8. शैतान के दर्शनों, विभिन्न पाखंडों और भ्रांतियों को कैसे पहचानें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

परमेश्वर स्वयं सत्य है, उसके पास समस्त सत्य हैं। परमेश्वर सत्य का स्रोत है। प्रत्येक सकारात्मक वस्तु और प्रत्येक सत्य परमेश्वर से आता है। वह समस्त चीज़ों और घटनाओं के औचित्य एवं अनौचित्य के विषय में न्याय कर सकता है; वह उन चीज़ों का न्याय कर सकता है जो घट चुकी हैं, वे चीज़ें जो अब घटित हो रही हैं और भावी चीज़ें जो कि मनुष्य के लिए अभी अज्ञात हैं। परमेश्वर सभी चीज़ों के औचित्य एवं अनौचित्य के विषय में न्याय करने वाला एकमात्र न्यायाधीश है, और इसका तात्पर्य यह है कि सभी चीज़ों के औचित्य एवं अनौचित्य के विषय में केवल परमेश्वर द्वारा ही निर्णय किया जा सकता है। वह सभी चीज़ों की कसौटी जानता है। वह किसी भी समय और स्थान पर सत्य को व्यक्त कर सकता है। परमेश्वर सत्य का प्रतिरूप है, जिसका आशय यह है कि वह स्वयं सत्य के सार से युक्त है। भले ही मनुष्य अनेक सत्यों को समझता हो और परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया गया हो, फिर भी क्या उसका सत्य के प्रतिरूप से कुछ लेना-देना होता? नहीं। यह सुनिश्चित है। जब मनुष्य को पूर्ण बनाया जाता है, परमेश्वर के वर्तमान कार्य और परमेश्वर द्वारा मनुष्य से अपेक्षित बहुत-से मानकों के बारे में, तो वे अभ्यास की सही परख और अभ्यास के तरीकों के बारे में जान सकेंगे, और वे परमेश्वर के इरादों को पूरी तरह से समझ सकेंगे। वे यह अंतर कर सकते हैं कि कौन-सी चीज परमेश्वर से और कौन-सी चीज मनुष्य से आती है, कि क्या सही है और क्या गलत है। पर फिर भी कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो मनुष्य की पहुँच से दूर और असपष्ट रहती हैं, जिन्हें परमेश्वर द्वारा बताए जाने के बाद ही वह जान सकता है। क्या मनुष्य ऐसी चीजों को जान सकता है या उनके बारे में भविष्यवाणी कर सकता है जो परमेश्वर ने उसे अभी नहीं बताई हैं? बिल्कुल नहीं। इसके अतिरिक्त, यदि मनुष्य परमेश्वर से सत्य को प्राप्त कर भी ले, और उसके पास सत्य वास्तविकता हो और उसे बहुत से सत्यों के सार का ज्ञान हो, और उसके पास ग़लत सही को पहचानने की क्षमता हो, तब क्या उसमें सभी चीज़ों पर नियंत्रण व शासन करने की क्षमता आ जाएगी? उनमें यह क्षमता नहीं होगी। परमेश्वर और मनुष्य में यही अंतर है। सृजित प्राणी केवल सत्य के स्रोत से ही सत्य को प्राप्त सकते हैं। क्या वे मनुष्य से सत्य प्राप्त कर सकते है? क्या मनुष्य सत्य है? क्या मनुष्य सत्य प्रदान कर सकता है? वह ऐसा नहीं कर सकता और बस यहीं पर अंतर है। तुम केवल सत्य ग्रहण कर सकते हो, इसे प्रदान नहीं कर सकते। क्या तुम्हें सत्यधारी व्यक्ति कहा जा सकता है? क्या तुम्हें सत्य का प्रतिरूप कहा जा सकता है? बिल्कुल नहीं। सत्य का प्रतिरूप होने का वास्तव में क्या सार है? यह सत्य प्रदान करने वाला स्रोत है, सभी चीज़ों पर शासन और प्रभुता का स्रोत, और इसके अलावा यह वह एकमात्र कसौटी और मानक है जिसके अनुसार सभी चीज़ों और घटनाओं का आकलन किया जाता है। यही सत्य का प्रतिरूप है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग तीन)

परमेश्वर, सत्य की अपनी अभिव्यक्ति में, अपने स्वभाव और सार को व्यक्त करता है; सत्य की उसकी अभिव्यक्ति लोगों द्वारा विश्वास की जाने वाली उन विभिन्न सकारात्मक चीजों और वक्तव्यों पर आधारित नहीं है जिन्हें मानव जाति द्वारा संक्षेपित किया गया है। परमेश्वर के वचन परमेश्वर के वचन हैं; परमेश्वर के वचन सत्य हैं। वे एकमात्र वह नींव और विधान हैं, जिनके अनुसार मानवजाति का अस्तित्व है, और मानवता से उत्पन्न होने वाली तथाकथित मान्यताएँ गलत, बेतुकी और परमेश्वर द्वारा निंदनीय हैं। उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलती और वे उसके कथनों के मूल या आधार तो बिल्कुल नहीं हैं। परमेश्वर अपने वचनों के माध्यम से अपने स्वभाव और अपने सार को व्यक्त करता है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी वचन सत्य हैं, क्योंकि उसमें परमेश्वर का सार है, और वह सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। भ्रष्ट मानवजाति चाहे परमेश्वर के वचनों को कैसे भी प्रस्तुत या परिभाषित करे, या उन्हें कैसे भी देखे या समझे, परमेश्वर के वचन शाश्वत सत्य हैं, और यह तथ्य कभी नहीं बदलता। परमेश्वर ने चाहे कितने भी शब्द क्यों न बोले हों, और यह भ्रष्ट, दुष्ट मानवजाति चाहे उनकी कितनी भी निंदा क्यों न करे, उन्हें कितना भी अस्वीकार क्यों न करे, एक तथ्य हमेशा अपरिवर्तनीय रहता है : परमेश्वर के वचन सदा सत्य होंगे, और मनुष्य इसे कभी बदल नहीं सकता। आखिर में, मनुष्य को यह मानना होगा कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और मानवजाति की महिमामयी परंपरागत संस्कृति और वैज्ञानिक जानकारी कभी भी सकारात्मक चीजें नहीं बन सकतीं, और वे कभी भी सत्य नहीं बन सकतीं। यह अटल है। मानवजाति की पारंपरिक संस्कृति और अस्तित्व की रणनीतियाँ परिवर्तनों या समय के अंतराल के कारण सत्य नहीं बन जाएँगी, और न ही परमेश्वर के वचन मानवजाति की निंदा या विस्मृति के कारण मनुष्य के शब्द बन जाएंगे। सत्य हमेशा सत्य होता है; यह सार कभी नहीं बदलेगा। यहाँ कौन-सा तथ्य मौजूद है? यह कि मानवजाति द्वारा सारांशित इन सामान्य कहावतों का स्रोत शैतान और मानवीय कल्पनाएँ और धारणाएँ हैं, वे मनुष्य के फितूर और उसके भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होती हैं, और सकारात्मक चीजों से उनका कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी ओर, परमेश्वर के वचन, परमेश्वर के सार और पहचान की अभिव्यक्ति हैं। वह इन वचनों को किस कारण से व्यक्त करता है? मैं क्यों कहता हूँ कि वे सत्य हैं? इसका कारण यह है कि परमेश्वर सभी विधानों, नियमों, जड़ों, सार-तत्वों, वास्तविकताओं और सभी चीजों के रहस्यों पर संप्रभु है। वे सब उसके हाथ में हैं। इसलिए सिर्फ परमेश्वर ही सभी चीजों के नियमों, वास्तविकताओं, तथ्यों और रहस्यों को जानता है। परमेश्वर सभी चीजों के मूल को जानता है, और परमेश्वर जानता है कि वास्तव में सभी चीजों की जड़ क्या है। सिर्फ परमेश्वर के वचनों में दी गई सभी चीजों की परिभाषाएँ ही सबसे सटीक हैं, और सिर्फ परमेश्वर के वचन ही मनुष्यों के जीवन के लिए मानक और सिद्धांत हैं, और ये वे सत्य और मानदंड हैं जिनके अनुसार मनुष्य अपना जीवन जी सकते हैं, जबकि मनुष्य ने शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद से जीने के लिए जिन शैतानी व्यवस्थाओं और सिद्धांतों पर भरोसा किया है, वे सभी उसी समय इस तथ्य के विपरीत हैं कि परमेश्वर सभी चीजों पर और सभी चीजों की व्यवस्थाओं और नियमों पर संप्रभुता रखता है। मनुष्य के सभी शैतानी सिद्धांत मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं से उत्पन्न होते हैं, और वे शैतान से आते हैं। शैतान किस तरह की भूमिका निभाता है? सबसे पहले, वह खुद को सत्य के रूप में प्रस्तुत करता है; इसके बाद, वह परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजों की सभी व्यवस्थाओं और नियमों में बाधा डालता है, उन्हें नष्ट करता और रौंदता है। इसलिए, जो शैतान से आता है वह शैतान के सार से बहुत अच्छी तरह मेल खाता है, और यह शैतान के दुष्ट उद्देश्य, जालसाजी और दिखावे, और शैतान की ऐसी महत्वाकांक्षा से भरा हुआ है जो कभी नहीं बदलेगी। चाहे भ्रष्ट मनुष्य शैतान के इन फलसफों और सिद्धांतों को पहचान पाएँ या नहीं, और चाहे कितने भी लोग इन चीजों का प्रचार, प्रसार और अनुसरण करें, और चाहे कितने ही वर्षों और युगों से भ्रष्ट मानवजाति ने उनकी प्रशंसा की हो, उनकी आराधना की हो और उनके बारे में प्रचार किया हो, वे सत्य नहीं बनेंगी। क्योंकि उनका सार, मूल, और स्रोत शैतान है जो परमेश्वर और सत्य के विपरीत हैं, इसलिए ये चीजें कभी भी सत्य नहीं बनेंगी—वे हमेशा नकारात्मक चीजें ही रहेंगी। जब तुलना करने के लिए कोई सत्य नहीं होता, तो उन्हें अच्छी और सकारात्मक चीजों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, मगर जब सत्य का उपयोग उन्हें उजागर करने और उनका गहन-विश्लेषण करने के लिए किया जाता है, तो वे त्रुटिहीन नहीं हैं, वे जाँच-पड़ताल में टिक नहीं पातीं, और वे ऐसी चीजें हैं जिनकी तुरंत निंदा करके ठुकरा दिया जाता है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया सत्य परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति की सामान्य मानवता की जरूरतों के साथ एकदम मेल खाता है, जबकि शैतान लोगों में जो चीजें डालता है, वे मानवजाति की सामान्य मानवता की जरूरतों के बिल्कुल विपरीत हैं। वे एक सामान्य व्यक्ति को असामान्य बना देती हैं, और उसे अतिवादी, संकीर्ण सोच वाला, अहंकारी, मूर्ख, दुष्ट, अड़ियल, पापी और यहाँ तक कि हद से ज्यादा अभिमानी बना देती हैं। एक समय ऐसा आता है जब यह मामला इतना गंभीर हो जाता है कि लोग विक्षिप्त हो जाते हैं और उन्हें यह भी पता नहीं होता कि वे कौन हैं। वे सामान्य या साधारण व्यक्ति नहीं बनना चाहते, बल्कि वे अतिमानव, विशेष शक्तियों वाले लोग या ऊँचे स्तर के मनुष्य बनना चाहते हैं—इन चीजों ने लोगों की मानवता और उनकी सहज प्रवृत्ति को विकृत कर दिया है। सत्य लोगों को सामान्य मानवता के नियमों और व्यवस्थाओं और साथ ही परमेश्वर द्वारा स्थापित इन सभी नियमों के अनुसार अधिक सहजता से जीने में सक्षम बनाता है, जबकि ये तथाकथित सामान्य लोकोक्तियाँ और भ्रामक कहावतें लोगों को मानवीय प्रवृत्ति के विरुद्ध कर देती हैं और परमेश्वर द्वारा निर्धारित और तैयार की गई व्यवस्थाओं से बच निकलने में उनकी मदद करती हैं, यहाँ तक कि लोगों को सामान्य मानवता के मार्ग से भटका देती हैं और कुछ ऐसी चरम चीजें करने के लिए मजबूर करती हैं जो सामान्य लोगों को नहीं करनी चाहिए और जिनके बारे में उन्हें नहीं सोचना चाहिए। ये शैतानी व्यवस्थाएँ न सिर्फ लोगों की मानवता को विकृत करती हैं, बल्कि इनके कारण लोग अपनी सामान्य मानवता को और सामान्य मानवीय प्रवृत्ति को भी खो देते हैं।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग एक)

