77. बीमारी का फल

झांग ली, चीन

वर्ष 2007 मेरी ज़िन्दगी में नया मोड़ लेकर आया। उस वर्ष मेरे पति का कार एक्सीडेंट हुआ और वो बिस्तर में पड़ गए। हमारे दोनों बच्चे तब छोटे थे और हमारे परिवार पर मुसीबत का वक्त था। मेरे लिए बहुत मुश्किल हो गयी थी, मुझे समझ नहीं आ रहा था कि हम उस मुसीबत से कैसे निकलें। फिर मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारा। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैंने जाना कि अपने जीवन के लिए हम परमेश्वर के ऋणी हैं, हमारी किस्मत उनके हाथ में है, और अच्छी किस्मत के लिए हमें परमेश्वर में आस्था रखकर उनकी आराधना करनी चाहिए। मुझे वो सहारा मिल गया जिस पर मैं भरोसा कर सकती थी। मैं सभाओं में नियमित रूप से जाने लगी, परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और प्रार्थना करने के लिए अपने बच्चों को साथ ले गयी। जल्द ही मैं कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाने लगी।

मुझे कलीसिया का अगुआ चुना गया और इस अनुग्रह के लिए मैंने परमेश्वर का धन्यवाद किया। मैंने सोचा, "हालाँकि मैं अपनी आस्था में नयी हूँ, फिर भी कलीसिया की अगुआ चुनी गयी। मुझे सत्य की खोज में निष्ठावान होना चाहिए। कैसे भी मुझे अपना कर्त्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए, तब मुझे ज़रूर बचा लिया जाएगा।" इस सोच ने मुझे कर्तव्य निभाने के लिए प्रोत्साहित किया। अधिकतर समय मैं सुसमाचार के प्रचार और कर्त्तव्य निभाने में बिताने लगी। मेरे दोस्त और रिश्तेदार मेरी आस्था के विरुद्ध थे, पड़ोसी भी मुझे ताने देने और बदनाम करने लगे। तब मैं थोड़ा कमज़ोर पड़ने लगी लेकिन मैं अपना कर्तव्य निभाने से नहीं रुकी। बाद में, मेरे पति ने भी परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारा और अपना कर्त्तव्य निभाने लगे। इससे मैं बहुत खुश हुई। मैंने सोचा, "जब तक हम अपना कर्तव्य अच्छे से निभाते हैं और परमेश्वर के लिए त्याग करते हैं, हमें उनका आशीर्वाद मिलेगा।" खासकर जब मैंने भाई-बहनों को कहते सुना कि मैंने दुःख झेले और कीमत चुकाई है, और परमेश्वर मेरी रक्षा अवश्य करेंगे, मैं बहुत खुश थी और परमेश्वर की सेवा के लिए और अधिक प्रेरित हुई।

2012 में एक दिन मुझे मेरे स्तन पर एक गाँठ मिली जो दुःख रही थी। मुझे चिंता हुई कि कहीं कुछ गंभीर बात न हो। लेकिन फिर सोचा, "ऐसा नहीं हो सकता। मैं रोज़ कलीसिया में अपना कर्त्तव्य निभाती हूँ। परमेश्वर उसके साथ ऐसा नहीं कर सकते जो उनके लिए सच में त्याग करता हो। परमेश्वर के संरक्षण में, मैं गंभीर रूप से बीमार नहीं हो सकती।" ऐसा सोचते ही मेरी चिंताएं गायब हो गयीं और पहले की तरह मैं कर्त्तव्य निभाती रही। 2013 में विश्वासियों पर सी.सी.पी के अत्याचार काफ़ी बढ़ गए। मुझे और मेरे पति को आसपास के इलाकों में सुसमाचार के प्रचार के लिए जाना-जाता था और गिरफ्तारी का खतरा हमेशा बना रहता था। हमने अपना घर छोड़ दिया और दूर चले गए, ताकि अपने-अपने कर्त्तव्य निभाते रहें। बाद में मैंने पाया कि मेरे स्तन की वो गाँठ बढ़ती जा रही थी और मुझे चिंता हुई कि यह कोई बुरी बीमारी न हो। लेकिन मैंने सोचा कि इतने वर्षों से कुछ बुरा तो हुआ नहीं और वास्तव में परमेश्वर मेरी रक्षा कर रहे हैं। जब तक मैं अपना कर्त्तव्य अच्छी तरह करूँ और ज़्यादा त्याग करती रहूं, परमेश्वर मुझ पर दया करेंगे और मैं गंभीर रूप से बीमार नहीं होउंगी।

2018 में, मैं अस्वस्थ महसूस करने लगी मेरे पति मुझे जांच के लिए ले गए। डॉक्टर ने कहा, मेरे स्तन की गाँठ बत्तख के अंडे जितनी बड़ी हो गयी है और यह बात चिंताजनक है। उन्होंने कहा कि एकदम से ऑपरेशन करना जोख़िम भरा होगा और पहले केमोथेरापी से गाँठ छोटी करनी होगी, फिर ऑपरेशन हो सकेगा। "चिंताजनक" और "केमोथेरापी" जैसे शब्द सुनते ही मैं घबरा गयी। मैंने सोचा, "सिर्फ कैंसर के मरीज़ ही केमोथेरापी करवाते हैं। क्या मुझे कैंसर है? क्या मैं जवानी में ही मर जाऊंगी?" मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। मैं अस्पताल के गलियारे में एक बेंच पर गिर पड़ी और फूट-फूटकर रोने लगी।

पति ने मुझे सांत्वना देते हुए कहा, "ज़रूरी नहीं कि यह शुरुआती जांच सही हो। कल दूसरे अस्पताल में हम तुम्हारी एक और जांच करवाएंगे।"

