26. दुराग्रही स्वभाव की समस्या का समाधान कैसे करें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

जब लोगों का हठी स्वभाव होता है तो उनकी कैसी मनोदशा होती है? वे मुख्य रूप से जिद्दी और आत्मतुष्ट होते हैं। वे हमेशा अपने ही विचारों से चिपके रहते हैं, हमेशा अपनी ही बात को सही मानते हैं और निहायत कड़े और दुराग्रही होते हैं। यह हठधर्मिता का रवैया है। वे पुराने जमाने के किसी घिसे-पिटे रिकार्ड की तरह एक ही रट लगाए रहते हैं, किसी की नहीं सुनते, कोई कार्य पद्धति चाहे सही हो या गलत उसी पर अड़े रहते हैं, उसे ही अपनाने पर जोर देते हैं; उनमें थोड़ा-सा भी बदलने की भावना नहीं होती। जैसी कि कहावत है, “मरे हुए सूअर उबलते पानी से नहीं डरते।” लोग अच्छी तरह जानते हैं कि क्या करना सही है, फिर भी वे वैसा नहीं करते, दृढ़तापूर्वक सत्य स्वीकारने से मना कर देते हैं। यह एक प्रकार का स्वभाव है : हठधर्मिता। तुम लोग किस प्रकार की स्थितियों में हठी स्वभाव प्रकट करते हो? क्या तुम प्रायः हठी होते हो? (हाँ।) बहुत बार! और चूँकि हठधर्मिता तुम्हारा स्वभाव है, इसलिए वह तुम्हारे जीवन में हर दिन और हर पल तुम्हारे साथ रहती है। हठधर्मिता लोगों को परमेश्वर के सामने आ पाने से रोकती है, वह उन्हें सत्य स्वीकार पाने से रोकती है और वह उन्हें सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने से रोकती है। और अगर तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाते, तो क्या तुम्हारे स्वभाव के इस पहलू में बदलाव हो सकता है? बड़ी मुश्किल से ही हो सकता है। क्या अब तुम लोगों के स्वभाव के इस हठधर्मिता वाले पहलू में कोई बदलाव आया है? और कितना बदलाव आया है? उदाहरण के लिए मान लो, तुम बेहद जिद्दी हुआ करते थे लेकिन अब तुममें थोड़ा बदलाव आया है : जब तुम किसी समस्या का सामना करते हो तो तुममें कुछ अंतःकरण की भावना होती है और तुम मन-ही-मन कहते हो, “इस मामले में मुझे कुछ सत्य का अभ्यास करना है। चूँकि परमेश्वर ने इस हठी स्वभाव को उजागर कर दिया है—चूँकि मैंने इसे सुना है और अब मैं इसे जानता हूँ—इसलिए मुझे बदलना होगा। जब मैंने अतीत में कुछ बार इस तरह की चीजों का सामना किया था, तो मैं अपनी दैहिक इच्छाओं के अनुसार चलकर असफल रहा था और मैं इससे खुश नहीं हूँ। इस बार मुझे सत्य का अभ्यास करना चाहिए।” ऐसी आकांक्षा के साथ सत्य का अभ्यास करना संभव है, और यह बदलाव है। जब तुम कुछ समय इस तरह से अनुभव कर लेते हो और तुम और ज्यादा सत्यों को अभ्यास में लाने में सक्षम होते हो और इससे बड़े बदलाव आते हैं और तुम्हारा विद्रोही और हठी स्वभाव पहले से कम प्रकट होता है तो क्या तुम्हारे जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव आता है? अगर तुम्हारा विद्रोही स्वभाव स्पष्ट रूप से पहले से ज्यादा कम हो गया है, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारा समर्पण बढ़ गया है तो फिर वास्तविक बदलाव आ चुका है। तो सच्चा समर्पण पाने के लिए तुम्हें किस हद तक बदलना चाहिए? तुम तब सफल होगे जब तुममें थोड़ी-सी भी हठधर्मिता नहीं होगी, बल्कि सिर्फ समर्पण होगा। यह एक धीमी प्रक्रिया है। स्वभाव में बदलाव रातोरात नहीं होते, इसमें अनुभव का लंबा दौर लगता है, यहाँ तक कि पूरा जीवन भी लग सकता है। कभी-कभी बड़े-बड़े कष्ट सहने पड़ते हैं, मरने और पुनः जन्म लेने जैसे कष्ट, अपने सड़े-गले अंग काटने से भी ज्यादा दर्दनाक और कठिन कष्ट।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है

जब कोई परमेश्वर के सामने अहंकार, धोखा और पाखंड प्रकट करता है, तो क्या वह दिल की गहराई से इस बारे में जानता है? (हाँ।) जब वह यह जानता है, तो वह इसका क्या करता है? क्या वह स्वयं को रोकता है? क्या वह परहेज करता है? क्या वह स्वयं पर विचार करता है? (नहीं।) यह कैसा स्वभाव है जब कोई व्यक्ति जानता है कि उसने अहंकारी स्वभाव प्रकट किया है लेकिन फिर भी वह इस पर विचार नहीं करता या स्वयं को जानने का प्रयास नहीं करता, और यदि कोई उसे इस बारे में बताता है, तो भी वह इसे स्वीकार नहीं करता, और इसके बजाय अपना बचाव करने की कोशिश करता है? (हठधर्मिता।) यह सही है, यह हठधर्मिता है। इस प्रकार का हठधर्मी स्वभाव अन्य लोगों के सामने कैसे भी क्‍यों न प्रकट हो, और भले ही ऐसा रवैया किसी भी संदर्भ में क्‍यों न प्रकट हो, उस व्‍यक्ति का स्‍वभाव हठधर्मी है। चाहे लोग कितने भी कपटी और छद्मवेशी क्यों न हों, उनका यह अड़ियल स्वभाव आसानी से उजागर हो जाता है। चूँकि लोग शून्य में नहीं रहते, और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे अन्य लोगों के सामने हैं या नहीं, सभी लोग परमेश्वर के सामने रहते हैं, और हर व्यक्ति परमेश्वर की जाँच के अधीन है। यदि लोग आम तौर पर दुराग्रही, लम्पट, असंयमी हैं, और उनकी ऐसी प्रवृत्ति और भ्रष्टता के प्रकाशन हैं, और यदि, जब उन्हें इसका एहसास होता है, तब भी वे पीछे नहीं हटते, और इसकी पहचान कर लेने पर भी पश्चाताप नहीं करते, खुल कर संगति नहीं करते, या इस समस्या को हल करने के लिए सत्य की खोज नहीं करते तो यह हठधर्मिता है। हठधर्मिता की अभिव्यक्ति के संदर्भ में, इसके दो प्रकार हैं : “हठधर्मिता” और “कठोरता।”[क] “हठ” का अर्थ है बहुत जिद्दी होना, अपने तरीकों में कोई बदलाव न करना, और नरम न होना। “कठोरता” का अर्थ है कि अन्य लोग उसके संपर्क में नहीं आना चाहते और ऐसा करना उनके लिए पीड़ादायक होता है। आम तौर पर लोग ऐसे लोगों के संपर्क में आने के इच्‍छुक नहीं होते जिनका स्वभाव अड़ियल होता है, ठीक उसी तरह जैसे लोग कठोर चीजों के संपर्क में नहीं आना चाहते और ऐसा करने पर बहुत असहज महसूस करते हैं; लोगों को मुलायम चीजें पसंद होती हैं, मुलायम चीजों की बनावट लोगों को अच्‍छा महसूस कराती है, और इससे उन्हें खुशी मिलती है, जबकि हठधर्मिता बिल्कुल विपरीत है। हठधर्मिता लोगों को एक रवैया प्रदर्शित करने पर मजबूर करती है, और यह रवैया अडियलपन और जिद्दीपन है। यह कौन-सा स्‍वभाव है? यह हठधर्मी स्वभाव है। इसका मतलब यह है कि जब व्यक्ति किसी चीज का सामना करता है, भले ही वह यह जानता है या उसे इसका थोड़ा-बहुत एहसास होता है कि उसका यह रवैया अच्छा और सही नहीं है, तो वह अपने अड़ियल स्वभाव के कारण यह सोचने के लिए प्रेरित होता है, “अगर किसी को पता चल भी गया तो क्या? मैं ऐसा ही हूँ!” यह कैसा रवैया है? वह इस मुद्दे से इनकार करता है, उसे नहीं लगता कि यह रवैया बुरा या परमेश्वर के प्रति विद्रोहपूर्ण है, यह शैतान से आता है, या यह शैतान के स्वभाव का प्रकाशन है; उसे यह समझ नहीं आता या एहसास नहीं होता कि परमेश्वर इसे कैसे देखता है और परमेश्वर इससे कैसे घृणा करता है—यही इस समस्या की गंभीरता है। हठधर्मिता का स्वभाव अच्छा है या बुरा? (यह बुरा है।) यह एक शैतानी स्वभाव है। इससे लोगों के लिए सत्य को स्वीकार करना कठिन हो जाता है, और इससे उनके लिए पश्चाताप करना और भी कठिन हो जाता है। सभी शैतानी स्वभाव नकारात्मक चीजें हैं, उन सभी से परमेश्वर घृणा करता है, और उनमें से कोई भी सकारात्मक चीज नहीं है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने स्‍वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है

