30. परमेश्वर की अवज्ञा करने और उसका विरोध करने की समस्या का समाधान कैसे करें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

कई हजार सालों की भ्रष्टता के बाद, मनुष्य संवेदनहीन और मंदबुद्धि हो गया है; वह एक दानव बन गया है जो परमेश्वर का इस हद तक विरोध करता है कि परमेश्वर के प्रति मनुष्य की विद्रोहशीलता इतिहास की पुस्तकों में दर्ज की गई है, यहाँ तक कि मनुष्य खुद भी अपने विद्रोही आचरण का पूरा लेखा-जोखा देने में असमर्थ है—क्योंकि मनुष्य शैतान द्वारा पूरी तरह से भ्रष्ट किया जा चुका है, और उसके द्वारा रास्ते से इतना भटका दिया गया है कि वह नहीं जानता कि कहाँ जाना है। आज भी मनुष्य परमेश्वर को धोखा देता है : मनुष्य जब परमेश्वर को देखता है तब उसे धोखा देता है, और जब वह परमेश्वर को नहीं देख पाता, तब भी उसे धोखा देता है। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो परमेश्वर के शापों और कोप का अनुभव करने के बाद भी उसे धोखा देते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य की समझ ने अपना मूल कार्य खो दिया है, और मनुष्य की अंतरात्मा ने भी अपना मूल कार्य खो दिया है। जिस मनुष्य को मैं देखता हूँ, वह मनुष्य के भेस में एक जानवर है, वह एक जहरीला साँप है, मेरी आँखों के सामने वह कितना भी दयनीय बनने की कोशिश करे, मैं उसके प्रति कभी दयावान नहीं बनूँगा, क्योंकि मनुष्य को काले और सफेद के बीच, सत्य और असत्य के बीच अंतर की समझ नहीं है। मनुष्य की समझ बहुत ही सुन्न हो गई है, फिर भी वह आशीष पाना चाहता है; उसकी मानवता बहुत नीच है, फिर भी वह एक राजा का प्रभुत्व पाने की कामना करता है। ऐसी समझ के साथ वह किसका राजा बन सकता है? ऐसी मानवता के साथ वह सिंहासन पर कैसे बैठ सकता है? सच में मनुष्य को कोई शर्म नहीं है! वह दंभी अभागा है! तुम लोगों में से जो आशीष पाने की कामना करते हैं, उनके लिए मेरा सुझाव है कि पहले शीशे में अपना बदसूरत प्रतिबिंब देखो—क्या तुम एक राजा बनने लायक हो? क्या तुम्हारे पास आशीष पा सकने लायक मुँह है? तुम्हारे स्वभाव में जरा-सा भी बदलाव नहीं आया है और तुमने किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं किया है, फिर भी तुम एक बेहतरीन कल की कामना करते हो। तुम अपने आप को धोखा दे रहे हो! ऐसी गंदी जगह में जन्म लेकर मनुष्य समाज द्वारा बुरी तरह संक्रमित कर दिया गया है, वह सामंती नैतिकता से प्रभावित हो गया है, और उसे “उच्चतर शिक्षा संस्थानों” में पढ़ाया गया है। पिछड़ी सोच, भ्रष्ट नैतिकता, जीवन के बारे में क्षुद्र दृष्टिकोण, सांसारिक आचरण के घृणित फलसफे, बिल्कुल बेकार अस्तित्व, भ्रष्ट जीवन-शैली और रिवाज—इन सभी चीजों ने मनुष्य के हृदय में गंभीर घुसपैठ कर ली है, उसकी अंतरात्मा को बुरी तरह खोखला कर दिया है और उस पर गंभीर प्रहार किया है। फलस्वरूप, मनुष्य परमेश्वर से और अधिक दूर हो गया है, और परमेश्वर का और अधिक विरोधी हो गया है। दिन-प्रतिदिन मनुष्य का स्वभाव और अधिक शातिर बन रहा है, और एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर के लिए कुछ भी त्याग करे, एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रति समर्पण करे, इसके अलावा, न ही एक भी व्यक्ति ऐसा है जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रकटन की खोज करे। इसके बजाय, इंसान शैतान की सत्ता में रहकर, आनंद का अनुसरण करने के सिवाय कुछ नहीं करता और कीचड़ की धरती पर खुद को देह की भ्रष्टता में डुबा देता है। सत्य सुनने के बाद भी जो लोग अंधकार में जीते हैं, उसे अभ्यास में लाने का कोई विचार नहीं करते, न ही वे परमेश्वर का प्रकटन देख लेने के बावजूद उसे खोजने की ओर उन्मुख होते हैं। इतनी भ्रष्ट मानवजाति को उद्धार का मौका कैसे मिल सकता है? इतनी पतित मानवजाति प्रकाश में कैसे जी सकती है?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है

परमेश्वर के प्रति मनुष्य के विरोध और उसकी विद्रोहशीलता का स्रोत शैतान द्वारा उसकी भ्रष्टता है। शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिए जाने के कारण मनुष्य की अंतरात्मा सुन्न हो गई है, वह अनैतिक हो गया है, उसके विचार पतित हो गए हैं, और उसका मानसिक दृष्टिकोण पिछड़ा हुआ है। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने से पहले मनुष्य स्वाभाविक रूप से परमेश्वर को समर्पित था और उसके वचनों को सुनने के बाद उनके प्रति समर्पण करता था। उसमें स्वाभाविक रूप से सही समझ और विवेक था, और उसमें सामान्य मानवता थी। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद उसकी मूल समझ, विवेक और मानवता मंद पड़ गई और शैतान द्वारा बिगाड़ दी गई। इस प्रकार, उसने परमेश्वर के प्रति अपना समर्पण और प्रेम खो दिया है। मनुष्य की समझ पथभ्रष्ट हो गई है, उसका स्वभाव जानवरों के स्वभाव के समान हो गया है, और परमेश्वर के प्रति उसकी विद्रोहशीलता और भी अधिक बढ़ गई है और गंभीर हो गई है। लेकिन मनुष्य इसे न तो जानता है और न ही पहचानता है, बस आँख मूँदकर विरोध और विद्रोह करता है। मनुष्य का स्वभाव उसकी समझ, अंतर्दृष्टि और अंतःकरण की अभिव्यक्तियों में प्रकट होता है; और चूँकि उसकी समझ और अंतर्दृष्टि सही नहीं हैं, और उसका अंतःकरण अत्यंत मंद पड़ गया है, इसलिए उसका स्वभाव परमेश्वर के प्रति विद्रोही है। यदि मनुष्य की समझ और अंतर्दृष्टि बदल नहीं सकती, तो फिर उसके स्वभाव में परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप बदलाव होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यदि मनुष्य की समझ सही नहीं है, तो वह परमेश्वर की सेवा नहीं कर सकता और वह परमेश्वर द्वारा उपयोग के अयोग्य है। “सामान्य समझ” का अर्थ है परमेश्वर के प्रति समर्पण करना और उसके प्रति निष्ठावान होना, परमेश्वर के लिए तरसना, परमेश्वर के प्रति पूर्ण होना, और परमेश्वर के प्रति विवेकशील होना। यह परमेश्वर के साथ एकचित्त और एकमन होने को दर्शाता है, जानबूझकर परमेश्वर का विरोध करने को नहीं। पथभ्रष्ट समझ का होना ऐसा नहीं है। चूँकि मनुष्य शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया था, इसलिए उसने परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बना ली हैं, और उसमें परमेश्वर के लिए कोई निष्ठा या तड़प नहीं है, परमेश्वर के प्रति विवेकशीलता की तो बात ही छोड़ो। मनुष्य जानबूझकर परमेश्वर का विरोध करता और उस पर दोष लगाता है, और इसके अलावा, यह स्पष्ट रूप से जानते हुए भी कि वह परमेश्वर है, उसकी पीठ पीछे उस पर अपशब्दों की बौछार करता है। मनुष्य स्पष्ट रूप से जानता है कि वह परमेश्वर है, फिर भी उसकी पीठ पीछे उस पर दोष लगाता है; वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का कोई इरादा नहीं रखता, बस परमेश्वर से अंधाधुंध माँग और अनुरोध करता रहता है। ऐसे लोग—वे लोग जिनकी समझ भ्रष्ट होती है—अपने घृणित स्वभाव को जानने या अपनी विद्रोहशीलता पर पछतावा करने में अक्षम होते हैं। यदि लोग अपने आप को जानने में सक्षम होते हैं, तो उन्होंने अपनी समझ को थोड़ा-सा पुनः प्राप्त कर लिया होता है; परमेश्वर के प्रति अधिक विद्रोही लोग, जो अभी तक अपने आप को नहीं जान पाए, वे उतने ही कम समझदार होते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है

