6. लोगों के साथ अपनी भावनाओं के अनुरूप व्यवहार करने की समस्या का समाधान कैसे करें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
सार में, अनुभूतियां क्या होती हैं? वे एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव हैं। अनुभूतियों की अभिव्यक्तियों को कई शब्दों का उपयोग करते हुए बताया जा सकता है : भेदभाव, सिद्धांतहीन तरीके से दूसरों की रक्षा करने की प्रवृत्ति, भौतिक संबंध बनाए रखना, और पक्षपात; ये ही अनुभूतियां हैं। लोगों में अनुभूतियां होने और उन्ही अनुभूतियों के अनुसार जीवन जीने के क्या संभावित परिणाम हो सकते हैं? परमेश्वर लोगों की अनुभूतियों से सर्वाधिक घृणा क्यों करता है? कुछ लोग हमेशा अपनी अनुभूतियों से विवश रहते हैं और सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, और यद्यपि वे परमेश्वर को समर्पण करना चाहते हैं किंतु ऐसा नहीं कर पाते, इसलिए वे अनुभूतिक स्तर पर पीड़ा का अनुभव करते हैं। ऐसे बहुत से लोग हैं जो सत्य को समझते हैं लेकिन उसे अभ्यास में नहीं ला सकते; ऐसा भी इसलिए है कि वे अनुभूतियों से विवश हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए घर छोड़ देते हैं, लेकिन वे दिन-रात, हर समय, अपने परिवार के बारे में सोचते रहते हैं और अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह से निर्वाह नहीं कर पाते। क्या यह कोई समस्या नहीं है? कुछ लोगों के गुप्त आकर्षण होते हैं, और उनके दिल में केवल उस प्रेमपात्र व्यक्ति के लिए जगह होती है, इससे उनका कर्तव्य निष्पादन प्रभावित होता है। क्या यह कोई समस्या नहीं है? कुछ लोग दूसरों की प्रशंसा करते हैं और उन्हें अपना आदर्श मानते हैं; वे उस व्यक्ति के अलावा किसी की भी बात इस हद तक नहीं सुनते कि वे परमेश्वर की कही बातें भी नहीं सुनते हैं। कोई उनके साथ सत्य पर सहभागिता करे, तो भी वे उसे स्वीकार नहीं करते; वे केवल उस व्यक्ति की बातें सुनते हैं जो उनका आदर्श होता है। कुछ लोगों के हृदय में एक आदर्श छवि होती है, और वे दूसरों को को अपने आदर्श के बारे में बोलने या उस तक पहुंचने की अनुमति नहीं देते। यदि कोई उनके आदर्श से जुड़ी समस्याओं के बारे में बात करता है, तो वे क्रोधित हो जाते हैं और अपने आदर्श का बचाव करते हुए उस व्यक्ति की बातों को उलटने लग जाते हैं। वे अपने आदर्श की सभी अन्यायों से सुरक्षा करते हैं और अपनी शक्ति भर अपने आदर्श की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए सब कुछ करते हैं; अपने शब्दों के माध्यम से वे अपने आदर्श की गलतियोँ को सही ठहराते हैं, और वे लोगों को अपने आदर्श के बारे में सच्ची बात बोलने नहीं देते, उन्हें उजागर नहीं करने देते। यह न्याय नहीं है; इन्हें अनुभूतियां कहा जाता है। क्या अनुभूतियां केवल किसी के परिवार की ओर ही निर्दिष्ट होती हैं? (नहीं।) अनुभूतियां काफी व्यापक होती हैं; वे एक प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव होती हैं, वे केवल परिवार के सदस्यों के बीच सांसारिक संबंधों से जुड़ी नहीं होतीं, वे उस दायरे तक ही सीमित नहीं होतीं। उनका संबंध तुम्हारे किसी वरिष्ठ या किसी ऐसे व्यक्ति से भी हो सकता है जिसने तुम्हारे हित में कुछ किया हो या तुम्हारी मदद की हो, या जिसका तुम्हारे साथ बहुत करीबी रिश्ता हो या जिसका तुम्हारे साथ मेलजोल हो, या कोई तुम्हारे ही शहर का रहने वाला या मित्र, यहां तक कि कोई ऐसा व्यक्ति भी हो सकता है जिसके तुम प्रशंसक होओ—यह कुछ निश्चित नहीं है। तो, क्या अनुभूतियों को त्याग देना अपने माता-पिता या परिवार के बारे में न सोचने जितना ही सरल है? (नहीं।) क्या अनुभूतियों को निकाल फेंकना इतना आसान है? ज्यादातर लोग जब 30 साल से आगे की उम्र में पहुंचते हैं और स्वतंत्र रूप से रहने लगते हैं, तो उन्हें घर की बहुत ज्यादा याद नहीं आती, और उम्र 40 की दहाई में पहुंचने तक यह पूरी तरह से सामान्य बात हो जाती है। जब लोग अवयस्क होते हैं, तो उन्हें घर की बहुत याद आती है और वे अपने माता-पिता को नहीं छोड़ पाते क्योंकि उनमें तब तक स्वतंत्र रूप से जीवन बिताने की क्षमता नहीं होती। अपने परिवार और माता-पिता की याद आना सामान्य बात है। यह अनुभूतियों का मामला नहीं है। अनुभूतियों से जुड़ा मामला तो यह तब बनता है जब किसी चीज को करने के बारे में तुम्हारे रवैये और नजरिये में अनुभूतियों का अपमिश्रण हो जाता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?
