27. सत्य से विमुख रहने वाले स्वभाव का समाधान कैसे करें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
सत्य से विमुख होना मुख्य रूप से सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति रुचि की कमी और घृणा को दर्शाता है। सत्य विमुख होना उसे कहते हैं जब लोग सत्य को समझने और यह जानने में तो सक्षम होते हैं कि सकारात्मक चीजें क्या होती हैं, फिर भी वे सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रतिरोधी, लापरवाह, प्रतिकूल, टालमटोल और उदासीन रवैये और मनोदशा के साथ पेश आते हैं। यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव है। क्या इस तरह का स्वभाव हर किसी में होता है? कुछ लोग कहते हैं, “हालाँकि मैं जानता हूँ कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, फिर भी मैं उन्हें पसंद या स्वीकार नहीं करता, या कम-से-कम मैं उसे अभी नहीं स्वीकार सकता।” यहाँ क्या मामला है? यह सत्य विमुख होना है। उनके अंदर का स्वभाव उन्हें सत्य नहीं स्वीकारने देता। सत्य न स्वीकारने की कौन-सी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं? कुछ लोग कहते हैं, “मैं सभी सत्य समझता हूँ, बस मैं उन्हें अभ्यास में नहीं ला सकता।” इससे पता चलता है कि यह व्यक्ति सत्य से विमुख है और सत्य से प्रेम नहीं करता, इसलिए यह किसी भी सत्य को अमल में नहीं ला सकता। कुछ लोग कहते हैं, “मैं जो इतना पैसा कमा पाया हूँ, उसका संप्रभु परमेश्वर है। परमेश्वर ने मुझे सचमुच आशीष दिया है, परमेश्वर ने मेरे साथ बहुत अच्छा किया है, परमेश्वर ने मुझे बहुत धन-दौलत दी है। मेरा पूरा परिवार अच्छा पहनता-खाता है, उसे न तो कपड़े-लत्तों की कमी है और न खाने-पीने की।” खुद को परमेश्वर का आशीष मिला देख ये लोग अपने हृदय में परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं, वे जानते हैं कि यह सब परमेश्वर द्वारा संचालित था, और अगर उन्हें परमेश्वर का आशीष न मिला होता—अगर वे अपनी प्रतिभा के ही भरोसे रहते—तो उन्होंने निश्चित रूप से यह सब पैसा न कमाया होता। वे वास्तव में अपने हृदय में यही सोचते हैं, वे वास्तव में यही जानते हैं और वास्तव में परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं। लेकिन एक दिन ऐसा भी आता है, जब उनका व्यवसाय विफल हो जाता है, जब वे मुश्किल दौर में होते हैं और गरीबी का शिकार हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे सुविधाभोगी हो जाते हैं और इस पर कोई ध्यान नहीं देते कि अपना कर्तव्य ठीक से कैसे निभाया जाए, और वे अपना पूरा समय धन-दौलत के पीछे भागते हुए धन के गुलाम बनकर बिताते हैं, जो उनके कर्तव्य निर्वहन पर असर डालता है, इसलिए परमेश्वर उनसे यह छीन लेता है। अपने दिल में वे जानते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें बहुत आशीष दिया है, और उन्हें इतना कुछ दिया है, फिर भी उनमें परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान करने की कोई इच्छा नहीं होती, वे बाहर जाकर अपना कर्तव्य निभाना नहीं चाहते, वे बुजदिल होते हैं और लगातार गिरफ्तारी से भयभीत रहते हैं, ये तमाम धन-दौलत और सुख-सुविधाएँ खोने से डरते हैं, नतीजतन परमेश्वर उनसे ये चीजें छीन लेता है। उनका हृदय दर्पण की तरह साफ है, वे जानते हैं कि परमेश्वर ने उनसे ये चीजें ले ली हैं, और परमेश्वर उन्हें अनुशासित कर रहा है, इसलिए वे प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर! तुमने मुझे एक बार आशीष दिया था, तो तुम मुझे दूसरी बार भी आशीष दे सकते हो। तुम्हारा अस्तित्व शाश्वत है, इसलिए तुम्हारे आशीष भी मनुष्य के साथ हैं। मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूँ! चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हारे आशीष और वादा नहीं बदलेगा। अगर तुम मुझसे ले भी लेते हो, तब भी मैं समर्पण करूँगा।” लेकिन “समर्पण” शब्द उनके मुँह से खोखला लगता है। मुँह से वे कहते हैं कि वे समर्पण कर सकते हैं, लेकिन बाद में वे इसके बारे में सोचते हैं, और उन्हें कुछ स्वीकार्य नहीं लगता : “पहले चीजें कितनी अच्छी हुआ करती थीं। परमेश्वर ने यह सब क्यों छीन लिया? क्या घर पर रहकर अपना कर्तव्य निभाना वैसा ही नहीं था, जैसा कि अपना कर्तव्य निभाने के लिए बाहर जाना? मैं किस चीज में देरी कर रहा था?” वे हमेशा अतीत को याद करते रहते हैं। उनमें परमेश्वर के प्रति एक तरह की शिकायत और असंतोष रहता है और वे लगातार उदास रहते हैं। क्या परमेश्वर अभी भी उनके हृदय में होता है? उनके दिल में पैसा, भौतिक सुख-सुविधाएँ और वह अच्छा समय ही रहता है। परमेश्वर का उनके हृदय में कोई स्थान नहीं रहता, वह अब उनका परमेश्वर नहीं रहता। भले ही वे जानते हैं कि “परमेश्वर ने दिया और परमेश्वर ने ले लिया” सत्य है, फिर भी वे “परमेश्वर ने दिया” शब्दों को पसंद करते हैं और “परमेश्वर ने ले लिया” शब्दों से विमुख रहते हैं। स्पष्ट रूप से, सत्य की उनकी स्वीकृति चयनात्मक है। जब परमेश्वर उन्हें आशीष देता है, तब तो वे इसे सत्य के रूप में स्वीकारते हैं—लेकिन जैसे ही परमेश्वर उनसे लेता है, वे इसे नहीं स्वीकार पाते। वे परमेश्वर की ऐसी संप्रभुता नहीं स्वीकार पाते, इसके बजाय वे विरोध करते हैं और असंतुष्ट हो जाते हैं। जब उन्हें अपना कर्तव्य निभाने के लिए कहा जाता है तो वे कहते हैं, “अगर परमेश्वर मुझे आशीष देगा और मुझ पर अनुग्रह करेगा, तो मैं अपना कर्तव्य निभाऊँगा। परमेश्वर के आशीषों के बिना और अपने परिवार के ऐसी गरीबी की हालत में रहते हुए मैं अपना कर्तव्य कैसे निभाऊँ? मैं नहीं निभाना चाहता!” यह कौन-सा स्वभाव है? भले ही अपने हृदय में वे व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर के आशीषों का और इस बात का अनुभव करते हैं कि कैसे उसने उन्हें इतना कुछ दिया, लेकिन जब परमेश्वर उनसे ले लेता है तो वे इसे स्वीकारने के इच्छुक नहीं होते। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे पैसा और अपना आरामदायक जीवन नहीं छोड़ सकते। भले ही उन्होंने इसके बारे में कोई खास हो-हल्ला न किया हो, भले ही परमेश्वर के सामने हाथ न पसारा हो और भले ही उन्होंने अपने प्रयासों पर भरोसा करके अपनी पिछली संपत्तियाँ वापस लेने की कोशिश न की हो, पर वे परमेश्वर के कार्यों से पहले ही निराश हो चुके होते हैं, वे स्वीकारने में पूरी तरह अक्षम होकर कहते हैं, “परमेश्वर इस तरह से कार्य करे, यह वास्तव में बेरुखी है। यह समझ से परे की बात है। मैं कैसे परमेश्वर में विश्वास करता रहूँ? मैं अब यह नहीं मानना चाहता कि वह परमेश्वर है। अगर मैं यह नहीं मानता कि वह परमेश्वर है तो वह परमेश्वर नहीं है।” क्या यह एक तरह का स्वभाव है? (बिल्कुल।) इस तरह का स्वभाव शैतान का होता है, शैतान इसी तरह से परमेश्वर को नकारता है। इस तरह का स्वभाव सत्य से विमुख होने और सत्य से घृणा करने का होता है। जब लोग सत्य से इस हद तक विमुख होते हैं तो यह उन्हें कहाँ ले जाता है? यह उनसे परमेश्वर का विरोध करवाता है और यह उनसे हठपूर्वक अंत तक परमेश्वर का विरोध करवाता है—जिसका अर्थ है कि उनके लिए सब-कुछ खत्म हो गया है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है
सत्य से विमुख होने वालों की सबसे स्पष्ट दशा यह होती है कि उन्हें सत्य और सकारात्मक चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं होती, यहाँ तक कि वे उनसे दूर भागकर घृणा करते हैं, वे प्रवृत्तियों के पीछे भागना खास पसंद करते हैं। वे अपने दिल में उन चीजों को स्वीकार नहीं करते जिनसे परमेश्वर प्रेम करता है और जिन्हें करने की अपेक्षा परमेश्वर लोगों से करता है। इसके बजाय, उनके प्रति उनका रवैया उपेक्षापूर्ण और उदासीन होता है, कुछ लोग तो उन मानकों और सिद्धांतों का अक्सर तिरस्कार भी करते हैं जिनकी परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा करता है। वे सकारात्मक चीजों से दूर भागते हैं, अपने दिलों में उन चीजों के प्रति प्रतिरोधी, विरोधी होते हैं और घृणा से भरे रहते हैं। यह सत्य से विमुख होने की प्राथमिक अभिव्यक्ति है। कलीसियाई जीवन में परमेश्वर के वचन पढ़ना, प्रार्थना करना, सत्य पर संगति करना, कर्तव्यपालन करना और सत्य के द्वारा समस्याओं का समाधान करना सकारात्मक बातें हैं। ये चीजें परमेश्वर को प्रिय हैं, लेकिन कुछ लोग इन सकारात्मक चीजों से दूर भागते हैं, इनकी परवाह नहीं करते और इनके प्रति उदासीन रहते हैं। सबसे घृणित बात तो यह है कि वे सकारात्मक लोगों के प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया अपनाते हैं, जैसे कि ईमानदार लोग, सत्य का अनुसरण करने वाले लोग, अपने कर्तव्य वफादारी से निभानेवाले लोग और परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करने