फुटनोट :

क. मूल पाठ में, “इसके दो प्रकार हैं : ‘हठधर्मिता’ और ‘कठोरता’” यह वाक्यांश नहीं है।


एक और मुख्य चीज है, जो हर व्यक्ति के स्वभाव सार में मौजूद होती है : हठधर्मिता। यह भी काफी ठोस और स्पष्ट रूप से प्रकट होती है, है न? (हाँ, होती है।) ये दो मुख्य तरीके हैं, जिनसे मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव अभिव्यक्त और प्रकट होता है। ये विशिष्ट व्यवहार, ये विशिष्ट विचार, दृष्टिकोण इत्यादि, वास्तव में और सटीक रूप से दर्शाते हैं कि मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के भीतर सत्य से विमुख होने का एक तत्त्व है। निस्संदेह, मनुष्य के स्वभाव में जो अधिक प्रमुख है, वह हठधर्मिता की अभिव्यक्तियाँ हैं : परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, और परमेश्वर के कार्य के दौरान मनुष्य के जो भी भ्रष्ट स्वभाव उजागर होते हैं, लोग हठपूर्वक उसे स्वीकारने से मना करते हैं और उसका विरोध करते हैं। स्पष्ट प्रतिरोध या तिरस्कारपूर्ण अस्वीकृति के अतिरिक्त, निश्चित रूप से, एक अन्य प्रकार का व्यवहार है, जो तब प्रकट होता है जब लोग परमेश्वर के कार्य से कोई सरोकार नहीं रखते, जैसे कि परमेश्वर के कार्य का उनसे कोई लेना-देना न हो। परमेश्वर से सरोकार न रखने का क्या अर्थ है? यह तब होता है, जब व्यक्ति कहता है, “तुम्हें जो कहना है, कहो—इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे किसी न्याय या खुलासे का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। मैं इसे स्वीकारता या मानता नहीं।” क्या हम इस तरह के रवैये को “हठधर्मी” कह सकते हैं? (हाँ।) यह हठधर्मिता की अभिव्यक्ति है। ये लोग कहते हैं, “मैं वैसे ही जीता हूँ, जैसे मैं चाहता हूँ, जिस तरह से मुझे आराम मिलता है, और जिस तरह से मुझे खुशी मिलती है। तुम जिन व्यवहारों के बारे में बात करते हो, जैसे कि अहंकार, छल, सत्य-विमुख होना, दुष्टता, क्रूरता, इत्यादि—अगर वे मुझमें हैं भी, तो क्या? मैं उनकी जाँच नहीं करूँगा, या उन्हें नहीं जानूँगा, या उन्हें नहीं स्वीकारूँगा। मैं ऐसे ही परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, तुम क्या कर लोगे?” यह हठधर्मिता का रवैया है। जब लोग परमेश्वर के वचनों से सरोकार नहीं रखते या उन पर ध्यान नहीं देते, जिसका अर्थ है कि वे समान रूप से परमेश्वर की उपेक्षा करते हैं, चाहे वह कुछ भी कहे, चाहे वह अनुस्मारकों के रूप में बोले या चेतावनियों या उपदेशों के रूप में—चाहे वह बोलने का कोई भी तरीका इस्तेमाल करे, या चाहे उसके भाषण का स्रोत और लक्ष्य कुछ भी हों—तो उनका हठधर्मी रवैया होता है। इसका मतलब यह है कि वे परमेश्वर के अत्यावश्यक इरादे पर कोई ध्यान नहीं देते, मनुष्य को बचाने की उसकी ईमानदार, नेकनीयत इच्छा पर तो बिल्कुल भी नहीं। परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, लोगों में सहयोग करने का संकल्प नहीं होता और वे सत्य की दिशा में प्रयास करने के इच्छुक नहीं होते। यहाँ तक कि अगर वे मानते भी हों कि परमेश्वर का न्याय और प्रकाशन पूरी तरह से तथ्यात्मक है, तो भी उनके दिलों में कोई पछतावा नहीं होता, और वे पहले की तरह ही विश्वास करते रहते हैं। अंत में, जब वे अनेक उपदेश सुन लेते हैं, तो भी वे यही बात कहते हैं : “मैं एक सच्चा विश्वासी हूँ, किसी भी स्थिति में, मेरी मानवता खराब नहीं है, मैं जानबूझकर बुराई नहीं करूँगा, मैं चीजें त्यागने में सक्षम हूँ, मैं कठिनाई झेल सकता हूँ, और मैं अपनी आस्था के लिए कीमत चुकाने को तैयार हूँ। परमेश्वर मुझे नहीं त्यागेगा।” क्या यह वैसा ही नहीं है, जैसा पौलुस ने कहा था : “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है”? लोगों का इसी तरह का रवैया होता है। ऐसे रवैये के पीछे कौन-सा स्वभाव है? हठधर्मिता।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1)

यदि लोगों में जमीर और विवेक हो, और वे सत्य के लिए तरसते हों, फिर भी वे गलतियाँ करने के बाद आत्मचिंतन कर परिवर्तित होना कभी न जानते हों, और इसके बजाय यह मानते हों कि रात गई बात गई और सुनिश्चित हों कि वे गलत नहीं हैं, तो यह कैसा स्वभाव दर्शाता है? किस तरह का व्यवहार? ऐसे व्यवहार का सार क्या है? (हठी होना।) ऐसे लोग हठी होते हैं, और चाहे जो हो जाए, वे इसी मार्ग का अनुसरण करेंगे। परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद नहीं करता। जब योना ने पहली बार नीनवे के लोगों के सामने परमेश्वर के वचन व्यक्त किए, तो उसने क्या कहा? (“अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा” (योना 3:4)।) नीनवे के लोगों ने इन वचनों पर क्या प्रतिक्रिया दी? जब उन्होंने देखा कि परमेश्वर उन्हें नष्ट करने जा रहा है, तो उन्होंने जल्दी से बोरी और राख ले ली, जल्दी से अपने पाप स्वीकार कर लिए, और बुराई का पथ छोड़ दिया। प्रायश्चित्त करने का यही अर्थ है। यदि मनुष्य प्रायश्चित्त कर पाता है, तो यह मनुष्य को एक बड़ा अवसर प्रदान करता है। वह क्या अवसर है? यह जीवित रहने का अवसर है। वास्तविक प्रायश्चित्त के बिना, आगे बढ़ते रहना कठिन होगा, चाहे तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में या फिर उद्धार के तुम्हारे अनुसरण में। प्रत्येक चरण में—जब परमेश्वर तुम्हें अनुशासित कर रहा हो या ताड़ना दे रहा हो, या जब वह तुम्हें याद दिला रहा हो और तुम्हें उपदेश दे रहा हो—अगर तुम्हारे और परमेश्वर के बीच टकराव हुआ है, फिर भी तुम अ‍पने आप में बदलाव नहीं लाते और अपने विचारों, दृष्टिकोण और प्रवृत्ति से चिपके रहते हो, उस समय भले ही तुम्हारे कदम आगे बढ़ रहे हों, तुम्हारे और परमेश्वर के बीच संघर्ष, उसके प्रति तुम्हारी गलतफहमियों, उसके खिलाफ तुम्हारी शिकायतों और विद्रोह में कोई सुधार नहीं आएगा और तुम्हारा हृदय उसकी तरफ नहीं मुड़ेगा। तब परमेश्वर अपने स्तर पर तुम्हें निकाल देगा। हालाँकि तुमने हाथ लिया हुआ कर्तव्य छोड़ा नहीं है, तुम अभी भी अपना कर्तव्य निभा रहे हो और तुम्हारे अंदर परमेश्वर के आदेश के प्रति थोड़ी-बहुत निष्ठा बची है, लोग इसे संतोषजनक मान लेते हैं, लेकिन एक चीज अब भी बाकी है : तुम्हारे और परमेश्वर के बीच के विवाद ने स्थायी गाँठ बना दी है। तुमने इसे सुलझाने और परमेश्वर के इरादों की सही समझ हासिल करने के लिए सत्य का प्रयोग नहीं किया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि परमेश्वर के प्रति तुम्हारी गलतफहमी बढ़ रही है, और तुम्हें हमेशा परमेश्वर ही गलत लगता है, तुम्हें लगता है कि तुम्हारे साथ नाइंसाफी की जा रही है। इसका अर्थ यह है कि तुम्हारे अंदर बदलाव नहीं आया है। तुममें अभी भी विद्रोह का भाव है, धारणाएँ हैं और अभी भी परमेश्वर के प्रति गलतफहमी बनी हुई है, जिसकी वजह से तुम्हारी मानसिकता अवज्ञाकारी है, तुम हमेशा विद्रोही रवैया अपनाए रहते हो और परमेश्वर का विरोध करते हो। क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर से विद्रोह नहीं करता है, उसका विरोध नहीं करता है और अड़ियल बनकर प्रायश्चित करने से इंकार नहीं करता है? परमेश्वर लोगों के बदलाव लाने को इतना महत्व क्यों देता है? सृष्टिकर्ता के प्रति सृजित प्राणी का रवैया क्या होना चाहिए? उसे इस प्रवृत्ति से देखना चाहिए कि सृष्टिकर्ता चाहे कुछ भी करे, वह सही है। यदि तुम इस बात को स्वीकार नहीं करते हो कि सृष्टिकर्ता सत्य, मार्ग और जीवन है, तो फिर तुम्हारे लिए ये शब्द खोखले हैं, और यदि ये शब्द तुम्हारे लिए खोखले हैं, तो क्या तुम उसके बावजूद उद्धार पा सकोगे? तुम उद्धार नहीं पा सकते। तुम पात्र नहीं होगे; परमेश्वर तुम जैसे लोगों को नहीं बचाता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (3)

