चेकअप के लिये गए थे, तो डॉक्टर ने कहा कि अगले दिन जाकर एमआरआई करा लें। यह सुनकर मैं काफी बेचैन हो गई, क्योंकि एमआरआई के लिये जाना साधारण बात नहीं थी। मैंने सोचा कहीं उन्हें कोई गंभीर बीमारी तो नहीं हो गई। उस रात मैं बिल्कुल नहीं सो पाई। बिस्तर पर करवटें बदलती रही। मैंने यह सोचकर खुद को दिलासा दिया कि शायद कोई बड़ी समस्या नहीं होगी। वे भी एक विश्वासी हैं और मैं घर से बाहर जाकर अपना कर्तव्य निभाती रही हूँ, तो परमेश्वर उनकी रक्षा ज़रूर करेंगे। अगले दिन मैं उनके साथ अस्पताल गई। मैं हैरान रह गई जब मुझे पता चला कि उन्हें पैन्क्रियाटिक कैंसर है। यह खबर सुनकर मुझे ज़ोर का झटका लगा। मैं अवाक रह गई कि उन्हें कोई और नहीं बल्कि पैन्क्रियाटिक कैंसर था। मैंने सुना कि इसका इलाज बहुत मुश्किल है और यह बहुत तेज़ी से बढ़ता है। इससे मरने की दर भी बहुत अधिक है, कई लोग तो इस बीमारी में कुछ महीने भी नहीं बच पाते। उनमें जीवन का जोश भरपूर था, मगर शायद उनके पास कुछ ही महीने बचे थे। मुझे लगा जैसे मेरे ऊपर आसमान टूट पड़ा हो। मैंने सोचा, "मैं अभी-अभी तो ठीक हुई हूँ और मेरे पति को कैंसर हो गया। परमेश्वर मेरी रक्षा क्यों नहीं कर रहा?" जब भी मैं अपने पति के कैंसर के बारे में सोचती, तो बुरी तरह रोने लगती। अपनी पीड़ा में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मेरे दिल की देखभाल करने और उसकी इच्छा को समझने में मेरा मार्गदर्शन करने की विनती की।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "परमेश्वर में अपने विश्वास में लोग, भविष्य के लिए आशीर्वाद पाने की खोज करते हैं; यह उनकी आस्‍था में उनका लक्ष्‍य होता है। सभी लोगों की यही अभिलाषा और आशा होती है, लेकिन, उनकी प्रकृति के भीतर के भ्रष्टाचार का हल परीक्षण के माध्यम से किया जाना चाहिए। जिन-जिन पहलुओं में तुम शुद्ध नहीं किए गए हो, इन पहलुओं में तुम्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाता है, परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपने खुद के भ्रष्टाचार को जान जाओ। अंततः तुम उस बिंदु पर पहुंच जाते हो जहां तुम मर जाना और अपनी योजनाओं और इच्छाओं को छोड़ देना और परमेश्वर की सार्वभौमिकता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करना अधिक पसंद करते हो। इसलिए अगर लोगों को कई वर्षों का शुद्धिकरण नहीं मिलता है, अगर वे एक हद तक पीड़ा नहीं सहते हैं, तो वे, अपनी सोच और हृदय में देह के भ्रष्टाचार के बंधन से बचने में सक्षम नहीं होंगे। जिन भी पहलुओं में तुम अभी भी शैतान के बंधन के अधीन हो, जिन भी पहलुओं में तुम अभी भी अपनी इच्छाएं रखते हो, जिनमें तुम्हारी अपनी मांगें हैं, यही वे पहलू हैं जिनमें तुम्हें कष्ट उठाना होगा। केवल दुख से ही सबक सीखा जा सकता है, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे को समझने में समर्थ होना। वास्तव में, कई सत्यों को कष्टदायक परीक्षणों के अनुभव से समझा जाता है। कोई भी व्यक्ति एक आरामदायक और सहज परिवेश में या अनुकूल परिस्थिति में परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ सकता है, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को नहीं पहचान सकता है, परमेश्वर के धर्मी स्वभाव की सराहना नहीं कर सकता है। यह असंभव होगा!