वाले लोग। वे हमेशा इन लोगों पर हमला करने और उन्हें बाहर करने की कोशिश करते हैं। अगर उन्हें पता चल जाए कि उनमें कमियाँ हैं या उन्होंने कोई भ्रष्टता दिखाई है, तो वे इस बात को पकड़ लेते हैं, तिल का ताड़ बनाते हैं, और इस कारण उन्हें निरंतर नीचा दिखाते हैं। यह कैसा स्वभाव है? वे सकारात्मक लोगों से इतना बैर क्यों पालते हैं? वे दुष्ट लोगों, छद्म-विश्वासियों और मसीह-विरोधियों से इतना प्यार क्यों करते हैं और उनके साथ मिलजुल कर क्यों रहना चाहते हैं, वे ऐसे लोगों के साथ अक्सर समय बर्बाद क्यों करते हैं? जहाँ नकारात्मक और बुरी चीजें होती हैं, वे उत्साह और उल्लास से भर जाते हैं, लेकिन जब सकारात्मक चीजों की बात आती है, तो उनका रवैया प्रतिरोधी होने लगता है; खासकर तब जब वे लोगों को सत्य पर संगति करते सुनते हैं या समस्याओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग करते देखते हैं तो वे इसके प्रति दिल से विरक्त और असंतुष्ट होकर शिकायतें करने लगते हैं। क्या यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव नहीं है? क्या यह भ्रष्ट स्वभाव दिखाना नहीं है? ऐसे बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, जो उसके लिए कार्य करना और उत्साहपूर्वक भाग-दौड़ करना पसंद करते हैं, और बात जब अपने गुणों और शक्तियों का प्रयोग करने, दिखावा करने, अपनी प्राथमिकताओं में लिप्त होने की होती है, तो उनमें असीम ऊर्जा होती है। लेकिन अगर तुम उन्हें सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए कहो, तो उनकी हवा निकल जाती है, उनका उत्साह भंग हो जाता है। अगर उन्हें दिखावा न करने दिया जाए, तो वे उदासीन और निराश हो जाते हैं। दिखावा करने के लिए उनमें ऊर्जा क्यों होती है? और सत्य का अभ्यास करने के लिए उनमें ऊर्जा क्यों नहीं होती? यहाँ क्या समस्या है? सभी लोग अपनी अलग पहचान बनाना पसंद करते हैं; वे सभी खोखले यश के लिए लालायित रहते हैं। आशीष और पुरस्कार पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करने की बात हो तो हर किसी के पास असीम ऊर्जा होती है, तो फिर सत्य का अभ्यास करने और देह-सुख से विद्रोह करने की बात आने पर वे निराश क्यों हो जाते हैं, उदासीन क्यों रहते हैं? ऐसा क्यों होता है? इससे साबित होता है कि लोगों के दिलों में मिलावट है। वे पूरी तरह से आशीष पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करते हैं—स्पष्ट रूप से कहें तो, वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए विश्वास करते हैं। पाने के लिए आशीष या लाभ न होने पर लोग उदासीन और निराश हो जाते हैं, और उनमें कोई उत्साह नहीं रहता। यह सब सत्य से विमुख रहने वाले भ्रष्ट स्वभाव की देन है। इस तरह के स्वभाव के नियंत्रण में होने पर लोग सत्य के अनुसरण का मार्ग चुनने के अनिच्छुक होते हैं, वे अपनी ही राह चलते हैं और गलत रास्ता चुनते हैं। उन्हें अच्छी तरह से पता होता है कि प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा पाने में लगे रहना गलत है, फिर भी इन चीजों को छोड़ना या दरकिनार कर देना उनसे सहन नहीं होता और वे अभी भी शैतान के रास्ते पर चलते हुए इन चीजों के लिए प्रयासरत रहते हैं। इस तरह के मामलों में, लोग परमेश्वर का नहीं, बल्कि शैतान का अनुसरण कर रहे होते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं वह सब शैतान की सेवा में होता है और वे शैतान के सेवक हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
सत्य से विमुख होने का इस तरह का स्वभाव मुख्य रूप से कैसे प्रकट होता है? अपनी काट-छाँट न स्वीकारने के रूप में। अपनी काट-छाँट न स्वीकारना इस प्रकार के स्वभाव से अभिव्यक्त होने वाली एक तरह की मनोदशा है। अपनी काट-छाँट होने पर ये लोग मन ही मन विशेष रूप से प्रतिरोधी होते हैं। वे सोचते हैं, “मैं यह नहीं सुनना चाहता! नहीं सुनना चाहता!” या “दूसरे लोगों की काट-छाँट क्यों नहीं करते? मुझे ही काट-छाँट के लिए क्यों चुना?” सत्य से विमुख होने का क्या अर्थ है? सत्य विमुख होना उसे कहते हैं जब कोई व्यक्ति किसी भी सकारात्मक चीज में, सत्य में, परमेश्वर जो कहता है उसमें, या परमेश्वर के इरादों से जुड़ी किसी भी चीज में बिल्कुल भी रुचि नहीं रखता। कभी-कभी उसे इन चीजों से घृणा होती है, कभी-कभी वह इनसे अलग रहता है, कभी-कभी वह इनके प्रति अनादर और बेरुखी दिखाता है और इन्हें महत्वहीन मानता है और इनके प्रति निष्ठाहीन और अनमना रहता है या इनकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेता। सत्य सुनने पर घृणा होना ही सत्य से विमुख रहने की मुख्य अभिव्यक्ति नहीं होती है। इसमें सत्य का अभ्यास के प्रति अनिच्छा और सत्य के अभ्यास का समय आने पर पीछे हटना भी शामिल है, मानो सत्य का उससे कोई लेना-देना न हो। जब कुछ लोग सभाओं में संगति करते हैं, तो उनमें बड़ा जोश दिखता है, वे दूसरों को गुमराह कर उनका दिल जीतने के लिए शब्द और धर्म-सिद्धांत दोहराना और बड़ी-बड़ी बातें करना पसंद करते हैं। जब वे ऐसा करते हैं, तो वे ऊर्जा से भरे हुए और उत्साहित प्रतीत होते हैं और लगातार बोलते रहते हैं। इस बीच दूसरे लोग सुबह से रात तक पूरा दिन आस्था से जुड़े मामलों में व्यस्त रहते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ते रहते हैं, प्रार्थना करते रहते हैं, भजन सुनते रहते हैं, नोट्स लेते रहते हैं, मानो वे पल-भर के लिए भी परमेश्वर से अलग न रह सकते हों। सुबह से शाम तक वे अपना कर्तव्य निभाने में व्यस्त रहते हैं। क्या ये लोग वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं? क्या इनमें सत्य से विमुख होने का स्वभाव नहीं होता? उनकी वास्तविक अवस्था कब देखी जा सकती है? (जब सत्य का अभ्यास करने का समय आता है, तो वे भाग जाते हैं, और वे काट-छाँट स्वीकारने को तैयार नहीं होते।) क्या ऐसा इसलिए हो सकता है कि वे लोग जो कुछ सुनते हैं उसे समझ नहीं पाते या इसलिए कि चूँकि वे सत्य नहीं समझते इसलिए वे उसे स्वीकारने को तैयार नहीं होते? उत्तर इनमें से कोई नहीं है। वे अपनी प्रकृति से संचालित होते हैं। यह स्वभाव की समस्या है। अपने दिल में ये लोग खूब अच्छी तरह से जानते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, कि वे सकारात्मक हैं, कि सत्य का अभ्यास करने से व्यक्ति के स्वभावों में बदलाव आ सकता है और वह उन्हें परमेश्वर के इरादे पूरे करने में सक्षम बना सकता है, लेकिन वे उन्हें स्वीकारते नहीं या उनका अभ्यास नहीं करते। यही सत्य से विमुख होना है। तुम लोगों ने किनमें सत्य से विमुख रहने का स्वभाव देखा है? (छद्म-विश्वासियों में।) छद्म-विश्वासी सत्य से विमुख रहते हैं, यह बहुत स्पष्ट है। परमेश्वर के पास ऐसे लोगों को बचाने का कोई उपाय नहीं है। तो परमेश्वर के विश्वासियों में तुम लोगों ने किन मामलों में लोगों को सत्य से विमुख होते हुए देखा है? हो सकता है जब तुमने उनके साथ सत्य पर संगति की हो तो वे उठकर चले न गए हों और जब संगति ने उनकी अपनी कठिनाइयों और समस्याओं को छुआ हो तो उन्होंने उनका सही ढंग से सामना किया हो—और फिर भी उनमें सत्य से विमुख रहने का स्वभाव हो। इसे कहाँ देखा जा सकता है? (वे अक्सर उपदेश सुनते हैं, लेकिन सत्य को अभ्यास में नहीं लाते।) जो लोग सत्य को अभ्यास में नहीं लाते, उनमें निर्विवाद रूप से सत्य से विमुख रहने का स्वभाव होता है। कुछ लोग कभी-कभार सत्य का थोड़ा-सा अभ्यास करने में सक्षम रहते हैं तो क्या उनमें सत्य से विमुख रहने का स्वभाव होता है? ऐसा स्वभाव उन लोगों में भी पाया जाता है जो अलग-अलग मात्रा में सत्य का अभ्यास करते हैं। तुम्हारे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होने का मतलब यह नहीं कि तुममें सत्य से विमुख रहने का स्वभाव नहीं है। सत्य का अभ्यास करने का मतलब यह नहीं कि तुम्हारा जीवन-स्वभाव तुरंत बदल गया है—ऐसा नहीं है। तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का समाधान करना चाहिए, अपने जीवन-स्वभाव में बदलाव लाने का यही एकमात्र तरीका है। एक बार सत्य का अभ्यास करने का मतलब यह नहीं कि अब तुममें भ्रष्ट स्वभाव नहीं रहा। तुम एक क्षेत्र में सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो लेकिन जरूरी नहीं कि तुम अन्य क्षेत्रों में भी सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो। इससे जुड़े संदर्भ और कारण अलग-अलग हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भ्रष्ट स्वभाव मौजूद है, यही समस्या की जड़ है। इसलिए जब व्यक्ति का स्वभाव बदल जाता है तो सत्य का अभ्यास करने में आड़े आने वाली उसकी तमाम कठिनाइयाँ, बहाने और हीले-हवाले—ये तमाम समस्याएँ ठीक हो जाती हैं और उसका समस्त विद्रोहीपन, त्रुटियाँ और दोष दूर हो जाते हैं। अगर लोगों के स्वभाव नहीं बदलते, तो उन्हें सत्य का अभ्यास करने में हमेशा कठिनाई होगी और वे हमेशा बहाने बनाएँगे और हीले-हवाले करेंगे। अगर तुम सत्य का अभ्यास करने और हर चीज में परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना चाहते हो तो पहले तुम्हारे स्वभाव में बदलाव आना चाहिए। तभी तुम समस्याओं का जड़ से समाधान कर पाओगे।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है