कुछ लोग हमेशा अतीत के अपराधों से बेबस होकर सोचते हैं, “परमेश्वर संभवतः किसी भी ऐसी चीज को क्षमा नहीं कर सकता जो उसके स्वभाव को नाराज करती है। उसके हृदय ने काफी पहले ही मुझे तिरस्कृत कर दिया है और मेरे लिए सत्य का अनुसरण करना व्यर्थ है।” यह किस प्रकार का रवैया है? इसे परमेश्वर पर संदेह करना और उसके लिए गलतफहमी पालना कहते हैं। वास्तव में इससे पहले कि तुम परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करते, उसके प्रति तुम्हारा रवैया अनादर, असम्मान और अनमनेपन से भरा था, और तुमने परमेश्वर को परमेश्वर नहीं माना। लोग अज्ञानता और आवेग के क्षण के चलते अपने शैतानी स्वभाव प्रकट करते हैं और यदि कोई उन्हें अनुशासित करने या रोकने वाला न तो वे अपराध करते हैं। जब उनके अपराध दुष्परिणामों की ओर ले चलते हैं तो वे पश्चात्ताप करना नहीं जानते और तब भी असहज रहते हैं। वे अपने भविष्य के परिणाम और गंतव्य को लेकर चिंतित रहते हैं और ये सभी चीजें अपने हृदय में लादे रहकर हमेशा यही सोचते हैं, “मैं समाप्त और बर्बाद हो चुका हूँ, इसलिए मैं तो खुद को नाउम्मीद मानकर खारिज करने वाला हूँ। यदि एक दिन परमेश्वर मुझे न चाहे और मुझसे पूरी तरह घृणा करने लगे तो सबसे बुरा यही होगा कि मैं मर जाऊँगा। मैं स्वयं को परमेश्वर के आयोजन के हवाले छोड़ता हूँ।” ऊपर से तो वे स्वयं को परमेश्वर के आयोजनों के हवाले छोड़कर उसकी व्यवस्थाओं और संप्रभुता के प्रति समर्पण करने की बात करते हैं, पर उनकी वास्तविक दशा क्या होती है? वे प्रतिरोधी, दुराग्रही और पश्चात्तापहीन होते हैं। पश्चात्तापहीन होने का अर्थ क्या है? इसका मतलब है कि वे अपने विचारों से चिपके रहते हैं, परमेश्वर की कही गई किसी बात में विश्वास या उसे स्वीकार नहीं करते और हमेशा यही सोचते हैं, “परमेश्वर के प्रोत्साहन और सांत्वना भरे वचन मेरे लिए नहीं बल्कि दूसरे लोगों के लिए हैं। जहाँ तक मेरी बात है, मैं तो समाप्त हो चुका हूँ, मैं पहले ही खारिज किया जा चुका हूँ, मैं किसी योग्य नहीं—परमेश्वर काफी समय पहले ही मुझ पर प्रयास करना छोड़ चुका है, और चाहे मैं जैसे भी अपने पाप स्वीकार करूँ, प्रार्थना करूँ या पछतावे के आँसू रोऊँ, वह मुझे कभी भी दूसरा अवसर नहीं देगा।” परमेश्वर को मापने और उसके बारे में अनुमान लगाने का यह कैसा रवैया है? क्या यह कोई पाप की स्वीकारोक्ति और पश्चात्ताप का रवैया है? बिल्कुल भी नहीं। इस प्रकार का रवैया एक प्रकार के स्वभाव की निशानी है—दुराग्रही, निपट दुराग्रही स्वभाव। बाहरी तौर पर वे बहुत आत्म-तुष्ट नजर आते हैं, वे किसी की नहीं सुनते, हर धर्म-सिद्धांत को समझते हैं, पर कुछ भी अभ्यास नहीं करते। वास्तव में उनका दुराग्रही स्वभाव होता है। परमेश्वर के नजरिए से देखें तो दुराग्रह समर्पण है या विद्रोह? यह साफ तौर पर विद्रोह है। लेकिन उन्हें लगता है कि उनके साथ बहुत अन्याय हुआ है, “मैं परमेश्वर से इतना प्रेम किया करता था, पर वह मेरी एक छोटी-सी गलती भी नहीं भुला सकता और अब मेरा परिणाम हाथ से निकल चुका है। परमेश्वर ने मुझ जैसे लोगों पर अपना फैसला सुना दिया है? मैं पौलुस हूँ।” क्या परमेश्वर ने कहा कि तुम पौलुस हो? परमेश्वर ने ऐसा नहीं कहा। तुम्हारा यह कहना कि तुम पौलुस हो—यह ख्याल कहाँ से आता है? तुमने कहा कि परमेश्वर तुम्हें मार गिराकर दंडित करेगा और तुम्हें नरक में भेजा जाएगा। यह परिणाम किसने तय किया? यह साफ तौर पर खुद तुम्हीं ने तय किया क्योंकि परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि जब उसका कार्य समाप्त हो जाएगा तो तुम्हें नरक भेज दिया जाएगा और यह भी कि तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते। जब तक परमेश्वर यह न कहे कि वह तुमसे तिरस्कार करता है, तब तक तुम्हारे पास सत्य के अनुसरण का अवसर और अधिकार है, और तुम्हें बस परमेश्वर के वचनों का न्याय और उसकी ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए। तुम्हारा ऐसा ही रवैया होना चाहिए क्योंकि यह सत्य को और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने और सच्चे पश्चात्ताप का रवैया है। तुम हमेशा स्वयं अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और गलतफहमियों से चिपके रहते हो; तुम पहले ही इन चीजों से भरे और घिरे हुए हो, और तुम तो यह भी मान बैठे हो कि परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाएगा, और तुमने अपना कर्तव्य निभाने के दौरान अनमनेपन की मानसिकता अपना ली है, यह नाउम्मीद मानकर खुद को खारिज करने की मानसिकता है, नकारात्मक और निष्क्रिय सोच है, एक-एक दिन काटकर जीने की मानसिकता है, एक जैसे-तैसे काम निपटाने की मानसिकता है। क्या तुम सत्य हासिल कर सकते हो? इस मानसिकता के साथ तुम सत्य हासिल नहीं कर पाओगे और तुम्हें नहीं बचाया जाएगा। क्या ऐसा व्यक्ति दयनीय नहीं है? (हाँ, वे दयनीय हैं।) ऐसा क्या है जो उन्हें इतना दयनीय बनाता है? यह अज्ञानता के कारण है। जब चीजें घटित होती हैं तो वे सत्य नहीं खोजते बल्कि हमेशा अध्ययन कर कयास लगाते रहते हैं, और यहाँ तक कि परमेश्वर के उन वचनों की तह में जाकर यह देखना चाहते हैं कि उनकी हालत के बारे में कौन-से वचन कहे गए हैं, परमेश्वर का रवैया क्या होता है, कैसे वह फैसला सुनाता है, और उनका परिणाम क्या होगा—और इसके जरिए तय करते हैं कि इस मामले का नतीजा क्या रहेगा। क्या यह सत्य खोजने का ढंग है? निश्चित रूप से नहीं। वे परमेश्वर के निंदा और शाप के वचनों को अपने सिर के ऊपर लटका लेते हैं, नकारात्मकता में जीते हैं—जो देखने में तो दुर्बलता, कमजोरी और नकारात्मकता लगती है, पर असल में यह एक प्रकार का प्रतिरोध है। इस प्रतिरोध के पीछे का स्वभाव क्या है? यह दुराग्रह है। परमेश्वर की नजरों में यह दुराग्रह एक किस्म का विद्रोह है और इसी से वह सबसे अधिक नफरत करता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अनुसरण करने से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है

