36. अंत के दिनों में परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने के बाद, हम एक नया जीवन प्राप्त करते हैं

झुई क्यू, मलेशिया

मैं एक ब्यूटिशन हूँ और मेरे पति एक किसान हैं; हमारी मुलाक़ात मलेशिया में नारंगी उछालने के उस एक कार्यक्रम के दौरान हुई थी जो प्रेमी की तलाश करती स्‍त्रियों की एक पारम्‍परिक गतिविधि के तौर पर आयोजित किया जाता है। हमारा विवाह एक साल बाद एक पादरी की साक्षी में एक कलीसिया में हुआ था। उस पादरी ने हमारे विवाह के लिए जो प्रार्थना की थी उससे मैं बहुत प्रभावित हुई थी| हालाँकि मैं धार्मिक नहीं थी, तब भी मैंने मन ही मन परमेश्‍वर से याचना की थी: "यह आदमी मुझे हमेशा प्‍यार करे, मेरा ख़याल रखे, और जीवन भर मेरा संगी बना रहे।"

वैवाहिक जीवन की शुरुआत के बाद, मेरे और मेरे पति के बीच एक के बाद एक तकरारें सामने आने लगीं। वे सब्जियाँ बेचने सुबह 4 बजे घर निकल जाते थे और शाम 7 के पहले घर वापस नहीं आते थे, लेकिन मैं अपने काम से रात 10 के पहले वापस नहीं लौट पाती थी। हमारे पास साथ बिताने के लिए बहुत थोड़ा-सा वक्‍़त बचता था। जब मैं थकी-हारी घर लौटती, तो मैं अपने पति से चिन्‍ता, दुलार, और समझदारीपूर्ण सुलूक की उम्‍मीद करती थी; मैं चाहती थी कि वे मुझसे पूछें कि मेरा काम कैसा रहा, मैं खुश हूँ या नहीं। लेकिन मैं जब भी घर लौटती, तो मुझे निराशा होती, अगर वे टीवी नहीं देख रहे होते थे तो अपने फ़ोन में लगे होते थे, और कभी-कभी तो वे मुझसे हेलो कहने तक की परवाह नहीं करते थे। ये कुछ ऐसा व्‍यवहार था जैसे मेरा वजूद ही न हो। इससे मैं सचमुच उदास हो जाती और धीरे-धीरे मेरा मन अपने पति के प्रति असन्‍तोष से भरता गया।

एक बार एक ग्राहक से मेरी अनबन हो गयी और मैं वास्‍तव में खीज और नाइंसाफ़ी महसूस कर रही थी। घर पहुँचने पर मैंने इस उम्‍मीद में इसके बारे में अपने पति को बताया कि वे मुझे सान्‍त्‍वना देंगे, लेकिन मुझे यह देखकर आश्‍चर्य हुआ कि अपने फ़ोन से खेलते हुए उन्‍होंने महज़ सरसरी निगाह से मेरी ओर देखते हुए मेरी ओर कोई ख़ास ध्‍यान तक नहीं दिया। इसके बाद सिर झुकाकर तुरन्‍त अपने फ़ोन में लग गये। मेरे प्रति उनकी यह घोर उदासीनता वाक़ई विचलित करने वाली थी, इसलिए मैं उनके पास जाकर चिल्‍ला उठी, "क्‍या आप पत्‍थर के बने हैं? आप बात तक नहीं कर सकते? क्‍या आपको किसी की भी परवाह है?" मुझे इस क़दर ग़ुस्‍से में देखकर उन्‍होंने कोई जवाब नहीं दिया। जितना ही मुझे इस तरह का ख़ामोशी भरा बरताव मिला, उतना ही मेरा ग़ुस्‍सा बढ़ता गया। इस निश्‍चय के साथ कि वे मुझसे कुछ कहें, मैं लगातार बड़बड़ाती रही। उम्‍मीद के विपरीत, वे अचानक मुझ पर चिल्‍ला उठे, "क्‍या तुम काफ़ी कुछ नहीं बोल चुकी हो?" इससे मुझे और भी ग़ुस्‍से और नाइंसाफ़ी का अहसास हुआ, इसलिए मैंने उनसे बहस करना जारी रखा। अन्‍तत: उन्‍होंने मुझसे कुछ भी कहना बन्‍द कर दिया, और इस तरह हमारी बहस समाप्‍त हो गयी। एक और वक्‍़त पर मैंने अपने पति से अपने काम से सम्‍बन्धित किसी चीज़ के बारे में यह सोच कर शिकायत की कि वे मुझसे कुछ ऐसा कहेंगे जिससे मैं बेहतर महसूस करूँगी, लेकिन इसकी बजाय उन्‍होंने बर्फ़ की मानिन्‍द ठण्‍डे तरीक़े से रूखा जवाब दिया, "ताली दोनों हाथों से बजती हैं। तुम्‍हें तो सिर्फ़ दूसरे लोगों में ही समस्‍याएँ दिखती हैं—तुम खुद अपनी ओर नज़र उठाकर क्‍यों नहीं देखतीं?" मेरा ग़ुस्‍सा तुरन्‍त भड़क उठा और मैं उनको खरी-खोटी सुनाये बिना नहीं रह सकी। असन्‍तोष से भर कर मैंने सोचा, "ये किस तरह के व्‍यक्ति हैं? मैंने इस तरह के आदमी से शादी क्‍यों की? उनके मन में मेरे जज्‍़बातों की कोई कदर नहीं है—मुझे तसल्‍ली देने के लिए उनके पास एक शब्‍द तक नहीं है!" तब के बाद से मैंने काम के दौरान होने वाली घटनाओं के बारे में उनसे बात करना ही बन्‍द कर दिया। बाद में कभी उन्‍होंने मुझसे मेरे काम के बारे में पूछने की कोशिश की, लेकिन उनकी बात की ओर ध्‍यान देने का मेरा मन फिर कभी नहीं हुआ। धीरे-धीरे उन्‍होंने मुझसे कुछ भी पूछना बन्‍द कर दिया। हमारे बीच साझा बातचीत के मुद्दे कम से कमतर होते गये और जब कभी कोई निराशाजनक घटना होती, तो मैं किसी ऐसे दोस्‍त को ढूँढ़ लेती जो मेरी बात सुन सकता। कभी-कभी मैं किसी से बात करते हुए देर तक घर से बाहर बनी रहती और आधी रात के पहले तक वापस न लौटती। नौबत यहाँ तक आ गयी कि मेरे इतनी देर से घर लौटने पर भी वे कोई ख़ास परवाह करते नहीं लगते थे, बल्कि उलटे महज़ इतना कह देते कि मैं अपने घर को होटल की तरह बरतती हूँ। मैं वाक़ई आहत महसूस करती, और पति के प्रति मेरा असन्‍तोष बढ़ता गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि हमारे बीच अक्‍सर झगड़े और उग्र बहसें होने लगीं। हम दोनों ही दुखी थे। मैं हालात को उस तरह जारी नहीं रहने देना चाहती थी, इसलिए मैंने उनके साथ ठीक से बात करने के लिए कोई अवसर ढूँढ़ने का फ़ैसला किया।