सभाओं के दौरान कुछ लोग अपनी अवस्थाओं पर थोड़ी संगति कर सकते हैं, लेकिन जब मुद्दों के सार की बात आती है, उनके निजी मंसूबों और विचारों की बात आती है, तो वे टालमटोल करने लगते हैं। जब लोग उन्हें निजी मंसूबे और लक्ष्य वाले व्यक्ति के रूप में उजागर करते हैं, तो वे सिर हिलाकर इसे स्वीकारते दिखाई देते हैं। लेकिन जब लोग किसी चीज को गहराई से उजागर करने या उसका गहन-विश्लेषण करने की कोशिश करते हैं, तो वे इसे बर्दाश्त नहीं कर पाते और उठकर चले जाते हैं। क्यों निर्णायक क्षण में वे खिसक लेते हैं? (वे सत्य नहीं स्वीकारते और अपनी समस्याओं का सामना करने को तैयार नहीं होते।) यह स्वभाव की समस्या है। जब वे अपने भीतर की समस्याएँ हल करने के लिए सत्य स्वीकारने को तैयार नहीं होते, तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि वे सत्य से विमुख रहते हैं? कुछ अगुआ और कार्यकर्ता किस तरह के उपदेश सुनने को बहुत कम तैयार होते हैं? (मसीह-विरोधियों और नकली अगुआओं को कैसे पहचानें विषय पर उपदेश।) सही कहा। वे सोचते हैं, “मसीह-विरोधियों, नकली अगुआओं और फरीसियों की पहचान करने के बारे में ये तमाम बातें—तुम इस बारे में इतना कुछ क्यों कहते रहते हो? तुम मुझे तनावग्रस्त कर रहे हो।” यह सुनकर कि नकली अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहचानने की बात होगी, वे जाने का कोई बहाना ढूँढ़ लेते हैं। यहाँ “जाने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ खिसकने, छिपने से है। वे छिपने की कोशिश क्यों करते हैं? जब दूसरे लोग तथ्यात्मक बात करते हैं, तो तुम्हें सुनना चाहिए : सुनना तुम्हारे लिए अच्छा है। जो चीजें कठोर हों या जिन्हें स्वीकारना कठिन लगे, उन्हें लिख लो; फिर तुम्हें उन चीजों पर अक्सर सोचना चाहिए, उन्हें धीरे-धीरे समझना चाहिए और धीरे-धीरे बदलना चाहिए। तो फिर छिपना क्यों है? ऐसे लोगों को लगता है कि ये आलोचनात्मक शब्द बहुत कठोर हैं और इन्हें सुनना आसान नहीं, इसलिए उनके भीतर प्रतिरोध और विद्वेष विकसित हो जाता है। वे मन ही मन कहते हैं, “मैं कोई मसीह-विरोधी या नकली अगुआ नहीं हूँ—मेरे बारे में क्यों बोलते रहते हो? दूसरे लोगों के बारे में बात क्यों नहीं करते? बुरे लोगों को पहचानने के बारे में कुछ कहो, मेरे बारे में बात मत करो!” वे टालमटोल करने वाले और विरोधी हो जाते हैं। यह कौन-सा स्वभाव है? अगर वे सत्य स्वीकारने को तैयार नहीं होते और हमेशा अपने बचाव में तर्क-वितर्क और बहस करते हैं, तो क्या यहाँ भ्रष्ट स्वभाव की समस्या नहीं है? यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं में ऐसी मनोदशा होती है, तो साधारण भाई-बहनों का क्या? (उनमें भी होती है।) जब सब पहली बार मिलते हैं, तो वे सभी बहुत स्नेही होते हैं और शब्द और धर्म-सिद्धांत रट कर बहुत खुश होते हैं। वे सभी सत्य से प्रेम करते प्रतीत होते हैं। लेकिन जब व्यक्तिगत समस्याओं और वास्तविक कठिनाइयों की बात आती है, तो कई लोग मूढ़ हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग लगातार शादी से विवश रहते हैं। वे कर्तव्य निभाने या सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक नहीं रहते और उनके लिए शादी सबसे बड़ी बाधा और सबसे बड़ा बोझ बन जाती है। सभाओं में जब सभी इस मनोदशा पर संगति कर रहे होते हैं, तो वे दूसरों की संगति के शब्दों से अपनी तुलना कर महसूस करते हैं कि जैसे उन्हीं के बारे में बात हो रही है। वे कहते हैं, “तुम लोगों के सत्य पर संगति करने से मुझे कोई समस्या नहीं है लेकिन मेरी बात क्यों करते हो? क्या तुम लोगों की अपनी कोई समस्या नहीं है? मेरे ही बारे में बात क्यों करते हो?” यह कौन-सा स्वभाव है? जब तुम सत्य की संगति करने के लिए एकत्र होते हो तो तुम्हें वास्तविक मुद्दों का गहन विश्लेषण करना चाहिए और हरेक को इन समस्याओं पर अपनी समझ बताने देनी चाहिए; सिर्फ तभी तुम खुद को जान पाते हो और अपनी समस्याएँ हल कर पाते हो। लोग इसे स्वीकार क्यों नहीं कर पाते? यह कौन-सा स्वभाव है, जब लोग अपनी काट-छाँट स्वीकारने में असमर्थ रहते हैं और सत्य नहीं स्वीकार पाते? क्या तुम्हें इसे स्पष्ट रूप से नहीं समझना चाहिए? ये सभी सत्य से विमुख होने की अभिव्यक्तियाँ हैं—यही समस्या का सार है। जब लोग सत्य से विमुख होते हैं, तो उनके लिए सत्य स्वीकारना बहुत कठिन होता है—और अगर वे सत्य नहीं स्वीकार पाते तो क्या उनके भ्रष्ट स्वभाव की समस्या ठीक की जा सकती है? (नहीं।) तो इस तरह का व्यक्ति, ऐसा व्यक्ति जो सत्य स्वीकारने में अक्षम है—क्या वह सत्य प्राप्त करने में सक्षम है? क्या उसे परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकता है? निश्चित रूप से नहीं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है
अपने घमंड और अभिमान की रक्षा करने के लिए, और अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत बनाए रखने के लिए कुछ लोग खुशी से दूसरों की मदद करने और हर कीमत पर अपने दोस्तों के लिए त्याग करने को तैयार होते हैं। लेकिन जब उन्हें परमेश्वर के घर के हितों, सत्य और न्याय की रक्षा करनी होती है, तो उनके अच्छे इरादे छू-मंतर हो जाते हैं, वे पूरी तरह से गायब हो जाते हैं। जब उन्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए, तो वे बिल्कुल भी अभ्यास नहीं करते। यह क्या हो रहा है? अपनी गरिमा और अभिमान की रक्षा के लिए वे कोई भी कीमत चुकाएँगे और कोई भी कष्ट सहेंगे। लेकिन जब उन्हें वास्तविक कार्य करने और व्यावहारिक मामले संभालने होते हैं, कलीसिया के कार्य और सकारात्मक चीजों की रक्षा करनी होती है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की रक्षा करने और उन्हें पोषण प्रदान करने की आवश्यकता होती है, तो उनमें कोई भी कीमत चुकाने और कोई भी कष्ट सहने की ताकत क्यों नहीं रहती? यह अकल्पनीय है। असल में, उनका स्वभाव सत्य से विमुख रहने वाला होता है। मैं क्यों कहता हूँ कि उनका स्वभाव सत्य से विमुख रहने वाला होता है? क्योंकि जब भी किसी चीज में परमेश्वर के लिए गवाही देना, सत्य का अभ्यास करना, परमेश्वर के चुने हुए लोगों की रक्षा करना, शैतान की चालों से लड़ना, या कलीसिया के कार्य की रक्षा करना शामिल होता है, तो वे भागकर छिप जाते हैं, और किसी भी उचित मामले पर ध्यान नहीं देते। कष्ट उठाने की उनकी वीरता और जज्बा कहाँ चला जाता है? उन चीजों का वे इस्तेमाल कहाँ करते हैं? यह देखना आसान है। भले ही कोई उन्हें फटकारे और कहे कि उन्हें इतना स्वार्थी और नीच नहीं होना चाहिए, और खुद को बचाते नहीं रहना चाहिए और उन्हें कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी चाहिए, फिर भी वे वास्तव में इसकी परवाह नहीं करते। वे अपने मन में कहते हैं, “मैं ये चीजें नहीं करता, और इनका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। इस तरह कार्य करने से मेरी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के अनुसरण को क्या फायदा होगा?” वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं होते। वे केवल प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागना पसंद करते हैं, और वह काम तो बिल्कुल नहीं करते जो परमेश्वर ने उन्हें सौंपा होता है। इसलिए जब कलीसिया का कार्य करने के लिए उनकी जरूरत पड़ती है तो वे बस भाग जाना चुनते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि अपने दिल में वे सकारात्मक चीजों को पसंद नहीं करते और सत्य में रुचि नहीं रखते। यह सत्य से विमुख होने की स्पष्ट निशानी है। जो सत्य से प्रेम करते हैं और जिनमें सत्य वास्तविकता होती है, वही लोग तब आगे आ सकते हैं, जब परमेश्वर के घर के काम को और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनकी आवश्यकता होती है, वही लोग खड़े होकर, बहादुरी और कर्तव्य-निष्ठा से, परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं, सत्य पर संगति कर सकते हैं, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सही मार्ग पर ले जा सकते हैं और उन्हें परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम बना सकते हैं। यही जिम्मेदारी का रवैया है और परमेश्वर के इरादों की परवाह दिखाने की अभिव्यक्ति