क्या तुम लोग जानते हो परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को त्याग देता है? (जो निरंतर हठ करते हैं और परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप नहीं करते।) इस प्रकार के लोगों की विशिष्ट अवस्था क्या होती है? (अपने कर्तव्य निभाते समय वे हमेशा अनमने होते हैं, और समस्याओं का सामना होने पर उन्हें हल करने के लिए वे सत्य नहीं खोजते हैं। वे इस बारे में गंभीर नहीं होते कि उन्हें सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए, और वे हर काम लापरवाही से करते हैं। वे केवल बुरे या खराब काम न करके ही संतुष्ट रहते हैं, सत्य खोजने का प्रयास नहीं करते।) असावधान व्यवहार हालात पर निर्भर करता है। कुछ लोग ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि वे सत्य नहीं समझते, यहाँ तक कि उन्हें असावधान और लापरवाह होना सामान्य बात लगती है। कुछ लोग जान-बूझ कर असावधान होते हैं, जान-बूझ कर इस तरह से कार्य करने को चुनते हैं। जब वे सत्य को नहीं समझ पाते तो इस तरह व्यवहार करते हैं, और सत्य समझने के बाद भी, वे अपने व्यवहार में सुधार नहीं करते हैं। वे सत्य का अभ्यास नहीं करते, जरा-सा भी बदलाव किए बिना लगातार इसी तरह से काम करते रहते हैं। जब कोई उनकी आलोचना करता है तो वे उस पर ध्यान नहीं देते, न ही काट-छाँट किए जाने को स्वीकारते हैं। इसके बजाय वे हठपूर्वक अंत तक अपना पक्ष पकडे रहते हैं। इसे क्या कहा जाता है? यह हठ है। हर कोई जानता है कि “हठ” एक नकारात्मक शब्द है, एक अपमानजनक शब्द है। यह अच्छा शब्द नहीं है। तो तुम लोगों को क्या लगता है, यदि किसी के लिए “हठ” शब्द का उपयोग किया जा रहा है और वह उसके विवरण पर सही बैठता है, तो उसका परिणाम क्या होगा? (परमेश्वर उन्हें ठुकरा देगा और किनारे कर देगा।) तुम सब जान लो, परमेश्वर इसी प्रकार के हठी लोगों से सबसे अधिक घृणा करता है और इन्हें ही त्यागना चाहता है। वे अपने गलत कर्मों से पूरी तरह वाकिफ होते हैं पर पश्चात्ताप नहीं करते, कभी अपनी गलतियाँ नहीं मानते और खुद को सही ठहराने और दूसरों पर दोष मढ़ने के लिए हमेशा बहाने बनाते हैं और तर्क देते हैं, और वे अपने कर्मों को दूसरों की नजरों से बचाते हुए, बिना किसी पछतावे के या अपने दिल में बिना किसी स्वीकार के लगातार गलतियाँ करते रहते हैं और उनसे बचने के लिए आसान और टालमटोल वाले रास्ते खोजने की कोशिश करते हैं। ऐसा व्यक्ति बहुत कष्टदायक होता है, और उसके लिए उद्धार प्राप्त करना आसान नहीं होता है। ये वही लोग हैं जिनका परमेश्वर परित्याग करना चाहता है। परमेश्वर ऐसे लोगों का परित्याग क्यों करेगा? (क्योंकि वे सत्य को बिल्कुल नहीं स्वीकारते, और उनका जमीर सुन्न हो गया है।) ऐसे लोगों को बचाया नहीं जा सकता। परमेश्वर इन लोगों को नहीं बचाता; वह ऐसे बेकार काम नहीं करता। बाहरी तौर पर ऐसा लगता है कि परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता है, और उन्हें नहीं चाहता है, पर वास्तव में इसके पीछे एक व्यावहारिक कारण है, जो यह है कि ये लोग परमेश्वर के उद्धार को नहीं स्वीकारते हैं; वे परमेश्वर के उद्धार को ठुकरा कर उसका प्रतिरोध करते हैं। वे सोचते हैं, “तुम्हारे प्रति समर्पण करने, सत्य स्वीकारने और सत्य का अभ्यास करने से मुझे क्या हासिल होगा? इसमें क्या फायदा है? मैं इसे तभी करूँगा जब इससे मेरा कोई फायदा होगा। अगर कोई फायदा नहीं हुआ तो मैं नहीं करूंगा।” ये किस प्रकार के लोग हैं? ये स्वार्थ से प्रेरित लोग हैं, जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते वे सभी स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। स्वार्थ से प्रेरित लोग सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते हैं। यदि तुम स्वार्थ से प्रेरित किसी व्यक्ति के साथ सत्य पर संगति करने की कोशिश करोगे, और उससे खुद को जानने और अपनी गलतियाँ मानने के लिए कहोगे, तो वह कैसी प्रतिक्रिया देगा? “अपनी गलतियाँ मानने से मुझे क्या लाभ मिलेगा? यदि तुम मुझसे यह स्वीकार करवाते हो कि मैंने कुछ गलत किया है, और मुझे मेरे पापों को कबूल करके पश्चात्ताप करने पर मजबूर करते हो, तो मुझे कौन-से आशीष प्राप्त होंगे? मेरी प्रतिष्ठा और हितों को नुकसान होगा। मुझे घाटा होगा। इसकी भरपाई कौन करेगा?” यह उनकी मानसिकता है। वे केवल अपना निजी फायदा खोजते हैं, और महसूस करते हैं कि परमेश्वर के आशीष प्राप्त करने के लिए किसी खास तरीके से काम करना बहुत अस्पष्ट है। वे बिल्कुल नहीं मानते हैं कि यह मुमकिन है; वे उसी पर यकीन करते हैं जो अपनी आँखों से देखते हैं। ऐसे लोग स्वार्थ से प्रेरित होते हैं, और वे इस शैतानी फलसफे के अनुसार जीते हैं कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।” यही उनका प्रकृति सार है। उनके दिलों में, परमेश्वर को स्वीकारने और सत्य को स्वीकारने का अर्थ है कि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। बुराई न करना उन्हें स्वीकार्य है, पर इससे उन्हें फायदा होना चाहिए और नुकसान तो कतई नहीं होना चाहिए। जब उनके हित प्रभावित नहीं होंगे, तभी वे सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की बात करेंगे। यदि उनके हितों को नुकसान पहुँचता है, तो वे न तो सत्य का अभ्यास कर सकेंगे और न ही परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकेंगे। उनसे खुद को खपाने, कष्ट उठाने या परमेश्वर के लिए कीमत चुकाने के लिए कहना तो और भी नामुमकिन है। ऐसे लोग सच्चे विश्वासी नहीं होते हैं। वे अपने हितों के लिए जीते हैं, केवल आशीष और लाभ की खोज में होते हैं, और कष्ट सहने या कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते, फिर भी मृत्यु के परिणाम से बचने के लिए वे परमेश्वर के घर में जगह पाना चाहते हैं। ऐसे लोग रत्ती भर भी सत्य नहीं स्वीकारते और परमेश्वर उन्हें नहीं बचा सकता। क्या अब भी परमेश्वर उन्हें बचा सकता है? यकीनन परमेश्वर उन्हें ठुकराकर हटा देगा। क्या इसका मतलब यह है कि परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता? उन्होंने खुद का ही परित्याग कर दिया है। जब वे सत्य को नहीं खोजते, परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, या उस पर भरोसा नहीं करते, तो परमेश्वर उन्हें कैसे बचा सकता है? एकमात्र उपाय यह है कि उन्हें त्याग दिया जाए और सबसे अलग करके आत्म-चिंतन करने के लिए छोड़ दिया जाए। यदि लोग बचाया जाना चाहते हैं, तो उनके लिए एकमात्र तरीका यही है कि वे सत्य को स्वीकारें, खुद को जानें, पश्चात्ताप का अभ्यास करें और सत्य वास्तविकता को जीएँ। इस तरह, वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। उन्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए ताकि वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करें और उसका भय मानें, जो कि उद्धार का अंतिम लक्ष्य है। परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसका भय लोगों के भीतर रचा-बसा होना चाहिए और उन्हें इन दोनों चीजों को जीना चाहिए। यदि तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर नहीं चलते हो, तो तुम्हारे चुनने के लिए कोई दूसरा मार्ग भी नहीं है। यदि कोई व्यक्ति इस मार्ग पर नहीं चलता है, तो केवल यही कहा जा सकता है कि वह नहीं मानता कि सत्य उसे बचा सकता है। वह नहीं मानता है कि परमेश्वर के कहे हुए सभी वचन उसे बदल सकते हैं और सच्चा इंसान बना सकते हैं। इसके अलावा, वह बुनियादी तौर पर यह नहीं मानता है कि परमेश्वर ही सत्य है, न ही वह इस तथ्य को मानता है कि सत्य लोगों को बदल कर बचा सकता है। इसलिए, चाहे तुम जैसे भी इसका बारीक विश्लेषण करो, ऐसे व्यक्ति का दिल बहुत हठी होता है। चाहे कुछ भी हो जाए, वह सत्य को स्वीकारने से इनकार करता है, वे उद्धार की आशा से परे हैं और उन्हें बचाया जाना असंभव है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है