एक दिन, रात के खाने के बाद मैंने उनसे पूछा, "आप मुझे वाक़ई बरदाश्‍त नहीं कर पाते, है ना? आप मेरी ओर ध्‍यान क्‍यों नहीं देते? अगर आपको मुझसे कोई समस्‍या है, तो मुझे सीधे-सीधे बताइये।" उन्‍होंने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया, तो मैं उनके पीछे पड़ी रही। आश्‍चर्य की बात थी कि वे चिढ़ कर मुझ पर चिल्‍ला उठे, "मुझसे ये सारे सवाल पूछना बन्‍द करो! तुम्‍हारे साथ हर चीज़ एक समस्‍या है—मैं इससे तंग आ चुका हूँ!" उनसे मिले इस तरह के जवाब ने मेरे ग़ुस्‍से को भड़का दिया, और हमने एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्‍यारोप लगाते हुए फिर से बहसबाज़ी शुरू कर दी। यह सिलसिला तब तक जारी रहा जब तक कि उन्‍होंने उठकर मुझे ज़ोर का धक्‍का न दिया; मैं लड़खड़ाकर सोफे पर जा गिरी। पति को अपने ऊपर हाथ उठाते देख मैं अन्‍दर तक आहत हो गयी। मैंने सोचा, "ये है वो पति जिसका चुनाव मैंने इतनी सावधानी के साथ किया था? ये है वो शादी जिससे मैंने इतनी उम्‍मीदें लगा रखी थीं? ये मेरे साथ इस तरह का बरताव कैसे कर सकते हैं?" उसके बाद मुझे उनसे किसी भी तरह की उम्‍मीदें नहीं रह गयीं थीं।

अप्रैल 2016 में, संयोग से, एक बहन ने प्रभु यीशु के सुसमाचार पर मेरे साथ संवाद किया। उसने मुझसे कहा कि प्रभु हमसे प्रेम करते हैं और हमें बचाने की खातिर वे सूली पर चढ़ गए। मैं उनके प्रेम से सचमुच द्रवित हो उठी, और इसलिए मैंने प्रभु का सुसमाचार ग्रहण किया। जब बाद में मैंने अपनी वैवाहिक समस्‍याओं के बारे में पादरी से बात की, तो उन्‍होंने मुझसे कहा, "जब तक हम खुद को नहीं बदलते, तब तक किसी और को नहीं बदल सकते। हमें प्रभु यीशु के उदाहरण का अनुसरण करना चाहिए और दूसरों के प्रति सहिष्‍णुता और धैर्य बरतना चाहिए।" इसलिए मैंने खुद को बदलने की कोशिश शुरू की। जैसे ही मेरा काम समाप्‍त होता, मैं जल्‍दी से जल्‍दी घर पहुँचती और साफ़-सफ़ाई करती, और जब कभी मेरे पति मेरी उपेक्षा करते और मैं अपना आपा खोने को होती, तो मैं प्रभु से प्रार्थना कर उनसे सहिष्‍णुता और धैर्य प्रदान करने का अनुरोध करती। कभी-कभी जब मैं स्‍वयं को क़ाबू न कर पाती और अपने पति के साथ बहस में उलझ पड़ती, तो उसके बाद मैं ही हालात को बेहतर बनाने की पहल करती। मुझमें आये इन बदलावों को देखकर, मेरे पति भी प्रभु में विश्‍वास करने लगे। जब हम दोनों ही आस्‍थावान हो गये, तो हमारे बीच बहसें कम और संवाद ज्‍़यादा होने लगे। प्रभु द्वारा किये गये हमारे निजी उद्धार को देखकर मैं उनके प्रति कृतज्ञता से भर उठी।

लेकिन समय बीतता गया, और हम अपनी बदमिज़ाजी को क़ाबू में करने में असमर्थ बने रहे। घरेलू विवाद अभी भी कभी-कभी उठ खड़े होते थे, और ख़ासतौर से जब दूसरे व्‍यक्ति का मिज़ाज ख़राब होता था, तो हममें से कोई भी सहिष्‍णुता और धैर्य नहीं बरत पाता था, जिसके नतीजे में हमारे झगड़े उग्र से उग्रतर होते गये। हर तकरार के बाद मेरा हृदय पीड़ा से भर उठता, और मैं प्रभु से प्रार्थना करती, "प्रभु, आप हमें सहिष्‍णु और धैर्यवान होने की सीख देते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि मैं ऐसा कर ही नहीं सकती। जब मैं अपने पति को ऐसा कुछ करते देखती हूँ जो मुझे अच्‍छा नहीं लगता, तो मैं सचमुच उनके प्रति चिड़चिड़ाहट म‍हसूस करती हूँ। प्रभु, मुझे क्‍या करना चाहिए?" बाद में मैं अभ्यास के मार्ग को पाने की उम्‍मीद में कलीसिया द्वारा आयोजित प्रत्‍येक कक्षा में जाने लगी, लेकिन मुझे जिस चीज़ की उम्‍मीद थी वह मुझे हासिल नहीं हुई। मैंने समूह के अगुवा से मदद माँगी, जिसने सिर्फ़ इतना कह दिया, "मेरी बीवी और मेरे बीच भी अक्‍सर बहस होती है। यहाँ तक पौलुस ने भी कहा था, 'क्योंकि मैं जानता हूँ कि मुझ में अर्थात् मेरे शरीर में कोई अच्छी वस्तु वास नहीं करती। इच्छा तो मुझ में है, परन्तु भले काम मुझ से बन नहीं पड़ते' (रोमियों 7:18)। लगातार पाप करने और प्रायश्चित करने के चक्र की जिस समस्‍या का हम सामना कर रहे हैं उसका समाधान किसी के पास नहीं है। हम सिर्फ़ इतना ही कर सकते हैं कि प्रभु से प्रार्थना करें और उससे दया की याचना करें।" उनकी यह बात सुनकर मैं पूरी तरह हैरान रह गयी: क्‍या यह मुमकिन है कि हम अपना बाक़ी जीवन तकरार के दलदल में फँसे रहकर बिताने के लिए अभिशप्‍त हों?

