14. परमेश्वर में विश्वास करते हुए इंसान का अनुसरण करने पर चिंतन

क्षीयोलू, चीन

नवंबर 2018 में, एक उच्च अगुआ, ली हुआन, काम की देखरेख करने हमारी कलीसिया आई। तब, कलीसिया का एक सदस्य अगुआओं के खिलाफ पूर्वाग्रह फैलाकर रुकावट डालने के लिए एक गुट बना रहा था। हमने कई बार उसके साथ संगति की, पर उसने पश्चाताप नहीं किया। ये पक्का नहीं था कि वह मसीह-विरोधी है या नहीं, तो हमने ली हुआन से पूछा। ली हुआन ने मसीह-विरोधियों को परखने के सत्य पर हमारे साथ संगति की ताकि हम सही फैसला कर सकें, उसने हमें आगे का रास्ता दिखाया। बातों-बातों में यह भी पता चला कि जब ली हुआन एक नई अगुआ थी, तो उसने कलीसिया की अव्यवस्था दो हफ्तों में ही ठीक कर दी थी जिसे दूसरे दो महीनों में हल नहीं कर पाए थे। उच्च अगुआ होने के नाते, उसने कई कलीसियाओं के काम की देखरेख की थी और उनके बहुत-से मामले सुलझाए थे। मुझे पता भी नहीं चला और मैं उसका बहुत आदर करने लगी। फिर, जब ऐसी समस्याएं आतीं जो समझ न आतीं, तो हम ली हुआन का इंतजार करते कि वो हमारा मार्गदर्शन करे। एक महीने बाद, वह हमारी कलीसिया में वापस आई। मैंने फौरन उसे हमारी समस्याओं और कठिनाइयों के बारे में बताया, उसने फिर से सब कुछ तुरंत ठीक कर दिया। ली हुआन के साथ कुछ मुलाकातों के बाद ही मैं उसे सराहने लगी। मुझे लगा वह उच्च अगुआ बनने लायक है, उसके पास सत्य की समझ और विवेक है। जो समस्याएँ मुझसे हल नहीं हो रही थी उन्हें हल करना उसके लिए असान था। मैं यही उम्मीद करती कि वह अक्सर हमारा मार्गदर्शन करे। मैं तब हैरान रह गई जब कुछ महीनों बाद ली हुआन बर्खास्त हो गई। वह अपने काम में अहंकारी और तानाशाह थी, और सत्य नहीं स्वीकारती थी। उसने कलीसिया के कार्य में रुकावट डाली थी। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि वो बर्खास्त होगी, पर ये भी लगा कि शायद ये उसके लिए अच्छा हो। अगर वह खुद को समझकर बदल सके, तो फिर से अहम काम कर सकती थी, यह उसके लिए परमेश्वर का उद्धार था। उसकी बर्खास्तगी के बाद भी, मेरे दिल में उसकी जगह बिल्कुल नहीं बदली।

कुछ महीनों बाद, कलीसिया ने ली हुआन और मुझे निष्कासित कर हटाए गए लोगों की जानकारी व्यवस्थित करने का काम सौंपा। मैं बहुत उत्साहित थी। मैं उस मौके का सही इस्तेमाल करके उससे काफी कुछ सीखना चाहती थी। बाद में मुद्दों पर चर्चा करते समय, वह हमेशा संगति करने के लिए सही सिद्धांत और समस्या का हल ढूंढ लेती थी। वह अक्सर बताती कि आस्था में आने के कुछ समय बाद ही वो अगुआ बन गई, अपनी कड़ी मेहनत से काम में सुधार लाया, और कैसे बर्खास्तगी के बाद उसने खुद को जाना, उसने कहा कि कलीसिया उसे फिर से अहम काम सौंप रही थी। यह सब सुनकर मैं उसके बारे में और भी ऊंचा सोचने लगी, कोई सवाल होता तो मैं उसके पास ही जाती थी। उसके पास हमेशा कोई जवाब होता था। समय के साथ, मैंने प्रार्थना पर ध्यान देना और अपने काम में परमेश्वर को खोजना बंद कर दिया, मैं ली हुआन पर भरोसा करती थी, मुझे उसकी सारी बात सही लगती थी। मगर तब मैं उसके बारे में बहुत ऊंचा सोचती थी। आँखें मूंदकर उसे पूजते हुए मैं एक बहुत बड़ा पाप करने वाली थी।

