7. हठीला और असंयमी होने की समस्या का समाधान कैसे करें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

अहंकारी और हठी लोगों को सत्य स्वीकारना बहुत मुश्किल लगता है। जब वे कुछ ऐसा सुनते हैं जो उनके परिप्रेक्ष्यों, राय और विचारों के साथ मेल नहीं खाता, तो वे इसे स्वीकार नहीं कर पाते। उन्हें इसकी परवाह नहीं होती कि दूसरे जो कहते हैं वो सही है या गलत, या यह किसने कहा, या यह किस संदर्भ में कहा गया था, या चाहे यह उनकी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से संबंधित था। वे इन चीजों की परवाह नहीं करते; उनके लिए सबसे जरूरी उनकी अपनी भावनाओं को संतुष्ट करना है। क्या यह हठी होना नहीं है। हठी होने से अंत में लोगों को क्या नुकसान होते हैं? उनके लिए सत्य को प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। सत्य को स्वीकार नहीं करने की वजह मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है, और अंतिम परिणाम यह है कि वे आसानी से सत्य को हासिल नहीं कर पाते। जो कुछ भी मनुष्य के प्रकृति-सार से स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है वह सत्य के विरोध में होता है और इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है; ऐसी कोई भी चीज न तो सत्य के अनुरूप होती है और न ही सत्य के आस-पास होती है। इसलिए, उद्धार पाने के लिए सत्य को स्वीकारना और उसका अभ्यास करना आवश्यक है। अगर कोई सत्य स्वीकार नहीं कर सकता और हमेशा अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार ही चलना चाहता है, तो वह व्यक्ति कभी भी उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता। यदि तुम परमेश्वर का अनुसरण करना और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहते हो, तो पहली बात यह कि अगर चीजें तुम्हारे अनुसार न हों, तो आवेश में आने से बचना चाहिए। पहले मन को शांत करो और परमेश्वर के सामने मौन रहो, मन ही मन उससे प्रार्थना करो और उससे खोजो। हठी मत बनो; पहले समर्पित हो जाओ। ऐसी मानसिकता से ही तुम समस्याओं का बेहतर समाधान कर सकते हो। यदि तुम परमेश्वर के सामने जीने में दृढ़ रह सको, और तुम पर चाहे जो भी मुसीबत आए, उसमें उससे प्रार्थना करने और रास्ता दिखाने के लिए कहने में समर्थ हो, और तुम समर्पण की मानसिकता से उसका सामना कर सकते हो, तो फिर इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के कितने खुलासे हो चुके हैं, या तुमने पहले क्या-क्या अपराध किए हैं—अगर तुम सत्य की खोज करो, तो उन सभी समस्याओं को हल कर पाओगे। तुम्हारे सामने कैसी भी परीक्षाएँ आएँ, तुम दृढ़ रह पाओगे। अगर तुम्हारी मानसिकता सही है, तुम सत्य स्वीकार पाते हो और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उसके प्रति समर्पण करते हो तो तुम सत्य पर अमल करने में पूरी तरह सक्षम हो। भले ही तुम कभी-कभी थोड़े विद्रोही और प्रतिरोधी हो सकते हो और कभी-कभी रक्षात्मक समझ दिखाते हो और समर्पण नहीं कर पाते हो, पर यदि तुम परमेश्वर से प्रार्थना करके अपनी विद्रोही प्रवृत्ति को बदल सको, तो तुम सत्य स्वीकार कर सकते हो। ऐसा करने के बाद, इस पर विचार करो कि तुम्हारे अंदर विद्रोह और प्रतिरोध क्यों पैदा हुआ। कारण का पता लगाओ, फिर उसे दूर करने के लिए सत्य खोजो, और तब तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के उस पहलू को शुद्ध किया जा सकता है। ऐसी ठोकरें खाने और गिरकर उठने के बाद, जब तुम सत्य को अभ्यास में लाने लगोगे, तब तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे दूर होता जाएगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

कुछ लोग अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर मनमाने और लापरवाह ढंग से कार्य करते हैं। वे बेहद सनकी होते हैं : जब वे खुश होते हैं तो अपने कर्तव्य का थोड़ा-सा पालन करते हैं, और जब खुश नहीं होते तो रूठ जाते हैं और कहते हैं, “आज मेरा मूड खराब है। मैं कुछ नहीं खाऊँगा और अपना कर्तव्य नहीं निभाऊँगा।” तब दूसरों को उनसे बात करके कहना पड़ता है : “यह नहीं चलेगा। तुम इतने सनकी नहीं हो सकते।” और वे लोग इस पर क्या कहेंगे? “मुझे पता है कि यह नहीं चलेगा, लेकिन मैं एक धनी, विशिष्ट परिवार में पला-बढ़ा हूँ। मेरे दादा-दादी और चाची-ताई सबने मुझे लाड़-प्यार कर बिगाड़ दिया, और मेरे माता-पिता की तो पूछो ही मत। मैं उनका दुलारा था, उनकी आँख का तारा, और उन्होंने मेरी हर बात मानी और मुझे बिगाड़ा। मेरा यह सनकी मिजाज उसी परवरिश की देन है, इसलिए जब मैं परमेश्वर के घर में कोई कर्तव्य निभाता हूँ, तो मैं दूसरों के साथ चीजों पर चर्चा नहीं करता, या सत्य नहीं खोजता, या परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं होता। क्या इसके लिए मैं दोषी हूँ?” क्या उनकी समझ सही है? क्या उनका रवैया सत्य का अनुसरण करने वाला है? (नहीं।) जब भी कोई उनकी थोड़ी-सी भी गलती सामने लाता है, जैसे कि कैसे वे भोजन करते समय सबसे अच्छे खाद्य पदार्थ झटक लेते हैं, कैसे वे सिर्फ अपनी परवाह करते हैं और दूसरों के बारे में नहीं सोचते, तो वे कहते हैं, “मैं बचपन से ऐसा ही हूँ। मैं इसका आदी हूँ। मैंने कभी दूसरे लोगों के बारे में नहीं सोचा। मैंने हमेशा एक विशिष्ट जीवन जिया है, ऐसे माता-पिता के साथ जो मुझसे प्रेम करते हैं और ऐसे दादा-दादी के साथ जो मुझसे लाड़-प्यार करते हैं। मैं अपने पूरे परिवार की आँख का तारा हूँ।” यह ढेर