मार्च 2017 में, मेरे पति में, जो हमेशा चुप्‍पी साधे रहते थे, अचानक एक बदलाव आया और वे काफ़ी उत्‍साहपूर्ण ढंग से संवाद करने लगे। साथ ही वे अक्‍सर धर्मग्रन्‍थों की अपनी समझ पर मेरे साथ संवाद करने लगे, और मेरे लिए इससे भी ज्‍़यादा अचरज में डालने बात यह थी कि जिस चीज़ को लेकर वे मुझसे यह संवाद करते थे वह ज्ञान की दीप्ति से भरी होती थी। मैं हैरान थी; ये कुछ ऐसा था जैसे वे सहसा एक अलग ही व्‍यक्ति बन गये थे, और जो बातें वे कहते थे वे वाक़ई गहरी सूझ-बूझ से भरी होती थीं। मैं वाक़ई समझना चाहती थी कि क्‍या हो रहा है। एक दिन जब मुझे संयोग से पता चला कि वे एक सोशल मीडिया ऐप के एक समूह के सदस्‍य हैं, तो मैंने उनसे तत्‍काल पूछा कि वे उन लोगों के साथ किस बारे में चर्चा करते हैं। अपने चेहरे पर अत्‍यन्‍त संजीदगी का भाव लिये हुए उन्‍होंने मुझसे कहा कि वे सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के अंत के दिनों के काम पर विचार कर रहे हैं, प्रभु यीशु वापस आ चुके हैं और उनका नाम सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर है। उन्‍होंने कहा कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर लाखों वचनों का उच्‍चारण कर चुके हैं और वे अंत के दिनों में न्‍याय का कार्य कर रहे हैं और मानवजाति का शुद्धिकरण कर रहे हैं। उन्‍होंने यह भी कहा कि उसी ने बाइबल की इस भविष्‍यवाणी को सच साबित किया है: "क्योंकि वह समय आ पहुँचा है कि पहले परमेश्‍वर के लोगों का न्याय किया जाए" (1 पतरस 4:17)। मेरे पति ने मुझे बताया कि जब हम परमेश्‍वर के प्रगटन और कार्य को जानने का प्रयत्‍न करते हैं, तो हमें अपनी धारणाओं और कल्‍पनाओं से बिना सोचे-समझे चिपके रहने की बजाय परमेश्‍वर की वाणी को सुनने पर ध्‍यान एकाग्र करना होता है। अगर हम सत्‍य की खोज करने की बजाय म‍हज़ निष्क्रिय ढंग से परमेश्‍वर के प्रकाशन की प्रतीक्षा करते रहेंगे, तो हम प्रभु की वापसी का स्‍वागत करने में अक्षम होंगे। यह सुन कर मैं स्‍तब्‍ध रह गयी और यह बात मुझे अकल्‍पनीय लगी। यह मुझे बाद में सूझा कि मैंने एकबार एक हिन्‍दुस्‍तानी पादरी को यह कहते सुना था कि अगर हमें कभी भी प्रभु की वापसी के बारे में कुछ भी सुनने को मिले, तो हमें उसकी मुक्‍त हृदय से ख़ोज करनी चाहिए और गम्‍भीरतापूर्वक उसकी जाँच-पड़ताल करनी चाहिए; हम अपनी धारणाओं और कल्‍पनाओं पर भरोसा नहीं कर सकते और आँख मूँदकर निर्णय नहीं दे सकते। इसलिए मैंने प्रभु से प्रार्थना की: "प्रभु, अगर सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर ही वास्‍तव में तेरी वापसी है, तो मेरा नेतृत्‍व और मार्गदर्शन कर ताकि मैं सत्‍य की खोज कर सकूँ और मुक्‍त हृदय से उसकी पड़ताल कर सकूँ। अन्‍यथा, मेरे हृदय की रक्षा कर ताकि मैं भटक कर तुझसे दूर न चली जाऊँ। आमीन!"

इस प्रार्थना के बाद मैंने बाइबल खोली और प्रकाशन 3:20 में यह लिखा देखा: "देख, मैं द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूँ; यदि कोई मेरा शब्द सुनकर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके पास भीतर आकर उसके साथ भोजन करूँगा और वह मेरे साथ।" मुझे सहसा उत्‍प्रेरणा हुई और मैंने महसूस किया कि यह स्‍वयं प्रभु ही है जो मुझसे बोल रहा है, जो मुझसे कह रहा है कि जब मैं लौटूँगा, तो तेरे दरवाज़े पर दस्‍तक दूँगा; मुझे लगा कि यह वही है जो मुझे अपनी आवाज़ सुनने का और दरवाज़ा खोलने का आदेश दे रहा है। यह ठीक बाइबल की उन बुद्धिमान कुँवारियों की तरह थी जिन्‍होंने जब दूल्‍हे की आवाज़ सुनी थी तो वे उसके स्‍वागत के लिए दौड़ पड़ी थीं। फिर मैंने यूहन्ना 16:12-13 के बारे में सोचा: "मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा, क्योंकि वह अपनी ओर से न कहेगा परन्तु जो कुछ सुनेगा वही कहेगा, और आनेवाली बातें तुम्हें बताएगा।" धर्मग्रन्‍थ के इन पदों के बारे में चिन्‍तन करते हुए मैं उत्‍तेजना से भर उठी। मुझे एहसास हुआ कि प्रभु ने बहुत पहले हमसे कहा था कि अपनी वापसी पर वह बहुत-से वचनों का उच्‍चारण करेगा और हमें सत्‍य से नवाजेगा। सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के अंत के दिनों का कार्य मनुष्‍य-जाति का न्याय और शुद्धिकरण करने के लिए वचनों को व्‍यक्‍त करने का कार्य है—क्‍या यह मुमकिन है कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर ही वापस लौटा प्रभु यीशु है? अगर प्रभु वास्‍तव में लौट आया है और उसने मनुष्‍यता की सारी मुश्किलों को हल करने के लिए सत्‍यों को व्‍यक्‍त किया है, तो हम पाप के बन्‍धनों से छुटकारा पाने की उम्‍मीद कर सकते हैं। तब क्‍या मेरे और मेरे पति के बीच की समस्‍याओं का समाधान मुमकिन नहीं है? मैंने तुरन्‍त अपने पति से अनुरोध किया कि वे मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर की कलीसिया के भाइयों और बहनों से मिलवाएँ; मैं भी सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के अंत के दिनों के कार्य की पड़ताल करना चाहती थी।