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परीक्षणों के बीच परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करें')। इन वचनों की रोशनी में मैंने आत्मचिंतन किया। जब मैं बीमार थी, परमेश्वर के वचनों के न्याय के ज़रिए, मुझे एहसास हुआ था कि मेरी सोच गलत थी, मैं आशीष पाने की चाह रखती थी, फिर अपनी हालत की परवाह न करते हुए, मैं समर्पित होने को तैयार थी। मैंने सोचा मैं आशीष पाने की अपनी इच्छा त्याग दूँगी, मगर जब मेरे पति को कैंसर हुआ, तो मैं परमेश्वर को दोष देने और उसे गलत समझने से खुद को नहीं रोक पाई। मुझे लगा परमेश्वर को हमारी रक्षा करनी चाहिए क्योंकि हम विश्वासी हैं। मैंने देखा कि आशीष पाने की मेरी इच्छा कितनी गहरी थी। अगर परमेश्वर ने मुझे उजागर नहीं किया होता, तो मुझे कभी एहसास ही नहीं होता। फिर मुझे एहसास हुआ कि मुझे अपने पति की बीमारी से सबक सीखना होगा, परमेश्वर को दोष देना बंद करना होगा। मैंने शांत मन से विचार किया, जब मेरे पति को कैंसर हुआ तो मैं शिकायत करने और परमेश्वर को गलत समझने से खुद को क्यों नहीं रोक पाई, क्यों मैं अब भी आशीष और अनुग्रह पाने की इच्छा रखती हूँ।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मसीह-विरोधियों की नजर में, उनके मन में और जिस तरह से वे चीजों को देखते हैं उसमें, परमेश्वर का अनुसरण करने के कुछ फायदे होने चाहिए, बिना किसी फायदे के वे हिलने की जहमत नहीं उठाएंगे। यदि आनंद लेने के लिए प्रसिद्धि, लाभ या हैसियत न मिले, तो परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है। व्यक्ति को पहले फायदे में परमेश्वर के वचनों में उल्लिखित वादे और आशीष मिलने चाहिए, और उन्हें कलीसिया में प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत का आनंद भी मिलना चाहिए। परमेश्वर के विश्वासियों को दूसरों से अलग दिखना चाहिए, उन्हें विशेष होना चाहिए। अविश्वासियों को ये चीजें नहीं मिलनी चाहिए, और विश्वासियों को इनका आनंद लेना चाहिए; यदि ऐसा नहीं है, तो यह प्रश्न उठता है कि क्या यह परमेश्वर परमेश्वर है। क्या मसीह-विरोधियों का तर्क इन शब्दों को सत्य नहीं बनाता कि 'जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें परमेश्वर के आशीषों और अनुग्रह का आनंद मिलना चाहिए'? (हाँ।) क्या ये वचन सत्य हैं? ये वचन सत्य नहीं हैं, ये भ्रम हैं, ये शैतान के तर्क हैं, और इनका सत्य से कोई संबंध नहीं है। क्या परमेश्वर ने कभी कहा है, 'यदि लोग मुझ पर विश्वास करेंगे, तो वे निश्चित ही आशीष पाएँगे; यह सत्य है'? परमेश्वर ने न कभी ऐसा कहा है और न ही किया है।

जब आशीषों और आपदाओं की बात आती है, तो खोजने के लिए सत्य हैं। वे कौन-से बुद्धिमत्तापूर्ण वचन हैं, जिनका लोगों को पालन करना चाहिए? अय्यूब ने कहा, 'क्या हम जो परमेश्‍वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?' (अय्यूब 2:10)। क्या ये वचन सत्य हैं? ये एक मनुष्य के वचन हैं; उन्हें सत्य की ऊँचाइयों तक नहीं पहुँचाया जाना चाहिए, हालाँकि उनका कुछ अंश सत्य के अनुरूप है। उनका कौन-सा अंश सत्य के अनुरूप है? लोग आशीष प्राप्त करते हैं या आपदा