है। यदि तुम लोगों में यह रवैया नहीं है, तथा चीजों को संभालने में तुम निपट लापरवाह रहते हो, और तुम सोचते हो, “मैं अपने कर्तव्य के दायरे में चीजों को तो करूँगा, लेकिन मुझे किसी और चीज की परवाह नहीं है। यदि तुम मुझसे कुछ करने को कहोगे, मैं तुम्हें उत्तर दूँगा—यदि मैं अच्छे मूड में हुआ तो करूँगा, नहीं तो नहीं करूँगा। यह मेरा रवैया है,” तो इस तरह का स्वभाव भ्रष्ट स्वभाव है, है न? केवल अपनी हैसियत, अपनी प्रतिष्ठा और अभिमान की रक्षा करना, और केवल अपने हित से चीजों की रक्षा करना—क्या ऐसा करना एक न्यायोचित ध्येय की रक्षा करना है? क्या यह परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना है? इन ओछे, स्वार्थी मंसूबों के पीछे सत्य से विमुख रहने वाला स्वभाव है। तुम लोगों में से अधिकांश अक्सर इस प्रकार की अभिव्यक्तियाँ दिखाते हैं, और जिस क्षण तुम्हारे सामने परमेश्वर के घर के हितों से संबंधित कोई बात आती है, तो तुम टालमटोल करते हो और कहते हो, “मैंने नहीं देखा,” या “मुझे पता नहीं,” या “मैंने सुना नहीं।” चाहे तुम सचमुच अनजान हो या सिर्फ अनजान होने का दिखावा कर रहे हो, अगर तुम महत्वपूर्ण क्षणों में इस तरह का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, तो यह कहना मुश्किल होता है कि क्या तुम वाकई परमेश्वर में विश्वास रखने वाले व्यक्ति हो; मेरी नजर में तुम या तो अपने विश्वास के प्रति भ्रमित हो या फिर छद्म-विश्वासी हो। तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति तो बिल्कुल भी नहीं हो।
तुम लोग समझ सकते हो कि सत्य से विमुख होने का क्या मतलब है, लेकिन मैं क्यों कहता हूँ कि सत्य से विमुख होना एक स्वभाव है? स्वभाव का कभी-कभार होने वाली अस्थायी अभिव्यक्तियों से कोई लेना-देना नहीं होता और कभी-कभार होने वाली अस्थायी अभिव्यक्तियोँ को स्वभाव संबंधी समस्या नहीं कहा जा सकता। किसी व्यक्ति में चाहे जैसा भ्रष्ट स्वभाव हो, यह उनमें अक्सर या यहाँ तक कि लगातार प्रकट होता रहेगा; जब भी वह भ्रष्ट स्वभाव से जुड़ी स्थिति में होगा, यह उसमें प्रकट हो जाएगा। इसलिए कभी-कभार की अस्थायी अभिव्यक्तियों के आधार पर तुम किसी व्यक्ति की स्वभाव संबंधी समस्या को मनमाने तरीके से चिह्नित नहीं कर सकते। तो स्वभाव क्या होता है? स्वभावों का संबंध इरादों और प्रेरणाओं से होता है, और व्यक्ति की सोच तथा दृष्टिकोण से होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हें इसका एहसास है कि वे चीजें हावी हो रही हैं और तुम्हें भटका रही हैं, लेकिन स्वभाव छिपे हुए और गुप्त भी हो सकते हैं, तथा सतही घटनाओं के कारण इसे देखना कठिन हो सकता है। संक्षेप में, जब तक तुम्हारे भीतर एक स्वभाव है, वह तुम्हारे काम में हस्तक्षेप करेगा, तुम्हें बाधित और नियंत्रित करेगा और तुम्हारे भीतर तरह-तरह के व्यवहार और अभिव्यक्तियों को जन्म देगा—यही होता है स्वभाव। सत्य से विमुख रहने का स्वभाव अक्सर किस तरह के व्यवहारों, विचारों, दृष्टिकोणों और रवैये को जन्म देता है? लोग सत्य से विमुख रहने के जो मुख्य लक्षण प्रदर्शित करते हैं उनमें से एक लक्षण यह है कि वे सकारात्मक चीजों और सत्य में रुचि नहीं दिखाते, सत्य तक पहुँचने के प्रति अरुचि दिखाते हैं, मन से उदासीन रहते हैं और ऐसा करने के अनिच्छुक होते हैं, और जब भी कोई ऐसी बात आए जिसमें सत्य का अभ्यास करना हो, तो सोचते हैं कि जो भी चल रहा है वह सब ठीक ही है। मैं एक आसान-सा उदाहरण देता हूँ। अक्सर लोग अच्छे स्वास्थ्य के संबंध में इस सहज ज्ञान की बात करते हैं कि फल और सब्जियाँ अधिक खाएँ, हल्का भोजन अधिक और मांस कम खाएँ, और तला हुआ भोजन विशेष रूप से कम करें; यह लोगों के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए एक सकारात्मक मार्गदर्शिका है। हर कोई समझ और स्वीकार कर सकता है कि क्या अधिक खाना चाहिए और क्या कम। तो यह स्वीकृति सिद्धांत पर आधारित है या अभ्यास पर? (सिद्धांत पर।) सैद्धांतिक स्वीकृति कैसे व्यक्त होती है? ऐसा एक तरह की बुनियादी पहचान से होता है। यह अपनी परखने की क्षमता पर आधारित समझ के अनुसार यह सोचना है कि उक्त कथन सही और बहुत अच्छा है। लेकिन क्या तुम्हारे पास इस कथन की सत्यता प्रदर्शित करने के लिए कोई सबूत है? क्या तुम्हारे पास इस पर विश्वास करने का कोई आधार है? इसे स्वयं अनुभव किए बिना, इसके सही या गलत होने की पुष्टि के किसी आधार के बिना, और निश्चित ही पिछली गलतियों से कोई सबक लिए बिना, तथा किसी वास्तविक उदाहरण के बिना, तुमने बस इस दृष्टिकोण को स्वीकार कर लिया—यही सैद्धांतिक स्वीकृति है। चाहे तुम इस बात को सैद्धांतिक रूप से स्वीकार करो या व्यावहारिक रूप से, तुम लोगों को पहले यह पुष्टि करनी चाहिए कि “सब्जियाँ अधिक और मांस कम खाएँ,” यह कथन सही और सकारात्मक बात है। तो, सत्य से विमुख रहने का तुम्हारा स्वभाव कैसे देखा जा सकता है? इसका आधार यह है कि तुम इस कथन को कैसे ग्रहण करते हो और अपने जीवन में कैसे अपनाते हो; यह उस कथन के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण को दर्शाता है, यह दिखाता है कि तुमने इसे सैद्धांतिक और विचारधारा के रूप में स्वीकार किया है, या कि तुमने वास्तविक जीवन में लागू करके इसे अपनी वास्तविकता बना ली है। यदि तुमने इस कथन को केवल विचारधारा के रूप में स्वीकार किया है, लेकिन वास्तविक जीवन में तुम जो करते हो वह इस कथन के पूरी तरह से उलट है, या तुम इस कथन को व्यवहार में बिल्कुल भी नहीं अपनाते, तो तुम्हें यह कथन पसंद है, या तुम इसके खिलाफ हो? उदाहरण के लिए, जब तुम थोड़ी-सी हरी सब्जियाँ खाते हो और उन्हें देख कर सोचते हो कि “हरी सब्जियाँ स्वास्थ्य के लिए तो अच्छी हैं, लेकिन उनका स्वाद बढ़िया नहीं होता है, और मांस का स्वाद बेहतर होता है, इसलिए मैं पहले थोड़ा मांस खाऊँगा,” और इसके बाद तुम केवल मांस खाते हो, हरी सब्जियाँ नहीं खाते—यह किस प्रकार का स्वभाव दर्शाता है? यह सही बातों को स्वीकार न करने का स्वभाव, सकारात्मक चीजों से विमुख रहने का स्वभाव और केवल दैहिक प्राथमिकताओं के आधार पर खाने की इच्छा रखने वाला स्वभाव दर्शाता है। ऐसा व्यक्ति जो पेटू और स्वाद का लालची है, वह पहले ही सकारात्मक चीजों से बहुत विमुख हो चुका है, उनका प्रतिरोध करता है और इनसे दूर भागता है, और यह एक प्रकार का स्वभाव है। ऐसे भी लोग हो सकते हैं जो स्वीकार करें कि यह कथन काफी हद तक सही है, लेकिन वे स्वयं ऐसा नहीं कर सकते और यद्यपि वह ऐसा नहीं कर सकते, फिर भी वे दूसरों को ऐसा करने के लिए कहते हैं; बहुत बार दोहराने के बाद वह कथन उनके लिए एक प्रकार का सिद्धांत बन जाता है और उन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे लोग मन में अच्छी तरह से जानते हैं कि ज्यादा सब्जियाँ खाना सही है और ज्यादा मांस खाना अच्छा नहीं है, लेकिन वे सोचते हैं, “कुछ भी हो, मेरी मति नहीं मारी गई है, मांस खाना फायदे की बात है और मुझे नहीं लगता कि यह स्वास्थ्य के लिए खराब है।” उनके लालच और इच्छाओं ने उन्हें गलत जीवनशैली चुनने पर मजबूर कर दिया है और उन्हें लगातार सही सामान्य ज्ञान और सही जीवनशैली के खिलाफ जाने पर मजबूर कर दिया है। उनमें एक ऐसा भ्रष्ट स्वभाव है जो फायदों और दैहिक आनंद की लालसा रखता है, तो क्या उनके लिए सही कथनों और सकारात्मक चीजों को स्वीकार करना आसान होगा? यह बिल्कुल भी आसान नहीं होगा। तो क्या उनकी जीवनशैली उनके भ्रष्ट स्वभाव से संचालित नहीं होती? यह उनके भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा है और यह उनके भ्रष्ट स्वभाव की अभिव्यक्ति है। ऐसे ही व्यवहार और रवैये बाहरी तौर पर दिखाई देते हैं, लेकिन वास्तव में, यह एक स्वभाव है जो उन्हें नियंत्रित कर रहा है। यह कौन-सा स्वभाव है? यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव है। सत्य से विमुख होने के स्वभाव का पता लगाना कठिन है; किसी को नहीं लगता कि वे सत्य से विमुख हैं, लेकिन उनकी सत्य विमुखता दिखाने के लिए यह तथ्य ही काफी है कि वे वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आने के बावजूद यह नहीं जानते कि सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए। लोग बहुत सारे धर्मोपदेश सुनते हैं और परमेश्वर के बहुत सारे वचन पढ़ते हैं और परमेश्वर का इरादा यह है कि वे उसके वचनों को अपने हृदय से स्वीकार करें और इन वचनों का अपने वास्तविक जीवन में अभ्यास और उपयोग करें ताकि वे सत्य को समझें और उसे अपना जीवन बनाएँ। अधिकांश लोगों के लिए इस अपेक्षा को पूरा करना कठिन है और इसीलिए कहा जाता है कि अधिकांश लोगों का स्वभाव सत्य से विमुख रहने वाला होता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