समागम के दौरान, सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर की कलीसिया के कुछ भाइयों और बहनों ने प्रभु की वापसी के ढंग, प्रभु के नये नाम, और उनके द्वारा किये जाने वाले कार्य जैसे सत्य के विभिन्‍न पक्षों पर मेरे साथ संवाद करने के लिए बाइबल के कुछ पदों का चयन किया। उनके साथ हुआ संवाद मेरे लिए बहुत ही यक़ीन दिलाने वाला और एकदम नया था। मैं वाक़ई प्रभु के अंत के दिनों के कार्य के बारे में और अधिक जानना चाहती थी, इसलिए मैंने परमेश्‍वर से बार-बार प्रार्थना कर उनसे प्रबुद्धता प्रदान करने का अनुरोध किया ताकि मैं परमेश्‍वर के वचनों को समझ पाऊँ। परमेश्‍वर के वचनों को पढ़ते हुए और भाइयों तथा बहनों का संवाद सुनते हुए मैं परमेश्‍वर के मानव-जाति के प्रबन्‍धन के पीछे निहित लक्ष्‍य की, मानव-जाति की रक्षा के उसके कार्य के तीन सोपानों की, और मनुष्‍यता के परिणाम तथा गन्‍तव्‍य की समझ हासिल करती गयी। सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के अंत के दिनों के कार्य का परीक्षण करते हुए मैं अभी भी अनचाहे ही अपने पति के साथ कुछ निहायत ही तुच्‍छ-सी चीज़ों को लेकर बहस करती रहती थी। जब यह हो चुकता, तो मैं सचमुच दोषी और परेशान अनुभव करती, और खुद से सवाल करती, "क्‍या वजह है कि मैं परमेश्‍वर के वचनों को कभी भी आचरण में नहीं ढाल पाती?" इस चीज़ ने मुझे हैरान कर दिया था। एक बार एक समागम के दौरान मैंने एक बहन से पूछा, "मैं और मेरे पति हमेशा बहस क्‍यों करते रहते हैं? हम शान्तिपूर्वक मिलजुल कर क्‍यों नहीं रह पाते?" उसने मेरे लिए परमेश्‍वर के वचनों के कुछ अंश ढूँढ़ निकाले। "मनुष्य को छुटकारा दिए जाने से पहले शैतान के बहुत-से ज़हर उसमें पहले ही डाल दिए गए थे, और हज़ारों वर्षों तक शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद मनुष्य के भीतर ऐसा स्थापित स्वभाव है, जो परमेश्वर का विरोध करता है। इसलिए, जब मनुष्य को छुटकारा दिलाया गया है, तो यह छुटकारे के उस मामले से बढ़कर कुछ नहीं है, जिसमें मनुष्य को एक ऊँची कीमत पर खरीदा गया है, किंतु उसके भीतर की विषैली प्रकृति समाप्त नहीं की गई है। मनुष्य को, जो कि इतना अशुद्ध है, परमेश्वर की सेवा करने के योग्य होने से पहले एक परिवर्तन से होकर गुज़रना चाहिए। न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से मनुष्य अपने भीतर के गंदे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने के योग्य हो सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))। "यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया, फिर भी उसने केवल समस्त मानवजाति की मुक्ति का कार्य पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना; उसने मनुष्य को उसके समस्त भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। मनुष्य को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाने के लिए यीशु को न केवल पाप-बलि बनने और मनुष्य के पाप वहन करने की आवश्यकता थी, बल्कि मनुष्य को उसके शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए स्वभाव से मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़ा कार्य करने की आवश्यकता थी। और इसलिए, अब जबकि मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिया गया है, परमेश्वर मनुष्य को नए युग में ले जाने के लिए वापस देह में लौट आया है, और उसने ताड़ना एवं न्याय का कार्य आरंभ कर दिया है। यह कार्य मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में ले गया है। वे सब, जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे, उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़े आशीष प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे और सत्य, मार्ग और जीवन प्राप्त करेंगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना)