कौन से मसले भावनाओं से संबंधित हैं? पहला यह है कि तुम अपने परिवार के सदस्यों का मूल्यांकन कैसे करते हो और उनके कार्यकलापों को कैसे देखते हो। यहाँ “उनके कार्यकलापों” में कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा डालना, पीठ पीछे लोगों की आलोचना करना, छद्म-विश्वासियों जैसी कुछ कार्य-पद्यतियाँ अपनाना, इत्यादि स्वाभाविक रूप से शामिल हैं। क्या तुम इन चीजों को निष्पक्ष रूप से देख सकते हो? जब तुम्हारे लिए अपने परिवार के सदस्यों का मूल्यांकन लिखना आवश्यक हो तो क्या तुम अपनी भावनाओं को एक तरफ रखकर वस्तुपरक और निष्पक्ष रूप से ऐसा कर सकते हो? इसका संबंध इस बात से है कि तुम अपने परिवार के सदस्यों के प्रति कैसा रवैया रखते हो। इसके अलावा, क्या तुम उन लोगों के प्रति भावनाएँ रखते हो जिनके साथ तुम्हारी निभती है या जिन्होंने तुम्हारी पहले कभी मदद की है? क्या तुम उनके कार्यकलापों और व्यवहार को वस्तुनिष्ठ, निष्पक्ष और सटीक तरीके से देख पाते हो? अगर वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी पैदा करते हैं और बाधा डालते हैं तो क्या तुम इसके बारे में पता चलने के बाद तुरंत रिपोर्ट कर पाओगे या उन्हें उजागर कर सकोगे? यह भी कि क्या तुम उन लोगों के प्रति भावनाएँ रखते हो जो अपेक्षाकृत तुम्हारे करीब हैं या जिनकी रुचियाँ तुम्हारे ही जैसी हैं? क्या तुम्हारे पास उनके कार्यकलापों और व्यवहार का निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करने, इन्हें परिभाषित करने और इनसे निपटने का तरीका है? मान लो कि जिन लोगों के साथ तुम्हारा भावात्मक संबंध है उनसे कलीसिया सिद्धांतों के अनुसार निपटती है और इसके परिणाम तुम्हारी अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं होते हैं—तो तुम इसे कैसे देखोगे? क्या तुम आज्ञापालन कर पाओगे? क्या तुम उनसे गुपचुप जुड़े रहोगे, क्या तुम उनसे गुमराह होते जाओगे और यहाँ तक कि उनके लिए बहाने बनाने, उन्हें सही ठहराने और उनका बचाव करने के लिए उनके उकसावे में आते जाओगे? क्या तुम सत्य सिद्धांतों की अवहेलना और परमेश्वर के घर के हितों की अनदेखी करते हुए अपनी मदद करने वाले लोगों का सहयोग करोगे और उनके दोष अपने सिर पर लोगे? क्या ऐसे विभिन्न मुद्दे भावनाओं से संबंधित नहीं हैं? कुछ लोग कहते हैं, “क्या भावनाओं का संबंध केवल रिश्तेदारों और परिवार के सदस्यों से नहीं होता है? क्या भावनाओं का दायरा सिर्फ तुम्हारे माता-पिता, भाई-बहन और परिवार के दूसरे सदस्यों तक सीमित नहीं है?” नहीं, भावनाओं में लोगों का एक व्यापक दायरा शामिल होता है। अपने परिवार के सदस्यों का निष्पक्ष मूल्यांकन करने की बात तो भूल ही जाओ—कुछ लोग तो अपने अच्छे दोस्तों और साथियों का भी निष्पक्ष मूल्यांकन करने में सक्षम नहीं होते हैं और इन लोगों के बारे में बोलते हुए वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं। उदाहरण के लिए, अगर उनका दोस्त अपने कर्तव्य के दौरान उचित कार्य पर ध्यान न देकर हमेशा कुटिल और दुष्ट चलनों में लिप्त रहता है तो वे उसे काफी चंचल बताकर कहेंगे कि अभी उसकी मानवता अपरिपक्व और अस्थिर है। क्या इन शब्दों में भावनाएँ नहीं छिपी हैं? यह भावनाओं से भरे हुए शब्द बोलना है। अगर कोई ऐसा व्यक्ति जिसका उनसे कोई संबंध नहीं है, अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देता और कुटिल और दुष्ट चलनों में लिप्त रहता है, तो उसके बारे में कहने के लिए उनके पास और कठोर बातें होंगी और वे उनकी निंदा भी कर सकते हैं। क्या यह भावनाओं के आधार पर बोलने और कार्य करने की अभिव्यक्ति नहीं है? क्या अपनी भावनाओं के अनुसार जीने वाले लोग निष्पक्ष होते हैं? क्या वे ईमानदार होते हैं? (नहीं।) जो लोग अपनी भावनाओं के अनुसार बोलते हैं, उनमें क्या गड़बड़ है? वे दूसरों के साथ निष्पक्ष व्यवहार क्यों नहीं कर सकते? वे सत्य सिद्धांतों के आधार पर क्यों नहीं बोल सकते? दोगली बातें करने वाले और तथ्यों के आधार पर न बोलने वाले लोग दुष्ट होते हैं। बोलते समय निष्पक्ष न होना, हमेशा सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं बल्कि अपनी भावनाओं के अनुसार और अपने हित के लिए बोलना, परमेश्वर के घर के कार्य के बारे में न सोचना और केवल अपनी व्यक्तिगत भावनाओं, प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे की रक्षा करना—यही मसीह-विरोधियों का चरित्र है। मसीह-विरोधी इसी तरह बोलते हैं; वे जो कुछ भी कहते हैं वह दुष्टतापूर्ण, परेशान करने वाला और विघटनकारी होता है। जो लोग देह की प्राथमिकताओं और हितों के बीच जीते हैं, वे अपनी भावनाओं में जीते हैं। जो लोग अपनी भावनाओं के अनुसार जीते हैं, वे वही लोग हैं जो सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते या उसका अभ्यास नहीं करते हैं। जो लोग अपनी भावनाओं के आधार पर बोलते और कार्य करते हैं, उनमें जरा भी सत्य वास्तविकता नहीं होती। यदि ऐसे लोग अगुआ बन जाते हैं तो वे निस्संदेह नकली अगुआ या मसीह-विरोधी होंगे। न केवल वे वास्तविक कार्य करने में असमर्थ होते हैं, बल्कि वे विभिन्न कुकर्मों में भी संलिप्त हो सकते हैं। उन्हें निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा और दंडित किया जाएगा।
—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2)
