31. मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने की समस्या का समाधान कैसे करें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
तुम्हें मसीह-विरोधियों को स्पष्ट रूप से देखना और सही ढंग से पहचानना चाहिए। तुम्हें पता होना चाहिए कि मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों का भेद कैसे पहचानना है और, साथ ही, तुम्हें स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए कि तुम्हारे प्रकृति सार में ऐसी कई चीजें हैं जो मसीह-विरोधियों के समान हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम सभी उस मानवजाति से संबंधित हो जिसे शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है, और एकमात्र अंतर यह है कि मसीह-विरोधी पूरी तरह से शैतान के नियंत्रण में हैं, और वे शैतान के साथी बन गए हैं और उसकी तरफ से बोलते हैं। तुम भी भ्रष्ट मानवजाति से संबंधित हो, लेकिन तुम सत्य स्वीकारने में समर्थ हो और तुम्हें उद्धार प्राप्त होने की उम्मीद है। हालाँकि, सार की दृष्टि से ऐसी कई चीजें हैं जो तुम्हारे और मसीह-विरोधियों में समान हैं, और तुम्हारे तरीके और एजेंडे भी एक जैसे हैं। बात केवल इतनी है कि एक बार जब तुमने सत्य को सुन लिया और धर्मोपदेशों को सुन लिया, तो तुम अपना मार्ग बदलने में सक्षम हो जाते हो, और मार्ग बदलने में सक्षम होना यह निर्धारित करता है कि तुम्हें उद्धार प्राप्त होने की उम्मीद है—तुम में और मसीह-विरोधियों के बीच यही अंतर है। इसलिए, जब मैं मसीह-विरोधियों को उजागर कर रहा हूँ, तो तुम्हें भी तुलना करनी चाहिए और पहचानना चाहिए कि तुम्हारे और मसीह-विरोधियों में कौन सी चीजें समान हैं, और कौन सी अभिव्यक्तियाँ, स्वभाव, और सार के पहलू तुम उनके साथ साझा करते हो। ऐसा करके, तब क्या तुम खुद को बेहतर ढंग से जान नहीं पाओगे? यह मानते हुए कि तुम मसीह-विरोधी नहीं हो, यदि तुम हमेशा विरोधी भावना रखते हो, मसीह-विरोधियों के प्रति अत्यधिक घृणा महसूस करते हो, और यह तुलना करने या आत्मचिंतन करने और यह समझने को इच्छुक नहीं हो कि तुम किस मार्ग का अनुसरण कर रहे हो, तो इसका परिणाम क्या होगा? शैतानी स्वभाव के साथ, तुम्हारे मसीह-विरोधी बनने की बहुत अधिक संभावना है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कोई भी मसीह-विरोधी जानबूझकर मसीह-विरोधी बनने की कोशिश नहीं करता, और फिर बन जाता है; ऐसा इसलिए है क्योंकि वह सत्य का अनुसरण नहीं करता और इस तरह आखिर में वह मसीह-विरोधी के मार्ग का अनुसरण करता है। क्या इस धार्मिक दुनिया में वे सभी लोग जो सत्य से प्रेम नहीं करते, मसीह-विरोधी नहीं हैं? वो हरेक व्यक्ति मसीह-विरोधी है जो अपने प्रकृति सार पर चिंतन नहीं करता और उसे नहीं समझ पाता, और जो अपनी धारणााओं और कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर में विश्वास करता है। एक बार जब तुम मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल पड़ते हो, रुतबा प्राप्त कर लेते हो, और इस तथ्य के साथ कि तुम्हारे पास कुछ खूबियाँ और सीख भी हैं, और हर कोई तुम्हारी प्रशंसा करता है, तो जैसे-जैसे तुम्हारे काम करने का समय बढ़ता जाता है, तुम्हारे लिए लोगों के दिलों में जगह बनती चली जाती है। तुम जिस काम के लिए जिम्मेदार हो जब उसका दायरा बढ़ता है तो तुम अधिकाधिक लोगों की अगुआई करने लगते हो, तुम्हें अधिकाधिक पूंजी प्राप्त होने लगती है, और तब तुम सच्चे पौलुस बन जाते हो। क्या यह सब तुम पर निर्भर नहीं है? इस मार्ग का अनुसरण करने की तुम्हारी कोई योजना नहीं थी, लेकिन कैसे तुम अनजाने में मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल पड़े? इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि यदि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो, तो तुम निश्चित रूप से रुतबे और प्रतिष्ठा का अनुसरण करोगे, तुम अपने ही काम में लगे रहोगे, आखिरकार इसके बारे में कोई जानकारी हुए बिना, तुम एक मसीह-विरोधी के मार्ग का अनुसरण कर रहे होगे। यदि मसीह-विरोधी के मार्ग का अनुसरण करने वाले लोग समय रहते नहीं बदलते हैं, और जब उन्हें रुतबा हासिल हो जाता है तो काफी संभव है कि वे मसीह-विरोधी बन जाएँ—यह परिणाम अपरिहार्य है। यदि उन्हें यह मामला स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देता है, तो वे खतरे में पड़ जाते हैं, क्योंकि हरेक के पास भ्रष्ट स्वभाव हैं और हरेक को प्रतिष्ठा और रुतबे से प्रेम होता है, यदि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, तो प्रतिष्ठा और रुतबे के कारण उनके गिरने की ज्यादा संभावना है। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बिना, हरेक व्यक्ति मसीह-विरोधी के मार्ग का अनुसरण करेगा तथा प्रतिष्ठा और रुतबे के कारण गिरेगा, और यह ऐसी बात है जिसे कोई नकार नहीं सकता। तुम्हारा कहना है, “मुझमें केवल यदा-कदा ये खुलासे होते हैं, वे बस अस्थायी अभिव्यक्तियाँ हैं। भले ही मुझमें भी वही सार है जैसा मसीह-विरोधियों में होता है, फिर भी मैं मसीह-विरोधियों से अलग हूँ क्योंकि मेरी उनके जैसी बड़ी महत्वाकांक्षाएँ नहीं हैं। इसके अलावा, जब मैं अपना कर्तव्य निभा रहा होता हूँ, तो लगातार आत्मचिंतन करता हूँ, पछतावा महसूस करता हूँ, सत्य की तलाश करता हूँ, और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता हूँ। मेरे व्यवहार को देखा जाए, तो मैं मसीह-विरोधी नहीं हूँ और मैं बनना भी नहीं चाहता, इसलिए मैं संभवतः मसीह-विरोधी नहीं बन सकता।” शायद तुम अभी मसीह-विरोधी नहीं हो, लेकिन क्या तुम सुनिश्चित कर सकते हो कि तुम मसीह-विरोधी के मार्ग का अनुसरण नहीं करोगे और मसीह-विरोधी नहीं बनोगे? क्या तुम ऐसी गारंटी दे सकते हो? नहीं, तुम गारंटी नहीं दे सकते। तो तुम ऐसी गारंटी कैसे दे सकते हो? इसका एकमात्र तरीका सत्य का अनुसरण करना है। तब तुम सत्य का अनुसरण कैसे करोगे? क्या तुम्हारे पास ऐसा करने का कोई तरीका है? सबसे पहले, तुम्हें इस तथ्य को स्वीकारना चाहिए कि तुम मसीह-विरोधियों के जैसा ही स्वभाव सार साझा करते हो। भले ही तुम अभी मसीह-विरोधी नहीं हो, तुम्हारे लिए, सबसे घातक और खतरनाक चीज क्या है? वो यह है कि तुम्हारा प्रकृति सार मसीह-विरोधियों के जैसा है। क्या यह तुम्हारे लिए अच्छी बात है? (नहीं।) बिल्कुल भी नहीं। यह तुम्हारे लिए घातक है। इसलिए, जब तुम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों को उजागर करने वाले इन धर्मोपदेशों को सुन रहे हो, तो ऐसा मत सोचो कि इन चीजों का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है; यह गलत रवैया है। तो फिर, इन तथ्यों और अभिव्यक्तियों को स्वीकारने के लिए तुम्हारा किस प्रकार का रवैया होना चाहिए? उनसे अपनी तुलना करो, और स्वीकारो कि तुम में मसीह-विरोधी का प्रकृति सार है, और फिर अपनी परख करके पता लगाओ कि तुम्हारी कौन सी अभिव्यक्तियाँ और खुलासे मसीह-विरोधियों के समान हैं। सबसे पहले, इस तथ्य को स्वीकारो—स्वांग मत रचाओ या घुमा-फिराकर कहने की कोशिश ना करो। तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वो मसीह-विरोधी का मार्ग है, इसलिए यह कहना तथ्यों के अनुसार है कि तुम एक मसीह-विरोधी हो; बात सिर्फ इतनी है कि परमेश्वर के घर ने अभी तक तुम्हें इस रूप में परिभाषित नहीं किया है और बस तुम्हें पश्चात्ताप करने का अवसर दे रहा है। क्या तुम्हें बात समझ आती है? सबसे पहले, इस तथ्य को स्वीकारो और मान लो, और फिर तुम्हें जो करना है वह यह है कि तुम परमेश्वर के समक्ष आओ और उससे अनुशासित होने और तुम्हें नियंत्रण में रखने के लिए कहो। परमेश्वर की उपस्थिति के प्रकाश से दूर मत जाओ या उसका संरक्षण मत छोड़ो, और इस तरह से जब तुम कुछ करोगे तो तुम्हारा जमीर और विवेक तुम्हें नियंत्रण में रखेगा, और तुम्हारे पास परमेश्वर के वचन भी होंगे जो तुम्हें रोशन करेंगे, तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे, और तुम्हें नियंत्रण में रखेंगे। इसके अलावा, तुम्हारे पास पवित्रात्मा का काम भी होगा जो तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, तुम्हारे आसपास के लोगों, घटनाओं, और चीजों को तुम्हारे लिए चेतावनी के रूप में व्यवस्थित करेगा और तुम्हें अनुशासित करेगा। परमेश्वर तुम्हें कैसे चेतावनी देता है? परमेश्वर कई तरीकों से काम करता है। कभी-कभी, परमेश्वर तुम्हारे दिल में एक स्पष्ट भावना उत्पन्न करेगा, जिससे तुम स्पष्ट रूप से महसूस कर सकोगे कि तुम्हें नियंत्रित रखने की आवश्यकता है, तुम स्वेच्छा से कार्य नहीं कर सकते, यदि तुम गलत काम करोगे तो तुम परमेश्वर को शर्मिंदा करोगे और स्वयं को मूर्ख बनाओगे, और इसलिए तुम स्वयं को नियंत्रित करो। क्या इस तरह परमेश्वर तुम्हारी रक्षा नहीं कर रहा है? यह एक तरीका है। कभी-कभी, परमेश्वर तुम्हारे अंतरतम से घिक्कारेगा और तुम्हें साफ-साफ शब्दों में बताएगा कि इस तरह से कार्य करना शर्मनाक है, वह इससे घृणा करता है, यह अभिशप्त है, अर्थात्, वह तुम्हें घिक्कारने के लिए साफ-साफ शब्दों का उपयोग करता है ताकि तुम स्वयं से अपनी तुलना करो। इस तरह से तुम्हें घिक्कारने में परमेश्वर का उद्देश्य क्या है? वह ऐसा तुम्हारे जमीर को कुछ महसूस कराने के लिए करता है, और जब तुम्हें कुछ महसूस होता है, तो तुम उसके प्रभाव, परिणामों और अपनी शर्म की भावना पर विचार करोगे, और तुम अपने क्रियाकलापों और व्यवहारों में कुछ संयम बरतोगे। एक बार जब तुम्हारे पास ऐसे कई अनुभव हो जाएंगे, तो तुम पाओगे कि भले ही ये भ्रष्ट स्वभाव लोगों के अंदर गहरी जड़ें जमा चुके हैं, जब लोग सत्य को स्वीकारने में सक्षम हो जाते हैं और अपने भ्रष्ट स्वभावों की सच्चाई को स्पष्ट रूप से देख पाते हैं, तो वे जानबूझकर अपनी दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं; जब लोग सत्य को व्यवहार में लाने में सक्षम हो जाते हैं, तो उनका शैतानी