अगले दिन हम दूसरे अस्पताल में गए, जहां मेरी बॉयोप्सी हुई। डॉक्टर ने कहा कि मेरी हालत ख़राब है और यह कैंसर हो सकता है। उन्होंने कहा कि और इंतज़ार न करके दो दिन में ही मेरा ऑपरेशन करना होगा।

उनकी बात सुनकर मैं निढाल हो गयी और मेरा दिल बर्फ़ सा जम गया। मैंने सोचा, "क्या ये सचमुच कैंसर है? कैंसर से लोग मर जाते हैं! मेरे साथ ऐसा कैसे हो सकता है?" फिर मैंने सोचा, "कभी नहीं। जब से मैं विश्वासी बनी हूँ मैंने हमेशा अपना कर्तव्य निभाया है, त्याग किये हैं, पीड़ा सही है और कीमत चुकाई है। दूसरों के ताने और बदनामी सही है, सी.सी.पी द्वारा सतायी गयी हूँ। मैंने किसी को भी अपने कर्तव्य में अड़ंगा नहीं डालने दिया। मुझे कैंसर कैसे हो सकता है? क्या मेरी रक्षा नहीं होगी और स्वर्ग के राज्य में जाने की मेरी कोई आशा नहीं है? क्या मेरे वर्षों के त्याग सब बेकार हो गये?" मैं बहुत दुखी हो गयी।

उस रात मैं सो न सकी और बिस्तर में करवटें बदलती रही। मैं कुछ भी समझ नहीं पा रही थी। मैंने अपने आप को इतना अधिक खपाया, तो मैं इतनी बीमार कैसे हो गयी? परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की? फिर मैंने दो दिन में होने वाले ऑपरेशन के बारे में सोचा। पता नहीं ऑपरेशन सफल भी होगा या नहीं ... मैं बहुत व्यथित थी, मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की: "प्रिय परमेश्वर, मैं बहुत दुखी हूँ। पता नहीं मैं इस स्थिति से कैसे उबरूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन करें..." फिर मैंने मनुष्य से परमेश्वर की आखिरी ग्यारह अपेक्षाएं पढ़ीं : "5. यदि तुम हमेशा मेरे प्रति बहुत निष्ठावान रहे हो, मेरे लिए तुममें बहुत प्रेम है, मगर फिर भी तुम बीमारी, दरिद्रता, और अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के द्वारा त्यागे जाने की पीड़ा को भुगतते हो या जीवन में किसी भी अन्य दुर्भाग्य को सहन करते हो, तो क्या तब भी मेरे लिए तुम्हारी निष्ठा और प्यार बना रहेगा? 6. यदि मैने जो किया है उसमें से कुछ भी उससे मेल नहीं खाता है जिसकी तुमने अपने हृदय में कल्पना की है, तो तुम अपने भविष्य के मार्ग पर कैसे चलोगे? 7. यदि तुम्हें वह कुछ भी प्राप्त नहीं होता है जो तुमने प्राप्त करने की आशा की थी, तो क्या तुम मेरे अनुयायी बने रह सकते हो?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2))। इन अपेक्षाओं पर विचार करके मुझे एहसास हुआ कि इस बीमारी से परमेश्वर मेरी परीक्षा ले रहे हैं कि क्या मैं वास्तव में उनकी वफादार हूँ और क्या मैं सचमुच उनसे प्रेम करती हूँ। मैंने अय्यूब की परीक्षाओं के बारे में सोचा। उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति और बच्चे खो दिए। उनके पूरे शरीर पर फोड़े हो गए। हालांकि वे परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ सके, मगर उन्होंने परमेश्वर को दोष देने के बजाय खुद को कोसना ठीक समझा और उन्होंने यहोवा परमेश्वर का गुणगान किया। अय्यूब ने परमेश्वर में अपना विश्वास बनाये रखा और आज्ञाकारी बने रहे, वे शैतान के सामने परमेश्वर के गवाह बनकर खड़े हो गए। लेकिन मैंने वर्षों तक आस्था रखी और परमेश्वर के वचनों के पोषण का आनंद उठाया, फिर भी मैं परमेश्वर के कार्य को नहीं समझ सकी। जब मुझे कैंसर होने का पता चला, मुझे लगा मेरा बचाव नहीं हो सकता या स्वर्ग के राज्य का आनंद नहीं ले सकूंगी। मैंने परमेश्वर को गलत समझा और दोष दिया। वर्षों तक परमेश्वर में आस्था रखने और इतने त्याग करने के बाद, मैंने सोचा कि परमेश्वर को मुझे बीमार होने से रोकना चाहिए था। जब परमेश्वर ने मुझे उजागर किया तब मैं समझ सकी कि मैंने सभी त्याग उनकी इच्छा को ध्यान में रखकर नहीं किये थे, न ही परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास किया था। वो सब तो आशीष पाने और स्वर्ग के राज्य में जाने के लिए था, मैं परमेश्वर से सौदा कर रही थी। मेरी तथाकथित वफादारी और परमेश्वर के प्रति प्यार सिर्फ़ एक झूठ था। वो सब निष्ठाहीन था। वास्तव में मैंने परमेश्वर को दुःख पहुँचाया और निराश किया था।