एक दिन, मैंने निष्कासित किए जाने का एक आवेदन देखा जिसमें लिखा था कि जब झांग पिंग अगुआ थी, तो उसने अपने परिवार के सामने अपने साथी की आलोचना की थी, क्योंकि वह उसके खिलाफ थी। उसके परिवार ने यही सारी बातें समूह की सभा में बता दीं। कलीसिया अगुआ ने बस उस एक वजह से झांग पिंग को मसीह-विरोधी करार दिया। उसके परिवार को लगा कि मामले का निपटान सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हुआ, तो उन्होंने चिट्ठी लिखकर इसकी रिपोर्ट कर दी। इस पर कलीसिया अगुआ ने झांग पिंग के पूरे परिवार को मसीह-विरोधियों का गिरोह बताकर उन्हें सबसे अलग कर दिया। झांग पिंग के निष्कासन से जुड़े दस्तावेजों को देखकर, मुझे लगा कि वह बस भ्रष्ट स्वभाव में जी रही थी और दूसरों की थोड़ी आलोचना की थी। वह रुतबा पाने या अपना राज्य बनाने के लिए नहीं लड़ रही थी—वह मसीह-विरोधी नहीं थी। उसके परिवार ने रिपोर्ट लेटर लिखकर बस समस्या बताई थी, उन्होंने गुट बनाकर कलीसिया के काम में रुकावट नहीं डाली थी। उन्हें मसीह-विरोधी नहीं कहा जाना चाहिए था। फिर, मैं कुछ साल पहले झांग पिंग के संपर्क में थी। उसके पास स्वीकार्य मानवता थी, वह कुकर्मी तो नहीं लगी। मुझे लगा कि कहीं अगुआ ने उसे मसीह-विरोधी कहकर निष्कासित करके गलती तो नहीं की। यह कोई छोटी बात नहीं है। मैं इस मामले में ली हुआन की मदद लेना चाहती थी। मुझे हैरानी हुई जब उसने दृढ़ता से यह कहा, "झांग पिंग ने अपने साथी की आलोचना की थी, यह एक कुकर्म है। उसके परिवार ने उसकी ओर से बात की, तो वह मसीह-विरोधियों का गिरोह है। चाहो तो हम जांच कर सकते हैं कि क्या उन्होंने और कुकर्म किए हैं।" उसका इस तरह से फैसला सुनाना मुझे सही नहीं लगा, पर फिर मैंने सोचा अगर ली हुआन को इतना यकीन है, तो उसे वास्तव में चीजों की समझ होगी। आखिरकार, वह उच्च अगुआ रह चुकी है, उसके पास काफी अनुभव और विवेक है। वह बेशक सत्य और चीजों को मुझसे बेहतर समझती होगी। मैंने अपना राग बदलकर कहा, "कुछ सालों से झांग पिंग से बात नहीं हुई। पता नहीं उसने कोई और कुकर्म किया है या नहीं। जांच करके फैसला करते हैं।" जल्द ही मुझे झांग पिंग के बारे में और जानकारी मिली। उसने कोई और कुकर्म नहीं किया था, और अपने साथी की आलोचना करने के बाद उसने आत्मचिंतन करके खुद को पहचान लिया था। उसके परिवार वाले हर जगह भ्रम नहीं फैला रहे थे, न दूसरों को झांग पिंग का साथ देने को कहते थे। उनके बर्ताव को देखें, तो उन्हें मसीह-विरोधी कहकर निष्कासित नहीं करना चाहिए था। वह घृणा से पूर्ण थी, उसकी राय में झांग पिंग को मसीह-विरोधी कहना गलत नहीं था। उसने यह भी कहा, "अगर हम मसीह-विरोधियों को कलीसिया में रहने दें और वे कुकर्म करके बाधाएं डालें, तो उनके कुकर्म में हमारा भी हाथ होगा!" एक और बहन ली हुआन से सहमत नहीं थी। उसका भी यही कहना था कि वे मसीह-विरोधियों का गिरोह नहीं थे, उन्होंने बस थोड़ी भ्रष्टता दिखाई थी, और हमें उन्हें कलीसिया में वापस बुला लेना चाहिए। ली हुआन ने अभी भी यकीन के साथ कहा, "झांग पिंग मसीह-विरोधी नहीं पर एक कुकर्मी तो है ही। उसने अपने परिवार के सामने अपने सहकर्मी की निंदा की, उसके परिवार ने वही बातें सभा में बताईं, फिर रिपोर्ट भी लिखी। क्या यह कलीसिया में रुकावट डालना नहीं हुआ? हम उन्हें वापस नहीं बुला सकते, पर हमें उनके कुकर्मों के बारे में और जानना होगा।" मगर ली हुआन की बात सुनने के बाद मैं थोड़ा संकोच करने लगी। जब उसे झांग पिंग के निष्कासन को लेकर इतना यकीन है, तो क्या इस बारे में मेरी सोच सीमित है? क्या झांग पिंग वाकई कुकर्मी थी? ली हुआन लंबे समय से अगुआ रही है, तो जाहिर है कि उसे चीजों की समझ मुझसे बेहतर होगी। मुझे लगा मुझमें विवेक की कमी है और हमें झांग पिंग के कामों की जांच करते रहना चाहिए। भले ही मेरा मन पूरी तरह शांत नहीं था, पर मैंने दृढ़ता से कुछ भाई-बहनों को इसकी जांच करने को कह दिया। ये सब करके मुझे बहुत बेचैनी और आध्यात्मिक अंधकार महसूस हुआ। मैं इसे शब्दों में बयान नहीं कर सकती। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, इस हालात के द्वारा खुद को पहचानने और उसकी इच्छा के अनुसार काम करने में मेरा मार्गदर्शन करने को कहा।