सारी बकवास और भ्रांति है। क्या यह बेशर्मी और सरेआम निर्लज्जता नहीं है? तुम्हारे माता-पिता तुमसे लाड़ करते हैं—क्या इसका मतलब यह है कि बाकी सभी को भी ऐसा करना चाहिए? तुम्हारे रिश्तेदार तुमसे प्रेम करते हैं और तुमसे लाड़ करते हैं—क्या यह तुम्हें परमेश्वर के घर में लापरवाही और मनमानी करने का कारण देता है? क्या यह वाजिब कारण है? क्या अपने भ्रष्ट स्वभाव के प्रति यह सही रवैया है? क्या यह सत्य का अनुसरण करने का दृष्टिकोण है? (नहीं।) जब इन लोगों पर कोई चीज आकर पड़ती है, जब उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव या अपने जीवन से संबंधित कोई समस्या होती है, तो वे उसका उत्तर देने के लिए, उसे समझाने के लिए, उसे सही ठहराने के लिए वस्तुगत कारण खोजते हैं। वे कभी सत्य नहीं खोजते या परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, और आत्मचिंतन करने के लिए परमेश्वर के सामने नहीं आते। आत्म-चिंतन के बिना क्या कोई अपनी समस्याएँ और भ्रष्टता जान सकता है? (नहीं।) और अपनी भ्रष्टता जाने बिना क्या वह पश्चात्ताप कर सकता है? (नहीं।) अगर कोई पश्चात्ताप नहीं कर सकता, तो वह कौन-सी स्थिति है जिसमें वह निरपवाद रूप से रह रहा होगा? क्या यह खुद को क्षमा करने की स्थिति नहीं होगी? यह महसूस करने की स्थिति नहीं होगी कि भले ही उन्होंने भ्रष्टता दिखाई है, पर उन्होंने बुराई नहीं की है या प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन नहीं किया है—कि भले ही ऐसा करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था, पर यह जानबूझकर नहीं किया गया था, और यह क्षम्य है? (हाँ।) अच्छा, क्या सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति की इस तरह की स्थिति होनी चाहिए? ... जो लोग विशेष रूप से सनकी होते हैं और अक्सर लापरवाह और मनमाने ढंग से व्यवहार करते हैं, वे परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना नहीं स्वीकारते, न ही वे अपनी काट-छाँट स्वीकारते हैं। वे अक्सर सत्य का अनुसरण न कर पाने और अपनी काट-छाँट न स्वीकार पाने के लिए बहाने भी बनाते हैं। यह कौन-सा स्वभाव है? जाहिर है, यह सत्य-विमुख स्वभाव है—शैतान का स्वभाव है। मनुष्य में शैतान की प्रकृति और उसका स्वभाव है, इसलिए निस्संदेह लोग शैतान के हैं। वे दानव हैं, शैतान के वंशज हैं और बड़े लाल अजगर की संतान हैं। कुछ लोग इस बात को स्वीकार कर पाते हैं कि वे दानव हैं, शैतान हैं, और बड़े लाल अजगर की संतान हैं, वे आत्म-ज्ञान के बारे में बहुत सुंदर ढंग से बोलते हैं। लेकिन जब वे कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं और कोई उन्हें उजागर कर उनकी काट-छाँट करता है, तो वे पूरी ताकत से खुद को सही ठहराने की कोशिश करेंगे और वे सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे। यहाँ मुद्दा क्या है? इसमें, ये लोग पूरी तरह उजागर हो जाते हैं। खुद को जानने की बात करते हुए वे बहुत ही सुंदर ढंग से बात करते हैं, तो फिर ऐसा क्यों है कि जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे सत्य स्वीकार नहीं पाते? यहाँ एक समस्या है। क्या इस तरह की बात काफी सामान्य नहीं है? क्या इसे समझना आसान है? हाँ, वास्तव में आसान है। काफी लोग ऐसे होते हैं जो आत्मज्ञान की बात करते समय यह मानते हैं कि वे दानव और शैतान हैं, लेकिन बाद में न तो वे पश्चात्ताप करते हैं और न ही बदलते हैं। तो जिस आत्मज्ञान की वे बात करते हैं, वह सच है या झूठ? क्या उन्हें अपने बारे में सच्चा ज्ञान है या यह दूसरों को बरगलाने के लिए बस एक चाल है? उत्तर स्वतः स्पष्ट है। तो यह देखने के लिए कि क्या व्यक्ति के पास सच्चा आत्मज्ञान है, तुम्हें केवल उसके बारे में उसे बात करते नहीं सुनना चाहिए—तुम्हें काट-छाँट के प्रति उसका रवैया देखना चाहिए, और यह भी कि वह सत्य स्वीकार सकता है या नहीं। यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। जो व्यक्ति अपनी काट-छाँट स्वीकार नहीं करता, उसमें सत्य न स्वीकारने और उसे स्वीकार करने से इंकार करने का सार होता है, और उसका स्वभाव सत्य-विमुख होता है। इसमें कोई संदेह नहीं है। कुछ लोगों ने चाहे कितनी भी भ्रष्टता दिखाई हो, वे दूसरों को अपने साथ काट-छाँट करने की अनुमति नहीं देते—कोई भी उनकी काट-छाँट नहीं कर सकता। वे अपने आत्मज्ञान के बारे में, जैसे चाहें वैसे बोल सकते हैं, लेकिन यदि कोई और उन्हें उजागर करे, उनकी आलोचना करे या उनकी काट-छाँट करे, तो चाहे वह कितना भी निष्पक्ष या तथ्यों के अनुरूप क्यों न हो, वे उसे नहीं स्वीकारेंगे। दूसरा व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव के उनके किसी भी तरह के उद्गार को उजागर करे, वे अत्यंत विरोधी बने रहेंगे और लेशमात्र भी सच्चे समर्पण के बिना, अपने लिए सुनने में अच्छे लगने वाले तर्क देते रहते हैं। अगर ऐसे लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो संकट आ पड़ेगा। कलीसिया में उन्हें छू नहीं सकते और वे आलोचना से परे होते हैं। जब लोग उनके बारे में कुछ अच्छा कहते हैं, तो इससे उन्हें खुशी मिलती है; जब लोग उनकी बुराई सामने लाते हैं, तो वे गुस्सा हो जाते हैं। अगर कोई उन्हें उजागर करते हुए कहता है : “तुम एक अच्छे इंसान हो, पर बहुत सनकी हो। तुम हमेशा मनमाने और लापरवाह ढंग से काम करते हो। तुम्हें अपनी काट-छाँट स्वीकारने की जरूरत है। क्या तुम्हारे लिए इन कमियों और भ्रष्ट स्वभावों से छुटकारा