फिर मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : "संपूर्ण मानवजाति में कौन है जिसकी सर्वशक्तिमान की नज़रों में देखभाल नहीं की जाती? कौन सर्वशक्तिमान द्वारा तय प्रारब्ध के बीच नहीं रहता? क्या मनुष्य का जीवन और मृत्यु उसका अपना चुनाव है? क्या मनुष्य अपने भाग्य को खुद नियंत्रित करता है? बहुत से लोग मृत्यु की कामना करते हैं, फिर भी वह उनसे काफी दूर रहती है; बहुत से लोग जीवन में मज़बूत होना चाहते हैं और मृत्यु से डरते हैं, फिर भी उनकी जानकारी के बिना, उनकी मृत्यु का दिन निकट आ जाता है, उन्हें मृत्यु की खाई में डुबा देता है; बहुत से लोग आसमान की ओर देखते हैं और गहरी आह भरते हैं; कई लोग अत्यधिक रोते हैं, दर्दनाक आवाज़ में सिसकते हैं; बहुत से लोग परीक्षाओं के बीच पतित हो जाते हैं; बहुत से प्रलोभन के बंदी बन जाते हैं। यद्यपि मैं मनुष्य को मुझे स्पष्ट रूप से निहारने की अनुमति देने के लिए व्यक्तिगत रूप से प्रकट नहीं होता, तब भी बहुत से लोग मेरे चेहरे को देखकर भयभीत हो जाते हैं, बेहद डरते हैं कि मैं उन्हें मार गिराऊँगा, या मैं उन्हें नष्ट कर दूँगा। क्या मनुष्य वास्तव में मुझे जानता भी है या नहीं?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 11)। परमेश्वर के वचनों ने दिखाया कि इंसान के शरीर और आत्मा का स्रोत परमेश्वर में निहित है। ज़िन्दगी और मौत परमेश्वर के हाथ में है, उसमें हमारा कोई दखल नहीं है। सृजित प्राणी होने के नाते, हमें परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। ये बात समझ आते ही मुझे मौत से डर लगना बंद हो गया। मैंने मन ही मन संकल्प लिया: "मेरा ऑपरेशन कैसा भी हो, मैं मरूं या जीयूं, मैं अपना जीवन परमेश्वर के हाथ में सौंपती हूँ और उनके शासन के प्रति समर्पित होती हूँ।"

समर्पण करने के बाद, मेरे दिल में असीम शांति की लहर दौड़ गई। ऑपरेशन के लिए ले जाते वक्त मैं लगातार प्रार्थना करती रही। बाद में, डॉक्टर ने कहा कि ऑपरेशन बढ़िया हो गया, लेकिन जो भी हो, निकली हुई गाँठ की जांच करके पता लगाना होगा कि आगे क्या होगा। मैंने सोचा, "परमेश्वर का संरक्षण पाने से ही ऑपरेशन इतना अच्छा हुआ।" मैंने दूसरे मरीज़ों को ऑपरेशन करवाकर आते देखा, वो बदहवास और कमज़ोर थे जबकि मैं ठीक और उत्साहित महसूस कर रही थी। मेरे वार्ड के दूसरे मरीजों ने कहा, लगता ही नहीं कि मैंने ऑपरेशन करवाया है। इसके लिए मैंने मन ही मन परमेश्वर का धन्यवाद किया। मैंने यह भी सोचा, "मैंने अपने स्तन पर वह गाँठ छह साल पहले देखी थी। अगर कैंसर होता तो बहुत पहले बिगड़ गया होता। लेकिन इतने दिनों मैंने तकलीफ महसूस नहीं की। शायद यह कैंसर नहीं है। और अगर है भी, तो परमेश्वर सर्वशक्तिमान हैं, वे इसे ठीक कर देंगे।" मैंने पहले कुछ भाई-बहनों के बारे में सुना था जिन्होंने बहुत बीमार होने पर परमेश्वर में विश्वास किया और उनके चमत्कार देखे। मैंने हमेशा परमेश्वर के लिए त्याग किये, तो वो मेरी रक्षा अवश्य करेंगे।

तीन दिन बाद जब मैं जांच का नतीजा लेने गयी तो मेरी आशा निराशा में बदल गयी। मुझे वास्तव में कैंसर था।

मैं स्तब्ध बैठी रही, बार-बार नतीजे को पढ़ती रही मैं ज़ार-ज़ार रोती रही। बहुत देर बाद मैंने अपने आप को संभाला। मैंने सोचा, "क्या इस बीमारी से परमेश्वर मुझे उजागर करके ख़त्म कर देना चाहते हैं? क्या मैं उनकी सेवा करने के लायक नहीं रही? वर्षों से मैंने परमेश्वर में आस्था रखी, त्याग किये, आंधी तूफ़ान में भी उनके सुसमाचार का प्रचार किया। क्या परमेश्वर को ये सब याद नहीं? क्या यही परमेश्वर में आस्था रखने का नतीजा है?" मैं बहुत दुखी और बेजान हो रही थी।

मैं कुछ भी खाना-पीना नहीं चाहती थी, बात भी नहीं करना चाहती थी। डॉक्टर ने मुझे अच्छी ख़ुराक़ लेने और व्यायाम करने की सलाह दी। मैंने सोचा, "मुझे मौत की सजा दी गयी है, खुराक और व्यायाम का क्या फायदा? आज-कल में मुझे मरना ही तो है।" मैं खिन्न होकर सोचती रही, "बहुत सारे भाई-बहन आस्था रखने से पहले बीमार हुए, लेकिन आस्थावान होने के बाद ठीक हो गए। परमेश्वर में आस्था रखने के बाद मैं हर रोज़ अपना कर्तव्य निभाती रही। फिर मुझे कैंसर कैसे हो गया? मैं सोचती थी कि त्याग करने से मुझे उद्धार प्राप्त होगा। अब न सिर्फ मेरा बचाव नहीं होगा, मैं कैंसर से मर जाऊंगी।" मेरे अंदर से दोष और परमेश्वर के बारे में गलतफहमी की भावनाएं उमड़ने लगीं। मैंने निराश होकर रोते हुए परमेश्वर से बात की, "प्रिय परमेश्वर, मैं बहुत दुखी हूँ। मैं बीमार हूँ, और आपकी इच्छा नहीं समझ पा रही हूँ। मुझे प्रबुद्ध करके मेरा मार्गदर्शन करें, ताकि मैं आपकी इच्छा को समझ सकूँ।"

फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "सभी लोगों के लिए शुद्धिकरण कष्टदायी होता है, और उसे स्वीकार करना बहुत कठिन होता है—परंतु शुद्धिकरण के दौरान ही परमेश्वर मनुष्य के समक्ष अपना धर्मी स्वभाव स्पष्ट करता है और मनुष्य से अपनी अपेक्षाएँ सार्वजनिक करता है, और अधिक प्रबुद्धता, अधिक वास्तविक काट-छाँट और व्यवहार प्रदान करता है; तथ्यों और सत्य के बीच की तुलना के माध्यम से वह मनुष्य को अपने और सत्य के बारे में बृहत्तर ज्ञान देता है, और उसे परमेश्वर की इच्छा की और अधिक समझ प्रदान करता है, और इस प्रकार उसे परमेश्वर के प्रति सच्चा और शुद्ध प्रेम प्राप्त करने देता है। शुद्धिकरण का कार्य करने में परमेश्वर के ये लक्ष्य हैं। उस समस्त कार्य के, जो परमेश्वर मनुष्य में करता है, अपने लक्ष्य और अपना अर्थ होता है; परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता, और न ही वह ऐसा कार्य करता है, जो मनुष्य के लिए लाभदायक न हो। शुद्धिकरण का अर्थ लोगों को परमेश्वर के सामने से हटा देना नहीं है, और न ही इसका अर्थ उन्हें नरक में नष्ट कर देना है। बल्कि इसका अर्थ है शुद्धिकरण के दौरान मनुष्य के स्वभाव को बदलना, उसके इरादों को बदलना, उसके पुराने विचारों को बदलना, परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम को बदलना, और उसके पूरे जीवन को बदलना। शुद्धिकरण मनुष्य की वास्तविक परीक्षा और वास्तविक प्रशिक्षण का एक रूप है, और केवल शुद्धिकरण के दौरान ही उसका प्रेम अपने अंतर्निहित कार्य को पूरा कर सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल शुद्धिकरण का अनुभव करके ही मनुष्य सच्चे प्रेम से युक्त हो सकता है)। परमेश्वर की इच्छा जानने में उनके वचनों ने मेरी बहुत सहायता की। बीमारी का उपयोग करके परमेश्वर मेरी आंतरिक भ्रष्टता, बग़ावत और कलुषित मंशाओं को उजागर कर रहे थे ताकि मैं स्वयं को जानूँ, अपनी भ्रष्टता को दूर करूँ और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करूँ। मगर मैं सोचती थी परमेश्वर मेरी जान लेना और मुझे खत्म करना चाहते थे, इसलिए मैंने परमेश्वर को गलत समझा और दोष दिया, उन्हें पूरी तरह से त्याग दिया और निराशा में डूब गयी। मैंने अपने त्यागों की कीमत लगाने, उनका श्रेय लेने और परमेश्वर से बहस करने की कोशिश की। मैंने तो अपनी मौत का उपयोग करके भी परमेश्वर का सामना करना चाहा था। मैं सारा विवेक खो बैठी थी! मुझे लगा कि मैं परमेश्वर की इतनी ज़्यादा ऋणी हूँ, तो मैं उनके समक्ष प्रार्थना करने और यह पता लगाने आयी कि क्यों जब मैं बीमार हुई तो परमेश्वर को ग़लत समझने और दोष लगाने के बजाय उनके प्रति समर्पित नहीं हो सकी।