प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों में इसे पढ़ा : "परमेश्वर हर कलीसिया और हर व्यक्ति पर नजर रखता है। कलीसिया में चाहे कितने ही लोग अपना कोई कर्तव्य क्यों न निभा रहे हों, या परमेश्वर का अनुसरण क्यों न कर रहे हों, जैसे ही वे परमेश्वर के वचनों से भटकते हैं, जैसे ही वे पवित्र आत्मा के कार्य से वंचित होते हैं, वे परमेश्वर के कार्य को अनुभव नहीं कर पाते, और उनका और उनके द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्य का परमेश्वर के कार्य से कोई संबंध या इसमें कोई हिस्सेदारी नहीं रह जाती। ऐसे मामले में कलीसिया धार्मिक समूह बन जाते हैं। क्या तुम लोग यह नहीं कहोगे कि ये बहुत बड़े खतरे में हैं? कोई समस्या आने पर वे कभी भी सत्य की खोज नहीं करते, और सत्य के सिद्धांतों के आधार पर नहीं चलते, बल्कि वे मनुष्यों की व्यवस्थाओं और तिकड़मों में फंस जाते हैं। बहुत-से ऐसे भी हैं जो अपना कर्तव्य निभाते समय कभी भी प्रार्थना या सत्य के सिद्धांतों की खोज नहीं करते; वे सिर्फ दूसरों से पूछकर उनके अनुसार चलते रहते हैं, उनकी देखादेखी सब कुछ करते रहते हैं। दूसरे लोग उन्हें जो करने को कहते हैं, वे वही करते हैं। उन्हें लगता है कि अपनी समस्याओं के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करना और सत्य की खोज एक अस्पष्ट-सी और मुश्किल चीज है, इसलिए वे कोई सीधा-सादा और आसान हल तलाशते हैं। उन्हें लगता है कि दूसरों पर निर्भर रहना और उनके अनुसार चलते रहना आसान और कहीं ज्यादा व्यावहारिक है, और इसलिए, वे वही करते हैं जो जो दूसरे लोग कहते हैं, हर काम में दूसरों से पूछते रहना और वैसा ही करते रहना। परिणामस्वरूप, वर्षों के विश्वास के बाद भी, जब भी वे किसी समस्या का सामना करते हैं तो वे कभी भी परमेश्वर के सम्मुख आकर प्रार्थना नहीं करते और उसकी इच्छा और सत्य को जानने की कोशिश नहीं करते, ताकि उन्हें सत्य की समझ आ सके, और वे परमेश्वर की इच्छानुसार कार्य और व्यवहार कर सकें—उन्हें कभी भी ऐसा कोई अनुभव नहीं हो पाता। क्या ऐसे लोग सचमुच परमेश्वर में आस्था का अभ्यास करते हैं?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'निरंतर परमेश्वर के सामने रहकर ही तू उद्धार के पथ पर चल सकता है')। वचन कहते हैं कि जिनके दिल में परमेश्वर के लिए जगह नहीं होती, वे सत्य के सिद्धांत नहीं खोजते, बल्कि दूसरों की बात सुनकर उनकी योजना के अनुसार चलते हैं। यह परमेश्वर में आस्था का अभ्यास नहीं है, वह ऐसी आस्था नहीं स्वीकारता। क्या मेरी हालत ऐसी ही नहीं थी? झांग पिंग के परिवार के मामले में, ली हुआन को पूरा यकीन था वे मसीह-विरोधियों का गिरोह थे। मुझे लगा यह तथ्यों के अनुरूप नहीं था, पर मैं उसका इतना आदर करती थी कि मैंने सत्य के सिद्धांत नहीं खोजे। उसने मुझे जो करने को कहा मैंने वही किया। हमारी जांच-पड़ताल के नतीजों से पता चला कि उनके साथ गलत हुआ था, पर ली हुआन की दृढ़ता देखकर, मैंने अपने मन की बात नहीं सुनी। बेचैनी महसूस करने के बाद भी, मैंने सत्य के सिद्धांत नहीं खोजे। मैंने न चाहते हुए भी ली हुआन का कहना माना। मेरे दिल में परमेश्वर की कोई जगह नहीं थी। यह आस्था रखना कैसे हुआ? मैं बद से बदतर महसूस करने लगी थी। मैं हमेशा खुद को एक सच्ची विश्वासी मानती थी। सोचा नहीं था कि मैं किसी की इतनी प्रशंसा और अनुसरण करूंगी। मुझे अजीब-सा लगा। परमेश्वर पहले ही मुझसे घृणा करने लगा था, अगर पश्चाताप नहीं किया तो सचमुच निकाल दी जाऊँगी। इस विचार से मैं बहुत डर गई, तो मैंने प्रार्थना की, अपनी हालत सुधारने में परमेश्वर से मार्गदर्शन माँगा, ताकि मैं सत्य खोजकर झांग पिंग और उसके परिवार से सिद्धांत के अनुसार बर्ताव कर सकूँ।