झेलते हैं, यह सब परमेश्वर के हाथों में है, यह सब परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन है। यह सत्य है। क्या मसीह-विरोधी यही मानते हैं? (नहीं।) वे इसे क्यों नहीं मानते, वे इसे क्यों स्वीकार नहीं करते? परमेश्वर के विश्वासी होने के नाते मसीह-विरोधी आशीष पाना और आपदाओं से बचना चाहते हैं। जब वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं, जिसे आशीष प्राप्त हुआ है, जिसका हितलाभ हुआ है, जिस पर अनुग्रह किया गया है, जिसने बहुत अधिक लाभ प्राप्त किया है, और जिसने अधिक भौतिक सुख, बेहतर भौतिक व्यवहार प्राप्त किया है, तो वे मानते हैं कि यह परमेश्वर द्वारा किया गया है; अन्यथा ये परमेश्वर के कार्य नहीं हैं। निहितार्थ यह है, 'यदि तू परमेश्वर है, तो तू केवल लोगों को आशीष दे सकता है; तू उन पर आपदा या पीड़ा नहीं डाल सकता। तभी लोगों के तुझ पर विश्वास करने का कोई मूल्य और कोई मतलब है। यदि तेरा अनुसरण करने के बाद भी लोग विपत्ति से घिरते हैं, यदि वे फिर भी पीड़ा झेलते हैं, तो वे तुझ पर विश्वास क्यों करें?' वे यह नहीं मानते कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है, कि परमेश्वर सबको आदेश देता है। और वे इसे क्यों नहीं मानते? क्योंकि मसीह-विरोधी आपदा से डरते हैं। वे केवल लाभ पाना चाहते हैं, अनुग्रह पाना चाहते हैं, आशीष पाना चाहते हैं; वे परमेश्वर की संप्रभुता या व्यवस्थाएँ स्वीकार नहीं करना चाहते, बल्कि परमेश्वर से केवल लाभ प्राप्त करना चाहते हैं। यह उनका स्वार्थी और घृणित दृष्टिकोण है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग छह)')। "सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। मैं तो बस अपने लिए सोचूँगा, बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी ख़ातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; वे चीजों को त्यागते हैं, परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं और परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं—लेकिन फिर भी वे ये सब स्वयं के लिए करते हैं। संक्षेप में, यह सब स्वयं के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है। दुनिया में, सब कुछ निजी लाभ के लिए होता है। परमेश्वर पर विश्वास करना आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ही कोई व्यक्ति सब कुछ छोड़ देता है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कोई व्यक्ति बहुत दुःख का भी सामना कर सकता है। यह सब मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति का प्रयोगसिद्ध प्रमाण है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'बाहरी परिवर्तन और स्वभाव में परिवर्तन के बीच अंतर')। परमेश्वर के वचन आशीष और दुर्भाग्य के बारे में मसीह-विरोधियों की सोच बताते हैं। वे अपनी आस्था में आशीषों के पीछे भागते हैं, सोचते हैं कि उनकी आस्था के कारण उन्हें आशीष मिलेगी। जब ऐसा नहीं होता, तो उन्हें लगता है कि आस्था का कोई मतलब नहीं, और वे किसी भी पल परमेश्वर को धोखा देकर उसे छोड़ सकते हैं। मुझे एहसास हुआ कि आस्था को लेकर मेरा नज़रिया भी ऐसा ही है। मैं सोचती थी कि जब मैंने इतने सारे त्याग किये हैं, तो