पाना बेहतर नहीं होगा?” तो उत्तर में वे कहेंगे, “मैंने कुछ बुरा नहीं किया है। मैंने पाप नहीं किया है। तुम मेरी काट-छाँट क्यों कर रहे हो? जब मैं बच्चा था, तभी से घर पर मेरे माता-पिता और दादा-दादी दोनों ने मुझसे लाड़-प्यार किया है। मैं उनका दुलारा हूँ, उनकी आँखों का तारा हूँ। अब, यहाँ परमेश्वर के घर में, कोई मुझसे बिल्कुल भी लाड़ नहीं करता—यहाँ रहने में कोई मजा नहीं! तुम लोग हमेशा मेरी कोई न कोई गलती पकड़कर मेरी काट-छाँठ करने की कोशिश करते हो। मैं इस तरह कैसे जी सकता हूँ?” यहाँ क्या समस्या है? स्पष्ट-दृष्टि वाला व्यक्ति फौरन तुम्हें बता सकता है कि इन लोगों को उनके माता-पिता और परिवार ने बिगाड़ दिया है, और ये अभी भी नहीं जानते कि कैसे खुद को ढालना है या कैसे स्वतंत्र रूप से जीना है। तुम्हारे परिवार ने तुमसे ऐसे प्रेम किया है मानो तुम कोई आदर्श हो और तुम ब्रह्मांड में अपनी जगह नहीं जानते। तुमने अहंकार, आत्म-तुष्टि और अत्यधिक सनकीपन के अवगुण विकसित कर लिए हैं, जिनका तुम्हें नहीं पता और जिन पर चिंतन करना तुम्हें नहीं आता। तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, पर उसके वचन नहीं सुनते या सत्य का अभ्यास नहीं करते। क्या तुम परमेश्वर में इस तरह के विश्वास के साथ सत्य प्राप्त कर सकते हो? क्या तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो? क्या तुम सच्ची इंसानियत को जी सकते हो? हरगिज नहीं।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1)

एक और समूह ऐसे लोगों का है, जो शारीरिक सुख के पीछे नहीं भागते। वे चीजों को अपनी सनक और मनोदशा के अनुसार करना चाहते हैं। जब वे खुश होते हैं तो वे ज्यादा कष्ट सह पाते हैं, वे पूरे दिन लगातार काम कर सकते हैं, और अगर तुम उनसे पूछो कि क्या उन्हें थकान महसूस होती है, तो वे कहेंगे, “मैं थका हुआ नहीं हूँ, अपना कर्तव्य करने से मैं थक कैसे सकता हूँ!” लेकिन अगर वे किसी दिन नाखुश होते हैं, तो तुम्हारे एक अतिरिक्त मिनट काम करने के लिए कहने पर ही वे नाराज हो जाएँगे, और अगर तुम उन्हें थोड़ा डाँट दो, तो वे कहेंगे, “बोलना बंद करो! मैं दमित महसूस करता हूँ। अगर तुम बोलते रहे, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं करूँगा, और यह तुम्हारी गलती होगी। अगर भविष्य में मुझे आशीष न मिले तो यह तुम्हारी वजह से होगा और इसकी सारी जिम्मेदारी तुम पर होगी!” असामान्य स्थिति में होने पर लोग अस्थिरमति हो जाते हैं। कभी-कभी वे कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम होंगे, लेकिन कभी-कभी थोड़े से कष्ट के बारे में भी शिकायत करेंगे, यहाँ तक कि कोई छोटी-सी समस्या भी उन्हें परेशान कर देगी। जब उनकी मनोदशा खराब होती है, तो वे अपने कर्तव्य करना, परमेश्वर के वचन पढ़ना, भजन गाना या सभाओं में भाग लेना और धर्मोपदेश नहीं सुनना चाहेंगे। वे बस कुछ समय के लिए अकेले रहना चाहेंगे और किसी के लिए भी उनकी मदद या समर्थन करना असंभव होगा। कुछ दिनों बाद हो सकता है वे इससे उबर जाएँ और बेहतर महसूस करें। जो भी चीज उन्हें संतुष्ट करने में विफल रहती है, वह उन्हें दमित महसूस कराती है। क्या इस तरह का व्यक्ति खास तौर से जिद्दी नहीं होता? (हाँ, होता है।) वे खास तौर से जिद्दी होते हैं। उदाहरण के लिए, अगर वे तुरंत सो जाना चाहते हैं, तो वे ऐसा करने पर जोर देंगे। वे कहेंगे, “मैं थक गया हूँ और अभी सोना चाहता हूँ। जब मुझमें ऊर्जा नहीं रहती, तो मुझे सोना पड़ता है!” अगर कोई कहता है, “क्या तुम दस मिनट और नहीं रुक सकते? यह कार्य सच में जल्दी ही पूरा हो जाएगा, फिर हम सब आराम कर सकेंगे, यह कैसा रहेगा?” वह जवाब देगा, “नहीं, मुझे अभी सोने जाना है!” अगर कोई उन्हें मनाता है, तो वे अनिच्छा से कुछ समय के लिए रुक तो जाएँगे, पर दमित और नाराज महसूस करेंगे। वे अक्सर इन मामलों में दमित महसूस करते हैं और भाई-बहनों से मदद स्वीकारने या अगुआओं द्वारा निरीक्षण किए जाने के लिए तैयार नहीं होते। अगर वे कोई गलती करते हैं, तो वे दूसरों को अपने निपटान या काट-छाँट करने की अनुमति नहीं देंगे। वे किसी भी तरह से बंधन में नहीं रहना चाहते। वे सोचते हैं, “मैं परमेश्वर में इसलिए विश्वास करता हूँ ताकि मुझे खुशी मिल सके, तो मैं अपने लिए चीजें कठिन क्यों बनाऊँ? मेरा जीवन इतना थकाऊ क्यों हो? लोगों को खुशी से रहना चाहिए। उन्हें इन नियमों और उन प्रणालियों पर इतना ध्यान नहीं देना चाहिए। उनका हमेशा पालन करने से क्या लाभ? अभी इसी क्षण मैं जो चाहूँ सो करने जा रहा हूँ। तुम लोगों में से किसी को भी इस बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए।” इस तरह का व्यक्ति खास तौर से जिद्दी और स्वच्छंद होता है : वह खुद को किसी भी रुकावट से पीड़ित नहीं होने देता, न ही वह किसी कार्य-परिवेश में रुकावट महसूस करना चाहता है। वे परमेश्वर के घर के नियमों और सिद्धांतों का पालन नहीं करना चाहते, वे उन सिद्धांतों को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते जिनका लोगों को अपने आचरण में पालन करना चाहिए, यहाँ तक कि वे उस चीज का भी पालन नहीं करना चाहते जो जमीर और विवेक कहते हैं कि उन्हें करना चाहिए। वे जैसा चाहे वैसा करना चाहते हैं, वे वही करना चाहते हैं जिससे उन्हें खुशी मिले, जो उन्हें फायदा पहुँचाए और जिसमें उन्हें आराम महसूस हो। उनका मानना होता है कि इन रुकावटों के तहत रहना उनकी इच्छा का उल्लंघन होगा, यह एक तरह का आत्म-अपमान