उसके बाद मैंने झांग पिंग के मामले से जुड़े सत्य के सिद्धांत खोजे, भ्रष्ट स्वभाव वाले आम इंसान और एक मसीह-विरोधी के बीच का अंतर जाना। मसीह-विरोधियों का मुख्य लक्षण है कि वे सत्ता को जीवन मानते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर काबू करना चाहते हैं। वे सत्ता पाने के लिए लोगों को दंड देते हैं। वे बहुत से कुकर्म करके परमेश्वर के घर के कार्य में गंभीर रुकावट डालते हैं। और फिर, मसीह-विरोधी सार रूप से मानवता रहित दुष्ट होते हैं। चाहे वे कितने भी कुकर्म करें, उन्हें अफसोस नहीं होता, पश्चाताप करना तो दूर की बात है। आम भ्रष्ट लोग नाम और रुतबा पाने के लिए बोलते और काम करते हैं, पर उनमें विवेक और अंतरात्मा होती है, वे सत्य स्वीकार कर आत्मचिंतन कर सकते हैं। गलत मार्ग पर चलने के बाद, वे भाई-बहनों के निपटान के साथ ही परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से सबक लेकर पश्चाताप कर सकते हैं। जैसे कि परमेश्वर के वचन कहते हैं, "चाहे कोई भी हो, चाहे उसने कितनी ही बुराई की हो, चाहे उनकी गलतियाँ कितनी ही बड़ी क्यों न हों, क्या वे मसीह-विरोधी हैं या मसीह-विरोधी के स्वभाव से युक्त हैं, यह इस बात से तय होता है कि क्या वे सत्य को स्वीकार करने में सक्षम हैं, क्या वे काट-छांट और निपटान को स्वीकार करने में सक्षम हैं, और क्या वे सचमुच पछतावा करते हैं। अगर वे सत्य की स्वीकार कर सकते हैं, काट-छांट और निपटान को स्वीकार कर सकते हैं, सचमुच पछतावा करते हैं, और अपना जीवन खुशी-खुशी परमेश्वर की सेवा में अर्पित कर देते हैं, तो उनमें पश्चाताप का कुछ इरादा है, और ऐसे लोगों को मसीह-विरोधियों के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। अब मेरा दिल जान चुका था कि झांग पिंग मसीह-विरोधी नहीं थी, न ही उसका परिवार मसीह-विरोधियों का गिरोह था। मैं दुविधा में रहकर बिना सोचे किसी की बातों में नहीं आ सकती।

मैंने सत्य की खोज जारी रखी। ली हुआन और मेरी सोच अलग थी, तो मैंने सिद्धांत क्यों नहीं खोजे, क्यों बिना सोचे-समझे उसका साथ देती रही? समस्या की जड़ क्या थी? तब मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : "तुम मसीह की विनम्रता की प्रशंसा नहीं करते, बल्कि विशेष हैसियत वाले उन झूठे चरवाहों की प्रशंसा करते हो। तुम मसीह की मनोहरता या बुद्धि से प्रेम नहीं करते, बल्कि उन व्यभिचारियों से प्रेम करते हो, जो संसार के कीचड़ में लोटते हैं। तुम मसीह की पीड़ा पर हँसते हो, जिसके पास अपना सिर टिकाने तक की जगह नहीं है, लेकिन उन मुरदों की तारीफ करते हो, जो चढ़ावे हड़प लेते हैं और ऐयाशी में जीते हैं। तुम मसीह के साथ कष्ट सहने को तैयार नहीं हो, लेकिन खुद को उन धृष्ट मसीह-विरोधियों की बाँहों में प्रसन्नता से फेंक देते हो, जबकि वे तुम्हें सिर्फ देह, शब्द और नियंत्रण ही प्रदान करते हैं। अब भी तुम्हारा हृदय उनकी ओर, उनकी प्रतिष्ठा, उनकी हैसियत, उनके प्रभाव की ओर ही मुड़ता है। अभी भी तुम ऐसा रवैया बनाए रखते हो, जिससे मसीह के कार्य को गले से उतारना तुम्हारे लिए कठिन हो जाता है और तुम उसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुममें मसीह को स्वीकार करने की आस्था की कमी है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?')