7. भ्रष्ट मनुष्यों के प्रकृति सार को कैसे पहचानें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
कई हजार सालों की भ्रष्टता के बाद, मनुष्य संवेदनहीन और मंदबुद्धि हो गया है; वह एक दानव बन गया है जो परमेश्वर का इस हद तक विरोध करता है कि परमेश्वर के प्रति मनुष्य की विद्रोहशीलता इतिहास की पुस्तकों में दर्ज की गई है, यहाँ तक कि मनुष्य खुद भी अपने विद्रोही आचरण का पूरा लेखा-जोखा देने में असमर्थ है—क्योंकि मनुष्य शैतान द्वारा पूरी तरह से भ्रष्ट किया जा चुका है, और उसके द्वारा रास्ते से इतना भटका दिया गया है कि वह नहीं जानता कि कहाँ जाना है। आज भी मनुष्य परमेश्वर को धोखा देता है : मनुष्य जब परमेश्वर को देखता है तब उसे धोखा देता है, और जब वह परमेश्वर को नहीं देख पाता, तब भी उसे धोखा देता है। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो परमेश्वर के शापों और कोप का अनुभव करने के बाद भी उसे धोखा देते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य की समझ ने अपना मूल कार्य खो दिया है, और मनुष्य की अंतरात्मा ने भी अपना मूल कार्य खो दिया है। जिस मनुष्य को मैं देखता हूँ, वह मनुष्य के भेस में एक जानवर है, वह एक जहरीला साँप है, मेरी आँखों के सामने वह कितना भी दयनीय बनने की कोशिश करे, मैं उसके प्रति कभी दयावान नहीं बनूँगा, क्योंकि मनुष्य को काले और सफेद के बीच, सत्य और असत्य के बीच अंतर की समझ नहीं है। मनुष्य की समझ बहुत ही सुन्न हो गई है, फिर भी वह आशीष पाना चाहता है; उसकी मानवता बहुत नीच है, फिर भी वह एक राजा का प्रभुत्व पाने की कामना करता है। ऐसी समझ के साथ वह किसका राजा बन सकता है? ऐसी मानवता के साथ वह सिंहासन पर कैसे बैठ सकता है? सच में मनुष्य को कोई शर्म नहीं है! वह दंभी अभागा है! तुम लोगों में से जो आशीष पाने की कामना करते हैं, उनके लिए मेरा सुझाव है कि पहले शीशे में अपना बदसूरत प्रतिबिंब देखो—क्या तुम एक राजा बनने लायक हो? क्या तुम्हारे पास आशीष पा सकने लायक मुँह है? तुम्हारे स्वभाव में जरा-सा भी बदलाव नहीं आया है और तुमने किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं किया है, फिर भी तुम एक बेहतरीन कल की कामना करते हो। तुम अपने आप को धोखा दे रहे हो! ऐसी गंदी जगह में जन्म लेकर मनुष्य समाज द्वारा बुरी तरह संक्रमित कर दिया गया है, वह सामंती नैतिकता से प्रभावित हो गया है, और उसे “उच्चतर शिक्षा संस्थानों” में पढ़ाया गया है। पिछड़ी सोच, भ्रष्ट नैतिकता, जीवन के बारे में क्षुद्र दृष्टिकोण, सांसारिक आचरण के घृणित फलसफे, बिल्कुल बेकार अस्तित्व, भ्रष्ट जीवन-शैली और रिवाज—इन सभी चीजों ने मनुष्य के हृदय में गंभीर घुसपैठ कर ली है, उसकी अंतरात्मा को बुरी तरह खोखला कर दिया है और उस पर गंभीर प्रहार किया है। फलस्वरूप, मनुष्य परमेश्वर से और अधिक दूर हो गया है, और परमेश्वर का और अधिक विरोधी हो गया है। दिन-प्रतिदिन मनुष्य का स्वभाव और अधिक शातिर बन रहा है, और एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर के लिए कुछ भी त्याग करे, एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रति समर्पण करे, इसके अलावा, न ही एक भी व्यक्ति ऐसा है जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रकटन की खोज करे। इसके बजाय, इंसान शैतान की सत्ता में रहकर, आनंद का अनुसरण करने के सिवाय कुछ नहीं करता और कीचड़ की धरती पर खुद को देह की भ्रष्टता में डुबा देता है। सत्य सुनने के बाद भी जो लोग अंधकार में जीते हैं, उसे अभ्यास में लाने का कोई विचार नहीं करते, न ही वे परमेश्वर का प्रकटन देख लेने के बावजूद उसे खोजने की ओर उन्मुख होते हैं। इतनी भ्रष्ट मानवजाति को उद्धार का मौका कैसे मिल सकता है? इतनी पतित मानवजाति प्रकाश में कैसे जी सकती है?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है
परमेश्वर के प्रति मनुष्य के विरोध और उसकी विद्रोहशीलता का स्रोत शैतान द्वारा उसकी भ्रष्टता है। शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिए जाने के कारण मनुष्य की अंतरात्मा सुन्न हो गई है, वह अनैतिक हो गया है, उसके विचार पतित हो गए हैं, और उसका मानसिक दृष्टिकोण पिछड़ा हुआ है। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने से पहले मनुष्य स्वाभाविक रूप से परमेश्वर को समर्पित था और उसके वचनों को सुनने के बाद उनके प्रति समर्पण करता था। उसमें स्वाभाविक रूप से सही समझ और विवेक था, और उसमें सामान्य मानवता थी। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद उसकी मूल समझ, विवेक और मानवता मंद पड़ गई और शैतान द्वारा बिगाड़ दी गई। इस प्रकार, उसने परमेश्वर के प्रति अपना समर्पण और प्रेम खो दिया है। मनुष्य की समझ पथभ्रष्ट हो गई है, उसका स्वभाव जानवरों के स्वभाव के समान हो गया है, और परमेश्वर के प्रति उसकी विद्रोहशीलता और भी अधिक बढ़ गई है और गंभीर हो गई है। लेकिन मनुष्य इसे न तो जानता है और न ही पहचानता है, बस आँख मूँदकर विरोध और विद्रोह करता है। मनुष्य का स्वभाव उसकी समझ, अंतर्दृष्टि और अंतःकरण की अभिव्यक्तियों में प्रकट होता है; और चूँकि उसकी समझ और अंतर्दृष्टि सही नहीं हैं, और उसका अंतःकरण अत्यंत मंद पड़ गया है, इसलिए उसका स्वभाव परमेश्वर के प्रति विद्रोही है। यदि मनुष्य की समझ और अंतर्दृष्टि बदल नहीं सकती, तो फिर उसके स्वभाव में परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप बदलाव होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यदि मनुष्य की समझ सही नहीं है, तो वह परमेश्वर की सेवा नहीं कर सकता और वह परमेश्वर द्वारा उपयोग के अयोग्य है। “सामान्य समझ” का अर्थ है परमेश्वर के प्रति समर्पण करना और उसके प्रति निष्ठावान होना, परमेश्वर के लिए तरसना, परमेश्वर के प्रति पूर्ण होना, और परमेश्वर के प्रति विवेकशील होना। यह परमेश्वर के साथ एकचित्त और एकमन होने को दर्शाता है, जानबूझकर परमेश्वर का विरोध करने को नहीं। पथभ्रष्ट समझ का होना ऐसा नहीं है। चूँकि मनुष्य शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया था, इसलिए उसने परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बना ली हैं, और उसमें परमेश्वर के लिए कोई निष्ठा या तड़प नहीं है, परमेश्वर के प्रति विवेकशीलता की तो बात ही छोड़ो। मनुष्य जानबूझकर परमेश्वर का विरोध करता और उस पर दोष लगाता है, और इसके अलावा, यह स्पष्ट रूप से जानते हुए भी कि वह परमेश्वर है, उसकी पीठ पीछे उस पर अपशब्दों की बौछार करता है। मनुष्य स्पष्ट रूप से जानता है कि वह परमेश्वर है, फिर भी उसकी पीठ पीछे उस पर दोष लगाता है; वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का कोई इरादा नहीं रखता, बस परमेश्वर से अंधाधुंध माँग और अनुरोध करता रहता है। ऐसे लोग—वे लोग जिनकी समझ भ्रष्ट होती है—अपने घृणित स्वभाव को जानने या अपनी विद्रोहशीलता पर पछतावा करने में अक्षम होते हैं। यदि लोग अपने आप को जानने में सक्षम होते हैं, तो उन्होंने अपनी समझ को थोड़ा-सा पुनः प्राप्त कर लिया होता है; परमेश्वर के प्रति अधिक विद्रोही लोग, जो अभी तक अपने आप को नहीं जान पाए, वे उतने ही कम समझदार होते हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है