सभी लोगों का स्वभाव अहंकारी और दंभी होता है, और वे हमेशा घमंडी होते हैं। वे जो भी सोचें या कहें, चीजों को कैसे भी देखें, वे हमेशा सोचते हैं कि उनका नजरिया और उनका रवैया ही सही है, और दूसरों का कहा उनके जैसा ठीक या उतना सही नहीं है। वे हमेशा अपनी ही राय से चिपके रहते हैं, और बोलने वाला इंसान जो भी हो, वे उसकी बात नहीं सुनते। किसी और की बात सही हो, या सत्य के अनुरूप हो, तो भी वे उसे स्वीकार नहीं करेंगे; वे सुनने का सिर्फ दिखावा करेंगे, मगर वे उस विचार को सच में नहीं अपनाएँगे, और कार्य करने का समय आने पर भी वे अपने ही ढंग से काम करेंगे, हमेशा यह सोचते हुए कि जो वे कहते हैं वही सही और वाजिब है। ... तुम्हारा यह व्यवहार देखकर परमेश्वर क्या कहेगा? परमेश्वर कहेगा : “तुम दुराग्रही हो! जब यह न पता हो कि तुम गलत हो तो तुम्हारा अपने विचारों से चिपके रहना तो समझ आता है, मगर जब तुम्हें साफ पता है कि तुम गलत हो फिर भी तुम अपने विचारों से चिपके रहते हो और प्रायश्चित्त करने से पहले मरना पसंद करोगे, तो तुम निरे जिद्दी बेवकूफ हो, और मुसीबत में हो। सुझाव कोई भी दे, अगर तुम इसके प्रति हमेशा नकारात्मक, प्रतिरोधी रवैया अपनाकर सत्य को लेशमात्र भी स्वीकार नहीं करते, और तुम्हारा दिल पूरी तरह प्रतिरोधी, बंद और चीजों का नकारने के भाव से भरा है, तो तुम हँसी के पात्र हो, बेहूदा हो! तुमसे निपटना बहुत मुश्किल है।” तुमसे निपटना मुश्किल क्यों है? तुमसे निपटना इसलिए मुश्किल है, क्योंकि तुम जो प्रदर्शित कर रहे हो वह एक त्रुटिपूर्ण रवैया या त्रुटिपूर्ण व्यवहार नहीं है, बल्कि तुम्हारे स्वभाव का खुलासा है। किस स्वभाव का खुलासा? उस स्वभाव का जिसमें तुम सत्य से विमुख हो, सत्य से घृणा करते हो। जब एक बार तुम्हें उस व्यक्ति के रूप में पहचान लिया गया जो सत्य से घृणा करता है, तो परमेश्वर की नजरों में तुम मुसीबत में हो, और वह तुम्हें ठुकरा देगा और अनदेखा करेगा। लोगों के नजरिये से देखें, तो ज्यादा-से-ज्यादा वे कहेंगे : “इस व्यक्ति का स्वभाव बुरा है। यह बेहद जिद्दी, दुराग्रही और अहंकारी है! इसके साथ निभाना बहुत मुश्किल है, यह सत्य से प्रेम नहीं करता। इसने कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं किया, और यह सत्य पर अमल नहीं करता।” ज्यादा-से-ज्यादा, सब लोग तुम्हारा यही आकलन करेंगे, मगर क्या यह आकलन तुम्हारे भाग्य का फैसला कर सकता है? लोग तुम्हारा जो आकलन करते हैं, वह तुम्हारे भाग्य का फैसला नहीं कर सकता, मगर एक चीज है जो तुम्हें नहीं भूलनी चाहिए : परमेश्वर लोगों के दिलों की जाँच करता है, और साथ ही साथ वह उनकी हर कथनी और करनी का निरीक्षण करता है। अगर परमेश्वर तुम्हें इस तरह परिभाषित करता है, और अगर वह मात्र इतना नहीं कहता कि तुम्हारा स्वभाव थोड़ा भ्रष्ट है, या तुम थोड़े अवज्ञाकारी हो, बल्कि कहता है कि तुम सत्य से घृणा करते हो, तो क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है? (यह गंभीर है।) इससे मुसीबत होगी, और यह मुसीबत इसमें नहीं है कि लोग तुम्हें किस नजर से देखते हैं, या तुम्हारा आकलन कैसे करते हैं, यह इस बात में है कि परमेश्वर सत्य से घृणा करने वाले तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को कैसे देखता है। तो परमेश्वर इसे किस नजर से देखता है? क्या परमेश्वर ने सिर्फ यह तय कर दिया है कि तुम सत्य से घृणा करते हो, इससे प्रेम नहीं करते, और कुछ नहीं? क्या यह इतना सरल है? सत्य कहाँ से आता है? सत्य किसका प्रतिनिधित्व करता है? (यह परमेश्वर को दर्शाता है।) इस पर विचार करो : अगर एक इंसान सत्य से घृणा करता है, तो परमेश्वर अपने नजरिए से उसे कैसे देखेगा? (अपने शत्रु के रूप में।) क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है? जब कोई व्यक्ति सत्य से घृणा करता है, तो वह परमेश्वर से घृणा करता है! मैं क्यों कहता हूँ कि वह परमेश्वर से घृणा करता है? क्या उन्होंने परमेश्वर को शाप दिया? क्या उन्होंने परमेश्वर के सामने उसका विरोध किया? क्या उन्होंने उसकी पीठ पीछे उसकी आलोचना या निंदा की? ऐसा जरूरी नहीं। तो मैं क्यों कहता हूँ कि सत्य से घृणा करने वाले स्वभाव का खुलासा करना परमेश्वर से घृणा करना है? यह राई का पहाड़ बनाना नहीं है, यह स्थिति की वास्तविकता है। यह पाखंडी फरीसियों जैसा होना है, जिन्होंने सत्य से अपनी घृणा के कारण प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ा दिया—बाद में हुए परिणाम भयावह थे। इसका यह अर्थ है कि अगर किसी व्यक्ति का स्वभाव सत्य से विमुख है और वह सत्य से घृणा करता है, तो वह कभी भी कहीं भी इसे प्रकट कर सकता है, और अगर वे इसी के सहारे जीते हैं तो क्या वे परमेश्वर का विरोध नहीं करेंगे? जब उनका सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो सत्य से या विकल्प चुनने से जुड़ी होती है, तो अगर वे सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते, और अपने भ्रष्ट स्वभाव के सहारे जीते हैं, तो स्वाभाविक रूप से वे परमेश्वर का विरोध करेंगे, और उसे धोखा देंगे, क्योंकि उनका भ्रष्ट स्वभाव परमेश्वर और सत्य से घृणा करता है। अगर तुम्हारा स्वभाव ऐसा है तो परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों को लेकर भी तुम सवाल उठाओगे, और उनका विश्लेषण और समालोचना करना चाहोगे। फिर तुम परमेश्वर के वचनों को शक से देखोगे, और कहोगे, “क्या ये सचमुच परमेश्वर के वचन हैं? ये मुझे सत्य जैसे नहीं लगते, ये सब मुझे अनिवार्यतः सही नहीं लगते!” इस प्रकार क्या सत्य से घृणा करने वाला तुम्हारा स्वभाव स्वतः प्रकट नहीं हो गया? इस प्रकार सोचने पर, क्या तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकोगे? यकीनन नहीं। अगर तुम परमेश्वर को समर्पित नहीं हो सकते, तो क्या वह अभी भी तुम्हारा परमेश्वर है? नहीं। फिर तुम्हारे लिए परमेश्वर क्या होगा? तुम उससे शोध के एक विषय के रूप में पेश आओगे, ऐसा जिस पर शक किया जाना चाहिए, जिसकी निंदा होनी चाहिए; तुम उससे एक साधारण और आम इंसान की तरह पेश आओगे, और ऐसे ही उसकी निंदा करोगे। ऐसा करके तुम ऐसे इंसान बन जाओगे जो परमेश्वर का प्रतिरोध और उसका तिरस्कार करता हो। किस प्रकार के स्वभाव के कारण ऐसा होता है? यह ऐसे अहंकारी स्वभाव के कारण होता है जो कुछ हद तक फूल चुका हो; न सिर्फ तुम्हारा शैतानी स्वभाव तुमसे प्रकट होगा, बल्कि तुम्हारे शैतानी रूप का भी पूरी तरह खुलासा हो जाएगा। परमेश्वर का प्रतिरोध करने के स्तर तक पहुँच चुके इंसान, जिसका विद्रोहीपन एक विशेष सीमा तक पहुँच चुका हो, उसके और परमेश्वर के बीच के रिश्ते का क्या होता है? यह शत्रुता का रिश्ता बन जाता है, जिसमें व्यक्ति परमेश्वर को अपने विरोध में खड़ा कर लेता है। परमेश्वर में अपनी आस्था में, अगर तुम सत्य को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण नहीं कर सकते, तो परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं रह जाता। अगर तुम सत्य को मना करके उसे ठुकरा देते हो, तो तुम ऐसे इंसान बन चुके होगे, जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। फिर भी क्या परमेश्वर तुम्हें बचा सकेगा? यकीनन नहीं। परमेश्वर तुम्हें अपना उद्धार पाने का एक मौका देता है, और तुम्हें एक शत्रु के रूप में नहीं देखता, मगर तुम सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते और परमेश्वर को अपने विरोध में खड़ा देते हो; परमेश्वर को अपने सत्य और अपने मार्ग के रूप में स्वीकार करने की तुम्हारी असमर्थता तुम्हें एक ऐसा इंसान बना देती है जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। इस समस्या को कैसे सुलझाया जा सकता है? तुम्हें जल्द प्रायश्चित्त कर अपना मार्ग बदल लेना चाहिए। उदाहरण के लिए, अपना कर्तव्य निभाते समय जब तुम्हारे सामने कोई समस्या या कठिनाई आए, और तुम उसे सुलझाना न जानो, तो तुम्हें बिना सोचे-विचारे उस पर मनन नहीं करना चाहिए, तुम्हें पहले परमेश्वर के सामने खुद को शांत करना चाहिए, प्रार्थना कर उससे जानना चाहिए और देखना चाहिए कि परमेश्वर के वचन इस बारे में क्या कहते हैं। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद भी अगर तुम न समझो, और न जान पाओ कि यह मसला किन सत्यों से संबंधित है, तो तुम्हें एक सिद्धांत को कसकर थामे रहना चाहिए—यानी पहले समर्पण करो, कोई निजी विचार या सोच न रखो, शांतचित्त होकर प्रतीक्षा करो, और देखो कि परमेश्वर क्या कुछ करने की इच्छा और इरादा रखता है। जब तुम सत्य को न समझ सको, तो तुम्हें उसे खोजना चाहिए, और बिना विचारे लापरवाही से कुछ करने के बजाय परमेश्वर की प्रतीक्षा करनी चाहिए। तुम्हारे सत्य न समझ पाने पर, कोई तुम्हें सुझाव दे, और सत्य के अनुसार कुछ करने का तरीका बताए, तो तुम्हें पहले उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, सबको उस पर संगति करने देना चाहिए, और देखना चाहिए कि यह रास्ता सही है या नहीं, यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं। अगर तुम इस बात की पुष्टि कर लो कि यह सत्य के अनुरूप है, तो उस पर अमल करो; अगर तुम तय कर लो कि यह सत्य के अनुरूप नहीं है, तो उस पर अमल मत करो। यह इतना ही आसान है। सत्य की खोज करते समय, तुम्हें बहुत-से लोगों से पूछना चाहिए। अगर किसी के पास कुछ कहने को है, तो तुम्हें सुनना चाहिए और उसके सभी कथनों को गंभीरता से लेना चाहिए। उनकी अनदेखी न करो, न ही उन्हें झिड़को, क्योंकि यह तुम्हारे कर्तव्य के दायरे के भीतर के मामलों से संबंधित है और तुम्हें इसे गंभीरता से लेना चाहिए। यही सही रवैया और सही दशा है। जब तुम्हारी दशा सही हो, और तुम सत्य से विमुख और घृणा करने वाला स्वभाव प्रदर्शित न करो, तो इस प्रकार अभ्यास करने से यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की जगह ले लेगा। यही है सत्य का अभ्यास। अगर तुम सत्य पर इस तरह अमल करोगे, तो इसका फल क्या होगा? (पवित्र आत्मा हमारा मार्गदर्शन करेगा।) पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन पाना एक पहलू है। कभी-कभी मामला बहुत आसान होगा और इसे तुम अपने दिमाग से पूरा कर लोगे; दूसरे लोगों के सुझाव देने और तुम्हारे उन्हें समझ लेने के बाद तुम चीजों को सुधार सकोगे और सिद्धांतों के अनुसार काम कर पाओगे। लोगों को लग सकता है कि यह बहुत छोटी बात है, मगर परमेश्वर के लिए यह बड़ी बात है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जब तुम ऐसा अभ्यास करते हो, तो परमेश्वर के लिए तुम सत्य पर अमल करने वाले इंसान बन जाते हो, एक इंसान जो सत्य से प्रेम करता है, और एक ऐसा इंसान जो सत्य से विमुख नहीं है—जब परमेश्वर तुम्हारे दिल में झांकता है, तो वह तुम्हारा स्वभाव भी देखता है, और यह एक बहुत बड़ी बात है। दूसरे शब्दों में, जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, परमेश्वर की मौजूदगी में कर्म करते हो, और तुम जो जीते और दर्शाते हो, वे सब सत्य वास्तविकताएँ होती हैं, जो लोगों में होनी चाहिए। तुम्हारे हर काम में जो रवैये, सोच-विचार और दशाएँ होती हैं, वे परमेश्वर के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण होती हैं, और परमेश्वर इन्हीं की जाँच करता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है
सत्य से विमुख होने का स्वभाव लोगों में मुख्य रूप से कैसे अभिव्यक्त होता है? जब वे कोई सकारात्मक चीज देखते हैं, तो वे उसे सत्य से नहीं मापते—उसे मापने के लिए वे किस चीज का इस्तेमाल करते हैं? उसे मापने और यह देखने के लिए कि क्या यह चीज सुरुचिपूर्ण ढंग से की गई है, इसका रूप क्या है और यह कितनी प्रभावशाली है, वे शैतान के तर्क का इस्तेमाल करते हैं। वे हर चीज उन तरीकों से मापते हैं, जिनका इस्तेमाल शैतान लोगों का मूल्यांकन करने के लिए करता है, यानी वे सिद्धांत और तरीके, जिनका इस्तेमाल गैर-विश्वासी लोगों का मूल्यांकन करने के लिए करते हैं। चीजें करते समय वे सत्य नहीं खोजते, और उनके तमाम कार्यों का शुरुआती बिंदु सत्य को एक तरफ रखकर उन्हें अपनी कल्पनाओं और दृष्टिकोणों, और सांसारिक आचरण के फलसफों और उस ज्ञान का इस्तेमाल करके मापना होता है जिसे उन्होंने समझा होता है—वे सब-कुछ इसी तरह से करते हैं। वे मानवीय दृष्टिकोणों और शैतान के तर्क का अपने माप के रूप में इस्तेमाल करते हैं, और मापते-मापते वे पाते हैं कि उनकी नजर में और कोई उनके जितना अच्छा नहीं है—वे सर्वश्रेष्ठ हैं। क्या उनके हृदय में मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ होती हैं? क्या वहाँ सत्य का कोई सिद्धांत होता है? नहीं, कोई नहीं होता। वे मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ नहीं देखते, वे नहीं देखते कि सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है, वे नहीं देखते कि सत्य सभी चीजों से ऊपर है, इसलिए वे स्वाभाविक रूप से देहधारी परमेश्वर को तुच्छ समझते हैं, और उनके मन में हमेशा परमेश्वर के देहधारण के पहनावे के ढंग, वाणी और आचरण के बारे में धारणाएँ होती हैं। और इसलिए, लंबे संपर्क के बाद, वे सोचते हैं, “तुम उतने गरिमापूर्ण, शाही और गहन नहीं हो जितना मैंने सोचा था, और तुम्हारे पास तो मेरे जैसी उत्कृष्टता भी नहीं है। जैसे मैं यहाँ खड़ा हूँ, तो क्या मेरे पास एक महान विभूति वाली उत्कृष्टता नहीं है? हालाँकि तुम सत्य बोलते हो, फिर भी मुझे तुममें परमेश्वर जैसा कुछ दिखाई नहीं देता। तुम हमेशा सत्य के बारे में बात करते हो, तुम हमेशा वास्तविकता में प्रवेश करने की बात करते हो, तुम कुछ रहस्यों का खुलासा क्यों नहीं करते? तुम थोड़ा तीसरे स्वर्ग की भाषा में क्यों नहीं बोलते?” चीजों पर यह किस प्रकार का तर्क और दृष्टिकोण है? (यह चीजों पर शैतान का दृष्टिकोण है।) यह शैतान से आता है। तुम लोगों को क्या लगता है कि मैं इन चीजों को कैसे देखता हूँ? (तुम ऐसे व्यक्ति से घृणा करते हो और उससे बातचीत करने के इच्छुक नहीं होते।) तुम लोग गलत हो। उलटे, ऐसे किसी व्यक्ति से सामना होने पर मैं उसके करीब जाऊँगा और उसके साथ सामान्य रूप से संगति करूँगा, और जो मैं प्रदान कर सकता हूँ, वह उसे प्रदान करूँगा और जैसे भी संभव होगा, उसकी मदद करूँगा। अगर वह अड़ियल और जिद्दी हुआ, तो न केवल मैं उसके साथ सामान्य रूप से निभा पाऊँगा, बल्कि जितना हो सकेगा, उसके साथ चीजों पर चर्चा भी करूँगा। मैं कहूँगा, “क्या तुम्हें लगता है कि इस तरह से काम करना सही रहता है? तुम्हें इनमें से जो भी तरीका उपयुक्त लगे, उसका इस्तेमाल करो, और अगर तुम्हें लगता है कि इनमें से कोई भी उपयुक्त नहीं है, तो इस समस्या को हल करने के लिए अपना तरीका सोचो।” इस प्रकार का व्यक्ति खुद को जितना बड़ा समझता है, मैं उसके साथ उतना ही अधिक इस तरह हिल-मिल जाता हूँ; मैं किसी के सामने अपनी शान नहीं बघारता। अगर दो स्टूल हों, एक ऊँचा और एक नीचा, तो मैं उसे ऊँचे वाले पर बैठने दूँगा, और खुद नीचे वाले पर बैठूँगा। मैं उसकी तरफ अदब से देखकर बात करूँगा, और अंततः उसे शर्मिंदा कर दूँगा, और धीरे-धीरे उसे एहसास दिलाऊँगा कि उसके पास सत्य नहीं है, वह दरिद्र और दयनीय, सुन्न और मंदबुद्धि है। तुम इस तरीके के बारे में क्या सोचते हो? (यह अच्छा है।) तो, अगर मैं उसे एकाएक खारिज कर देता, तो क्या यह उसके लिए अच्छा रहता? दरअसल, इसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन इससे उसका कुछ भला न होता। अगर वह थोड़ी ईमानदारी के साथ परमेश्वर में विश्वास करता है, उसमें कुछ मानवता है, और उसे बचाया जा सकता है, तो मेरा उसके साथ बातचीत करना ठीक है। आखिरकार, अगर एक दिन वह सत्य समझ ले, तो वह स्वयं निचले स्टूल पर बैठना पसंद करेगा, और फिर घमंड नहीं करेगा। अगर मैं उसे नजरअंदाज कर दूँ, तो वह हमेशा ऐसा ही अज्ञानी और मूर्ख बना रहेगा, मूर्खतापूर्ण चीजें कहता और करता रहेगा, और हमेशा एक मूर्ख व्यक्ति, दरिद्र और दयनीय बना रहेगा—यह उन लोगों की कुरूप स्थिति है, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते। लोग सकारात्मक चीजों को तुच्छ समझते हैं और उनसे घृणा करते हैं, और जब वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो ईमानदार, स्नेही है और हमेशा सत्य का अभ्यास करता है लेकिन जिसमें कभी-कभी बुद्धि का अभाव होता है, तो वे उसका दिल से तिरस्कार करते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसा व्यक्ति बेकार और निकम्मा है, जबकि वे स्वयं चतुर और हिसाब-किताब में अच्छे हैं, साजिश करने और षड्यंत्र रचने में माहिर हैं, साधन-संपन्न और प्रतिभाशाली हैं, और सक्षम और वाक्पटु हैं। उन्हें लगता है कि यह उन्हें परमेश्वर के उद्धार का पात्र बनाता है, लेकिन वास्तव में इसका उलटा है—यह उस प्रकार का व्यक्ति है जिससे परमेश्वर घृणा करता है। यह सत्य को नापसंद करने और उससे विमुख होने का स्वभाव है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने स्वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है