मानवजाति द्वारा सामाजिक विज्ञानों के आविष्कार के बाद से मनुष्य का मन विज्ञान और ज्ञान से भर गया है। तब से विज्ञान और ज्ञान मानवजाति के शासन के लिए उपकरण बन गए हैं, और अब मनुष्य के पास परमेश्वर की आराधना करने के लिए पर्याप्त गुंजाइश और अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं रही हैं। मनुष्य के हृदय में परमेश्वर की स्थिति सबसे नीचे हो गई है। हृदय में परमेश्वर के बिना मनुष्य की आंतरिक दुनिया अंधकारमय, आशारहित और खोखली है। बाद में मनुष्य के हृदय और मन को भरने के लिए कई समाज-वैज्ञानिकों, इतिहासकारों और राजनीतिज्ञों ने सामने आकर सामाजिक विज्ञान के सिद्धांत, मानव-विकास के सिद्धांत और अन्य कई सिद्धांत व्यक्त किए, जो इस सच्चाई का खंडन करते हैं कि परमेश्वर ने मनुष्य की रचना की है, और इस तरह, यह विश्वास करने वाले बहुत कम रह गए हैं कि परमेश्वर ने सब-कुछ बनाया है, और विकास के सिद्धांत पर विश्वास करने वालों की संख्या और अधिक बढ़ गई है। अधिकाधिक लोग पुराने विधान के युग के दौरान परमेश्वर के कार्य के अभिलेखों और उसके वचनों को मिथक और किंवदंतियाँ समझते हैं। अपने हृदयों में लोग परमेश्वर की गरिमा और महानता के प्रति, और इस सिद्धांत के प्रति भी कि परमेश्वर का अस्तित्व है और वह सभी चीज़ों पर प्रभुत्व रखता है, उदासीन हो जाते हैं। मानवजाति का अस्तित्व और देशों एवं राष्ट्रों का भाग्य उनके लिए अब और महत्वपूर्ण नहीं रहे, और मनुष्य केवल खाने-पीने और भोग-विलासिता की खोज में चिंतित, एक खोखले संसार में रहता है। ... बहुत थोड़े लोग स्वयं इस बात की खोज करने का उत्तरदायित्व लेते हैं कि आज परमेश्वर अपना कार्य कहाँ करता है, या यह तलाशने का उत्तरदायित्व कि वह किस प्रकार मनुष्य के गंतव्य पर नियंत्रण और उसकी व्यवस्था करता है। और इस तरह, मनुष्य के बिना जाने ही मानव-सभ्यता मनुष्य की इच्छाओं के अनुसार चलने में और भी अधिक अक्षम हो गई है, और कई ऐसे लोग भी हैं, जो यह महसूस करते हैं कि इस प्रकार के संसार में रहकर वे, उन लोगों के बजाय जो चले गए हैं, कम खुश हैं। यहाँ तक कि उन देशों के लोग भी, जो अत्यधिक सभ्य हुआ करते थे, इस तरह की शिकायतें व्यक्त करते हैं। क्योंकि परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना शासक और समाजशास्त्री मानवजाति की सभ्यता को सुरक्षित रखने के लिए अपना कितना भी दिमाग क्यों न ख़पा लें, कोई फायदा नहीं होगा। मनुष्य के हृदय का खालीपन कोई नहीं भर सकता, क्योंकि कोई मनुष्य का जीवन नहीं बन सकता, और कोई सामाजिक सिद्धांत मनुष्य को उस खालीपन से मुक्ति नहीं दिला सकता, जिससे वह व्यथित है। विज्ञान, ज्ञान, स्वतंत्रता, लोकतंत्र, फुरसत, आराम : ये मनुष्य को केवल अस्थायी सांत्वना देते हैं। यहाँ तक कि इन बातों के साथ भी मनुष्य पाप करता और समाज के अन्याय का रोना रोता है। ये चीज़ें मनुष्य की अन्वेषण की लालसा और इच्छा को दबा नहीं सकतीं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य को परमेश्वर द्वारा बनाया गया था और मनुष्यों के बेतुके त्याग और अन्वेषण केवल और अधिक कष्ट की ओर ही ले जा सकते हैं और मनुष्य को एक निरंतर भय की स्थिति में रख सकते हैं, और वह यह नहीं जान सकता कि मानवजाति के भविष्य या आगे आने वाले मार्ग का सामना किस प्रकार किया जाए। यहाँ तक कि मनुष्य विज्ञान और ज्ञान से भी डरने लगता है, और खालीपन के एहसास से और भी भय खाने लगता है। इस संसार में, चाहे तुम किसी स्वंतत्र देश में रहते हो या बिना मानवाधिकारों वाले देश में, तुम मानवजाति के भाग्य से बचकर भागने में सर्वथा असमर्थ हो। तुम चाहे शासक हो या शासित, तुम भाग्य, रहस्यों और मानवजाति के गंतव्य की खोज करने की इच्छा से बचकर भागने में सर्वथा अक्षम हो, और खालीपन के व्याकुल करने वाले बोध से बचकर भागने में तो और भी ज्यादा अक्षम हो। इस प्रकार की घटनाएँ, जो समस्त मानवजाति के लिए सामान्य हैं, समाजशास्त्रियों द्वारा सामाजिक घटनाएँ कही जाती हैं, फिर भी कोई महान व्यक्ति इस समस्या का समाधान करने के लिए सामने नहीं आ सकता। मनुष्य आखिरकार मनुष्य है, और परमेश्वर का स्थान और जीवन किसी मनुष्य द्वारा प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता। मानवजाति को केवल एक निष्पक्ष समाज की ही आवश्यकता नहीं है, जिसमें हर व्यक्ति को नियमित रूप से अच्छा भोजन मिलता हो और जिसमें सभी समान और स्वतंत्र हों, बल्कि मानवजाति को आवश्यकता है परमेश्वर के उद्धार और अपने लिए जीवन की आपूर्ति की। केवल जब मनुष्य परमेश्वर का उद्धार और जीवन की आपूर्ति प्राप्त करता है, तभी उसकी आवश्यकताओं, अन्वेषण की लालसा और आध्यात्मिक रिक्तता का समाधान हो सकता है। यदि किसी देश या राष्ट्र के लोग परमेश्वर के उद्धार और उसकी देखभाल प्राप्त करने में अक्षम हैं, तो वह देश या राष्ट्र पतन के मार्ग पर, अंधकार की ओर चला जाएगा, और परमेश्वर द्वारा जड़ से मिटा दिया जाएगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है

प्राचीन संस्कृति के ज्ञान ने मनुष्य को चुपके से परमेश्वर की उपस्थिति से चुरा लिया है और मनुष्य को शैतानों के राजा और उसकी संतानों को सौंप दिया है। चार पुस्तकों और पाँच क्लासिक्स[क] ने मनुष्य की सोच और धारणाओं को विद्रोह के एक अलग युग में पहुँचा दिया है, जिससे वह उन पुस्तकों और क्लासिक्स के संकलनकर्ताओं की पहले से भी ज्यादा खुशामदी करने लगा है, और परिणामस्वरूप परमेश्वर के बारे में उसकी धारणाएँ और ज्यादा खराब हो गई हैं। शैतानों के राजा ने बिना मनुष्य के जाने ही उसके दृदय से निर्दयतापूर्वक परमेश्वर को बाहर निकाल दिया और फिर विजयी उल्लास के साथ खुद उस पर कब्ज़ा जमा लिया। तब से मनुष्य एक कुरूप आत्मा और शैतानों के राजा के चेहरे के अधीन हो गया। उसके सीने में परमेश्वर के प्रति घृणा भर गई, और शैतानों के राजा की द्रोहपूर्ण दुर्भावना दिन-ब-दिन तब तक मनुष्य के भीतर फैलती गई, जब तक कि वह पूरी तरह से बरबाद नहीं हो गया। उसके पास जरा-भी स्वतंत्रता नहीं रह गयी और उसके पास शैतानों के राजा के चंगुल से छूटने का कोई उपाय नहीं था। उसके पास वहीं के वहीं उसकी उपस्थिति में बंदी बनने, आत्मसमर्पण करने और उसकी अधीनता में घुटने टेक देने के सिवा कोई चारा नहीं था। बहुत पहले जब मनुष्य का हृदय और आत्मा अभी शैशवावस्था में ही थे, शैतानों के राजा ने उनमें नास्तिकता के फोड़े का बीज बो दिया था, और उसे इस तरह की भ्रांतियाँ सिखा दीं, जैसे कि “विज्ञान और प्रौद्योगिकी को पढ़ो; चार आधुनिकीकरणों को समझो; और दुनिया में परमेश्वर जैसी कोई चीज नहीं है।” यही नहीं, वह हर अवसर पर चिल्लाता है, “आओ, हम एक सुंदर मातृभूमि का निर्माण करने के लिए अपने कठोर श्रम पर भरोसा करें,” और बचपन से ही हर व्यक्ति को अपने देश की सेवा करने के लिए तैयार रहने के लिए कहता है। बेखबर मनुष्य, इसके सामने लाया गया, और इसने बेझिझक सारा श्रेय (अर्थात् समस्त मनुष्यों को अपने हाथों में रखने का परमेश्वर का श्रेय) हथिया लिया। कभी भी इसे शर्म का बोध नहीं हुआ। इतना ही नहीं, इसने निर्लज्जतापूर्वक परमेश्वर के लोगों को पकड़ लिया और उन्हें अपने घर में खींच लिया, जहाँ वह मेज पर एक चूहे की तरह उछलकर चढ़ गया और मनुष्यों से परमेश्वर के रूप में अपनी आराधना करवाई। कैसा आततायी है! वह चीख-चीखकर ऐसी शर्मनाक और घिनौनी बातें कहता है : “दुनिया में परमेश्वर जैसी कोई चीज नहीं है। हवा प्राकृतिक नियमों के कारण होने वाले रूपांतरणों से चलती है; बारिश तब होती है, जब पानी भाप बनकर ठंडे तापमानों से मिलता है और बूँदों के रूप में संघनित होकर पृथ्वी पर गिरता है; भूकंप भूगर्भीय परिवर्तनों के कारण पृथ्वी की सतह का हिलना है; सूखा सूरज की सतह पर नाभिकीय विघटन के कारण हवा के शुष्क हो जाने से पड़ता है। ये प्राकृतिक घटनाएँ हैं। इस सबमें परमेश्वर का किया कौन-सा काम है?” ऐसे लोग भी हैं, जो कुछ ऐसे बयान भी देते हैं, जिन्हें स्वर नहीं दिया जाना चाहिए, जैसे कि : “मनुष्य प्राचीन काल में वानरों से विकसित हुआ था, और आज की दुनिया लगभग एक युग पहले शुरू हुए आदिम समाजों के अनुक्रमण से विकसित हुई है। किसी देश का उत्थान या पतन पूरी तरह से उसके लोगों के हाथों में है।” पृष्ठभूमि में, शैतान लोगों को उसे दीवार पर लटकाकर या मेज पर रखकर श्रद्धांजलि अर्पित करने और भेंट चढ़ाने के लिए बाध्य करता है। जब वह चिल्लाता है कि “कोई परमेश्वर नहीं है,” उसी समय वह खुद को परमेश्वर के रूप में स्थापित भी करता है और परमेश्वर के स्थान पर खड़ा होकर तथा शैतानों के राजा की भूमिका ग्रहण कर अशिष्टता के साथ परमेश्वर को धरती की सीमाओं से बाहर धकेल देता है। कितनी बेहूदा बात है! ...

ऊपर से नीचे तक और शुरू से अंत तक शैतान परमेश्वर के कार्य को बाधित करता रहा है और उसके विरोध में काम करता रहा है। “प्राचीन सांस्कृतिक विरासत,” मूल्यवान “प्राचीन संस्कृति के ज्ञान,” “ताओवाद और कन्फ्यूशीवाद की शिक्षाओं” और “कन्फ्यूशियन क्लासिक्स और सामंती संस्कारों” की इस सारी चर्चा ने मनुष्य को नरक में पहुँचा दिया है। उन्नत आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी के साथ-साथ अत्यधिक विकसित उद्योग, कृषि और व्यवसाय कहीं नजर नहीं आते। इसके बजाय, यह सिर्फ़ प्राचीन काल के “वानरों” द्वारा प्रचारित सामंती संस्कारों पर जोर देता है, ताकि परमेश्वर के कार्य को जानबूझकर गड़बड़ कर सके, उसका विरोध कर सके और उसे नष्ट कर सके। न केवल इसने आज तक मनुष्य को सताना जारी रखा है, बल्कि वह उसे पूरे का पूरा निगल[1] भी जाना चाहता है। सामंतवाद की नैतिक और आचार-विचार विषयक शिक्षाओं के प्रसारण और प्राचीन संस्कृति के ज्ञान की विरासत ने लंबे समय से मनुष्य को संक्रमित किया है और उन्हें छोटे-बड़े शैतानों में बदल दिया है। कुछ ही लोग हैं, जो ख़ुशी से परमेश्वर को स्वीकार करते हैं, और कुछ ही लोग हैं, जो उसके आगमन का उल्लासपूर्वक स्वागत करते हैं। समस्त मानवजाति का चेहरा हत्या के इरादे से भर गया है, और हर जगह हत्यारी साँस हवा में व्याप्त है। वे परमेश्वर को इस भूमि से निष्कासित करना चाहते हैं; हाथों में चाकू और तलवारें लिए वे परमेश्वर का “विनाश” करने के लिए खुद को युद्ध के विन्यास में व्यवस्थित करते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश (7)

फुटनोट :

1. “निगल” जाना शैतानों के राजा के शातिर व्यवहार के बारे में बताता है, जो लोगों को पूरी तरह से मोह लेता है।