स्वभाव शुद्ध हो जाता है और बदल जाता है। मनुष्य का शैतानी स्वभाव अविनाशी या अपरिवर्तनीय नहीं है—जब तुम सत्य को स्वीकारने और सत्य को व्यवहार में लाने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम्हारा शैतानी स्वभाव स्वाभाविक रूप से समाप्त हो जाएगा और बदल जाएगा। एक बार जब तुम यह अनुभव कर लोगे कि सत्य को व्यवहार में लाना कितना मधुर है, तो तुम सोचने लगोगे कि, “मैं पहले कितना बेशर्म था। दूसरों से अपनी आराधना करवाने के लिए चाहे मैंने कितने भी बेबाक शब्द कहे हों या मैंने अपनी कितनी भी बड़ाई की हो, मुझे कोई शर्म महसूस नहीं हुई और बाद में मुझे कोई होश नहीं रहा। अब मुझे लगता है कि उस तरह से काम करना गलत था और मैंने अपनी प्रतिष्ठा खो दी है, और ऐसा लगता है जैसे बहुत सी निगाहें मुझे घूर रही हैं।” यह परमेश्वर का कर्म है। वह तुम्हें एक एहसास देता है, और तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुम खुद को धिक्कार रहे हो, और फिर तुम बुराई नहीं करोगे या अपने मार्ग पर नहीं टिकोगे। अनजाने में, अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने के तुम्हारे तरीके कम होते जाते हैं, तुम लगातार आत्म-संयम बरतने लगते हो, और तुम्हें अधिकाधिक यह महसूस होता है कि इस तरह से कार्य करने से तुम्हारा दिल सहज होता है और तुम्हारी अंतरात्मा शांत होती है—यह प्रकाश में रहना है, और अब तनाव में रहने या स्वयं को छिपाने के लिए झूठे या मधुर शब्दों का उपयोग करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अतीत में, तुम अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए हर दिन झूठ बोलते थे और झूठ बोलते रहते थे। हर बार जब तुम झूठ बोलते थे, तो तुम्हें इस डर से उस झूठ को बोलते रहना पड़ता था कि कहीं तुम्हारा पर्दाफाश ना हो जाए। इसका नतीजा यह हुआ कि तुमने ज्यादा से ज्यादा झूठ बोला, और बाद में तुम्हें अपने झूठ को बोलते रहने के लिए बहुत प्रयास करना पड़ा और अपना दिमाग खपाना पड़ा; तुम एक ऐसा जीवन जी रहे थे जो न तो मनुष्यों जैसा था और न ही राक्षसों जैसा, और बहुत थकाऊ था! अब, तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनना चाहते हो, और तुम अपना दिल खोलकर ऐसी बातें बोल सकते हो जो वास्तविक हों। तुम्हें हर दिन झूठ बोलने और झूठ बोलते रहने की कोई ज़रूरत नहीं है, तुम अब झूठ बोलने को लेकर विवश नहीं हो, तुम बहुत कम कष्ट उठाते हो, तुम एक ऐसा जीवन जीते हो जो बहुत ही निश्चिंत, स्वतंत्र और मुक्त होता जा रहा है, अपने अंतरमन में तुम शांति और खुशी की भावनाओं का आनंद लेते हो—तुम इस जीवन की मिठास का स्वाद चख रहे हो। और जब तुम इस जीवन की मिठास का स्वाद चख रहे होते हो, तो तुम्हारी आंतरिक दुनिया अब धोखेबाज़, दुष्ट या झूठी नहीं रह जाती। इसके बजाय, अब तुम परमेश्वर के सामने आने के इच्छुक हो, जब तुम्हें कोई समस्या होती है तो तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो और सत्य की तलाश करते हो, जब तुम्हें कोई समस्या होती है तो तुम दूसरों के साथ इस पर चर्चा करने में सक्षम होते हो, और अब तुम एकतरफा या मनमाने ढंग से कार्य नहीं करते। तुम्हें अधिक से अधिक यह महसूस होने लगता है कि जिस तरह से तुम काम करते थे वह घृणित था और अब तुम उस तरह से काम नहीं करना चाहते। इसके बजाय, तुम सत्य, सूझ-बूझ और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप काम करते हो; तुम्हारे काम करने का तरीका बदल गया है। जब तुम इन चीजों को हासिल करने में सक्षम हो जाते हो, तो क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम मसीह-विरोधी के मार्ग से हट गए हो? और जब तुम मसीह-विरोधी के मार्ग से हट गए हो, तो क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम उद्धार पाने के मार्ग पर चल पड़े हो? जब तुम उद्धार पाने के मार्ग पर चल पड़े हो और अक्सर परमेश्वर के सामने आते हो, तो तुम्हारा रवैया, इरादा, परिप्रेक्ष्य, तुम्हारे जीवन के लक्ष्य और जीवन की दिशा अब परमेश्वर के विरोध में नहीं रहती, तुम सकारात्मक चीजों से प्यार करने लगते हो, और तुम निष्पक्षता, धार्मिकता और सच्चाई से प्यार करने लगते हो। जब ऐसा होता है, तो तुम्हारा अंतरमन और विचार बदलने लगते हैं। जब तुम उद्धार पाने के मार्ग पर चल पड़े हो, तो क्या तुम अब भी मसीह-विरोधी बन सकते हो? क्या तुम अब भी जानबूझकर परमेश्वर का विरोध कर सकते हो? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते, और तुम अब खतरे से बाहर हो। केवल इस स्थिति में प्रवेश करने पर ही लोग परमेश्वर में आस्था के सही मार्ग पर आ सकेंगे, और केवल इस तरह से सत्य की तलाश करके और उसे स्वीकार करके ही वे अपनी शैतानी प्रकृति और मसीह-विरोधी प्रकृति के कारण उत्पन्न परेशानियों, नियंत्रण और अशांति को दूर कर सकेंगे।
—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं
उनके मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने की समस्या का समाधान कैसे किया जा सकता है? (एक ओर, उन्हें इस मामले को समझना होगा, और जब वे रुतबा पाने की कोशिश करने वाले विचार प्रकट करें, तो उन्हें प्रार्थना के लिए परमेश्वर के सामने आना होगा। इसके अलावा, उन्हें भाई-बहनों के सामने दिल खोलकर अपनी बात कहनी होगी और होशोहवास में इन गलत विचारों के खिलाफ विद्रोह करना होगा। उन्हें परमेश्वर से उनका न्याय करने, उन्हें दंडित करने, उन्हें काटने-छाँटने और अनुशासित करने के लिए भी कहना होगा। तभी वे सही मार्ग पर चल पाएँगे।) यह काफी अच्छा जवाब है। हालाँकि, ऐसा करना आसान नहीं है, और यह उन लोगों के लिए और भी ज्यादा कठिन है जो प्रतिष्ठा और रुतबे से बेहद प्यार करते हैं। प्रतिष्ठा और रुतबे को छोड़ना आसान नहीं है—यह लोगों के सत्य का अनुसरण करने पर निर्भर करता है। केवल सत्य समझकर ही व्यक्ति खुद को जान सकता है, शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे दौड़ने का खोखलापन स्पष्ट रूप से देख सकता है और मानवजाति की भ्रष्टता का सत्य साफ तौर पर देख सकता है। जब व्यक्ति वास्तव में खुद को जान लेता है केवल तभी वह रुतबे और प्रतिष्ठा को त्याग सकता है। अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग पाना आसान नहीं है। अगर तुम पहचान गए हो कि तुममें सत्य की कमी है, तुम कमियों से घिरे हो और बहुत अधिक भ्रष्टता प्रकट करते हो, फिर भी तुम सत्य का अनुसरण करने का कोई प्रयास नहीं करते और छद्मवेश धारण करके पाखंड में लिप्त होते हो, इससे लोगों को विश्वास दिलाते हो कि तुम कुछ भी कर सकते हो, तो यह तुम्हें खतरे में डाल देगा और देर-सवेर एक ऐसा समय आएगा जब तुम्हारे आगे का रास्ता बंद हो जाएगा और तुम गिर जाओगे। तुम्हें स्वीकारना चाहिए कि तुम्हारे पास सत्य नहीं है, और पर्याप्त बहादुरी से वास्तविकता का सामना करना चाहिए। तुममें कमजोरी है, तुम भ्रष्टता प्रकट करते हो और हर तरह की कमियों से घिरे हो। यह सामान्य है, क्योंकि तुम एक सामान्य व्यक्ति हो, तुम अलौकिक या सर्वशक्तिमान नहीं हो, और तुम्हें यह पहचानना चाहिए। जब दूसरे लोग तुम्हारा तिरस्कार या उपहास करें, तो इसलिए तुरंत चिढ़कर प्रतिक्रिया मत दो, क्योंकि वे जो कहते हैं वह अप्रिय है, या इसलिए इसका प्रतिरोध मत करो क्योंकि तुम खुद को सक्षम और परिपूर्ण मानते हो—ऐसी बातों के प्रति तुम्हारा रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए। तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए? तुम्हें अपने आपसे कहना चाहिए, “मेरे अंदर दोष हैं, मेरी हर चीज भ्रष्ट और दोषपूर्ण है और मैं एक साधारण-सा व्यक्ति हूँ। उनके द्वारा मेरा तिरस्कार और उपहास किए जाने के बावजूद, क्या इसमें कोई सच्चाई है? अगर वे जो कहते हैं उसका थोड़ा-सा हिस्सा भी सच है, तो मुझे इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार कर लेना चाहिए।” अगर तुम्हारा ऐसा रवैया है, तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम रुतबे, प्रतिष्ठा और अपने बारे में दूसरे लोगों की राय को सही तरीके से संभालने में सक्षम हो। रुतबे और प्रतिष्ठा को आसानी से दरकिनार नहीं किया जाता। उन लोगों के लिए तो इन चीजों को अलग रखना और भी मुश्किल है, जो कुछ हद तक प्रतिभाशाली होते हैं, जिनमें थोड़ी-बहुत क्षमता होती है या जो कुछ कार्य-अनुभव रखते हैं। भले ही वे कभी-कभी उन्हें दरकिनार करने का दावा करें, मगर वे अपने दिलों में ऐसा नहीं कर सकते। जैसे ही अनुकूल परिस्थिति आएगी और उन्हें अवसर मिलेगा, वे पहले की तरह शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे दौड़ने लगेंगे, क्योंकि सभी भ्रष्ट मनुष्य इन चीजों से प्यार करते हैं, बस जिनके पास खूबियाँ या प्रतिभाएँ नहीं हैं, उनमें रुतबे के पीछे दौड़ने की थोड़ी कम इच्छा होती है। जिनके पास भी ज्ञान, प्रतिभा, सुंदरता और विशेष पूंजी है, उनमें प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए विशेष रूप से तीव्र इच्छा होती है, इस हद तक कि वे इस महत्वाकांक्षा और इच्छा से भरे होते हैं। इसे दरकिनार करना उनके लिए सबसे ज्यादा कठिन काम है। जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता, तो उनकी इच्छा प्रारंभिक अवस्था में होती है। एक बार जब वे रुतबा पा लेते हैं, जब परमेश्वर का घर उन्हें कोई महत्वपूर्ण कार्य सौंप देता है, और विशेष रूप से जब वे बरसों तक काम कर चुके होते हैं और उनके पास बहुत अनुभव और पूँजी होती है, तब उनकी इच्छा प्रारंभिक अवस्था में नहीं रहती, बल्कि गहरी जड़ जमा चुकी होती है, खिल चुकी होती है, और उस पर फल लगने वाले होते हैं। अगर किसी व्यक्ति में महान कार्य करने, प्रसिद्ध होने, कोई महान व्यक्ति बनने की निरंतर इच्छा और महत्वाकांक्षा रहती है, तो जैसे ही वह कोई बड़ा कुकर्म करता है, और इसके परिणाम सामने आते हैं, वह पूरी तरह से समाप्त हो जाता है और उसे हटा दिया जाता है। और इसलिए, इससे