अपनी भावनाओं के आधार पर कार्य करना कैसे प्रकट होता है? इसकी सबसे आम निशानी यह है जब लोग हमेशा किसी ऐसे व्यक्ति का बचाव और समर्थन करते हैं जो उनके प्रति दयालु रहा है या जो उनका करीबी है। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे दोस्त को कोई खराब कार्य करने के कारण उजागर किया गया है और तुम यह कहकर उसका बचाव करते हो : “वह ऐसा कुछ नहीं कर सकता, वह अच्छा व्यक्ति है! उसे फँसाया गया होगा।” क्या यह कथन उचित है? (नहीं।) यह अपनी भावनाओं के आधार पर बोलना और कार्य करना है। एक और उदाहरण ले लो, मान लो कि तुम्हारा किसी के साथ हल्का-फुलका झगड़ा हो जाता है और तुम उसे नापसंद करने लगते हो, और जब वह कुछ ऐसा कहता है जो सही है और सिद्धांतों के अनुरूप है तो तुम उसे सुनना नहीं चाहते—यह किस बात की अभिव्यक्ति है? (सत्य को स्वीकार न करना।) तुम सत्य को स्वीकार क्यों नहीं कर पाते? तुम अपने दिल में जानते हो कि उसने जो कुछ कहा वह उचित था, लेकिन क्योंकि तुम्हारे मन में उसके प्रति पूर्वाग्रह है, तुम सुनना ही नहीं चाहते, भले ही तुम जानते हो कि वह सही है। यह कौन-सी समस्या है? (अपनी भावनाओं के अधीन होना।) यह भावनाओं से भरी पड़ी है। कुछ लोग अपनी निजी प्राथमिकताओं और भावनाओं से आसानी से प्रभावित हो जाते हैं। अगर उनकी किसी के साथ बनती नहीं है तो वह व्यक्ति चाहे कितना भी अच्छा या सही बोले, वे सुनेंगे नहीं। और अगर उनकी किसी के साथ गाढ़ी छनती है तो वह जो कुछ भी कहना चाहे, वे उसे सुनने के लिए तैयार रहते हैं, भले ही वह सही हो या गलत, या वह सत्य के अनुरूप हो या न हो। क्या यह अपनी निजी प्राथमिकताओं और भावनाओं से आसानी से प्रभावित हो जाना नहीं है? क्या ऐसे स्वभाव के साथ कोई व्यक्ति तार्किक रूप से बोल और कार्य कर सकता है? क्या वह सत्य को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पित हो सकता है? (नहीं।) क्योंकि वह भावनाओं के सामने बेबस हो जाता है और आसानी से अपनी भावनाओं से प्रभावित हो जाता है, यह उसके कार्यकलापों में सत्य सिद्धांतों के पालन पर असर डालता है। यह सत्य को स्वीकारने और उसके प्रति समर्पण के मामले में भी उसे प्रभावित करता है। तो, सत्य का अभ्यास करने और उसके प्रति समर्पण करने की उनकी क्षमता को कौन-सी चीज प्रभावित कर रही है? वे किस चीज से बाधित होते हैं? उनकी भावनाएँ और आवेग। यही चीजें उन्हें बाधित करती और बाँधती हैं। अगर तुम सत्य के बजाय निजी संबंधों और स्वार्थ को सर्वोपरि रखते हो तो फिर भावनाएँ तुम्हें सत्य स्वीकारने से रोक रही हैं। इसीलिए तुम्हें भावनाओं के आधार पर कार्य करना या बोलना नहीं चाहिए। किसी के साथ तुम्हारा रिश्ता चाहे अच्छा हो या बुरा, या उसके बोल कोमल हों या कठोर, जब तक उसकी कही बातें सत्य से मेल खाती हैं, उसे सुनना और स्वीकार करना चाहिए। यही सत्य को स्वीकार करने का रवैया होता है। अगर तुम यह कहते हो कि “उसकी संगति सत्य के अनुरूप है और उसके पास अनुभव भी है, लेकिन वह बहुत ढीठ और अहंकारी है, और यह देखना अप्रिय और असहज है। इसलिए भले ही वह सही हो, मैं इसे स्वीकार नहीं करूँगा,” तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? विशेष रूप से कहें तो यह भावना है। जब तुम अपनी प्राथमिकताओं और आवेगों के आधार पर लोगों और चीजों से पेश आते हो तो यह भावना होती है, और यह सब भावनाओं की श्रेणी में आता है। भावनाओं से जुड़ी चीजें भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित होती हैं। सभी भ्रष्ट मनुष्यों में भावनाएँ होती हैं, और वे अलग-अलग हद तक अपनी भावनाओं से बाधित होते हैं। अगर कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता, तो उसके लिए भावनाओं की समस्या का समाधान करना कठिन होगा। कुछ लोग झूठे अगुआओं का कवच बनते हैं, मसीह-विरोधियों की रक्षा करते हैं और बुरे लोगों के पक्ष में बोलकर उनका बचाव करते हैं। इन सभी मामलों में भावनाएँ शामिल होती हैं। बेशक कुछ मामलों में, वे लोग अपनी दुष्ट प्रकृति के कारण ही ऐसा कर रहे हैं। इन समस्याओं पर स्पष्टता हासिल करने के लिए तुम्हें बार-बार संगति करने की आवश्यकता है। कुछ लोग कह सकते हैं, “मेरे मन में तो बस अपने परिवार और दोस्तों के लिए कुछ भावनाएँ हैं, लेकिन किसी और के लिए नहीं।” यह कथन सही नहीं है। अगर दूसरे लोग तुम पर थोड़ा-सा भी उपकार करते हैं तो तुममें उनके लिए भावनाएँ विकसित हो जाएँगी। इनमें निकटता और गहराई अलग-अलग हद तक हो सकती है लेकिन फिर भी वे हैं तो भावनाएँ ही। अगर लोग अपनी भावनाओं का समाधान नहीं करते तो उनके लिए सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण हासिल करना कठिन हो जाएगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्ट स्वभाव दूर करने का मार्ग