मैं परमेश्वर के जिन विरोधियों की बात कर रहा हूँ, वो उन लोगों के संदर्भ में है जो परमेश्वर को नहीं जानते, जो जबान से तो परमेश्वर को स्वीकारते हैं, मगर परमेश्वर को जानते नहीं, जो परमेश्वर का अनुसरण तो करते हैं मगर उसके प्रति समर्पण नहीं करते, और जो परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद तो उठाते हैं मगर उसकी गवाही नहीं दे पाते। परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को या मनुष्य में उसके कार्य को समझे बिना, मनुष्य परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं हो सकता, न ही वह परमेश्वर की गवाही दे सकता है। मनुष्य द्वारा परमेश्वर के विरोध का कारण, एक ओर तो मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट है, दूसरी ओर, परमेश्वर के प्रति अज्ञानता, उन सिद्धांतों की जिनसे परमेश्वर कार्य करता है और मनुष्य के लिए उसकी इच्छा की समझ की कमी है। ये दोनों पहलू मिलकर परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध के इतिहास को बनाते हैं। नौसिखिए विश्वासी परमेश्वर का विरोध करते हैं क्योंकि ऐसा विरोध उनकी प्रकृति में बसा होता है, जबकि कई वर्षों से विश्वास रखने वाले लोगों में परमेश्वर का विरोध, उनके भ्रष्ट स्वभाव के अलावा, परमेश्वर के प्रति उनकी अज्ञानता का परिणाम है। परमेश्वर के देहधारी बनने से पहले के समय में, क्या किसी मनुष्य ने परमेश्वर का विरोध किया है, यह इस बात से तय होता था कि क्या उसने स्वर्ग में परमेश्वर द्वारा निर्धारित आदेशों का पालन किया है। उदाहरण के लिये, व्यवस्था के युग में, जो कोई यहोवा परमेश्वर की व्यवस्था का पालन नहीं करता था, वह परमेश्वर का विरोधी माना जाता था; जो कोई यहोवा के प्रसाद की चोरी करता था या यहोवा के कृपापात्रों के विरुद्ध खड़ा होता था, उसे परमेश्वर-विरोधी मानकर पत्थरों से मार डाला जाता था; जो कोई अपने माता-पिता का आदर नहीं करता था, दूसरों को चोट पहुँचाता था या धिक्कारता था, तो उसे व्यवस्था का पालन न करने वाला माना जाता था। और जो लोग यहोवा की व्यवस्था को नहीं मानते थे, उन्हें यहोवा विरोधी माना जाता था। लेकिन अनुग्रह के युग में ऐसा नहीं था, तब जो कोई भी यीशु के विरुद्ध खड़ा होता था, उसे विरोधी माना जाता था, और जो यीशु द्वारा बोले गये वचनों के प्रति समर्पण नहीं करता था, उसे परमेश्वर विरोधी माना जाता था। इस समय, जिस ढंग से परमेश्वर के विरोध को परिभाषित किया गया, वह ज्यादा सही भी था और ज्यादा व्यवाहारिक भी। जिस दौरान, परमेश्वर ने देहधारण नहीं किया था, तब कोई इंसान परमेश्वर विरोधी है या नहीं, यह इस बात से तय होता था कि क्या इंसान स्वर्ग के अदृश्य परमेश्वर की आराधना और उसका आदर करता था या नहीं। उस समय परमेश्वर के प्रति विरोध को जिस ढंग से परिभाषित किया गया, वह उतना भी व्यवाहारिक नहीं था क्योंकि तब इंसान परमेश्वर को देख नहीं पाता था, न ही उसे यह पता था कि परमेश्वर की छवि कैसी है, वह कैसे कार्य करता है और कैसे बोलता है। परमेश्वर के बारे में इंसान की कोई धारणा नहीं थी, परमेश्वर के बारे में उसकी एक अस्पष्ट आस्था थी, क्योंकि परमेश्वर अभी तक इंसानों के सामने प्रकट नहीं हुआ था। इसलिए, इंसान ने अपनी कल्पनाओं में कैसे भी परमेश्वर में विश्वास क्यों न किया हो, परमेश्वर ने न तो इंसान की निंदा की, न ही इंसान से अधिक अपेक्षा की, क्योंकि इंसान परमेश्वर को देख नहीं पाता था। परमेश्वर जब देहधारण कर इंसानों के बीच काम करने आता है, तो सभी उसे देखते और उसके वचनों को सुनते हैं, और सभी लोग उन कर्मों को देखते हैं जो परमेश्वर देह रूप में करता है। उस क्षण, इंसान की तमाम धारणाएँ साबुन के झाग बन जाती हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जिन्होंने परमेश्वर को देहधारण करते हुए देखा है, यदि वे अपनी इच्छा से उसके प्रति समर्पण करेंगे, तो उनका तिरस्कार नहीं किया जाएगा, जबकि जो लोग जानबूझकर परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होते हैं, वे परमेश्वर का विरोध करने वाले माने जाएँगे। ऐसे लोग मसीह-विरोधी और शत्रु हैं जो जानबूझकर परमेश्वर के विरोध में खड़े होते हैं। ऐसे लोग जो परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखते हैं, मगर खुशी से उसके प्रति समर्पण करते हैं, वे निंदित नहीं किए जाएँगे। परमेश्वर मनुष्य की नीयत और क्रियाकलापों के आधार पर उसे दंडित करता है, उसके विचारों और मत के आधार पर कभी नहीं। यदि वह विचारों और मत के आधार पर इंसान को दंडित करता, तो कोई भी परमेश्वर के रोषपूर्ण हाथों से बच कर भाग नहीं पाता। जो लोग जानबूझकर देहधारी परमेश्वर के विरोध में खड़े होते हैं, वे समर्पण न करने के कारण दण्ड पाएँगे। जो लोग जानबूझकर परमेश्वर के विरोध में खड़े होते हैं, उनका विरोध परमेश्वर के प्रति उनकी धारणाओं से उत्पन्न होता है, जिसके परिणामस्वरूप वे परमेश्वर के कार्य में विघ्न पैदा करते हैं। ये लोग जानते-बूझते परमेश्वर के कार्य का विरोध करते हैं और उसे नष्ट करते हैं। परमेश्वर के बारे में न केवल उनकी धारणाएँ होती हैं, बल्कि वे उन कामों में भी लिप्त रहते हैं जो परमेश्वर के कार्य में विघ्न डालते हैं, और यही कारण है कि इस तरह के लोगों की निंदा की जाएगी। जो लोग जानबूझकर परमेश्वर के कार्य में विघ्न डालने में लिप्त नहीं होते, उनकी पापियों के समान निंदा नहीं की जाएगी, क्योंकि वे अपनी इच्छा से समर्पण कर पाते हैं और गड़बड़ी और विघ्न उत्पन्न करने वाली गतिविधियों में लिप्त नहीं होते। ऐसे व्यक्तियों की निंदा नहीं की जाएगी। लेकिन, जब कोई कई वर्षों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर लेने के बाद भी परमेश्वर के बारे में कई धारणाएँ मन में रखता है और देहधारी परमेश्वर के कार्य को समझने में असमर्थ रहता है, और अनेक वर्षों के अनुभव के बावजूद, वह परमेश्वर के बारे में धारणाओं से भरा रहता है और उसे जान नहीं पाता, और अगर कितने भी सालों तक उसके कार्य का अनुभव करने के बाद भी वह परमेश्वर के बारे में धारणाओं से भरा रहता है और फिर भी उसे जान नहीं पाता तब वह भले ही विघ्नकारी गतिविधियों में लिप्त न हो, लेकिन उसका हृदय परमेश्वर के बारे में धारणाओं से भरा रहता है, और अगर ये धारणाएँ स्पष्ट न भी हों तो, ऐसे लोग किसी भी प्रकार से परमेश्वर के कार्य के उपयोग लायक नहीं होते। वे सुसमाचार का उपदेश देने या परमेश्वर की गवाही देने में असमर्थ होते हैं। ऐसे लोग किसी काम के नहीं होते और मंदबुद्धि होते हैं। क्योंकि वे परमेश्वर को नहीं जानते और परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं का परित्याग करने में एकदम अक्षम होते हैं, इसलिए वे निंदित किए जाते हैं। ऐसा कहा जा सकता है : नौसिखिए विश्वासियों के लिये परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखना या परमेश्वर के बारे में कुछ नहीं जानना सामान्य बात है, परंतु जिसने वर्षों परमेश्वर में विश्वास किया है और परमेश्वर के कार्य का बहुत अनुभव किया है, उसका ऐसी धारणाएँ रखे रहना, सामान्य बात नहीं है, और उसे परमेश्वर का ज्ञान न होना तो बिल्कुल भी सामान्य नहीं है। ऐसे लोगों की निंदा करना सामान्य स्थिति नहीं है। ऐसे असामान्य लोग एकदम कचरा हैं; ये ऐसे लोग होते हैं जो परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं और जिन्होंने व्यर्थ में ही परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाया होता है। ऐसे सभी लोग अंत में बाहर निकाल दिए दिए जाएँगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर को न जानने वाले सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं

तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम लोग परमेश्वर के कार्य का विरोध इसलिए करते हो, या आज के कार्य को मापने के लिए अपनी ही धारणाओं का इसलिए उपयोग करते हो, क्योंकि तुम लोग परमेश्वर के कार्य के सिद्धांतों को नहीं जानते हो, और क्योंकि तुम पवित्र आत्मा के कार्य के प्रति लापरवाही बरतते हो। तुम लोगों का परमेश्वर के प्रति विरोध और पवित्र आत्मा के कार्य में अवरोध तुम लोगों की धारणाओं और तुम लोगों के अंतर्निहित अहंकार के कारण है। ऐसा इसलिए नहीं है कि परमेश्वर का कार्य गलत है, बल्कि इसलिए है कि तुम लोग स्वाभाविक रूप से अत्यंत विद्रोही हो। परमेश्वर में विश्वास हो जाने के बाद भी, कुछ लोग यकीन से यह भी नहीं कह सकते हैं कि मनुष्य कहाँ से आया, फिर भी वे पवित्र आत्मा के कार्यों के सही और गलत होने के बारे में बताते हुए सार्वजनिक भाषण देने का साहस करते हैं। यहाँ तक कि वे उन प्रेरितों को भी व्याख्यान देते हैं जिनके पास पवित्र आत्मा का नया कार्य है, उन पर टिप्पणी करते हैं और बेमतलब बोलते रहते हैं; उनकी मानवता बहुत ही निम्न है, और उनमें बिल्कुल भी समझ नहीं होती है। क्या वह दिन नहीं आएगा जब इस प्रकार के लोग पवित्र आत्मा के कार्य के द्वारा तिरस्कृत कर दिए जाएँगे, और नरक की आग द्वारा भस्म कर दिए जाएँगे? वे परमेश्वर के कार्यों को नहीं जानते हैं, फिर भी उसके कार्य की आलोचना करते हैं और परमेश्वर को यह निर्देश देने की कोशिश करते हैं कि कार्य किस प्रकार किया जाए। इस प्रकार के अविवेकी लोग परमेश्वर को कैसे जान सकते हैं? मनुष्य खोजने और अनुभव करने की प्रक्रिया के दौरान ही परमेश्वर को जान पाता है; न कि अपनी सनक में उसकी आलोचना करने के द्वारा मनुष्य पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता के माध्यम से परमेश्वर को जान पाया है। परमेश्वर के बारे में लोगों का ज्ञान जितना अधिक सही होता जाता है, उतना ही कम वे उसका विरोध करते हैं। इसके विपरीत, लोग परमेश्वर के बारे में जितना कम जानते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का विरोध करने की संभावना रहती है। तुम लोगों की धारणाएँ, तुम्हारी पुरानी प्रकृति, और तुम्हारी मानवता, चरित्र और नैतिक दृष्टिकोण वह पूँजी है जिससे तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो, और जितना अधिक तुम्हारी नैतिकता जितनी भ्रष्ट होगी, तुम्हारे गुण जितने तुच्छ और तुम्हारी मानवता जितनी निम्न होगी, उतना ही अधिक तुम परमेश्वर के शत्रु बन जाते हो। जो लोग प्रबल धारणाएँ रखते हैं और आत्मतुष्ट स्वभाव के होते हैं, वे देहधारी परमेश्वर के प्रति और भी अधिक शत्रुतापूर्ण होते हैं; इस प्रकार के लोग मसीह-विरोधी हैं। यदि तुम्हारी धारणाओं में सुधार न किया जाए, तो वे सदैव परमेश्वर की विरोधी रहेंगी; तुम कभी भी परमेश्वर के अनुकूल नहीं होगे, और सदैव उससे दूर रहोगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना ही परमेश्वर को जानने का मार्ग है