पहले कि यह बड़ी विपदा की ओर ले जाए, उसे फौरन और समय रहते स्थिति को पलट देना चाहिए। जब भी तुम कुछ करते हो, और चाहे उसका जो भी संदर्भ हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, ऐसा व्यक्ति बनने का अभ्यास करना चाहिए जो परमेश्वर के प्रति ईमानदार और आज्ञाकारी हो, और रुतबे और प्रतिष्ठा के अनुसरण को दरकिनार कर देना चाहिए। जब तुममें रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने की निरंतर सोच और इच्छा होती है, तो तुम्हें यह बात पता होनी चाहिए कि अगर इस तरह की स्थिति को अनसुलझा छोड़ दिया जाए तो कैसी बुरी चीजें हो सकती हैं। इसलिए समय बर्बाद न करते हुए सत्य खोजो, रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने की इच्छा पर प्रारंभिक अवस्था में ही काबू पा लो, और इसके स्थान पर सत्य का अभ्यास करो। जब तुम सत्य का अभ्यास करने लगोगे, तो रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने की तुम्हारी इच्छा और महत्वाकांक्षा कम हो जाएगी और तुम कलीसिया के काम में बाधा नहीं डालोगे। इस तरह, परमेश्वर तुम्हारे क्रियाकलापों को याद रखेगा और उन्हें स्वीकृति देगा। तो मैं किस बात पर जोर दे रहा हूँ? वह बात यह है : इससे पहले कि तुम्हारी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पुष्पित और फलीभूत होकर बड़ी विपत्ति लाएँ, तुम्हें उनसे छुटकारा पा लेना चाहिए। यदि तुम उन्हें शुरुआत में ही काबू नहीं करोगे, तो तुम एक बड़े अवसर से चूक जाओगे; अगर वे बड़ी विपत्ति का कारण बन गईं, तो उनका समाधान करने में बहुत देर हो जाएगी। यदि तुममें दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करने की इच्छा तक नहीं है, तो तुम्हारे लिए सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना बहुत मुश्किल हो जाएगा; यदि तुम शोहरत, लाभ और रुतबा पाने के प्रयास में असफलताओं और नाकामयाबियों का सामना करने पर होश में नहीं आते, तो यह स्थिति बहुत खतरनाक होगी : इस बात की संभावना है कि तुम्हें हटा दिया जाए। जब सत्य से प्रेम करने वालों को अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को लेकर एक-दो असफलताओं और नाकामियों का सामना करना पड़ता है, तो वे स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि प्रतिष्ठा और रुतबे का कोई मूल्य नहीं है। वे रुतबे और प्रतिष्ठा को पूरी तरह त्यागने में सक्षम होते हैं, और यह संकल्प लेते हैं कि भले ही उनके पास कभी भी रुतबा न हो, फिर भी वे सत्य का अनुसरण करते हुए अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना जारी रखेंगे, और अपनी अनुभवजन्य गवाही साझा करते रहेंगे और इस तरह परमेश्वर की गवाही देने का नतीजा हासिल करेंगे। वे साधारण अनुयायी होकर भी, अंत तक अनुसरण करने में सक्षम बने रहते हैं। उनकी बस एक ही चाहत होती है कि उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति मिले। ऐसे लोग ही वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं और उनमें संकल्प होता है। परमेश्वर के घर ने बहुत-से मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों को हटाया है और सत्य का अनुसरण करने वाले कुछ लोग मसीह-विरोधियों की विफलता देखकर उनके अपनाए गए मार्ग के बारे में चिंतन करते हैं और आत्मचिंतन कर खुद को भी जानते हैं। इससे वे परमेश्वर के इरादे की समझ प्राप्त करते हैं, सामान्य अनुयायी बनने का संकल्प लेते हैं और सत्य का अनुसरण करके अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने पर ध्यान देते हैं। भले ही परमेश्वर उन्हें सेवाकर्ता या तुच्छ नाचीज कह दे, तो भी वे इसे सिर माथे लेते हैं। वे परमेश्वर की नजर में बस नीच लोग और तुच्छ, महत्वहीन अनुयायी बनने का प्रयास करेंगे जो अंततः परमेश्वर द्वारा स्वीकार्य सृजित प्राणी कहलाएँगे। इस तरह के लोग ही नेक होते हैं और वे ऐसे लोग होते हैं जिन्हें परमेश्वर स्वीकृति देता है।
—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन)
क्या तुम लोग मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने से डरते हो? (हाँ।) क्या डर अपने आप में उपयोगी है? नहीं—अकेले डर से समस्या का समाधान नहीं हो सकता। मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने से डरना एक सामान्य बात है। यह दिखाता है कि व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है, सत्य के लिए प्रयास करने और उसका अनुसरण करने को तैयार है। यदि तुम्हारे मन में भय है, तो तुम्हें सत्य की खोज कर उसके अभ्यास का मार्ग ढूँढ़ना चाहिए। तुम्हें इसकी शुरुआत लोगों के साथ सद्भावपूर्वक सहयोग करना सीखने से करनी चाहिए। यदि कोई समस्या आए, तो उसे संगति और चर्चा से हल करो, ताकि सभी को सिद्धांतों की जानकारी हो, साथ ही उसके समाधान के बारे में विशिष्ट तर्क और कार्यक्रम का पता चल सके। क्या यह तुम्हें अकेले ही फैसले लेने से नहीं रोकता है? साथ ही, अगर तुम्हारे पास परमेश्वर से भय मानने वाला दिल है, तो तुम स्वाभाविक रूप से परमेश्वर की जाँच-पड़ताल पाने में सक्षम होगे, पर तुम्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों की निगरानी को स्वीकार करना भी सीखना होगा, जिसके लिए तुममें सहिष्णुता और स्वीकृति होनी जरूरी है। अगर तुम किसी को तुम्हारे काम की निगरानी करते, निरीक्षण करते, या बिना तुम्हारी जानकारी के जाँच करते देखते हो, और अगर तुम गुस्से में तमतमा जाते हो, उस व्यक्ति से दुश्मन की तरह पेश आते हो, उससे घृणा करते हो, और उस पर वार भी कर बैठते हो, उसे विश्वासघाती की तरह देखते हो, उसके वहाँ न रहने की कामना करते हो, तो यह एक समस्या है। क्या यह अत्यंत दुष्टतापूर्ण नहीं है? इसमें और एक राक्षस राजा में क्या फर्क है? क्या यह लोगों से उचित ढंग से पेश आना है? अगर तुम सही रास्ते पर चलते हो और सही काम करते हो, तो तुम्हें लोगों की जाँच से डरने की क्या जरूरत है? अगर तुम डरे हुए हो, तो यह दिखाता है कि तुम्हारे दिल में कोई चोर है। अगर तुम अपने दिल में जानते हो कि कुछ समस्या है, तो तुम्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए। इसी में समझदारी है। अगर तुम जानते हो कि तुम्हारे साथ कुछ समस्या है, पर तुम किसी को तुम्हारी निगरानी, तुम्हारे काम के निरीक्षण या तुम्हारी समस्या की छानबीन करने देना नहीं चाहते, तब तुम बहुत ज्यादा अनुचित हो रहे हो, तुम परमेश्वर से विद्रोह और उसका प्रतिरोध कर रहे हो, और इस मामले में, तुम्हारी समस्या और भी गंभीर है। अगर परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने भाँप लिया कि तुम एक कुकर्मी या छद्म-विश्वासी हो, तो नतीजे और भी बड़ी मुसीबत वाले होंगे। इसलिए जो लोग दूसरों की निगरानी, जाँच और निरीक्षण को स्वीकार कर सकते हैं, वे सबसे समझदार लोग होते हैं, उनमें सहिष्णुता और सामान्य मानवता होती है। जब तुम्हें पता चलता है कि तुम कुछ गलत कर रहे हो, या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हो, तो अगर तुम दूसरे लोगों के साथ खुलकर बात करने में सक्षम होते हो, तो इससे तुम्हारे आसपास के लोगों को तुम पर नजर रखने में आसानी होगी। पर्यवेक्षण को स्वीकार करना निश्चित रूप से आवश्यक है, लेकिन मुख्य बात है परमेश्वर से प्रार्थना करना, उस पर भरोसा करना और खुद को निरंतर जाँच के अधीन रखना। खासकर जब तुम गलत मार्ग पर चल पड़े हो, कुछ गलत कर दिया हो या जब तुम कोई काम खुद ही करने या खुद ही फैसला लेने वाले हो और आस-पास का कोई व्यक्ति इस बात का उल्लेख कर तुम्हें सचेत कर दे, तो तुम्हें इसे स्वीकार कर तुरंत आत्मचिंतन करना चाहिए और अपनी गलती को स्वीकार कर उसे सुधारना चाहिए। इससे तुम मसीह-विरोधी मार्ग पर चलने से बच जाओगे। अगर कोई इस तरह तुम्हारी मदद कर तुम्हें सचेत कर रहा है, तो क्या तुम्हारे जाने बगैर ही तुम्हें सुरक्षित नहीं रखा जा रहा है? हाँ, यह सही है—यही तुम्हारी सुरक्षा है। इसलिए तुम्हें हमेशा अपने भाई-बहनों या अपने आस-पास के लोगों से बचकर नहीं रहना चाहिए। दूसरों को तुम्हें समझने न देकर या तुम कौन हो यह न जानने देकर हमेशा खुद को छिपाने और ढँकने की कोशिश मत करो। अगर तुम्हारा दिल हमेशा दूसरों से अपनी रक्षा करता रहेगा, तो इसका असर तुम्हारी सत्य की खोज पर पड़ेगा, और तुम पवित्र आत्मा के कार्य के साथ ही पूर्ण किए जाने के कई अवसरों को आसानी से गँवा दोगे। अगर तुम हमेशा अपने आपको दूसरों से बचाते फिरोगे, तो तुम दिल में रहस्य रखोगे, और तुम लोगों के साथ सहयोग नहीं कर पाओगे। तुम्हारे लिए गलत चीजें करना और गलत रास्ते पर चलना आसान हो जाएगा, और जब तुम गलतियाँ करोगे तो भौचक्के रह जाओगे। तुम उस समय क्या सोचोगे? “अगर मुझे पता होता, तो मैं शुरू से ही अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपने भाई-बहनों के साथ सहयोग करता, और निश्चित रूप से मुझे कोई समस्या नहीं होती। लेकिन क्योंकि मैं हमेशा इस बात से डरता था कि दूसरे मेरी असलियत जान जाएँगे, इसलिए मैंने खुद को दूसरों से बचाकर रखा। लेकिन आखिरकार किसी और ने गलती नहीं की—पहली गलती मुझसे ही हुई। कितनी शर्मनाक और मूर्खतापूर्ण बात है!” अगर तुम सत्य खोजने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हो, और कठिनाइयाँ आने पर अपने भाई-बहनों के साथ संगति में खुलकर बात कर सकते हो, तो तुम्हारे भाई-बहन तुम्हारी मदद कर सकते हैं, और अभ्यास के सही मार्ग और अभ्यास के सिद्धांतों को तुम्हें समझने में सक्षम बना सकते हैं। यह तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते समय गलत रास्ते पर चलने से बचा सकता है, ताकि तुम असफल न हो या गिरो नहीं, या परमेश्वर तुम्हें ठुकरा कर हटा न दे। इसके बजाय तुम्हें सुरक्षा मिलेगी, तुम अपना कर्तव्य उचित ढंग से निभाओगे, और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करोगे। सामंजस्यपूर्ण सहयोग से लोगों को कितना बड़ा लाभ मिलता है!