फिर मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। "बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुज़ारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैंने अपना क्रोध नीचे मनुष्यों पर उतारा और उसका सारा आनंद और शांति छीन ली, तो मनुष्य संदिग्ध हो गया। जब मैंने मनुष्य को नरक का कष्ट दिया और स्वर्ग के आशीष वापस ले लिए, तो मनुष्य की लज्जा क्रोध में बदल गई। जब मनुष्य ने मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहा, तो मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया और उसके प्रति घृणा महसूस की; तो मनुष्य मुझे छोड़कर चला गया और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगा। जब मैंने मनुष्य द्वारा मुझसे माँगा गया सब-कुछ वापस ले लिया, तो हर कोई बिना कोई निशान छोड़े गायब हो गया। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य मुझ पर इसलिए विश्वास करता है, क्योंकि मैं बहुत अनुग्रह देता हूँ, और प्राप्त करने के लिए और भी बहुत-कुछ है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। "ऐसे लोगों का परमेश्वर का अनुसरण करने का केवल एक सरल उद्देश्य होता है, और वह उद्देश्य है आशीष प्राप्त करना। ऐसे लोग ऐसी किसी भी दूसरी चीज़ पर ध्यान देने की परवाह नहीं कर सकते जो इस उद्देश्य से सीधे संबंध नहीं रखती। उनके लिए, आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास करने से ज्यादा वैध उद्देश्य और कोई नहीं है—यह उनके विश्वास का असली मूल्य है। यदि कोई चीज़ इस उद्देश्य को प्राप्त करने में योगदान नहीं करती, तो वे उससे पूरी तरह से अप्रभावित रहते हैं। आज परमेश्वर में विश्वास करने वाले अधिकांश लोगों का यही हाल है। उनके उद्देश्य और इरादे न्यायोचित प्रतीत होते हैं, क्योंकि जब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते भी हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं और अपना कर्तव्य भी निभाते हैं। वे अपनी जवानी न्योछावर कर देते हैं, परिवार और आजीविका त्याग देते हैं, यहाँ तक कि वर्षों अपने घर से दूर व्यस्त रहते हैं। अपने परम उद्देश्य के लिए वे अपनी रुचियाँ बदल डालते हैं, अपने जीवन का दृष्टिकोण बदल देते हैं, यहाँ तक कि अपनी खोज की दिशा तक बदल देते हैं, किंतु परमेश्वर पर अपने विश्वास के उद्देश्य को नहीं बदल सकते। वे अपने आदर्शों के प्रबंधन के लिए भाग-दौड़ करते हैं; चाहे मार्ग कितना भी दूर क्यों न हो, और मार्ग में कितनी भी कठिनाइयाँ और अवरोध क्यों न आएँ, वे दृढ़ रहते हैं और मृत्यु से नहीं डरते। इस तरह से अपने आप को समर्पित रखने के लिए उन्हें कौन-सी ताकत बाध्य करती है? क्या यह उनका विवेक है? क्या यह उनका महान और कुलीन चरित्र है? क्या यह बुराई से बिलकुल अंत तक लड़ने का उनका दृढ़ संकल्प है? क्या यह बिना प्रतिफल की आकांक्षा के परमेश्वर की गवाही देने का उनका विश्वास है? क्या यह परमेश्वर की इच्छा प्राप्त करने के लिए सब-कुछ त्याग देने की तत्परता के प्रति उनकी निष्ठा है? या यह अनावश्यक व्यक्तिगत माँगें हमेशा त्याग देने की उनकी भक्ति-भावना है? ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए, जिसने कभी परमेश्वर के प्रबंधन को नहीं समझा, फिर भी इतना कुछ देना एक चमत्कार ही है! फिलहाल, आओ इसकी चर्चा न करें कि इन लोगों ने कितना कुछ दिया है। किंतु उनका व्यवहार हमारे विश्लेषण के बहुत योग्य है। उनके साथ इतनी निकटता से जुड़े उन लाभों के अतिरिक्त, परमेश्वर को कभी नहीं समझने वाले लोगों द्वारा उसके लिए इतना कुछ दिए जाने का क्या कोई अन्य कारण हो सकता है? इसमें हमें पूर्व की एक अज्ञात समस्या का पता चलता है : मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष देने वाले और लेने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह कर्मचारी और नियोक्ता के मध्य के संबंध के समान है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कार्य करता है। इस प्रकार के संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेनदेन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझदारी नहीं होती, केवल दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है। अब जबकि चीज़ें इस बिंदु तक आ गई हैं, तो कौन इस क्रम को उलट सकता है? और कितने लोग इस बात को वास्तव में समझने में सक्षम हैं कि यह संबंध कितना भयानक बन चुका है? मैं मानता हूँ कि जब लोग आशीष प्राप्त होने के आनंद में निमग्न हो जाते हैं, तो कोई यह कल्पना नहीं कर सकता कि परमेश्वर के साथ इस प्रकार का संबंध कितना शर्मनाक और भद्दा है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचन मेरे हृदय को तलवार की भांति चीर गए, मुझे बहुत शर्म महसूस हुई। जैसा कि परमेश्वर ने कहा था, क्या मेरी आस्था के पीछे का मक़सद भविष्य में आशीष पाना नहीं था? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं त्याग करते कैसी दिखाई दी, मैं केवल आशीष पाने के लिए परमेश्वर से सौदा कर रही थी। मैं वास्तव में परमेश्वर की आज्ञा का पालन नहीं कर रही थी, न ही एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा रही थी। जब मैं आस्था में नई थी, मैं सोचती थी कि मुझ पर कोई आपदा नहीं आएगी, मुझे परमेश्वर का आशीष और उनके राज्य में प्रवेश मिलेगा। इसलिये मैंने अपना सर्वस्व त्याग दिया और कुछ भी अपने कर्तव्य के आड़े नहीं आने दिया। अपने बच्चों को स्कूल ले जाने और लाने का भी मेरे पास समय नहीं था। दूसरों के ताने और बदनामी सहना, सीसीपी द्वारा पीछा करके सताया जाना—कुछ भी मेरे और मेरे कर्तव्य के बीच नहीं आया। इन सब से मुझे लगा कि मैं परमेश्वर के प्रति वफादार हूँ वे अवश्य मेरी प्रशंसा करेंगे और मुझे आशीष देंगे। जब मुझे पता चला कि मुझे कैंसर है, मुझे लगा कि यही मेरा अंत है, राज्य में जाने के मेरे सारे सपने धुआं बनकर उड़ गए। मैं गलतफहमियों और शिकायतों से भरी थी, और मैंने परमेश्वर से बहस की, परमेश्वर का सामना करने के लिए मैंने अपनी मौत का उपयोग भी करना चाहा। तथ्यों का सामना करते ही मुझे एहसास हुआ कि मेरा कर्तव्य निभाना, कष्ट उठाना, और खुद को खपाना, सब बदले में एक अच्छी मंज़िल पाने के लिए थे। मेरे और परमेश्वर के बीच का रिश्ता कर्मचारी और नियोक्ता के समान था। मेरे द्वारा चुकाई हर छोटी कीमत के लिए मुझे प्रतिफल चाहिए था। मैं सच में परमेश्वर से प्रेम नहीं करती थी, मैं उनका इस्तेमाल कर रही थी, उनको धोखा देने की कोशिश कर रही थी। जब मेरी आस्था में इस तरह की सोच थी तो परमेश्वर मुझसे नफ़रत ही कर सकते थे। अगर परमेश्वर ने उस बीमारी का उपयोग करके मुझे न जगाया होता, तो मैं आस्था के बारे में अपने ग़लत विचारों से चिपकी रहती और अंत में परमेश्वर मुझे ज़रूर त्याग देते और ख़त्म कर देते। इस एहसास ने मुझे अफ़सोस और पछतावे से भर दिया। मैंने घुटने टेके और परमेश्वर से प्रार्थना की। "प्रिय परमेश्वर, अगर आपने इस बीमारी के ज़रिये मुझे उजागर न किया होता, तो मैंने आस्था को लेकर अपने गलत विचारों को कभी न समझी होती। आपके वचनों के न्याय और खुलासों ने मेरी आत्मा को जगा दिया है। मैं अपनी ग़लत मंशाओं को सुधारना चाहती हूँ और आशीष पाने की अपनी इच्छा त्यागना चाहती हूँ। चाहे मैं ठीक होऊं या नहीं, मैं जियूं या मरूं, मैं आपको समर्पित होना चाहती हूँ।" प्रार्थना के बाद मैंने और अधिक शांति का अनुभव किया, मैं पहले से बहुत बेहतर हालत में थी। बाद के दिनों में, मैं कसरत करती रही और पोषण की खुराकें लेती रही और दिन-प्रतिदिन मेरा स्वास्थ्य सुधरने लगा। कुछ दिनों में ही मुझे अस्पताल से छुट्टी मिल गई।