क. चार पुस्तकें और पाँच क्लासिक्स चीन में कन्फ्यूशीवाद की प्रामाणिक किताबें हैं।


तुम्हारे ज्ञान का वर्तमान स्तर चाहे जो भी हो, या तुम्हारे पास चाहे जितनी बड़ी डिग्रियाँ और शैक्षणिक योग्यताएँ हों, मैं अभी ज्ञान को लेकर मानवता के विचारों और अपने विचारों के बारे में बात कर रहा हूँ। क्या तुम लोग जानते हो कि परमेश्वर ज्ञान के बारे में क्या सोचता है? कोई यह कह सकता है कि परमेश्वर चाहता है कि मानवजाति के पास उन्नत विज्ञान हो और वह वैज्ञानिक ज्ञान को अधिक समझे, क्योंकि वह नहीं चाहता कि मनुष्य निहायत पिछड़ा, अज्ञानी और बुद्धू रहे। यह सही है, लेकिन परमेश्वर इन चीजों का उपयोग सेवा करने के लिए करता है, और इन्हें स्वीकृति नहीं देता है। ये चीजें मनुष्य की नजर में चाहे कितनी ही अद्भुत हों, ये न तो सत्य हैं और न सत्य का विकल्प ही हैं, इसलिए परमेश्वर लोगों को बदलने और उनका स्वभाव बदलने के लिए सत्य व्यक्त करता है। भले ही परमेश्वर के वचन कभी-कभी कन्फ्यूशियसवाद या सामाजिक विज्ञान जैसे विचारों या ज्ञान को देखने के तरीकों को छू सकते हैं, लेकिन ये ऐसे विचारों के नमूने मात्र हैं। परमेश्वर के वचनों का निहितार्थ निकालते हुए हमें समझना चाहिए कि वह मानवीय ज्ञान से घृणा करता है। मानव ज्ञान में न केवल बुनियादी वाक्य और साधारण धर्म-सिद्धांत भरे होते हैं, बल्कि इसमें कुछ विचारों और दृष्टिकोणों के साथ ही मानवीय बेवकूफी, पूर्वाग्रह और शैतानी जहर भी शामिल होता है। कुछ ज्ञान तो लोगों को गुमराह और भ्रष्ट भी कर सकता है—यह शैतान का जहर और ट्यूमर है, और एक बार जब किसी ने इस ज्ञान को स्वीकार और समझ लिया तो शैतान का जहर उनके दिल में ट्यूमर बनकर उभर जाएगा। अगर परमेश्वर के वचनों से उन्हें चंगा न किया गया और सत्य के जरिए उन्हें ठीक न किया गया, तो यह ट्यूमर उनके पूरे शरीर में फैल जाएगा, जिससे उनकी मृत्यु तय है। इसलिए लोग जितना ज्यादा ज्ञान प्राप्त करेंगे, जितना अधिक समझ लेंगे, उनकी परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करने की संभावना उतनी ही कम हो जाएगी। बल्कि वे दरअसल उसे नकारेंगे और उसका विरोध करेंगे, क्योंकि ज्ञान ऐसी चीज है जिसे वे देख और छू सकते हैं, और यह ज्यादातर उनके जीवन की चीजों से संबंधित है। लोग स्कूल में पढ़-लिखकर बहुत सारा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन वे ज्ञान के स्रोत और आध्यात्मिक जगत के साथ इसके संबंध के प्रति अंधे हैं। लोग जो ज्ञान सीखते-समझते हैं उसमें से अधिकांश परमेश्वर के वचनों के सत्य के विरुद्ध होता है, जिसमें दार्शनिक भौतिकवाद और विकासवाद खास तौर पर नास्तिकता के पाखंड और झूठे तर्कों से संबंधित है। यह निश्चित रूप से परमेश्वर का विरोध करने वाले झूठे तर्कों की गठरी है। अगर तुम इतिहास की किताबें, मशहूर लेखकों की रचनाएँ या महान लोगों की जीवनियाँ पढ़ोगे, या शायद कुछ वैज्ञानिक या तकनीकी पहलुओं का अध्ययन करोगे तो तुम्हें क्या हासिल होगा? उदाहरण के लिए, अगर तुम भौतिकी पढ़ते हो तो तुम कुछ भौतिक सिद्धांतों, न्यूटन के नियम या अन्य सिद्धांतों में महारत हासिल कर लोगे, लेकिन जब इन्हें सीखकर आत्मसात कर लोगे तो ये चीजें तुम्हारे दिमाग पर कब्जा जमाकर तुम्हारी सोच पर हावी हो जाएँगी। फिर जब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ोगे तो सोचोगे : “परमेश्वर गुरुत्वाकर्षण का उल्लेख क्यों नहीं करता? बाहरी अंतरिक्ष पर चर्चा क्यों नहीं की जाती? परमेश्वर इस बारे में बात क्यों नहीं कर रहा है कि चाँद पर वायुमंडल है या नहीं, या पृथ्वी पर कितनी ऑक्सीजन है? परमेश्वर को इन चीजों का खुलासा करना चाहिए, क्योंकि ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें मानवजाति को जानने और बताने की वाकई जरूरत है।” अगर तुम अपने दिल में ऐसे विचार पालते हो तो तुम सत्य को और परमेश्वर के वचनों को दोयम मानोगे, और इसके बजाय अपने सारे ज्ञान और सिद्धांतों को सर्वोपरि रखोगे। परमेश्वर के वचनों के साथ तुम यह सलूक करोगे। इन बौद्धिक चीजों के कारण हर हाल में लोगों की गलत राय बनेगी और वे परमेश्वर के मार्ग से भटक जाएँगे। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि तुम लोग इस पर विश्वास करते हो या नहीं, या तुम इसे आज स्वीकार सकते हो या नहीं—वो दिन अवश्य आएगा जब तुम लोग इस तथ्य को मानोगे। क्या तुम लोग सचमुच समझते हो कि ज्ञान किस तरह लोगों को बर्बादी की ओर, नरक की ओर ले जा सकता है? कुछ ऐसे लोग हैं जो शायद इस बात को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि तुममें कुछ लोग बहुत ही पढ़े-लिखे और जानकार हैं। मैं न तो तुम लोगों की खिल्ली उड़ा रहा हूँ, न कोई तंज कस रहा हूँ, मैं तो बस तथ्य बता रहा हूँ। न मैं तुम लोगों को इसे हाथ के हाथ स्वीकारने को कह रहा हूँ, बल्कि इस पहलू को धीरे-धीरे समझने को कह रहा हूँ। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, ज्ञान हर उस चीज का विश्लेषण करने और उससे निपटने के लिए तुम्हें अपने मन और बुद्धि का इस्तेमाल करने को बाध्य करता है। यह परमेश्वर को जानने और उसके कार्यों का अनुभव करने के मार्ग में विघ्न-बाधा बन जाएगा, और तुम लोगों को परमेश्वर से भटकाने और उसका विरोध कराने की राह पर ले जाएगा। लेकिन अब तुम्हारे पास ज्ञान है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें व्यावहारिक ज्ञान और उस ज्ञान में अंतर करना होगा जो शैतान से आता है और जो पाखंड और झूठ से युक्त है। अगर तुम केवल नास्तिक और बेतुके ज्ञान को स्वीकारते हो, तो यह परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधक बन सकता है, उसके साथ तुम्हारे सामान्य संबंध और सत्य स्वीकारने में खलल डाल सकता है, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश को रोक सकता है। तुम्हें यह जानने की जरूरत है, क्योंकि यह सही है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना स्वभाव बदलने के लिए अभ्यास का मार्ग

ज्ञान, अनुभव, सबक—इनमें से कोई भी चीज सत्य नहीं है; इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। ये चीजें सत्य के विरुद्ध भी हैं और परमेश्वर इनकी निंदा करता है। उदाहरण के लिए ज्ञान को लो, क्या इतिहास की गिनती ज्ञान के रूप में होती है? (बिल्कुल।) मानव इतिहास, कुछ विशेष देशों या जातीय समूहों के आधुनिक इतिहास, प्राचीन इतिहास, या यहाँ तक कि कुछ अनौपचारिक इतिहासों के बारे में ज्ञान और पुस्तकें कैसे तैयार हुईं? (ये लोगों द्वारा लिखी गई थीं।) तो क्या लोगों द्वारा लिखी गई चीजें सच्चे इतिहास के अनुसार होती हैं? क्या लोगों के विचार और नजरिये परमेश्वर के क्रियाकलापों के सिद्धांतों, तरीकों और साधनों के विपरीत नहीं होते? क्या मनुष्य द्वारा बोले गए ये वचन सच्चे इतिहास से संबंधित हैं? (नहीं।) कोई संबंध नहीं है। इसलिए, इतिहास की पुस्तकों में निहित अभिलेख चाहे जितने भी सही क्यों न हों, वे सिर्फ ज्ञान हैं। ये इतिहासकार चाहे जितने भी वाक्पटु क्यों न हों, और कितनी भी तार्किकता या स्पष्टता से इन इतिहासों का वर्णन करते हों, उन्हें सुनने के बाद तुम किस निष्कर्ष पर पहुँचोगे? (हम उन घटनाओं के बारे में जानेंगे।) हाँ, तुम उन घटनाओं के बारे में जानोगे। लेकिन क्या वे इन इतिहासों का वर्णन सिर्फ तुम्हें उन घटनाओं के बारे में सूचित करने के लिए कर रहे हैं? उनके पास एक विशेष विचार है जो वे तुम्हारे मन में बैठाना चाहते हैं। और उनका इस विचार को तुम्हारे मन में बैठाना किस बात पर केंद्रित है? हमें इसी चीज का विश्लेषण और गहन-विश्लेषण करने की जरूरत है? आओ मैं तुम्हें एक उदाहरण दूँ, ताकि तुम लोग शायद समझ सको कि वे लोगों के मन में कौन-सा विचार बैठाना चाहते हैं? प्राचीन काल से वर्तमान तक इतिहास की समीक्षा करने के बाद, लोग अंततः एक कहावत पर पहुँचे हैं; उन्होंने मानव इतिहास से एक तथ्य का निरीक्षण किया है, जो यह है : “विजेताओं को ताज मिलता है और हारने वालों को कुछ भी नहीं।” क्या यह ज्ञान है? (बिल्कुल।) यह ज्ञान ऐतिहासिक तथ्यों से आता है। क्या इस कहावत का उन तरीकों और साधनों से कोई लेना-देना है, जिनसे परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है? (नहीं।) दरअसल, यह इसका उल्टा है; यह उसके विपरीत और उसके विरुद्ध है। तो तुम्हारे मन में यह कहावत बैठा दी गई है, और यदि तुम सत्य नहीं समझते हो, या तुम एक गैर-विश्वासी हो तो इसे सुनने के बाद तुम क्या सोच सकते हो? तुम इस कहावत को किस तरह से बूझोगे? सबसे पहले, ये इतिहासकार या इतिहास की पुस्तकें कहावत को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त प्रमाण और ऐतिहासिक घटनाओं का प्रयोग कर इस किस्म की सभी घटनाओं को सूचीबद्ध करते हैं। सबसे पहले, तुमने इस कहावत के बारे में सिर्फ किसी पुस्तक से जाना होगा और सिर्फ कहावत को ही जान पाए होगे। जब तक तुम इन घटनाओं से अवगत नहीं हो जाते, तब तक तुम इसे केवल एक स्तर पर या एक निश्चित सीमा तक ही समझ पाओगे। लेकिन एक बार इन ऐतिहासिक तथ्यों को सुनने के बाद इस कहावत की तुम्हारी पहचान और स्वीकृति गहराएगी। तुम यह बिल्कुल नहीं कहोगे, “कुछ चीजें ऐसी नहीं हैं।” बल्कि तुम यह कहोगे, “यह ऐसा ही है; प्राचीन काल से वर्तमान तक इतिहास को देखने पर, मानवजाति इस तरह से विकसित हुई—विजेताओं को ताज मिलता है और हारने वालों को कुछ भी नहीं!” जब तुम्हें मामले का इस तरह बोध होता है, तो अपने आचरण, अपने करियर, अपने दैनिक जीवन, और साथ ही अपने आसपास के लोगों, घटनाओं, और चीजों के प्रति तुम कैसे विचार और रवैए रखोगे? क्या ऐसे बोध से तुम्हारा रवैया बदल जाएगा? (बिल्कुल।) सभी चीजों से बढ़कर, तुम्हारा रवैया जरूर बदल जाएगा। तो, इससे तुम्हारा रवैया कैसे बदलेगा? क्या यह तुम्हारे जीवन का मार्गदर्शन कर उसकी दिशा और सांसारिक आचरण के तुम्हारे तरीके बदल देगा? शायद पहले तुम मानते थे कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है” और “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” अब तुम सोचोगे, “चूँकि ‘विजेताओं को ताज मिलता है और हारने वालों को कुछ भी नहीं,’ इसलिए अगर मैं एक अधिकारी बनाना चाहूँ तो मुझे अमुक-अमुक पर सावधानीपूर्वक विचार करना होगा। वे मेरे पक्ष में नहीं हैं, इसलिए मैं उन्हें पदोन्नत नहीं कर सकता—भले ही वे पदोन्नति के योग्य हों।” इन चीजों के बारे में इस तरह सोचते समय तुम्हारा रवैया बदलेगा—और यह तेजी से बदलेगा। यह बदलाव कैसे होता है? यह इसलिए होगा क्योंकि तुमने इस विचार और नजरिये को स्वीकार किया कि “विजेताओं को ताज मिलता है और हारने वालों को कुछ भी नहीं।” अनेक तथ्यों को सुनने से तुम्हारे असली मानव जीवन में इस नजरिये के सही होने की और अधिक पुष्टि होगी। तुम गहराई से मानोगे कि तुम्हें अपने भविष्य के जीवन और संभावनाओं का अनुसरण करने के लिए इस दृष्टिकोण को अपने क्रियाकलापों और आचरण में लागू करना चाहिए। फिर क्या इस विचार और नजरिये ने तुम्हें बदल नहीं दिया होगा? (बिल्कुल।) और तुम्हें बदलते समय यह तुम्हें भ्रष्ट भी करेगा। यह ऐसा ही है। ऐसा ज्ञान तुम्हें बदलता और भ्रष्ट करता है। तो इस मामले की जड़ को देखते समय, ये इतिहास चाहे जितने भी सही ढंग से लिखे गए हों, अंततः ये इस कहावत में सारांशित कर दिए जाते हैं, और तुम्हारे मन में यह विचार बैठा दिया जाता है। क्या यह ज्ञान सत्य का प्रतिरूप है या शैतान का तर्क? (शैतान का तर्क।) सही है। क्या मैंने इसे काफी विस्तार से समझा दिया है? (बिल्कुल।) अब यह स्पष्ट है। यदि तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हो तो तुम दो जीवन जी लेने के बाद भी इसे नहीं समझोगे—तुम जितना जियोगे, उतना ही तुम्हें लगेगा कि तुम मूर्ख हो, और सोचोगे कि तुम उतने निष्ठुर नहीं हो, और तुम्हें अधिक निष्ठुर, अधिक धूर्त, अधिक कुटिल, और एक बदतर और अधिक बुरा इंसान होना चाहिए। तुम मन-ही-मन सोचोगे : “अगर वह प्राण ले सकता है तो मुझे आग लगा देनी चाहिए। अगर वह एक व्यक्ति के प्राण लेता है, तो मुझे 10 लोगों को मार देना चाहिए। अगर वह बिना कोई सुराग छोड़े मारता है, तो मैं लोगों को बिना उनकी जानकारी के नुकसान पहुँचाऊँगा—यहाँ तक कि मैं उनके वंशजों को तीन पीढ़ियों तक मेरा आभार मानने पर मजबूर कर दूँगा!” शैतान के फलसफे, ज्ञान, अनुभव और सबक ने मानवजाति पर यह प्रभाव डाला है। वास्तविकता में, यह सिर्फ दुर्व्यवहार और भ्रष्टता है। इसलिए, इस दुनिया में चाहे जिस प्रकार के ज्ञान का प्रचार या प्रसार किया जा रहा हो, यह तुम्हारे मन में एक विचार या एक नजरिया बैठा देगा। यदि तुम इसे पहचान नहीं सकते तो तुममें जहर भर दिया जाएगा। कुल मिलाकर अब एक बात तय है : इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह ज्ञान आम लोगों से आता है या आधिकारिक स्रोतों से, इसमें अल्पसंख्यक श्रद्धा रखते हैं या बहुसंख्यक—इनमें से कुछ भी सत्य से प्रासंगिक नहीं है। सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। इसका सही होना इसे स्वीकार करने वालों की संख्या से निर्धारित नहीं होता। सकारात्मक चीजों की वास्तविकता स्वयं ही सत्य है। कोई भी इसे नहीं बदल सकता, न ही कोई इसे नकार सकता है। सत्य हमेशा सत्य ही रहेगा।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग तीन)