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग
चूँकि अभी तुम लोगों के पास अपने जीवन के रूप में परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता नहीं है, इसलिए हैसियत और आधिकारिक पदवियाँ पा लेने पर तुम लोगों का क्या होगा? क्या तुम मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने लगोगे? (यह निश्चित नहीं है।) यह महा विपत्ति का समय है। क्या तुम लोग इसे स्पष्ट रूप से देख सकते हो? बताओ भला, क्या एक अगुआ या कार्यकर्ता होना खतरनाक है? (बिल्कुल।) खतरे को जानने के बाद भी क्या तुम लोग यह कर्तव्य निभाने को तैयार हो? (हाँ।) कर्तव्य निभाने की यह तत्परता मानवीय इच्छाशक्ति है, और यह एक सकारात्मक चीज है। मगर क्या सिर्फ यह सकारात्मक चीज ही तुम्हें सत्य को अमल में लाने देगी? क्या तुम देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकोगे? अच्छे इंसानी इरादों और मानवीय इच्छाशक्ति के भरोसे, और मानवीय आकांक्षाओं और आदर्शों के भरोसे क्या तुम अपनी इच्छा पूर्ण कर सकोगे? (नहीं।) फिर तुम्हें सोच-विचार करना चाहिए कि तुम्हें अपनी इच्छाओं, अपने आदर्शों और अपनी इच्छा को अपनी वास्तविकता और अपना सच्चा आध्यात्मिक कद बनाने के लिए क्या करना चाहिए। वास्तव में, यह बहुत बड़ी समस्या नहीं है। असली समस्या यह है कि मनुष्य की मौजूदा दशा और आध्यात्मिक कद, और उसकी मानवता की खूबियों को देखते हुए वह परमेश्वर की स्वीकृति की शर्तों को संतुष्ट करने से बहुत दूर है। तुम लोगों के मानवीय चरित्र में थोड़े-से जमीर और विवेक से ज्यादा कुछ नहीं है, और सत्य का अनुसरण करने की इच्छाशक्ति तो है ही नहीं। अपना कर्तव्य निभाते समय शायद तुम अनमने न रहना चाहो, या सतही न होने की, और परमेश्वर को चकमा देने की कोशिश न करना चाहो, मगर तुम ऐसा करोगे। तुम लोगों की मौजूदा सच्ची दशा और आध्यात्मिक कद को देखते हुए तुम पहले से ही संकटपूर्ण स्थिति में हो। क्या तुम अब भी इस बात पर कायम हो कि हैसियत होना खतरनाक है, और उसके न होने पर तुम सुरक्षित हो? दरअसल हैसियत न होना भी खतरनाक है। अगर तुम भ्रष्ट स्वभाव के साथ जीवन जीते हो, तो तुम संकट में हो। अब, क्या बात ऐसी है कि अगुआ होना ही खतरनाक है, जबकि जो लोग अगुआ नहीं हैं वे सुरक्षित हैं? (नहीं।) अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और तुममें जरा-सी भी सत्य वास्तविकता नहीं है, तो चाहे अगुआ हो या नहीं तुम खतरे में ही हो। तो इस खतरे से बचने के लिए तुम्हें सत्य का अनुसरण कैसे करना चाहिए? क्या तुमने इस प्रश्न पर विचार किया है? अगर तुम्हारी छोटी-सी लालसा है और तुम बस कुछ विनियमों का पालन करते हो, तो क्या इससे काम चलेगा? क्या तुम इस तरह संकट के स्थान से सचमुच बच निकल पाओगे? थोड़े समय तक इससे काम चल सकता है, मगर कहना मुश्किल है कि लंबी अवधि में क्या होगा। फिर क्या करना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं कि सत्य का अनुसरण करना सबसे अच्छा रास्ता है। यह बिल्कुल सही है, मगर सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए किसी को किस तरह अनुसरण करना चाहिए? और उनके जीवन को आगे बढाने के लिए? ये सारी चीजें सरल नहीं हैं। अव्वल तो तुम्हें सत्य को समझना चाहिए, और फिर उसे अमल में लाना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति सत्य को समझ लेता है, तो आधी समस्याएँ वैसे ही सुलझ जाती हैं। वह अपनी दशा पर आत्मचिंतन कर सकता है और उसे स्पष्ट रूप से देख सकता है। उसे उस संकट का एहसास हो जाएगा जिसमें वह जी रहा है। वह सक्रिय होकर सत्य को अमल में ला सकेगा। ऐसा अभ्यास व्यक्ति को परमेश्वर के प्रति समर्पण की ओर बढ़ाता है। क्या परमेश्वर को समर्पित व्यक्ति खतरे से बाहर होता है? क्या तुम्हें सचमुच उत्तर चाहिए? जो लोग सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं, वे परमेश्वर न तो उससे विद्रोह करेंगे न उसका प्रतिरोध करेंगे, उससे विश्वासघात करना तो बहुत दूर की बात है। उनका उद्धार सुनिश्चित है। क्या ऐसा व्यक्ति पूरी तरह खतरे के बाहर नहीं है? इसलिए समस्याएँ सुलझाने का सबसे अच्छा उपाय सत्य को पूरी गंभीरता से लेना और सत्य को समझने में अपने सारे प्रयास लगाना है। जब लोग एक बार सत्य को सचमुच समझ लेंगे, तो सारी समस्याएँ सुलझ जाएँगी।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, हैसियत के प्रलोभन और बंधन कैसे तोड़ें
जब अगुआ और कार्यकर्ता काम कर रहे हों तो कभी-कभी पवित्रात्मा उन्हें प्रबुद्ध और रोशन करता है, वे कुछ असली अनुभवों के बारे में बात कर सकते हैं, और स्वाभाविक रूप से उनके पास ऐसे लोग होंगे जो उनका अत्यधिक सम्मान करते होंगे और उनकी आराधना करते होंगे, जो उनका अनुसरण करते होंगे और उनसे ऐसे जुड़े होंगे जैसे उनकी अपनी छाया—ऐसे समय में, उन्हें इन चीजों को कैसे देखना चाहिए? हर किसी की अपनी-अपनी पसंद होती है, हर कोई घमंडी होता है; अगर लोग किसी को अपनी प्रशंसा और चापलूसी करते हुए सुनते हैं तो वे इसका भरपूर आनंद लेते हैं। ऐसा महसूस करना सामान्य बात है और यह कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन, यदि वे किसी ऐेसे व्यक्ति को बढ़ावा देते हैं जो उनकी भरपूर प्रशंसा कर सकता है और उनकी चापलूसी कर सकता है और वे ऐसे व्यक्ति को किसी महत्वपूर्ण काम में लगाते हैं तो वह खतरनाक है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिन लोगों को दूसरों की चापलूसी और भरपूर प्रशंसा करना पसंद होता है वे बहुत ज्यादा धूर्त और धोखेबाज होते हैं और वे ईमानदार या सच्चे नहीं होते। जैसे ही इन लोगों को रुतबा हासिल हो जाता है तो उनसे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश या कलीसिया के काम को कोई लाभ नहीं होता। ये लोग मक्कार होते हैं और काम बिगाड़ने में सर्वाधिक सक्षम होते हैं। जो लोग तुलनात्मक रूप से सीधे-सच्चे होते हैं वे कभी भी दूसरों की भरपूर प्रशंसा नहीं करते। भले ही वे दिल से तुम्हारी तारीफ करते हों लेकिन वे इसे खुलकर नहीं कहेंगे और अगर उन्हें पता चल जाए कि तुम में खामियाँ हैं या तुमने कुछ गलत किया है तो वे इसके बारे में तुम्हें बताएँगे। हालाँकि कुछ लोग सीधे-सच्चे लोगों को पसंद नहीं करते और जब कोई उनकी खामियाँ बताता है या उनकी निंदा करता है तो वे उस व्यक्ति पर अत्याचार करेंगे और उसे निकाल देंगे, और उस व्यक्ति की खामियों और कमियों का फायदा उठाकर निरंतर उसकी आलोचना और निंदा करेंगे। ऐसा करके, क्या वे भले लोगों पर अत्याचार नहीं कर रहे हैं और उन्हें नुकसान नहीं पहुँचा रहे हैं? इस तरह के काम करना और ऐसे भले लोगों को सताना ऐसे काम हैं जिनसे परमेश्वर अत्यधिक घृणा करता है। भले लोगों को सताना एक दुष्टतापूर्ण काम है! और यदि कोई बहुत सारे भले लोगों को सताता है तो वह राक्षस है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सभी के साथ निष्पक्ष और प्रेमपूर्ण व्यवहार करना चाहिए और उन्हें सिद्धांतों के अनुसार मामलों से निपटना चाहिए। विशेषकर जब तुम्हारे आसपास ऐसे लोग हों जो तुम्हारी झूठी तारीफ और चापलूसी करते हों, तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडराते हों, तो तुम्हें उनके साथ सही व्यवहार करना चाहिए, प्रेमपूर्वक उनकी सहायता करनी चाहिए, उनसे उनके उचित कार्य करवाने चाहिए और अविश्वासियों की तरह लोगों की झूठी तारीफ नहीं करने देनी चाहिए; अपनी स्थिति और परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट रूप से बताओ, उन्हें अपमानित और शर्मिंदा महसूस कराओ ताकि वे दोबारा ऐसा कभी न करें। यदि तुम सिद्धांतों का पालन कर सकते हो और लोगों के साथ अच्छे ढंग से व्यवहार कर सकते हो तो क्या इन तुच्छ विदूषकों और शैतानी किस्म के लोगों को शर्म नहीं आएगी। इससे शैतान को शर्मिंदगी महसूस होगी और परमेश्वर को संतुष्टि मिलेगी। दूसरों की चापलूसी करना पसंद करने वाले लोगों का मानना है कि अगुआ और कार्यकर्ता उन सभी लोगों को पसंद करते हैं जो उनकी चापलूसी करते हैं और जब भी कोई उनकी झूठी तारीफ या चापलूसी करता है तो उनके घमंड की और रुतबे के लिए उनकी इच्छा की तृप्ति होती है। सत्य से प्रेम करने वाले लोगों को यह सब पसंद नहीं आता है, और वे इन सबको नापसंद करते हैं और इन सबसे अत्यधिक घृणा करते हैं। केवल झूठे अगुआओं को ही चापलूसी में आनंद आता है। परमेश्वर का घर शायद उनकी सराहना या प्रशंसा न करे, परन्तु यदि परमेश्वर के चुने हुए लोग उनकी सराहना और प्रशंसा करते हैं तो उन्हें बहुत खुशी मिलती है और वे इसका भरपूर आनंद उठाते हैं, और अंततः उन्हें इससे कुछ सांत्वना भी मिलती है। मसीह-विरोधियों को झूठी तारीफ से और भी अधिक खुशी मिलती है और उन्हें सबसे अधिक आनंद तब मिलता है जब इस तरह के लोग उनके करीब आते हैं और उनके इर्द-गिर्द मंडराते हैं। क्या यह परेशानी वाली बात नहीं है? मसीह-विरोधी ऐसे ही होते हैं; उन्हें लोगों से अपनी प्रशंसा और सराहना करवाना, अपनी आराधना करवाना और अपना अनुसरण करवाना पसंद आता है, जबकि सत्य का अनुसरण करने वाले और अपेक्षाकृत सीधे-सच्चे