इसके बाद उसने इस संवाद में मुझसे साझा किया: "शुरुआत में, आदम और हव्वा परमेश्‍वर के समक्ष अदनवाटिका में सुखपूर्वक रहते थे। उनके बीच कोई बहसें नहीं होती थीं; कोई दुख नहीं था। लेकिन जब उन्‍होंने सर्प की बात मान ली और अच्‍छाई तथा बुराई के ज्ञान के वृक्ष का फल खा लिया, तो वे परमेश्‍वर से दूर हो गये और उन्‍होंने उसके साथ विश्‍वासघात किया, जिसके नतीजे में उन्‍होंने परमेश्‍वर की सरपरस्‍ती और संरक्षण को खो दिया और शैतान की सत्‍ता के अधीन रहने लगे। तब उदासी और दुख के दिनों की शुरुआत हुई। यह स्थिति अब तक जारी है, और हम शैतान के द्वारा बहुत गहराई तक भ्रष्‍ट कर दिये गये हैं। हम भ्रष्‍ट, शैतानी स्‍वभावों से भरे हुए हैं; हम सब अत्‍यन्‍त अहंकारी, स्‍वार्थी, धूर्त, और दुराग्रही हैं। हम हर मामले में आत्‍मकेन्द्रित हैं, और हर समय यही चाहते रहते हैं कि दूसरे हमारी बात सुनें। यही वजह है कि लोग एक-दूसरे से झगड़ते रहते हैं और एक-दूसरे की हत्‍या करते हैं। यहाँ तक कि अभिभावकों और बच्‍चों में और पतियों तथा पत्नियों में भी एक-दूसरे के प्रति सहिष्‍णुता और धैर्य नहीं होता और वे एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर नहीं रह पाते—हममें अत्‍यन्‍त बुनियादी विवेक और बुद्धि तक का अभाव है। हालाँकि हमें प्रभु यीशु द्वारा छुटकारा दिलाया जा चुका है, हालाँकि हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं, उनके समक्ष प्रायश्चित करते हैं, और पश्‍चाताप करते हैं, और हम प्रभु की शिक्षाओं पर चलने की भरपूर कोशिश करते हैं, लेकिन तब भी पाप न करना और परमेश्‍वर का प्रतिरोध न करना हमारे वश में नहीं होता। यह इसलिए है कि प्रभु यीशु ने केवल मानव-जाति को छुटकारा दिलाने का कार्य किया है; उन्होंने मानव-जाति को पूरी तरह बचाने और उसका शुद्धीकरण करने का काम नहीं किया है। प्रभु यीशु के उद्धार को ग्रहण करने का मतलब सिर्फ़ इतना है कि हम पहले की तरह पाप में नहीं डूबे हैं और हमें प्रार्थना के लिए प्रभु के समक्ष आने का, उसकी दया का पात्र होने का, और अपने पापों के लिए क्षमा प्राप्‍त करने का अवसर मिला है। लेकिन हमारे भ्रष्‍ट स्‍वभावों का शुद्धीकरण नहीं हुआ है। हमारी पापपूर्ण प्रकृतियाँ अभी भी हमारे भीतर गहरी जड़ें जमाये हुए हैं; हमें अभी भी मानव-जाति के शुद्धिकरण और रूपान्‍तरण के स्‍तर का कार्य करने के लिए, और इस तरह हमारी पापपूर्ण प्रकृतियों की समस्‍या का समाधान करने के लिए अंत के दिनों में परमेश्‍वर की वापसी की ज़रूरत है। और अब परमेश्‍वर एक बार फिर से शरीर धारण कर हमारे भ्रष्‍ट स्‍वभावों से हमें पूरी तरह बचाने और हमें शैतान के प्रभाव से बच निकलने तथा पूरी तरह सुरक्षित बने रहने की गुंजाइश देने के लिए न्याय और शुद्धिकरण का कार्य करने की ख़ातिर वचनों को व्‍यक्‍त कर रहा है। जब तक हम परमेश्‍वर के नये कार्य के प्रति जागरूक बने रहेंगे, उसके वचनों के न्‍याय और ताड़ना को स्‍वीकार करते रहेंगे, सत्‍य की खोज करते रहेंगे, और परमेश्‍वर के वचनों को आचरण में ढालते रहेंगे, तब तक हमारा भ्रष्‍ट स्‍वभाव क्रमश: रूपान्‍तरित होता जाएगा। यही एकमात्र ढंग है जिससे हम एक सच्‍चे मनुष्‍य के रूप में जीवन जी सकेंगे, और केवल तभी दूसरों के साथ अपने व्‍यवहार में सामंजस्‍य ला सकेंगे।"

परमेश्‍वर के वचनों और इस बहन के सत्‍संग से मैंने अन्‍तत: इस बात को समझ लिया कि हम हर समय पाप और प्रायश्चित की अवस्‍था में इसलिए बने रहते हैं क्‍योंकि यद्यपि प्रभु यीशु ने मानव जाति के छुटकारे का कार्य तो कर दिया था, पर विश्‍वासियों के रूप में हमारे पापों को सिर्फ़ क्षमा ही किया गया था; लेकिन हमारी अन्‍दरूनी पापपूर्ण प्रकृति अभी भी बहुत गहरे बद्धमूल है और हमारे शैतानी स्‍वभाव का शुद्धिकरण अभी भी नहीं हुआ है। इसका एक सबसे अच्‍छा उदाहरण यह है कि बावजूद इसके कि मैं प्रभु की शिक्षाओं के अनुरूप धैर्य और सहिष्‍णुता का आचरण करने का पूरा इरादा रखती थी, लेकिन जैसे ही मेरे पति ऐसा कुछ कहते या करते थे जो मुझे पसन्‍द नहीं होता था, तो मैं अपने ग़ुस्‍से पर काबू नहीं कर पाती थी। मसला चाहे जो भी हो, मैं खुद पर लगाम कस ही नहीं पाती थी। हमें बचाने के परमेश्‍वर के कार्य के बिना हमारे लिए अपने उद्यमों पर निर्भर रहते हुए अपने शैतानी, भ्रष्‍ट स्‍वभावों को त्‍याग पाना असम्‍भव है। और अब, परमेश्‍वर ने एक बार फिर से देहधारण किया है, और वह मानव-जाति का न्‍याय और शुद्धिकरण करने आया है। अगर हम परमेश्‍वर के नये कार्य को स्‍वीकार करते हैं और सच्‍चे अर्थों में सत्‍य का अनुसरण करते हैं, तो यह हमारे लिए अपने स्‍वभावपरक रूपान्‍तरण को हासिल करने का एक सुनहरा अवसर है। मैंने प्रभु की दया के लिए स्‍वयं को वाक़ई द्रवित और कृतज्ञ अनुभव किया जिससे मैं उनकी वाणी को सुन पायी। लेकिन कुछ बातें मुझे अभी भी पूरी तरह स्‍पष्‍ट नहीं थीं—मैं यह तो जानती थी कि परमेश्‍वर इस बार हमारा शु्द्धिकरण और रूपान्‍तरण करने के लिए वचन बोलने आया है, लेकिन वचन हमारे भ्रष्‍ट स्‍वभाव का न्‍याय और शु्द्धिकरण कैसे कर सकते हैं? इसलिए मैंने अपनी शंका को सामने रखा।

बहन ने मुझे परमेश्‍वर के वचनों का एक और अंश पढ़कर सुनाया। "अंत के दिनों में मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति समर्पण के लिए पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)