। वचन पढ़कर, मैंने जाना कि मैं एक इंसान की पूजा कर उसका अनुसरण कर रही थी, क्योंकि मेरी आस्था में, मसीह सर्वोपरि नहीं था, बल्कि मैं रुतबे और सत्ता को पूजती थी। ली हुआन बड़ी अगुआ थी और काम की देखरेख करते हुए उसने कुछ अच्छे हल निकाले थे, तो मुझे लगा वह सत्य जानती है, इसलिए मैंने उसके बारे में ऊंचा सोचा, उसकी प्रशंसा की। इसी कारण आपसी सहयोग में मैं कोई सुझाव या राय नहीं देती थी। वह जो कहती मैं वही करती थी, उसके शब्दों को सत्य मानती थी। झांग पिंग और उसके परिवार को निष्कासित करने जैसे अहम मामले में भी मैंने बिना सोचे-समझे ली हुआन का साथ दिया, जिससे उस परिवार की कलीसिया में वापसी और उनके जीवन प्रवेश में देरी हो गई। परमेश्वर हर एक इंसान के जीवन को संजोता है। झूठे अगुआओं के दबाव में रहने वाले लंबे समय तक कलीसिया का जीवन नहीं जी पाते। बेबस और पीड़ित होकर वे अंधकार में जीते हैं। मगर मैंने परमेश्वर की इच्छा का ध्यान नहीं रखा—दूसरों के जीवन की जिम्मेदारी नहीं उठाई। झांग पिंग के परिवार के मामले में मैं एक इंसान की बात सुनती रही। मैं बहुत भ्रमित थी। उस आध्यात्मिक अंधकार और पीड़ा के बिना मेरी आँखें कभी नहीं खुलती, मैं गलत मार्ग पर चलती रहती। मैंने पश्चाताप में परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर! मैं एक इंसान को पूजकर उसका अनुसरण नहीं करना चाहती। मैं तुम्हें महान मानकर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार काम करना चाहती हूँ।" बाद में जब मैंने ली हुआन से मिलकर उसके साथ अपनी राय साझा की, तो उसने बेरुखी से कहा, "बाद में बात करते हैं।" फिर उसने विषय बदल दिया। मैंने देखा कि वह अपनी सोच पर अड़ी हुई थी, उसे दूसरों के जीवन की कोई परवाह नहीं थी। मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने संकल्प लिया कि चाहे जो हो जाए, मैं झांग पिंग के परिवार के के बारे में अगुआ को बता कर रहूँगी। कुछ दिनों बाद जब अगुआ कुछ काम पूरा करने आई और यह खुलासा किया कि ली हुआन सफाई के काम में तानाशाही कर रही थी, उसने मनमाने ढंग से सिद्धांतों के खिलाफ जाकर लोगों को आंका और कलीसिया के कार्य में गंभीर रुकावट डाली, और ली हुआन को बर्खास्त कर दिया। असल में झांग पिंग के मामले में, ली हुआन अच्छे से जानती थी कि वह गलत थी, पर मानना नहीं चाहती थी। उसने झांग पिंग में दोष ढूंढने के लिए जानकारी जुटाने में खुद लोगों की व्यवस्था की, वह उसे और उसके परिवार को मसीह-विरोधी बताकर निष्कासित करने पर डटी थी। मुझे बहुत गुस्सा आया। उसने अपना रुतबा बचाने के लिए भाई-बहनों के जीवन की परवाह नहीं की। यह बहुत बुरी बात थी। ली हुआन के साथ बिताए वक्त को याद करूं, तो वह हमेशा अपनी कड़ी मेहनत के बारे में बताती थी, इसलिए मुझे लगा कि वह सत्य खोजने वाली इंसान है। मैं सत्य के आधार पर उसकी मंशाओं और उसके कर्मों के सार का विश्लेषण नहीं कर पाई। वास्तव में अनुभव साझा करने का मतलब है इस बारे में बातें करना कि परमेश्वर के न्याय से क्या सीख मिली, तुमने क्या सत्य सीखे और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कैसे सत्य का अभ्यास किया। मगर ली हुआन वास्तविक समझ पर बात नहीं कर पाती थी। उसने जिन मुश्किल घड़ियों की बात की वह खुद को ऊंचा उठाने, खुद की गवाही देने और प्रशंसा पाने के लिए थी। वह एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। फिर मैं ली हुआन को थोड़ा-बहुत समझ गई, तो मुझे खुद से और नफरत हुई। बरसों विश्वासी रहने के बाद भी, मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार चीजों को नहीं देखा। बस लोगों की खूबियाँ और काबिलियत देखी, रुतबे और सत्ता की प्रशंसा की। मैं ली हुआन के साथ कुकर्म की राह पर चलकर भाई-बहनों का जीवन बर्बाद करने ही वाली थी। ये गलती सुधारी नहीं जा सकती थी। मैं बहुत नासमझ और बेवकूफ थी! इस विचार से मुझे डर लगने लगा।