कुछ लोग बेहद भावुक होते हैं। रोजाना वे जो कुछ भी कहते हैं और जिस भी तरह से दूसरों के प्रति व्यवहार करते हैं, उसमें वे अपनी भावनाओं से जीते हैं। वे इस या उस व्यक्ति के प्रति स्नेह महसूस करते हैं और स्नेह की बारीकियों में संलग्न रहते हुए दिन बिताते हैं। अपने सामने आने वाली सभी चीजों में वे भावनाओं के दायरे में रहते हैं। जब ऐसे व्यक्ति का कोई अविश्वासी रिश्तेदार मरता है, तो वह तीन दिनों तक रोता है और शरीर को दफनाने नहीं देता। उसके मन में अभी भी मृतक के लिए भावनाएं होती हैं, और उसकी भावनाएं बहुत तीव्र होती हैं। तुम कह सकते हो कि भावनाएं इस व्यक्ति का घातक दोष है। वह सभी मामलों में अपनी भावनाओं से विवश होता है, वह सत्य का अभ्यास करने या सिद्धांत के अनुसार कार्य करने में अक्षम होता है, और उसमें अक्सर परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने की प्रवृत्ति होती है। भावनाएँ उसकी सबसे बड़ी कमजोरी, उसका घातक दोष होती हैं, और उसकी भावनाएँ उसे तबाहो-बरबाद करने में पूरी तरह से सक्षम होती हैं। जो लोग अत्यधिक भावुक होते हैं, वे सत्य को अभ्यास में लाने या परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में असमर्थ होते हैं। वे देह-सुख में लिप्त रहते हैं, और मूर्ख और भ्रमित होते हैं। इस तरह के व्यक्ति की प्रकृति अत्यधिक भावुक होने की होती है और वह भावनाओं से जीता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें
सामान्य पारस्परिक संबंध अपना हृदय परमेश्वर की ओर मोड़ने की नींव पर स्थापित होते हैं, इंसानी प्रयासों के जरिये नहीं। अगर व्यक्ति के हृदय से परमेश्वर अनुपस्थित है, तो अन्य लोगों के साथ उसके संबंध केवल दैहिक हैं। वे सामान्य नहीं हैं, वे कामुक आसक्तियाँ हैं, परमेश्वर उनसे घृणा करता है और उन्हें नापसंद करता है। अगर तुम कहते हो कि तुम्हारी आत्मा प्रेरित हुई है, लेकिन तुम केवल उन्हीं लोगों के साथ संगति करना चाहते हो जिन्हें तुम पसंद करते हो और जिनका सम्मान करते हो, और जिन्हें तुम पसंद नहीं करते, उनके प्रति पूर्वाग्रह रखते हो और जब वे तुमसे कुछ जानने के लिए आते हैं तो उनके साथ बोलने से इनकार कर देते हो, तो यह इस बात का और भी अधिक प्रमाण है कि तुम अपनी भावनाओं से नियंत्रित हो और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध बिलकुल भी सामान्य नहीं है। यह दर्शाता है कि तुम परमेश्वर को मूर्ख बनाने और अपनी कुरूपता छिपाने का प्रयास कर रहे हो। तुम अपना कुछ ज्ञान साझा करने में सक्षम हो सकते हो, लेकिन अगर तुम्हारे इरादे गलत हैं, तो जो कुछ भी तुम करते हो, वह केवल इंसानी मानकों से ही अच्छा है, और परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा नहीं करेगा। तुम्हारे कार्य तुम्हारी देह से संचालित होंगे, परमेश्वर के दायित्व से नहीं। तुम केवल तभी परमेश्वर के उपयोग के लिए उपयुक्त होते हो, जब तुम परमेश्वर के सामने अपने हृदय को शांत करने में सक्षम रहते हो और उन सभी के साथ सामान्य संबंध रखते हो जो उससे प्रेम करते हैं। अगर तुम ऐसा कर सकते हो, तो तुम चाहे दूसरों के साथ कैसे भी बातचीत करो, तुम किसी सांसारिक आचरण के फलसफे के अनुसार कार्य नहीं कर रहे होगे, तुम परमेश्वर के दायित्व का विचार कर रहे होगे और उसके सामने जी रहे होगे।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण है
अपने हर कार्य में तुम्हें यह जाँचना चाहिए कि क्या तुम्हारे इरादे सही हैं। यदि तुम परमेश्वर की माँगों के अनुसार कार्य कर सकते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है। यह न्यूनतम मापदंड है। अपने इरादों पर ग़ौर करो, और अगर तुम यह पाओ कि गलत इरादे पैदा हो गए हैं, तो उनके खिलाफ विद्रोह करो और परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करो; इस तरह तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो परमेश्वर के समक्ष सही है, जो बदले में दर्शाएगा कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है, और तुम जो कुछ करते हो वह परमेश्वर के लिए है, न कि तुम्हारे अपने लिए। तुम जो कुछ भी करते या कहते हो, उसमें अपने हृदय को सही बनाने और अपने कार्यों में न्यायपूर्ण होने में सक्षम बनो, और अपनी भावनाओं से संचालित मत होओ, न अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करो। ये वे सिद्धांत हैं, जिनके अनुसार परमेश्वर के विश्वासियों को आचरण करना चाहिए।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कैसा है?
परमेश्वर लोगों से दूसरों के साथ कैसा व्यवहार चाहता है? (वह हमें लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने को कहता है।) निष्पक्षता का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है लोगों के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना, न कि उनकी शक्ल-सूरत, पहचान, हैसियत, उनकी विद्वता या अपनी पसंद या उनके प्रति भावनाओं के आधार पर। तो लोगों के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना निष्पक्षता क्यों है? ऐसे बहुत से लोग हैं जो इस बात को नहीं समझते और इसे समझने के लिए उन्हें सत्य को समझने की जरूरत है। क्या गैर-विश्वासी जिसे निष्पक्षता समझते हैं, वह सच्चे तौर पर निष्पक्षता है? बिल्कुल नहीं। केवल परमेश्वर के साथ ही धार्मिकता और निष्पक्षता हो सकती है। केवल सृष्टिकर्ता की अपनी सृजित प्राणियों से की जाने वाली अपेक्षाओं में निष्पक्षता होती है जिससे परमेश्वर की धार्मिकता प्रकट हो सकती है। इसलिए निष्पक्षता केवल सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों के साथ व्यवहार करने से ही आ सकती है। तुम्हें कलीसिया में लोगों से कैसी अपेक्षा रखनी चाहिए और तुम्हें उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? वे जो कर्तव्य निभा सकते हैं, उनके लिए वैसी ही व्यवस्था की जानी चाहिए-और यदि वे कर्तव्य निभाने में असमर्थ हैं, और यहाँ तक कि बाधाएँ भी पैदा करते हैं, तो यदि वे हटाए जाने लायक हैं, तो उन्हें हटा दिया जाना चाहिए, भले ही उनका तुम्हारे साथ अच्छा संबंध हो। यही निष्पक्षता है, यही वह बात है जो दूसरों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने के सिद्धांतों में शामिल है। इसका संबंध आचरण के सिद्धांतों से है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल वे जो सत्य को समझते हैं, आध्यात्मिक बातों को समझते हैं
परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, यदि वे अच्छी तरह जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास सही मार्ग है और यह उनका उद्धार कर सकता है, फिर भी ग्रहणशील नहीं होते, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे सत्य से विमुख रहने वाले और नफरत करने वाले लोग हैं और वे परमेश्वर का विरोध और उससे नफरत करते हैं—और स्वाभाविक तौर पर परमेश्वर उनसे अत्यंत घृणा और नफरत करता है। क्या तुम ऐसे माता-पिता से अत्यंत घृणा कर सकते हो? वे परमेश्वर का विरोध और उसकी आलोचना करते हैं—ऐसे में वे निश्चित रूप से दानव और शैतान हैं। क्या तुम उनसे नफरत कर उन्हें धिक्कार सकते हो? ये सब वास्तविक प्रश्न हैं। यदि तुम्हारे माता-पिता तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से रोकें, तो तुम्हें उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? जैसा कि परमेश्वर चाहता है, परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो। अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा था : “कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई?” “क्योंकि जो भी मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा के अनुसार चलेगा, वही मेरा भाई, मेरी बहिन और मेरी माँ है।” ये वचन अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थे, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक स्पष्ट हैं : “परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो।” ये वचन बिल्कुल सीधे हैं, फिर भी लोग अक्सर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है
अय्यूब ने अपने बच्चों के साथ कैसा व्यवहार किया? एक पिता के नाते उसने अपना दायित्व पूरा किया, उनके साथ सुसमाचार साझा किया और सत्य पर संगति की। उन्होंने चाहे अय्यूब की बात सुनी या नहीं, उसकी आज्ञा मानी या नहीं, लेकिन उसने उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए कभी मजबूर नहीं किया—उसने उनके साथ कभी मारपीट, चीख-पुकार नहीं की या उनके जीवन में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। उनके विचार और राय अय्यूब के विचारों से भिन्न थे, तो वे जो कुछ भी करते उसमें उसने कभी हस्तक्षेप नहीं किया, वे किस मार्ग पर जा रहे हैं, इस मामले में उसने कभी हस्तक्षेप नहीं किया। क्या अय्यूब अपने बच्चों से परमेश्वर में विश्वास रखने को लेकर थोड़ी बात करता था? निश्चय ही, वह इस विषय में उनसे काफी बातें करता था, लेकिन वे उसकी बात न सुनते थे और न ही स्वीकारते थे। इस चीज के प्रति अय्यूब का क्या रवैया था? उसका कहना था, “मैंने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी; जहां तक बात है कि वे कौन-सा मार्ग अपनाते हैं, यह उन्हीं पर निर्भर करता है, यह परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं पर निर्भर करता है। यदि परमेश्वर उन पर कार्य नहीं करता है या उन्हें प्रेरित नहीं करता है, तो मैं उन्हें बाध्य करने का प्रयास नहीं करूँगा।” इसलिए अय्यूब ने परमेश्वर से उनके लिए प्रार्थना नहीं की, उनके लिए पीड़ा के आंसू नहीं बहाए, उनके लिए उपवास नहीं रखा या किसी भी तरह कष्ट नहीं उठाए। उसने ये सब नहीं किया। अय्यूब ने यह सब क्यों नहीं किया? क्योंकि इनमें से कुछ भी करना परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना नहीं था; वे सब बातें मानवीय विचारों से उपजी थीं, यह अपने तरीके को जबरदस्ती किसी पर थोपने के तरीके थे। जब अय्यूब के बच्चों ने उसका रास्ता नहीं अपनाया तो उसका यह रवैया था; तो जब उसके बच्चे मरे, तब उसका रवैया कैसा था? वह रोया या नहीं? क्या उसने अपनी भावनाओं को व्यक्त किया? क्या उसे दुख महसूस हुआ? बाइबल में इस बारे में कोई उल्लेख नहीं है। जब अय्यूब ने अपने बच्चों को मरते देखा, तो क्या उसका दिल टूटा या उसे दुख हुआ? (हाँ, हुआ था।) अगर हम बच्चों के प्रति उसके प्रेम के बारे में बात करें, तो निश्चित रूप से उसे थोड़ा दुख महसूस जरूर हुआ था, लेकिन फिर भी उसने परमेश्वर के प्रति समर्पण किया। उसने अपना समर्पण कैसे व्यक्त किया? उसने कहा : “ये बच्चे मुझे परमेश्वर ने दिए थे। चाहे वे परमेश्वर में विश्वास करें या न करें, उनका जीवन परमेश्वर के हाथ में है। यदि उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास किया होता, और परमेश्वर उन्हें ले लेना चाहता, तब भी वह उन्हें ले ही लेता; यदि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तब भी यदि परमेश्वर ने कहा होता कि उन्हें ले लिया जाएगा तो उन्हें ले लिया गया होता। यह सब परमेश्वर के हाथ में है; नहीं तो लोगों की जान कौन ले सकता है?” संक्षेप में, इस ले लिए जाने का क्या मतलब है? “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। उसने अपने बच्चों के मामले में भी यही रवैया अपनाए रखा। चाहे वे जिंदा हों या मृत, उसने यही रवैया अपनाए रखा। उसका अभ्यास का तरीका सही था; अपने अभ्यास के हर तरीके में, और जिस दृष्टिकोण, रवैये और दशा से उसने भी चीजों को संभाला उसमें वह हमेशा समर्पण, प्रतीक्षा, खोज और फिर ज्ञान प्राप्त करने की स्थिति में था। यह रवैया बहुत महत्वपूर्ण है। यदि लोग अपने किसी भी काम में इस तरह का रवैया न अपनाएँ और उनके व्यक्तिगत विचार विशेष रूप से प्रबल हों और व्यक्तिगत इरादों और लाभ को बाकी हर चीज से पहले रखें, तो क्या वे वास्तव में समर्पण कर रहे हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों में वास्तविक समर्पण नहीं देखा जा सकता; वे वास्तविक समर्पण प्राप्त करने में असमर्थ हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के अभ्यास के सिद्धांत