होगा, यह अपने प्रति बहुत कठोरता होगी, और लोगों को इस तरह नहीं रहना चाहिए। उन्हें लगता है कि लोगों को अपने दैहिक सुख और कामनाओं के साथ-साथ अपने आदर्शों और इच्छाओं का बेलगाम आनंद लेते हुए स्वतंत्र और मुक्त होकर जीना चाहिए। उन्हें लगता है कि उन्हें अपने तमाम विचारों का आनंद लेना चाहिए, जो चाहे कहना चाहिए, जो चाहे करना चाहिए और जहाँ चाहे जाना चाहिए और ऐसा उन्हें बिना नतीजों या अन्य लोगों की भावनाओं की परवाह किए और खासकर बिना अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों पर विचार किए करना चाहिए, या उन कर्तव्यों पर जो विश्वासियों को निभाने चाहिए, या उन सत्य वास्तविकताओं पर जिन्हें उन्हें कायम रखना और जीना चाहिए, या उस जीवन-मार्ग पर जिसका उन्हें अनुसरण करना चाहिए। लोगों का यह समूह हमेशा समाज में और अन्य लोगों के बीच जैसा चाहे वैसा करना चाहता है, लेकिन चाहे वे कहीं भी जाएँ, वे उसे कभी प्राप्त नहीं कर पाते। वे मानते हैं कि परमेश्वर का घर मानवाधिकारों पर जोर देता है, लोगों को पूर्ण स्वतंत्रता देता है, वह मानवता की और लोगों के साथ सहनशीलता और धैर्य बरतने की परवाह करता है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर में आने के बाद वे अपने दैहिक सुखों और इच्छाओं में मुक्त रूप से लिप्त हो पाएँगे, लेकिन चूँकि परमेश्वर के घर में प्रशासनिक आदेश और विनियम हैं, इसलिए वे अभी भी जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते। इसलिए परमेश्वर के घर में शामिल होने के बाद भी उनकी इस नकारात्मक दमनात्मक भावना का समाधान नहीं हो पाता। वे किसी तरह की जिम्मेदारियाँ निभाने या कोई मिशन पूरा करने या एक सच्चा इंसान बनने के लिए नहीं जीते। परमेश्वर में उनका विश्वास एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने, अपना मिशन पूरा करने और उद्धार प्राप्त करने के लिए नहीं होता। चाहे वे जिन भी लोगों के बीच हों, जिन भी परिवेशों में हों या जिस भी पेशे में हों, उनका अंतिम लक्ष्य खुद को ढूँढ़ना और तृप्त करना होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसका उद्देश्य इसी के इर्द-गिर्द घूमता है और आत्म-तृप्ति उनके जीवन भर की इच्छा और उनके अनुसरण का लक्ष्य होती है।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5)

एक प्रकार के लोग परमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर हृदय से उत्साही होते हैं। उनके लिए कोई भी कर्तव्य ठीक होता है, और थोड़ी कठिनाई भी चलती है, लेकिन उनका स्वभाव अस्थिर होता है—वे भावुक और मनमौजी, असंगत होते हैं। वे केवल अपनी मनोदशा के अनुसार कार्य करते हैं। जब वे खुश होते हैं, तो उन्हें जो काम सौंपा जाता है उसे अच्छी तरह से करते हैं, और वे जिनके साथ साझेदारी करते हैं और जिनके साथ जुड़ते हैं, उनके साथ उनकी अच्छी पटती है। वे और भी अधिक कर्तव्य निभाने को तैयार होते हैं—वे जो भी कर्तव्य निभा रहे होते हैं, उसके प्रति उनमें जिम्मेदारी की भावना होती है। जब वे अच्छी स्थिति में होते हैं, तो वे इसी तरह व्यवहार करते हैं। कारण यह हो सकता है कि वे अच्छी स्थिति में हैं : हो सकता है कि अपने कर्तव्य को अच्छी तरह करने के कारण उनकी प्रशंसा की गई हो, और उन्हें समूह का सम्मान और अनुमोदन मिला हो। या हो सकता है कि बहुत-से लोग उनके किए गए काम की सराहना करते हों, इसलिए वे गुब्बारे की तरह फूल जाते हैं जो प्रशंसा की हर फूँक के साथ और भी फूलता जाता है। और इसलिए वे हर दिन एक ही कर्तव्य निभाते जाते हैं, फिर भी वे कभी भी परमेश्वर के इरादे नहीं समझते या सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते। वे सदैव अपने अनुभव के बल पर कार्य करते रहते हैं। क्या अनुभव सत्य होता है? क्या अनुभव के आधार पर कार्य करना विश्वसनीय है? क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? अनुभव के आधार पर कार्य करना सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होता; ऐसा समय अवश्य आएगा जब वह नाकाम हो जाएगा। तो एक दिन ऐसा आता है जब वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभाते। कई चीजें गलत हो जाती हैं, और उनकी काट-छाँट की जाती है। समूह उनसे असंतुष्ट हो जाता है। तब वे निराश हो जाते हैं : “मैं अब यह कर्तव्य नहीं निभाऊंगा। मैं इसे बुरी तरह से करता हूँ। तुम सभी लोग मुझसे बेहतर हो। मैं ही अच्छा नहीं कर पाता। जो कोई भी इसे करने को इच्छुक है, कर ले!” कोई उनके साथ सत्य के बारे में संगति करता है, परंतु वह उनके दिमाग में नहीं घुसती, और वे नहीं समझते, कहते हैं : “इसमें संगति करने की क्या बात है? मुझे इसकी परवाह नहीं है कि यह सत्य है या नहीं—मैं अपना कर्तव्य तब निभाऊँगा जब मैं खुश हूँ और जब मैं खुश नहीं होऊँगा तो नहीं निभाऊँगा। इसे इतना जटिल क्यों बनाते हो? मैं इसे अभी नहीं कर रहा हूँ; मैं उस दिन का इंतजार करूँगा जब मैं खुश होऊँगा।” वे लगातार ऐसे ही बने रहते हैं। चाहे अपना कर्तव्य निभा रहे हों; परमेश्वर के वचनों को पढ़ रहे हों, या धर्मोपदेश सुनते और सभाओं में भाग लेते हों; या दूसरों के साथ बातचीत कर रहे हों—हर उस चीज में जो उनके जीवन के किसी भी पहलू को प्रभावित करती है, वे जो कुछ भी प्रकट करते हैं वह पल में तोला और पल में माशा, एक पल में खुश तो अगले ही पल उदास, एक पल में ठंडे और अगले ही पल में गर्म, एक पल में नकारात्मक तो अगले पल में सकारात्मक हो जाते हैं। संक्षेप में, उनकी