क्या हठधर्मी स्वभाव बदलना मुश्किल है? क्या ऐसा करने का कोई मार्ग है? सबसे सरल और सबसे सीधा तरीका है परमेश्वर के वचनों और स्वयं परमेश्वर के प्रति अपना रवैया बदलना। तुम ये चीजें कैसे बदल सकते हो? अपने हठधर्मी रवैये से उत्पन्न होने वाली अवस्थाओं और मनोदशाओं का विश्लेषण करके और उन्हें जानकर, और यह देखकर कि तुम्हारे कौन-से कार्य और शब्द, तुम्हारे कौन-से दृष्टिकोण और इरादे जिनसे तुम चिपके रहते हो, यहाँ तक कि विशेष रूप से तुम्हारे कौन-से विचार और भाव जिन्हें तुम प्रकट करते हो, तुम्हारे हठधर्मी स्वभाव के प्रभाव में हैं। एक-एक करके इन व्यवहारों, उद्गारों और अवस्थाओं की जाँच कर उन्हें हल करो, और फिर, उन्हें बदल दो—जैसे ही तुम किसी चीज की जाँच कर उसका पता लगा लो, जल्दी से उसे बदल दो। उदाहरण के लिए, हम अभी अपनी पसंद और मूड के आधार पर कार्य करने के बारे में बात कर रहे थे, जो कि सनक है। सनकी स्वभाव के साथ में सत्य विमुख होने का लक्षण भी होता है। अगर तुम्हें पता चले कि तुम उस तरह के व्यक्ति हो, उस तरह के भ्रष्ट स्वभाव के हो, और तुम आत्मचिंतन नहीं करते या उसे हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, हठपूर्वक सोचते हो कि तुम बिल्कुल ठीक हो, तो यह हठधर्मिता है। इस प्रवचन के बाद तुम अचानक महसूस कर सकते हो, “मैंने इस तरह की बातें कही हैं, और मेरे इस तरह के विचार हैं। मेरा यह स्वभाव ऐसा है जो सत्य विमुख है। चूँकि मामला ऐसा है, तो मैं इस स्वभाव को हल करना शुरू करूँगा।” तो तुम इसे हल करना शुरू कैसे करोगे? अपनी श्रेष्ठता की भावना, अपनी सनक और अपनी मनमानी छोड़ने से शुरू करो; चाहे तुम अच्छे मूड में हो या बुरे, यह देखो कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं। अगर तुम दैहिक इच्छाओं से विद्रोह कर परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप अभ्यास कर पाओ, तो वह तुम्हें कैसे देखेगा? अगर तुम वास्तव में ये भ्रष्ट व्यवहार दूर करना शुरू कर पाओ, तो यह इस बात का संकेत है कि तुम सकारात्मक और सक्रिय रूप से परमेश्वर के कार्य में सहयोग कर रहे हो। तुम अपने सत्य-विमुख स्वभाव से सचेत होकर विद्रोह कर इसका समाधान कर रहे होगे, और साथ ही तुम अपने हठधर्मी स्वभाव का समाधान भी कर रहे होगे। जब तुम इन दोनों भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कर लोगे, तो तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसे संतुष्ट करने में सक्षम होगे, और यह उसे प्रसन्न करेगा।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1)

हठधर्मिता भ्रष्ट स्वभाव की समस्या है; यह व्यक्ति की प्रकृति में होती है, और इसे सुलझाना आसान नहीं। जब किसी का हठधर्मी स्वभाव होता है, तो वह मुख्य रूप से औचित्य और सुनने में अच्छे लगने वाले तर्क देने, अपने ही विचारों से चिपके रहने और नई चीजें आसानी से स्वीकार न करने की प्रवृत्ति के रूप में अभिव्यक्त होता है। कई बार ऐसा होता है कि लोग जानते हैं कि उनके विचार गलत हैं, फिर भी वे अपने घमंड और गर्व की खातिर उनसे चिपके रहते हैं, अंत तक अड़े रहते हैं। इस तरह का हठधर्मी स्वभाव बदलना मुश्किल है, भले ही व्यक्ति उसके बारे में जानता हो। हठधर्मिता की समस्या हल करने के लिए मनुष्य के अहंकार, छल, क्रूरता, सत्य-विमुखता और ऐसे अन्य स्वभावों को जानना आवश्यक है। जब व्यक्ति अपने ही अहंकार, छल, क्रूरता को जान लेता है, यह भी जान लेता है कि वह सत्य विमुख हो चुका है, कि वह सत्य का अभ्यास करने की इच्छा रखते हुए भी दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने को तैयार नहीं है, कि वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहते हुए भी हमेशा बहाने बनाता है और अपनी कठिनाइयाँ समझाता है, तो वह आसानी से पहचान लेगा कि उसमें हठधर्मिता की समस्या है। यह समस्या हल करने के लिए व्यक्ति में पहले सामान्य इंसानी समझ होनी चाहिए और उसे परमेश्वर के वचन सुनना सीखने से शुरुआत करनी चाहिए। अगर तुम परमेश्वर की भेड़ बनना चाहते हो, तो तुम्हें उसके वचन सुनना सीखना चाहिए। और तुम्हें उन्हें कैसे सुनना चाहिए? कोई भी ऐसी समस्या सुनने के द्वारा, जिसे परमेश्वर अपने वचनों में उजागर करता है, जो तुम्हारे लिए प्रासंगिक है। अगर तुम्हें कोई समस्या मिलती है, तो तुम्हें उसे स्वीकारना चाहिए; तुम्हें यह नहीं मानना चाहिए कि यह समस्या दूसरे लोगों की है, कि यह हर किसी की या मानव-जाति की समस्या है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं। तुम्हारा ऐसा विश्वास रखना गलत होगा। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या तुम में ऐसी भ्रष्ट दशाएँ या विकृत विचार हैं जिन्हें परमेश्वर उजागर कर रहा है। उदाहरण के लिए, जब तुम किसी के भीतर से अहंकारी स्वभाव के प्रकट होने की अभिव्यक्तियों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन सुनते हो, तो तुम्हें अपने मन में सोचना चाहिए : “क्या मैं अहंकार की अभिव्यक्तियाँ दिखाता हूँ? मैं एक भ्रष्ट मानव हूँ, तो मैं अवश्य ही उनमें से कुछ अभिव्यक्तियाँ दिखाता होऊँगा; मुझे इस बात पर विचार करना चाहिए कि मैं ऐसा कहाँ करता हूँ। लोग कहते हैं कि मैं अहंकारी हूँ, कि मैं हमेशा खुद को दूसरों से ज्यादा महत्वपूर्ण मानकर चलता हूँ, कि जब मैं बोलता हूँ तो लोगों को विवश कर देता हूँ। क्या वास्तव में यही मेरा स्वभाव है?” चिंतन के माध्यम से, तुम अंततः जान जाओगे कि परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन पूरी तरह से सटीक है—कि तुम एक अहंकारी व्यक्ति हो। और चूँकि परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन पूरी तरह से सटीक है, चूँकि वह बिना किसी विसंगति के तुम्हारी स्थिति से पूरी तरह मेल खाता है, और आगे विचार करने पर और भी सटीक प्रतीत होता है, तो तुम्हें उसके वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकारनी चाहिए, और उनके अनुसार अपने भ्रष्ट स्वभाव के सार को पहचानना और जानना चाहिए। तब तुम सच्चा पछतावा महसूस कर पाओगे। परमेश्वर में विश्वास करते हुए, केवल इस तरह से उसके वचन खाने-पीने से ही तुम खुद को जान सकते हो। अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए तुम्हें परमेश्वर के वचनों का न्याय और खुलासा स्वीकारना चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते, तो तुम्हारे पास अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने का कोई उपाय नहीं होगा। अगर तुम एक चतुर व्यक्ति हो, जो देखता है कि परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन आम तौर पर सटीक होता है, या अगर तुम स्वीकार सकते हो कि उसका आधा हिस्सा सही है, तो तुम्हें फौरन उसे स्वीकार लेना चाहिए और परमेश्वर के सामने समर्पण कर देना चाहिए। तुम्हें उससे प्रार्थना कर आत्मचिंतन भी करना चाहिए। तभी तुम समझ पाओगे कि परमेश्वर के प्रकाशन के सभी वचन सटीक होते हैं, कि वे सभी तथ्य हैं, उससे कम कुछ नहीं हैं। परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय के साथ उसके सामने समर्पण करके ही लोग वास्तव में आत्मचिंतन कर सकते हैं। तभी वे अपने भीतर मौजूद विभिन्न प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव देख पाएँगे, और यह भी कि वे वास्तव में अहंकारी और आत्मतुष्ट हैं, जिनमें जरा-सी भी समझ नहीं है। अगर कोई सत्य से प्रेम करता है, तो वह परमेश्वर के सामने दंडवत होने में भी सक्षम होगा, उसके सामने स्वीकारेगा कि वह गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया है, और उसका न्याय और ताड़ना स्वीकारने की इच्छा रखता है। इस तरह, वह पछतावे से भरा दिल विकसित कर सकता है, खुद को नकारना और खुद से नफरत करना शुरू कर सकता है, और पहले सत्य का अनुसरण न करने पर पछताते हुए सोच सकता है, “जब मैंने परमेश्वर के वचन पढ़ने शुरू किए थे, तो मैं उनका न्याय और ताड़ना स्वीकारने में असमर्थ क्यों था? उसके वचनों के प्रति मेरा यह रवैया अहंकारी था, है न? मैं इतना अहंकारी कैसे हो सकता हूँ?” कुछ समय तक इस तरह बार-बार आत्मचिंतन करने के बाद, वह पहचान लेगा कि वह वास्तव में अहंकारी है, कि वह यह स्वीकारने में पूरी तरह से सक्षम नहीं है कि परमेश्वर के वचन सत्य और तथ्य हैं, और उसमें वास्तव में रत्ती भर भी समझ नहीं है। लेकिन खुद को जानना एक कठिन चीज है। हर बार जब व्यक्ति चिंतन करता है, तो वह अपने बारे में सिर्फ थोड़ा अधिक और थोड़ा ज्यादा गहरा ज्ञान प्राप्त कर पाता है। भ्रष्ट स्वभाव का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करना कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे थोड़े समय में पूरा किया जा सकता हो; व्यक्ति को परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़ने चाहिए, अधिक प्रार्थना करनी चाहिए और अधिक आत्मचिंतन करना चाहिए। सिर्फ इसी तरह वह धीरे-धीरे खुद को जान सकता है। वे सभी जो वाकई खुद को जानते हैं, अतीत में कुछ बार असफल हुए और लड़खड़ाए हैं, जिसके बाद, उन्होंने परमेश्वर के वचन पढ़े, उससे प्रार्थना की, और आत्मचिंतन किया, और इस तरह वे अपनी भ्रष्टता का सत्य स्पष्ट रूप से देख पाए, और यह महसूस कर पाए कि वे वाकई अत्यधिक भ्रष्ट और सत्य वास्तविकता से सर्वथा वंचित थे। अगर तुम इस प्रकार परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हो, और जब तुम पर चीजें आ पड़ती हैं, तो उससे प्रार्थना करते और सत्य खोजते हो, तो तुम धीरे-धीरे स्वयं को जान जाओगे। फिर एक दिन, अंततः तुम्हारे हृदय में स्पष्ट समझ आ जाएगी : “मैं दूसरों की तुलना में थोड़ी बेहतर क्षमता का हो सकता हूँ, लेकिन यह मुझे परमेश्वर द्वारा दी गई थी। मैं हमेशा शेखी बघारता हूँ, जब बोलता हूँ तो दूसरों से आगे निकलने का प्रयास करता हूँ, कोशिश करता हूँ कि लोग मेरे तरीके से काम करें। मुझमें वाकई समझ नहीं है—यह अहंकार और आत्मतुष्टि है! आत्मचिंतन से मैंने अपने अहंकारी स्वभाव के बारे में जान लिया है। यह परमेश्वर का प्रबोधन और अनुग्रह है, और मैं इसके लिए उसका धन्यवाद करता हूँ!” अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में जानना अच्छी बात है या बुरी? (अच्छी बात है।) यहाँ से, तुम्हें खोजना चाहिए कि समझदारी और आज्ञाकारिता के साथ कैसे बोलना और कार्य करना है, दूसरों के साथ बराबरी पर कैसे खड़े होना है, दूसरों को बाधित किए बिना उनके साथ उचित व्यवहार कैसे करना है, अपनी क्षमता, गुणों और खूबियों आदि पर सही तरीके से विचार कैसे करना है। इस तरह, जैसे एक बार में एक प्रहार करने से पहाड़ धूल में बदल जाता है, वैसी ही तुम्हारे अहंकारी स्वभाव का समाधान हो जाएगा। उसके बाद, जब तुम दूसरों के साथ बातचीत करोगे या कोई कर्तव्य निभाने के लिए उनके साथ काम करोगे, तो तुम उनके विचारों पर सही तरह से विचार कर पाओगे और उन्हें सुनते हुए उन पर सावधानी और करीब से ध्यान दे पाओगे। और जब तुम उन्हें सही राय देते हुए सुनोगे, तो तुम्हें पता चलेगा, “ऐसा लगता है कि मेरी काबिलियत सबसे अच्छी नहीं है। बात तो यह है कि सभी की अपनी खूबियाँ हैं; वे मुझसे बिल्कुल भी हीन नहीं हैं। पहले मैं सोचता था कि मेरी काबिलियत दूसरों से बेहतर है। वह आत्म-प्रशंसा और संकीर्ण सोच वाली अज्ञानता थी। किसी कूपमंडूक की तरह मेरा दृष्टिकोण बहुत ही सीमित था। ऐसी सोच समझ से पूरी तरह रहित थी—यहबेशर्मी थी! अपने अहंकारी स्वभाव द्वारा मैं अंधा और बहरा हो गया था था। दूसरे लोगों की बातें मैं समझ नहीं पाता था, और मैं सोचता कि मैं उनसे बेहतर हूँ, कि मैं सही हूँ, जबकि वास्तव में मैं उनमें से किसी से भी बेहतर नहीं हूँ!” तब से, तुम्हें अपनी कमियों और छोटे आध्यात्मिक कद की सच्ची समझ और ज्ञान होगा। इसके बाद, जब तुम दूसरों के साथ संगति करोगे, तो उनके विचार ध्यान से सुनोगे, और तुम्हें पता चलेगा, “बहुत-से लोग मुझसे बेहतर हैं। मेरी काबिलियत और समझने की क्षमता, दोनों ही हद-से-हद औसत दर्जे की हैं।” यह बोध होने पर क्या तुम अपने बारे में कुछ जान नहीं जाओगे? यह अनुभव करके और बार-बार परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्म-चिंतन करके तुम ऐसा सच्चा आत्मज्ञान पा लोगे जो गहराता जाता है। तब तुम अपनी भ्रष्टता, दरिद्रता और दयनीयता, अपनी शोचनीय कुरूपता का सत्य समझने लगोगे, और उस समय तुम्हें खुद से अरुचि और अपने भ्रष्ट स्वभाव से नफरत होने लगेगी। फिर तुम्हारे लिए दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करना आसान हो जाएगा। परमेश्वर के कार्य का अनुभव इसी तरह किया जाता है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपनी भ्रष्टता के उद्गार पर चिंतन करना चाहिए। खास तौर से, किसी भी तरह के हालात भ्रष्ट स्वभाव उजागर करने बाद, तुम्हें बार-बार आत्मचिंतन करना और खुद को जानना चाहिए। तब तुम्हारे लिए अपना भ्रष्ट सार स्पष्ट रूप से देखना आसान हो जाएगा, और तुम अपनी भ्रष्टता, अपनी देह और शैतान से हृदय से घृणा करने में सक्षम हो जाओगे। और तुम दिल से सत्य से प्रेम करने और उसके लिए प्रयास करने में सक्षम होगे। इस तरह, तुम्हारा अहंकारी स्वभाव कम होता जाएगा और धीरे-धीरे तुम उसे त्याग दोगे। तुम अधिक से अधिक समझ प्राप्त करोगे, और तुम्हारे लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान हो जाएगा। दूसरों की नजरों में, तुम पहले से ज्यादा स्थिर और व्यावहारिक प्रतीत होगे और तुम अधिक निष्पक्षता से बोलते हुए प्रतीत होगे। तुम दूसरों को सुनने में सक्षम होगे और उन्हें बोलने का समय दोगे। दूसरों के सही होने पर तुम्हारे लिए उनकी बातें स्वीकार करना आसान होगा, और लोगों के साथ तुम्हारी बातचीत उतनी कठिन नहीं होगी। तुम किसी के भी साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग करने में सक्षम होगे। अगर इस तरह तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, तो क्या तब तुममें समझ और मानवता नहीं होगी? इस प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव के समाधान का वही तरीका है।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1)