परमेश्वर लोगों की तुच्छ क्षमता को नापसंद नहीं करता, वह उनकी मूर्खता को नापसंद नहीं करता, और वह इस बात को भी नापसंद नहीं करता कि उनके स्वभाव भ्रष्ट हैं। लोगों में वह क्या चीज है, जिससे परमेश्वर सबसे ज्यादा नापसंद करता है? वह है उनका सत्य से विमुख होना। अगर तुम सत्य से विमुख हो, तो केवल इसी एक कारण से, परमेश्वर कभी भी तुमसे खुश नहीं होगा। यह बात पत्थर की लकीर है। अगर तुम सत्य से विमुख हो, अगर तुम सत्य से प्रेम नहीं करते, अगर सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया परवाह न करने वाला, तिरस्कारपूर्ण और अहंकारी, यहाँ तक कि ठुकराने, प्रतिरोध करने और नकारने का है—अगर तुम इस तरह से व्यवहार करते हो, तो परमेश्वर तुमसे बिल्कुल निराश है, और तुम मृतप्राय हो और बचाए नहीं जाओगे। अगर तुम वास्तव में अपने दिल में सत्य से प्रेम करते हो, और बात सिर्फ इतनी है कि तुम कुछ हद तक कम काबिलियत वाले हो और तुममें अंतर्दृष्टि की कमी है, थोड़े मूर्ख हो और तुम अक्सर गलतियाँ करते हो, लेकिन तुम बुराई करने का इरादा नहीं रखते, और तुमने बस कुछ मूर्खतापूर्ण काम किए हैं; अगर तुम सत्य पर परमेश्वर की संगति सुनने के दिल से इच्छुक हो, और तुम सत्य के लिए दिल से लालायित हो; अगर तुम सत्य और परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने व्यवहार में ईमानदारी और ललक भरा रवैया अपनाते हो, और तुम परमेश्वर के वचन बहुमूल्य समझकर सँजो सकते हो—तो यह काफी है। परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद करता है। भले ही तुम कभी-कभी थोड़ी मूर्खता करते हो, परमेश्वर तुम्हें फिर भी पसंद करता है। परमेश्वर तुम्हारे दिल से प्रेम करता है, जो सत्य के लिए तरसता है, और वह सत्य के प्रति तुम्हारे ईमानदार रवैये से प्रेम करता है। तो, तुम पर परमेश्वर की दया है और वह तुम पर हमेशा अनुग्रह कर रहा है। वह तुम्हारी खराब क्षमता या तुम्हारी मूर्खता पर विचार नहीं करता, न ही वह तुम्हारे अपराधों पर विचार करता है। चूँकि सत्य के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण सच्चा और उत्सुकता भरा है, और तुम्हारा हृदय सच्चा है, इसलिए तुम्हारे हृदय की सच्चाई और इस रवैये का ध्यान रखते हुए वह हमेशा तुम्हारे प्रति दयालु रहेगा—और पवित्र आत्मा तुम पर कार्य करेगा, और तुम्हें उद्धार की आशा होगी। दूसरी ओर, यदि तुम दिल से अड़ियल और असंयमी हो, अगर तुम सत्य से विमुख हो, और परमेश्वर के वचनों और सत्य से जुड़ी किसी भी चीज पर कभी ध्यान नहीं देते, और अपने दिल की गहराइयों से प्रतिपक्षी और तिरस्कारपूर्ण हो, तो फिर तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया कैसा होगा? सख्त नापसंदगी, विकर्षण, और निरंतर क्रोध का। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव में कौन-सी दो विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं? प्रचुर दया और गहरा क्रोध। “प्रचुर दया” में “प्रचुर” का अर्थ यह होता है कि परमेश्वर की दया सहिष्णु, धैर्यवान, सहनशील है, और यही सबसे बड़ा प्रेम है—“प्रचुर” का यही अर्थ होता है। चूँकि लोग मूर्ख और तुच्छ क्षमता के होते हैं, परमेश्वर को इसी तरह कार्य करना पड़ता है। यदि तुम सत्य से प्रेम करते हो, लेकिन मूर्ख और खराब काबिलियत के हो, तो परमेश्वर का रवैया तुम्हारे प्रति अगाध दया का होता है। दया में क्या शामिल है? धैर्य और सहनशीलता : परमेश्वर तुम्हारी अज्ञानता के प्रति सहनशील और धैर्यवान है, वह तुम्हारे समर्थन के लिए, तुम्हारा भरण-पोषण करने के लिए और तुम्हारी मदद करने के लिए पर्याप्त आस्था और सहनशीलता देता है, ताकि तुम थोड़ा-थोड़ा करके सत्य को समझ सको और धीरे-धीरे परिपक्व हो सको। यह किस आधार पर बना है? यह किसी के प्रेम और सत्य के लिए तड़प, तथा परमेश्वर, उनके शब्दों और सत्य के प्रति उनके ईमानदार रवैये के आधार पर बना है। ये बुनियादी व्यवहार हैं जो लोगों में अभिव्यक्त होने चाहिए। लेकिन अगर कोई हृदय में सत्य से विमुख है, उससे दूर भागता है, या यहां तक कि सत्य से घृणा करता है, अगर वह सत्य को कभी गंभीरता से नहीं लेता, और हमेशा अपनी उपलब्धियों के बारे में बात करता है, कि उसने कैसे काम किया है, उसके पास कितना अनुभव है, वह किन-किन स्थितियों से गुजर चुका है, कि परमेश्वर उसे कितना महत्व देता है और उसे कितने बड़े काम सौंपे हैं—यदि वह केवल इन चीजों, अपनी योग्यताओं, उपलब्धियों और अपनी प्रतिभाओं के बारे में ही बात करता है, दिखावा करता है, और कभी भी सत्य पर संगति नहीं करता, परमेश्वर की गवाही नहीं देता, या परमेश्वर के कार्य के अनुभव या परमेश्वर के बारे में उसके ज्ञान पर संगति नहीं करता, तो क्या वह सत्य से विमुख नहीं हैं? सत्य से विमुख होना और सत्य से प्रेम न करना इसी प्रकार अभिव्यक्त होता है। कुछ लोग कहते हैं, “यदि मैं सत्य से प्रेम नहीं करता तो धर्मोपदेश कैसे सुनता?” क्या हर कोई जो उपदेश सुनता है वह सत्य से प्रेम करता है? कुछ लोग सिर्फ दिखावा करते हैं। वे दूसरों के सामने नाटक करने के लिए मजबूर होते हैं, इस डर से कि अगर वे कलीसिया के जीवन में भाग नहीं लेंगे, तो परमेश्वर का घर उनकी आस्था को स्वीकार नहीं करेगा। सत्य के प्रति इस दृष्टिकोण को परमेश्वर कैसे परिभाषित करता है? परमेश्वर कहता है कि ऐसे लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे सत्य से विमुख हैं। उनके स्वभाव में एक चीज है जो सबसे घातक है, अहंकार और धोखे से भी अधिक घातक है, और वह है सत्य से विमुख होना। परमेश्वर यह देखता है। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देखते हुए, वह ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करेगा? वह उनसे क्रुद्ध होता है। यदि परमेश्वर किसी से क्रुद्ध है, तो कभी-कभी वह उन्हें डाँटता है, या उन्हें अनुशासित और दंडित करता है। यदि वे जानबूझकर परमेश्वर का विरोध नहीं करते हैं, तो वह सहिष्णु होगा, प्रतीक्षा करेगा और प्रेक्षण करेगा। स्थिति या अन्य वस्तुनिष्ठ कारणों से परमेश्वर इस छद्म-विश्वासी का उपयोग सेवा करने वाले के रूप में कर सकता है। लेकिन जैसे ही परिवेश अनुमति देगा और समय सही आएगा, वैसे ही इन लोगों को परमेश्वर के घर से बाहर निकाल दिया जाएगा, क्योंकि वे सेवा प्रदान करने के योग्य भी नहीं हैं। परमेश्वर का प्रकोप ऐसा होता है। परमेश्वर इतना प्रचंड क्रोध क्यों करता है? यह सत्य से विमुख लोगों के प्रति परमेश्वर की अत्यधिक घृणा को व्यक्त करता है। परमेश्वर का प्रचंड क्रोध इसका संकेत है कि उसने सत्य से विमुख ऐसे लोगों का परिणाम और गंतव्य परिभाषित कर दिया है। परमेश्वर इन लोगों को कहाँ वर्गीकृत करता है? परमेश्वर उन्हें शैतान के खेमे में रखता है। क्योंकि वह उन पर क्रोधित है और उनसे चिढ़ा हुआ है, इसलिए परमेश्वर उनके लिए दरवाजे बंद कर देता है, वह उन्हें परमेश्वर के घर में पैर रखने की अनुमति नहीं देता है, और उन्हें बचाए जाने का मौका नहीं देता है। यह परमेश्वर के क्रोध की एक अभिव्यक्ति है। परमेश्वर उन्हें शैतान, घिनौने राक्षसों और बुरी आत्माओं के स्तर पर, छद्म-विश्वासियों के स्तर पर रखता है और जब समय सही होगा, तो वह उन्हें निकाल देगा। क्या यह उनसे निपटने का एक तरीका नहीं है? (हाँ, है।) परमेश्वर का क्रोध ऐसा ही है। और, एक बार जब उन्हें निकाल दिया जाएगा तो उनका क्या होगा? क्या उन्हें फिर कभी परमेश्वर की कृपा और आशीष, और परमेश्वर के उद्धार का आनंद मिल सकेगा? (नहीं।)
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है
यदि तुम सत्य से विमुख हो, हमेशा सत्य की निंदा करते हो और उसे अवमानित करते हो, यदि तुम्हारी प्रकृति इस प्रकार की है, तो तुम आसानी से नहीं बदलोगे। तुम बदल भी जाओ, तो यह देखना बाकी होगा कि क्या तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया बदल गया है। यदि तुम जो करते हो, उससे परमेश्वर का रवैया बदला जा सकता है, तो अब भी तुम्हारे बचाए जाने की उम्मीद है। यदि तुम परमेश्वर का रवैया नहीं बदल सकते, और अपने हृदय की गहराई में परमेश्वर लंबे समय से तुम्हारे सार से विमुख है, तो तुम्हारे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है। इसलिए, तुम लोगों को अपनी जाँच करनी है। यदि तुम ऐसी स्थिति में हो जिसमें तुम सत्य से विमुख हो और सत्य का प्रतिरोध करते हो, तो यह बहुत खतरनाक है। यदि तुम अक्सर ऐसी स्थिति उत्पन्न करते हो, अक्सर ऐसी स्थिति में पड़ते हो, या यदि तुम मूल रूप से इसी तरह के व्यक्ति हो, तो यह और भी बड़ी समस्या है। यदि तुम कभी-कभी सत्य से विमुख होने की स्थिति में होते हो, तो पहली बात यह है कि ऐसा तुम्हारे छोटे आध्यात्मिक कद के कारण हो सकता है; दूसरे, मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में ही इस प्रकार का सार निहित होता है, जो अनिवार्य रूप से ऐसी स्थिति पैदा कर देता है। परंतु, यह अवस्था तुम्हारे सार का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। कभी-कभी, कोई क्षणिक भावना ऐसी स्थिति उत्पन्न कर सकती है जिसके कारण तुम सत्य से विमुख हो जाओ। यह अस्थायी होता है। यह सत्य से विमुख तुम्हारे स्वभाव सार के कारण नहीं होता है। यदि यह अस्थायी स्थिति है, तो इसे उलटा जा सकता है, लेकिन तुम इसे कैसे उलटोगे? तुम्हें इस संबंध में सत्य की खोज करने के लिए तुरंत परमेश्वर के सामने आना होगा और सत्य को स्वीकार करने, सत्य तथा परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम बनना होगा। तब इस स्थिति का समाधान हो जाएगा। यदि तुम इसका समाधान नहीं करते हो और इसे ऐसे ही चलते रहने देते हो, तो तुम खतरे में हो। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कहते हैं : “बहरहाल, मेरी काबिलियत खराब है और मैं सत्य को नहीं समझ पाता, इसलिए मैं इसका अनुसरण करना बंद कर दूँगा, और मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पण भी नहीं करना पड़ेगा। परमेश्वर मुझे ऐसी काबिलियत कैसे दे सका? परमेश्वर धार्मिक नहीं है!” तुम परमेश्वर की धार्मिकता से इनकार करते हो। क्या यह सत्य से विमुख होना नहीं है? यह सत्य से विमुख होने का रवैया है और सत्य से विमुख होने की अभिव्यक्ति है। इस अभिव्यक्ति के घटित होने का एक संदर्भ है, इसलिए इस स्थिति के संदर्भ और मूल कारण का समाधान करना आवश्यक है। एक बार मूल कारण का समाधान हो जाने पर इसी के साथ तुम्हारी सत्य से विमुखता की स्थिति भी गायब हो जाएगी। कुछ स्थितियाँ लक्षणों जैसी होती हैं, जैसे कि खाँसी, जो सर्दी या निमोनिया के कारण हो सकती है। यदि तुम सर्दी या निमोनिया का इलाज कर लेते हो, तो खाँसी भी ठीक हो जाएगी। जब मूल कारण का समाधान हो जाता है, तो लक्षण गायब हो जाते हैं। लेकिन सत्य से विमुख होने की कुछ स्थितियाँ लक्षण नहीं, बल्कि गाँठ होती हैं। रोग का मूल कारण अंदर है। संभव है कि बाहर से देखने पर तुम्हें कोई लक्षण न दिखे, लेकिन एक बार यह बीमारी हो जाए तो यह घातक होती है। यह बहुत गंभीर समस्या है। ऐसे लोग कभी सत्य को नहीं स्वीकारते या मानते, या गैर-विश्वासियों की तरह लगातार सत्य की निंदा तक करते रहते हैं। उनके होंठों से ऐसे शब्द न निकलते हों, फिर भी वे अपने हृदय में सत्य की निंदा, अस्वीकार और खंडन करते रहते हैं। भले ही सत्य कोई भी हो—चाहे वह स्वयं को जानना हो, अपने भ्रष्ट स्वभाव को मानना हो, सत्य को स्वीकार करना हो, परमेश्वर के प्रति समर्पण करना हो, बेपरवाही से काम न करना हो, या ईमानदार व्यक्ति होना हो—वे सत्य के किसी भी पहलू को न तो स्वीकार करते हैं, न ग्रहण करते हैं और न उस पर ध्यान नहीं देते हैं, या यहां तक कि सत्य के सभी पहलुओं का खंडन और निंदा करते रहते हैं। यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव है, एक प्रकार का सार है। ऐसा सार किस तरह के अंतिम परिणाम की ओर ले जाता है? परमेश्वर द्वारा ठुकराए जाने, निकाल दिए जाने, और फिर नष्ट हो जाने की ओर। ये बहुत गंभीर परिणाम हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है
अंत के दिनों में, देहधारी परमेश्वर आ गया है। यह देखते हुए कि लोग व्यावहारिक परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, ऐसा क्या है जिसे मनुष्य को सबसे अधिक प्राप्त करना चाहिए? यह सत्य है, जीवन है; केवल यही सार्थक है और कुछ नहीं। जब मसीह आया, तो वह सत्य लाया, जीवन लाया; वह लोगों को जीवन देने के लिए आया था। फिर व्यावहारिक परमेश्वर में कोई कैसे विश्वास कर सकता है? सत्य और जीवन पाने के लिए किसी को क्या करना चाहिए? परमेश्वर ने बहुत-से सत्य व्यक्त किए हैं। वे सभी जिन्हें धार्मिकता की भूख और प्यास है, उन्हें परमेश्वर के वचनों से अपनी भूख और प्यास मिटानी चाहिए। परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, और उसके वचन समृद्ध और विपुल हैं; हर जगह बहुमूल्य चीजें और हर तरफ खजाना है। जो लोग सत्य को चाहते हैं, उनके दिल कनान की सुंदर भूमि के बाहुल्य का आनंद लेते हुए खुशी से खिल उठते हैं। परमेश्वर के वचनों के हर वाक्य को जिसे वे खाते और पीते हैं, उनमें सत्य और रोशनी है, वे सभी बहुमूल्य हैं। वे लोग जिन्हें सत्य से प्रेम नहीं है, वे लोग दुःख से व्यग्र हो उठते हैं; वे दावत पर बैठकर भी भुखमरी से जूझते हैं, यह उनकी दयनीयता दिखाता है। जो लोग सत्य तलाशने के काबिल हैं, उनके लाभ बढ़ते रहेंगे, और जो ऐसा नहीं कर पाते हैं, उनके आगे का रास्ता बंद हो जाएगा। अब सबसे बड़ी चिंता का विषय है, हर चीज में सत्य को तलाशना सीखना, सत्य की समझ तक पहुँच पाना, सत्य का अभ्यास करते रहना, और असल में परमेश्वर के प्रति समर्पित हो पाना। यही है परमेश्वर में विश्वास करना। व्यावहारिक परमेश्वर में विश्वास करना ही सत्य और जीवन को प्राप्त करना है। सत्य किस काम आता है? क्या ये लोगों की आध्यात्मिक दुनिया को संपन्न करने में काम आता है? क्या इसका उद्देश्य लोगों को अच्छी शिक्षा देना है? (नहीं।) तो सत्य मनुष्य की कौन-सी समस्या को सुलझाता है? सत्य मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने, मनुष्य की पापी प्रकृति का समाधान करने, लोगों को परमेश्वर के सामने जीने, और उन्हें एक सामान्य मानवता का जीवन देने के लिए है। कुछ लोग समझ ही नहीं पाते हैं कि सत्य है क्या। उन्हें हमेशा लगता है कि सत्य गूढ़ और निराकार है, और यह एक पहेली है। वे यह नहीं समझते कि सत्य वह है जिसे लोगों को अभ्यास में लाना चाहिए, यह कुछ ऐसा है जिसे लोगों को प्रयोग में लाना चाहिए। कुछ लोग दस या बीस वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बावजूद अभी तक नहीं समझ पाए हैं कि सत्य आखिर है क्या। क्या ऐसे व्यक्ति ने सत्य प्राप्त कर लिया है? (नहीं।) क्या सत्य को प्राप्त न कर सकने वाले लोग दयनीय नहीं हैं? बहुत ज्यादा—ठीक वैसे ही जैसे उस गीत में गाया गया है, “दावत में बैठे होकर भी वे भुखमरी से जूझ रहे हैं।” सत्य प्राप्त करना कठिन नहीं है, न ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना मुश्किल है, लेकिन अगर लोग हमेशा सत्य से विमुख होते रहे, तो क्या वे सत्य प्राप्त कर पाएँगे? नहीं। तो तुम्हें हमेशा परमेश्वर के सामने आना चाहिए, सत्य से विमुख होने की अपनी आंतरिक दशाओं की जांच करनी चाहिए, यह देखना चाहिए तुममें सत्य से विमुख होने के क्या लक्षण हैं और किस प्रकार से कार्य करना सत्य से विमुख होना है, और किन बातों में तुम सत्य से विमुख होने की मनोवृत्ति रखते हो—तुम्हें इन बातों की अक्सर जाँच करते रहना चाहिए। मिसाल के तौर पर, कोई तुम्हें यह कहकर आगाह करता है, “तुम सिर्फ अपनी इच्छा के भरोसे अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर सकते—तुम्हें आत्मचिंतन कर खुद को पहचानना चाहिए,” इस पर तुम क्रोध में आकर जवाब देते हो, “जिस तरीके से मैं अपना कर्तव्य निभाता हूँ वह अच्छा नहीं है, लेकिन जिस तरह तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, क्या वह सही है? जिस तरह से मैं अपना कर्तव्य निभाता हूँ उसमें क्या गलत है? परमेश्वर मेरे दिल को जानता है!” यह कैसा रवैया है? सत्य को स्वीकारने का? (नहीं।) जब घटनाएँ घटती हैं तो व्यक्ति में सबसे पहले सत्य को स्वीकारने का रवैया होना चाहिए। ऐसे रवैये का न होना उसी प्रकार है जैसे खजाने को रखने के लिए किसी बर्तन का न होना, इसी तरह तुम सत्य पाने में असमर्थ हो जाओगे। अगर कोई व्यक्ति सत्य न पा सके, तो परमेश्वर में उसका विश्वास निरर्थक है! परमेश्वर पर विश्वास करने का उद्देश्य है सत्य प्राप्त करना। अगर कोई सत्य प्राप्त नहीं कर सका, तो परमेश्वर में उसका विश्वास विफल हो चुका है। सत्य प्राप्त करना क्या होता है? यह तब प्राप्त होता है जब सत्य तुम्हारी वास्तविकता बन जाता है, जब यह तुम्हारा जीवन बन जाता है। यही है सत्य प्राप्त करना—यही है परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ! परमेश्वर अपने वचनों को किस लिए कहता है? परमेश्वर उन सत्यों को किस लिए व्यक्त करता है? ताकि लोग सत्य को अपना सकें, जिससे भ्रष्टाचार को शुद्ध किया जा सके; जिससे लोग सत्य प्राप्त कर सकें, जिससे सत्य उनका जीवन बन जाए। अन्यथा परमेश्वर इतने सारे सत्य क्यों व्यक्त करेगा? क्या बाइबल के साथ मुकाबला करने के लिए? क्या “सत्य का विश्वविद्यालय” स्थापित करने और लोगों के एक वर्ग को प्रशिक्षित करने के लिए? इनमें से किसी के लिए भी नहीं। इसके बजाय इसका उद्देश्य मानवता को पूर्णतः बचाना है, ताकि लोग सत्य समझ सकें और अंततः उसे प्राप्त कर सकें। अब तुम समझ गए, है ना? परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे अधिक आवश्यक क्या है? (सत्य प्राप्त करना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना।) यहाँ से, यह इस पर निर्भर करता है कि तुम लोग सत्य वास्तविकता में कैसे प्रवेश करते हो, और तुम प्रवेश कर भी सकते हो या फिर नहीं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
संबंधित अनुभवात्मक गवाहियाँ
यह देखकर कि मैं सत्य से विमुख था
अपनी गवाही लिखने से मुझे क्या मिला