लोगों को इनमें से कुछ भी पसंद नहीं आता है। तुम्हें उन लोगों के करीब जाना चाहिए जो तुमसे सच्ची बात कह सकें; इस तरह के लोगों का साथ होना तुम्हारे लिए बहुत फायदेमंद है। खास तौर पर ऐसे लोगों का तुम्हारे आसपास होना तुम्हें भटकने से बचा सकता है जो तुममें किसी समस्या का पता चलने पर तुम्हें डाँटने-फटकारने और तुम्हें उजागर करने का साहस रखते हों। उन्हें तुम्हारे रुतबे से कोई फर्क नहीं पड़ता है, और जिस पल उन्हें पता चलता है कि तुमने सत्य सिद्धांतों के विरुद्ध कुछ किया है, तो आवश्यक होने पर वे तुम्हें फटकारेंगे और तुम्हें उजागर भी करेंगे। केवल ऐसे लोग ही सीधे-सच्चे और न्यायप्रिय लोग होते हैं और चाहे वे तुम्हें कैसे भी उजागर करें और कैसे भी तुम्हें डाँटें-फटकारें, यह सब तुम्हारी मदद करने, तुम्हारी निगरानी करने और तुम्हें आगे बढ़ाने के लिए होता है। तुम्हें ऐसे लोगों के करीब जाना चाहिए; ऐसे लोगों को अपने साथ रखने से, ऐसे लोगों की मदद से, तुम अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित हो जाते हो—परमेश्वर की सुरक्षा पाने का भी यही अर्थ है। सत्य समझने वाले और सिद्धातों का पालन करने वाले लोगों का तुम्हारे साथ होना और रोजाना तुम्हारी निगरानी करना, तुम्हारे लिए अपना कर्तव्य निभाने और अच्छे से काम करने के लिए बहुत फायदेमंद है। तुम्हें उन धूर्त, धोखेबाज लोगों को अपना सहायक बिल्कुल नहीं बनाना चाहिए जो तुम्हारी चापलूसी करते हैं और तुम्हारी झूठी तारीफ करते हैं; इस तरह के लोगों का तुम्हारे साथ चिपके रहना अपने ऊपर बदबूदार मक्खियों को बैठने देने के समान है, इससे तुम बहुत सारे जीवाणुओं और विषाणुओं के संपर्क में आ जाओगे! ऐसे लोग तुम्हें परेशान कर सकते हैं और तुम्हारे काम को प्रभावित कर सकते हैं, वे तुम्हें प्रलोभन में फंसाकर भटका सकते हैं और वे तुम्हारे लिए आपदा और विपत्ति ला सकते हैं। तुम्हें उनसे दूर रहना चाहिए, जितना ज्यादा दूर रहोगे उतना बेहतर होगा, और यदि तुम यह जान सको कि उनमें छद्म-विश्वासियों का सार है और उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल सको तो और भी बेहतर होगा। एक बार जब सत्य का अनुसरण करने वाला कोई सीधा-सच्चा व्यक्ति यह देखता है कि तुम में कोई समस्या है तो वह तुम्हें सत्य बताएगा, चाहे तुम्हारा रुतबा कुछ भी हो, चाहे तुम उसके साथ कैसा भी व्यवहार करो, और भले ही तुम उसे बरखास्त कर दो। वह कभी भी इसे छुपाने या झूठ बोलने की कोशिश नहीं करेगा। अपने आसपास ऐसे बहुत से लोगों को रखना काफी फायदेमंद होता है! जब तुम ऐसा कुछ करते हो जो सिद्धांतों के विरुद्ध है, तो वे तुम्हें उजागर कर देंगे, तुम्हारी समस्याओं पर राय देंगे, और स्पष्ट रूप से और ईमानदारी से तुम्हारी समस्याएँ और त्रुटियाँ बताएँगे; वे तुम्हारी इज्जत बचाने में मदद करने की कोशिश नहीं करेंगे, और तुम्हें बहुत सारे लोगों के सामने शर्मिंदगी से बचने का मौका भी नहीं देंगे। तुम्हें ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? क्या तुम्हें उन्हें सजा देनी चाहिए या उनके करीब जाना चाहिए? (उनके करीब जाना चाहिए।) सही है। तुम्हें उनके साथ दिल खोलकर बात करनी चाहिए और उनके साथ यह कहते हुए संगति करनी चाहिए, “तुमने मेरी जिस समस्या के बारे में बताया वह सही थी। उस समय, मैं घमंड और रुतबे के विचारों से भरा था। मुझे लगा कि मैं इतने सालों से अगुआ रहा हूँ, इसके बावजूद तुमने न केवल मेरी इज्जत बचाने की कोशिश नहीं की, बल्कि इतने सारे लोगों के सामने मेरी समस्याएँ भी बताई, और इसलिए मैं इसे स्वीकार नहीं कर सका। हालाँकि, अब मुझे दिखाई देता है कि मैंने जो किया वो वास्तव में सिद्धांतों और सत्य के विरुद्ध था, और मुझे वह नहीं करना चाहिए था। अगुआ का पद होने के क्या मायने होते हैं? क्या यह बस मेरा कर्तव्य नहीं है? हम सभी अपना कर्तव्य निभा रहे हैं और हम सबका रुतबा एक समान है। केवल अंतर यह है कि मेरे कंधों पर थोड़ी ज्यादा जिम्मेदारी है, बस इतना ही। यदि तुम्हें भविष्य में किसी समस्या का पता चले तो जो तुम्हें कहना हो कह देना, और हमारे बीच कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं होगा। अगर सत्य की हमारी समझ में अंतर है तो हम एक साथ संगति कर सकते हैं। परमेश्वर के घर में और परमेश्वर और सत्य के सामने, हम एक होंगे, अलग-अलग नहीं।” यह सत्य का अभ्यास करने और उससे प्रेम करने का रवैया है। यदि तुम मसीह-विरोधी के मार्ग से दूर रहना चाहते हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें ऐसे लोगों के करीब आने की पहल करनी चाहिए जो सत्य से प्रेम करते हैं, जो ईमानदार हैं, ऐसे लोगों के करीब आना चाहिए जो तुम्हारी समस्याएँ बता सकते हैं, जो तुम्हारी समस्याओं का पता चलने पर सच बोल सकते हैं और तुम्हें डांट-फटकार सकते हैं, और विशेष रूप से ऐसे लोगों के जो तुम्हारी समस्याओं का पता चलने पर तुम्हारी काट-छाँट कर सकते हैं—ये वे लोग हैं जो तुम्हारे लिए सबसे अधिक फायदेमंद हैं और तुम्हें उन्हें संजोना चाहिए। यदि तुम ऐसे अच्छे लोगों को छोड़ देते हो और उनसे छुटकारा पा लेते हो तो तुम परमेश्वर की सुरक्षा गँवा दोगे और आपदा धीरे-धीरे तुम्हारे पास आ जाएगी। अच्छे लोगों और सत्य को समझने वाले लोगों के करीब आने से तुम्हें शांति और आनंद मिलेगा, और तुम आपदा को दूर रख सकोगे; बुरे लोगों, बेशर्म लोगों और तुम्हारी चापलूसी करने वाले लोगों के करीब आने से तुम खतरे में पड़ जाओगे। न केवल तुम आसानी से ठगे और छले जाओगे, बल्कि तुम पर कभी भी आपदा आ सकती है। तुम्हें पता होना चाहिए कि किस तरह के लोग तुम्हारे लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद हो सकते हैं—ये वे लोग हैं जो तुम्हारे कुछ गलत करने पर, या जब तुम अपनी बड़ाई करते हो और अपने बारे में गवाही देते हो और दूसरों को गुमराह करते हो तो, तुम्हें चेतावनी दे सकते हैं, इससे तुम्हें सर्वाधिक फायदा हो सकता है। ऐसे लोगों के करीब जाना ही सही मार्ग है।
—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं
लोगों का समर्थन हासिल करने और एक अगुआ के तौर पर फिर से चुनाव सुनिश्चित करने के लिए कलीसिया के कुछ अगुआ तानाशाह न होने का दिखावा करते हुए अपने हर काम में लोकतांत्रिक सिद्धांतों का पालन करते हैं। वे लोगों का समर्थन पाने के लिए इसका एक युक्ति की तरह इस्तेमाल करते हैं, मगर वास्तव में, वे इसका इस्तेमाल अपनी हैसियत को मजबूत करने के लिए कर रहे होते हैं। क्या यह किसी मसीह-विरोधी का व्यवहार नहीं है? (हाँ है।) केवल एक मसीह-विरोधी ही इस तरह काम करेगा। क्या तुम लोग भी ऐसी चीजें करते हो? (कभी-कभी।) और क्या तुम लोग इस पर विचार करते हो कि ऐसे कृत्यों के पीछे कौन-से मंसूबे काम कर रहे होते हैं? यह बात तब समझ में आती है जब किसी व्यक्ति ने अभी-अभी ही अगुआ के कार्य का प्रशिक्षण लेना शुरू किया हो और सिद्धांतों को न समझता हो। लेकिन अगर वह कुछ वर्षों से अगुआ या कार्यकर्ता रहा हो, और फिर भी ऐसा करने में जुटा हो, तो यह सिद्धांतों की कमी दिखाता है। यह झूठी अगुआई है, और वह व्यक्ति वह नहीं है, जो सत्य का अनुसरण करता हो। अगर किसी व्यक्ति के अपने इरादे और लक्ष्य हों, और वह इन्हें इसी तरह करने पर अड़ा हो, तो वह मसीह-विरोधी है। तुम लोग इस मुद्दे को कैसे देखते हो? ऐसा मसला सामने आने पर तुम किस चीज का अभ्यास करते हो? अगर तुम्हारे अपने इरादे और लक्ष्य हों, तो उनके समाधान के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? (मैंने देखा है कि मेरे भीतर कुछ इरादे पल रहे हैं। कभी-कभी मुझे डर लगता है कि भाई-बहन कहेंगे कि मैं अपने कार्यों में खुला और पारदर्शी नहीं हूँ, मैं उन्हें बिना बताए निर्णय लेता हूँ। जब मेरे मन में ऐसे विचार आएँगे, तो मैं भाई-बहनों से इस पर चर्चा करूँगा, और मामलों का हल निकालूँगा। मैं अपनी मनमर्जी से निर्णय नहीं लूँगा।) दूसरों से सलाह लेना स्वीकार्य है। यह सुनिश्चित करना सही है कि सभी को पता हो; यह भाई-बहनों द्वारा तुम्हारे काम की निगरानी को स्वीकार करना है, जिससे तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने में मदद मिलती है। हालाँकि अपनी चर्चाओं के दौरान तुम्हें सत्य सिद्धांतों का भी पालन करना चाहिए। अगर तुम सत्य सिद्धांतों से भटकते हो, तो चर्चा विषयेतर हो सकती है या समय खराब हो सकता है, और तुम सही निष्कर्षों तक नहीं पहुँच पाओगे। इसलिए कोई चर्चा शुरू करते समय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंश पढ़ने में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए। इस तरह सभी लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार संगति कर सकेंगे। इस तरह की संगति मार्ग दिखाएगी और अच्छे परिणाम लाएगी। तुम अलग रहकर हर किसी को उसकी मर्जी के मुताबिक संगति नहीं करने दे सकते। अगर किसी के भी पास कोई ठोस राय नहीं है, और वे सत्य को नहीं खोजते, तो इस तरह की संगति करना निरर्थक है, चाहे फिर तुम इसे कितनी भी देर तक क्यों न करो। इससे कभी भी सही परिणाम प्राप्त नहीं होगा। ...