उदाहरण के लिए हठधर्मी स्वभाव को लो : शुरुआत में जब तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया था, तब तुमने सत्य को नहीं समझा था, न ही तुम इस बात से अवगत थे कि तुममें हठधर्मी स्वभाव है, और जब तुमने सत्य सुना, तब तुमने मन-ही-मन सोचा, “सत्य हमेशा लोगों के दाग कैसे उजागर कर सकता है?” यह सुनकर तुम्हें लगा कि परमेश्वर के वचन सही हैं, लेकिन अगर एक-दो साल बाद भी तुम उनमें से किसी को भी गंभीरता से नहीं लेते, किसी को नहीं स्वीकारते तो यह हठधर्मिता है, है न? अगर दो-तीन साल के बाद भी तुम इनमें से किसी को स्वीकार नहीं करते, अगर तुम्हारी आंतरिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं होता, और हालाँकि तुम अपना कर्तव्य निभाने में पीछे नहीं रहे, और तुमने बहुत-कुछ सहा है, तो भी तुम्हारी हठधर्मी मनोदशा बिल्कुल भी ठीक या जरा-सी भी कम नहीं हुई है, तो क्या तुम्हारे स्वभाव के इस पहलू में कोई बदलाव आया है? (नहीं।) तो फिर तुम क्यों इधर-उधर भाग-दौड़ और काम कर रहे हो? तुम्हारे ऐसा करने का चाहे जो भी कारण हो, तुम आँख मूँदकर इधर-उधर भाग-दौड़ और काम कर रहे हो, क्योंकि तुमने इतनी भाग-दौड़ की है और इतना काम किया है और फिर भी तुम्हारे स्वभाव में जरा भी बदलाव नहीं आया है। फिर वह दिन आता है जब तुम अचानक मन-ही-मन सोचते हो, “ऐसा कैसे है कि मैं गवाही का एक शब्द भी नहीं बोल पा रहा हूँ? मेरा जीवन-स्वभाव बिल्कुल भी नहीं बदला है।” इस समय तुम महसूस करते हो कि यह समस्या कितनी गंभीर है, और तुम मन-ही-मन सोचते हो, “मैं वास्तव में विद्रोही और हठी हूँ! मैं सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति नहीं हूँ! मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है! इसे परमेश्वर में आस्था कैसे कहा जा सकता है? मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता आया हूँ, फिर भी मैं मनुष्य की छवि को नहीं जीता, न ही मेरा हृदय परमेश्वर के करीब है! मैं परमेश्वर के वचनों को भी गंभीरता से नहीं ले रहा हूँ; न ही कुछ गलत करते हुए मुझमें पश्चात्ताप का कोई भाव होता है और न ही पश्चात्ताप करने की प्रवृत्ति होती है—क्या यह हठधर्मिता नहीं है? क्या मैं विद्रोह का पुत्र नहीं हूँ?” तुम खुद को परेशान महसूस करते हो। और इसका क्या मतलब है कि तुम परेशान महसूस करते हो? इसका मतलब है कि तुम पश्चात्ताप करना चाहते हो। तुम अपनी हठधर्मिता और विद्रोह से अवगत हो। और इस समय तुम्हारा स्वभाव बदलने लगता है। अनजाने ही तुम्हारी चेतना के भीतर कुछ ऐसे विचार और इच्छाएँ होती हैं जिन्हें तुम बदलना चाहते हो, और अब तुम खुद को परमेश्वर के साथ गतिरोध की स्थिति में नहीं पाते। तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर के साथ अपने संबंध सुधारना चाहते हो, अब उतने हठी नहीं हो, अपने दैनिक जीवन में परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने में सक्षम हो, उनका सत्य सिद्धांतों के रूप में अभ्यास करने में सक्षम हो—तुममें यह चेतना है। यह अच्छा है कि तुम इन चीजों के प्रति सचेत हो, पर क्या इसका मतलब यह है कि तुम तुरंत बदल पाओगे? (नहीं।) तुम्हें कई वर्षों के अनुभव से गुजरना होगा, उस दौरान तुम्हारे हृदय में पहले से कहीं ज्यादा स्पष्ट जागरूकता होगी, और तुममें एक सशक्त प्रेरणा होगी, और तुम अपने हृदय में सोचोगे, “यह सही नहीं है—मुझे अपना समय नष्ट करना बंद करना चाहिए। मुझे सत्य का अनुसरण करना चाहिए, मुझे कुछ सही करना चाहिए। अतीत में मैं अपने उचित कर्तव्यों की उपेक्षा करता रहा हूँ, सिर्फ भोजन और वस्त्र जैसी भौतिक चीजों के बारे में सोचता रहा हूँ, और सिर्फ ख्याति और लाभ के पीछे भागता रहा हूँ। नतीजतन, मुझे सत्य बिल्कुल भी प्राप्त नहीं हुआ है। मुझे इसका पछतावा है और मुझे पश्चात्ताप करना चाहिए!” इस बिंदु पर तुम परमेश्वर में आस्था के सही मार्ग पर चलते हो। अगर लोग सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान देना शुरू कर देते हैं तो क्या यह उन्हें अपने स्वभाव में बदलावों के एक कदम करीब नहीं ले जाता? चाहे तुमने जितने भी समय परमेश्वर में विश्वास किया हो, अगर तुम अपना मैलापन महसूस कर सकते हो—कि तुम हमेशा बस अनायास बहते रहे हो, और कई वर्षों तक बस बहते रहने के बाद, तुमने कुछ भी प्राप्त नहीं किया है, और तुम अभी भी अपने अंदर खोखलापन महसूस करते हो—और अगर तुम इससे असहज महसूस करते हो, और आत्मचिंतन शुरू कर देते हो, और तुम्हें लगता है कि सत्य का अनुसरण न करना समय नष्ट करना है तब ऐसे समय तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर के प्रोत्साहन के वचन मनुष्य के प्रति उसका प्रेम हैं, और तुम परमेश्वर के वचन न सुनने के लिए और जमीर और समझ की इतनी कमी होने के कारण खुद से घृणा करोगे। तुम्हें पछतावा होगा, फिर तुम खुद को नए सिरे से संचालित कर वास्तव में परमेश्वर के सामने जीना चाहोगे और मन-ही-मन कहोगे, “मैं अब परमेश्वर को चोट नहीं पहुँचा सकता। परमेश्वर ने बहुत-कुछ बोला है, और उसका प्रत्येक वचन मनुष्य के लिए लाभकारी और उसे सही राह दिखाने वाला है। परमेश्वर बहुत प्यारा और मनुष्य के प्रेम के बहुत योग्य है!” यह लोगों में परिवर्तन की शुरुआत है। यह समझ होना कितनी अच्छी बात है! अगर तुम इतने जड़ हो कि ये चीजें भी नहीं जानते, तो तुम संकट में हो, है न? आज लोग महसूस करते हैं कि परमेश्वर में आस्था की कुंजी परमेश्वर के वचनों को ज्यादा पढ़ना है, कि सत्य को समझना सबसे महत्वपूर्ण है, कि सत्य को समझकर खुद को जानना महत्वपूर्ण है, और सिर्फ सत्य का अभ्यास करने और सत्य को अपनी वास्तविकता बनाने में सक्षम होना ही परमेश्वर में आस्था के सही मार्ग में प्रवेश करना है। तो तुम लोगों को के हिसाब से अपने हृदय में यह ज्ञान होने और भावना आने के लिए तुम्हारे पास कितने वर्षों का अनुभव होना चाहिए? जो लोग चतुर हैं, जिनमें अंतर्दृष्टि है, जिनमें परमेश्वर के लिए एक तीव्र इच्छा है—ऐसे लोग एक-दो साल में खुद को पूरी तरह बदलने और प्रवेश शुरू करने में सक्षम हो सकते हैं। लेकिन जो लोग भ्रमित हैं, जो जड़ और मंदबुद्धि हैं, जिनमें अंतर्दृष्टि की कमी है—वे तीन या पाँच साल हैरान रहकर गुजारेंगे और इस बात से अनजान रहेंगे कि उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया है। अगर वे उत्साह