जो लोग शैतान के हैं वे स्वयं के लिए जीते हैं। उनके जीवन के दृष्टिकोण और सिद्धांत मुख्यतः शैतान की कहावतों से आते हैं, जैसे कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “मनुष्य धन के लिए मरता है, जैसे पक्षी भोजन के लिए मरते हैं,” और ऐसी अन्य भ्रांतियाँ। उन पिशाच राजाओं, महान लोगों और दार्शनिकों द्वारा बोले गए ये सभी वचन मनुष्य का जीवन बन गए हैं। विशेष रूप से, कन्फ़्यूशियस, जिसे चीनी लोगों द्वारा “ऋषि” के रूप में प्रचारित किया जाता है, के अधिकांश वचन, मनुष्य का जीवन बन गए हैं। बौद्ध धर्म और ताओवाद की मशहूर कहावतें, और प्रसिद्ध व्यक्तियों की अक्सर उद्धृत की गई विशेष कहावते हैं। ये सभी शैतान के फ़लसफों और शैतान की प्रकृति के जोड़ हैं। वे शैतान की प्रकृति के सबसे अच्छे उदाहरण और स्पष्टीकरण भी हैं। ये विष, जिन्हें मनुष्य के हृदय में डाल दिया गया है, सब शैतान से आते हैं, और उनमें से छोटा-सा अंश भी परमेश्वर से नहीं आता है। ये शैतानी वचन भी परमेश्वर के वचन के बिल्कुल विरुद्ध हैं। यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि सभी सकारात्मक चीज़ों की वास्तविकता परमेश्वर से आती है, और सभी नकारात्मक चीजें जो मनुष्य में विष भरती हैं, वे शैतान से आती हैं। इसलिए, तुम किसी व्यक्ति की प्रकृति को और वह किससे संबंधित है इस बात को उसके जीवन के दृष्टिकोण और मूल्यों को देखकर जान सकते हो। शैतान राष्ट्रीय सरकारों और प्रसिद्ध एवं महान व्यक्तियों की शिक्षा और प्रभाव के माध्यम से लोगों को दूषित करता है। उनके शैतानी शब्द मनुष्य के जीवन और प्रकृति बन गए हैं। “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” एक प्रसिद्ध शैतानी कहावत है जिसे हर किसी में डाल दिया गया है और यह मनुष्य का जीवन बन गया है। सांसारिक आचरण के फलसफों के लिए कुछ अन्य शब्द भी हैं जो इसी तरह के हैं। शैतान प्रत्येक देश के लोगों को शिक्षित करने, गुमराह करने और भ्रष्ट करने के लिए की पारंपरिक संस्कृति का इस्तेमाल करता है, और मानवजाति को विनाश की विशाल खाई में गिरने और उसके द्वारा निगल लिए जाने पर मजबूर कर देता है, और अंत में, परमेश्वर लोगों को नष्ट कर देता है क्योंकि वे शैतान की सेवा करते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं। कुछ लोग समाज में कई वर्षों से लोक अधिकारी रहे हैं। उनसे यह प्रश्न पूछने की कल्पना करो : “तुमने इस पद पर रहते हुए इतना अच्छा काम किया है, ऐसी कौन-सी मुख्य प्रसिद्ध कहावतें हैं जिनके अनुसार तुम लोग जीते हो?” शायद वे कहें, “मैंने एक चीज जो समझी है, वह है कि ‘अधिकारी उपहार देने वालों के लिए मुश्किलें खड़ी नहीं करते, और जो चापलूसी नहीं करते हैं वे कुछ भी हासिल नहीं करते हैं।’” उनका करियर इसी शैतानी दर्शन पर आधारित है। क्या ये शब्द ऐसे लोगों की प्रकृति का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं? पद पाने के लिए अनैतिक साधनों का इस्तेमाल करना उसकी प्रकृति बन गयी है, अफसरशाही और करियर में सफलता उसके लक्ष्य हैं। अभी भी लोगों के जीवन, आचरण और व्यवहार में कई शैतानी विष उपस्थित हैं। उदाहरण के लिए, सांसारिक आचरण के उनके फलसफे, काम करने के उनके तरीके, और उनकी सभी कहावतें बड़े लाल अजगर के विषों से भरी हैं, और ये सभी शैतान से आते हैं। इस प्रकार, लोगों की हड्डियों और रक्त से बहने वाली सभी चीजें शैतान की हैं। उन सभी अधिकारियों, सत्ताधारियों और प्रवीण लोगों के सफलता पाने के अपने ही मार्ग और रहस्य होते हैं, तो क्या ऐसे रहस्य उनकी प्रकृति का उत्तम रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं? वे दुनिया में कई बड़ी चीज़ें कर चुके हैं और उनके पीछे उनकी जो चालें और षड्यंत्र हैं उन्हें कोई समझ नहीं पाता है। यह दिखाता है कि उनकी प्रकृति आखिर कितनी कपटी और विषैली है। शैतान ने मनुष्य को गंभीर ढंग से दूषित कर दिया है। शैतान का विष हर व्यक्ति के रक्त में बहता है, और यह कहा जा सकता है कि मनुष्य की प्रकृति भ्रष्ट, दुष्ट, प्रतिरोधात्मक और परमेश्वर के विरोध में है, शैतान के दर्शन और विषों से भरी हुई और उनमें डूबी हुई है। यह पूरी तरह शैतान का प्रकृति-सार बन गया है। इसीलिए लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं और परमेश्वर के विरूद्ध खड़े रहते हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें

“दुनिया पैसों के इशारों पर नाचती है” यह शैतान का एक फ़लसफ़ा है। यह संपूर्ण मानवजाति में, हर मानव-समाज में प्रचलित है; तुम कह सकते हो, यह एक रुझान है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह हर एक व्यक्ति के हृदय में बैठा दिया गया है, जिन्होंने पहले तो इस कहावत को स्वीकार नहीं किया, किंतु फिर जब वे जीवन की वास्तविकताओं के संपर्क में आए, तो इसे मूक सहमति दे दी, और महसूस करना शुरू किया कि ये वचन वास्तव में सत्य हैं। क्या यह शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट करने की प्रक्रिया नहीं है? शायद लोग इस कहावत को समान रूप से नहीं समझते, बल्कि हर एक आदमी अपने आसपास घटित घटनाओं और अपने निजी अनुभवों के आधार पर इस कहावत की अलग-अलग रूप में व्याख्या करता है और इसे अलग-अलग मात्रा में स्वीकार करता है। क्या ऐसा नहीं है? चाहे इस कहावत के संबंध में किसी के पास कितना भी अनुभव हो, इसका किसी के हृदय पर कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है? तुम लोगों में से प्रत्येक को शामिल करते हुए, दुनिया के लोगों के स्वभाव के माध्यम से कोई चीज प्रकट होती है। यह क्या है? यह पैसे की उपासना है। क्या इसे किसी के हृदय में से निकालना कठिन है? यह बहुत कठिन है! ऐसा प्रतीत होता है कि शैतान का मनुष्य को भ्रष्ट करना सचमुच गहन है! शैतान लोगों को प्रलोभन देने के लिए धन का उपयोग करता है, और उन्हें भ्रष्ट करके उनसे धन की आराधना करवाता है और भौतिक चीजों की पूजा करवाता है। और लोगों में धन की इस आराधना की अभिव्यक्ति कैसे होती है? क्या तुम लोगों को लगता है कि बिना पैसे के तुम लोग इस दुनिया में जीवित नहीं रह सकते, कि पैसे के बिना एक दिन जीना भी असंभव होगा? लोगों की हैसियत इस बात पर निर्भर करती है कि उनके पास कितना पैसा है, और वे उतना ही सम्मान पाते हैं। गरीबों की कमर शर्म से झुक जाती है, जबकि धनी अपनी ऊँची हैसियत का मज़ा लेते हैं। वे ऊँचे और गर्व से खड़े होते हैं, जोर से बोलते हैं और अहंकार से जीते हैं। यह कहावत और रुझान लोगों के लिए क्या लाता है? क्या यह सच नहीं है कि पैसे की खोज में लोग कुछ भी बलिदान कर सकते हैं? क्या अधिक पैसे की खोज में कई लोग अपनी गरिमा और ईमान का बलिदान नहीं कर देते? क्या कई लोग पैसे की खातिर अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर का अनुसरण करने का अवसर नहीं गँवा देते? क्या सत्य प्राप्त करने और बचाए जाने का अवसर खोना लोगों का सबसे बड़ा नुकसान नहीं है? क्या मनुष्य को इस हद तक भ्रष्ट करने के लिए इस विधि और इस कहावत का उपयोग करने के कारण शैतान कुटिल नहीं है? क्या यह दुर्भावनापूर्ण चाल नहीं है? जैसे-जैसे तुम इस लोकप्रिय कहावत का विरोध करने से लेकर अंततः इसे सत्य के रूप में स्वीकार करने तक की प्रगति करते हो, तुम्हारा हृदय पूरी तरह से शैतान के चंगुल में फँस जाता है, और इस तरह तुम अनजाने में इस कहावत के अनुसार जीने लगते हो। इस कहावत ने तुम्हें किस हद तक प्रभावित किया है? हो सकता है कि तुम सच्चे मार्ग को जानते हो, और हो सकता है कि तुम सत्य को जानते हो, किंतु उसकी खोज करने में तुम असमर्थ हो। हो सकता है कि तुम स्पष्ट रूप से जानते हो कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, किंतु तुम सत्य को पाने के लिए क़ीमत चुकाने का कष्ट उठाने को तैयार नहीं हो। इसके बजाय, तुम बिल्कुल अंत तक परमेश्वर का विरोध करने में अपने भविष्य और नियति को त्याग दोगे। चाहे परमेश्वर कुछ भी क्यों न कहे, चाहे परमेश्वर कुछ भी क्यों न करे, चाहे तुम्हें इस बात का एहसास क्यों न हो कि तुम्हारे लिए परमेश्वर का प्रेम कितना गहरा और कितना महान है, तुम फिर भी हठपूर्वक अपने रास्ते पर ही चलते रहने का आग्रह करोगे और इस कहावत की कीमत चुकाओगे। कहने का तात्पर्य यह है कि यह कहावत पहले ही तुम्हारे विचारों को गुमराह और नियंत्रित कर चुकी है, यह पहले ही तुम्हारे व्यवहार को नियंत्रित कर चुकी है, और तुम धन की खोज छोड़ने के बजाय इसे अपने भाग्य पर शासन करने दोगे। लोग इस प्रकार कार्य कर सकते हैं कि उन्हें शैतान के शब्दों द्वारा नियंत्रित और प्रभावित किया जा सकता है—क्या इसका यह अर्थ नहीं कि उन्हें शैतान द्वारा गुमराह और भ्रष्ट किया गया है? क्या शैतान के दर्शन, उसकी मानसिकता और उसके स्वभाव ने तुम्हारे दिलों में जड़ें नहीं जमा ली हैं? जब तुम आँख मूँदकर धन के पीछे दौड़ते हो, और सत्य की खोज छोड़ देते हो, तो क्या शैतान ने तुम्हें गुमराह करने का अपना उद्देश्य प्राप्त नहीं कर लिया है? ठीक यही मामला है। तो क्या जब शैतान द्वारा तुम्हें गुमराह और भ्रष्ट किया जाता है, तो तुम इसे महसूस कर पाते हो? तुम नहीं कर पाते। अगर तुम शैतान को अपने सामने खड़ा नहीं देख सकते, या यह महसूस नहीं कर सकते कि यह शैतान है जो छिपकर कार्य कर रहा है, तो क्या तुम शैतान की दुष्टता देख पाओगे? क्या तुम जान पाओगे कि शैतान मानवजाति को कैसे भ्रष्ट करता है? शैतान हर समय और हर जगह मनुष्य को भ्रष्ट करता है। शैतान मनुष्य के लिए इस भ्रष्टता से बचना असंभव बना देता है और वह इसके सामने मनुष्य को असहाय बना देता है। शैतान अपने विचारों, अपने दृष्टिकोणों और उससे आने वाली दुष्ट चीज़ों को तुमसे ऐसी परिस्थितियों में स्वीकार करवाता है, जहाँ तुम अज्ञानता में होते हो, और जब तुम्हें इस बात का पता नहीं चलता कि तुम्हारे साथ क्या हो रहा है। लोग इन चीज़ों को स्वीकार कर लेते हैं और इन पर कोई आपत्ति नहीं करते। वे इन चीज़ों को सँजोते हैं और एक खजाने की तरह सँभाले रखते हैं, वे इन चीज़ों को अपने साथ जोड़-तोड़ करने देते हैं और उन्हें अपने साथ खिलवाड़ करने देते हैं; और इस तरह लोग शैतान के सामर्थ्य के अधीन जीते हैं और अनजाने ही शैतान की आज्ञा का पालन करते हैं, और शैतान का मनुष्य को भ्रष्ट करना और अधिक गहरा होता जाता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है V