स्थिति अच्छी हो या बुरी, हमेशा साफ पता चलती है। तुम इसे एक नजर में देख सकते हो। वे जो कुछ भी करते हैं उसे सिलसिलेवार ढंग से नहीं करते, बस स्वयं को अपने मिजाज के अधीन कर देते हैं। जब वे खुश होते हैं, तो बेहतर काम करते हैं, और जब खुश नहीं होते हैं, तो घटिया काम करते हैं—वे काम करना बंद भी कर सकते हैं और उसे छोड़ भी सकते हैं। वे जो भी कर रहे हैं, उसे अपनी मनोदशा, वातावरण, और अपनी माँगों के अनुसार करेंगे। उनमें मुश्किलें सहने की बिल्कुल भी इच्छा नहीं होती; वे लाड़-प्यार वाले और बिगड़ैल होते हैं, उन्मादी होते हैं, उन पर तर्क का कोई असर नहीं होता, और वे इसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते। किसी को भी उन्हें नाराज करने की अनुमति नहीं होती; जो ऐसा करता है, वह उनके गुस्से का निशाना बनता है, जो तूफान की तरह आता है—और उसके गुजर जाने के तुरंत बाद वे निराश और भावनात्मक रूप से खिन्न हो जाते हैं। इसके अलावा वे हर काम अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर करते हैं। “अगर मुझे यह काम पसंद है, तो मैं इसे करूँगा; यदि मुझे पसंद नहीं, तो मैं नहीं करूँगा और कभी नहीं करूँगा। तुम लोगों में से जो इच्छुक हो वह कर सकता है। उसका मुझसे कुछ लेना-देना नहीं है।” यह कैसा व्यक्ति है? जब वे खुश होते हैं और उनकी स्थिति अच्छी होती है, तो वे दिल से भावुक हो जाते हैं और कहते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करना चाहते हैं। वे इतने उत्तेजित होते हैं कि वे रोने लगते हैं, उनके चेहरे पर गर्म आँसू बहने लगते हैं, वे जोर-जोर से सिसकते हैं। क्या उनका हृदय वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करता है? हृदय से परमेश्वर को प्रेम करने की स्थिति सामान्य होती है, लेकिन उनके स्वभाव, व्यवहार और जो वे प्रकट करते हैं, उसे देखकर तुम सोचने लगोगे कि वे लगभग दस साल के बच्चे हैं। उनका यह स्वभाव, उनका रहन-सहन, मनमौजीपन होता है। वे अपने किसी काम को सिलसिलेवार ढंग से नहीं करते, उसमें निष्ठाहीन, गैर-जिम्मेदार और लापरवाह होते हैं। वे कभी भी कठिनाई से नहीं गुजरते और जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होते। जब वे खुश होते हैं, तो उन्हें कुछ भी करने में कोई दिक्कत नहीं होती; थोड़ी कठिनाई भी चल जाती है, और यदि उनके हितों को चोट लगती है, तो वह भी चल जाती है। लेकिन अगर वे नाखुश हैं, तो वे कुछ नहीं करेंगे। वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं? क्या ऐसी स्थिति सामान्य है? (नहीं।) यह मुद्दा एक असामान्य स्थिति से भी आगे निकल जाता है—यह अत्यधिक मनमौजीपन, अत्यधिक मूर्खता और अज्ञानता, अत्यधिक बचकानेपन की अभिव्यक्ति होता है। मनमौजीपन से क्या समस्या है? कुछ लोग कहेंगे, “यह मिजाज का अस्थिर होना है। वे बहुत कम उम्र के हैं और उन्होंने बहुत कम कठिनाइयाँ झेली हैं, और उनका व्यक्तित्व अभी तक नहीं बना है, इसलिए उनके व्यवहार में अक्सर मनमौजीपन होता है।” सच तो यह है कि मनमौजीपन उम्र की परवाह नहीं करता : चालीस साल के लोग और सत्तर साल के लोग भी कभी-कभी मनमौजी होते हैं। इसे कैसे समझाया जाए? मनमौजीपन वास्तव में व्यक्ति के स्वभाव की समस्या है, और उस लिहाज से यह अत्यंत गंभीर समस्या है! यदि वे कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य निभा रहे हैं, तो इससे उस कर्तव्य और कार्य की प्रगति में देरी हो सकती है, जिससे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँच सकता है; और सामान्य कर्तव्यों के मामले में भी यह कभी-कभी उन कर्तव्यों को प्रभावित करता है, और चीजों में बाधा डालता है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं होता जिससे दूसरों को, स्वयं को या कलीसिया के काम को फायदा पहुँचता हो। वे जो छोटे-छोटे काम करते हैं और जो कीमत चुकाते हैं, उससे अंततः घाटा होता है। विशेष रूप से मनमौजी लोग परमेश्वर के घर में कर्तव्यों का पालन करने के लिए अयोग्य होते हैं, और ऐसे कई लोग हैं। मनमौजीपन भ्रष्ट स्वभावों में सबसे आम अभिव्यक्ति होती है। व्यावहारिक रूप से हर व्यक्ति का स्वभाव ऐसा ही होता है। और वह स्वभाव क्या होता है? स्वाभाविक रूप से प्रत्येक भ्रष्ट स्वभाव शैतान के स्वभावों की एक किस्म होती है, और मनमौजीपन एक भ्रष्ट स्वभाव है। सरल शब्दों में कहें तो यह सत्य से प्रेम करना या उसे स्वीकार करना नहीं है; गंभीर शब्दों में कहें तो यह सत्य से विमुख होना और उससे नफरत करना है। क्या मनमौजी लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं? हरगिज नहीं। जब वे खुश होते हैं और लाभ कमा रहे होते हैं, तो क्षणिक रूप से ऐसा कर सकते हैं, लेकिन जब वे दुखी होते हैं और लाभ नहीं कमा पाते, तो वे गुस्से में आकर परमेश्वर का विरोध करने और उसे धोखा देने का साहस करते हैं। वे खुद से कहेंगे, “मुझे इसकी परवाह नहीं कि यह सत्य है या नहीं—महत्वपूर्ण बात यह है कि मैं खुश हूँ, कि मैं संतुष्ट हूँ। अगर मैं नाखुश हूँ, तो किसी के कुछ भी कहने का कोई फायदा नहीं! सत्य का क्या महत्व है? परमेश्वर का क्या महत्व है? मैं मालिक हूँ!” यह किस प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव है? (सत्य से नफरत करने का।) यह एक ऐसा स्वभाव है जो सत्य से नफरत करता है, ऐसा स्वभाव है जो सत्य से विमुख है। क्या इसमें अहंकार और दंभ का कोई तत्व मौजूद है? हठधर्मिता का कोई तत्व है? (हाँ।) यहाँ एक और बेहद