के साथ अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो वे दस साल से ज्यादा समय तक हैरान रह सकते हैं और फिर भी कोई स्पष्ट लाभ नहीं उठा सकते या अपनी अनुभवात्मक गवाहियों पर बोलने में सक्षम नहीं हो सकते। जब उन्हें दूर भेजा जाता है या निकाला जाता है, तभी वे अंततः जागकर मन-ही-मन सोच पाते हैं, “मेरे पास वास्तव में कोई सत्य वास्तविकता नहीं है। मैं वास्तव में सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति नहीं रहा हूँ!” क्या इस बिंदु पर उनका जागरण थोड़ी देर से नहीं हुआ है? कुछ लोग हैरान होकर धीरे-धीरे बहते जाते हैं, सदा परमेश्वर के दिन के आने की आशा करते हैं, लेकिन सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं करते। नतीजतन, दस साल से ज्यादा समय बीत जाता है और उन्हें कोई लाभ नहीं होता या वे कोई गवाही साझा नहीं कर पाते। जब उनकी कठोरता से काट-छाँट की जाती है और उन्हें चेतावनी दी जाती है, तब कहीं उन्हें अंततः महसूस होता है कि परमेश्वर के वचन उनके हृदय को भेदते हैं। उनका हृदय कितना हठी है! उनकी काट-छाँट न किया जाना और उन्हें दंडित न किया जाना कैसे ठीक है? उन्हें कठोरता से अनुशासित न किया जाना कैसे ठीक है? उन्हें जागरूक करने के लिए क्या किया जाना चाहिए, ताकि वे प्रतिक्रिया दें? जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे इतने हठी होते हैं कि अपनी गलती मानने में बहुत देर कर देते हैं। जब वे बहुत ज्यादा शैतानी और बुरे काम कर चुके होते हैं, तभी उन्हें एहसास हो पाता है और वे मन-ही-मन कहते हैं, “क्या परमेश्वर में मेरी आस्था खत्म हो गई है? क्या परमेश्वर अब मुझे नहीं चाहता? क्या मुझे शाप दे दिया गया है?” वे चिंतन करने लगते हैं। जब वे नकारात्मक होते हैं, तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करने के ये तमाम वर्ष व्यर्थ चले गए, वे आक्रोश से भर जाते हैं और खुद को निकम्मा समझकर खुद से आशा छोड़ देना चाहते हैं। लेकिन जब वे होश में आते हैं, तो उन्हें एहसास होता है कि “क्या मैं सिर्फ खुद को चोट नहीं पहुँचा रहा हूँ? मुझे फिर से सँभलना चाहिए। मुझसे कहा गया था कि मैं सत्य से प्रेम नहीं करता। मुझसे ऐसा क्यों कहा गया था? मैं कैसे सत्य से प्रेम नहीं करता? अफसोस! न केवल मैं सत्य से प्रेम नहीं करता, बल्कि उन सत्यों को अमल में भी नहीं ला सकता, जिन्हें मैं समझता हूँ! यह सत्य से विमुख होने की अभिव्यक्ति है!” यह सोचकर उन्हें कुछ ग्लानि होती है और कुछ डर भी लगता है : “अगर मैं ऐसे ही करता रहा, तो निश्चित रूप से मुझे दंड दिया जाएगा। नहीं, मुझे जल्दी से पश्चात्ताप करना चाहिए—परमेश्वर के स्वभाव को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए।” इस समय क्या उनकी हठधर्मिता का स्तर कम हो गया है? मानो उनके दिल में सुई चुभ गई हो; वे कुछ महसूस करते हैं। और जब तुम्हें यह एहसास होता है, तो तुम्हारा हृदय द्रवित हो जाता है और तुम सत्य में रुचि लेने लगते हो। तुम्हें यह रुचि क्यों होती है? क्योंकि तुम्हें सत्य की जरूरत है। तुम्हारे पास सत्य नहीं होगा तो अपनी काट-छाँट होने पर तुम इसके प्रति समर्पण नहीं कर पाओगे या सत्य नहीं स्वीकार पाओगे और अपनी परीक्षा होने पर तुम अडिग नहीं रह पाओगे। अगर तुम अगुआ बनते हो तो क्या तुम नकली अगुआ बनने और मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने से बच पाओगे? तुम नहीं बच पाओगे। क्या तुम रुतबा पाने और दूसरों से प्रशंसा पाने की भावना से उबर सकते हो? क्या तुम अपने सामने आने वाली परिस्थितियों या प्रलोभनों पर विजय प्राप्त कर सकते हो? तुम खुद को बहुत अच्छी तरह जानते-समझते हो, और तुम कहोगे, “अगर मैं सत्य को नहीं समझता, तो मैं इन सब पर काबू नहीं पा सकता—मैं कचरा हूँ, मैं कुछ भी करने में सक्षम नहीं हूँ।” यह कैसी मानसिकता है? यह सच की जरूरत होना है। जब तुम जरूरतमंद होते हो, जब तुम सबसे ज्यादा असहाय होते हो तो तुम सिर्फ सत्य पर निर्भर होना चाहोगे। तुम्हें लगेगा कि किसी और पर निर्भर नहीं हुआ जा सकता और सिर्फ सत्य पर निर्भर रहना ही तुम्हारी समस्याओं का समाधान कर सकता है, और तुम्हें काट-छाँट, परीक्षणों और प्रलोभनों से पार पाने दे सकता है, और किसी भी स्थिति से पार पाने में मदद कर सकता है। और तुम सत्य पर जितना ज्यादा निर्भर होगे, उतना ही ज्यादा तुम महसूस करोगे कि सत्य अच्छा है, उपयोगी है और तुम्हारे लिए सबसे बड़ी मदद है और वह तुम्हारी तमाम कठिनाइयाँ हल कर सकता है। इस समय तुममें सत्य के लिए ललक होगी। जब लोग इस बिंदु पर पहुँचते हैं तो क्या उनका भ्रष्ट स्वभाव घटने या धीरे-धीरे बदलने लगता है? जब लोग सत्य को समझने और स्वीकारने लगते हैं, तब से उनका चीजों को देखने का तरीका बदलने लगता है, जिसके बाद उनके स्वभाव भी बदलने लगते हैं। यह एक धीमी प्रक्रिया है। शुरुआती चरणों में लोग ये छोटे बदलाव महसूस नहीं कर पाते; लेकिन जब वे सच में सत्य को समझ जाते हैं और इसका अभ्यास करने में सक्षम हो जाते हैं तो आवश्यक बदलाव होने लगते हैं, और वे ऐसे बदलावों को महसूस करने में सक्षम हो जाते हैं। जिस मुकाम से लोगों में सत्य की लालसा और सत्य पाने की भूख जागने लगती है और वे सत्य खोजना चाहते हैं, उस मुकाम तक पहुँचने में जब उनके साथ कुछ होता है और सत्य की अपनी समझ के आधार पर वे सत्य को अमल में लाने और परमेश्वर के इरादे पूरे करने में सक्षम होते हैं, और अपनी इच्छा के अनुसार कार्य नहीं करते, अपने इरादों पर काबू पाने में सक्षम होते हैं, अपने अहंकारी, विद्रोही, हठधर्मी और विश्वासघाती हृदय पर विजय प्राप्त करते हैं, तब क्या थोड़ा-थोड़ा करके सत्य उनका जीवन नहीं बन जाता? और जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है तो तुम्हारे भीतर के अहंकारी, विद्रोही, हठी और विश्वासघाती स्वभाव तुम्हारा जीवन नहीं रह जाते और वे तुम्हें और नियंत्रित नहीं कर सकते। और इस समय तुम्हारे आचरण का मार्गदर्शन कौन करता है? परमेश्वर के वचन। जब परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन बन जाते हैं तो क्या कोई बदलाव आता है? (बिल्कुल।) और बाद में तुम जितना ज्यादा बदलते हो, चीजें उतनी ही बेहतर होती जाती हैं। यही वह प्रक्रिया है जिसके जरिये लोगों के स्वभाव बदलते हैं, और यह सफलता मिलने में लंबा समय लगता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है

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1. प्रभु ने हमसे यह कहते हुए, एक वादा किया, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो" (यूहन्ना 14:2-3)। प्रभु यीशु पुनर्जीवित हुआ और हमारे लिए एक जगह तैयार करने के लिए स्वर्ग में चढ़ा, और इसलिए यह स्थान स्वर्ग में होना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु लौट आया है और पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित कर चुका है। मुझे समझ में नहीं आता: स्वर्ग का राज्य स्वर्ग में है या पृथ्वी पर?

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