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "जब कोई व्यक्ति भाई-बहनों द्वारा अगुआ के रूप में चुना जाता है या परमेश्वर के घर द्वारा कोई निश्चित कार्य करने या कोई निश्चित कर्तव्य निभाने के लिए उन्नत किया जाता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि उसकी कोई विशेष हैसियत या पहचान है या वह जिन सत्यों को समझता है, वे अन्य लोगों की तुलना में अधिक गहरे और संख्या में अधिक हैं—तो ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम है और उसे धोखा नहीं देगा। इसका यह मतलब भी नहीं है कि ऐसे लोग परमेश्वर को जानते हैं और परमेश्वर का भय मानते हैं। वास्तव में उन्होंने इसमें से कुछ भी हासिल नहीं किया है; उन्नति और विकास का सीधे-सीधे अर्थ केवल उन्नति और विकास ही है, यह परमेश्वर के विधान या उसके द्वारा सही ठहराए जाने के समतुल्य नहीं है। उनकी उन्नति और विकास का सीधा-सा अर्थ है कि उन्हें उन्नत किया गया है, और वे विकसित किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। और इस विकसित किए जाने का अंतिम परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि क्या यह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है और क्या वह सत्य के अनुसरण का रास्ता चुनने में सक्षम है। इस प्रकार, जब कलीसिया में किसी को अगुआ बनने के लिए उन्नत और विकसित किया जाता है, तो उसे सीधे अर्थ में उन्नत और विकसित किया जाता है; इसका यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही योग्य अगुआ है, या सक्षम अगुआ है, कि वह पहले से ही अगुआ का काम करने में सक्षम है, और वास्तविक कार्य कर सकता है—ऐसा नहीं है। ज्यादातर लोगों को इन चीजों के बारे में स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देता, और वे इन पदोन्नत लोगों की कल्पनाओं पर भरोसा करते हुए उनका सम्मान करते हैं, पर यह एक भूल है। जिन्हें उन्नत किया जाता है, उन्होंने चाहे कितने ही वर्षों से विश्वास रखा हो, क्या उनके पास वास्तव में सत्य की वास्तविकता होती है? ऐसा जरूरी नहीं है। क्या वे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं को साकार करने में सक्षम हैं? अनिवार्य रूप से नहीं। क्या उनमें जिम्मेदारी की भावना है? क्या उनमें प्रतिबद्धता है? क्या वे परमेश्वर के प्रति समर्पित हैं? जब उनके सामने कोई समस्या आती है, तो क्या वे सत्य की खोज करते हैं? यह सब अज्ञात है। क्या इन लोगों के अंदर परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है? और उनमें परमेश्वर का आखिर कितना अधिक भय है? क्या काम करते समय उनके द्वारा अपनी इच्छा का पालन करने की संभावना रहती है? क्या वे परमेश्वर की खोज करने में समर्थ हैं? अगुआ का कार्य करने के दौरान क्या वे परमेश्वर की इच्छा की खोज करने के लिए नियमित रूप से और अकसर परमेश्वर के सामने आते हैं? क्या वे लोगों का सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं? निश्चय ही वे तुरंत ऐसी चीजें कर पाने में अक्षम होते हैं। उन्हें प्रशिक्षण नहीं मिला है और उनके पास बहुत थोड़ा अनुभव है, इसलिए वे ये चीजें नहीं कर पाते। इसीलिए, किसी को उन्नत और विकसित करने का यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही सत्य को समझता है, और न ही इसका अर्थ यह है कि वह पहले से ही अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से करने में सक्षम है। ... मेरे यह