... तुम्हें समझना होगा कि तुम जो कर्तव्य निभाते हो और जो कार्य करते हो, वे सब परमेश्वर द्वारा सौंपे गए हैं, और तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कार्य करने चाहिए। ऐसा करते हुए तुम्हारे मन में एक उद्देश्य और दिशा होगी, तुम सत्य को खोजने में सक्षम होगे, और परमेश्वर के वचनों के भीतर मार्ग ढूँढ़ सकोगे। तब तुम्हें परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंशों के बारे में संगति करने के लिए सभी की अगुआई करनी चाहिए, और उन्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य के बारे में संगति करने, परमेश्वर के वचनों में और अधिक प्रकाश प्राप्त करने, परमेश्वर के इरादों और सत्य को समझने, और फिर सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने लायक बनाना चाहिए। यह सही मार्ग पर कदम रखना है। सार रूप में कहें, तो कलीसिया का कार्य परमेश्वर के चुने हुए लोगों का उन सभी सत्यों को समझने और उनमें प्रवेश करने में नेतृत्व करना है, जिन्हें परमेश्वर व्यक्त करता है। यह कलीसिया का सबसे अधिक बुनियादी कार्य है। इसलिए चाहे जो समस्या हल की जा रही हो, किसी भी सभा को परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंश पढ़ने से या सत्य के बारे में संगति करने से अलग नहीं किया जा सकता। आखिरकार तुम यदि सत्य और अभ्यास के सिद्धांतों के बारे में तब तक संगति कर सकते हो, जब तक वे स्पष्ट न हो जाएँ, तो सभी लोग सत्य को समझ जाएँगे, और जान जाएँगे कि उनका अभ्यास कैसे करना है। इसकी परवाह किए बिना कि किसी सभा के दौरान तुम सत्य के किस पहलू को खा और पी रहे हो, तुम्हें इसी तरह से संगति करनी चाहिए और सामने आए मसलों के आधार पर सत्य को खोजना चाहिए। जो लोग सत्य को समझते हैं, उन्हें संगति की अगुआई करनी चाहिए, और जो लोग प्रबुद्ध हो चुके हैं, वे संगति को आगे बढ़ा सकते हैं। इस प्रकार वे जितनी अधिक संगति करेंगे, उतना ही अधिक पवित्र आत्मा उन पर कार्य करेगा, और वे सत्य पर जितनी अधिक संगति करेंगे, उतनी ही अधिक स्पष्टता उन्हें हासिल हो जाएगी। जब सभी लोग सत्य को समझ लेंगे, तो वे पूर्ण मुक्ति और आजादी हासिल कर लेंगे और उनके पास अनुसरण के लिए एक मार्ग होगा। यह वह सबसे अच्छा परिणाम है, जो एक सभा प्राप्त कर सकती है। जब सभी लोग सत्य वास्तविकता के बारे में तब तक बात करेंगे, जब तक वह इस तरह की संगति के जरिए स्पष्ट न हो जाए, तो क्या वे सत्य को नहीं समझ जाएँगे? (हाँ, समझ जाएँगे।) सत्य को समझने के बाद लोग स्वाभाविक रूप से जान जाएँगे कि उसे कैसे अनुभव करना है और कैसे उसका अभ्यास करना है। जब वे सत्य का सटीक ढंग से अभ्यास कर पाएँगे, तो क्या वे सत्य को प्राप्त नहीं कर लेंगे? (जरूर।) जब कोई व्यक्ति सत्य को प्राप्त कर ले, तो क्या उसने परमेश्वर को प्राप्त नहीं कर लिया होगा? यदि किसी ने परमेश्वर को प्राप्त कर लिया हो, तो क्या उसे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं हो गया होगा? (जरूर।) यदि बतौर अगुआ या कार्यकर्ता अपने काम में तुम यह परिणाम हासिल कर सकते हो, तो तुमने अपना कार्य ठीक ढंग से कर लिया होगा, तुमने मानक स्तर तक अपना कर्तव्य निभा लिया होगा, और तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी। जब परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग सत्य को समझ जाएँगे, तो क्या तब भी वे तुम्हारी आराधना करेंगे, तुम्हारा आदर करेंगे, और तुम्हारा अनुसरण करेंगे? (नहीं।) लोग केवल तुम्हारी सराहना करेंगे, तुम्हारा आदर करेंगे, तुम्हारे संपर्क में आने और तुमसे बात करने को तैयार होंगे, और तुम्हारी संगति सुनने को तैयार होंगे, ताकि वे इससे लाभ उठा सकें। जो लोग सत्य को समझते हैं, वे सचमुच प्रकाश और नमक हो पाते हैं। किसी सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को पूरा करने, और एक योग्य सृजित प्राणी होने का यही अर्थ है। जब लोग सत्य को समझ जाते हैं, और परमेश्वर से घनिष्ठ संबंध स्थापित कर लेते हैं, तो वे परमेश्वर के साथ अनुकूलता हासिल कर सकते हैं, तब वे उसके प्रति विद्रोह नहीं करते, गलतफहमी नहीं रखते, या उसका विरोध नहीं करते, और चाहे वे किसी भी मसले का सामना कर रहे हों, परमेश्वर को उत्कर्षित करने और उसकी गवाही देने में सक्षम हो पाएँगे। यदि किसी अगुआ या कार्यकर्ता के तौर पर तुम इन जैसे सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करते हो, तो तुम जान पाओ इससे पहले ही तुम लोगों को परमेश्वर के सामने ला चुके होगे। तुम जिन लोगों की अगुआई करते हो, वे भी सत्य का अभ्यास करने, वास्तविकता में प्रवेश करने, और परमेश्वर को उत्कर्षित करने और उसकी गवाही देने में सक्षम हो जाएँगे। इस तरह से तुम जिन लोगों की अगुआई करते हो, वे परमेश्वर की स्वीकृति पाने और उसके द्वारा प्राप्त किए जाने लायक हो जाएँगे। इसलिए जब एक अगुआ सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलता है, तो यह पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुसार होता है। यदि लोग जो करते हैं वह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होता है, तो उनके कार्यों के नतीजे बेहतर से बेहतर होते जाएँगे, एक भी विपरीत प्रभाव नहीं होगा, और उन्हें हर मामले में परमेश्वर का आशीष और रक्षा प्राप्त होगी। भले ही वे कभी-कभी मार्ग से थोड़ा भटक भी जाएँ, तो भी परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध करेगा, उन्हें आगे बढ़ाएगा, और उन्हें परमेश्वर के वचनों में सुधार प्राप्त होगा। जब लोग सही मार्ग अपनाते हैं, तो उन्हें परमेश्वर का आशीष और रक्षा मिलती है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
भ्रष्ट मनुष्य हैसियत का पीछा कर उसके फायदों का आनंद उठाना चाहता है। हर इंसान के साथ ऐसा ही होता है, भले ही वह वर्त्तमान में हैसियत वाला हो या न हो : हैसियत त्याग देना और उसके प्रलोभनों से छूट जाना बहुत मुश्किल है। इसके लिए मनुष्य की ओर से बड़े सहयोग की जरूरत होती है। ऐसे सहयोग में क्या करना होता है? मुख्य रूप से सत्य खोजना, सत्य को स्वीकार करना, परमेश्वर के इरादों को समझना, और समस्याओं के सार में साफ तौर पर घुस जाना। इन चीजों के साथ, एक व्यक्ति के पास हैसियत के प्रलोभन से उबरने की आस्था होगी। इसके अलावा, तुम्हें प्रलोभन से छुटकारा पाने और परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने के प्रभावी तरीके सोचने चाहिए। तुम्हारे सामने अभ्यास के मार्ग होने चाहिए। यह तुम्हें सही मार्ग पर रखेगा। अभ्यास के मार्गों के बिना, तुम अक्सर प्रलोभनों के फेर में पड़ जाओगे। हालाँकि तुम सही मार्ग पर चलना चाहोगे, फिर भी बेहद कड़ी मेहनत के बाद भी अंत में तुम्हारे प्रयासों का ज्यादा लाभ नहीं होगा। तो ऐसे कौन-से प्रलोभन हैं जो अक्सर तुम्हारे सामने आते हैं? (जब अपने कर्तव्य निर्वाह में मैं थोड़ी सफलता हासिल करता हूँ, और भाई-बहनों का सम्मान अर्जित करता हूँ, तो मैं आत्मसंतुष्ट महसूस करता हूँ और इस एहसास से मुझे बहुत मजा आता है। कभी-कभी मुझे इसका एहसास नहीं होता; कभी-कभी मुझे एहसास तो होता है कि यह दशा गलत है, मगर फिर भी मैं इसके खिलाफ विद्रोह नहीं कर पाता।) यह एक प्रलोभन है। फिर दूसरा कौन बोलेगा? (मेरे अगुआ होने के कारण, भाई-बहन कभी-कभी मुझसे विशेष व्यवहार करते हैं।) यह भी एक प्रलोभन है। अगर तुम सामने आने वाले प्रलोभनों के प्रति सचेत न रहो, उन्हें हल्के में संभालो और सही विकल्प न चुन सको, तो ये प्रलोभन तुम्हें संताप और दुःख देंगे। उदाहरण के लिए, भाई-बहनों के विशेष व्यवहार में तुम्हें रोटी, कपड़ा, मकान जैसे भौतिक लाभ और रोजमर्रा की जरूरतें मुहैया करना शामिल हैं। अगर तुम जिन चीजों का आनंद उठाते हो, वे उनकी दी हुई चीजों से बेहतर हैं, तो तुम उन्हें हेय दृष्टि से देखोगे, और शायद उनके उपहारों को ठुकरा दो। लेकिन अगर तुम किसी धनी व्यक्ति से मिले, और वह तुम्हें उम्दा सूट देकर कहे कि वह इसे नहीं पहनता, तो क्या तुम ऐसे प्रलोभन के सामने भी अडिग रह सकोगे? शायद तुम उस स्थिति पर सोच-विचार करो और खुद से कहो, “वह धनी है, उसके लिए ये कपड़े मायने नहीं रखते। वैसे भी वह ये कपड़े नहीं पहनता। अगर वह ये मुझे नहीं देगा, तो उठाकर किसी और को दे देगा। इसलिए मैं ही रख लेता हूँ।” इस फैसले का तुम क्या अर्थ निकालोगे? (वह पहले से हैसियत का आनंद उठा रहा है।) यह हैसियत के लाभों का आनंद उठाना कैसे है? (क्योंकि उसने उम्दा चीजें स्वीकार कर लीं।) क्या तुम्हें दी गईं उम्दा चीजें स्वीकार करना