मेरे लिए अपनी गवाही में तुम्हें ताक़त और रीढ़ दिखानी चाहिए और अडिग रहना चाहिए; उठ और मेरी तरफ़ से बोल और डर मत कि दूसरे लोग क्या कहते हैं। बस मेरे इरादों को संतुष्ट कर और दूसरों के हाथों खुद को बेबस मत होने दे। मैं तेरे समक्ष जो प्रकट करता हूँ, उसका पालन मेरे इरादों के अनुसार किया जाना चाहिए और इसमें विलंब नहीं किया जा सकता है। तू अंतर्मन की गहराई में कैसा महसूस करता है? तू असहज है, नहीं है क्या? तू समझ जाएगा। ऐसा क्यों है कि मेरे दायित्व पर विचार करते समय तू न तो मेरी तरफ़ से खड़ा हो पाता है और न बोल पाता है? तू छोटे-छोटे कुचक्र रचने पर अड़ा है, लेकिन मैं सब कुछ बिल्कुल साफ़-साफ़ देखता हूँ। मैं तेरा सहारा और तेरी ढाल हूँ, और सब कुछ मेरे हाथों में है। तो फिर तुझे किस बात का डर है? क्या तू बहुत ज़्यादा भावुक नहीं हो रहा है? तुझे शीघ्रातिशीघ्र अपनी भावनाओं को निकाल फेंकना चाहिए; मैं भावनाओं के वशीभूत कार्य नहीं करता हूँ, बल्कि धार्मिकता का प्रयोग करता हूँ। यदि तेरे माता-पिता कुछ भी ऐसा करते हैं जिससे कलीसिया को कोई लाभ नहीं होता, तो वे बच नहीं सकते हैं! मेरे इरादे तेरे समक्ष प्रकट कर दिए गए हैं और तू उनकी उपेक्षा नहीं कर सकता है। बल्कि, तुझे अपना पूरा ध्यान उन पर लगाना चाहिए और पूरे मनोयोग से उनका पालन करने के लिए शेष सब कुछ छोड़ देना चाहिए। मैं सदैव तुझे अपने हाथों में रखूँगा। सदैव डरपोक मत बन और अपने पति या पत्नी के आगे बेबस मत हो; तुझे मेरी इच्छा अवश्य पूरी होने देना चाहिए।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 9
देशों में बड़ी अराजकता है, क्योंकि परमेश्वर की छड़ी ने पृथ्वी पर अपनी भूमिका निभानी शुरू कर दी है। परमेश्वर का कार्य पृथ्वी की स्थिति में देखा जा सकता है। जब परमेश्वर कहता है, “समुद्र गरजेंगे, पहाड़ गिर जाएँगे, बड़ी-बड़ी नदियाँ विघटित हो जाएँगी,” तो यह पृथ्वी पर छड़ी का आरंभिक कार्य है, जिसके परिणामस्वरूप “पृथ्वी पर सारे परिवार छिन्न-भिन्न कर दिए जाएँगे, और पृथ्वी पर सारे राष्ट्र अलग-थलग कर दिए जाएँगे; पति-पत्नी के बीच पुनर्मिलन के दिन चले जाएँगे, माँ-बेटा दोबारा आपस में नहीं मिलेंगे, न बाप-बेटी ही फिर कभी आपस में मिल पाएँगे। पृथ्वी पर जो कुछ भी हुआ करता था, वह सब मेरे द्वारा नष्ट कर दिया जाएगा।” पृथ्वी पर परिवारों की सामान्य स्थिति ऐसी होगी। स्वाभाविक रूप से, संभवतः सभी लोगों की स्थिति ऐसी नहीं हो सकती है, किन्तु उनमें से अधिकांश की स्थिति ऐसी ही है। दूसरी ओर, यह भविष्य में इस वर्ग के लोगों द्वारा अनुभव की जाने वाली परिस्थितियों का उल्लेख करता है। यह भविष्यवाणी करता है कि, एक बार जब वे वचनों की ताड़ना से गुज़र चुके होंगे और गैर-विश्वासियों पर तबाही बरपाई जा चुकी होगी, तो पृथ्वी पर लोगों के बीच पारिवारिक संबंध का अस्तित्व नहीं रह जाएगा; वे सब सिनिम के लोग होंगे, और परमेश्वर के राज्य में सभी वफादार होंगे। इस प्रकार, पति-पत्नी के बीच पुनर्मिलन के दिन चले जाएँगे, माँ-बेटा दोबारा आपस में नहीं मिलेंगे, न बाप-बेटी ही फिर कभी आपस में मिल पाएँगे। और इसलिए, धरती के लोगों के परिवारों को अलग-थलग कर दिया जाएगा, टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाएगा, और यह परमेश्वर द्वारा मनुष्य में किया जाने वाला अंतिम कार्य होगा। और क्योंकि परमेश्वर इस कार्य को पूरे विश्व में फैलाएगा, इसलिए वह लोगों के लिए “भावना” शब्द को स्पष्ट करने के लिए इस अवसर का उपयोग करता है, इस प्रकार उन्हें यह देखने देता है कि परमेश्वर का इरादा सभी लोगों के परिवारों को अलग-थलग करना है, और यह दिखाना है कि परमेश्वर मानवजाति के बीच सभी “पारिवारिक विवादों” को हल करने के लिए ताड़ना का उपयोग करता है। यदि ऐसा न हो, तो पृथ्वी पर परमेश्वर के कार्य के अंतिम हिस्से को पूरा करने का कोई मार्ग नहीं होगा। परमेश्वर के वचनों का अंतिम भाग मानवजाति की सबसे बड़ी कमजोरी को प्रकट करता है—वे सभी भावनाओं की एक दशा में जीते हैं—और इसलिए परमेश्वर उनमें से किसी एक को भी बख़्शता नहीं है, और संपूर्ण मानवजाति के हृदयों में छिपे रहस्यों को उजागर करता है। लोगों के लिए स्वयं को अपनी भावनाओं से पृथक करना इतना कठिन क्यों है? क्या ऐसा करना अंतरात्मा के मानकों के परे जाना है? क्या अंतरात्मा परमेश्वर की इच्छा पूरी कर सकती है? क्या भावनाएँ विपत्ति में लोगों की सहायता कर सकती हैं? परमेश्वर की नज़रों में, भावनाएँ उसकी दुश्मन हैं—क्या यह परमेश्वर के वचनों में स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया है?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 28