अब ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाली कहावत व्यावहारिक और सही है। क्या ऐसे लोगों के पास विवेक है? क्या वे सत्य समझते हैं? क्या ऐसे लोगों के विचारों और दृष्टिकोणों में समस्या है? कलीसिया के भीतर यदि कोई व्यक्ति इस कहावत का प्रचार करता है, तो वह ऐसा किसी मकसद से करता है, वह दूसरों को गुमराह करने की कोशिश कर रहा है। वह “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाली कहावत का उपयोग अपने बारे में दूसरों के भ्रम या संदेह को दूर करने का प्रयास करने के लिए कर रहा है। इसका निहितार्थ यह है कि वह चाहता है कि दूसरों को यह विश्वास हो जाए कि वह काम कर सकता है, यह भरोसा हो जाए कि वह एक ऐसा व्यक्ति है जिसका उपयोग किया जा सकता है। क्या यही उसका इरादा और ध्येय नहीं होता है? यही होना चाहिए। वह मन ही मन सोचता है, “तुम लोग कभी भी मुझ पर विश्वास नहीं करते हो और हमेशा मुझ पर शक करते हो। किसी बिंदु पर, शायद तुम मुझमें कोई मामूली समस्या ढूँढ निकालोगे और मुझे पद से हटा दोगे। अगर यही चिंता हमेशा मेरे मन में रहेगी तो मैं कैसे काम कर सकता हूँ?” इस तरह, वे इस दृष्टिकोण का प्रचार करते हैं ताकि परमेश्वर का घर बिना किसी संदेह के उन पर विश्वास करे और उन्हें स्वच्छंद रूप से काम करने के लिए छोड़ दे, जिससे वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके। अगर कोई वाकई सत्य का अनुसरण कर रहा है, तो उसे अपने काम पर परमेश्वर के घर के निरीक्षण को, जब कभी भी वह दिखे, सही तरीके से लेना चाहिए, यह जानते हुए कि यह उसकी अपनी सुरक्षा के लिए है और, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह कि ऐसा करना परमेश्वर के घर के कार्य के लिए ज़िम्मेदार होना भी है। हालाँकि वह अपनी भ्रष्टता प्रकट कर सकता है, फिर भी वह परमेश्वर से प्रार्थना कर सकता है कि परमेश्वर उसकी जाँच-पड़ताल करे और उसकी रक्षा करे, या वह परमेश्वर से यह शपथ ले सकता है कि यदि वह बुरा करता है तो वह परमेश्वर के दण्ड को स्वीकारेगा। क्या इससे उसका मन शांत नहीं होगा? लोगों को गुमराह करने और अपने ही मकसद को हासिल करने के लिए किसी भ्रांति का प्रचार क्यों करें? कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं में परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा उनके निरीक्षण के प्रति या ऊपरी अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा उनके काम के बारे में जानने के प्रयासों के प्रति हमेशा एक विरोध का रवैया रहता है। वे क्या सोचते हैं? “‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ तुम लोग हमेशा मेरी देखरेख क्यों करते रहते हो? यदि तुम लोग मुझ पर भरोसा नहीं करते हो तो तुम मेरा उपयोग क्यों करते हो?” यदि तुम उनसे उनके कार्य के बारे में पूछते हो या काम की प्रगति के बारे में पूछताछ करते हो और फिर उनकी व्यक्तिगत स्थिति के बारे में पूछते हो, तो वे और भी अधिक रक्षात्मक हो जाएँगे : “यह कार्य मुझे सौंपा गया है; यह मेरे अधिकार क्षेत्र में आता है। तुम लोग मेरे काम में हस्तक्षेप क्यों कर रहे हो?” हालाँकि उनमें इसे स्पष्ट रूप से कहने की हिम्मत नहीं होती, वे चालाकी से इशारा करेंगे, “जैसा कि कहा जाता है, ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ तुम इतने शक्की क्यों हो?” वे तुम लोगों की निंदा तक करेंगे और तुम पर ठप्पा भी लगा देंगे। और, यदि तुम सत्य नहीं समझते हो और तुम्हारे पास कोई विवेक नहीं है, तो क्या होगा? उनके इशारे को सुनकर, तुम कहोगे, “क्या मैं शक्की हूँ? फिर तो मैं गलत हूँ। मैं धूर्त हूँ! तुम सही हो : न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” क्या तुम इस तरह गुमराह नहीं किए गए हो? क्या यह कहावत “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” सत्य से मेल खाती है? नहीं, यह तो बकवास है! ये दुष्ट लोग कपटी और धोखेबाज है; ये भ्रमित लोगों को गुमराह करने के लिए इस कहावत को सत्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। एक भ्रमित व्यक्ति इस कहावत को सुनकर, सचमुच गुमराह हो जाता है, वह और भ्रमित हो जाता है और सोचता है : “वह सही है, मैंने इसके साथ गलत किया है। उसने खुद ही तो कहा था : ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ मैंने कैसे उस पर संदेह किया? इस तरह से तो काम नहीं हो सकता। मुझे उसके काम में ताक-झाँक किए बिना उसे प्रोत्साहित करना चाहिए। चूँकि मैं उसका उपयोग कर रहा हूँ, मुझे उस पर भरोसा करना होगा और उसे बिना बाधित किए स्वतंत्र रूप से काम करने देना होगा। उसे काम करने के लिए कुछ स्वतंत्रता देनी होगी। उसमें काम करने की क्षमता है। और यदि उसमें क्षमता न हो, तो भी पवित्र आत्मा तो कार्य कर ही रहा है!” यह किस तरह का तर्क है? क्या इसमें से कुछ भी सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) ये सभी शब्द सुनने में सही लगते हैं। “हम दूसरों को बाधित नहीं कर सकते।” “लोग कुछ नहीं कर सकते; यह पवित्र आत्मा है जो सब कुछ करता है। पवित्र आत्मा हर बात की जाँच-पड़ताल करता है। हमें शक करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि परमेश्वर पूर्ण रूप से प्रभारी है।” लेकिन ये किस तरह के शब्द हैं? क्या उन्हें बोलने वाले लोग भ्रमित नहीं हैं? वे तो इतनी-सी बात को भी ठीक से नहीं समझ सकते और बस एक ही वाक्य से गुमराह हो जाते हैं। यह कहना गलत न होगा कि अधिकांश लोग “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” मुहावरे को सच मानते हैं, और वे इससे गुमराह होकर बंध जाते हैं। लोगों को चुनते या उपयोग करते समय वे इससे परेशान और प्रभावित हो जाते हैं, यहाँ तक कि वे इससे उनके कार्यों को भी निर्देशित होने देते हैं। परिणामस्वरूप, बहुत से अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसिया के काम की जाँच करते समय, लोगों को तरक्की देते और उपयोग करते समय हमेशा मुश्किलें आती हैं और आशंका होने लगती है। अंत में, वे बस इन शब्दों से खुद को तसल्ली दे पाते हैं, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” काम का निरीक्षण या पूछताछ करते समय, वे सोचते हैं, “‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ मुझे अपने भाई-बहनों पर भरोसा करना चाहिए, आखिरकार, पवित्र आत्मा लोगों की जाँच-पड़ताल करता है, इसलिए मुझे हमेशा दूसरों पर संदेह और उनकी निगरानी नहीं करनी चाहिए।” वे इस मुहावरे से प्रभावित हो गए हैं, है न? इस मुहावरे के प्रभाव से क्या परिणाम सामने आते हैं? सबसे पहले, अगर कोई व्यक्ति इस विचार को मानता है कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो,” तो क्या वह दूसरों के काम का निरीक्षण और मार्गदर्शन करेगा? क्या वह लोगों के काम की निगरानी करेगा और उसकी खोज-खबर लेगा? अगर यह व्यक्ति हर उस व्यक्ति पर भरोसा करता है जिसका वह उपयोग करता है और कभी भी उसके काम का निरीक्षण या मार्गदर्शन नहीं करता है, और कभी भी उसकी निगरानी नहीं करता है, तो क्या वह अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभा रहा है? क्या वह कलीसिया का कार्य सक्षम तरीके से कर सकता है और परमेश्वर के आदेश को पूरा कर सकता है? क्या वह परमेश्वर के आदेश के प्रति निष्ठावान है? दूसरा, यह परमेश्वर के वचनों और कर्तव्यों का पालन करने में तुम्हारी विफलता मात्र नहीं है, बल्कि यह शैतान की साजिशों और सांसारिक आचरण के उसके फलसफों को सत्य मानना है, उनका अनुसरण और अभ्यास करना है। तुम शैतान की आज्ञा का पालन कर रहे हो और शैतानी फलसफे के अनुसार जी रहे हो, है न? तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, तुम परमेश्वर के वचनों का पालन करने वाले व्यक्ति तो बिल्कुल नहीं हो। तुम पूरे बदमाश हो। परमेश्वर के वचनों को दर-किनार कर, शैतानी मुहावरे को अपनाना और सत्य के रूप में उसका अभ्यास करना, सत्य और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना है! तुम परमेश्वर के घर में काम करते हो, फिर भी शैतानी तर्क और सांसारिक आचरण के उसके फलसफे ही तुम्हारे क्रियाकलापों के सिद्धांत हैं, तुम किस तरह के व्यक्ति हो? ऐसा व्यक्ति परमेश्वर से विश्वासघात करता है और उसे बुरी तरह लज्जित करता है। इस हरकत का सार क्या है? खुले तौर पर परमेश्वर की निंदा करना और सत्य को नकारना। क्या यही इसका सार नहीं है? (यही है।) तुम परमेश्वर की इच्छा का पालन करने के बजाय, शैतान की एक दानवी कहावत और सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों को कलीसिया में निरंकुशता करने दे रहे हो। ऐसा करके, तुम खुद शैतान के सहयोगी बन जाते हो और कलीसिया में शैतान की गतिविधियों को अंजाम देने में उसकी सहायता करते हो और कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधाएँ डालते हो। इस समस्या का सार गंभीर है, है ना?