उसने मेरे साथ और भी संवाद जारी रखा। "परमेश्‍वर के वचन हमें स्‍पष्‍ट तौर पर समझाते हैं कि वह न्‍याय का कार्य किस तरह करता है। वह मानव-जाति का न्‍याय करने और उसका शुद्धिकरण करने के लिए वचनों का प्रयोग करता है; वह सबसे पहले हमारी भ्रष्‍ट प्रकृति और सार और हमारे शैतानी स्‍वभाव को प्रत्‍यक्ष तौर पर प्रकट करने और उनका विश्लेषण के लिए वचनों का प्रयोग करता है। उसने हमसे स्‍पष्‍ट रूप से यह भी कहा है कि हमें किस तरह परमेश्‍वर के समक्ष समर्पण करना चाहिए और उसकी आराधना करनी चाहिए, किस तरह हमें उचित मनुष्‍यता का आचरण करना चाहिए, किस तरह हमें स्‍वभावपरक बदलाव हासिल करने के लिए सत्‍य का अनुसरण करना चाहिए, किस तरह एक ईमानदार व्‍यक्ति होना चाहिए, और परमेश्‍वर की क्‍या इच्‍छा है और लोगों से उसकी क्‍या अपेक्षाएँ हैं। उसने हमें बताया है कि वह किस तरह के लोगों को पसन्‍द करता है और किस तरह के लोगों को वह मिटा देता है, इसके अलावा और भी बातें हैं। उसने हमारी काट-छाँट करने और हमारे साथ निपटने के लिए, हमारी परीक्षा लेने और हमारा परिष्‍कार करने के लिए लोगों, घटनाओं, स्थितियों और पर्यावरणों को तैयार किया है। यह हमारे भ्रष्‍ट स्‍वभावों को उजागर करता है और हमें ईश्‍वर के समक्ष प्रस्‍तुत होने तथा सत्‍य की खोज करने के लिए, उसके वचनों के न्‍याय तथा ताड़ना को ग्रहण करने के लिए, और हमें आत्‍मचिन्‍तन करने तथा स्‍वयं को जानने के लिए बाध्‍य करता है। जब हम परमेश्‍वर के न्‍याय और ताड़ना के वचनों को ग्रहण करते हैं, तो हमें ऐसा अनुभव होता है जैसे वह हमारे सम्‍मुख, सजीव रूप से, उसके प्रति हमारे विद्रोह और प्रतिरोध को, हमारे ग़लत इरादों को, और हमारी धारणाओं तथा कल्‍पनाओं को पूरी तरह से उजागर करते हुए, हमसे बात कर रहा है। केवल तभी हम समझ पाते हैं कि हमारी प्रकृतियाँ और सार अहंकार, दम्‍भ, छल, कुटिलता, स्‍वार्थ, और तिरस्‍कार से भरे हुए हैं। हम देखते हैं कि हमारे दिल में परमेश्‍वर के प्रति बिल्कुल श्रद्धा नहीं है, हम पूरी तरह से अपनी शैतानी, भ्रष्‍ट प्रकृतियों पर आधारित जीवन जीते हैं, हमारी हर चीज़ में हमारा शैतानी स्‍वभाव प्रकट होता है, और हममें मानव स्‍वरूप का निरा अभाव है। हम खुद से ही घृणा करने लगते हैं और अपने हृदयों में अपनी ही घृणा के पात्र बन जाते हैं और भविष्‍य में शैतान के प्रभाव में न रहने की, और शैतान के हाथ का खिलौना बनकर उससे आहत न होने की कामना करते हैं। इसके अतिरिक्‍त, परमेश्‍वर के न्‍याय और ताड़ना के माध्‍यम से हम परमेश्‍वर के पवित्र सार और उसके उस धार्मिक स्‍वभाव को समझते हैं जो किसी तरह का अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकता। हमारे हृदय में परमेश्‍वर के प्रति श्रद्धा विकसित होती है और हम परमेश्‍वर के सन्‍तोष की खातिर सत्‍य को व्‍यवहार में ढालने के इच्‍छुक हो उठते हैं। जैसे ही हम सत्‍य का अभ्यास करने लगते हैं, परमेश्‍वर का परोपकारी और दयालु स्‍वभाव हमारे सामने प्रकट हो जाता है। परमेश्‍वर के वचनों को निरन्‍तर पढ़ते हुए और उसके न्‍याय तथा ताड़ना को अनुभव करते हुए हम अपनी भ्रष्‍ट प्रकृतियों की और भी गहरी समझ हासिल करते हैं, हम परमेश्‍वर द्वारा व्‍यक्‍त किये गये सत्‍यों को बेहतर ढंग से समझने लगते हैं, और उसके न्‍याय तथा ताड़ना को स्‍वीकार करने तथा उनके प्रति आत्‍मसमर्पण करने के लिए, और शरीर को त्‍यागने, सत्‍य को आचरण में ढालने, और परमेश्‍वर को सन्‍तुष्‍ट करने के लिए पहले से कहीं ज्‍़यादा इच्‍छुक हो उठते हैं। हमारा भ्रष्‍ट आचरण को कम से कम होता जाता है, सत्‍य का व्‍यवहार हमारे लिए आसान होता जाता है, और धीरे-धीरे हम परमेश्‍वर से डरने तथा बुराई से बचने के मार्ग पर क़दम रखने लगते हैं। परमेश्‍वर के वचनों के न्‍याय और ताड़ना का अनुभव करते हुए हम सब अपने हृदय के भीतर इस बात का निश्‍चय करते हैं कि यही वह अचूक औषधि है जो हमारी रक्षा करती है और हमारे भ्रष्‍ट स्‍वभावों का उपचार करती है। यह हम भ्रष्‍ट मनुष्‍यों के प्रति परमेश्‍वर का शुद्धतम प्रेम है, और परमेश्‍वर के वचनों में निहित न्‍याय और ताड़ना को अनुभव किये बिना हम कभी भी मनुष्‍य की तरह का सच्‍चा जीवन जी सकने में सक्षम नहीं होंगे।"