ही हैसियत का लाभ उठाना है? अगर तुम्हें कोई साधारण चीज दी जाए, मगर यह तुम्हारी जरूरत की चीज हो, तो क्या इसे भी हैसियत के लाभों का आनंद उठाना कहा जाएगा? (हाँ। जब भी वह अपनी स्वार्थपरक इच्छाओं को संतुष्ट करने के लिए दूसरों से चीजें स्वीकार करता है, इसे लाभ का आनंद उठाने में गिना जाएगा।) लगता है तुम इस बारे में स्पष्ट नहीं हो। क्या तुमने कभी इस बारे में सोचा है : अगर तुम अगुआ नहीं होते, तुम्हारी कोई हैसियत नहीं होती, तो क्या वह तब भी तुम्हें यह उपहार देता? (वह नहीं देता।) यकीनन वह नहीं देता। तुम्हारे अगुआ होने के कारण ही वह तुम्हें यह उपहार देता है। इस चीज की प्रकृति बदल चुकी है। यह सामान्य दान नहीं है, और समस्या इसी में है। अगर तुम उससे पूछोगे, “अगर मैं अगुआ न होता, सिर्फ एक भाई-बहन होता, तो क्या तब भी तुम मुझे यह उपहार देते? अगर इस चीज की किसी भाई-बहन को जरूरत होती, तो क्या तुम उसे यह चीज दे देते?” वह कहेगा, “मैं नहीं दे सकता। मैं किसी भी व्यक्ति को यूँ ही चीजें नहीं दे सकता। मैं तुम्हें इसलिए देता हूँ क्योंकि तुम मेरे अगुआ हो। अगर तुम्हारी यह विशेष हैसियत नहीं होती, तो मैं ऐसा उपहार भला क्यों देता?” अब देखो, तुम स्थिति को किस तरह नहीं समझ पाए हो। उसके यह कहने पर कि उस उम्दा सूट की उसे जरूरत नहीं है, तो तुम्हें यकीन हो गया, मगर वह तुमसे छल कर रहा था। उसका प्रयोजन तुमसे उसका उपहार स्वीकार करवाना है, ताकि भविष्य में तुम उससे अच्छा बर्ताव करो, और उसका विशेष ख्याल रखो। यह उपहार देने के पीछे उसकी नीयत यही है। सच्चाई यह है कि तुम दिल से जानते हो कि तुम हैसियतवाले न होते, तो वह तुम्हें कभी भी ऐसा उपहार न देता, फिर भी तुम उसे स्वीकार कर लेते हो। अपनी जीभ से बुलवाते हो, “परमेश्वर का धन्यवाद। मैंने यह उपहार परमेश्वर से स्वीकार किया है। यह मुझ पर परमेश्वर की उदारता है।” न केवल तुम हैसियत के लाभों का आनंद उठाते हो, बल्कि तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों की चीजों में भी आनंद उठाते हो, मानो कि उचित रूप से वे तुम्हें ही मिलने थे। क्या यह बेशर्मी नहीं है? अगर इंसान को जमीर की समझ न हो, उसमें बिल्कुल शर्म न हो, तो यह एक समस्या है। क्या यह सिर्फ बर्ताव का मामला है? क्या दूसरों से चीजें स्वीकार कर लेना गलत है और इनकार कर देना सही? ऐसी स्थिति से सामना होने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इस उपहार देने वाले से पूछना चाहिए कि क्या वे जो कर रहे हैं, वह सिद्धांतों के अनुरूप हैं। उनसे कहो, “आइए, हम परमेश्वर के वचनों, या कलीसिया के प्रशासनिक आदेशों में मार्गदर्शन ढूँढ़ें और देखें कि जो आप कर रहे हैं, वह सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं। अगर नहीं, तो मैं ऐसा उपहार स्वीकार नहीं कर सकता।” अगर उपहार देनेवाले को उन सूत्रों द्वारा सूचित किया जाता है कि उनका यह काम सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, फिर भी वे उपहार देना चाहते हैं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार करना चाहिए। साधारण लोग इससे उबर नहीं सकते। वे उत्सुकता से लालसा रखते हैं कि दूसरे उन्हें और ज्यादा दें, वे और अधिक विशेष व्यवहार का आनंद उठाना चाहते हैं। अगर तुम सही किस्म के इंसान हो, तो ऐसी स्थिति सामने आने पर तुम्हें फौरन यह कहकर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, “हे परमेश्वर, आज जिससे मेरा सामना हुआ है वह यकीनन तुम्हारी सदिच्छा है। यह मेरे लिए तुम्हारा निर्धारित सबक है। मैं सत्य खोजने और सिद्धांतों के अनुसार कर्म करने को तैयार हूँ।” हैसियतवाले लोगों के सामने आनेवाले प्रलोभन बहुत बड़े हैं, और एक बार प्रलोभन आने पर, उससे उबर पाना बहुत कठिन है। तुम्हें परमेश्वर से सुरक्षा और सहायता लेने की जरूरत है; तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए और अक्सर आत्मचिंतन करना चाहिए। इस प्रकार, तुम खुद को जमीन से जुड़ा और शांत महसूस करोगे। लेकिन अगर प्रार्थना करने के लिए तुम ऐसे उपहार मिलने तक प्रतीक्षा करोगे, तो क्या तुम इस तरह जमीन से जुड़ा हुआ और शांत महसूस करोगे? (तब नहीं करोगे।) तब परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या सोचेगा? क्या तुम्हारे कर्मों से परमेश्वर प्रसन्न होगा, या उनसे नफरत करेगा? वह तुम्हारे कर्मों से घृणा करेगा। क्या समस्या सिर्फ तुम्हारे किसी चीज को स्वीकार करने की है? (नहीं।) तो फिर समस्या कहाँ है? समस्या इस बात में है कि ऐसी स्थिति का सामना होने पर तुम कैसी राय और रवैया अपनाते हो। क्या तुम खुद फैसला कर लेते हो या सत्य खोजते हो? क्या तुम्हारा जमीर का कोई मानक है? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है भी? जब भी ऐसी स्थिति से सामना होता है, तो क्या तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो? क्या तुम पहले अपनी इच्छाएँ संतुष्ट करने की कोशिश करते हो, या पहले प्रार्थना कर परमेश्वर के इरादे जानने की कोशिश करते हो? इस मामले में तुम्हारा खुलासा हो जाता है। तुम्हें ऐसी स्थिति को कैसे सँभालना चाहिए? तुम्हारे पास अभ्यास के सिद्धांत होने चाहिए। पहले बाहर से तुम्हें ऐसे विशेष भौतिक लाभों, इन प्रलोभनों को इनकार करना चाहिए। भले ही तुम्हें ऐसी कोई चीज दी जाए जो तुम्हें खास तौर पर चाहिए, या यह ठीक वही चीज हो जिसकी तुम्हें जरूरत है, तुम्हें इसी तरह उसे इनकार करना चाहिए। भौतिक चीजों का क्या अर्थ है? रोटी, कपड़ा और मकान, और रोजमर्रा जरूरत की तमाम चीजें इनमें शामिल हैं। इन विशेष भौतिक चीजों को जरूर इनकार करना चाहिए। तुम्हें इन्हें इनकार क्यों करना चाहिए? क्या ऐसा करना महज तुम्हारे कर्म का मामला है? नहीं; यह तुम्हारे सहयोगी रवैए का मामला है। अगर तुम सत्य पर अमल करना चाहते हो, परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहते हो, और प्रलोभन से दूर रहना चाहते हो, तो पहले तुम्हें सहयोगी रवैया अपनाना होगा। इस रवैए के साथ तुम प्रलोभन से दूर रह सकोगे, और तुम्हारा अंतःकरण शांत रहेगा। अगर तुम्हारी चाही कोई चीज तुम्हें दी जाए, और तुम उसे स्वीकार कर लो, तो तुम्हारा दिल कुछ हद तक तुम्हारे जमीर की फटकार महसूस करेगा। लेकिन अपने बहानों और मनगढ़ंत बातों के कारण तुम कहोगे कि तुम्हें यह चीज दी जानी चाहिए, यह तुम्हें देय है। और फिर, तुम्हारे जमीर की टीस उतनी सही या स्पष्ट व्यक्त नहीं होगी। कभी-कभी कुछ कारण या विचार और दृष्टिकोण तुम्हारे जमीर को डुला सकते हैं, जिससे कि उसकी टीस उतनी स्पष्ट नहीं होगी। तो क्या तुम्हारा जमीर एक भरोसेमंद मानक है? यह नहीं है। यह अलार्म की घंटी है जो लोगों को चेतावनी देती है। यह कैसी चेतावनी देती है? यह कि सिर्फ जमीर की भावनाओं के सहारे रहने में कोई सुरक्षा नहीं है; व्यक्ति को सत्य सिद्धांत भी खोजने चाहिए। वही भरोसेमंद होता है। लोग, उन्हें रोकनेवाले सत्य के बिना, प्रलोभन में फँस सकते हैं, बहुतेरे कारण और बहाने बना सकते हैं जिससे कि हैसियत के लाभों का उनका लालच संतुष्ट हो सके। इसलिए एक अगुआ के रूप में, तुम्हें अपने दिल में इस एक सिद्धांत का पालन करना होगा : मैं हमेशा इनकार करूँगा, हमेशा दूर रहूँगा, और किसी भी विशेष व्यवहार को पूरी तरह से ठुकरा दूँगा। बुराई से दूर रहने की पहली शर्त इसे पूरी तरह से ठुकरा देना है। अगर तुम्हारे पास बुराई से दूर रहने की पहली शर्त मौजूद है, तो कुछ हद तक तुम पहले से ही परमेश्वर की रक्षा के अधीन हो। और अगर तुम्हारे पास अभ्यास के ऐसे सिद्धांत हैं, और उन्हें मजबूती से थामे रहते हो, तो तुम पहले से ही सत्य पर अमल कर रहे हो और परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हो। तुम पहले से ही सही मार्ग पर चल रहे हो। जब तुम सही मार्ग पर चल रहे हो, और पहले से ही परमेश्वर को संतुष्टि दे रहे हो, तो क्या तुम्हें जमीर की परीक्षा देने की जरूरत है? सिद्धांतों के अनुसार कर्म करना और सत्य पर अमल करना जमीर के मानकों से ऊँचा है। अगर किसी में सहयोग करने का संकल्प हो, और वह सिद्धांतों के अनुसार कर्म कर सकता हो तो वह पहले ही परमेश्वर को संतुष्ट कर चुका है। परमेश्वर मनुष्य से इसी मानक की अपेक्षा रखता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, हैसियत के प्रलोभन और बंधन कैसे तोड़ें