घर वापस आकर मैंने अपने पति और बच्चों को सुसमाचार का प्रचार करते और अपने कर्तव्य निभाते देखा, मगर मैं अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ बिस्तर में पड़ी रही। मैं थोड़ी उदास होने लगी। मुझे पता नहीं था कि मैं कब पूरी तरह से स्वस्थ होऊंगी या किसी दिन मैं अपना कर्तव्य निभा सकूंगी या नहीं। अगर मैं अपना कर्तव्य न निभा सकी तो क्या मैं बिलकुल बेकार नहीं हो जाऊंगी? और फिर मुझे कैसे बचाया जाएगा? मुझे एहसास हुआ कि आशीष पाने की मेरी इच्छा फिर अपना सिर उठा रही थी। मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की और उनके ये वचन पढ़े : "इससे पहले लोग किस आधार पर रहते थे? सभी लोग स्वयं के लिए जीते हैं। मैं तो बस अपने लिए सोचूँगा, बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी ख़ातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; वे चीजों को त्यागते हैं, परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं और परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं—लेकिन फिर भी वे ये सब स्वयं के लिए करते हैं। संक्षेप में, यह सब स्वयं के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है। दुनिया में, सब कुछ निजी लाभ के लिए होता है। परमेश्वर पर विश्वास करना आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ही कोई व्यक्ति सब कुछ छोड़ देता है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कोई व्यक्ति बहुत दुःख का भी सामना कर सकता है। यह सब मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति का प्रयोगसिद्ध प्रमाण है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'बाहरी परिवर्तन और स्वभाव में परिवर्तन के बीच अंतर')। परमेश्वर के वचनों ने यह समझने में मेरी मदद की कि अपनी आस्था में परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने, मनचाहा काम न होने पर परमेश्वर के ख़िलाफ़ विद्रोह और विरोध करने का कारण यह था कि सभी तरह के शैतानी विष मेरे मन को नियंत्रित कर रहे थे। "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" और "जब तक लाभ न हो तब तक एक उंगली भी न उठाओ"—मैं इन शैतानी फलसफों का पालन करके जीती रही। मैंने सब कुछ अपने लिए किया, स्वयं को लाभ पहुँचाने के लिए किया। मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी। अपनी आस्था में भी, मैं सिर्फ़ आशीष और पुरस्कार पाने के लिए संघर्ष करती रही। सत्य को प्राप्त करने या अपने स्वभाव को बदलने पर मैंने बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया। जब मुझे वह आशीष नहीं मिला जो मैं चाहती थी, तो मेरी शैतानी प्रकृति भड़क उठी, मैंने परमेश्वर को ग़लत समझा और उसे दोष दिया, मैंने परमेश्वर के लिए जो भी किया था उस पर अफ़सोस किया। पौलुस ने प्रभु के लिए काम किया और बहुत कष्ट उठाये, मगर उसे सत्य से कोई लगाव नहीं था, उसने परमेश्वर को जानने या अपने स्वभाव को बदलने का प्रयत्न नहीं किया। वह अपने कष्ट और त्याग के बदले धार्मिकता का ताज चाहता था। अंत में उसका शैतानी स्वभाव नहीं बदला, तो उसके अहंकार ने सारी समझ को बाहर निकाल दिया, उसने गवाही दी कि वह स्वयं मसीह है और वह लोगों को अपने समक्ष लाया। जिससे परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँची और उसको अंतहीन दंड मिला। मुझे पता था कि अगर मैं शैतान के विष के साथ जीती रही, तो मैं पौलुस जैसी हो जाऊंगी। परमेश्वर का विरोध करने के लिए वे मुझे दंड देंगे। मैंने देखा कि सत्य को प्राप्त किए बिना आशीष माँगना कितना खतरनाक था। मैं परमेश्वर के प्रति बहुत कृतज्ञ थी। इस बीमारी का उपयोग करके खुद के बारे में सोचने और जानने का अवसर देने के लिए, मैंने उनका धन्यवाद किया, मैं अपनी आस्था के पालन में अपनी ग़लत सोच को समझ पायी, और जाना कि मैं परमेश्वर के विरोध के रास्ते पर चल रही थी।