मनुष्य मेरे शत्रुओं के अलावा कुछ नहीं हैं। मनुष्य वे दुष्ट हैं, जो मेरा विरोध और मुझसे विद्रोह करते हैं। मनुष्य मेरे द्वारा शापित उस दुष्ट की संतान के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। मनुष्य उस प्रधान दूत के वंशजों के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं, जिसने मेरे साथ विश्वासघात किया था। मनुष्य उस शैतान की विरासत के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं, जो बहुत पहले ही मेरे द्वारा ठुकरा दिया गया था और जो हमेशा से मेरा कट्टर शत्रु रहा है। चूँकि सारी मानवजाति के ऊपर का आसमान, स्पष्टता की जरा-सी झलक के बिना, मलिन और अंधकारमय है, और मानव-संसार स्याह अँधेरे में इस तरह डूबा हुआ है कि उसमें रहने वाला व्यक्ति अपने चेहरे के सामने लाकर अपने हाथ को या अपना सिर उठाकर सूरज को भी नहीं देख सकता। उसके पैरों के नीचे की कीचड़दार और गड्ढों से भरी सड़क घुमावदार और टेढ़ी-मेढ़ी है; पूरी जमीन पर लाशें बिखरी हुई हैं। अँधेरे कोने मृतकों के अवशेषों से भरे पड़े हैं, जबकि ठंडे और छायादार कोनों में दुष्टात्माओं की भीड़ ने अपना निवास बना लिया है। मनुष्यों के संसार में हर जगह दुष्टात्माएँ जत्थों में आती-जाती हैं। सभी तरह के जंगली जानवरों की गंदगी से ढकी हुई संतानें घमासान युद्ध में उलझी हुई हैं, जिनकी आवाज दिल में दहशत पैदा करती है। ऐसे समय में, इस तरह के संसार में, ऐसे “सांसारिक स्वर्गलोक” में व्यक्ति जीवन के आनंद की खोज करने कहाँ जा सकता है? अपने जीवन की मंजिल खोजने के लिए कोई कहाँ जा सकता है? लंबे समय से शैतान के पैरों के नीचे रौंदी हुई मानवजाति पहले से शैतान की छवि लिए एक अभिनेत्री रही है—इससे भी अधिक, मानवजाति शैतान का मूर्त रूप है, और वह उस साक्ष्य के रूप में काम करती है, जो जोर से और स्पष्ट रूप से शैतान की गवाही देता है। ऐसी मानवजाति, ऐसे अधम लोगों का झुंड, इस भ्रष्ट मानव-परिवार की ऐसी संतान परमेश्वर की गवाही कैसे दे सकती है? मेरी महिमा कहाँ से आती है? व्यक्ति मेरी गवाही के बारे में बोलना कहाँ से शुरू कर सकता है? क्योंकि उस शत्रु ने, जो मानवजाति को भ्रष्ट करके मेरे विरोध में खड़ा है, पहले ही उस मानवजाति को—जिसे मैंने बहुत पहले बनाया था और जो मेरी महिमा और मेरे जीवन से भरी थी—दबोचकर दूषित कर दिया है। उसने मेरी महिमा छीन ली है और मनुष्य में जो चीज भर दी है, वह शैतान की कुरूपता की भारी मिलावट वाला जहर और अच्छे और बुरे के ज्ञान के वृक्ष के फल का रस है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक वास्तविक व्यक्ति होने का क्या अर्थ है
मनुष्य का स्वभाव मेरे सार से काफी भिन्न है, क्योंकि मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति पूरी तरह से शैतान से उत्पन्न होती है और मनुष्य की प्रकृति को शैतान द्वारा संसाधित और भ्रष्ट किया गया है। अर्थात्, मनुष्य इसकी बुराई और कुरूपता के प्रभाव के अधीन जीता है। मनुष्य सत्य के संसार या पवित्र वातावरण में बड़ा नहीं होता है, और प्रकाश में तो बिल्कुल नहीं। इसलिए, जन्म से ही किसी व्यक्ति की प्रकृति के भीतर सत्य सहज रूप से निहित हो, यह संभव नहीं है, और कोई व्यक्ति परमेश्वर का भय मानने और उसके प्रति समर्पण के सार के साथ तो पैदा हो ही नहीं सकता। इसके विपरीत, लोग एक ऐसी प्रकृति से युक्त होते हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध करती है, परमेश्वर से विद्रोह करती है और जिसमें सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं होता। यही प्रकृति वह समस्या है जिसके बारे में मैं बात करना चाहता हूँ—विश्वासघात।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2)
मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के प्रकटीकरण का स्रोत उसका मंद अंतःकरण, उसकी दुर्भावनापूर्ण प्रकृति और उसकी विकृत समझ से अधिक किसी में नहीं है; यदि मनुष्य का अंतःकरण और समझ फिर से सामान्य हो पाएँ, तो फिर वह परमेश्वर के सामने उपयोग करने के योग्य बन जाएगा। यह सिर्फ इसलिए है, क्योंकि मनुष्य का अंतःकरण हमेशा सुन्न रहा है, और मनुष्य की समझ, जो कभी सही नहीं रही, लगातार इतनी मंद होती जा रही है कि मनुष्य परमेश्वर के प्रति अधिक से अधिक विद्रोही होता जा रहा है, इस हद तक कि उसने यीशु को क्रूस पर चढ़ा दिया और अंत के दिनों के देहधारी परमेश्वर को अपने घर में प्रवेश देने से इनकार करता है, और परमेश्वर के देह पर दोष लगाता है, और परमेश्वर के देह को तुच्छ समझता है। यदि मनुष्य में थोड़ी-सी भी मानवता होती, तो वह परमेश्वर द्वारा धारित देह के साथ इतना निर्मम व्यवहार न करता; यदि उसे थोड़ी-सी भी समझ होती, तो वह देहधारी परमेश्वर के देह के साथ अपने व्यवहार में इतना शातिर न होता; यदि उसमें थोड़ा-सा भी विवेक होता, तो वह देहधारी परमेश्वर को इस ढंग से “धन्यवाद” न देता। मनुष्य देहधारी परमेश्वर के युग में जीता है, फिर भी वह इतना अच्छा अवसर दिए जाने के लिए परमेश्वर को धन्यवाद देने में असमर्थ है, और इसके बजाय परमेश्वर के आगमन को कोसता है, या परमेश्वर के देहधारण के तथ्य को पूरी तरह से अनदेखा कर देता है, और प्रकट रूप से उसके विरोध में है और उससे विमुख हो चुका है। मनुष्य परमेश्वर के आगमन को चाहे जैसा समझे, परमेश्वर ने, संक्षेप में, हमेशा धैर्यपूर्वक अपना कार्य जारी रखा है—भले ही मनुष्य ने परमेश्वर के प्रति थोड़ा-सा भी स्वागत करने वाला रुख नहीं अपनाया है, और उससे अंधाधुंध अनुरोध करता रहता है। मनुष्य का स्वभाव अत्यंत शातिर बन गया है, उसकी समझ अत्यंत मंद हो गई है, और उसका अंतःकरण उस दुष्ट द्वारा पूरी तरह से रौंद दिया गया है और वह बहुत पहले से मनुष्य का मौलिक अंतःकरण नहीं रहा है। मानवजाति को बहुत अधिक जीवन और अनुग्रह प्रदान करने के लिए मनुष्य देहधारी परमेश्वर का न केवल एहसानमंद नहीं है, बल्कि परमेश्वर द्वारा उसे सत्य दिए जाने पर वह क्रोधित भी हो गया है; ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य को सत्य में थोड़ी-सी भी रुचि नहीं है, इसीलिए वह परमेश्वर के प्रति क्रोधित हो गया है। मनुष्य देहधारी परमेश्वर के लिए न सिर्फ अपनी जान देने में अक्षम है, बल्कि वह उससे अनुग्रह हासिल करने की कोशिश भी करता है, और ऐसे सूद का दावा करता है जो उससे दर्जनों गुना ज्यादा है जो मनुष्य ने परमेश्वर को दिया है। ऐसे विवेक और समझ वाले लोगों को यह कोई बड़ी बात नहीं लगती, और वे अब भी यह मानते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के लिए स्वयं को बहुत खपाया है, और परमेश्वर ने उन्हें बहुत थोड़ा दिया है। कुछ लोग ऐसे हैं, जो मुझे एक कटोरा पानी देने के बाद अपने हाथ पसारकर माँग करते हैं कि मैं उन्हें दो कटोरे दूध की कीमत चुकाऊँ, या मुझे एक रात के लिए कमरा देने के बाद मुझसे कई रातों के किराए की माँग करते हैं। ऐसी मानवता और ऐसे विवेक के साथ तुम अब भी जीवन पाने की कामना कैसे कर सकते हो? तुम कितने घृणित अभागे हो! इंसान की ऐसी मानवता और विवेक के कारण ही देहधारी परमेश्वर पूरी धरती पर भटकता फिरता है और किसी भी स्थान पर आश्रय नहीं पाता। जिनमें सचमुच विवेक और मानवता है, उन्हें देहधारी परमेश्वर की आराधना और सच्चे दिल से सेवा इसलिए नहीं करनी चाहिए कि उसने बहुत कार्य किया है, बल्कि तब भी करनी चाहिए अगर उसने कुछ भी कार्य न किया होता। सही समझ वाले लोगों को यही करना चाहिए, यही मनुष्य का कर्तव्य है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है