कुछ लोग परमेश्वर के कार्य को नहीं समझते, वे नहीं जानते कि परमेश्वर किसे और कैसे बचाता है। वे देखते हैं कि सभी लोग मसीह-विरोधी स्वभाववाले हैं, वे मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल सकते हैं, और इस तरह उन्हें लगता है कि ऐसे लोगों को उद्धार की कोई आशा नहीं होनी चाहिए। अंत में, उन सबको मसीह-विरोधी करार दे दिया जाएगा। उन्हें बचाया नहीं जा सकता और उन सबको नष्ट हो जाना चाहिए। क्या ऐसी सोच और विचार सही हैं? (नहीं।) तो इस समस्या को कैसे सुलझाया जाए? सबसे पहले तो तुम्हें परमेश्वर के कार्य की समझ होनी चाहिए। परमेश्वर भ्रष्ट मनुष्य को ही बचाता है। भ्रष्ट मनुष्य मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलकर परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है। इसीलिए उसे परमेश्वर के उद्धार की जरूरत है। तो किसी मनुष्य से, मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने के बजाय, परमेश्वर का सच्चा अनुसरण कैसे करवाया जाए? उसे सत्य समझना होगा, आत्मचिंतन कर खुद को और अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना होगा, अपनी शैतानी प्रकृति को जानना होगा। फिर उसे सत्य खोजकर अपना भ्रष्ट स्वभाव ठीक करना होगा। ऐसा करके ही तुम सुनिश्चित कर सकते हो कि तुम मसीह-विरोधियों के मार्ग पर न चलो, खुद एक मसीह-विरोधी न बनो, और ऐसे न बनो जिसे परमेश्वर ठुकरा दे। परमेश्वर अलौकिक तरीकों से कार्य नहीं करता। इसके बजाय वह लोगों के दिलों की गहराई तक पड़ताल करता है। अगर तुम हमेशा हैसियत के लाभों का आनंद उठाते हो, तो परमेश्वर तुम्हें सिर्फ फटकारेगा। वह तुम्हें इस इस गलती के बारे में सचेत करेगा ताकि तुम खुद की जाँच करो और जानो कि यह सत्य के अनुरूप नहीं है और परमेश्वर के लिए सुखद नहीं है। अगर तुम्हें यह एहसास हो सके, और तुम आत्मचिंतन करो और खुद को और जानो, तो तुम्हें इस समस्या को सुलझाने में कठिनाई नहीं होगी। लेकिन अगर तुम ऐसी दशा में लंबे समय तक जीते रहते हो, हमेशा हैसियत के लाभों का आनंद लेते हो, परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हो, आत्मचिंतन नहीं करते हो, और सत्य नहीं खोजते हो, तो परमेश्वर कुछ भी नहीं करेगा। वह तुम्हें त्याग देगा, ताकि तुम उसे अपने साथ महसूस न कर सको। परमेश्वर तुम्हें यह एहसास दिलाएगा कि अगर तुम यूँ ही करते रहे तो तुम यकीनन ऐसे बन जाओगे जिससे परमेश्वर घृणा करता है। परमेश्वर तुम्हें यह जानने देगा कि यह मार्ग गलत है, तुम्हारा जीने का तरीका गलत है। लोगों को ऐसी जागरूकता देने का परमेश्वर का प्रयोजन उन्हें यह बताना है कि कौन-से कर्म सही हैं और कौन-से गलत, ताकि वे सही विकल्प चुन सकें। लेकिन किसी व्यक्ति का सही मार्ग पर चलना उसकी आस्था और सहयोग पर निर्भर करता है। जब परमेश्वर ये चीजें कर रहा होता है, तो वह तुम्हें सत्य की समझ की राह दिखाता है, मगर उससे आगे विकल्प चुनने का काम वह तुम पर छोड़ देता है, यानी बात तुम्हारे सही मार्ग पर चलने पर आ जाती है। परमेश्वर कभी तुम पर थोपता नहीं। वह कभी तुम्हें जबरन नियंत्रित नहीं करता या कुछ करने के लिए आज्ञा नहीं देता, या तुमसे ये या वो काम नहीं करवाता। परमेश्वर इस तरह कार्य नहीं करता। वह तुम्हें चुनने की आजादी देता है। ऐसे समय में, इंसान को क्या करना चाहिए? जब तुम्हें एहसास हो कि तुम गलत कर रहे हो, तुम्हारे जीवन का तरीका गलत है, तो क्या तुम एकाएक सही तरीकों के अनुसार अभ्यास कर सकते हो? ऐसा करना बहुत मुश्किल होगा। इसमें एक युद्ध करना होगा, क्योंकि मनुष्य की पसंदीदा चीजें शैतान का फलसफा और तर्क हैं, जो सत्य के विरुद्ध होते हैं। कभी-कभी तुम जानते हो कि सही क्या होगा और गलत क्या होगा, और तुम्हारे दिल में युद्ध होता है। ऐसे युद्ध के दौरान, तुम्हें अक्सर प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से मार्गदर्शन लेना चाहिए, उसकी डाँट सुननी चाहिए, ताकि तुम जान सको कि वे क्या चीजें हैं जो तुम्हें नहीं करनी चाहिए। फिर, ऐसे प्रलोभनों के विरुद्ध सक्रियता से विद्रोह कर उनसे दूर होकर बचना चाहिए। इसमें तुम्हारे सहयोग की जरूरत पड़ती है। युद्ध के दौरान, तुम गलतियाँ करते रहोगे, और गलत रास्ता पकड़ना आसान होगा। भले ही मन-ही-मन तुम सही दिशा चुनो, यह सुनिश्चित नहीं है कि तुम सही मार्ग पर चलोगे। क्या चीजें वास्तव में ऐसी नहीं होतीं? पल भर की लापरवाही से, तुम गलत रास्ता पकड़ लोगे। यहाँ “पल भर की लापरवाही” का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि प्रलोभन बहुत बड़ा है। हो सकता है, तुम्हारे लिए यह शक्ल-सूरत, तुम्हारी मनःस्थिति या किसी विशेष संदर्भ या खास माहौल का विचार हो। दरअसल, सबसे गंभीर घटक तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव है, जो तुम पर हावी होकर तुम्हें नियंत्रित करता है। सही मार्ग पर चलने में यही तुम्हारे लिए मुश्किल खड़ी करता है। संभव है तुम थोड़ी आस्था रखते हो, फिर भी हालात तुम्हें हिलाकर डावाँडोल कर देते हैं। जब तक तुम्हारी काट-छाँट न हो, तुम्हें दंडित और अनुशासित न किया जाए, तुम्हारी राह को बाधाएँ रोक न दें, और तुम्हें आगे कोई राह न दिखाई दे, तब तक तुम्हें एहसास नहीं होगा कि शोहरत, लाभ और हैसियत के पीछे भागना सही तरीका नहीं है, बल्कि ऐसा कुछ है जिससे परमेश्वर नफरत कर श्राप देता है, परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मार्ग पर चलना ही जीवन का उचित मार्ग है, और अगर तुम इस मार्ग पर चलने की इच्छाशक्ति को दृढ़ न करो, तो तुम पूरी तरह हटा दिए जाओगे। लोग ताबूत देखने तक रोते नहीं है! लेकिन इस युद्ध के दौरान, अगर मनुष्य की आस्था सुदृढ़ है, सहयोग करने का उसका संकल्प दृढ़ है, और उसमें सत्य का अनुसरण करने की इच्छाशक्ति है, तो उसके लिए इन प्रलोभनों से पार पाना आसान होगा। अगर अपनी प्रतिष्ठा का खास ख्याल, हैसियत का प्रेम, शोहरत, लाभ और देहसुख का लालच तुम्हारी अहम कमजोरी है, और ये चीजें तुम्हारे भीतर विशेष रूप से मजबूत हैं, तो तुम्हारे लिए विजयी होना मुश्किल होगा। तुम्हारे लिए विजयी होना मुश्किल होगा का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि तुम्हारे लिए सत्य के अनुसरण का मार्ग चुनना मुश्किल होगा, इसलिए इसके बजाय तुम गलत मार्ग चुन सकते हो, जिसके कारण परमेश्वर तुमसे नफरत कर तुम्हें त्याग देगा। लेकिन, अगर तुम हमेशा सावधान और विवेकपूर्ण रहते हो, फटकार सुनने और अनुशासित होने के लिए अक्सर परमेश्वर के सम्मुख आ सकते हो, तुम हैसियत के लाभों का आनंद नहीं उठाते, न ही शोहरत, लाभ या देहसुख का लालच करते हो और ऐसे विचार आने पर, तुम उनके कारगर होने से पहले ही, अपनी पूरी ताकत से उनका विद्रोह करने के लिए परमेश्वर का सहारा लेते हो, परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोजते हो, और आखिरकार बाकी सब पर ध्यान न देकर, सत्य के अभ्यास के मार्ग पर चलने और उस वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम हो जाते हो, तब क्या तुम बहुत संभवतः बहुत बड़ा प्रलोभन दिखने पर भी सही दिशा नहीं चुनोगे? (बिल्कुल।) यह तुम्हारी सामान्य संचित आरक्षित निधियों के भरोसे होता है। बताओ भला : अगर किसी व्यक्ति के सामने बहुत बड़ा प्रलोभन आ जाए, तो क्या वह अपने मौजूदा आध्यात्मिक कद, अपनी खुद की इच्छाशक्ति या अपनी सामान्य संचित आरक्षित निधियों के सहारे, परमेश्वर के इरादे को पूरी तरह संतुष्ट कर सकता है? (नहीं।) क्या वह उसे आंशिक रूप से संतुष्ट कर सकता है? (हाँ।) मनुष्य शायद उसे आंशिक रूप से संतुष्ट करने में समर्थ हो, मगर जब उसके सामने बहुत बड़ी मुश्किलें आ जाती हैं, तो परमेश्वर का दखल जरूरी हो जाता है। अगर तुम सत्य पर अमल करना चाहते हो, तो सिर्फ सत्य की इंसानी समझ और इंसानी इच्छाशक्ति पर निर्भर रहकर तुम्हें संपूर्ण सुरक्षा नहीं मिल सकती, न ही तुम परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर सकते हो और बुराई से दूर रह सकते हो। अहम यह है कि मनुष्य में सहयोग करने का संकल्प होना चाहिए, और शेष के लिए परमेश्वर के कार्य के सहारे रहना चाहिए। मान लो कि तुम कहते हो, “मैंने इसके लिए बहुत प्रयास खपाए हैं, और भरसक काम किया है। भविष्य में जो भी प्रलोभन या हालात आएँ, मेरा आध्यात्मिक कद इतना ही है और मैं बस इतना ही कर सकता हूँ।” तुम्हें ऐसा करते देख परमेश्वर क्या करेगा? परमेश्वर ऐसे प्रलोभनों से तुम्हारी रक्षा करेगा। जब परमेश्वर ऐसे प्रलोभनों से तुम्हारी रक्षा करता है, तो तुम सत्य पर अमल करने में समर्थ हो पाओगे, तुम्हारी आस्था और अधिक दृढ़ हो जाएगी, और तुम्हारा आध्यात्मिक कद धीरे-धीरे बढ़ेगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, हैसियत के प्रलोभन और बंधन कैसे तोड़ें