फिर मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : "परमेश्वर सर्वदा सर्वोच्च है और हमेशा आदरणीय है, जबकि मनुष्य सर्वदा तुच्छ और हमेशा निकम्मा है। यह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर हमेशा मनुष्यों के लिए बलिदान करता रहता है और अपने आप को समर्पित करता है; जबकि, मनुष्य हमेशा लेता है और सिर्फ अपने आप के लिए ही परिश्रम करता है। परमेश्वर सदा मानवजाति के अस्तित्व के लिए परिश्रम करता रहता है, फिर भी मनुष्य ज्योति और धार्मिकता में कभी भी कोई योगदान नहीं देता है। भले ही मनुष्य कुछ समय के लिए परिश्रम करे, लेकिन वह इतना कमज़ोर होता है कि हल्के से झटके का भी सामना नहीं सकता है, क्योंकि मनुष्य का परिश्रम केवल अपने लिए होता है दूसरों के लिए नहीं। मनुष्य हमेशा स्वार्थी होता है, जबकि परमेश्वर सर्वदा स्वार्थविहीन होता है। परमेश्वर उन सब का स्रोत है जो धर्मी, अच्छा, और सुन्दर है, जबकि मनुष्य सब प्रकार की गन्दगी और बुराई का वाहक और प्रकट करने वाला है। परमेश्वर कभी भी अपनी धार्मिकता और सुन्दरता के सार-तत्व को नहीं बदलेगा, जबकि मनुष्य किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में, धार्मिकता से विश्वासघात कर सकता है और परमेश्वर से दूर जा सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के स्वभाव को समझना बहुत महत्वपूर्ण है)। इन वचनों पर विचार करते हुए मैं बहुत भावुक हो गयी। उस मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर ने इतनी बड़ी कीमत चुकायी है जिसे शैतान ने इतनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है। दो हज़ार वर्ष पूर्व, मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिये परमेश्वर ने यहूदिया में पहली बार देहधारण किया। उन्होंने ताने और अपमान सहे, यहूदी धर्म के अनुयायियों द्वारा उत्पीड़न और बुरे बर्ताव का सामना किया। अंततः उनको सलीब पर कीलों से ठोक दिया गया, जिससे छुटकारे का कार्य पूरा हो गया। आज, चीन में परमेश्वर दूसरी बार देहधारी बने हैं ताकि मानवजाति को हमेशा के लिए शुद्ध करके बचाया जा सके। सीसीपी. द्वारा उनका पीछा और उत्पीड़न किया गया, उनके पास न तो सिर छिपाने की जगह थी और न आराम करने की, हम विश्वासियों द्वारा गलत समझे जाने, दोष लगाये जाने, अवज्ञा और विरोध का सामना करना पड़ा। फिर भी परमेश्वर मानवजाति को बचाने की कोशिश करने से कभी नहीं रुके इसके बजाय जो कुछ उनसे हो सकता है, वे चुपचाप करते हैं, बदले में कुछ भी नहीं मांगते। हालांकि, मैंने कर्तव्य निभाते वक्त त्याग किए और बदले में आशीष और मंज़िल पाने की कामना की। परमेश्वर से सौदेबाजी करने के लिए मैं अपने ज़मीर के विरुद्ध गयी। मैं कितनी स्वार्थी और नीच थी! मैं किसी तरह की सच्ची विश्वासी नहीं थी। यह महसूस करके, मैं पश्चाताप की इच्छा लेकर परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना करने गयी।

एक दिन अपने भक्ति कार्य के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "परमेश्वर में सच्चे विश्वास का अर्थ यह है: इस विश्वास के आधार पर कि सभी वस्तुओं पर परमेश्वर की संप्रभुता है, व्यक्ति परमेश्वर के वचनों और कार्यों का अनुभव करता है, अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करता है, परमेश्वर की इच्छा पूरी करता है और परमेश्वर को जान पाता है। केवल इस प्रकार की यात्रा को ही 'परमेश्वर में विश्वास' कहा जा सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना)। "परमेश्वर पर विश्वास करना उसे संतुष्ट करने के वास्ते और उस स्वभाव को जीने के लिए है जो वह अपेक्षा करता है, ताकि इन अयोग्य लोगों के समूह के माध्यम से परमेश्वर के कार्यकलाप और उसकी महिमा प्रदर्शित हो सके। परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए यही सही दृष्टिकोण है और यह वो लक्ष्य भी है जिसे तुम्हें खोजना चाहिए। परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में तुम्हारा सही दृष्टिकोण होना चाहिए और तुम्हें परमेश्वर के वचनों को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने की आवश्यकता है, और तुम्हें सत्य को जीने, और विशेष रूप से उसके व्यवहारिक कर्मों को देखने, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उसके अद्भुत कर्मों को देखने, और साथ ही देह में उसके द्वारा किए जाने वाले व्यवहारिक कार्य को देखने में सक्षम होना चाहिए। अपने वास्तविक अनुभवों के द्वारा, लोग इस बात की सराहना कर सकते हैं कि कैसे परमेश्वर उन पर अपना कार्य करता है, उनके प्रति उसकी क्या इच्छा है। यह सब लोगों के भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दूर करने के लिए है। अपने भीतर की सारी अशुद्धता और अधार्मिकता बाहर निकाल देने, अपने गलत इरादों को निकाल फेंकने, और परमेश्वर में सच्चा विश्वास उत्पन्न करने के बाद—केवल सच्चे विश्वास के साथ ही तुम परमेश्वर को सच्चा प्रेम कर सकते हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। परमेश्वर के वचन हमें दिखाते हैं कि अपनी आस्था में हम कौन से सही लक्ष्य को प्राप्त करें। हमारे अनुभवों में हम कितने भी अनुशासित हों, हमें विशेषकर शुद्ध करने और बदलने के लिए परमेश्वर सारी व्यवस्था करते हैं। मुझे मालूम था कि इन सब का अनुभव स्वीकृति और आज्ञाकारिता के साथ करना होगा, अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने के लिए मुझे सत्य की खोज करनी होगी, मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करना होगा और सभी चीज़ों में उनके प्रेम का मूल्य चुकाना होगा। यह एकमात्र सही अनुसरण है। अब मैं आशीष पाने के लिए परमेश्वर से और सौदेबाजी नहीं करना चाहती थी। मेरी बीमारी अब बढ़े या कम हो, मैं अंतिम सांस तक परमेश्वर की आराधना करूंगी। अगर परमेश्वर ने मुझे कर्तव्य निभाने का दूसरा अवसर दिया, तो मैं आशीष पाने के लिए उनसे सौदेबाजी नहीं करूंगी। मैं बस अपने कर्तव्य पालन में सत्य की खोज और अपने स्वभाव में बदलाव लाना चाहती थी।