खराब स्थिति है। जब वे अच्छी मनोदशा में होते हैं, तो वे सभी के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं और अपना कर्तव्य निभाने में जिम्मेदार होते हैं; लोग सोचते हैं कि वे अच्छे, समर्पण करने वाले व्यक्ति हैं, जो कीमत चुकाने को तैयार हैं, जो वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं। लेकिन जैसे ही वे निराश होते हैं, वे पीछे हट जाते हैं, शिकायत करने लगते हैं और यहाँ तक कि तर्क का भी उन पर असर नहीं होता। यहाँ उनका बुरा पक्ष सामने आता है। किसी को भी उन्हें भला-बुरा कहने की अनुमति नहीं होती। वे यहाँ तक कहेंगे, “मैं सारे सत्य समझता हूँ, बस इसका अभ्यास नहीं करता। यह मेरे लिए बस इतना ही काफी है कि मैं स्वयं के साथ सहज रहूँ!” यह कौन-सा स्वभाव है? (क्रूरता।) ये बुरे लोग अपनी काट-छाँट करने वाले व्यक्ति से सिर्फ लड़ने के लिए ही तैयार नहीं होते, बल्कि वे दुष्ट राक्षस की तरह उन्हें चोट और नुकसान भी पहुँचा सकते हैं। कोई भी उनको परेशान करने की हिम्मत नहीं करेगा। क्या यह उनका अत्यधिक मनमौजी और क्रूर होना नहीं है? क्या यह युवावस्था से जुड़ी समस्या है? यदि वे अधिक उम्र के होते तो क्या वे मनमौजी नहीं होते? यदि वे अधिक उम्र के होते तो क्या वे अधिक विचारशील और विवेकपूर्ण होते? नहीं, यह उनके व्यक्तित्व या उनकी उम्र का मामला नहीं है। उनके भीतर भ्रष्ट स्वभाव गहरी जड़ें जमाए हुए छिपा है। भ्रष्ट स्वभाव उन्हें चलाता है, और भ्रष्ट स्वभाव से ही वे जीते हैं। क्या भ्रष्ट स्वभाव में रहने वाले किसी व्यक्ति में समर्पण होता है? क्या वे सत्य की तलाश कर सकते हैं? क्या उनमें से कोई ऐसा हिस्सा है जो सत्य से प्रेम करता है? (नहीं।) नहीं, इनमें से कुछ भी नहीं होता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं?

किसी मामले का सामना करते वक्त अगर लोग सत्य खोजे बिना ही बहुत मनमानी करें और अपने ही विचारों पर अड़े रहें तो यह बहुत खतरनाक है। परमेश्वर ऐसे लोगों से तिरस्कार कर उन्हें अलग कर देगा। इसका दुष्परिणाम क्या होगा? निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि उन पर निकाल देने का खतरा मंडरा रहा है। हालाँकि, जो लोग सत्य खोजते हैं, वे पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं और नतीजे में परमेश्वर की आशीष प्राप्त कर सकते हैं। सत्य को खोजने और नहीं खोजने के दो अलग-अलग रवैये तुम्हारे अंदर दो अलग-अलग दशाएँ और दो अलग-अलग नतीजे ला सकते हैं। तुम लोग कैसा नतीजा पसंद करोगे? (मैं परमेश्वर का प्रबोधन पाना पसंद करूँगा।) अगर लोग परमेश्वर द्वारा प्रबुद्ध और निर्देशित होना और उसके अनुग्रह प्राप्त करना चाहते हैं, तो उनका रवैया किस तरह का होना चाहिए? उनमें खोजने और परमेश्वर के प्रति समर्पण का रवैया होना चाहिए। चाहे तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, दूसरों के साथ बातचीत कर रहे हो या अपने सामने आई किसी विशेष समस्या से निपट रहे हो, तुममें खोज और समर्पण का रवैया होना चाहिए। इस तरह का रवैया होने पर यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है। सत्य खोजने और इसके प्रति समर्पण में सक्षम होना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है। अगर तुममें खोज और समर्पण का रवैया नहीं है, बल्कि तुम अड़ियल विरोधी बनकर अपनी बात से चिपके रहते हो, सत्य को स्वीकारने से मना करते हो और उससे विमुख हो चुके हो तो तुम स्वाभाविक रूप से बहुत अधिक बुराई करोगे। तुम खुद को ऐसा करने से रोक नहीं पाओगे! अगर लोग इस समस्या को हल करने के लिए कभी सत्य का अनुसरण नहीं करें, तो अंतिम परिणाम यह होगा कि चाहे वे कितना भी अनुभव कर लें, चाहे वे कितनी भी परिस्थितियों में खुद को पाएँ, चाहे परमेश्वर उनके लिए कितने ही सबक निर्धारित करे, वे फिर भी सत्य को नहीं समझेंगे, और अंततः सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने में असमर्थ रहेंगे। अगर लोगों में सत्य-वास्तविकता नहीं होगी, तो वे परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने में असमर्थ होंगे, और अगर वे कभी परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकेंगे, फिर वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने वाले लोग नहीं होंगे। लोग लगातार अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर का अनुसरण करने की इच्छा करते हैं। क्या चीजें इतनी सरल हैं? बिल्कुल नहीं। लोगों के जीवन में ये चीजें बेहद महत्वपूर्ण हैं! अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाकर परमेश्वर को संतुष्ट करना और उसका भय मानना, और बुराई से दूर रहना आसान नहीं है। लेकिन मैं तुम लोगों को अभ्यास का एक सिद्धांत बताऊँगा : अगर अपने साथ कुछ होने पर तुममें खोज और समर्पण का रवैया रहता है, तो यह तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम्हारे लिए अंतिम लक्ष्य तुम्हारी रक्षा किया जाना नहीं है। यह लक्ष्य है तुम्हें सत्य समझाना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बनाना; यही अंतिम लक्ष्य है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे सभी ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अपना उचित कार्य करते हैं, वे सभी अपने कर्तव्य निभाने के इच्छुक होते हैं, वे किसी कार्य का दायित्व लेकर उसे अपनी काबिलियत और परमेश्वर के घर के विनियमों के अनुसार अच्छी तरह से करने में सक्षम होते हैं। निस्संदेह