परमेश्वर मुझे और मेरे परिवार को सुकून और अच्छी सेहत का आशीष देगा। इसलिए मैंने खुद के या मेरे पति के बीमार होने पर, परमेश्वर को दोष दिया और उसे गलत समझा। मैंने तो परमेश्वर के सामने अनुचित मांगें भी रखीं, मैं चाहती थी वो मेरी समस्या और मेरे पति का कैंसर ठीक कर दे। जब परमेश्वर ने वह किया जो मुझे पसंद नहीं था, तो मेरा अपने कर्तव्य पर ध्यान देने का मन नहीं हुआ। फिर मैंने जाना कि आस्था को लेकर मेरी सोच कितनी बेतुकी थी। सच तो यह है, परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा कि विश्वासियों के साथ बुरी चीज़ें नहीं होंगी। वह सभी चीज़ों पर राज करता है—जन्म, मृत्यु, बीमारी और सेहत, सब उसी के हाथ में है, और विश्वासी इससे अलग नहीं हैं। परमेश्वर से हमें आशीष ही नहीं, बल्कि दुर्भाग्य भी मिलता है। कर्तव्य निभाना सबसे बुनियादी चीज़ है जो सृजित प्राणी को करनी चाहिए, इसका आशीष मिलने या न मिलने से कोई लेना-देना नहीं है। मगर शैतान ने मुझे इतनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया था कि मैं "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" और "फ़ायदा न हो तो उंगली भी मत उठाओ" जैसे शैतानी जहर के मुताबिक जी रही थी। मैं बस खुद के हितों के बारे में सोचती थी, मैंने परमेश्वर को इस्तेमाल की चीज़ समझ लिया था। अपनी पीड़ा और कड़ी मेहनत के बदले में, परमेश्वर से आशीष पाना चाहती थी। जब परमेश्वर ने कुछ ऐसा किया जो मेरे निजी हितों पर चोट करते थे, तो उसके लिये मेरे मन में शिकायतें और गलतफहमियां भर गईं, मैंने उससे तर्क करते हुए उसका विरोध किया। मैं किस तरह की विश्वासी थी? मैं तो एक गैर-विश्वासी, स्वार्थी, नीच और घटिया इंसान थी! इसका एहसास होने पर मुझे बहुत डर लगा। मैंने देखा कि अपनी आस्था में मैंने सत्य के अनुसरण पर नहीं, बल्कि सिर्फ अनुग्रह और आशीष पाने पर ध्यान दिया। मैं परमेश्वर के विरोध के मार्ग पर चल रही थी। इस तरह मुझे कभी सत्य हासिल नहीं होगा, मेरा भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदलेगा। आखिर में मुझे हटा दिया जाएगा! फिर मैंने देखा परमेश्वर मेरा न्याय करके मुझे उजागर करने के लिए उस हालत का इस्तेमाल कर रहा था। अगर परमेश्वर ने मुझे उजागर नहीं किया होता, तो मैं अपनी भ्रष्टता और दूषित आस्था को नहीं पहचान पाती। मुझे किसी भी तरह से शुद्ध करके बदला नहीं जा सकता था। परमेश्वर के उद्धार के लिए मैंने तहेदिल से उसका धन्यवाद किया।

फिर मैंने वचनों का एक और अंश पढ़ा, जो "जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शुद्धिकरण से अवश्य गुज़रना चाहिए" के पांचवें अंश से है। "तुम सोच सकते हो कि परमेश्वर पर विश्वास करना कष्ट सहने के बारे में है, या उसके लिए कई चीजें करना है; शायद तुम सोचो कि परमेश्वर में विश्वास का प्रयोजन तुम्हारी देह की शान्ति के लिए है, या इसलिए है कि तुम्हारी ज़िन्दगी में सब कुछ ठीक रहे, या इसलिए कि तुम आराम से रहो, सब कुछ में सहज रहो। परन्तु इनमें से कोई भी ऐसा उद्देश्य नहीं है जिसे लोगों को परमेश्वर पर अपने विश्वास के साथ जोड़ना चाहिए। यदि तुम इन प्रयोजनों के लिए विश्वास करते हो, तो तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है