कुछ ही समय बाद परमेश्वर ने मेरी परीक्षा ली।

एक दिन, मेरी बेटी कलीसिया की सभा से वापस आकर बोली बहन वाँग, जो विश्वासियों का सिंचन करती हैं, पुलिस उनका पीछा कर रही है और अभी तक उनकी जगह काम करने वाला कोई नहीं मिला। उसने मुझसे पूछा कि कलीसिया में वो काम कौन कर सकता है। मैंने यह कार्य पहले किया हुआ था और इसे अच्छी तरह से जानती थी, तो मैंने सोचा कि मैं सबसे अधिक उपयुक्त होऊँगी। मगर फिर मैंने सोचा कि तकरीबन बीस दिन पहले ही तो मेरा ऑपरेशन हुआ था। चीरे का घाव अभी पूरी तरह ठीक नहीं हुआ था और मौसम गरम होता जा रहा था। घर पर, मुझे दिन में कई बार चीरे की सफाई करनी होती थी। अगर मैंने यह ज़िम्मेदारी ली और इतनी व्यस्त हो गयी कि अपने घाव को साफ़ न रख सकी, तो यह सूज सकता है। मैं अपने हाथों का ठीक से इस्तेमाल नहीं कर पाती थी, अगर मुझे हर दिन इलेक्ट्रिक स्कूटर पर झटके खाने पड़े तो मेरा घाव ठीक नहीं होगा, और मैं बहुत बीमार हो जाऊँगी। ऐसे में, उस ज़िम्मेदारी को लेकर मैं अपनी सेहत का नुकसान करूंगी। मगर फिर मैंने सोचा, "अभी तक इस ज़िम्मेदारी के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिला है। अगर मैं यह जिम्मेदारी नहीं लूंगी तो क्या परमेश्वर के घर का काम पिछड़ नहीं जायेगा? मुझे क्या करना चाहिए?" तब मेरे मन में परमेश्वर के वचनों का यह अंश आया: "अगर परमेश्वर में अपनी आस्था और सत्य की खोज में तुम यह कहने में सक्षम हो, 'परमेश्वर कोई भी बीमारी या अप्रिय घटना मेरे साथ होने दे—परमेश्वर चाहे कुछ भी करे—मुझे आज्ञापालन करना चाहिए, और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर रहना चाहिए। अन्य सभी चीजों से पहले मुझे सत्य के इस पहलू—आज्ञापालन—को अभ्यास में लाना चाहिए, मैं इसे कार्यान्वित करता हूँ और परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता की वास्तविकता को जीता हूँ। साथ ही, परमेश्वर ने जो आदेश मुझे दिया है और जो कर्तव्य मुझे निभाना चाहिए, मुझे उनका परित्याग नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।' क्या यह गवाही देना नहीं हुआ?"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्‍य के बारम्‍बार चिन्‍तन से ही आपको आगे का मार्ग मिल सकता है')। परमेश्वर ने मुझे अभ्यास का मार्ग प्रदान किया। हालाँकि मेरा चीरा अभी पूरी तरह ठीक नहीं हुआ था, मगर मैं अब स्वार्थी और नीच नहीं बनना चाहती थी, परमेश्वर के घर के बजाय सिर्फ़ अपने बारे में सोचना नहीं चाहती थी। वर्षों तक मैं आशीष पाने के लिए अपना कर्तव्य निभाती रही, परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करती रही। मैंने कभी परमेश्वर की इच्छा की परवाह नहीं की या उसे संतुष्ट करने के लिए कुछ भी नहीं किया। वास्तव में मैं परमेश्वर की ऋणी थी! इस काम को करने के लिए किसी की तत्काल जरूरत थी, और मैं इसे करना चाहती थी। चाहे मेरी सेहत कैसी भी रहे, मैं केवल परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहती थी। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से, मेरी बीमारी अब मेरे लिए बाधा न रही मैंने स्वेच्छा से उस काम की जिम्मेदारी ले ली।

जब मैंने अपना सब कुछ इस कर्तव्य पालन में डाल दिया, तब मैंने परमेश्वर की चमत्कारिक सुरक्षा को देखा। एक हफ्ते बाद, मेरा चीरा और बिगड़ने के बजाय पूरी तरह से ठीक हो गया। डॉक्टर ने कहा, "इस तरह के ऑपरेशन के बाद बांह में लिम्फेडेमा (सूजन) का होना आम बात है और स्वास्थ्य लाभ के एक महीने बाद भी मरीज़ को कीमोथेरापी की आवश्यकता होती है।" मगर जब से मैंने वो कर्तव्य करना शुरू किया, मेरा चीरा दुखना बंद हो गया, मेरी बांह में कोई लिम्फेडेमा (सूजन) नहीं था, और मैं कीमोथेरापी के लिए भी नहीं गयी। मेरा ऑपरेशन हुए अब एक वर्ष से अधिक हो गया है, और मैं पूरी तरह स्वस्थ हूँ। परमेश्वर के चमत्कारिक कार्यों के लिए उनका धन्यवाद। मैंने निजी तौर पर उनके इन वचनों को अनुभव किया है जो कहते हैं : "कोई भी और सभी चीज़ें, चाहे जीवित हों या मृत, परमेश्वर के विचारों के अनुसार ही जगह बदलेंगी, परिवर्तित, नवीनीकृत और गायब होंगी। परमेश्वर सभी चीज़ों को इसी तरीके से संचालित करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। एक बार जब मैंने अपनी अनुचित मांगें छोड़ दीं और परमेश्वर से सौदेबाजी करना बंद कर दिया, तब मैंने वास्तव में परमेश्वर के अधिकार और सत्ता को देखा और उनके चमत्कारिक कार्यों को देखा!

सतही तौर पर, इस बीमारी का अग्नि-परीक्षण मुझे किसी आपदा की तरह लगा था मगर उसके अंदर परमेश्वर का प्रेम छुपा हुआ था। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन ने मुझे आशीष पाने की अपनी मंशाओं और अपनी अशुद्धियों को पहचानने की थोड़ी-बहुत समझ दी। मेरे अंदर परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता पैदा हुई, और मैंने सच में यह सीखा कि बीमारी का अनुभव करना परमेश्वर का आशीष है, यह मुझे शुद्ध करने और बदलने के लिए है। मेरा उद्धार करने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद!

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