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण एक : सत्य क्या है

तो कभी हार न मानने का क्या अर्थ है? यह तब होता है जब कोई व्यक्ति असफल होता है, बाधाओं का सामना करता है, या भटककर गलत मार्ग पर आ जाता है, लेकिन इसे स्वीकार नहीं करता है। वह बस जिद पकड़कर चलता रहता है। वह असफल तो होता है, लेकिन हिम्मत नहीं हारता है, वह असफल तो होता है, लेकिन अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करता है। चाहे कितने भी लोग उसे डाँटें या उसकी निंदा करें, वह वापस नहीं आता है। वह लड़ने, कार्य करने और अपनी दिशा में और अपने खुद के लक्ष्यों की तरफ बढ़ते रहने पर अड़ा रहता है, और कीमत के बारे में बिल्कुल नहीं सोचता है। यह वाक्यांश इसी किस्म की मानसिकता के बारे में बात करता है। क्या यह मानसिकता लोगों का मनोबल बढ़ाने के लिए बहुत अच्छी नहीं है? आम तौर पर, किन स्थितियों में “कभी हार मत मानो” का उपयोग किया जाता है? हर किस्म की स्थिति में। जहाँ भी भ्रष्ट मनुष्य मौजूद हैं, वहीं पर यह वाक्यांश मौजूद है; यह मानसिकता मौजूद है। तो शैतान की किस्म के मनुष्यों ने इस कहावत का सुझाव क्यों दिया? ताकि लोग खुद को कभी नहीं समझें, अपनी गलतियाँ नहीं पहचानें, और अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करें। ताकि लोग सिर्फ अपने उस पक्ष को ही नहीं देखें जो भंगुर, कमजोर और अयोग्य है, बल्कि अपने उस पक्ष को भी देखें जो काबिल है, और जो ताकतवर और दिलेर है, वे खुद को कम नहीं समझें, बल्कि सोचें कि वे योग्य हैं। जब तक तुम यह मानते हो कि तुम समर्थ हो, तब तक तुम समर्थ हो; जब तक तुम मानते हो कि तुम सफल हो सकते हो, तुम असफल नहीं होगे, और जब तक तुम यह मानते हो कि तुम सर्वश्रेष्ठ बन सकते हो, तब तक बिल्कुल ऐसा ही होगा। जब तक तुममें वह दृढ़ निश्चय और संकल्प है, वह महत्वाकांक्षा और इच्छा है, तब तक तुम यह सब हासिल कर सकते हो। लोग मामूली नहीं हैं; वे ताकतवर हैं। अविश्वासियों में एक कहावत है : “तुम्हारी अवस्था उतनी ही ऊँची होगी, जितना बड़ा तुम्हारा दिल होगा।” कुछ लोगों को यह कहावत सुनते ही पसंद आ जाती है : “वाह, मुझे एक दस कैरेट का हीरा चाहिए, तो क्या इसका अर्थ है कि मुझे यह मिल जाएगा? मुझे एक मर्सिडीज बेंज चाहिए, तो क्या इसका अर्थ है कि मुझे यह मिल जाएगी?” क्या तुम्हें जो मिलेगा वह तुम्हारे दिल की इच्छा के विस्तार से मेल खाएगा? (नहीं।) यह कहावत एक भ्रांति है। सीधे शब्दों में कहें तो, “कभी हार मत मानो” वाक्यांश पर विश्वास करने वाले और उसे स्वीकार करने वाले लोगों के अहंकार की कोई सीमा नहीं होती है। इन लोगों के सोचने का तरीका परमेश्वर के किन वचनों का सीधा खंडन करता है? परमेश्वर लोगों से यह अपेक्षा करता है कि वे खुद को समझें और व्यावहारिक तरीके से आचरण करें। लोगों के स्वभाव भ्रष्ट होते हैं; उनमें कमियाँ होती हैं और उनमें परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले स्वभाव होते हैं। मनुष्यों के बीच एक भी पूर्ण व्यक्ति नहीं है; कोई भी पूर्ण नहीं है; वे बस आम लोग हैं। परमेश्वर ने लोगों को किस तरीके से आचरण करने के लिए प्रोत्साहित किया? (शिष्ट तरीके से।) शिष्ट तरीके से आचरण करना, और व्यावहारिक तरीके से सृजित प्राणियों के रूप में अपने स्थान पर दृढ़ता से बने रहना। क्या कभी परमेश्वर ने लोगों से कभी हार नहीं मानने की अपेक्षा की है? (नहीं।) नहीं। तो परमेश्वर लोगों के गलत मार्ग पर चलने, या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने के बारे में क्या कहता है? (वह इसे मान लेने और स्वीकार करने के लिए कहता है।) इसे मान लो और स्वीकार करो, फिर इसे समझो, खुद को बदलने में और सत्य का अभ्यास करने में समर्थ बनो। इसके विपरीत, कभी हार नहीं मानना तब होता है जब लोग अपनी समस्याएँ नहीं समझते हैं, अपनी गलतियाँ नहीं समझते हैं, अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करते हैं, किसी भी मामले में खुद को नहीं बदलते हैं, और किसी भी मामले में पश्चात्ताप नहीं करते हैं, परमेश्वर की संप्रभुता या व्यवस्थाएँ स्वीकार करने की तो बात ही छोड़ दो। वे ना सिर्फ इसकी तलाश ही नहीं करते हैं कि लोगों का भाग्य वास्तव में क्या है, या परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाएँ क्या हैं—वे ना सिर्फ इन चीजों की तलाश ही नहीं करते हैं, बल्कि वे अपना भाग्य अपने हाथ में ले लेते हैं; वे चाहते हैं कि अंतिम फैसला उन्हीं का हो। इसके अलावा, परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है कि वे खुद को समझें, सटीकता से अपना मूल्यांकन करें और खुद को दर्जा दें, और व्यावहारिक और शिष्ट तरीके से वे जो कुछ भी कर सकते हैं, उसे करें, और उसे अपने पूरे दिल, दिमाग और आत्मा से करें, जबकि शैतान लोगों को उनके अहंकारी स्वभाव का पूरा उपयोग करने देता है, और उनके अहंकारी स्वभाव को खुली छूट देता है। यह लोगों को अतिमानवीय, महान बनाता है और यहाँ तक कि उन्हें महाशक्तियाँ भी प्रदान करता है—यह लोगों को ऐसी चीजें बना देता है जो वे नहीं हो सकते हैं। इसलिए, शैतान का फलसफा क्या है? यह ऐसा है कि भले ही तुम गलत हो, फिर भी तुम गलत नहीं हो, और जब तक तुममें हार न मानने की मानसिकता है, और जब तक तुममें कभी हार न मानने वाली मानसिकता है, तब तक देर-सवेर एक दिन ऐसा आएगा जब तुम सर्वश्रेष्ठ बन जाओगे, और देर-सवेर एक दिन ऐसा आएगा जब तुम्हारी इच्छाएँ और लक्ष्य साकार हो जाएँगे। तो, क्या कभी हार न मानने का यह अर्थ मानने में कि तुम कोई चीज हासिल करने के लिए किसी भी साधन का उपयोग करोगे, कोई समझदारी है? अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए, तुम्हें यह स्वीकार नहीं करना चाहिए कि तुम असफल हो सकते हो, तुम्हें यह नहीं मानना चाहिए कि तुम एक आम व्यक्ति हो, और तुम्हें यह नहीं मानना चाहिए कि तुम गलत मार्ग का अनुसरण करने के काबिल हो। इसके अलावा, तुम्हें अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ साकार करने के लिए बेईमानी से हर तरह के तरीके या गुप्त योजना का उपयोग करना चाहिए। क्या कभी हार नहीं मानने के बारे में ऐसा कुछ है जिसमें लोग अपने भाग्य को प्रतीक्षा और समर्पण के रवैये से देखते हैं? (नहीं।) नहीं। लोग अपना भाग्य पूरी तरह से अपने हाथ में लेने पर अड़े रहते हैं; वे अपने भाग्य पर खुद नियंत्रण करना चाहते हैं। चाहे यह इस बारे में हो कि वे किस तरफ जाएँगे, उन्हें आशीष मिलेगा या नहीं या उनकी जीवनशैली कैसी होगी, हर चीज में अंतिम फैसला उन्हीं का होना चाहिए।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण एक : सत्य क्या है

“उठाए गए धन को जेब में मत रखो” और “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ” कहावतों की तरह ही “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” भी उन माँगों में से एक है, जो परंपरागत संस्कृति लोगों के नैतिक आचरण के संबंध में करती है। इसी तरह, चाहे कोई व्यक्ति इस नैतिक आचरण को प्राप्त या इसका अभ्यास कर सकता हो या नहीं, फिर भी यह उनकी मानवता मापने का मानक या प्रतिमान नहीं है। हो सकता है, तुम वाकई अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनने में सक्षम हो और खुद के लिए विशेष रूप से उच्च मानक रखते हो। हो सकता है, तुम बहुत साफ-सुथरे हो और बिना स्वार्थी हुए और बिना अपने हितों की परवाह किए हमेशा दूसरों के बारे में सोचते हो और उनके प्रति सम्मान दिखाते हो। हो सकता है, तुम विशेष रूप से उदार और निस्स्वार्थ प्रतीत होते हो, और सामाजिक उत्तरदायित्व और सामाजिक नैतिकताएँ रखते हो। हो सकता है, तुम्हारा उच्च व्यक्तित्व और गुण तुम्हारे करीबी लोगों और उनके देखने के लिए हो, जिनसे तुम मिलते और बातचीत करते हो। हो सकता है, तुम्हारा व्यवहार कभी भी दूसरों को तुम्हें दोष देने या तुम्हारी आलोचना करने का कोई कारण न दे, बल्कि अत्यधिक प्रशंसा और सराहना प्राप्त कराए। हो सकता है, लोग तुम्हें ऐसा व्यक्ति समझें, जो वाकई अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु है। लेकिन ये बाहरी व्यवहार से ज्यादा कुछ नहीं हैं। क्या तुम्हारे दिल की गहराई में मौजूद विचार और इच्छाएँ इन बाहरी व्यवहारों, इन कार्यों के अनुरूप हैं जो तुम बाहरी तौर पर जीते हो? जवाब है नहीं, वे उनके अनुरूप नहीं हैं। तुम्हारे इस तरह से कार्य कर पाने का कारण यह है कि इसके पीछे एक मकसद है। वह मकसद आखिर क्या है? क्या तुम उस मकसद का सार्वजनिक होना सहन कर सकते हो? निश्चित रूप से नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि यह मकसद ऐसी चीज है जिसका उल्लेख नहीं किया जा सकता, ऐसी चीज जो अंधकारपूर्ण और बुरी है। अब, यह मकसद अवर्णनीय और बुरा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि लोगों की मानवता उनके भ्रष्ट स्वभावों से नियंत्रित और संचालित होती है। मानवता के तमाम विचारों पर, चाहे लोग उन्हें शब्दों में व्यक्त करें या उड़ेलें, निर्विवाद रूप से उनके भ्रष्ट स्वभाव हावी होते और नियंत्रण रखते हैं और उनमें फेरबदल करते हैं। नतीजतन, लोगों के तमाम मकसद और इरादे भयावह और बुरे होते हैं। चाहे लोग अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बन पाएँ या नहीं, या वे बाहरी तौर पर इस नैतिकता को पूरी तरह से व्यक्त करें या नहीं, यह अपरिहार्य है कि इस नैतिकता का उनकी मानवता पर कोई नियंत्रण या प्रभाव नहीं होगा। तो, लोगों की मानवता को क्या नियंत्रित करता है? वे उनके भ्रष्ट स्वभाव हैं, वह उनका मानवता-सार है जो “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” की नैतिकता के नीचे छिपा रहता है—यही उनकी वास्तविक प्रकृति है। किसी व्यक्ति की असली प्रकृति उसका मानवता-सार होती है। और उसके मानवता-सार में क्या-क्या शामिल होता है? इसमें मुख्य रूप से उनकी प्राथमिकताएँ, उनके अनुसरण, जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण और उनकी मूल्य-व्यवस्था, और साथ ही सत्य और परमेश्वर के प्रति उनका रवैया इत्यादि शामिल रहते हैं। सिर्फ ये चीजें ही वास्तव में लोगों का मानवता-सार दर्शाती हैं। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जो लोग खुद से “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु” होने की नैतिकता पूरी करने की अपेक्षा करते हैं, वे हैसियत के प्रति आसक्त हैं। अपने भ्रष्ट स्वभाव से संचालित होने के कारण वे दूसरों की नजरों में लोगों के बीच प्रतिष्ठा, सामाजिक ख्याति और हैसियत के पीछे दौड़े बिना नहीं रह पाते। ये सभी चीजें उनकी हैसियत पाने की इच्छा से संबंधित हैं, और उनके अच्छे नैतिक आचरण की आड़ में इनके पीछे दौड़ा जाता है। और उनके ये अनुसरण कहाँ से आते हैं? वे पूरी तरह से उनके भ्रष्ट स्वभावों से आते और प्रेरित होते हैं। इसलिए, चाहे कुछ भी हो, चाहे कोई “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु” होने की नैतिकता पूरी करता हो या नहीं, और चाहे वह ऐसा पूर्णता के साथ करता हो या नहीं, यह उनका मानवता-सार बिल्कुल नहीं बदल सकता। इसका निहितार्थ यह है कि यह किसी भी तरह से जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण या उनकी मूल्य-प्रणाली नहीं बदल सकता, या तमाम लोगों, घटनाओं और चीजों पर उनके रवैये और दृष्टिकोण निर्देशित नहीं कर सकता। क्या ऐसा नहीं है? (है।) जितना ज्यादा कोई व्यक्ति अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनने में सक्षम होता है, उतना ही वह दिखावा करने में, खुद को छिपाने में, और दूसरों को अच्छे व्यवहार और मनभावन शब्दों से गुमराह करने में बेहतर होता है, और उतना ही ज्यादा वह प्रकृति से कपटी और दुष्ट होता है। जितना ज्यादा वह इस प्रकार का व्यक्ति होता है, हैसियत और ताकत के प्रति उसका प्रेम और अनुसरण उतना ही गहरा होता जाता है। उसका बाहरी नैतिक आचरण कितना भी महान, गौरवशाली और सही क्यों न प्रतीत होता हो, और लोगों के लिए उसे देखना कितना भी सुखद क्यों न हो, उसके दिल की गहराइयों में मौजूद अनकहा अनुसरण, और साथ ही उसका प्रकृति-सार, यहाँ तक कि उसकी महत्वाकांक्षाएँ भी किसी भी समय उसके भीतर से फूटकर बाहर आ सकती हैं। इसलिए, उसका नैतिक आचरण कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह उसके आंतरिक मानवता-सार या उसकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ नहीं छिपा सकता। वह उसके भयानक प्रकृति-सार को नहीं छिपा सकता, जो सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता और सत्य से विमुख होता और घृणा करता है। जैसा कि इन तथ्यों से पता चलता है, “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” कहावत बहुत बेतुकी है—यह उन महत्वाकांक्षी किस्म के लोगों को उजागर करती है, जो ऐसी कहावतों और व्यवहारों का उपयोग अपनी उन महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को ढकने के लिए करने का प्रयास करते हैं, जिनके बारे में वे बोल नहीं सकते। तुम लोग इसकी तुलना कलीसिया के कुछ मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों से कर सकते हो। कलीसिया के भीतर अपनी हैसियत और ताकत सुदृढ़ करने और अन्य सदस्यों के बीच बेहतर प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए, वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम होते हैं, वे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर अपने काम और परिवारों को भी त्याग सकते हैं और अपना सब-कुछ बेच भी सकते हैं। कुछ मामलों में, परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर उनके द्वारा चुकाई जाने वाली कीमतें और उठाया जाने वाला कष्ट एक औसत व्यक्ति की सहनशक्ति से भी ज्यादा होता है; अपनी हैसियत बनाए रखने के लिए वे अत्यधिक आत्म-त्याग की भावना साकार करने में सक्षम रहते हैं। फिर भी, चाहे वे कितना भी कष्ट सहें या चाहे कोई भी कीमत चुकाएँ, उनमें से कोई भी परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकता या परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करता, न ही वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करते हैं। जिस लक्ष्य का वे अनुसरण करते हैं, वह सिर्फ हैसियत, ताकत और परमेश्वर से पुरस्कार प्राप्त करना है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसका सत्य से रत्ती भर भी संबंध नहीं होता। चाहे वे अपने प्रति कितने भी सख्त और दूसरों के प्रति कितने भी सहिष्णु हों, उनका अंतिम परिणाम क्या होगा? परमेश्वर उनके बारे में क्या सोचेगा? क्या वह उनके बाहरी अच्छे व्यवहारों के आधार पर, जिन्हें वे जीते हैं, उनका परिणाम निर्धारित करेगा? निश्चित रूप से नहीं। लोग इन व्यवहारों और अभिव्यक्तियों के आधार पर दूसरों को देखते और उनका आकलन करते हैं, और चूँकि वे अन्य लोगों का सार नहीं समझ पाते, इसलिए वे अंततः उनके द्वारा धोखा खाते हैं। लेकिन परमेश्वर कभी मनुष्य से धोखा नहीं खाता। वह इसलिए लोगों के नैतिक आचरण की सराहना बिल्कुल नहीं करेगा और उन्हें याद नहीं रखेगा कि वे अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनने में सक्षम थे। इसके बजाय, वह उनकी महत्वाकांक्षाओं और हैसियत की खोज में उनके द्वारा अपनाए गए मार्गों के लिए उनकी निंदा करेगा। इसलिए, सत्य का अनुसरण करने वालों को लोगों के मूल्यांकन की इस कसौटी की समझ होनी चाहिए। उन्हें इस बेतुके मानक को पूरी तरह से नकार कर त्याग देना चाहिए और लोगों को परमेश्वर के वचनों और सत्य-सिद्धांतों के अनुसार पहचानना चाहिए। उन्हें मुख्य रूप से यह देखना चाहिए कि व्यक्ति सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है या नहीं, वह सत्य स्वीकारने में सक्षम है या नहीं और वह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सकता है या नहीं, और साथ ही वह मार्ग भी देखना चाहिए, जिसे वह चुनता और जिस पर वह चलता है, और इन चीजों के आधार पर यह वर्गीकृत करना चाहिए कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है और उसमें किस तरह की मानवता है। जब लोग “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” के मानक के आधार पर दूसरों का मूल्यांकन करते हैं, तो भटकाव और त्रुटियाँ उत्पन्न होना बहुत आसान है। अगर तुम मनुष्य से आए सिद्धांतों और कहावतों के आधार पर व्यक्ति को गलत तरीके से पहचानते और देखते हो, तो तुम उस मामले में सत्य का उल्लंघन और परमेश्वर का विरोध कर रहे होगे। ऐसा क्यों है? इसका कारण यह है कि लोगों के बारे में तुम्हारे विचारों का आधार गलत, और परमेश्वर के वचनों और सत्य के साथ असंगत होगा—यहाँ तक कि वह उनके विरुद्ध और विपरीत भी हो सकता है। परमेश्वर नैतिक आचरण से संबंधित इस कथन के आधार पर लोगों की मानवता का मूल्यांकन नहीं करता, “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो,” इसलिए अगर तुम फिर भी इस कसौटी के अनुसार लोगों की नैतिकता का आकलन करने और यह निर्धारित करने पर जोर देते हो कि वे किस तरह के व्यक्ति हैं, तो तुमने सत्य-सिद्धांतों का पूरी तरह से उल्लंघन किया है, और तुम त्रुटियाँ करने, और कुछ गलतियाँ और भूलें करने के लिए बाध्य हो। क्या ऐसा नही है? (ऐसा ही है।)