आजकल, वे जो खोज करते हैं और वे जो नहीं करते, दो पूरी तरह भिन्न प्रकार के लोग हैं, जिनके गंतव्य भी काफ़ी अलग हैं। वे जो सत्य के ज्ञान का अनुसरण करते हैं और सत्य का अभ्यास करते हैं, वे लोग हैं जिनका परमेश्वर उद्धार करेगा। वे जो सच्चे मार्ग को नहीं जानते, वे दुष्टात्माओं और शत्रुओं के समान हैं। वे प्रधान स्वर्गदूत के वंशज हैं और विनाश की वस्तु होंगे। यहाँ तक कि एक अज्ञात परमेश्वर के धर्मपरायण विश्वासीजन—क्या वे भी दुष्टात्मा नहीं हैं? जिन लोगों का अंतःकरण साफ़ है, परंतु सच्चे मार्ग को स्वीकार नहीं करते, वे भी दुष्टात्मा हैं; उनका सार भी परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाला है। वे जो सत्य के मार्ग को स्वीकार नहीं करते, वे हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं और भले ही ऐसे लोग बहुत-सी कठिनाइयाँ सहते हैं, तब भी वे नष्ट किए जाएँगे। वे सभी जो संसार को छोड़ना नहीं चाहते, जो अपने माता-पिता से अलग होना नहीं सह सकते और जो स्वयं को देह के सुख से दूर रखना सहन नहीं कर सकते, परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं और वे सब विनाश की वस्तुएँ बनेंगे। जो भी देहधारी परमेश्वर को नहीं मानता, दुष्ट है, यही नहीं, वह नष्ट किया जाएगा। वे सब जो विश्वास करते हैं, पर सत्य का अभ्यास नहीं करते, वे जो देहधारी परमेश्वर में विश्वास नहीं करते और वे जो परमेश्वर के अस्तित्व पर लेशमात्र भी विश्वास नहीं रखते, वे सब नष्ट होंगे। वे सभी जिन्हें रहने दिया जाएगा, वे लोग हैं, जो शोधन के दुख से गुज़रे हैं और डटे रहे हैं; ये वे लोग हैं, जो वास्तव में परीक्षणों से गुज़रे हैं। जो कोई परमेश्वर को नहीं पहचानता, शत्रु है; यानी कोई भी जो देहधारी परमेश्वर को नहीं पहचानता—चाहे वह इस धारा के भीतर है या बाहर—एक मसीह-विरोधी है! परमेश्वर पर विश्वास न रखने वाले प्रतिरोधियों के सिवाय भला शैतान कौन है, दुष्टात्माएँ कौन हैं और परमेश्वर के शत्रु कौन हैं? क्या ये वे लोग नहीं, जो परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं? क्या ये वे नहीं, जो विश्वास करने का दावा तो करते हैं, परंतु उनमें सत्य नहीं है? क्या ये वे लोग नहीं, जो सिर्फ़ आशीष पाने की फ़िराक में रहते हैं जबकि परमेश्वर के लिए गवाही देने में असमर्थ हैं? तुम अभी भी इन दुष्टात्माओं के साथ घुलते-मिलते हो और उनसे अंतःकरण और प्रेम से पेश आते हो, लेकिन क्या इस मामले में तुम शैतान के प्रति सदिच्छाओं को प्रकट नहीं कर रहे? क्या तुम दानवों के साथ मिलकर षड्यंत्र नहीं कर रहे? यदि लोग इस बिंदु तक आ गए हैं और अच्छाई-बुराई में भेद नहीं कर पाते और परमेश्वर के इरादों को खोजने की कोई इच्छा किए बिना या परमेश्वर के इरादों को अपने इरादे मानने में असमर्थ रहते हुए आँख मूँदकर प्रेम और दया दर्शाते रहते हैं तो उनका अंत और भी अधिक खराब होगा। जो भी व्यक्ति देहधारी परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, वह परमेश्वर का शत्रु है। यदि तुम शत्रु के प्रति साफ़ अंतःकरण और प्रेम रख सकते हो, तो क्या तुममें न्यायबोध की कमी नहीं है? यदि तुम उनके साथ सहज हो, जिनसे मैं घृणा करता हूँ, और जिनसे मैं असहमत हूँ और तुम तब भी उनके प्रति प्रेम और निजी भावनाएँ रखते हो, तब क्या तुम विद्रोही नहीं हो? क्या तुम जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो? क्या ऐसे व्यक्ति में सत्य होता है? यदि लोग शत्रुओं के प्रति साफ़ अंतःकरण रखते हैं, दुष्टात्माओं से प्रेम करते हैं और शैतान पर दया दिखाते हैं, तो क्या वे जानबूझकर परमेश्वर के कार्य में रुकावट नहीं डाल रहे हैं? वे लोग जो केवल यीशु पर विश्वास करते हैं और अंत के दिनों के देहधारी परमेश्वर को नहीं मानते, और जो ज़बानी तौर पर देहधारी परमेश्वर में विश्वास करने का दावा करते हैं, परंतु बुरे कार्य करते हैं, वे सब मसीह-विरोधी हैं, उनकी तो बात ही क्या जो परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते। ये सभी लोग विनाश की वस्तु बनेंगे।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे
अतीत में बोले गए ये वचन, “जब कोई प्रभु पर विश्वास करता है, तो सौभाग्य उसके पूरे परिवार पर मुस्कराता है” अनुग्रह के युग के लिए उपयुक्त हैं, परंतु मानवता के गंतव्य से संबंधित नहीं हैं। ये केवल अनुग्रह के युग के दौरान एक चरण के लिए ही उपयुक्त थे। उन वचनों का अर्थ शांति और भौतिक आशीष पर आधारित था, जिनका लोगों ने आनंद लिया; उनका मतलब यह नहीं था कि प्रभु को मानने वाले का पूरा परिवार बच जाएगा, न ही उनका मतलब यह था कि जब कोई आशीष पाता है, तो पूरे परिवार को भी विश्राम में लाया जा सकता है। किसी को आशीष मिलेगा या दुर्भाग्य सहना पड़ेगा, इसका निर्धारण व्यक्ति के सार के अनुसार होता है, न कि सामान्य सार के अनुसार, जो वह दूसरों के साथ साझा करता है। इस प्रकार की लोकोक्ति या नियम का राज्य में कोई स्थान है ही नहीं। यदि कोई अंत में बच पाता है, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि उसने परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा किया है और यदि कोई विश्राम के दिनों तक बचने में सक्षम नहीं हो पाता, तो इसलिए क्योंकि वे परमेश्वर के प्रति विद्रोही रहे हैं और उन्होंने परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं किया