यदि तुम परमेश्वर के मापन और परिसीमन के लिए अपनी धारणाओं का उपयोग करते हो, मानो परमेश्वर कोई मिट्टी की अचल मूर्ति हो, और अगर तुम लोग परमेश्वर को बाइबल के मापदंडों के भीतर सीमांकित करते हो और उसे कार्य के एक सीमित दायरे में समाविष्ट करते हो, तो इससे यह प्रमाणित होता है कि तुम लोगों ने परमेश्वर की निंदा की है। चूँकि पुराने विधान के युग के यहूदियों ने परमेश्वर को एक अचल प्रतिमा के रूप में लिया था, जिसे वे अपने हृदयों में रखते थे, मानो परमेश्वर को मात्र मसीह ही कहा जा सकता था, और मात्र वही, जिसे मसीह कहा जाता था, परमेश्वर हो सकता हो, और चूँकि मानवजाति परमेश्वर की सेवा और आराधना इस तरह से करती थी, मानो वह मिट्टी की एक (निर्जीव) मूर्ति हो, इसलिए उन्होंने उस समय के यीशु को मौत की सजा देते हुए सलीब पर चढ़ा दिया—निर्दोष यीशु को इस तरह मौत की सजा दे दी गई। परमेश्वर ने कोई अपराध नहीं किया था, फिर भी मनुष्य ने उसे छोड़ने से इनकार कर दिया, और उसे मृत्युदंड देने पर जोर दिया, और इसलिए यीशु को सलीब पर चढ़ा दिया गया। मनुष्य सदैव विश्वास करता है कि परमेश्वर स्थिर है, और वह उसे एक अकेली पुस्तक बाइबल के आधार पर परिभाषित करता है, मानो मनुष्य को परमेश्वर के प्रबंधन की पूर्ण समझ हो, मानो मनुष्य वह सब अपनी हथेली पर रखता हो, जो परमेश्वर करता है। लोग बेहद बेतुके, बेहद अहंकारी और स्वभाव से बड़बोले हैं। परमेश्वर के बारे में तुम्हारा ज्ञान कितना भी महान क्यों न हो, मैं फिर भी यही कहता हूँ कि तुम परमेश्वर को नहीं जानते, कि तुम वह व्यक्ति हो जो परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करता है, और कि तुमने परमेश्वर की निंदा की है, कि तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करने और परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर चलने में सर्वथा अक्षम हो। क्यों परमेश्वर मनुष्य के कार्यकलापों से कभी संतुष्ट नहीं होता? क्योंकि मनुष्य परमेश्वर को नहीं जानता, क्योंकि उसकी अनेक धारणाएँ है, क्योंकि उसका परमेश्वर का ज्ञान वास्तविकता से किसी भी तरह मेल नहीं खाता, इसके बजाय वह नीरस ढंग से एक ही विषय को बिना बदलाव के दोहराता रहता है और हर स्थिति के लिए एक ही दृष्टिकोण इस्तेमाल करता है। और इसलिए, आज पृथ्वी पर आने पर, परमेश्वर को एक बार फिर मनुष्य द्वारा सलीब पर चढ़ा दिया गया है। क्रूर मानवजाति! साँठ-गाँठ और साज़िश, एक-दूसरे से छीनना और हथियाना, प्रसिद्धि और संपत्ति के लिए हाथापाई, आपसी कत्लेआम—यह सब कब समाप्त होगा? परमेश्वर द्वारा बोले गए लाखों वचनों के बावजूद किसी को भी होश नहीं आया है। लोग अपने परिवार और बेटे-बेटियों के वास्ते, आजीविका, भावी संभावनाओं, हैसियत, महत्वाकांक्षा और पैसों के लिए, भोजन, कपड़ों और देह-सुख के वास्ते कार्य करते हैं। पर क्या कोई ऐसा है, जिसके कार्य वास्तव में परमेश्वर के वास्ते हैं? यहाँ तक कि जो परमेश्वर के लिए कार्य करते हैं, उनमें से भी बहुत थोड़े ही हैं, जो परमेश्वर को जानते हैं। कितने लोग अपने स्वयं के हितों के लिए काम नहीं करते? कितने लोग अपनी हैसियत बचाए रखने के लिए दूसरों पर अत्याचार या उनका बहिष्कार नहीं करते? और इसलिए, परमेश्वर को असंख्य बार बलात् मृत्युदंड दिया गया है, और अनगिनत बर्बर न्यायाधीशों ने परमेश्वर की निंदा की है और एक बार फिर उसे सलीब पर चढ़ाया है। कितने लोगों को इसलिए धर्मी कहा जा सकता है, क्योंकि वे वास्तव में परमेश्वर के लिए कार्य करते हैं?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बुरे लोगों को निश्चित ही दंड दिया जाएगा
तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम लोग परमेश्वर के कार्य का विरोध इसलिए करते हो, या आज के कार्य को मापने के लिए अपनी ही धारणाओं का इसलिए उपयोग करते हो, क्योंकि तुम लोग परमेश्वर के कार्य के सिद्धांतों को नहीं जानते हो, और क्योंकि तुम पवित्र आत्मा के कार्य के प्रति लापरवाही बरतते हो। तुम लोगों का परमेश्वर के प्रति विरोध और पवित्र आत्मा के कार्य में अवरोध तुम लोगों की धारणाओं और तुम लोगों के अंतर्निहित अहंकार के कारण है। ऐसा इसलिए नहीं है कि परमेश्वर का कार्य गलत है, बल्कि इसलिए है कि तुम लोग स्वाभाविक रूप से अत्यंत विद्रोही हो। परमेश्वर में विश्वास हो जाने के बाद भी, कुछ लोग यकीन से यह भी नहीं कह सकते हैं कि मनुष्य कहाँ से आया, फिर भी वे पवित्र आत्मा के कार्यों के सही और गलत होने के बारे में बताते हुए सार्वजनिक भाषण देने का साहस करते हैं। यहाँ तक कि वे उन प्रेरितों को भी व्याख्यान देते हैं जिनके पास पवित्र आत्मा का नया कार्य है, उन पर टिप्पणी करते हैं और बेमतलब बोलते रहते हैं; उनकी मानवता बहुत ही निम्न है, और उनमें बिल्कुल भी समझ नहीं होती है। क्या वह दिन नहीं आएगा जब इस प्रकार के लोग पवित्र आत्मा के कार्य के द्वारा तिरस्कृत कर दिए जाएँगे, और नरक की आग द्वारा भस्म कर दिए जाएँगे? वे परमेश्वर के कार्यों को नहीं जानते हैं, फिर भी उसके कार्य की आलोचना करते हैं और परमेश्वर को यह निर्देश देने की कोशिश करते हैं कि कार्य किस प्रकार किया जाए। इस प्रकार के अविवेकी लोग परमेश्वर को कैसे जान सकते हैं? मनुष्य खोजने और अनुभव करने की प्रक्रिया के दौरान ही परमेश्वर को जान पाता है; न कि अपनी सनक में उसकी आलोचना करने के द्वारा मनुष्य पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता के माध्यम से परमेश्वर को जान पाया है। परमेश्वर के बारे में लोगों का ज्ञान जितना अधिक सही होता जाता है, उतना ही कम वे उसका विरोध करते हैं। इसके विपरीत, लोग परमेश्वर के बारे में जितना कम जानते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का विरोध करने की संभावना रहती है। तुम लोगों की धारणाएँ, तुम्हारी पुरानी प्रकृति, और तुम्हारी मानवता, चरित्र और नैतिक दृष्टिकोण वह पूँजी है जिससे तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो, और जितना अधिक तुम्हारी नैतिकता जितनी भ्रष्ट होगी, तुम्हारे गुण जितने तुच्छ और तुम्हारी मानवता जितनी निम्न होगी, उतना ही अधिक तुम परमेश्वर के शत्रु बन जाते हो। जो लोग प्रबल धारणाएँ रखते हैं और आत्मतुष्ट स्वभाव के होते हैं, वे देहधारी परमेश्वर के प्रति और भी अधिक शत्रुतापूर्ण होते हैं; इस प्रकार के लोग मसीह-विरोधी हैं। यदि तुम्हारी धारणाओं में सुधार न किया जाए, तो वे सदैव परमेश्वर की विरोधी रहेंगी; तुम कभी भी परमेश्वर के अनुकूल नहीं होगे, और सदैव उससे दूर रहोगे।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना ही परमेश्वर को जानने का मार्ग है
जो लोग परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को नहीं समझते, वे परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होते हैं, और जो लोग परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य से अवगत होते हैं फिर भी परमेश्वर को संतुष्ट करने का प्रयास नहीं करते, वे तो परमेश्वर के और भी बड़े विरोधी होते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो बड़ी-बड़ी कलीसियाओं में दिन-भर बाइबल पढ़ते और याद करके सुनाते रहते हैं, फिर भी उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को समझता हो। उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो परमेश्वर को जान पाता हो; उनमें से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप तो एक भी नहीं होता। वे सबके सब निकम्मे और अधम लोग हैं, जिनमें से प्रत्येक परमेश्वर को सिखाने के लिए ऊँचे पायदान पर खड़ा रहता है। वे लोग परमेश्वर के नाम का झंडा उठाकर, जानबूझकर उसका विरोध करते हैं। वे परमेश्वर में विश्वास रखने का दावा करते हैं, फिर भी मनुष्यों का माँस खाते और रक्त पीते हैं। ऐसे सभी मनुष्य शैतान हैं जो मनुष्यों की आत्माओं को निगल जाते हैं, ऐसे मुख्य राक्षस हैं जो जानबूझकर उन्हें परेशान करते हैं जो सही मार्ग पर कदम बढ़ाने का प्रयास करते हैं और ऐसी बाधाएँ हैं जो परमेश्वर को खोजने वालों के मार्ग में रुकावट पैदा करते हैं। वे “मज़बूत देह” वाले दिख सकते हैं, किंतु उसके अनुयायियों को कैसे पता चलेगा कि वे मसीह-विरोधी हैं जो लोगों से परमेश्वर का विरोध करवाते हैं? अनुयायी