जो लोग परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को नहीं समझते, वे परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होते हैं, और जो लोग परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य से अवगत होते हैं फिर भी परमेश्वर को संतुष्ट करने का प्रयास नहीं करते, वे तो परमेश्वर के और भी बड़े विरोधी होते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो बड़ी-बड़ी कलीसियाओं में दिन-भर बाइबल पढ़ते और याद करके सुनाते रहते हैं, फिर भी उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को समझता हो। उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो परमेश्वर को जान पाता हो; उनमें से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप तो एक भी नहीं होता। वे सबके सब निकम्मे और अधम लोग हैं, जिनमें से प्रत्येक परमेश्वर को सिखाने के लिए ऊँचे पायदान पर खड़ा रहता है। वे लोग परमेश्वर के नाम का झंडा उठाकर, जानबूझकर उसका विरोध करते हैं। वे परमेश्वर में विश्वास रखने का दावा करते हैं, फिर भी मनुष्यों का माँस खाते और रक्त पीते हैं। ऐसे सभी मनुष्य शैतान हैं जो मनुष्यों की आत्माओं को निगल जाते हैं, ऐसे मुख्य राक्षस हैं जो जानबूझकर उन्हें परेशान करते हैं जो सही मार्ग पर कदम बढ़ाने का प्रयास करते हैं और ऐसी बाधाएँ हैं जो परमेश्वर को खोजने वालों के मार्ग में रुकावट पैदा करते हैं। वे “मज़बूत देह” वाले दिख सकते हैं, किंतु उसके अनुयायियों को कैसे पता चलेगा कि वे मसीह-विरोधी हैं जो लोगों से परमेश्वर का विरोध करवाते हैं? अनुयायी कैसे जानेंगे कि वे जीवित शैतान हैं जो इंसानी आत्माओं को निगलने को तैयार बैठे हैं? जो लोग परमेश्वर के सामने अपने आपको बड़ा मूल्य देते हैं, वे सबसे अधिक अधम लोग हैं, जबकि जो खुद को तुच्छ समझते हैं, वे सबसे अधिक आदरणीय हैं। जो लोग यह सोचते हैं कि वे परमेश्वर के कार्य को जानते हैं, और दूसरों के आगे परमेश्वर के कार्य की धूमधाम से उद्घोषणा करते हैं, जबकि वे सीधे परमेश्वर को देखते हैं—ऐसे लोग बेहद अज्ञानी होते हैं। ऐसे लोगों में परमेश्वर की गवाही नहीं होती, वे अभिमानी और अत्यंत दंभी होते हैं। परमेश्वर का वास्तविक अनुभव और व्यवहारिक ज्ञान होने के बावजूद, जो लोग ये मानते हैं कि उन्हें परमेश्वर का बहुत थोड़ा-सा ज्ञान है, वे परमेश्वर के सबसे प्रिय लोग होते हैं। ऐसे लोग ही सच में गवाह होते हैं और परमेश्वर के द्वारा पूर्ण बनाए जाने के योग्य होते हैं। जो परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते वे परमेश्वर के विरोधी हैं, जो परमेश्वर की इच्छा को समझते तो हैं मगर सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं, वे परमेश्वर के विरोधी हैं; जो परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हैं, फिर भी परमेश्वर के वचनों के सार के विरुद्ध जाते हैं, वे परमेश्वर के विरोधी हैं; जिनमें देहधारी परमेश्वर के प्रति धारणाएँ हैं और जिनका दिमाग विद्रोह में लिप्त रहता है, वे परमेश्वर के विरोधी हैं; जो लोग परमेश्वर की आलोचना करते हैं, वे परमेश्वर के विरोधी हैं; और जो कोई भी परमेश्वर को जानने या उसकी गवाही देने में असमर्थ है, वो परमेश्वर का विरोधी है। इसलिये मेरा तुम लोगों से आग्रह है : यदि तुम लोगों को सचमुच विश्वास है कि तुम इस मार्ग पर चल सकते हो, तो इस मार्ग पर चलते रहो। लेकिन अगर तुम लोग परमेश्वर के विरोध से परहेज नहीं कर सकते, तो इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, बेहतर है कि तुम लोग यह मार्ग छोड़कर चले जाओ। अन्यथा इस बात की संभावना बहुत ज्यादा है कि तुम्हारे साथ बुरा हो जाए, क्योंकि तुम लोगों की प्रकृति बहुत ही भ्रष्ट है। तुम लोगों में लेशमात्र भी निष्ठा, समर्पण, या ऐसा हृदय नहीं है जिसमें धार्मिकता और सत्य की प्यास हो या परमेश्वर के लिए प्रेम हो। ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर के सामने तुम्हारी दशा बेहद खराब है। तुम लोगों को जिन बातों का पालन करना चाहिए उनका पालन नहीं कर पाते, और जो बोलना चाहिए वो तुम बोल नहीं पाते। तुम्हें जिन चीज़ों का अभ्यास करना चाहिए उनका अभ्यास तुम लोग कर नहीं पाए। तुम लोगों को जो कार्य करना चाहिए था, वो तुमने किया नहीं। तुम लोगों में जो निष्ठा, विवेक, समर्पण और संकल्पशक्ति होनी चाहिए, वो तुम लोगों में है नहीं। तुम लोगों ने उस तकलीफ को नहीं झेला है, जो तुम्हें झेलनी चाहिए, तुम लोगों में वह विश्वास नहीं है, जो होना चाहिए। सीधी-सी बात है, तुम लोग सभी गुणों से रहित हो : क्या तुम लोग इस तरह जीते रहने से शर्मिंदा नहीं हो? मैं तुम लोगों को विश्वास दिलाना चाहूँगा, तुम लोगों के लिए अनंत विश्राम में आँखें बंद कर लेना बेहतर होगा और इस तरह तुम परमेश्वर को तुम लोगों की चिंता करने और कष्ट झेलने से मुक्त कर दोगे। तुम लोग परमेश्वर में विश्वास तो करते हो मगर उसकी इच्छा को नहीं जानते; तुम परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते तो हो, मगर इंसान से परमेश्वर की जो अपेक्षाएँ हैं, उसे पूरा करने में असमर्थ हो। तुम लोग परमेश्वर पर विश्वास तो करते हो मगर परमेश्वर को जानते नहीं, तुम लक्ष्यहीन जीवन जीते हो, न कोई मूल्य है और न ही कोई सार्थकता है। तुम लोग इंसान की तरह जीते तो हो मगर तुम लोगों में विवेक, सत्यनिष्ठा या विश्वसनीयता लेशमात्र भी नहीं है—क्या तुम लोग खुद को अब भी इंसान कह सकते हो? तुम लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हो फिर भी उसे धोखा देते हो; और तो और, तुम लोग परमेश्वर का धन हड़प जाते हो और उसके चढ़ावों को खा जाते हो, फिर भी, परमेश्वर की भावनाओं के प्रति न तो तुम्हारे अंदर कोई आदर-भाव है, न ही परमेश्वर के प्रति तुम्हारा जमीर जागता है। तुम लोग परमेश्वर की अत्यंत मामूली अपेक्षाओं को भी पूरा नहीं कर पाते। क्या फिर भी तुम खुद को इंसान कह सकते हो? तुम परमेश्वर का दिया आहार ग्रहण करते हो, उसकी दी हुई ऑक्सीजन में साँस लेते हो, तुम उसके अनुग्रह का आनंद लेते हो, मगर अंत में, तुम लोगों को परमेश्वर का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं होता है। उल्टे, तुम लोग ऐसे निकम्मे बन गए हो जो परमेश्वर का विरोध करते हैं। क्या तुम लोग एक कुत्ते से भी बदतर जंगली जानवर नहीं हो? क्या जानवरों में कोई ऐसा है जो तुम लोगों से भी अधिक द्वेषपूर्ण हो?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर को न जानने वाले सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं

यदि तुमने वर्षों परमेश्वर में विश्वास रखा है, फिर भी न तो कभी उसके प्रति समर्पण किया है, न ही उसके वचनों की समग्रता को स्वीकार किया है, बल्कि तुमने परमेश्वर को अपने आगे समर्पण करने और तुम्हारी धारणाओं के अनुसार कार्य करने को कहा है, तो तुम सबसे अधिक विद्रोही व्यक्ति हो, और गैर-विश्वासी हो। एक ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के कार्य और वचनों के प्रति समर्पण कैसे कर सकता है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं है? सबसे अधिक विद्रोही वे लोग होते हैं जो जानबूझकर परमेश्वर की अवहेलना और उसका विरोध करते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के शत्रु और मसीह विरोधी हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के नए कार्य के प्रति निरंतर शत्रुतापूर्ण रवैया रखते हैं, ऐसे व्यक्ति में कभी भी समर्पण का कोई भाव नहीं होता, न ही उसने कभी खुशी से समर्पण किया होता है या दीनता का भाव दिखाया है। ऐसे लोग दूसरों के सामने अपने आपको ऊँचा उठाते हैं और कभी किसी के आगे नहीं झुकते। परमेश्वर के सामने, ये लोग वचनों का उपदेश देने में स्वयं को सबसे ज़्यादा निपुण समझते हैं और दूसरों पर कार्य करने में अपने आपको सबसे अधिक कुशल समझते हैं। इनके कब्ज़े में जो “खज़ाना” होता है, ये लोग उसे कभी नहीं छोड़ते, दूसरों को इसके बारे में उपदेश देने के लिए, अपने परिवार की पूजे जाने योग्य विरासत समझते हैं, और उन मूर्खों को उपदेश देने के लिए इनका उपयोग करते हैं जो उनकी पूजा करते हैं। कलीसिया में वास्तव में इस तरह के कुछ ऐसे लोग हैं। ये कहा जा सकता है कि वे “अदम्य नायक” हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी परमेश्वर के घर में डेरा डाले हुए हैं। वे वचन (सिद्धांत) का उपदेश देना अपना सर्वोत्तम कर्तव्य समझते हैं। साल-दर-साल और पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे अपने “पवित्र और अलंघनीय” कर्तव्य को पूरी प्रबलता से लागू करते रहते हैं। कोई उन्हें छूने का साहस नहीं करता; एक भी व्यक्ति खुलकर उनकी निंदा करने की हिम्मत नहीं दिखाता। वे परमेश्वर के घर में “राजा” बनकर युगों-युगों तक बेकाबू होकर दूसरों पर अत्याचार करते चले आ रहे हैं। दुष्टात्माओं का यह झुंड संगठित होकर काम करने और मेरे कार्य का विध्वंस करने की कोशिश करता है; मैं इन जीती-जागती दुष्ट आत्माओं को अपनी आँखों के सामने कैसे अस्तित्व में बने रहने दे सकता हूँ? यहाँ तक कि आधा-अधूरा समर्पण करने वाले लोग भी अंत तक नहीं चल सकते, फिर इन आततायियों की तो बात ही क्या है जिनके हृदय में थोड़ा-सा भी समर्पण नहीं है! इंसान परमेश्वर के कार्य को आसानी से ग्रहण नहीं कर सकता। इंसान अपनी सारी ताक़त लगाकर भी थोड़ा-बहुत ही पा सकता है जिससे वो आखिरकार पूर्ण बनाया जा सके। फिर प्रधानदूत की संतानों का क्या, जो परमेश्वर के कार्य को नष्ट करने की कोशिश में लगी रहती हैं? क्या परमेश्वर द्वारा उन्हें ग्रहण करने की आशा और भी कम नहीं है? विजय-कार्य करने का मेरा उद्देश्य केवल विजय के वास्ते विजय प्राप्त करना नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य धार्मिकता और अधार्मिकता को प्रकट करना, मनुष्य के दण्ड के लिए प्रमाण प्राप्त करना, दानव को दंडित करना, और उन लोगों को पूर्ण बनाना है जो स्वेच्छा से समर्पण करते हैं। अंत में, सभी को उनके प्रकार के अनुसार पृथक किया जाएगा, और जिन लोगों के सोच-विचार समर्पण से भरे होते हैं, अंततः उन्हें ही पूर्ण बनाया जाएगा। यही काम अंततः संपन्न किया जाएगा। इस दौरान, जिन लोगों का हर काम विद्रोह से भरा है उन्हें दण्डित किया जाएगा, और आग में जलने के लिए भेज दिया जाएगा जहाँ वे अनंतकाल तक शाप के भागी होंगे। जब वह समय आएगा, तो बीते युगों के वे “महान और अदम्य नायक” सबसे नीच और परित्यक्त “कमज़ोर और नपुंसक कायर” बन जाएँगे। केवल यही परमेश्वर की धार्मिकता के हर पहलू और उसके उस स्वभाव को प्रकट कर सकता है जिसका मनुष्य द्वारा अपमान नहीं किया जा सकता, मात्र यही मेरे हृदय की नफ़रत को शांत कर सकता है। क्या तुम लोगों को यह पूरी तरह तर्कपूर्ण नहीं लगता?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सच्चे हृदय से परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे

वे सभी जो अपने विश्वास में परमेश्वर के प्रति समर्पण की खोज नहीं करते, उसका विरोध करते हैं। परमेश्वर कहता है कि लोग सत्य की खोज करें, वे उसके वचनों के प्यासे बनें, उसके वचनों को खाएँ-पिएँ और उन्हें अभ्यास में लाएँ, ताकि वे परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकें। यदि ये तुम्हारी सच्ची मंशाएँ हैं, तो परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हें उन्नत करेगा और तुम्हारे प्रति अनुग्रही होगा। कोई भी न तो इस पर संदेह कर सकता है और न ही इसे बदल सकता है। यदि तुम्हारी मंशा परमेश्वर के प्रति समर्पण की नहीं है और तुम्हारे उद्देश्य दूसरे हैं, तो जो कुछ भी तुम कहते और करते हो—परमेश्वर के सामने तुम्हारी प्रार्थनाएँ, यहाँ तक कि तुम्हारा प्रत्येक कार्यकलाप भी परमेश्वर के विरोध में होगा। तुम भले ही मृदुभाषी और सौम्य हो, तुम्हारा हर कार्यकलाप और अभिव्यक्ति उचित दिखायी दे, और तुम भले ही समर्पित प्रतीत होते हो, किन्तु जब परमेश्वर में विश्वास के बारे में तुम्हारी मंशाओं और विचारों की बात आती है, तो जो भी तुम करते हो वह परमेश्वर के विरोध में होता है, वह बुरा होता है। जो लोग भेड़ों के समान आज्ञाकारी प्रतीत होते हैं, परन्तु जिनके हृदय बुरे इरादों को आश्रय देते हैं, वे भेड़ की खाल में भेड़िए हैं। वे सीधे-सीधे परमेश्वर का अपमान करते हैं, और परमेश्वर उन में से एक को भी नहीं छोड़ेगा। पवित्र आत्मा उन में से एक-एक को प्रकट करेगा और सबको दिखाएगा कि पवित्र आत्मा उन सभी को निश्चित रूप से ठुकरा देगा। चिंता मत करो : परमेश्वर बारी-बारी से उनमें से एक-एक से निपटेगा और उनका हिसाब करेगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर में अपने विश्वास में तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए

जब लोगों की प्रकृति और सार अहंकारी हो जाते हैं, तो वे परमेश्वर की अवज्ञा और विरोध करते हैं, उसके वचनों पर ध्यान नहीं देते, उसके बारे में धारणाएं उत्पन्न करते हैं, उसे धोखा देने वाले, अपना उत्कर्ष करने वाले और अपनी ही गवाही देने वाले काम करते हैं। तुम्हारा कहना है कि तुम अहंकारी नहीं हो, लेकिन मान लो कि तुम्हें कलीसिया चलाने और उसकी अगुआई करने की जिम्मेदारी दे दी जाती है; मान लो कि मैंने तुम्हारे साथ काट-छाँट नहीं की, और परमेश्वर के परिवार के किसी सदस्य ने तुम्हारी आलोचना या सहायता नहीं की है : कुछ समय तक उसकी अगुआई करने के बाद, तुम लोगों को अपने पैरों पर गिरा लोगे और उनसे अपने सामने इस हद तक समर्पण करवा लोगे कि वे तुम्हारी प्रशंसा और आदर करने लगें। और तुम ऐसा क्यों करोगे? यह तुम्हारी प्रकृति द्वारा निर्धारित होगा; यह स्वाभाविक प्रकटीकरण के अलावा और कुछ नहीं होगा। तुम्हें इसे दूसरों से सीखने की आवश्यकता नहीं है, और न ही दूसरों को तुम्हें यह सिखाने की आवश्यकता है। तुम्हें दूसरों की आवश्यकता नहीं है कि वे तुम्हें निर्देश दें या उसे करने के लिए तुम्हें विवश करें; इस तरह की स्थिति स्वाभाविक रूप से आती है। तुम जो भी करते हो, वह इसलिए होता है कि लोग तुम्हारी बड़ाई करें, तुम्हारी प्रशंसा करें, तुम्हारी आराधना करें, तुम्हारे आगे समर्पण करें और हर बात में तुम्हारी सुनें। जब तुम अगुआ बनने की कोशिश करते हो, तो स्वाभाविक रूप से इस तरह की स्थिति पैदा होती है और इसे बदला नहीं जा सकता। यह स्थिति कैसे पैदा होती है? ये मनुष्य की अहंकारी प्रकृति से निर्धारित होती है। अहंकार की अभिव्यक्ति परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध है। जब लोग अहंकारी, दंभी और आत्मतुष्ट होते हैं, तो उनकी अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने और अपने तरीके से चीज़ों को करने की प्रवृत्ति होती है। वे दूसरों को भी अपनी ओर खींचकर उन्हें अपने आलिंगन में ले लेते हैं। लोगों का ऐसी अहंकारी हरकतें करने में सक्षम होना साबित करता है कि उनकी अहंकारी प्रकृति का सार शैतान का है; प्रधान दूत का है। जब उनका अहंकार और दंभ एक निश्चित स्तर पर पहुँच जाता है, तो उनके दिलों में परमेश्वर के लिए स्थान नहीं रहता, और परमेश्वर अलग रख दिया जाता है। तब वे परमेश्वर बनना चाहते हैं, लोगों से अपना आज्ञापालन करवाते हैं और प्रधान दूत बन जाते हैं। यदि तुम्हारी प्रकृति ऐसी ही शैतानी अहंकारी है, तो तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होगा। भले ही तुम परमेश्वर पर विश्वास करो, परमेश्वर तुम्हें नहीं पहचानेगा, वह तुम्हें कुकर्मी समझेगा और बाहर निकाल देगा।