है। प्रत्येक के पास एक उचित गंतव्य है। ये गंतव्य प्रत्येक व्यक्ति के सार के अनुसार निर्धारित किए जाते हैं और दूसरे लोगों से इनका कोई संबंध नहीं होता। किसी बच्चे का दुष्ट व्यवहार उसके माता-पिता को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता और न ही किसी बच्चे की धार्मिकता उसके माता-पिता के साथ बाँटी जा सकती है। माता-पिता का दुष्ट आचरण उनकी संतानों को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता, न ही माता-पिता की धार्मिकता उनके बच्चों के साथ साझा की जा सकती है। हर कोई अपने-अपने पाप ढोता है और हर कोई अपने-अपने आशीषों का आनंद लेता है। कोई भी दूसरे का स्थान नहीं ले सकता; यही धार्मिकता है। मनुष्य के नज़रिए से, यदि माता-पिता आशीष पाते हैं, तो उनके बच्चों को भी मिलना चाहिए, यदि बच्चे बुरा करते हैं, तो उनके पापों के लिए माता-पिता को प्रायश्चित करना चाहिए। यह मनुष्य का दृष्टिकोण है और कार्य करने का मनुष्य का तरीक़ा है; यह परमेश्वर का दृष्टिकोण नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के परिणाम का निर्धारण उसके आचरण से पैदा होने वाले सार के अनुसार होता है और इसका निर्धारण सदैव उचित तरीक़े से होता है। कोई भी दूसरे के पापों को नहीं ढो सकता; यहाँ तक कि कोई भी दूसरे के बदले दंड नहीं पा सकता। यह सुनिश्चित है। माता-पिता द्वारा अपनी संतान की बहुत ज़्यादा देखभाल का अर्थ यह नहीं कि वे अपनी संतान के बदले धार्मिकता के कर्म कर सकते हैं, न ही किसी बच्चे के माता-पिता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ स्नेह का यह अर्थ है कि वे अपने माता-पिता के लिए धार्मिकता के कर्म कर सकते हैं। यही इन वचनों का वास्तविक अर्थ है, “उस समय दो जन खेत में होंगे, एक ले लिया जाएगा और दूसरा छोड़ दिया जाएगा। दो स्त्रियाँ चक्की पीसती रहेंगी, एक ले ली जाएगी और दूसरी छोड़ दी जाएगी।” लोग बुरा करने वाले बच्चों के प्रति गहरे प्रेम के आधार पर उन्हें विश्राम में नहीं ले जा सकते, न ही कोई अपनी पत्नी (या पति) को अपने धार्मिक आचरण के आधार पर विश्राम में ले जा सकता है। यह एक प्रशासनिक नियम है; किसी के लिए कोई अपवाद नहीं हो सकता। अंत में, धार्मिकता करने वाले धार्मिकता ही करते हैं और बुरा करने वाले, बुरा ही करते हैं। अंततः धार्मिकों को बचने की अनुमति मिलेगी, जबकि बुरा करने वाले नष्ट हो जाएंगे। पवित्र, पवित्र हैं; वे गंदे नहीं हैं। गंदे, गंदे हैं और उनमें पवित्रता का एक भी अंश नहीं है। जो लोग नष्ट किए जाएँगे, वे सभी दुष्ट हैं और जो बचेंगे वे सभी धार्मिक हैं—भले ही बुरा कार्य करने वालों की संतानें धार्मिक कर्म करें और भले ही किसी धार्मिक व्यक्ति के माता-पिता दुष्टता के कर्म करें। एक विश्वासी पति और अविश्वासी पत्नी के बीच कोई संबंध नहीं होता और विश्वासी बच्चों और अविश्वासी माता-पिता के बीच कोई संबंध नहीं होता; ये दोनों तरह के लोग पूरी तरह असंगत हैं। विश्राम में प्रवेश से पहले एक व्यक्ति के रक्त-संबंधी होते हैं, किंतु एक बार जब उसने विश्राम में प्रवेश कर लिया, तो उसके कोई रक्त-संबंधी नहीं होंगे। जो अपना कर्तव्य निभाते हैं वे उनके शत्रु हैं जो अपने कर्तव्य नहीं निभाते हैं; जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं और जो उससे घृणा करते हैं, वे एक दूसरे के उलट हैं। जो विश्राम में प्रवेश करेंगे और जो नष्ट किए जा चुके होंगे, वे बेमेल किस्म के अलग-अलग सृजित प्राणी हैं। जो सृजित प्राणी अपने कर्तव्य अच्छे से निभाते हैं, बचने में समर्थ होंगे, जबकि वे जो अपने कर्तव्य नहीं निभाते, विनाश की वस्तुएँ बनेंगे; यही नहीं, यह सब अनंत काल तक चलेगा। क्या तुम एक सृजित प्राणी के तौर पर अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए अपने पति से प्रेम करती हो? क्या तुम एक सृजित प्राणी के तौर पर अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपनी पत्नी से प्रेम करते हो? क्या तुम एक सृजित प्राणी के तौर पर अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपने अविश्वासी माता-पिता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ हो? परमेश्वर पर विश्वास करने के मामले में मनुष्य का दृष्टिकोण सही या ग़लत है? तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो? तुम क्या पाना चाहते हो? तुम परमेश्वर से कैसे प्रेम करते हो? जो लोग सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा सकते और जो भरपूर प्रयास नहीं कर सकते, वे विनाश की वस्तु बनेंगे। आज लोगों में एक दूसरे के बीच भौतिक संबंध होते हैं, उनके बीच खून के रिश्ते होते हैं, किंतु भविष्य में, यह सब ध्वस्त हो जाएगा। विश्वासी और अविश्वासी आपस में मेल नहीं खाते हैं, बल्कि वे एक दूसरे के विरोधी हैं। वे जो विश्राम में हैं, विश्वास करेंगे कि कोई परमेश्वर है और उसके प्रति समर्पित होंगे, जबकि वे जो परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं, वे सब नष्ट कर दिए गए होंगे। पृथ्वी पर परिवारों का अब और अस्तित्व नहीं होगा; तो माता-पिता या संतानों या पति-पत्नियों के बीच के रिश्ते कैसे हो सकते हैं? विश्वास और अविश्वास की अत्यंत असंगतता से ये संबंध पूरी तरह टूट चुके होंगे!
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे
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