कहने का क्या मतलब है? सभी को यह बताना कि उन्हें परमेश्वर के घर में विभिन्न प्रकार की प्रतिभाओं की उन्नति और विकास को सही तरह से लेना चाहिए, और इन लोगों से अपनी अपेक्षाओं में कठोर नहीं होना चाहिए। स्वाभाविक रूप से, लोगों को उनके बारे में अपनी राय में अयथार्थवादी भी नहीं होना चाहिए। उनकी अत्यधिक सराहना या सम्मान करना मूर्खता है, तो उनके प्रति अपनी अपेक्षाओं में अत्यधिक कठोर होना भी मानवीय या यथार्थवादी नहीं है। तो उनके साथ व्यवहार कार्य करने का सबसे तर्कसंगत तरीका क्या है? उन्हें सामान्य लोगों की तरह ही समझना, और जब कोई ऐसी समस्या आए जिसे खोजने की आवश्यकता हो, तो उनके साथ संगति करना और एक-दूसरे की क्षमताओं से सीखना और एक-दूसरे का पूरक होना" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। किसी के अगुआ चुने जाने का यह मतलब नहीं कि वह सत्य समझता है और अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकता है। अगुआ भी भ्रष्ट होते हैं। वह अपनी मनमर्जी और अनुभव से काम कर सकते हैं, सिद्धांतों का उल्लंघन कर सकते हैं। हमें बिना सोचे किसी का अनुसरण न करके, सत्य के सिद्धांतों के अनुसार लोगों को परखना चाहिए। सबसे बड़ी बात, भले ही सत्य पर अगुआ की संगति रोशनी देने वाली हो, पर यह पवित्र आत्मा का प्रबोधन है और इसे परमेश्वर से स्वीकारना चाहिए। हमें आँखें मूँदे किसी की पूजा और अनुसरण नहीं करना चाहिए। अगर किसी अगुआ के काम में गलतियाँ या भूल-चूक होती हैं, या अगर वह सत्य के किसी सिद्धांत का उल्लंघन करता है, तो मामले को ठीक से संभालना चाहिए। प्यार से उसकी गलतियां बताकर मदद की जानी चाहिए, ताकि वह खुद को बदलकर सिद्धांत के अनुसार काम करे। मगर मैं रुतबे और सत्ता की पूजा करती थी, तो गलती से यह समझ बैठी कि उच्च अगुआ होने के नाते ली हुआन मुझसे बेहतर सत्य समझती है। मेरी सोच का कोई आधार नहीं था। वह बरसों से अगुआ थी, उसे काम का थोड़ा अनुभव भी था, वह कुछ सिद्धांत बोल और समस्याएं हल कर सकती थी, पर इसका मतलब यह नहीं कि वह सत्य समझती थी। इस रोशनी में ली हुआन को देखें, तो उसकी संगति और समझ अक्सर उच्च लगती थी, वो कहती कि कोई बात न समझने पर अपने विचारों पर अड़े रहने के बजाय सत्य खोजना चाहिए। मगर समस्या का सामना होते ही, वह हमेशा मनमर्जी चलाती थी। वह दूसरों की सलाह नहीं मानती थी, सत्य तो बिल्कुल नहीं खोजती थी। बिना किसी वास्तविकता के बस सिद्धांत की बातें करती थी। उसे अपनी अहंकारी, शैतानी प्रकृति की कोई समझ नहीं थी, उसने आत्मचिंतन भी नहीं किया, वह अपना रुतबा बनाए रखने के लिए यूं ही लोगों को निष्कासित करती थी। यह स्पष्ट था कि वह एक झूठी अगुआ और एक मसीह-विरोधी थी।

इसके बाद झांग पिंग और उसके परिवार को कलीसिया में वापस बुला लिया गया। यह सोचकर कि कैसे करीब दो महीनों से वे लोग कलीसिया का जीवन नहीं जी पाए और उन्होंने कितनी आध्यात्मिक पीड़ा सही, मुझे इतना बुरा लगा कि बता नहीं सकती। किसी की बातों में आकर सत्य न खोजने पर मुझे खुद से नफरत हो गई। अगर मैंने सत्य के सिद्धांत खोजकर फौरन उन्हें कलीसिया में बुला लिया होता, तो उनके जीवन प्रवेश में देरी नहीं हुई होती। तब मुझे एहसास हुआ कि बिना सोचे-समझे किसी की पूजा करने से हम भी उनके साथ परमेश्वर का विरोध और कुकर्म कर सकते हैं। मुझे इससे भी नफरत हुई कि मैं कितनी भ्रमित और अंधी थी, मैंने इतने बड़े कुकर्म में किसी का साथ दिया। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "परमेश्वर में विश्वास के वर्णन का सबसे सरल तरीका है इस भरोसे का होना कि एक परमेश्वर है, और इस आधार पर, उसका अनुसरण करना, उसका आज्ञा-पालन करना, उसके प्रभुत्व, आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार करना, उसके वचनों को सुनना, उसके वचनों के अनुसार जीवन जीना, हर चीज़ को उसके वचनों के अनुसार करना, एक सच्चा सृजित प्राणी बनना, और उसका भय मानना और बुराई से दूर रहना; केवल यही परमेश्वर में सच्चा विश्वास होता है। परमेश्वर के अनुसरण का यही अर्थ होता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'धर्म में विश्‍वास से कभी उद्धार नहीं होगा')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि अपनी आस्था में हमें कम से कम परमेश्वर का भय मानना, उसे महान मानना, और सत्य के सिद्धांत तो खोजना ही चाहिए। अगर किसी व्यक्ति की बातें सत्य के अनुरूप हैं, तो उसका अनुसरण करना चाहिए। मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं की बातों को ठुकरा देना चाहिए। सब कुछ परमेश्वर के वचनों के अनुसार होना चाहिए। यही सच्ची आस्था और परमेश्वर का सच्चा अनुसरण है। परमेश्वर का धन्यवाद! परमेश्वर के अनुसरण का मार्ग मुझे साफ दिखने लगा।

एक दिन जब मैं कलीसिया अगुआ, बहन वांग के साथ लोगों की ट्रेनिंग पर चर्चा कर रही थी, तो उन्होंने बताया बहन गाओ चीजों को अनुभव करने में अच्छी है, और सत्य पर उसकी सहभागिता व्यावहारिक है, तो अगुआ के तौर पर उसका पोषण किया जा सकता है। मगर जब मैं बहन गाओ से मिली, तो मुझे पता चला कि उसमें काबिलियत की कमी थी और वह सत्य अच्छे से नहीं समझती थी। वह अपने कर्तव्य में बहुत निष्क्रिय थी, कई बार उसे महीनों तक अच्छे परिणाम नहीं मिलते थे। वह अच्छी उम्मीदवार नहीं थी। मगर क्योंकि बहन वांग ने उसकी सिफारिश की थी, तो मुझे लगा मैं ही चीजों को समझ नहीं रही। बहन वांग बरसों से कलीसिया अगुआ रही है, तो उसे मुझसे बेहतर परख होगी। मैंने तय किया कि मुझे अगुआ की बात माननी चाहिए। मगर ऐसा सोचकर मैं दोषी महसूस करने लगी। मुझे एहसास हुआ मेरा ध्यान बहन वांग के रुतबे और अगुआ के तौर पर इतने बरसों के काम पर था। क्या मैं रुतबे और सत्ता को पूजते हुए फिर से एक इंसान का अनुसरण नहीं कर रही थी। मैंने झांग पिंग और उसके परिवार के मामले को याद किया। सिद्धांतों को कायम न रखकर सत्ता की पूजा करने के परिणाम से मुझे बड़ी तकलीफ हुई थी। फिर से वही हालात सामने लाकर परमेश्वर मेरी परीक्षा ले रहा था। अगर अब भी मैं सिद्धांतों को कायम न रखकर एक गलत इंसान को तरक्की देती, तो इससे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में देरी हो जाती। बहन वांग अगुआ थी, मगर इसका मतलब यह नहीं कि वह सत्य जानती थी या लोगों को अच्छे से समझती थी। मुझे बस उसकी सलाह पर विचार करना था। देखना था कि बहन गाओ का सिद्धांतों के अनुसार पोषण किया जाना चाहिए या नहीं। बाद में, मैंने बहन गाओ के बारे में मूल्यांकन इकट्ठे किए, जिससे साफ हो गया कि उसमें काबिलियत की कमी है और वह व्यावहारिक कार्य नहीं करती, तो वह अच्छी उम्मीदवार नहीं थी। मैंने अपने विचार बहन वांग को बताए और उसने मुझसे सहमत जताई। मैं जान गई थी कि शांति पाने का एकमात्र तरीका सत्य का अभ्यास करना है, न कि आँख बंद करके किसी की बात मानना। झांग पिंग और उसके परिवार के मामले को तीन साल से ज्यादा हो गए, पर यह मेरे दिल पर छप गया है। कभी न भूलने वाली इस सीख से मैं अपनी आस्था में किसी इंसान का अनुसरण करने के परिणामों को देख पाई। मैंने यह भी अनुभव किया कि सत्य खोजना और सत्य के अनुसार काम करना ही परमेश्वर का अनुसरण करने और उसकी स्वीकृति पाने का एकमात्र रास्ता है।

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