हमने धार्मिक मंडलियों के भीतर अनेक अगुआओं को बार-बार सुसमाचार का उपदेश दिया है, किन्तु हम उनके साथ सत्य पर कैसे भी संगति क्यों न करें, वे इसे स्वीकार नहीं करते। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि उनका घमंड उनकी प्रवृत्ति बन गया है और उनके हृदयों में परमेश्वर का अब और स्थान नहीं रह गया है। कुछ लोग कह सकते हैं, “धार्मिक दुनिया में कुछ पादरियों के नेतृत्व में लोगों में वास्तव में बहुत अधिक प्रेरणा होती है; यह ऐसा है मानो उनके बीच में परमेश्‍वर हो।” क्‍या तुम उत्‍साह होने को प्रेरणा होना मानते हो? उन पादरियों के सिद्धांत भले ही कितने भी उच्‍च क्यों न प्रतीत होते हों, क्या वे परमेश्वर को जानते हैं? यदि उनके अंतरतम में परमेश्वर के प्रति सच में भय होता, तो क्या वे लोगों से अपना अनुसरण और प्रशंसा करवाते? क्या वे दूसरों पर नियंत्रण कर पाते? क्या वे अन्य लोगों को सत्य की तलाश करने और सच्चे मार्ग की जाँच करने से रोकने की हिम्मत करते? यदि वे मानते हैं कि परमेश्वर की भेड़ें वास्तव में उनकी हैं और उन सभी को उनकी बात सुननी चाहिए, तो क्या बात ऐसी नहीं है कि वे स्वयं को परमेश्वर मानते हैं? ऐसे लोग फरीसियों से भी बदतर हैं। क्या वे असली मसीह विरोधी नहीं हैं? इस प्रकार, उनका अहंकार घातक है, और उनसे विद्रोहपूर्ण चीजें करवा सकता है। क्या तुम लोगों के साथ ऐसी चीजें नहीं होतीं? क्या तुम लोगों को इस तरह फँसा सकते हो? तुम ऐसा कर सकते थे, बात सिर्फ इतनी है कि तुम्‍हें अवसर नहीं दिया गया, और तुम्‍हें लगातार काटा-छाँटा और निपटाया जा रहा है, इसलिए तुम ऐसी हिम्मत नहीं करोगे। कुछ लोग घुमा-फिराकर अपनी बड़ाई भी करते हैं, लेकिन वे बहुत चतुराई से बोलते हैं, इसलिए आम लोग इसे समझ नहीं पाते। कुछ लोग इतने अहंकारी होते हैं कि वे कहते हैं: “किसी और का इस कलीसिया का नेतृत्व करना अस्वीकार्य है! यहाँ तक पहुँचने के लिए परमेश्‍वर को माध्यम के रूप में मेरी जरूरत है, और वह तुम लोगों को केवल तभी उपदेश दे सकता है जबकि मैंने उन्हें इस कलीसिया की स्थिति समझा दी हो। मेरे अलावा कोई और यहाँ आकर तुम्‍हारा सिंचन नहीं कर सकता।” ऐसा कहने के पीछे क्या मंशा है? यह किस प्रकार के स्वभाव को प्रकट करता है? यह अहंकार है। जब लोग इस प्रकार कार्य करते हैं, तो उनका आचरण परमेश्वर के प्रति प्रतिरोधी और विद्रोही होता है। इसलिए लोगों की अहंकारी प्रकृति यह निर्धारित करती है कि वे अपनी अत्‍यधिक प्रशंसा करेंगे, परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसके साथ विश्वासघात करेंगे, दूसरों को फँसाएँगे तथा उन्‍हें और स्वयं को बरबाद कर देंगे। यदि वे बिना पछतावे के मर जाते हैं, तो अंत में उन्हें बहिष्‍कृत कर दिया जाएगा। क्या किसी व्यक्ति के लिए अहंकारी स्वभाव रखना खतरनाक नहीं है? यदि उनका स्वभाव अहंकारी है, लेकिन वे सत्य को स्वीकार करने में सक्षम हैं, तो उन्हें बचाने की फिर भी गुंजाइश है। सच्चा उद्धार प्राप्त करने के लिए उन्हें न्याय और ताड़ना से गुजरना होगा और अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागना होगा।

कुछ लोग हमेशा कहते हैं : “परमेश्वर अंत के दिनों में लोगों को बचाने के लिए न्याय और ताड़ना का उपयोग क्यों करता है? न्याय के वचन इतने कठोर क्यों हैं?” एक कहावत है जिसे तुम लोग जानते होंगे : “परमेश्‍वर का कार्य प्रत्येक व्यक्ति के साथ अलग-अलग होता है; यह लचीला है, और परमेश्‍वर नियमों से चिपककर नहीं रहता है।” अंत के दिनों में न्याय और ताड़ना का कार्य मुख्य रूप से लोगों के अहंकारी स्वभाव पर निर्देशित है। अहंकार में बहुत-सी चीजें, बहुत सारे भ्रष्ट स्वभाव शामिल हैं; लोगों के अहंकारी स्वभाव को पूरी तरह से दूर करने के लिए न्याय और ताड़ना सीधे इस शब्द, “अहंकार” पर आती है। अंत में, लोग परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह नहीं करेंगे और न ही उसका विरोध करेंगे, इसलिए वे स्वयं के स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयास नहीं करेंगे, न ही वे खुद की प्रशंसा करेंगे या अपनी गवाही देंगे, न ही वे नीच कार्य करेंगे, न ही वे परमेश्वर से असाधारण माँगें करेंगे—इस तरह, उन्होंने अपना अहंकारी स्वभाव त्याग दिया है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी स्वभाव है

यद्यपि दिखावे के लिए तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और अपना कर्तव्य निभाते हो, लेकिन तुम्हारे सांसारिक और शैतानी विचार, जीने के तरीके और तुम्हारे अंदर मौजूद भ्रष्ट स्वभाव कभी मिटे ही नहीं थे और अब भी तुम्हारे अंदर शैतानी चीजें भरी पड़ी हैं। तुम अब भी इन चीजों के साथ जीते हो, इसीलिए अब भी तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है। तुम अब भी खतरनाक दौर में हो; तुम अभी सकुशल या सुरक्षित नहीं हो। जब तक तुममें शैतानी स्वभाव रहता है, तुम परमेश्वर का प्रतिरोध और उससे विश्वासघात करते रहोगे। इस समस्या का समाधान करने के लिए तुम्हें पहले यह समझना होगा कि कौन-सी चीजें दुष्ट हैं या शैतान की हैं, जब लोग इन्हें स्वीकार करते हैं तो किस किस्म के जहर से ग्रसित होते हैं, और ये लोग क्या बनेंगे, साथ ही परमेश्वर लोगों से कैसा इंसान बनने की अपेक्षा करता है, कौन-सी चीजें सामान्य मानवता की हैं, कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं तो कौन-सी नकारात्मक हैं। तुम्हें रास्ता तभी मिलेगा जब तुममें विवेक होगा और तुम इन चीजों को स्पष्ट रूप से देख सकोगे। यही नहीं, सकारात्मक पहलुओं के तहत तुम्हें नेकनीयती और समर्पण भावना से अपना कर्तव्य भी सक्रिय होकर निभाना होगा। धूर्तता या काहिली से बचो, अपना कर्तव्य निभाने में या परमेश्वर ने तुम्हें जो भी काम सौंपा है, उसमें अविश्वासियों के रवैये को या शैतान के फलसफों को मत अपनाओ। तुम्हें परमेश्वर के वचन और अधिक खाने-पीने चाहिए, सत्य के सभी पहलुओं को समझने का प्रयास करना चाहिए, कर्तव्य निभाने के महत्व को सुस्पष्ट समझना चाहिए, और फिर अपना कर्तव्य निभाने के दौरान सत्य के सभी पहलुओं में प्रवेश कर उनका अभ्यास करना चाहिए, और धीरे-धीरे परमेश्वर को, उसके कार्य और स्वभाव को जानना शुरू करना चाहिए। इस तरीके से, तुम जान भी नहीं पाओगे कि कब तुम्हारी आंतरिक दशा बदल गई, तुम्हारे भीतर और अधिक सकारात्मक और सक्रिय चीजें होंगी, और नकारात्मक और निष्क्रिय चीजें घट जाएंगी, और चीजों का गुणभेद करने की तुम्हारी क्षमता पहले से कहीं ज्यादा बढ़ जाएगी। जब तुम्हारा आध्यात्मिक कद इस स्तर तक बढ़ जाएगा, तब तुममें संसार के सभी तरह के लोगों को, मामलों और चीजों को पहचानने का विवेक आ जाएगा, और तुम समस्याओं के सार को पूरी तरह समझने लगोगे। अगर तुम्हें अविश्वासियों की बनाई कोई फिल्म देखनी पड़े तो तुम जान सकोगे कि इसे देखकर लोग कैसे-कैसे जहर से ग्रसित हो सकते हैं, शैतान इन तरीकों और प्रवृत्तियों के जरिए लोगों के मन में क्या-क्या भरना या रोपना चाहता है, और लोगों में किस चीज का क्षरण करना चाहता है। तुम धीरे-धीरे इस चीजों को समझने में सक्षम हो जाओगे। फिल्म देखकर तुममें जहर नहीं भरेगा, बल्कि तुममें इसके प्रति विवेक जाग चुका होगा—तभी तुम सचमुच आध्यात्मिक कद पाओगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर में विश्वास की शुरुआत संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों की असलियत को समझने से होनी चाहिए