और तुम्हें पूर्ण बनाया ही नहीं जा सकता है। परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, उसकी बुद्धि, उसके वचन, और उसकी अद्भुतता और अगाधता, इन सभी बातों को मनुष्यों को अवश्य समझना चाहिए। इस समझ को पा लेने के बाद तुम्हें इसका उपयोग अपने हृदय के व्यक्तिगत अनुरोधों, आशाओँ और धारणाओं से छुटकारा पाने के लिए करना चाहिए। केवल इन्हें दूर करके ही तुम परमेश्वर के द्वारा माँग की गई शर्तों को पूरा कर सकते हो। केवल ऐसा करने के माध्यम से ही तुम जीवन प्राप्त कर सकते हो और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो। परमेश्वर पर विश्वास करना उसे संतुष्ट करने के वास्ते और उस स्वभाव को जीने के लिए है जो वह अपेक्षा करता है, ताकि इन अयोग्य लोगों के समूह के माध्यम से परमेश्वर के कार्यकलाप और उसकी महिमा प्रदर्शित हो सके। परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए यही सही दृष्टिकोण है और यह वो लक्ष्य भी है जिसे तुम्हें खोजना चाहिए" (वचन देह में प्रकट होता है)। परमेश्वर के वचनों ने दिखाया कि मुझे किस चीज़ का अनुसरण करना चाहिए। अपनी आस्था में मुझे किसी तरह के फ़ायदे या आशीष के पीछे नहीं भागना चाहिए, बल्कि परमेश्वर को जानने और संतुष्ट करने का तरीका खोजना चाहिए, अय्यूब की तरह परमेश्वर से कोई माँग या अनुरोध नहीं करना चाहिए। अय्यूब का मानना था कि उसके पास जो भी था वह परमेश्वर ने दिया था, तो चाहे परमेश्वर ने दिया हो या छीन लिया हो, चाहे उसे आशीष मिली हो या बदकिस्मती, उसने बिना शर्त परमेश्वर का आज्ञापालन किया और उसकी धार्मिकता की प्रशंसा की। जब शैतान ने अय्यूब की परीक्षा ली, उसकी सभी संपत्तियां चोरी हो गईं, उसके बच्चे मारे गये, उसका पूरा शरीर फोड़ों से भर गया, वह राख की ढेर के पास बैठकर ठीकरे से अपने फोड़ों को खुजाने लगा। उसने कभी परमेश्वर से शिकायत नहीं की, बल्कि उसके नाम का गुणगान करता रहा। परमेश्वर ने चाहे जो भी किया, अय्यूब एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाता रहा, उसके प्रति समर्पित होकर उसकी आराधना करता रहा। इसलिए अय्यूब की आस्था परमेश्वर के गुणगान के लायक है। इस समझ से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। मेरे पति की सेहत बेहतर हो या न हो, मुझे शिकायत किये बिना परमेश्वर के प्रति समर्पित होना होगा।

फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढे : "परमेश्वर पहले ही पूरी तरह से अपने सभी प्राणियों की उत्पत्ति, आगमन, जीवन-काल और अंत की योजना, और साथ ही उनके जीवन के लक्ष्य और पूरी मानवजाति में उनकी भूमिका की भी योजना बना चुका है। इन चीजों को कोई नहीं बदल सकता; यह सृष्टिकर्ता का अधिकार है। प्रत्येक प्राणी का आगमन, वे कितने समय तक जीवित रहते हैं, उनके जीवन का लक्ष्य—ये सभी नियम परमेश्वर द्वारा निर्धारित किए गए हैं, ठीक वैसे ही जैसे परमेश्वर ने प्रत्येक खगोलीय पिंड की कक्षा निर्धारित की थी; ये खगोलीय पिंड किस कक्षा का अनुसरण करते हैं, कितने वर्षों तक करते हैं, वे कैसे परिक्रमा करते हैं, वे किन नियमों का पालन करते हैं—यह सब बहुत पहले परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया गया था, जो