कैसे जानेंगे कि वे जीवित शैतान हैं जो इंसानी आत्माओं को निगलने को तैयार बैठे हैं? जो लोग परमेश्वर के सामने अपने आपको बड़ा मूल्य देते हैं, वे सबसे अधिक अधम लोग हैं, जबकि जो खुद को तुच्छ समझते हैं, वे सबसे अधिक आदरणीय हैं। जो लोग यह सोचते हैं कि वे परमेश्वर के कार्य को जानते हैं, और दूसरों के आगे परमेश्वर के कार्य की धूमधाम से उद्घोषणा करते हैं, जबकि वे सीधे परमेश्वर को देखते हैं—ऐसे लोग बेहद अज्ञानी होते हैं। ऐसे लोगों में परमेश्वर की गवाही नहीं होती, वे अभिमानी और अत्यंत दंभी होते हैं। परमेश्वर का वास्तविक अनुभव और व्यवहारिक ज्ञान होने के बावजूद, जो लोग ये मानते हैं कि उन्हें परमेश्वर का बहुत थोड़ा-सा ज्ञान है, वे परमेश्वर के सबसे प्रिय लोग होते हैं। ऐसे लोग ही सच में गवाह होते हैं और परमेश्वर के द्वारा पूर्ण बनाए जाने के योग्य होते हैं। जो परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते वे परमेश्वर के विरोधी हैं, जो परमेश्वर की इच्छा को समझते तो हैं मगर सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं, वे परमेश्वर के विरोधी हैं; जो परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हैं, फिर भी परमेश्वर के वचनों के सार के विरुद्ध जाते हैं, वे परमेश्वर के विरोधी हैं; जिनमें देहधारी परमेश्वर के प्रति धारणाएँ हैं और जिनका दिमाग विद्रोह में लिप्त रहता है, वे परमेश्वर के विरोधी हैं; जो लोग परमेश्वर की आलोचना करते हैं, वे परमेश्वर के विरोधी हैं; और जो कोई भी परमेश्वर को जानने या उसकी गवाही देने में असमर्थ है, वो परमेश्वर का विरोधी है। इसलिये मेरा तुम लोगों से आग्रह है : यदि तुम लोगों को सचमुच विश्वास है कि तुम इस मार्ग पर चल सकते हो, तो इस मार्ग पर चलते रहो। लेकिन अगर तुम लोग परमेश्वर के विरोध से परहेज नहीं कर सकते, तो इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, बेहतर है कि तुम लोग यह मार्ग छोड़कर चले जाओ। अन्यथा इस बात की संभावना बहुत ज्यादा है कि तुम्हारे साथ बुरा हो जाए, क्योंकि तुम लोगों की प्रकृति बहुत ही भ्रष्ट है। तुम लोगों में लेशमात्र भी निष्ठा, समर्पण, या ऐसा हृदय नहीं है जिसमें धार्मिकता और सत्य की प्यास हो या परमेश्वर के लिए प्रेम हो। ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर के सामने तुम्हारी दशा बेहद खराब है। तुम लोगों को जिन बातों का पालन करना चाहिए उनका पालन नहीं कर पाते, और जो बोलना चाहिए वो तुम बोल नहीं पाते। तुम्हें जिन चीज़ों का अभ्यास करना चाहिए उनका अभ्यास तुम लोग कर नहीं पाए। तुम लोगों को जो कार्य करना चाहिए था, वो तुमने किया नहीं। तुम लोगों में जो निष्ठा, विवेक, समर्पण और संकल्पशक्ति होनी चाहिए, वो तुम लोगों में है नहीं। तुम लोगों ने उस तकलीफ को नहीं झेला है, जो तुम्हें झेलनी चाहिए, तुम लोगों में वह विश्वास नहीं है, जो होना चाहिए। सीधी-सी बात है, तुम लोग सभी गुणों से रहित हो : क्या तुम लोग इस तरह जीते रहने से शर्मिंदा नहीं हो? मैं तुम लोगों को विश्वास दिलाना चाहूँगा, तुम लोगों के लिए अनंत विश्राम में आँखें बंद कर लेना बेहतर होगा और इस तरह तुम परमेश्वर को तुम लोगों की चिंता करने और कष्ट झेलने से मुक्त कर दोगे। तुम लोग परमेश्वर में विश्वास तो करते हो मगर उसकी इच्छा को नहीं जानते; तुम परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते तो हो, मगर इंसान से परमेश्वर की जो अपेक्षाएँ हैं, उसे पूरा करने में असमर्थ हो। तुम लोग परमेश्वर पर विश्वास तो करते हो मगर परमेश्वर को जानते नहीं, तुम लक्ष्यहीन जीवन जीते हो, न कोई मूल्य है और न ही कोई सार्थकता है। तुम लोग इंसान की तरह जीते तो हो मगर तुम लोगों में विवेक, सत्यनिष्ठा या विश्वसनीयता लेशमात्र भी नहीं है—क्या तुम लोग खुद को अब भी इंसान कह सकते हो? तुम लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हो फिर भी उसे धोखा देते हो; और तो और, तुम लोग परमेश्वर का धन हड़प जाते हो और उसके चढ़ावों को खा जाते हो, फिर भी, परमेश्वर की भावनाओं के प्रति न तो तुम्हारे अंदर कोई आदर-भाव है, न ही परमेश्वर के प्रति तुम्हारा जमीर जागता है। तुम लोग परमेश्वर की अत्यंत मामूली अपेक्षाओं को भी पूरा नहीं कर पाते। क्या फिर भी तुम खुद को इंसान कह सकते हो? तुम परमेश्वर का दिया आहार ग्रहण करते हो, उसकी दी हुई ऑक्सीजन में साँस लेते हो, तुम उसके अनुग्रह का आनंद लेते हो, मगर अंत में, तुम लोगों को परमेश्वर का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं होता है। उल्टे, तुम लोग ऐसे निकम्मे बन गए हो जो परमेश्वर का विरोध करते हैं। क्या तुम लोग एक कुत्ते से भी बदतर जंगली जानवर नहीं हो? क्या जानवरों में कोई ऐसा है जो तुम लोगों से भी अधिक द्वेषपूर्ण हो?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर को न जानने वाले सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं
मनुष्य के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह केवल उन्हीं चीजों से प्यार करता है, जिन्हें वह देख या स्पर्श नहीं कर सकता, जो अत्यधिक रहस्यमयी और अद्भुत होती हैं, और जो मनुष्यों द्वारा अकल्पनीय और अप्राप्य हैं। जितनी अधिक अवास्तविक ये वस्तुएँ होती हैं, उतना ही अधिक लोगों द्वारा उनका विश्लेषण किया जाता है, और यहाँ तक कि लोग अन्य सभी से बेपरवाह होकर भी उनकी खोज करते हैं और उन्हें प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। जितना अधिक अवास्तविक ये चीज़ें होती हैं, उतना ही अधिक बारीकी से लोग उनकी जाँच और विश्लेषण करते हैं और, यहाँ तक कि इतनी दूर चले जाते हैं कि उनके बारे में अपने स्वयं के व्यापक विचार बना लेते हैं। इसके विपरीत, चीजें जितनी अधिक वास्तविक होती हैं, लोग उनके प्रति उतने ही अधिक उपेक्षापूर्ण होते हैं; वे केवल उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं और यहाँ तक कि उनके प्रति तिरस्कारपूर्ण भी हो जाते हैं। क्या यही प्रवृत्ति तुम लोगों की उस यथार्थपरक कार्य के प्रति नहीं है, जो मैं आज करता हूँ? ये चीज़ें जितनी अधिक वास्तविक होती हैं, उतना ही अधिक तुम लोग उनके विरुद्ध पूर्वाग्रही हो जाते हो। तुम उनकी जाँच करने के लिए ज़रा भी समय नहीं निकालते, बल्कि केवल उनकी उपेक्षा कर देते हो; तुम लोग इन यथार्थवादी, निम्नस्तरीय अपेक्षाओं को हेय दृष्टि से देखते हो, और यहाँ तक कि इस परमेश्वर के बारे में कई धारणाओं को प्रश्रय देते हो, जो कि सर्वाधिक व्यावहारिक है, और बस उसकी व्यावहारिकता और सामान्यता को स्वीकारने में अक्षम हो। इस तरह, क्या तुम लोग एक अज्ञात विश्वास नहीं रखते? तुम लोगों का अतीत के अज्ञात परमेश्वर में अचल विश्वास है, और आज के व्यावहारिक परमेश्वर में कोई रुचि नहीं है। क्या ऐसा इसलिए नहीं है, क्योंकि कल का परमेश्वर और आज का परमेश्वर दो भिन्न-भिन्न युगों से हैं? क्या ऐसा इसलिए भी नहीं है, क्योंकि कल का परमेश्वर स्वर्ग का उच्च परमेश्वर है, जबकि आज का परमेश्वर धरती पर एक छोटा-सा मनुष्य है? इसके अलावा, क्या ऐसा इसलिए नहीं है, क्योंकि मनुष्यों द्वारा आराधना किया जाने वाला परमेश्वर उनकी अपनी धारणाओं से उत्पन्न हुआ है, जबकि आज का परमेश्वर धरती पर उत्पन्न, मूर्त देह है? हर चीज पर विचार करने के बाद, क्या ऐसा इसलिए नहीं है, क्योंकि आज का परमेश्वर इतना अधिक वास्तविक है कि मनुष्य उसकी खोज नहीं करता? क्योंकि आज का परमेश्वर लोगों से जो कहता है, वह ठीक वही है, जिसे करने के लिए लोग सबसे अधिक अनिच्छुक हैं, और जो उन्हें लज्जित महसूस करवाता है। क्या यह लोगों के लिए चीज़ों को कठिन बनाना नहीं है? क्या यह उसके दागों को उघाड़ नहीं देता? इस प्रकार, बहुत से लोग वास्तविक परमेश्वर, व्यावहारिक परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते, और इसलिए वे देहधारी परमेश्वर के शत्रु बन जाते हैं, अर्थात मसीह-विरोधी बन जाते हैं। क्या यह एक स्पष्ट तथ्य नहीं है? अतीत में, जब परमेश्वर का अभी देह बनना बाकी था, तो तुम कोई धार्मिक हस्ती या कोई धर्मनिष्ठ विश्वासी रहे होगे। परमेश्वर के देह बनने के बाद ऐसे कई धर्मनिष्ठ विश्वासी अनजाने में मसीह-विरोधी बन गए। क्या तुम जानते हो, यहाँ क्या चल रहा है? परमेश्वर पर अपने विश्वास में तुम वास्तविकता पर ध्यान केंद्रित नहीं करते या सत्य की खोज नहीं करते, बल्कि इसके बजाय तुम झूठ से ग्रस्त हो जाते हो—क्या यह देहधारी परमेश्वर के प्रति तुम्हारी शत्रुता का स्पष्टतम स्रोत नहीं है?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो परमेश्वर को और उसके कार्य को जानते हैं, केवल वे ही परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं
मनुष्य परमेश्वर का अनुसरण करने का इच्छुक नहीं है, अपनी संपत्ति परमेश्वर के लिए खर्च करने का इच्छुक नहीं है, और परमेश्वर के लिए जीवन-भर का प्रयास समर्पित करने के लिए तैयार नहीं है; इसके बजाय वह कहता है कि परमेश्वर बहुत दूर चला गया है, कि परमेश्वर के बारे में बहुत-कुछ मनुष्य की धारणाओं से मेल नहीं खाता। ऐसी मानवता के साथ पूर्ण प्रयास करने के बावजूद तुम लोग परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं कर पाओगे, खास तौर से इस तथ्य को देखते हुए कि तुम परमेश्वर को नहीं खोजते। क्या तुम लोग नहीं जानते कि तुम लोग मानवजाति की दोषपूर्ण वस्तुएँ हो? क्या तुम नहीं जानते कि तुम लोगों की मानवता से ज्यादा नीच और कोई मानवता नहीं है? क्या तुम लोग नहीं जानते कि तुम लोगों का सम्मान करने के लिए दूसरे तुम्हें क्या कहकर बुलाते हैं? जो लोग सच में परमेश्वर से प्रेम करते हैं, वे तुम लोगों को भेड़िये का पिता, भेड़िये की माता, भेड़िये का पुत्र, और भेड़िये का पोता कहते हैं; तुम लोग भेड़िये के वंशज हो, भेड़िये के लोग हो, और तुम लोगों को अपनी पहचान जाननी चाहिए और उसे कभी नहीं भूलना चाहिए। यह मत सोचो कि तुम कोई श्रेष्ठ हस्ती हो : तुम लोग मानवजाति के बीच अमानुषों का सबसे शातिर समूह हो। क्या तुम लोग इसमें से कुछ नहीं जानते? क्या तुम लोगों को पता है कि तुम लोगों के बीच कार्य करके मैंने कितना जोखिम उठाया है? यदि तुम लोगों की समझ दोबारा सामान्य नहीं हो सकती, और तुम लोगों का विवेक सामान्य रूप से कार्य नहीं कर सकता, तो फिर तुम लोग कभी “भेड़िये” का नाम नहीं छोड़ पाओगे, तुम कभी शाप के दिन से नहीं बच पाओगे, कभी अपनी सजा के दिन से नहीं बच पाओगे। तुम लोग हीन जन्मे थे, एक मूल्यरहित वस्तु। तुम प्रकृति से भूखे भेड़ियों का झुंड, मलबे और कचरे का ढेर हो, और, तुम लोगों के विपरीत, मैं अनुग्रह पाने के लिए तुम लोगों पर कार्य नहीं करता, बल्कि कार्य की आवश्यकता के कारण करता हूँ। यदि तुम लोग इसी तरह विद्रोही बने रहे, तो मैं अपना कार्य रोक दूँगा, दोबारा कभी तुम लोगों पर कार्य नहीं करूँगा; इसके विपरीत, मैं अपना कार्य दूसरे समूह पर स्थानांतरित कर दूँगा, जो मुझे प्रसन्न करता है, और इस तरह मैं तुम लोगों को हमेशा के लिए छोड़ दूँगा, क्योंकि मैं उन लोगों को देखने के लिए तैयार नहीं हूँ, जो मुझसे शत्रुता रखते हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है
तुम लोगों का विश्वास बहुत सुंदर है; तुम्हारा कहना है कि तुम अपना सारा जीवन-काल मेरे कार्य के लिए खपाने को तैयार हो, और तुम इसके लिए अपने प्राणों का बलिदान करने को तैयार हो, लेकिन तुम्हारे स्वभाव में अधिक बदलाव नहीं आया है। तुम लोग बस हेकड़ी से बोलते हो, बावजूद इस तथ्य के कि तुम्हारा वास्तविक व्यवहार बहुत घिनौना है। यह ऐसा है जैसे कि लोगों की जीभ और होंठ तो स्वर्ग में हों, लेकिन उनके पैर बहुत नीचे पृथ्वी पर हों, परिणामस्वरूप उनके वचन और कर्म तथा उनकी प्रतिष्ठा अभी भी चिथड़ा-चिथड़ा और विध्वस्त हैं। तुम लोगों की प्रतिष्ठा नष्ट हो गई है, तुम्हारा ढंग खराब है, तुम्हारे बोलने का तरीका निम्न कोटि का है, तुम्हारा जीवन घृणित है; यहाँ तक कि तुम्हारी सारी मनुष्यता डूबकर नीच अधमता में पहुँच गई है। तुम दूसरों के प्रति संकीर्ण सोच रखते हो और छोटी-छोटी बात पर बखेड़ा करते हो। तुम अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत को लेकर इस हद तक झगड़ते हो कि नरक और आग की झील में उतरने तक को तैयार रहते हो। तुम लोगों के वर्तमान वचन और कर्म मेरे लिए यह तय करने के लिए काफी हैं कि तुम लोग पापी हो। मेरे कार्य के प्रति तुम लोगों का रवैया मेरे लिए यह तय करने के लिए काफी है कि तुम लोग अधर्मी हो, और तुम लोगों के समस्त स्वभाव यह इंगित करने के लिए पर्याप्त हैं कि तुम लोग घृणित आत्माएँ हो, जो गंदगी से भरी हैं। तुम लोगों की अभिव्यक्तियाँ और जो कुछ भी तुम प्रकट करते हो, वह यह कहने के लिए पर्याप्त हैं कि तुम वे लोग हो, जिन्होंने अशुद्ध आत्माओं का पेट भरकर रक्त पी लिया है। जब राज्य में प्रवेश करने का जिक्र होता है, तो तुम लोग अपनी भावनाएँ जाहिर नहीं करते। क्या तुम लोग मानते हो कि तुम्हारा मौजूदा ढंग तुम्हें मेरे स्वर्ग के राज्य के द्वार में प्रवेश कराने के लिए पर्याप्त है? क्या तुम लोग मानते हो कि तुम मेरे कार्य और वचनों की पवित्र भूमि में प्रवेश पा सकते हो, इससे पहले कि मैं तुम लोगों के वचनों और कर्मों का परीक्षण करूँ? कौन है, जो मेरी आँखों में धूल झोंक सकता है? तुम लोगों का घृणित, नीच व्यवहार और बातचीत मेरी दृष्टि से कैसे छिपे रह सकते हैं? तुम लोगों के जीवन मेरे द्वारा उन अशुद्ध आत्माओं का रक्त और मांस पीने और खाने वालों के जीवन के रूप में तय किए गए हैं, क्योंकि तुम लोग रोज़ाना मेरे सामने उनका अनुकरण करते हो। मेरे सामने तुम्हारा व्यवहार विशेष रूप से ख़राब रहा है, तो मैं तुम्हें घृणित कैसे न समझता? तुम्हारे शब्दों में अशुद्ध आत्माओं की अपवित्रताएँ है : तुम फुसलाते हो, भेद छिपाते हो चापलूसी करते हो, ठीक उन लोगों की तरह जो टोने-टोटकों में संलग्न रहते हैं और उनकी तरह भी जो कपट करते हैं और अधर्मियों का खून पीते हैं। मनुष्य के समस्त भाव बेहद अधार्मिक हैं, तो फिर सभी लोगों को पवित्र भूमि में कैसे रखा जा सकता है, जहाँ धर्मी रहते हैं? क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारा यह घिनौना व्यवहार तुम्हें उन अधर्मी लोगों की तुलना में पवित्र होने की पहचान दिला सकता है? तुम्हारी साँप जैसी जीभ अंततः तुम्हारी इस देह का नाश कर देगी, जो तबाही बरपाती है और घृणा ढोती है, और तुम्हारे वे हाथ भी, जो अशुद्ध आत्माओं के रक्त से सने हैं, अंततः तुम्हारी आत्मा को नरक में खींच लेंगे। तो फिर तुम मैल से सने अपने हाथों को साफ़ करने का यह मौका क्यों नहीं लपकते? और तुम अधर्मी शब्द बोलने वाली अपनी इस जीभ को काटकर फेंकने के लिए इस अवसर का लाभ क्यों नहीं उठाते? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम अपने हाथों, जीभ और होंठों के लिए नरक की आग में जलने के लिए तैयार हो? मैं अपनी दोनों आँखों से हरेक व्यक्ति के दिल पर नज़र रखता हूँ, क्योंकि मानव-जाति के निर्माण से बहुत पहले मैंने उनके दिलों को अपने हाथों में पकड़ा था। मैंने बहुत पहले लोगों के दिलों के भीतर झाँककर देख लिया था, इसलिए उनके विचार मेरी दृष्टि से कैसे बच सकते थे? मेरे आत्मा द्वारा जलाए जाने से बचने में उन्हें ज्यादा देर कैसे नहीं हो सकती थी?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम सभी कितने नीच चरित्र के हो!