अनेक लोग हमेशा इसी तरह अनुसरण और विश्वास करते आए हैं; जिस दौरान उन्होंने परमेश्वर का अनुसरण किया, वे अच्छा व्यवहार करते रहे लेकिन इससे यह तय नहीं होता कि भविष्य में क्या होगा। ऐसा इसलिए है कि तुम मनुष्य की घातक कमजोरी बिल्कुल नहीं जानते या मनुष्य की प्रकृति में निहित उन चीजों को नहीं जानते जो परमेश्वर का विरोध कर सकती हैं, और तुम इनसे तब तक अनभिज्ञ रहते हो जब तक ये तुम्हें तबाही के कगार पर लाकर खड़ा नहीं कर देतीं। चूँकि परमेश्वर का विरोध करने की तुम्हारी प्रकृति का निराकरण नहीं होता है, यह तुम्हें तबाही की ओर ले जाती है, और संभव है कि जब तुम्हारा सफर पूरा हो जाए और परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाए, तब तुम वह कर दोगे जिससे परमेश्वर का सर्वाधिक विरोध होता हो और वह कह दोगे जिससे उसकी निंदा होती हो, और इस प्रकार तुम निंदित और बहिष्कृत कर दिए जाओगे। अंतिम क्षण में, सबसे संकटपूर्ण समय में, पतरस ने बचने की कोशिश की। उस समय उसने परमेश्वर की इच्छा नहीं समझी और अपना अस्तित्व बचाने और कलीसियाओं का कार्य करने की सोची। बाद में यीशु ने उसे दर्शन देकर कहा : “क्या तुम मुझे एक बार फिर अपने लिए सूली पर लटकाओगे?” पतरस तब परमेश्वर की इच्छा समझ गया और उसने फौरन समर्पण कर दिया। मान लो कि उस क्षण उसकी अपनी माँगें होतीं और वह कहता, “मैं अभी नहीं मरना चाहता, मुझे दर्द से डर लगता है। क्या तुम हमारी खातिर सूली पर नहीं लटकाए गए थे? तुम क्यों चाहते हो कि मुझे सूली पर लटकाया जाए? क्या मैं सूली पर लटकने से बच सकता हूँ?” अगर उसने ऐसी माँगें की होतीं तो फिर वह जिस मार्ग पर चला, वह व्यर्थ रहता। किंतु पतरस तो हमेशा ऐसा व्यक्ति रहा जिसने परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसकी इच्छा खोजी, और अंत में वह परमेश्वर की इच्छा समझ गया और उसने पूरी तरह समर्पण कर दिया। अगर पतरस ने परमेश्वर की इच्छा नहीं खोजी होती और अपनी सोच के अनुसार कार्य किया होता तो फिर उसने गलत रास्ता पकड़ लिया होता। लोगों में सीधे परमेश्वर की इच्छा समझने की क्षमता की कमी होती है, लेकिन अगर वे सत्य समझने के बाद भी समर्पण नहीं करते तो फिर वे परमेश्वर को धोखा दे रहे हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं

लोग अपना स्वभाव स्वयं परिवर्तित नहीं कर सकते; उन्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, पीड़ा और शोधन से गुजरना होगा, या उसके वचनों द्वारा अनुशासित और काट-छाँट किया जाना होगा। इन सब के बाद ही वे परमेश्वर के प्रति विश्वसनीयता और समर्पण प्राप्त कर सकते हैं और उसके प्रति बेपरवाह होना बंद कर सकते हैं। परमेश्वर के वचनों के शोधन के द्वारा ही मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन आ सकता है। केवल उसके वचनों के संपर्क में आने से, उनके न्याय, अनुशासन और काट-छाँट से, वे कभी लापरवाह नहीं होंगे, बल्कि शांत और संयमित बनेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे परमेश्वर के मौजूदा वचनों और उसके कार्यों का पालन करने में सक्षम होते हैं, भले ही यह मनुष्य की धारणाओं से परे हो, वे इन धारणाओं को नज़रअंदाज करके अपनी इच्छा से पालन कर सकते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिनके स्वभाव परिवर्तित हो चुके हैं, वे वही लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हैं

वचन द्वारा न्याय और ताड़ना के माध्यम से मनुष्य परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाने की स्थिति में पहुँचता है, और शुद्ध करने, न्याय करने और प्रकट करने के लिए वचन के उपयोग के माध्यम से मनुष्य के हृदय के भीतर की सभी अशुद्धताओं, धारणाओं, प्रयोजनों और व्यक्तिगत आकांक्षाओं को पूरी तरह से प्रकट किया जाता है। ... उदाहरण के लिए, जब लोगों को पता चला कि वे मोआब के वंशज हैं, तो उन्होंने शिकायत के बोल बोलने शुरू कर दिए, जीवन का अनुसरण करना छोड़ दिया, और पूरी तरह से नकारात्मक हो गए। क्या यह इस बात को नहीं दर्शाता कि मानवजाति अभी भी परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन पूरी तरह से समर्पित होने में असमर्थ है? क्या यह ठीक उनका भ्रष्ट शैतानी स्वभाव नहीं है? जब तुम्हें ताड़ना का भागी नहीं बनाया गया था, तो तुम्हारे हाथ अन्य सबके हाथों से ऊँचे उठे हुए थे, यहाँ तक कि यीशु के हाथों से भी ऊँचे। और तुम ऊँची आवाज़ में पुकार रहे थे : “परमेश्वर के प्रिय पुत्र बनो! परमेश्वर के अंतरंग बनो! हम मर जाएँगे, पर शैतान के आगे नहीं झुकेंगे! शैतान के विरुद्ध विद्रोह करो! बड़े लाल अजगर के विरुद्ध विद्रोह करो! बड़ा लाल अजगर दीन-हीन होकर सत्ता से गिर जाए! परमेश्वर हमें पूरा करे!” तुम्हारी पुकार अन्य सबसे ऊँची थीं। किंतु फिर ताड़ना का समय आया और एक बार फिर मनुष्यों का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हुआ। फिर उनकी पुकार बंद हो गई और उनका संकल्प टूट गया। यही मनुष्य की भ्रष्टता है; यह पाप से ज्यादा गहरी है, इसे शैतान द्वारा स्थापित किया गया है और यह मनुष्य के भीतर गहराई से जड़ जमाए हुए है। मनुष्य के लिए अपने पापों से अवगत होना आसान नहीं है; उसके पास अपनी गहरी जमी हुई प्रकृति को पहचानने का कोई उपाय नहीं है, और उसे यह परिणाम प्राप्त करने के लिए वचन के न्याय पर भरोसा करना चाहिए। केवल इसी प्रकार से मनुष्य इस बिंदु से आगे धीरे-धीरे बदल सकता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4)

मनुष्य के स्वभाव में बदलाव अपने सार के ज्ञान से और अपनी सोच, प्रकृति और मानसिक दृष्टिकोण में बदलाव के माध्यम से—मूलभूत परिवर्तनों से शुरू होता है। केवल इसी ढंग से मनुष्य के स्वभाव में सच्चे बदलाव प्राप्त किए जा सकेंगे। मनुष्य में उत्पन्न होने वाले भ्रष्ट स्वभावों का मूल कारण शैतान द्वारा गुमराह किया जाना, उसकी भ्रष्टता और जहर है। मनुष्य को शैतान द्वारा बाँधा और नियंत्रित किया गया है, और शैतान ने उसकी सोच, नैतिकता, अंतर्दृष्टि और समझ को जो गंभीर नुकसान पहुँचाया है, उसे वह भुगतता है। शैतान ने इंसान की मूलभूत चीजों को भ्रष्ट कर दिया है, और वे बिल्कुल भी वैसी नहीं हैं जैसा परमेश्वर ने मूल रूप से उन्हें बनाया था, ठीक इसी वजह से मनुष्य परमेश्वर का विरोध करता है और सत्य को नहीं स्वीकार पाता। इसलिए मनुष्य के स्वभाव में बदलाव उसकी सोच, अंतर्दृष्टि और समझ में बदलाव के साथ शुरू होना चाहिए, जो परमेश्वर और सत्य के बारे में उसके ज्ञान को बदलेगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है

यदि तुम अपने स्वभाव में बदलाव लाना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी प्रकृति जाननी होगी। “कुत्ते की दम टेढ़ी की टेढ़ी रहती है।” यह मत सोचो कि प्रकृति बदली जा सकती है। अगर व्यक्ति की प्रकृति बहुत बुरी है, तो वह कभी नहीं बदलेगा और परमेश्वर उसे नहीं बचाएगा। स्वभाव में परिवर्तन का क्या अर्थ है? यह तब होता है, जब सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए, उसके वचनों के न्याय और उसकी ताड़ना को स्वीकार करता है, और सभी तरह की पीड़ाओं और शोधन का अनुभव करता है। इस तरह का व्यक्ति अपने भीतर के शैतानी विषों से शुद्ध हो जाता है और अपने भ्रष्ट स्वभावों से पूरी तरह मुक्त हो जाता है, जिससे वह परमेश्वर के वचनों, उसके सारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सके और कभी परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह या उसका प्रतिरोध न करे। यह स्वभाव में परिवर्तन है। अगर व्यक्ति की प्रकृति बहुत बुरी है और अगर वह एक बुरा व्यक्ति है, तो परमेश्वर उसे नहीं बचाएगा और पवित्र आत्मा उसके भीतर काम नहीं करेगा। एक अलग तरीके से कहा जाए, तो यह किसी चिकित्सक के रोगी का इलाज करने जैसा है : जिस व्यक्ति को सूजन है, उसका इलाज किया जा सकता है, लेकिन जिस व्यक्ति को कैंसर हो गया है, उसे नहीं बचाया जा सकता। स्वभाव में परिवर्तन का मतलब है कि व्यक्ति, सत्य से प्रेम करने और उसे स्वीकार सकने के कारण, अंततः अपनी परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी और परमेश्वर-विरोधी प्रकृति जान जाता है। वह समझता है कि मनुष्य गहराई से भ्रष्ट हैं, वह मनुष्य के बेतुकेपन और धोखाधड़ी को, और मनुष्य की खराब और दयनीय स्थिति को समझता है, और अंतत: वह मनुष्य की प्रकृति और सार समझ जाता है। यह सब जानकर वह स्वयं को पूरी तरह नकारकर त्यागने, परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने और सभी चीजों में सत्य का अभ्यास में समर्थ हो जाता है। यह ऐसा व्यक्ति होता है, जो परमेश्वर को जानता है और ऐसा व्यक्ति, जिसका स्वभाव बदल चुका है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें

जब तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करते हो, जब तुम्हारे मन में ऐसे विचार और ख्याल आते हैं जो परमेश्वर की अवहेलना करते हैं, जब तुम्हारी स्थितियाँ और दृष्टिकोण ऐसे होते हैं जो परमेश्वर से वाद-विवाद करते हैं, जब तुम्हारी ऐसी स्थिति होती है जहाँ तुम परमेश्वर को गलत समझते हो, या उसका प्रतिरोध और विरोध करते हो, तब परमेश्वर तुम्हें फटकारेगा, तुम्हारा न्याय करेगा और तुम्हें ताड़ना देगा, और वह कभी-कभी तुम्हें अनुशासित और दंडित भी करेगा। तुम्हें अनुशासित करने और फटकारने का क्या उद्देश्य है? (हमसे पश्चात्ताप कराना और हमें बदलना।) बिल्कुल, इसका मकसद तुमसे पश्चात्ताप कराना है। तुम्हें अनुशासित करने और फटकारने का नतीजा यह होता है कि इसके कारण तुम अपना रास्ता बदल देते हो। इसका उद्देश्य तुम्हें यह समझाना है कि तुम्हारे विचार मनुष्य की धारणाएँ हैं, और वे गलत हैं; तुम्हारी प्रेरणाएँ शैतान से पैदा होती हैं, वे मनुष्य की इच्छा से उत्पन्न होती हैं, वे सत्य के अनुरूप नहीं होतीं, वे परमेश्वर से मेल नहीं खातीं, वे परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट नहीं कर सकतीं, वे परमेश्वर के लिए घृणित और कुत्सित हैं, वे उसके क्रोध को भड़काती हैं, यहाँ तक कि उसके शाप को भी जगा देती हैं। इसे समझने के बाद तुम्हें अपनी प्रेरणाएँ और रवैया बदलना पड़ता है। और वे कैसे बदलते हैं? सबसे पहले, तुम्हें परमेश्वर के तुम्हारे साथ व्यवहार करने के तरीके के प्रति, और उन परिवेशों, लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति समर्पित होना चाहिए, जिन्हें वह तुम्हारे लिए निर्धारित करता है; छिद्रान्वेषण मत करो, वस्तुपरक बहाने मत बनाओ, और अपनी जिम्मेदारियों से न भागो। दूसरे, उस सत्य की तलाश करो जिसका लोगों को अभ्यास करना चाहिए, और तब प्रवेश करो जब वह अपना कार्य करता है। परमेश्वर चाहता है कि तुम इन चीजों को समझो। वो चाहता है कि तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों और शैतानी सार को पहचानो, तुम उन परिवेशों के प्रति समर्पण करने योग्य बनो जिनकी परमेश्वर तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है और अंततः, तुम उसकी इच्छा और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास कर सको। तब तुमने परीक्षा पार कर ली होगी। जब तुम परमेश्वर का प्रतिरोध और विरोध करना छोड़ देते हो, तब तुम परमेश्वर से बहस करना बंद कर उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम हो जाओगे। जब परमेश्वर कहता है, “शैतान, मेरे सामने से दूर हो!” तो तुम उत्तर देते हो, “अगर परमेश्वर कहता है मैं शैतान हूँ, तो मैं शैतान हूँ। हालाँकि मुझे समझ में नहीं आता कि मैंने क्या गलत कर दिया या परमेश्वर क्यों कह रहा है कि मैं शैतान हूँ, लेकिन अगर वह चाहता है कि मैं उससे दूर हो जाऊँ, तो मैं हिचकूँगा नहीं। मुझे परमेश्वर की इच्छा खोजनी चाहिए।” परमेश्वर जब कहता है कि तुम्हारे काम की प्रकृति शैतानी है, तो तुम कहते हो, “परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, वह मैं जानता हूँ और सब स्वीकारता हूँ।” यह कैसा रवैया है? यह समर्पण है। क्या यह तब भी समर्पण कहलाएगा जब तुम परमेश्वर की यह बात बेमन से मान तो लेते हो कि तुम दुष्ट और शैतान हो, लेकिन इसे स्वीकार नहीं पाते—और समर्पण नहीं कर पाते—जब वह कहता है कि तुम पशु हो? समर्पण का अर्थ है पूर्ण अनुपालन और स्वीकारोक्ति, न बहस करना और न शर्तें रखना। इसका अर्थ है कारण और प्रभाव का विश्लेषण न करना, फिर चाहे कितने ही वस्तुनिष्ठ कारण हों, और केवल स्वीकारोक्ति से अपना सरोकार रखना। इस तरह का समर्पण पा लेने पर लोग परमेश्वर में सच्ची आस्था के करीब पहुँच जाते हैं। परमेश्वर जितना अधिक कार्य करता है और तुम जितना अधिक अनुभव करते हो, सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता तुम्हारे लिए उतनी ही अधिक वास्तविक होने लगती है, तब परमेश्वर पर तुम्हारा भरोसा उतना ही अधिक बढ़ेगा और तुम्हें उतना ही अधिक महसूस होगा, “परमेश्वर का हर कार्य नेक होता है, उसका कोई कार्य बुरा नहीं होता। मुझे जो अच्छा लगे केवल वही नहीं चुनना चाहिए, बल्कि समर्पण करना चाहिए। मेरा दायित्व, मेरा उत्तरदायित्व, मेरा कर्तव्य है—समर्पण करना। सृजित प्राणी होने के नाते मुझे यह करना चाहिए। अगर मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण भी न कर सकूँ तो फिर मैं क्या हूँ? मैं पशु हूँ, एक दुष्ट हूँ!” क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि अब तुममें सच्ची आस्था है? एक बार जब तुम इस मुकाम पर आ जाओगे, तो तुममें कोई कलुषता न होगी, इसलिए परमेश्वर के लिए तुम्हारा उपयोग करना सरल हो जाएगा और तुम्हारे लिए भी परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण करना आसान हो जाएगा। जब तुम्हारे पास परमेश्वर की स्वीकृति होगी, तो तुम उसका आशीष भी पा सकोगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सच्चे समर्पण से ही व्यक्ति असली भरोसा रख सकता है

यद्यपि लोगों की प्रकृति बदलना आसान नहीं है, अगर वे अपने द्वारा प्रकट भ्रष्ट स्वभाव को पहचान और समझ सकते हैं, और अगर वे इनका निराकरण करने के लिए सत्य खोज सकते हैं, तो फिर वे धीरे-धीरे अपने स्वभाव बदल सकते हैं। एक बार व्यक्ति अपने जीवन स्वभाव में बदलाव ले आए तो फिर उसमें परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाली चीजें कम होती जाएँगी। मनुष्य की प्रकृति का विश्लेषण करने का उद्देश्य उसका स्वभाव बदलना है। तुम लोग इस उद्देश्य को नहीं समझे हो, और सोचते हो कि महज अपनी प्रकृति का विश्लेषण करने और इसे समझ लेने से परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हो और अपनी तर्कबुद्धि को बहाल कर सकते तो। तुम लोग बस नियमों को बिना सोचे-समझे लागू करते हो! ऐसा क्यों है कि मैं लोगों के अहंकार और आत्म-तुष्टता को सीधे उजागर नहीं कर देता? मुझे उनकी भ्रष्ट प्रकृति का भी विश्लेषण क्यों करना पड़ता है? अगर मैं सिर्फ उनके अहंकार और उनकी आत्म-तुष्टता को उजागर करूँगा तो समस्या का समाधान नहीं होगा। लेकिन, अगर मैं उनकी प्रकृति का विश्लेषण करूँ, तो इसमें शामिल पहलू बहुत व्यापक हैं और इसमें हर प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव शामिल है। यह आत्म-तुष्टता, आत्म-महत्व और अहंकार के संकीर्ण दायरे से कहीं व्यापक है। प्रकृति में इससे ज्यादा चीजें शामिल होती हैं। इसलिए लोगों के लिए यह पहचानना अच्छा रहेगा कि परमेश्वर से विभिन्न माँगें करते हुए, अर्थात, अपनी असंयत इच्छाओं में, वे कितने प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हैं। एक बार लोग अपने प्रकृति सार को समझ लेंगे तो फिर वे खुद से नफरत और तिरस्कार कर सकते हैं; उनके लिए अपने भ्रष्ट स्वभावों का निराकरण करना आसान हो जाएगा, और उनके पास एक रास्ता होगा। अन्यथा, तुम लोग कभी भी मूल कारण नहीं खोज पाओगे, और यही कहोगे कि यह आत्म-तुष्टता, अहंकार या घमंड होना या बिल्कुल भी वफादारी का न होना है। क्या केवल ऐसी सतही बातें करने से तुम्हारी समस्या का समाधान हो सकता है? क्या मनुष्य की प्रकृति पर चर्चा करने की कोई जरूरत है? शुरुआत में आदम और हव्वा की प्रकृति क्या थी? उनमें कोई इरादतन प्रतिरोध नहीं था, खुला विश्वासघात तो बिल्कुल भी नहीं था। वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर का प्रतिरोध करने के क्या मायने हैं, और वे उसके प्रति समर्पण करने के मायने तो बिल्कुल भी नहीं जानते थे। शैतान ने जो कुछ फैलाया, उन्होंने उसे आत्मसात कर लिया। अब शैतान ने मानवजाति को इस हद तक भ्रष्ट कर दिया है कि लोग हर चीज में परमेश्वर से विद्रोह और उसका विरोध कर सकते हैं, और उसका विरोध करने के लिए हर तरीका सोच सकते हैं। यह स्पष्ट है कि मनुष्य की प्रकृति शैतान के समान ही है। मैं क्यों कहता हूँ कि मनुष्य की प्रकृति शैतान की प्रकृति है? शैतान वह है जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है और चूँकि लोगों की प्रकृति शैतानी है, वे शैतान के हैं। लोग शायद जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले कार्य न करें, लेकिन अपनी शैतानी प्रकृति के कारण उनके सभी विचार परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। भले ही लोग कुछ न करें, फिर भी वे परमेश्वर का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि मनुष्य का आंतरिक सार बदलकर कुछ ऐसा हो गया है जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। इसलिए, वर्तमान मनुष्य नव-सृजित मनुष्य से भिन्न है। पहले लोगों के भीतर प्रतिरोध या विश्वासघात की भावना नहीं थी, वे जीवंत हुआ करते थे और किसी शैतानी प्रकृति से संचालित नहीं होते थे। अगर लोगों के भीतर शैतानी प्रकृति का वर्चस्व या बाधा नहीं है, तो वे चाहे जो करें, इसे परमेश्वर का प्रतिरोध करना नहीं माना जा सकता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं

यदि लोगों का स्वयं के बारे में ज्ञान बहुत उथला है, तो समस्याओं को हल करना उनके लिए असंभव होगा, और उसका जीवन स्वभाव नहीं बदलेगा। स्वयं को एक गहरे स्तर पर जानना आवश्यक है, जिसका अर्थ है कि अपनी स्वयं की प्रकृति को जानना : उस प्रकृति में कौन से तत्व शामिल हैं, ये कैसे पैदा हुए और वे कहाँ से आये। इसके अलावा, क्या तुम इन चीजों से वास्तव में घृणा कर पाते हो? क्या तुमने अपनी स्वयं की कुरूप आत्मा और अपनी बुरी प्रकृति को देखा है? यदि तुम सच में सही अर्थों में स्वयं के बारे में सत्य को देख पाओगे, तो तुम स्वयं से घृणा करोगे। जब तुम स्वयं से घृणा करते हो और फिर परमेश्वर के वचन का अभ्यास करते हो, तो तुम देह को त्यागने में सक्षम हो जाओगे और इसे श्रमसाध्य समझे बिना तुम्हारे अंदर सत्य को कार्यान्वित करने की शक्ति होगी। क्यों कई लोग अपनी दैहिक प्राथमिकताओं का अनुसरण करते हैं? क्योंकि वे स्वयं को बहुत अच्छा मानते हैं, उन्हें लगता है कि उनके कार्यकलाप सही और न्यायोचित हैं, कि उनमें कोई दोष नहीं है, और यहाँ तक कि वे पूरी तरह से सही हैं, इसलिए वे इस धारणा के साथ कार्य करने में समर्थ हैं कि न्याय उनके पक्ष में है। जब कोई यह जान लेता है कि उसकी असली प्रकृति क्या है—कितना कुरूप, कितना घृणित और कितना दयनीय है—तो फिर वह स्वयं पर बहुत गर्व नहीं करता है, उतना बेतहाशा अहंकारी नहीं होता है, और स्वयं से उतना प्रसन्न नहीं होता है जितना वह पहले होता था। ऐसा व्यक्ति महसूस करता है, कि "मुझे ईमानदार और व्यवहारिक बनकर परमेश्वर के कुछ वचनों का अभ्यास करना चाहिए। यदि नहीं, तो मैं इंसान होने के स्तर के बराबर नहीं होऊँगा, और परमेश्वर की उपस्थिति में रहने में शर्मिंदा होऊँगा।" तब कोई वास्तव में अपने आपको क्षुद्र के रूप में, वास्तव में महत्वहीन के रूप में देखता है। इस समय, उसके लिए सच्चाई का पालन करना आसान होता है, और वह थोड़ा-थोड़ा ऐसा दिखाई देता है जैसा कि किसी इंसान को होना चाहिए। जब लोग वास्तव में स्वयं से घृणा करते हैं केवल तभी वे शरीर को त्याग पाते हैं। यदि वे स्वयं से घृणा नहीं करते हैं, तो वे देह को नहीं त्याग पाएँगे। स्वयं से घृणा करना कोई मामूली बात नहीं है। उसमें बहुत-सी बातें होनी अनिवार्य हैं : सबसे पहले, अपने स्वयं के स्वभाव को जानना; और दूसरा, स्वयं को अभावग्रस्त और दयनीय के रूप में समझना, स्वयं को अति तुच्छ और महत्वहीन समझना, और स्वयं की दयनीय और गंदी आत्मा को समझना। जब कोई पूरी तरह से देखता है कि वह वास्तव में क्या है, और यह परिणाम प्राप्त हो जाता है, तब वह स्वयं के बारे में वास्तव में ज्ञान प्राप्त करता है, और ऐसा कहा जा सकता है कि किसी ने अपने आपको पूरी तरह से जान लिया है। केवल तभी कोई स्वयं से वास्तव में घृणा कर सकता है, इतना कि स्वयं को शाप दे, और वास्तव में महसूस करे कि उसे शैतान के द्वारा अत्यधिक गहराई तक भ्रष्ट किया गया है इस तरह से कि वह अब इंसान के समान नहीं है। तब एक दिन, जब मृत्यु का भय दिखाई देगा, तो ऐसा व्यक्ति महसूस करेगा, "यह परमेश्वर की धार्मिक सजा है; परमेश्वर वास्तव में धार्मिक है; मुझे वास्तव में मर जाना चाहिए!" इस बिन्दु पर, वह कोई शिकायत दर्ज नहीं करेगा, परमेश्वर को दोष देने की तो बात ही दूर है, वह बस यही महसूस करेगा कि वह बहुत ज़रूरतमंद और दयनीय है, वो इतना गंदा है कि उसे परमेश्वर द्वारा त्याग दिया और नष्ट कर दिया जाना चाहिए, और उसके जैसी आत्मा पृथ्वी पर रहने के योग्य नहीं है। इसलिए, यह व्यक्ति परमेश्वर की शिकायत या उसका विरोध नहीं करेगा, परमेश्वर के साथ विश्वासघात तो बिल्कुल नहीं करेगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

मैं तुम लोगों से प्रशासनिक आज्ञाओं के विषय की बेहतर समझ हासिल करने और परमेश्वर के स्वभाव को जानने का प्रयास करने का आग्रह करता हूँ। अन्यथा, तुम लोग अपनी जबान बंद नहीं रख पाओगे और बड़ी-बड़ी बातें करोगे, तुम अनजाने में परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करके अंधकार में जा गिरोगे और पवित्र आत्मा एवं प्रकाश की उपस्थिति को गँवा दोगे। चूँकि तुम्हारे काम के कोई सिद्धांत नहीं हैं, तुम्हें जो नहीं करना चाहिए वह करते हो, जो नहीं बोलना चाहिए वह बोलते हो, इसलिए तुम्हें यथोचित दंड मिलेगा। तुम्हें पता होना चाहिए कि, हालाँकि कथन और कर्म में तुम्हारे कोई सिद्धांत नहीं हैं, लेकिन परमेश्वर इन दोनों बातों में अत्यंत सिद्धांतवादी है। तुम्हें दंड मिलने का कारण यह है कि तुमने परमेश्वर का अपमान किया है, किसी इंसान का नहीं। यदि जीवन में बार-बार तुम परमेश्वर के स्वभाव के विरुद्ध अपराध करते हो, तो तुम नरक की संतान ही बनोगे। इंसान को ऐसा प्रतीत हो सकता है कि तुमने कुछ ही कर्म तो ऐसे किए हैं जो सत्य के अनुरूप नहीं हैं, और इससे अधिक कुछ नहीं। लेकिन क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर की निगाह में, तुम पहले ही एक ऐसे इंसान हो जिसके लिए अब पाप करने की कोई और छूट नहीं बची है? क्योंकि तुमने एक से अधिक बार परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं का उल्लंघन किया है और फिर तुममें पश्चाताप के कोई लक्षण भी नहीं दिखते, इसलिए तुम्हारे पास नरक में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है, जहाँ परमेश्वर इंसान को दंड देता है। परमेश्वर का अनुसरण करते समय, कुछ थोड़े-से लोगों ने कुछ ऐसे कर्म कर दिए जिनसे सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ, लेकिन काट-छाँट और मार्गदर्शन के बाद, उन्होंने धीरे-धीरे अपनी भ्रष्टता का अहसास किया, उसके बाद वास्तविकता के सही मार्ग में प्रवेश किया, और आज तक यथार्थवादी हैं। वे ऐसे लोग हैं जो अंत तक बने रहेंगे। मुझे ईमानदार इंसान की तलाश है; यदि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो और सिद्धांत के अनुसार कार्य करते हो, तो तुम परमेश्वर के विश्वासपात्र हो सकते हो। यदि अपने कामों से तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान नहीं करते, तुम परमेश्वर की इच्छा की खोज करते हो और तुममें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है, तो तुम्हारी आस्था मानक के अनुरूप है। जो भी व्यक्ति परमेश्वर का भय नहीं मानता, और उसका हृदय डर से नहीं काँपता, तो इस बात की प्रबल संभावना है कि वह परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं का उल्लंघन करेगा। बहुत-से लोग अपनी तीव्र भावना के बल पर परमेश्वर की सेवा तो करते हैं, लेकिन उन्हें परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं की कोई समझ नहीं होती, उसके वचनों में छिपे अर्थों का तो उन्हें कोई भान तक नहीं होता। इसलिए, नेक इरादों के बावजूद वे प्रायः ऐसे काम कर बैठते हैं जिनसे परमेश्वर के प्रबंधन में विघ्न पहुँचता है। गंभीर मामलों में, उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है, आगे से परमेश्वर का अनुसरण करने के किसी भी अवसर से वंचित कर दिया जाता है, नरक में फेंक दिया जाता है और परमेश्वर के घर के साथ उनके सभी संबंध समाप्त हो जाते हैं। ये लोग अपने नादान नेक इरादों की शक्ति के आधार पर परमेश्वर के घर में काम करते हैं, और अंत में परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित कर बैठते हैं। लोग अधिकारियों और स्वामियों की सेवा करने के अपने तरीकों को परमेश्वर के घर में ले आते हैं, और व्यर्थ में यह सोचते हुए कि ऐसे तरीकों को यहाँ आसानी से लागू किया जा सकता है, उन्हें उपयोग में लाने की कोशिश करते हैं। उन्हें यह पता नहीं होता कि परमेश्वर का स्वभाव किसी मेमने का नहीं बल्कि एक सिंह का स्वभाव है। इसलिए, जो लोग पहली बार परमेश्वर से जुड़ते हैं, वे उससे संवाद नहीं कर पाते, क्योंकि परमेश्वर का हृदय इंसान की तरह नहीं है। जब तुम बहुत-से सत्य समझ जाते हो, तभी तुम परमेश्वर को निरंतर जान पाते हो। यह ज्ञान शब्दों या धर्म सिद्धांतों से नहीं बनता, बल्कि इसे एक खज़ाने के रूप में उपयोग किया जा सकता है जिससे तुम परमेश्वर के साथ गहरा विश्वास पैदा कर सकते हो और इसे एक प्रमाण के रूप में उपयोग सकते हो कि वह तुमसे प्रसन्न होता है। यदि तुममें ज्ञान की वास्तविकता का अभाव है और तुम सत्य से युक्त नहीं हो, तो मनोवेग में की गई तुम्हारी सेवा से परमेश्वर सिर्फ तुमसे घृणा और ग्लानि ही करेगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ

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