हजारों-लाखों वर्षों से अपरिवर्तित है। यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया गया गया है, और यह उसका अधिकार है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है')। वचनों से मैंने देखा, हमारी किस्मत, उम्र और परिणाम, सब सृजनकर्ता के हाथों में है। हमारी मौत कब होगी यह परमेश्वर तय करता है, कोई भी इससे बच नहीं सकता। समय आने से पहले कैंसर भी हो जाये तो हम नहीं मरेंगे। यह परमेश्वर का अधिकार है और इसे कोई नहीं बदल सकता। इस समझ से मुझे थोड़ी राहत मिली। मैं जानती थी कि मेरे पति की सेहत परमेश्वर के हाथों में है, मैं बस परमेश्वर की व्यवस्था का पालन करते हुए अपना कर्तव्य निभा सकती थी। अस्पताल में कुछ दिनों तक उनकी कीमोथेरेपी हुई, हैरानी की बात थी कि उनके खून में कैंसर की कोशिकाएं नहीं थीं। सारे सूचक सामान्य थे। आधा ट्यूमर भी चला गया था। डॉक्टर ने कहा, ऐसा मामला शायद ही कभी देखने को मिलता है, यह कितनी अच्छी तरह काबू हो गया। हमारे बेटे ने बताया कि उसके सहपाठी के पिता को भी यही कैंसर हुआ था। उन्होंने बस एक बार कीमोथेरेपी कराई, कुछ महीनों के बाद उनकी मौत हो गई। यह सब सुनकर मैंने परमेश्वर का बहुत आभार माना। मुझे सबसे अधिक खुशी थी कि मेरे पति जो सिर्फ नाम के विश्वासी थे, हमेशा पैसे के पीछे भागते थे, कैंसर होने के बाद उन्हें परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता की कुछ समझ आयी, फिर उन्होंने अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ परमेश्वर के कर्मों की अपनी गवाही साझा की। मैंने देखा, इंसान को बचाने का परमेश्वर का कार्य कितना व्यवहारिक है। इन सारे अनुभवों से गुजरना उस समय काफी पीड़ादायक था, मगर मैंने इससे एक सबक सीखा और खुद को जाना, अपनी आस्था में अनुसरण के तरीके को ठीक किया। यही परमेश्वर का प्रेम और आशीष है! मुझे परमेश्वर के वचनों का ये भजन याद आ रहा है, "परमेश्वर का सच्चा प्रेम पाने की खोज करनी चाहिए तुम्हें।" "आज, व्यावहारिक परमेश्वर में विश्वास करने के लिए तुम्हें सही रास्ते पर कदम रखना होगा। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो तो तुम्हें सिर्फ़ परमेश्वर के आशीष की ही कामना नहीं करनी चाहिए, बल्कि परमेश्वर से प्रेम करने और परमेश्वर को जानने की कोशिश भी करनी चाहिए। परमेश्वर द्वारा प्रबुद्धता प्राप्त कर और अपनी व्यक्तिगत खोज के माध्यम से, तुम उसके वचनों को खा और पी सकते हो, परमेश्वर के बारे में सच्ची समझ विकसित कर सकते हो, और तुम परमेश्वर के प्रति एक सच्चा प्रेम अपने हृदयतल से आता महसूस कर सकते हो। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर के लिए तुम्हारा प्रेम बेहद सच्चा हो, और इसे कोई नष्ट नहीं कर सके या उसके लिए तुम्हारे प्रेम के मार्ग में कोई खड़ा नहीं हो सके, तब तुम परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में सही रास्ते पर हो। यह साबित करता है कि तुम परमेश्वर के हो, क्योंकि तुम्हारे हृदय पर परमेश्वर द्वारा कब्जा कर लिया गया है और अब कोई भी दूसरी चीज तुम पर कब्जा नहीं कर सकती है" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)

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