तुम्हारे होंठ कबूतरों से अधिक दयालु हैं, लेकिन तुम्हारा दिल पुराने साँप से ज्यादा भयानक है। तुम्हारे होंठ लेबनानी महिलाओं जितने सुंदर हैं, लेकिन तुम्हारा दिल उनकी तरह दयालु नहीं है, और कनानी लोगों की सुंदरता से तुलना तो वह निश्चित रूप से नहीं कर सकता। तुम्हारा दिल बहुत कपटी है! जिन चीज़ों से मुझे घृणा है, वे केवल अधर्मी के होंठ और उनके दिल हैं, और लोगों से मेरी अपेक्षाएँ, संतों से मेरी अपेक्षा से जरा भी अधिक नहीं हैं; बात बस इतनी है कि मुझे अधर्मियों के बुरे कर्मों से घृणा महसूस होती है, और मुझे उम्मीद है कि वे अपनी मलिनता दूर कर पाएँगे और अपनी मौजूदा दुर्दशा से बच सकेंगे, ताकि वे उन अधर्मी लोगों से अलग खड़े हो सकें और उन लोगों के साथ रह सकें और पवित्र हो सकें, जो धर्मी हैं। तुम लोग उन्हीं परिस्थितियों में हो जिनमें मैं हूँ, लेकिन तुम लोग मैल से ढके हो; तुम्हारे पास उन मनुष्यों की मूल समानता का छोटे से छोटा अंश भी नहीं है, जिन्हें शुरुआत में बनाया गया था। इतना ही नहीं, चूँकि तुम लोग रोज़ाना उन अशुद्ध आत्माओं की नकल करते हो, और वही करते हो जो वे करती हैं और वही कहते हो जो वे कहती हैं, इसलिए तुम लोगों के समस्त अंग—यहाँ तक कि तुम लोगों की जीभ और होंठ भी—उनके गंदे पानी से इस क़दर भीगे हुए हैं कि तुम लोग पूरी तरह से दाग़ों से ढँके हुए हो, और तुम्हारा एक भी अंग ऐसा नहीं है जिसका उपयोग मेरे कार्य के लिए किया जा सके। यह बहुत हृदय-विदारक है! तुम लोग घोड़ों और मवेशियों की ऐसी दुनिया में रहते हो, और फिर भी तुम लोगों को वास्तव में परेशानी नहीं होती; तुम लोग आनंद से भरे हुए हो और आज़ादी तथा आसानी से जीते हो। तुम लोग उस गंदे पानी में तैर रहे हो, फिर भी तुम्हें वास्तव में इस बात का एहसास नहीं है कि तुम इस तरह की दुर्दशा में गिर चुके हो। हर दिन तुम अशुद्ध आत्माओं के साहचर्य में रहते हो और “मल-मूत्र” के साथ व्यवहार करते हो। तुम्हारा जीवन बहुत भद्दा है, फिर भी तुम इस बात से अवगत नहीं हो कि तुम बिल्कुल भी मनुष्यों की दुनिया में नहीं रहते और तुम अपने नियंत्रण में नहीं हो। क्या तुम नहीं जानते कि तुम्हारा जीवन बहुत पहले ही अशुद्ध आत्माओं द्वारा रौंद दिया गया था, या कि तुम्हारा चरित्र बहुत पहले ही गंदे पानी से मैला कर दिया गया था? क्या तुम्हें लगता है कि तुम एक सांसारिक स्वर्ग में रह रहे हो, और तुम खुशियों के बीच में हो? क्या तुम नहीं जानते कि तुमने अपना जीवन अशुद्ध आत्माओं के साथ बिताया है, और तुम हर उस चीज़ के साथ सह-अस्तित्व में रहे हो जो उन्होंने तुम्हारे लिए तैयार की है? तुम्हारे जीने के ढंग का कोई अर्थ कैसे हो सकता है? तुम्हारे जीवन का कोई मूल्य कैसे हो सकता है? तुम अपने माता-पिता के लिए, अशुद्ध आत्माओं के माता-पिता के लिए, दौड़-भाग करते रहे हो, फिर भी तुम्हें वास्तव में इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि तुम्हें फँसाने वाले वे अशुद्ध आत्माओं के माता-पिता हैं, जिन्होंने तुम्हें जन्म दिया और पाल-पोसकर बड़ा किया। इसके अलावा, तुम नहीं जानते कि तुम्हारी सारी गंदगी वास्तव में उन्होंने ही तुम्हें दी है; तुम बस यही जानते हो कि वे तुम्हें “आनंद” दे सकते हैं, वे तुम्हें ताड़ना नहीं देते, न ही वे तुम्हारी आलोचना करते हैं, और विशेष रूप से वे तुम्हें शाप नहीं देते। वे कभी तुम पर गुस्से से भड़के नहीं, बल्कि तुम्हारे साथ स्नेह और दया का व्यवहार करते हैं। उनके शब्द तुम्हारे दिल को पोषण देते हैं और तुम्हें लुभाते हैं, ताकि तुम गुमराह हो जाओ, और बिना एहसास किए, तुम फँसालिए जाते हो और उनकी सेवा करने के इच्छुक हो जाते हो, उनके निकास और नौकर बन जाते हो। तुम्हें कोई शिकायत नहीं होती है, बल्कि तुम उनके लिए कुत्तों और घोड़ों की तरह कार्य करने के लिए तैयार रहते हो; वे तुम्हें गुमराह करते हैं। यही कारण है कि मेरे कार्य के प्रति तुम्हारी कोई प्रतिक्रिया नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं कि तुम हमेशा मेरे हाथों से चुपके से निकल जाना चाहते हो, और कोई आश्चर्य नहीं कि तुम हमेशा मीठे शब्दों का प्रयोग करके छल से मेरी सहायता चाहते हो। इससे पता चलता है कि तुम्हारे पास पहले से एक दूसरी योजना थी, एक दूसरी व्यवस्था थी। तुम मेरे कुछ कार्यों को सर्वशक्तिमान के कार्य के रूप में देख सकते हो, पर तुम्हें मेरे न्याय और ताड़ना की जरा-सी भी जानकारी नहीं है। तुम्हें कोई अंदाज़ा नहीं है कि मेरी ताड़ना कब शुरू हुई; तुम केवल मुझे धोखा देना जानते हो—लेकिन तुम यह नहीं जानते कि मैं मनुष्य का कोई उल्लंघन बरदाश्त नहीं करूँगा। चूँकि तुम पहले ही मेरी सेवा करने का संकल्प ले चुके हो, इसलिए मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा। मैं ईर्ष्यालु परमेश्वर हूँ, और मैं वह परमेश्वर हूँ, जो मनुष्य के प्रति ईर्ष्या रखता है। चूँकि तुमने पहले ही अपने शब्दों को वेदी पर रख दिया है, इसलिए मैं यह बरदाश्त नहीं करूँगा कि तुम मेरी ही आँखों के सामने से भाग जाओ, न ही मैं यह बरदाश्त करूँगा कि तुम दो स्वामियों की सेवा करो। क्या तुम्हें लगता है कि मेरी वेदी पर और मेरी आँखों के सामने अपने शब्दों को रखने के बाद तुम किसी दूसरे से प्रेम कर सकते हो? मैं लोगों को इस तरह से मुझे मूर्ख कैसे बनाने दे सकता हूँ? क्या तुम्हें लगता था कि तुम अपनी जीभ से यूँ ही मेरे लिए प्रतिज्ञा और शपथ ले सकते हो? तुम मेरे सिंहासन की शपथ कैसे ले सकते हो, मेरा सिंहासन, मैं जो सबसे ऊँचा हूँ? क्या तुम्हें लगा कि तुम्हारी शपथ पहले ही खत्म हो चुकी है? मैं तुम लोगों को बता दूँ : तुम्हारी देह भले ही खत्म हो जाए, पर तुम्हारी शपथ खत्म नहीं हो सकती। अंत में, मैं तुम लोगों की शपथ के आधार पर तुम्हें दंड दूंगा। हालाँकि तुम लोगों को लगता है कि अपने शब्द मेरे सामने रखकर लापरवाही से मेरा सामना कर लोगे, और तुम लोगों के दिल अशुद्ध और बुरी आत्माओं की सेवा कर सकते हैं। मेरा क्रोध उन कुत्ते और सुअर जैसे लोगों को कैसे सहन कर सकता है, जो मुझे धोखा देते हैं? मुझे अपने प्रशासनिक आदेश कार्यान्वित करने होंगे, और अशुद्ध आत्माओं के हाथों से उन सभी पाखंडी, “पवित्र” लोगों को वापस खींचना होगा जिनका मुझमें विश्वास है, ताकि वे एक अनुशासित प्रकार से मेरे लिए “सेवारत” हो सकें, मेरे बैल बन सकें, मेरे घोड़े बन सकें, मेरे संहार की दया पर रह सकें। मैं तुमसे तुम्हारा पिछला संकल्प फिर से उठवाऊँगा और एक बार फिर से अपनी सेवा करवाऊँगा। मैं ऐसे किसी भी सृजित प्राणी को बरदाश्त नहीं करूँगा, जो मुझे धोखा दे। तुम्हें क्या लगा कि तुम बस बेहूदगी से अनुरोध कर सकते हो और मेरे सामने झूठ बोल सकते हो? क्या तुम्हें लगा कि मैंने तुम्हारे वचन और कर्म सुने या देखे नहीं? तुम्हारे वचन और कर्म मेरी दृष्टि में कैसे नहीं आ सकते? मैं लोगों को इस तरह अपने को धोखा कैसे देने दे सकता हूँ?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम सभी कितने नीच चरित्र के हो!
जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। वह प्रकृति विशिष्ट रूप से किस चीज को अपरिहार्य बनाती है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, “लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?” तो लोग जवाब देंगे, “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।” यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये”—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है। शैतान का हर काम अपनी भूख, महत्वाकांक्षाओं और उद्देश्यों के लिए होता है। वह परमेश्वर से आगे जाना चाहता है, परमेश्वर से मुक्त होना चाहता है, और परमेश्वर द्वारा रची गई सभी चीजों पर नियंत्रण पाना चाहता है। आज लोग शैतान द्वारा इस हद तक भ्रष्ट कर दिए गए हैं : उन सभी की प्रकृति शैतानी है, वे सभी परमेश्वर को नकारने और उसका विरोध करने की कोशिश करते हैं, और वे अपने भाग्य पर अपना नियंत्रण चाहते हैं और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं का विरोध करने की कोशिश करते हैं। उनकी महत्वाकांक्षाएँ और भूख बिल्कुल शैतान की महत्वाकांक्षाओं और भूख जैसी हैं। इसलिए, मनुष्यों की प्रकृति शैतान की प्रकृति है। वास्तव में, बहुत से लोगों के नीति-वाक्य और सूक्तियाँ मानव प्रकृति को दर्शाती और इंसानी भ्रष्टता के सार को प्रतिबिंबित करती हैं। लोग जो कुछ भी चुनते हैं, वह उनकी अपनी पसंद होती है और वह लोगों के स्वभाव और लक्ष्य का प्रतिनिधित्व करता है। इंसान जो कुछ कहता और करता है, वह कितना भी छिपा हुआ क्यों न हो, वह उसकी प्रकृति नहीं छिपा सकता। जैसे, फरीसी आमतौर पर बहुत अच्छा उपदेश देते थे, लेकिन जब उन्होंने यीशु द्वारा व्यक्त उपदेश और सत्य सुने, तो उन्हें स्वीकारने के बजाय उनकी निंदा करने लगे। इसने फरीसियों की सत्य से ऊबने और घृणा करने वाली प्रकृति और सार को उजागर कर दिया। कुछ लोग बहुत अच्छा बोलते हैं और खुद को बहुत अच्छे से छिपा लेते हैं, लेकिन जब अन्य लोग कुछ समय के लिए उनसे जुड़ते हैं, तो वे जान जाते हैं कि उस व्यक्ति की प्रकृति बेहद धूर्त और कपटपूर्ण है। लंबे समय तक उनके साथ जुड़ने के बाद, सभी को उनके सार और प्रकृति का पता चल जाता है। अंत में, अन्य लोग यह निष्कर्ष निकालते हैं : वे कभी एक शब्द भी सच नहीं बोलते और वे धोखेबाज हैं। यह कथन उन लोगों की प्रकृति को दर्शाता है और यह उनकी प्रकृति और सार का सर्वोत्तम चित्रण और सबूत है। उनके जीने का फलसफा है किसी को सच न बताना, और साथ ही किसी पर विश्वास न करना। मनुष्य की शैतानी प्रकृति बड़ी मात्रा में शैतानी फलसफों और विषों से युक्त है। कभी-कभी तुम स्वयं ही उनके बारे में अवगत नहीं होते और उन्हें नहीं समझते; फिर भी तुम्हारे जीवन का हर पल इन चीजों पर आधारित है। इसके अलावा तुम्हें लगता है कि ये चीजें बहुत सही और तर्कसम्मत हैं, और बिलकुल भी गलत नहीं हैं। यह, यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि शैतान के फलसफे लोगों की प्रकृति बन गए हैं और वे पूरी तरह से उनके अनुसार जी रहे हैं, इस तरह से जीने को अच्छा मानते हैं और उनमें जरा-सा भी पश्चात्ताप का भाव नहीं होता। इसलिए, वे लगातार अपनी शैतानी प्रकृति प्रकट कर रहे हैं और वे निरंतर शैतानी फलसफे के अनुसार जीवन जी रहे हैं। शैतान की प्रकृति मनुष्य का जीवन है, और वह मनुष्य की प्रकृति और सार है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें
आम तौर पर, इस दुनिया में जन्म लेने वाले एक इंसान के नाते, तुमने कुछ ऐसा किया होगा जिसमें सत्य का उल्लंघन निहित है, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें याद है या नहीं कि तुमने कभी किसी दूसरे को धोखा देने के लिए कुछ किया है, या तुमने पहले कई बार दूसरों को धोखा दिया है। चूँकि तुम अपने माता-पिता या दोस्तों को धोखा देने में सक्षम हो, तो तुम दूसरों के साथ भी विश्वासघात करने में सक्षम हो, और इससे भी बढ़कर तुम मुझे धोखा देने में और उन चीजों को करने में सक्षम हो जो मेरे लिए घृणित हैं। दूसरे शब्दों में, विश्वासघात महज़ एक सतही अनैतिक व्यवहार नहीं है, बल्कि यह कुछ ऐसा है जो सत्य के साथ टकराता है। यह वास्तव में मानव जाति के मेरे प्रति प्रतिरोध और विद्रोह का स्रोत है। यही कारण है कि मैंने निम्नलिखित कथन में इसका सारांश दिया है : विश्वासघात मनुष्य की प्रकृति है, और यह प्रकृति मेरे साथ प्रत्येक व्यक्ति के सामंजस्य की बहुत बड़ी शत्रु है।
ऐसा व्यवहार जो पूरी तरह से मेरे प्रति समर्पण नहीं कर सकता है, विश्वासघात है। ऐसा व्यवहार जो मेरे प्रति निष्ठावान नहीं हो सकता है विश्वासघात है। मेरे साथ धोखा करना और मेरे साथ छल करने के लिए झूठ का उपयोग करना, विश्वासघात है। धारणाओं से भरा होना और हर जगह उन्हें फैलाना विश्वासघात है। मेरी गवाहियों और हितों की रक्षा नहीं कर पाना विश्वासघात है। दिल में मुझसे दूर होते हुए भी झूठमूठ मुस्कुराना विश्वासघात है। ये सभी विश्वासघात के काम हैं जिन्हें करने में तुम लोग हमेशा सक्षम रहे हो, और ये तुम लोगों के बीच आम बात है। तुम लोगों में से शायद कोई भी इसे समस्या न माने, लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचता हूँ। मैं अपने साथ किसी व्यक्ति के विश्वासघात को एक तुच्छ बात नहीं मान सकता हूँ, और निश्चय ही, मैं इसे अनदेखा नहीं कर सकता हूँ। अब, जबकि मैं तुम लोगों के बीच कार्य कर रहा हूँ, तो तुम लोग इस तरह से व्यवहार कर रहे हो—यदि किसी दिन तुम लोगों की निगरानी करने के लिए कोई न हो, तो क्या तुम लोग ऐसे डाकू नहीं बन जाओगे जिन्होंने खुद को अपनी छोटी पहाड़ियों का राजा घोषित कर दिया है? जब ऐसा होगा और तुम विनाश का कारण बनोगे, तब तुम्हारे पीछे उस गंदगी को कौन साफ करेगा? तुम सोचते हो कि विश्वासघात के कुछ कार्य तुम्हारे सतत व्यवहार नहीं, बल्कि मात्र कभी-कभी होने वाली घटनाएँ हैं, और उनकी इतने गंभीर तरीके से चर्चा नहीं होनी चाहिए कि तुम्हारे अहं को ठेस पहुँचे। यदि तुम वास्तव में ऐसा मानते हो, तो तुम में समझ का अभाव है। इस तरीके से सोचना विद्रोह का एक नमूना और विशिष्ट उदाहरण है। मनुष्य की प्रकृति उसका जीवन है; यह एक सिद्धांत है जिस पर वह जीवित रहने के लिए निर्भर करता है और वह इसे बदलने में असमर्थ है। विश्वासघात की प्रकृति का उदाहरण लो। यदि तुम किसी रिश्तेदार या मित्र को धोखा देने के लिए कुछ कर सकते हो, तो यह साबित करता है कि यह तुम्हारे जीवन और तुम्हारी प्रकृति का हिस्सा है जिसके साथ तुम पैदा हुए थे। यह कुछ ऐसा है जिससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (1)
शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई सभी आत्माएँ, शैतान की सत्ता के नियंत्रण में हैं। केवल वे लोग जो मसीह में विश्वास करते हैं, शैतान के शिविर से बचा कर, अलग कर दिए गए हैं, और आज के राज्य में लाए गए हैं। अब ये लोग शैतान के प्रभाव में नहीं रहे हैं। फिर भी, मनुष्य की प्रकृति अभी भी मनुष्य के शरीर में जड़ जमाए हुए है। कहने का अर्थ है कि भले ही तुम लोगों की आत्माएँ बचा ली गई हैं, तुम लोगों की प्रकृति अभी भी पहले जैसी ही है और इस बात की अभी भी सौ प्रतिशत संभावना है कि तुम लोग मेरे साथ विश्वासघात करोगे। यही कारण है कि मेरा कार्य इतने लंबे समय तक चलता है, क्योंकि तुम्हारी प्रकृति दुःसाध्य है। अब तुम अपने कर्तव्य निभाते हुए इतने अधिक कष्ट उठा रहे हो जितने तुम उठा सकते हो, फिर भी तुम लोगों में से प्रत्येक मुझे धोखा देने और शैतान की सत्ता, उसके शिविर में लौटने, और अपने पुराने जीवन में वापस जाने में सक्षम है—यह एक अखंडनीय तथ्य है। उस समय, तुम लोगों के पास लेशमात्र भी मानवता या मनुष्य से समानता दिखाने के लिए नहीं होगी, जैसी तुम अब दिखा रहे हो। गंभीर मामलों में, तुम लोगों को नष्ट कर दिया जाएगा और इससे भी बढ़कर तुम लोगों को, फिर कभी भी देहधारण नहीं करने के लिए, बल्कि गंभीर रूप से दंडित करने के लिए अनंतकाल के लिए अभिशप्त कर दिया जाएगा। यह तुम लोगों के सामने रख दी गई समस्या है। मैं तुम लोगों को इस तरह से याद दिला रहा हूँ ताकि एक तो, मेरा कार्य व्यर्थ नहीं जाएगा, और दूसरे, ताकि तुम सभी लोग प्रकाश के दिनों में रह सको। वास्तव में, मेरा कार्य व्यर्थ होना सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या नहीं है। महत्वपूर्ण है तुम लोगों का एक खुशहाल जीवन और एक अद्भुत भविष्य पाने में सक्षम होना। मेरा कार्य लोगों की आत्माओं को बचाने का कार्य है। यदि तुम्हारी आत्मा शैतान के हाथों में पड़ जाती है, तो तुम्हारा शरीर शांति में नहीं रहेगा। यदि मैं तुम्हारे शरीर की रक्षा कर रहा हूँ, तो तुम्हारी आत्मा भी निश्चित रूप से मेरी देखभाल के अधीन होगी। यदि मैं तुमसे सच में घृणा करूँ, तो तुम्हारा शरीर और आत्मा तुरंत शैतान के हाथों में पड़ जाएँगे। क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि तब तुम्हारी स्थिति किस तरह की होगी? यदि किसी दिन मेरे वचनों का तुम पर कोई असर न हुआ, तो मैं तुम सभी लोगों को तब तक के लिए घोर यातना देने के लिए शैतान को सौंप दूँगा जब तक कि मेरा गुस्सा पूरी तरह से खत्म नहीं हो जाता, अथवा मैं कभी न सुधर सकने योग्य तुम मानवों को व्यक्तिगत रूप से दंडित करूँगा, क्योंकि मेरे साथ विश्वासघात करने वाले तुम लोगों के हृदय कभी नहीं बदलेंगे।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2)
मेरे सामने तुम लोगों के कई वर्षों के व्यवहार ने मुझे बिना दृष्टांत के उत्तर दे दिया, और इस उत्तर का प्रश्न यह है कि : “सत्य और सच्चे परमेश्वर के सामने मनुष्य का रवैया क्या है?” मैंने मनुष्य के लिए जो प्रयास किए हैं, वे मनुष्य के लिए मेरे प्रेम के सार को प्रमाणित करते हैं, और मेरे सामने मनुष्य का हर कार्य सत्य से घृणा करने और मेरा विरोध करने के उसके सार को प्रमाणित करता है। मैं हर समय उन सबके लिए चिंतित रहता हूँ, जो मेरा अनुसरण करते हैं, लेकिन मेरा अनुसरण करने वाले कभी मेरे वचनों को समझने में समर्थ नहीं होते; यहाँ तक कि वे मेरे सुझाव स्वीकार करने में भी सक्षम नहीं हैं। यह बात मुझे सबसे ज़्यादा उदास करती है। कोई भी मुझे कभी भी समझ नहीं पाया है, और इतना ही नहीं, कोई भी मुझे कभी भी स्वीकार नहीं कर पाया है, बावजूद इसके कि मेरा रवैया नेक और मेरे वचन सौम्य हैं। सभी लोग मेरे द्वारा उन्हें सौंपा गया कार्य अपने विचारों के अनुसार करने की कोशिश करते हैं; वे मेरे इरादे को जानने की कोशिश नहीं करते, मेरी अपेक्षाओं के बारे में पूछने की बात तो छोड़ ही दीजिए। वे अभी भी वफादारी के साथ मेरी सेवा करने का दावा करते हैं, जबकि वे मेरे खिलाफ विद्रोह करते हैं। बहुतों का यह मानना है कि जो सत्य उन्हें स्वीकार्य नहीं हैं या जिनका वे अभ्यास नहीं कर पाते, वे सत्य ही नहीं हैं। ऐसे लोगों में सत्य ऐसी चीज़ बन जाते हैं, जिन्हें नकार दिया जाता है और दरकिनार कर दिया जाता है। उसी समय, लोग मुझे वचन में परमेश्वर के रूप में पहचानते हैं, परंतु साथ ही मुझे एक ऐसा बाहरी व्यक्ति मानते हैं, जो सत्य, मार्ग या जीवन नहीं है। कोई इस सत्य को नहीं जानता : मेरे वचन सदा-सर्वदा अपरिवर्तनीय सत्य हैं। मैं मनुष्य के लिए जीवन की आपूर्ति और मानव-जाति के लिए एकमात्र मार्गदर्शक हूँ। मेरे वचनों का मूल्य और अर्थ इससे निर्धारित नहीं होता कि उन्हें मानव-जाति द्वारा पहचाना या स्वीकारा जाता है या नहीं, बल्कि स्वयं वचनों के सार द्वारा निर्धारित होता है। भले ही इस पृथ्वी पर एक भी व्यक्ति मेरे वचनों को समझ न पाए, मेरे वचनों का मूल्य और मानव-जाति के लिए उनकी सहायता किसी भी मनुष्य के लिए अपरिमेय है। इसलिए ऐसे अनेक लोगों से सामना होने पर, जो मेरे वचनों के खिलाफ विद्रोह करते हैं, उनका खंडन करते हैं, या उनका पूरी तरह से तिरस्कार करते हैं, मेरा रुख केवल यह रहता है : समय और तथ्यों को मेरी गवाही देने दो और यह दिखाने दो कि मेरे वचन सत्य, मार्ग और जीवन हैं। उन्हें यह दिखाने दो कि जो कुछ मैंने कहा है, वह सही है, और वह ऐसा है जिसकी आपूर्ति लोगों को की जानी चाहिए, और इतना ही नहीं, जिसे मनुष्य को स्वीकार करना चाहिए। मैं उन सबको, जो मेरा अनुसरण करते हैं, यह तथ्य ज्ञात करवाऊँगा : जो लोग पूरी तरह से मेरे वचनों को स्वीकार नहीं कर सकते, जो मेरे वचनों का अभ्यास नहीं कर सकते, जिन्हें मेरे वचनों में कोई लक्ष्य नहीं मिल पाता, और जो मेरे वचनों के कारण उद्धार प्राप्त नहीं कर पाते, वे लोग हैं जो मेरे वचनों के कारण निंदित हुए हैं और इतना ही नहीं, जिन्होंने मेरे उद्धार को खो दिया है, और मेरी लाठी उन पर से कभी नहीं हटेगी।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम लोगों को अपने कर्मों पर विचार करना चाहिए