परमेश्‍वर के वचनों और इस बहन के संवाद का मुझ पर ज़बरदस्‍त असर हुआ। मुझे लगा जैसे अंत के दिनों में परमेश्‍वर का न्‍याय और ताड़ना का कार्य बहुत व्‍यावहारिक है, और अगर हम अपने भ्रष्‍ट स्‍वभावों का रूपान्‍तरण चाहते हैं, तो हमें परमेश्‍वर के वचनों के न्‍याय और ताड़ना का अनुभव करना आवश्‍यक है। अन्‍यथा हम हमेशा पाप और प्रायश्चित के चक्र में फँसे रहेंगे, और पाप के बन्‍धनों से कभी छुटकारा नहीं पा सकेंगे। इसलिए मैंने अपने हृदय में परेमश्‍वर से प्रार्थना करते हुए उससे याचना की कि वह अपने वचनों से मेरा सिंचन और पोषण करे, और मेरा न्‍याय करने तथा मुझे ताड़ना देने का वातावरण तैयार करे ताकि मैं स्‍वयं को जान सकूँ, मेरा भ्रष्‍ट स्‍वभाव जल्‍दी ही किसी दिन रूपान्‍तरित हो सके, और मैं सच्‍चा मानव-रूपी जीवन जी सकूँ।

परमेश्‍वर के अंत के दिनों के कार्य को ग्रहण करते हुए मुझे उस विवाह की भी एक नयी समझ हासिल हुई जो मेरे लिए परमेश्‍वर ने निश्चित किया था। एक मुकाम पर एक बहन ने मुझे परमेश्‍वर के वचनों के कुछ हिस्‍से पढ़कर सुनाये। "स्वयं अनुभव करने से पहले, लोगों के मन में विवाह के बारे में बहुत से भ्रम होते हैं, और ये सभी भ्रम बहुत ही खूबसूरत होते हैं। महिलाएँ कल्पना करती हैं कि उनका होने वाला पति सुन्दर राजकुमार होगा, और पुरुष कल्पना करते हैं कि वे दूध जैसी सफेद, गोरी कन्या से विवाह करेंगे। इन कल्पनाओं से पता चलता है कि विवाह को लेकर प्रत्येक व्यक्ति की कुछ निश्चित अपेक्षाएँ होती हैं, उनकी स्वयं की माँगें और मानक होते हैं" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। "विवाह किसी व्यक्ति के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। यह व्यक्ति के भाग्य का परिणाम है, और किसी के भाग्य में एक महत्वपूर्ण कड़ी है; यह किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत इच्छा या प्राथमिकताओं पर आधारित नहीं होता है, और किसी भी बाहरी कारक द्वारा प्रभावित नहीं होता है, बल्कि यह पूर्णतः दो पक्षों के भाग्य, युगल के दोनों सदस्यों के भाग्य के लिए सृजनकर्ता की व्यवस्थाओं और उसके पूर्वनिर्धारणों द्वारा निर्धारित होता है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। "जब कोई विवाह करता है, तो उसकी जीवन-यात्रा उसके जीवनसाथी को प्रभावित करेगी, और उसी तरह उसके साथी की जीवन-यात्रा भी जीवन में उसके भाग्य को प्रभावित और स्पर्श करेगी। दूसरे शब्दों में, मनुष्यों के भाग्य परस्पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, और कोई भी दूसरों से पूरी तरह से अलग होकर जीवन में अपना ध्येय पूरा नहीं कर सकता है या अपनी भूमिका नहीं निभा सकता है। व्यक्ति का जन्म संबंधों की एक बड़ी श्रृंखला पर प्रभाव डालता है; बड़े होने की प्रक्रिया में भी संबंधों की एक जटिल श्रृंखला शामिल होती है; और उसी प्रकार, विवाह अनिवार्य रूप से मानवीय संबंधों के एक विशाल और जटिल जाल के बीच विद्यमान होता आता है और इसी में कायम रहता है, विवाह में उस जाल का प्रत्येक सदस्य शामिल होता है और यह हर उस व्यक्ति के भाग्य को प्रभावित करता है जो उसका भाग है। विवाह दोनों सदस्यों के परिवारों का, उन परिस्थितियों का जिनमें वे बड़े हुए थे, उनके रंग-रूप, उनकी आयु, उनके गुणों, उनकी प्रतिभाओं, या अन्य कारकों का परिणाम नहीं है; बल्कि, यह साझा ध्येय और संबंधित भाग्य से उत्पन्न होता है। यह विवाह का मूल है, सृजनकर्ता द्वारा आयोजित और व्यवस्थित मनुष्य के भाग्य का एक परिणाम है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। इसके बाद उसने मेरे साथ संवाद किया। "हम में से हर एक का विवाह परमेश्‍वर द्वारा पूर्वनियत है, और परमेश्‍वर ने बहुत पहले तय कर दिया था कि हम अपने पारिवारिक जीवन की शुरुआत किसके साथ करेंगे—यह सब परमेश्‍वर की अपनी बुद्धि से निश्चित हुआ है। वह हमारे लिए जो विवाह चुनता है वह हमारी सामाजिक हैसियत, हमारे बाहरी रूप-रंग, या हमारी क्षमता पर निर्भर नहीं करता, बल्कि वह दोनों लोगों की जीवन के लक्ष्य से निर्धारित होता है। लेकिन हम अपने भ्रष्‍ट स्‍वभावों द्वारा नियन्त्रित होते हैं, इसलिए हम अपने जीवन-साथी से लगातार बहुत-सी माँगें करते रहते हैं, और उनसे हमेशा अपेक्षा करते हैं कि वे हमारे ढंग से काम करें। जब वे वैसा नहीं करते, तो हम इसे स्‍वीकार नहीं कर पाते और असन्‍तुष्‍ट महसूस करते हैं; हम उनसे तर्क-वितर्क करते हैं और नाराज़ हो जाते हैं, या यहाँ तक कि उलाहना देने लगते हैं, और परमेश्‍वर को दोष देने लगते हैं, उसको ग़लत समझने लगते हैं। इसके नतीजे में दोनों लोग तकलीफ़ भोगने लगते हैं। इस तरह की तकलीफ़ किसी और द्वारा पैदा नहीं की गयी होती है, न ही वह परमेश्‍वर के नियम और विधानों की देन होती है, बल्कि वह इसलिए पैदा होती है क्‍योंकि हम अपने अहंकार और दम्‍भी स्‍वभावों का अनुसरण कर रहे होते हैं। इस किस्‍म का भ्रष्‍ट स्‍वभाव हमें परमेश्‍वर के नियम के विरुद्ध कर देता है; हम उसकी योजनाओं और विधानों के समक्ष झुकने में असमर्थ हो जाते हैं।"