शुरू में इस जीवन के साथ सामंजस्य बैठाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। तुम शारीरिक और मानसिक रूप से थका हुआ महसूस कर सकते हो। लेकिन अगर तुम में वास्तव में सहयोग करने का संकल्प है और एक सामान्य और अच्छा इंसान बनने और उद्धार प्राप्त करने की इच्छा है, तो तुम्हें थोड़ी कीमत चुकानी होगी और परमेश्वर को तुम्हें अनुशासित करने देना होगा। जब तुममें जिद्दी होने की तीव्र इच्छा हो, तो तुम्हें उसके खिलाफ विद्रोह कर उसे त्याग देना चाहिए, धीरे-धीरे अपना जिद्दीपन और स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ कम करनी चाहिए। तुम्हें निर्णायक मामलों में निर्णायक समय पर और निर्णायक कार्यों में परमेश्वर की मदद लेनी चाहिए। अगर तुम में संकल्प है, तो तुम्हें परमेश्वर से कहना चाहिए कि वह तुम्हें ताड़ना देकर अनुशासित करे, और तुम्हें प्रबुद्ध करे ताकि तुम सत्य समझ सको, इस तरह तुम्हें बेहतर परिणाम मिलेंगे। अगर तुम में वास्तव में दृढ़ संकल्प है और तुम परमेश्वर की उपस्थिति में उससे प्रार्थना कर विनती करते हो, तो परमेश्वर कार्य करेगा। वह तुम्हारी अवस्था और तुम्हारे विचार बदल देगा। अगर पवित्र आत्मा थोड़ा-सा कार्य करता है, तुम्हें थोड़ा प्रेरित और थोड़ा प्रबुद्ध करता है, तो तुम्हारा हृदय बदल जाएगा और तुम्हारी अवस्था रूपांतरित हो जाएगी। जब यह रूपांतरण होता है, तो तुम महसूस करोगे कि इस तरह से जीना दमनात्मक नहीं है। तुम्हारी दमित अवस्था और भावनाएँ रूपांतरित होकर हलकी हो जाएँगी, और वे पहले से अलग होंगी। तुम महसूस करोगे कि इस तरह जीना थका देने वाला नहीं है। तुम्हें परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने में आनंद मिलेगा। तुम महसूस करोगे कि इस तरह से जीना, आचरण करना और अपना कर्तव्य निभाना, कठिनाइयाँ सहना और कीमत चुकाना, नियमों का पालन करना और सिद्धांतों के आधार पर काम करना अच्छा है। तुम महसूस करोगे कि सामान्य लोगों को इसी तरह का जीवन जीना चाहिए। जब तुम सत्य के अनुसार जीते हो और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाते हो, तो तुम महसूस करोगे कि तुम्हारा दिल स्थिर और शांत है और तुम्हारा जीवन सार्थक है। तुम सोचोगे : “मुझे यह पहले क्यों नहीं पता चला? मैं इतना जिद्दी क्यों था? पहले मैं शैतान के फलसफों और स्वभाव के अनुसार जीता था, न तो इंसान की तरह जीता था न ही भूत की तरह, और जितना ज्यादा जीता था, उतना ही ज्यादा यह पीड़ादायक महसूस होता था। अब जब मैं सत्य समझता हूँ, तो मैं अपना भ्रष्ट स्वभाव थोड़ा छोड़ सकता हूँ और अपना कर्तव्य निभाने और सत्य का अभ्यास करने में बिताए गए जीवन की सच्ची शांति और खुशी महसूस कर सकता हूँ!” क्या तब तुम्हारी मनोदशा बदल नहीं गई होगी? (हाँ।) जब तुम जान जाते हो कि तुम्हारा जीवन पहले दमनात्मक और दुखद क्यों लगता था, जब तुम अपने कष्ट का मूल कारण ढूँढ़ लेते हो और समस्या हल कर लेते हो, तो तुम्हें बदलाव की उम्मीद होगी। ... सबसे पहले उन्हें अपना उचित कार्य करना सीखने की जरूरत है, एक वयस्क और सामान्य व्यक्ति की जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाना सीखने की जरूरत है, और फिर नियमों का पालन करना और परमेश्वर के घर का प्रबंधन, निरीक्षण, काट-छाँट और निपटान स्वीकारना और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना सीखने की जरूरत है। यही वह सही रवैया है, जिसे जमीर और विवेक वाले व्यक्ति को अपनाना चाहिए। दूसरे, उन्हें उन जिम्मेदारियों, दायित्वों, विचारों और दृष्टिकोणों की सही समझ और ज्ञान होना चाहिए, जिनमें सामान्य मानवता का जमीर और विवेक शामिल होता है। तुम्हें अपनी नकारात्मक भावनाओं और दमन से छुटकारा पाना चाहिए और अपने जीवन में आने वाली विभिन्न कठिनाइयों का सही ढंग से सामना करना चाहिए। तुम्हारे लिए ये अतिरिक्त चीजें या बोझ या बंधन नहीं हैं, बल्कि वे चीजें हैं जिन्हें एक सामान्य वयस्क के रूप में तुम्हें सहन करना चाहिए। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक वयस्क को, चाहे तुम्हारा लिंग कुछ भी हो, तुम्हारी काबिलियत कुछ भी हो, तुम कितने भी सक्षम हो या तुम में कितनी भी प्रतिभाएँ हों, वे सभी चीजें सहन करनी चाहिए जो वयस्कों को सहन करनी चाहिए, जिनमें शामिल हैं : जीवन-परिवेश जिनके साथ वयस्कों को सामंजस्य बैठाना चाहिए, जिम्मेदारियाँ, दायित्व और मिशन जो तुम्हें हाथ में लेने चाहिए, और वह काम जिसका तुम्हें दायित्व उठाना चाहिए। पहले, तुम्हें दूसरों से यह अपेक्षा करने के बजाय कि वे तुम्हें कपड़े देंगे और खाना खिलाएँगे, या गुजारे के लिए दूसरों के श्रम के फल पर निर्भर रहने के बजाय इन चीजों को सकारात्मक रूप से स्वीकारना चाहिए। इसके अलावा तुम्हें विभिन्न प्रकार के नियमों, विनियमों और प्रबंधन के साथ तालमेल बैठाकर उन्हें स्वीकारना सीखना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेश स्वीकारने चाहिए और अन्य लोगों के बीच अस्तित्व और जीवन के साथ सामंजस्य बैठाना सीखना चाहिए। तुम में सामान्य मानवता का जमीर और विवेक होना चाहिए, अपने आस-पास के लोगों, घटनाओं और चीजों को सही ढंग से लेना चाहिए और अपने सामने आने वाली विभिन्न समस्याओं को सही ढंग से सँभालना और हल करना चाहिए। ये सभी वे चीजें हैं जिनसे सामान्य मानवता वाले व्यक्ति को निपटना चाहिए, यह भी कहा जा सकता है कि यही वह जीवन और जीवन-परिवेश है जिसका किसी वयस्क को सामना करना चाहिए। उदाहरण के लिए, एक वयस्क के रूप में तुम्हें अपने परिवार के सहयोग और उसका भरण-पोषण करने के लिए अपनी क्षमताओं पर भरोसा करना चाहिए, चाहे तुम्हारा जीवन कितना भी कठिन क्यों न हो। यह कठिनाई तुम्हें सहनी चाहिए, यह जिम्मेदारी तुम्हें निभानी चाहिए और यह दायित्व तुम्हें पूरा करना चाहिए। तुम्हें वे जिम्मेदारियाँ उठानी चाहिए जो एक वयस्क को उठानी चाहिए। चाहे तुम कितना भी कष्ट सहो या कितनी भी बड़ी कीमत चुकाओ, चाहे तुम कितना भी दुखी महसूस करो, तुम्हें अपनी शिकायतें निगल लेनी चाहिए और कोई नकारात्मक भावना विकसित नहीं करनी चाहिए या किसी के बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यह वह चीज है जो वयस्कों को सहन करनी चाहिए। एक वयस्क के रूप में तुम्हें इन चीजों का दायित्व उठाना चाहिए—बिना शिकायत या प्रतिरोध किए, और खास तौर से उनसे बचे या उन्हें नकारे बिना। जीवन में भटकते रहना, निष्क्रिय रहना, जैसे चाहे वैसे काम करना, जिद्दी या मनमौजी होना, जो तुम करना चाहते हो वह करना और जो नहीं करना चाहते वह न करना—जीवन में किसी वयस्क का यह रवैया नहीं होना चाहिए। हर वयस्क को एक वयस्क की जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, चाहे उन्हें कितने भी दबाव का सामना करना पड़े, जैसे मुसीबतें, बीमारियाँ, यहाँ तक कि विभिन्न कठिनाइयाँ भी—ये वे चीजें हैं जो सभी को अनुभव करनी और सहनी चाहिए। ये एक सामान्य व्यक्ति के जीवन का हिस्सा होती हैं। अगर तुम दबाव नहीं झेल सकते या पीड़ा नहीं सह सकते, तो इसका मतलब है कि तुम बहुत नाजुक और बेकार हो। जो जीवित है, उसे यह कष्ट अवश्य सहना होगा, और कोई भी इसे टाल नहीं सकता। चाहे समाज में हो या परमेश्वर के घर में, यह सभी के लिए समान होती है। यही वह जिम्मेदारी है जिसे तुम्हें उठाना चाहिए, एक भारी बोझ जिसे एक वयस्क को उठाना चाहिए, वह चीज जो उसे उठानी चाहिए, और तुम्हें इससे बचना नहीं चाहिए। अगर तुम हमेशा इस सबसे बचने या इसे त्यागने का प्रयास करते हो, तो तुम्हारी दमनात्मक भावनाएँ बाहर निकल आएँगी, और तुम हमेशा उनमें उलझे रहोगे। हालाँकि अगर तुम यह सब ठीक से समझ और स्वीकार सको, और इसे अपने जीवन और अस्तित्व का एक आवश्यक हिस्सा मानो, तो ये मुद्दे तुम्हारे लिए नकारात्मक भावनाएँ विकसित करने का कारण नहीं होने चाहिए। एक लिहाज से तुम्हें वे जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाने सीखना चाहिए, जो वयस्कों को उठाने और निभाने चाहिए। दूसरे लिहाज से तुम्हें अपने रहने और काम करने के परिवेश में दूसरों के साथ सामान्य मानवता के साथ सामंजस्यपूर्वक रहना सीखना चाहिए। बस जैसा चाहे वैसा मत करो। सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व का क्या उद्देश्य होता है? यह काम बेहतर ढंग से पूरा करने और वे दायित्व और जिम्मेदारियाँ बेहतर ढंग से निभाने के लिए है, जिन्हें एक वयस्क के रूप में तुम्हें पूरा करना और निभाना चाहिए, ताकि तुम्हारे काम में आने वाली समस्याओं के कारण होने वाला नुकसान कम किया जा सके, और तुम्हारे कार्य के परिणाम और दक्षता बढ़ाई जा सके। यही वह चीज है जो तुम्हें हासिल करनी चाहिए। अगर तुम में सामान्य मानवता है, तो तुम्हें लोगों के बीच काम करते समय इसे हासिल करना चाहिए। जहाँ तक काम के दबाव की बात है, चाहे यह ऊपर वाले से आता हो या परमेश्वर के घर से, या अगर यह दबाव तुम्हारे भाई-बहनों द्वारा तुम पर डाला गया हो, यह ऐसी चीज है जिसे तुम्हें सहन करना चाहिए। तुम यह नहीं कह सकते, “यह बहुत ज्यादा दबाव है, इसलिए मैं इसे नहीं करूँगा। मैं बस अपना कर्तव्य करने और परमेश्वर के घर में काम करने में फुरसत, सहजता, खुशी और आराम तलाश रहा हूँ।” यह नहीं चलेगा; यह ऐसा विचार नहीं है जो किसी सामान्य वयस्क में होना चाहिए, और परमेश्वर का घर तुम्हारे आराम करने की जगह नहीं है। हर व्यक्ति अपने जीवन और कार्य में एक निश्चित मात्रा में दबाव और जोखिम उठाता है। किसी भी काम में, खास तौर से परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम्हें इष्टतम परिणामों के लिए प्रयास करना चाहिए। बड़े स्तर पर यह परमेश्वर की शिक्षा और माँग है। छोटे स्तर पर यह वह रवैया, दृष्टिकोण, मानक और सिद्धांत है, जो हर व्यक्ति को अपने आचरण और कार्यकलापों में अपनाना चाहिए। जब तुम परमेश्वर के घर में कोई कर्तव्य निभाते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के घर के विनियमों और प्रणालियों का पालन करना सीखना चाहिए, तुम्हें अनुपालन करना सीखना चाहिए, नियम सीखने चाहिए और शिष्ट तरीके से आचरण करना चाहिए। यह व्यक्ति के आचरण का एक अनिवार्य हिस्सा है। तुम्हें अपना सारा समय काम करने के बजाय किसी भी चीज पर गंभीरता से विचार न करते हुए और अपने दिन बेकार गँवाते हुए या गलत कार्यों में संलग्न रहते हुए और गैर-विश्वासियों की तरह जीने के अपने ही तरीके का अनुसरण करते हुए भोग-विलास करने में नहीं बिताना चाहिए। दूसरों से अपना तिरस्कार न करवाओ, उनकी आँख की किरकिरी या उनके पैर का काँटा न बनो, हर किसी को इस बात के लिए बाध्य न करो कि वे तुमसे दूर हो जाएँ या तुम्हें नकार दें, और किसी कार्य में अड़चन या बाधा न बनो। यह वह जमीर और विवेक है जो एक सामान्य वयस्क में होना चाहिए, और यह वह जिम्मेदारी भी है जो किसी भी सामान्य वयस्क को उठानी चाहिए।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5)

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