इस बहन के संवाद को सुनकर मैंने अपने पति के साथ अपने रिश्‍ते के बारे में फिर से विचार किया। मैं उनके प्रति हमेशा अपना असन्‍तोष ज़ाहिर करती रही थी और अपेक्षा करती रही थी कि वे मेरे ढंग से काम करें—अगर वे मेरे बारे में नहीं सोचते थे, मेरा लिहाज नहीं करते थे और मेरा ख़याल नहीं रखते थे, अगर वे मेरी खुशहाली के बारे में पूछताछ नहीं करते थे, तो मैं उन पर भुनभुनाने लगती थी और सोचती थी कि वे भले इन्‍सान नहीं हैं। मैं उनको हर तरह से तुच्‍छ समझती थी और उनके साथ शीत-युद्ध छेड़े रहती थी, उनको स्‍वीकार नहीं करती थी। मैं अन्‍तत: समझ गयी कि मैं एक दंभी, अहंकारी, स्‍वार्थी, और घृणित शख्‍स थी। मैं एक ऐसी स्‍त्री थी जो सिर्फ़ अपने हितों के बारे में सोचती थी और दूसरे लोगों की भावनाओं का जरा भी ख़याल नहीं रखती थी। इस बात पर सावधानी से विचार करते हुए मैंने पाया कि यह बात क़तई सही नहीं थी कि मेरे पति मेरी परवाह नहीं करते थे, बात सिर्फ़ इतनी थी कि वे कुछ ज्‍़यादा अन्‍तर्मुखी थे और अपने जज़्बात का बहुत ज्‍़यादा इज़हार नहीं करते थे। उनके अपने विचार और प्राथमिकताएँ भी थीं लेकिन मैं उनसे बलात् ऐसे काम करने का आग्रह करती थी जो वे नहीं करना चाहते थे। मैं हमेशा यह चाहती रही कि सब कुछ मुझको केन्‍द्र में रख कर करें, और यही चीज़ हमारे बीच बढ़ते टकराव का कारण बनी। इसके बाद मैं अपने पहले के व्‍यवहार पर पछताये बिना न रह सकी। मैंने उस बारे में भी सोचा जो मेरे पति ने कहा था, पहले मैं प्रभु के सुसमाचार उनके साथ साझा किया करती थी, लेकिन अब वे प्रभु के अंत के दिनों के सुसमाचार मेरे साथ साझा करते थे। यह हमारे लिए परमेश्‍वर का महान अनुग्रह और चमत्‍कारिक विधान था। हम दोनों ही बेहद खुशकिस्‍मत इंसान हैं, लेकिन मैंने किसी तरह की कृतज्ञता का परिचय नहीं दिया था। इसकी बजाय, परमेश्‍वर ने मेरे लिए जिस विवाह का विधान किया था, मैं उसके प्रति समर्पित होने को तैयार नहीं थी, और उसके लिए लगातार परमेश्‍वर को दोष देती रहती थी। मैंने देखा कि मैं किस क़दर अहंकार से भरी हुई थी, किस क़दर विवेक-शून्‍य थी! शुक्र है परमेश्‍वर का कि उन्‍होंने अपने वचनों से मेरा मार्गदर्शन किया। मुझे अपने वैवाहिक जीवन के सारे दुखों की जड़ों का पता चल गया था—मुझे अपने हृदय में मुक्ति का अहसास हुआ। उसके बाद से मैं अपने जीवन में परमेश्‍वर पर आश्रित होने और उसका ध्‍यान करने, अपनी अहंकारी तथा दम्‍भी भ्रष्‍ट स्‍वभाव को त्‍यागने, और अपने पति के साथ सद्भावपूर्ण ढंग से व्‍यवहार करने को तत्‍पर हो गयी।

तब के बाद से मैंने और मेरे पति ने अक्‍सर साथ मिलकर परमेश्‍वर के वचनों का पाठ किया है और सत्‍य पर संवाद किया है, और हम रचित प्राणियों के रूप में अपने सामर्थ्‍य भर अपने कर्तव्‍यों का पालन करते हैं। हम प्रतिदिन परमेश्‍वर के वचनों का सिंचन और पोषण भी ग्रहण करने लगे हैं; जब हमारे सामने कोई समस्‍या पैदा होती है, तो हम उसके वचनों के अनुरूप उसकी इच्छा को जानने की कोशिश करते हैं। अगर हमारा कोई भ्रष्‍ट आचरण उजागर होता है या हम किसी बहस में उलझ जाते हैं, तो हम दोनों परमेश्‍वर के सामने उपस्थित होते हैं, और मनन करके अपने आपको जान लेते हैं। जब हम इसे अपने आचरण में ढालते हैं, तो हम आपसी समझ हासिल करके, एक-दूसरे को क्षमा कर देते हैं। अब हमारे बीच की बहसें कम से कमतर होती जा रही हैं, हमारा घरेलू जीवन सद्भावपूर्ण हो गया है, और हमारे जीवन में निरन्‍तर पूर्णता आती जा रही है। जिस चीज़ ने मुझ पर सबसे ज्‍़यादा प्रभाव डाला है वह यह है कि की मेरे पति सत्‍य को मुझसे बेहतर ढंग से समझते हैं। वे अक्‍सर परमेश्‍वर के वचनों को लेकर अपनी समझ पर मेरे साथ संवाद करते हैं, और जब वे मेरे स्‍वभाव के किसी भ्रष्‍ट पहलू को उजागर होते देखते हैं, तो वे सत्‍य और परमेश्‍वर की इच्छा पर मेरे साथ संवाद करते हैं। मैंने वाक़ई अपने प्रति उनकी फिक्र और प्‍यार को महसूस किया है—मैं अन्‍दर से सुखी हूँ। अपने रास्‍ते की ओर मुड़कर देखती हूँ, तो पाती हूँ कि मैं अभी भी वही हूँ जो मैं हूँ, और वे अभी भी वही हैं जो वे हैं; लेकिन अगर सब कुछ पूरी तरह से बदल गया है तो केवल इसलिए कि हमने सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किया है और कुछ सत्‍यों को समझ लिया है। मैं सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर को धन्‍यवाद देती हूँ कि उसने हमें बचाया है!

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