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (6)

सांसारिक आचरण के फलसफों में एक सिद्धांत है, जो कहता है, “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।” इसका मतलब है कि मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए अपने मित्र की समस्याओं के बारे में चुप रहना चाहिए, भले ही वे स्पष्ट दिखें—उन्हें लोगों के चेहरे पर वार न करने या उनकी कमियों की आलोचना न करने के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। लोगों को एक-दूसरे को धोखा देना चाहिए, एक-दूसरे से छिपाना चाहिए, एक दूसरे के साथ साजिश करने में लिप्त होना चाहिए; और हालाँकि वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति किस तरह का है, पर वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते, बल्कि अपना मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए शातिर तरीके अपनाते हैं। ऐसे संबंध व्यक्ति क्यों बनाए रखना चाहेगा? यह इस समाज में, अपने समूह के भीतर दुश्मन न बनाना चाहने के लिए होता है, जिसका अर्थ होगा खुद को अक्सर खतरनाक स्थितियों में डालना। यह जानकर कि किसी की कमियाँ बताने या उसे चोट पहुँचाने के बाद वह तुम्हारा दुश्मन बन जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुँचाएगा, और खुद को ऐसी स्थिति में न डालने की इच्छा से तुम सांसारिक आचरण के ऐसे फलसफों का इस्तेमाल करते हो, “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।” इसके आलोक में, अगर दो लोगों का संबंध ऐसा है, तो क्या वे सच्चे दोस्त माने जा सकते हैं? (नहीं।) वे सच्चे दोस्त नहीं होते, एक-दूसरे के विश्वासपात्र तो बिल्कुल नहीं होते। तो, यह वास्तव में किस तरह का संबंध है? क्या यह एक मूलभूत सामाजिक संबंध नहीं है? (हाँ, है।) ऐसे सामाजिक संबंधों में लोग अपनी भावनाएँ जाहिर नहीं कर सकते, न ही गहन विचार-विनिमय कर सकते हैं, न यह बता सकते हैं कि वे क्या चाहते हैं। वे अपने दिल की बात, या जो समस्याएँ वे दूसरे में देखते हैं, या ऐसे शब्द जो दूसरे के लिए लाभदायक हों, जोर से नहीं कह सकते। इसके बजाय, वे अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं ताकि औरों का समर्थन मिलता रहे। वे सच बोलने या सिद्धांतों का पालन करने की हिम्मत नहीं करते, कि कहीं लोगों के साथ उनकी दुश्मनी न हो जाए। जब किसी व्यक्ति को कोई भी धमका नहीं रहा होता, तो क्या वह व्यक्ति अपेक्षाकृत आराम और शांति से नहीं रहता? क्या “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” को प्रचारित करने में लोगों का यही लक्ष्य नहीं है? (हाँ, है।) स्पष्ट रूप से, यह अस्तित्व का एक शातिर, कपटपूर्ण तरीका है, जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है। इस तरह जीने वाले लोगों का कोई विश्वासपात्र नहीं होता, कोई करीबी दोस्त नहीं होता, जिससे वे जो चाहें कह सकें। वे एक-दूसरे के साथ रक्षात्मक होते हैं, हिसाब लगाते और रणनीतिक होते हैं, दोनों ही उस रिश्ते से जो चाहते हैं, वह लेते हैं। क्या ऐसा नहीं है? मूल रूप से “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” का लक्ष्य दूसरों को ठेस पहुँचाने और दुश्मन बनाने से बचना है, किसी को चोट न पहुँचाकर अपनी रक्षा करना है। यह व्यक्ति द्वारा खुद को चोट पहुँचने से बचाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीका है। इसके सार के इन विभिन्न पहलुओं को देखते हुए, क्या लोगों के नैतिक आचरण से यह माँग कि “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” नेक है? क्या यह सकारात्मक माँग है? (नहीं।) तो फिर यह लोगों को क्या सिखा रहा है? कि तुम्हें किसी को परेशान नहीं करना चाहिए या किसी को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए, वरना तुम खुद चोट खाओगे; और यह भी, कि तुम्हें किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए। अगर तुम अपने किसी अच्छे दोस्त को चोट पहुँचाते हो, तो दोस्ती धीरे-धीरे बदलने लगेगी : वे तुम्हारे अच्छे, करीबी दोस्त न रहकर अजनबी या तुम्हारे दुश्मन बन जाएँगे। लोगों को ऐसा करना सिखाने से कौन-सी समस्याएँ हल हो सकती हैं? भले ही इस तरह से कार्य करने से, तुम शत्रु नहीं बनाते और कुछ शत्रु कम भी हो जाते हैं, तो क्या इससे लोग तुम्हारी प्रशंसा और अनुमोदन करेंगे और हमेशा तुम्हारे मित्र बने रहेंगे? क्या यह नैतिक आचरण के मानक को पूरी तरह से हासिल करता है? अपने सर्वोत्तम रूप में, यह सांसारिक आचरण के एक फलसफे से अधिक कुछ नहीं है। क्या इस कथन और अभ्यास का पालन करना अच्छा नैतिक आचरण माना जा सकता है? बिल्कुल नहीं। कुछ माता-पिता इसी तरह से अपने बच्चों को शिक्षित करते हैं। अगर उनका बच्चा बाहर कहीं पिट जाता है, तो वे बच्चे से कहते हैं, “तुम कायर हो। तुमने पलटवार क्यों नहीं किया? अगर वह तुम्हें घूँसा मारे, तो तुम उसे लात मारो!” क्या यह सही तरीका है? (नहीं।) इसे क्या कहा जाता है? इसे उकसाना कहा जाता है। उकसाने का क्या उद्देश्य होता है? नुकसान से बचना और दूसरों का फायदा उठाना। अगर कोई तुम्हें घूँसा मारता है, तो ज्यादा से ज्यादा, कुछ दिनों के लिए दर्द होगा; लेकिन अगर तुम उसे लात मारते हो, तो क्या इसके ज्यादा गंभीर परिणाम नहीं होंगे? और ऐसा किसके कारण होगा? (माता-पिता के कारण, जिन्होंने उकसाया था।) तो क्या “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” कथन का चरित्र कुछ हद तक इसके समान ही नहीं है? क्या इस कथन के अनुसार दूसरे लोगों से व्यवहार करना सही है? (नहीं।) नहीं, यह सही नहीं है। इसे इस कोण से देखने पर, क्या यह लोगों को उकसाने का एक तरीका नहीं है? (हाँ, है।) क्या यह लोगों को दूसरों के साथ बातचीत करते समय बुद्धिमान होना, लोगों में अंतर कर पाना, लोगों और चीजों को सही तरीके से देखना, और लोगों के साथ बुद्धिमानी से बातचीत करना सिखाता है? क्या यह तुम्हें सिखाता है कि अगर तुम अच्छे लोगों से, मानवता वाले लोगों से मिलते हो, तो तुम्हें उनके साथ ईमानदारी से व्यवहार करना चाहिए, कर पाओ तो उनकी मदद करनी चाहिए, और अगर न कर पाओ तो सहिष्णु होकर उनके साथ ठीक से व्यवहार करना चाहिए, अपने बारे में उनकी गलतफहमियाँ और आलोचनाएँ झेलनी चाहिए, और उनकी खूबियों और सद्गुणों से सीखना चाहिए? क्या यह लोगों को यही सिखाता है? (नहीं।) तो, जो यह कहावत लोगों को सिखाती है, उससे अंत में क्या होता है? यह लोगों को ज्यादा ईमानदार बनाता है या ज्यादा कपटी? इसके परिणामस्वरूप लोग और ज्यादा कपटी हो जाते हैं; लोगों के दिल और ज्यादा दूर हो जाते हैं, लोगों के बीच की दूरी बढ़ जाती है, और लोगों के रिश्ते जटिल हो जाते हैं; यह लोगों के सामाजिक संबंधों में एक जटिलता के बराबर है। लोगों के बीच दिली संवाद खो जाता है, और आपस में सँभलकर बोलने की मानसिकता पैदा हो जाती है। क्या इस तरह लोगों के रिश्ते अभी भी सामान्य रह सकते हैं? क्या इससे सामाजिक माहौल में सुधार होगा? (नहीं।) इसलिए “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” कहावत स्पष्ट रूप से गलत है। लोगों को ऐसा करना सिखाने से वे सामान्य मानवता नहीं जी सकते; इतना ही नहीं, यह लोगों को निष्कपट, खरा या स्पष्टवादी नहीं बना सकता। यह कुछ भी सकारात्मक प्राप्त नहीं कर सकता।

“अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” ये कहावत दो कार्यों को संदर्भित करती है : एक तो वार करने का कार्य, और दूसरा आलोचना करने का। दूसरों के साथ लोगों की सामान्य बातचीत में, किसी पर वार करना सही है या गलत? (गलत।) क्या किसी पर वार करना दूसरों के साथ बातचीत में सामान्य मानवता का प्रदर्शन और व्यवहार है? (नहीं।) लोगों पर वार करना निश्चित रूप से गलत है, चाहे तुम उनके चेहरे पर वार करो या कहीं और। इसलिए, “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो” कथन सहज रूप से गलत है। इस कहावत के अनुसार किसी के चेहरे पर वार करना जाहिर तौर पर सही नहीं है, लेकिन कहीं और वार करना सही है, क्योंकि चेहरे पर वार करने के बाद वह लाल हो जाता है, सूज जाता है और जख्मी हो जाता है। इससे व्यक्ति खराब और अनाकर्षक दिखने लगता है, और यह ये भी दिखाता है कि तुम लोगों के साथ बहुत असभ्य, अपरिष्कृत और हेय तरीके से व्यवहार करते हो। तो, क्या लोगों पर अन्यत्र प्रहार करना उत्तम है? नहीं—वह भी उत्तम नहीं है। वास्तव में, इस कहावत का केंद्र-बिंदु किसी पर वार करना नहीं है, बल्कि खुद “वार” शब्द है। दूसरों के साथ बातचीत करते समय, अगर तुम समस्याओं से निपटने के तरीके के रूप में हमेशा दूसरों पर वार करते हो, तो तुम्हारा तरीका ही गलत है। यह उग्रता से किया जाता है और व्यक्ति की मानवता के जमीर और विवेक पर आधारित नहीं होता, और निश्चित रूप से, यह सत्य का अभ्यास या सत्य सिद्धांतों का पालन करना तो बिल्कुल भी नहीं है। कुछ लोग दूसरों की उपस्थिति में उनकी गरिमा पर हमला नहीं करते—वे जो कहते हैं, उसमें सावधान रहते हैं और दूसरे के चेहरे पर वार करने से बचते हैं, लेकिन हमेशा उनकी पीठ पीछे गंदी हरकतें करते रहते हैं, मेज के ऊपर तो हाथ मिलाते हैं लेकिन नीचे से उन्हें लात मारते हैं, उनके सामने अच्छी बातें कहते हैं लेकिन उनकी पीठ पीछे उनके खिलाफ साजिश करते हैं, उनकी कमी निकालकर उसका उनके खिलाफ इस्तेमाल करते हैं, बदला लेने, फँसाने और कुचक्र रचने, अफवाहें फैलाना, या झगड़ा करवाने और उनकी आलोचना करने के लिए अन्य लोगों का उपयोग करने के मौकों की ताक में रहते हैं। किसी के चेहरे पर वार करने की तुलना में ये कपटपूर्ण तरीके कितने बेहतर हैं? क्या ये किसी के चेहरे पर वार करने से भी ज्यादा गंभीर नहीं हैं? क्या ये और भी कपटपूर्ण, शातिर, और मानवता से रहित नहीं हैं? (हाँ, हैं।) तो फिर, “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो” कथन सहज रूप से अर्थहीन है। यह दृष्टिकोण अपने आप में एक गलती है, इसमें झूठे दिखावे भी हैं। यह एक पाखंडी तरीका है, जो इसे और भी गर्हित, घिनौना और वीभत्स बना देता है। अब हम स्पष्ट हैं कि लोगों पर वार उग्रता से किया जाता है। तुम किस आधार पर किसी पर वार करते हो? क्या यह कानून द्वारा अधिकृत है, या यह तुम्हारा परमेश्वर-प्रदत्त अधिकार है? यह इनमें से कुछ नहीं है। तो, लोगों पर वार क्यों करना? अगर तुम किसी के साथ सामान्य रूप से मिलजुलकर रह सकते हो, तो तुम उसके साथ मिलजुलकर रहने और बातचीत करने के लिए सही तरीकों का उपयोग कर सकते हो। अगर तुम उनके साथ मिलजुलकर नहीं रह सकते, तो उग्रता से काम किए बिना या मारपीट न करते हुए अपने अलग रास्ते पर जा सकते हो। मानवता के जमीर और विवेक के दायरे में, यह ऐसी चीज होनी चाहिए जिसे लोग करते हैं। जैसे ही तुम उग्रता से काम करते हो, भले ही तुम उस व्यक्ति के चेहरे पर वार न करो बल्कि कहीं और करो, यह एक गंभीर समस्या है। यह बातचीत करने का सामान्य तरीका नहीं है। ऐसा तो दुश्मन करते हैं, यह सामान्य लोगों की बातचीत का तरीका नहीं है। यह मानवता की भावना के दायरे से बाहर है। “अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” कहावत में “आलोचना करना” वाक्यांश अच्छा है या बुरा? क्या “आलोचना करना” वाक्यांश का वह स्तर है, जिसे यह परमेश्वर के वचनों में लोगों के प्रकट या उजागर होने को संदर्भित करता है? (नहीं।) मेरी समझ से “आलोचना करना” वाक्यांश का, जिस रूप में यह इंसानी भाषा में मौजूद है, यह अर्थ नहीं है। इसका सार उजागर करने के एक दुर्भावनापूर्ण रूप का है : इसका अर्थ है लोगों की समस्याएँ और कमियाँ, या कुछ ऐसी चीजें और व्यवहार जो दूसरों को ज्ञात नहीं हैं, या पृष्ठभूमि में चल रहे षड्यंत्रकारी विचार या दृष्टिकोण प्रकट करना। “अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” कहावत में “आलोचना करना” वाक्यांश का यही अर्थ है। अगर दो लोगों में अच्छी बनती है और वे विश्वासपात्र हैं, उनके बीच कोई बाधा नहीं है और उनमें से प्रत्येक को दूसरे के लिए फायदेमंद और मददगार होने की आशा है, तो उनके लिए सबसे अच्छा होगा यही कि वे एक-साथ बैठें, खुलेपन और ईमानदारी से एक-दूसरे की समस्याएँ सामने रखें। यह उचित है और यह दूसरे की कमियों की आलोचना करना नहीं है। अगर तुम्हें किसी व्यक्ति में समस्याएँ दिखती हैं, लेकिन दिख रहा है कि वह व्यक्ति अभी तुम्हारी सलाह मानने को तैयार नहीं है, तो झगड़े या संघर्ष से बचने के लिए उससे कुछ न कहो। अगर तुम उसकी मदद करना चाहते हो, तो तुम उसकी राय माँग सकते हो और पहले उससे पूछ सकते हो, “मुझे लगता है कि तुम में कुछ समस्या है और मैं तुम्हें थोड़ी सलाह देना चाहता हूँ। पता नहीं, तुम इसे स्वीकार पाओगे या नहीं। अगर स्वीकार पाओ, तो मैं तुम्हें बताऊँगा। अगर न स्वीकार पाओ, तो मैं फिलहाल इसे अपने तक ही रखूंगा और कुछ नहीं बोलूंगा।” अगर वह कहता है, “मुझे तुम पर भरोसा है। तुम्हें जो भी कहना हो, वह अस्वीकार्य नहीं होगा; मैं उसे स्वीकार सकता हूँ,” तो इसका मतलब है कि तुम्हें अनुमति मिल गई है और तुम एक-एक कर उसे उसकी समस्याएँ बता सकते हो। वह न केवल तुम्हारा कहा पूरी तरह से मानेगा, बल्कि इससे उसे फायदा भी होगा तुम दोनों अभी भी एक सामान्य संबंध बनाए रख पाओगे। क्या यह एक-दूसरे के साथ ईमानदारी से व्यवहार करना नहीं है? (बिल्कुल है।) यह दूसरों के साथ बातचीत करने का सही तरीका है; यह दूसरे की कमियों की आलोचना करना नहीं है। इस कहावत के अनुसार “दूसरों की कमियों की आलोचना न करने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है दूसरों की कमियों के बारे में बात न करना, उनकी सबसे निषिद्ध समस्याओं के बारे में बात न करना, उनकी समस्या का सार उजागर न करना और आलोचना करने में ज्यादा मुखर न होना। इसका अर्थ है सिर्फ सतही टिप्पणी करना, वही बातें कहना जो सभी लोगों द्वारा सामान्य रूप से कही जाती हैं, वही बातें कहना जो वह व्यक्ति पहले से ही खुद भी समझता है और उन गलतियों को प्रकट नहीं करना जो व्यक्ति पहले कर चुका है या जो संवेदनशील मुद्दे हैं। अगर तुम इस तरह से कार्य करते हो, तो इससे व्यक्ति को क्या लाभ होता है? शायद तुमने उसका अपमान नहीं किया होगा या उसे अपना दुश्मन नहीं बनाया होगा, लेकिन तुमने जो किया है, उससे उसे कोई मदद या लाभ नहीं हुआ है। इसलिए, यह वाक्यांश कि “दूसरों की कमियों की आलोचना मत करो” अपने आपमें टालमटोल और कपट का एक रूप है, जो लोगों के एक-दूसरे के साथ व्यवहार में ईमानदारी नहीं रहने देते। यह कहा जा सकता है कि इस तरह से कार्य करना बुरे इरादों को आश्रय देना है; यह दूसरों के साथ बातचीत करने का सही तरीका नहीं है। गैर-विश्वासी तो “अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” को ऐसे देखते हैं, जैसे उच्च आदर्शों वाले व्यक्ति को यही करना चाहिए। यह स्पष्ट रूप से दूसरों के साथ बातचीत करने का एक कपटपूर्ण तरीका है, जिसे लोग अपनी रक्षा के लिए अपनाते हैं; यह बातचीत का बिल्कुल भी उचित तरीका नहीं है।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8)

परंपरागत चीनी संस्कृति की नैतिक आचरण संबंधी यह कहावत “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो,” एक ऐसा सिद्धांत है जो लोगों को संयमित और प्रबुद्ध करता है। यह सिर्फ छोटे-मोटे विवाद और तुच्छ संघर्ष ही हल कर सकती है, लेकिन जब गहरी नफरत पालने वाले लोगों की बात आती है तो इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। क्या यह अपेक्षा सामने रखने वाले लोग वास्तव में मनुष्य की मानवता को समझते हैं? कहा जा सकता है कि यह अपेक्षा सामने रखने वाले लोग किसी भी तरह से इस बात से अनभिज्ञ नहीं हैं कि इंसानी जमीर और विवेक की सहनशीलता का दायरा कितना बड़ा है। बस इतना है कि यह सिद्धांत सामने रखने से वे दुनियादार और नेक दिखाई दे सकते हैं और लोगों की स्वीकृति और चापलूसी अर्जित कर सकते हैं। तथ्य यह है कि वे अच्छी तरह जानते हैं कि अगर कोई व्यक्ति किसी की गरिमा या चरित्र को ठेस पहुँचाता है, उसके हितों को नुकसान पहुँचाता है या उसकी भविष्य की संभावनाओं और उसके पूरे जीवन पर भी असर डालता है, तो मानव-प्रकृति के दृष्टिकोण से आहत पक्ष को प्रतिकार करना चाहिए। चाहे उसमें कितना भी जमीर और विवेक क्यों न हो, वह उसे चुपचाप बरदाश्त नहीं करेगा। ज्यादा से ज्यादा, उसके प्रतिशोध की मात्रा और तरीका ही भिन्न होगा। ...

ऐसा क्यों है कि लोग नफरत छोड़ सकते हैं? इसके मुख्य कारण क्या हैं? एक ओर, वे नैतिक आचरण संबंधी इस कहावत से प्रभावित होते हैं—“मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” दूसरी ओर, वे इस विचार से चिंतित होते हैं कि अगर वे मन में छोटी-मोटी शिकायतें पालेंगे, लगातार लोगों से घृणा करेंगे और दूसरों के प्रति असहिष्णु रहेंगे तो वे समाज में एक मुकाम हासिल करने में असमर्थ होंगे, जनमत उनकी निंदा करेगा और लोग उनकी हँसी उड़ाएँगे, इसलिए उन्हें मन मारकर और अनिच्छा से अपना गुस्सा पी लेना चाहिए। एक ओर, इंसानी प्रवृत्ति को देखते हुए इस संसार में रहने वाले लोग यह सब अत्याचार, निर्मम चोट और अनुचित व्यवहार सहन नहीं कर सकते। कहने का तात्पर्य यह है कि ये चीजें सहन कर पाना मानव-प्रकृति में नहीं है। इसलिए, किसी से भी यह अपेक्षा रखना अनुचित और अमानवीय है कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” दूसरी ओर, यह स्पष्ट है कि इस तरह के विचार और दृष्टिकोण इन मामलों पर लोगों के विचारों और परिप्रेक्ष्यों को प्रभावित या विकृत भी करते हैं, इसलिए वे ऐसे मामलों को ठीक से लेने में असमर्थ रहते हैं, बल्कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” जैसी कहावतों को सही और सकारात्मक चीजें समझते हैं। जब लोगों के साथ अनुचित व्यवहार किया जाता है, तो जनमत की निंदा से बचने के लिए उनके पास अपने अपमान और अपने साथ हुए भेदभाव को दबा देने और प्रतिशोध का अवसर मिलने की प्रतीक्षा करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। भले ही वे पुरजोर अच्छी-अच्छी बातें कहते हों, जैसे “‘मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।’ भूल जाओ, प्रतिशोध में कुछ नहीं रखा, बात पुरानी पड़ चुकी है,” लेकिन मानव-प्रवृत्ति उन्हें इस घटना से हुआ नुकसान भूलने से हमेशा रोकती है, यानी इससे उनके तन-मन को जो नुकसान हुआ होता है, वह कभी मिटाया या धूमिल नहीं किया जा सकता। जब लोग कहते हैं, “नफरत भूल जाओ, यह मामला खत्म हो गया है, बात पुरानी पड़ चुकी है,” तो यह सिर्फ “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” जैसे विचारों और दृष्टिकोणों की बाध्यता और प्रभाव से बना एक मुखौटा होता है। बेशक, लोग भी इस तरह के विचारों और दृष्टिकोणों से इस हद तक बँधे होते हैं कि वे सोचते हैं कि अगर वे इन्हें अमल में लाने में सफल नहीं होते, अगर उनमें जहाँ कहीं भी संभव हो, उदार होने का दिल या उदारता नहीं है, तो सभी उन्हें हेय दृष्टि से देखेंगे और उनकी निंदा करेंगे, और समाज में या उनके समुदाय के भीतर उनके साथ और भी ज्यादा भेदभाव किया जाएगा। भेदभाव किए जाने का क्या परिणाम होता है? यही कि जब तुम लोगों के संपर्क में आकर अपना रोजमर्रा का काम करोगे तो वे कहेंगे, “यह आदमी ओछा और प्रतिशोधी है। इसके साथ पेश आते समय सावधान रहना!” जब तुम समुदाय के भीतर अपना रोजमर्रा का काम करते हो तो यह प्रभावी रूप से एक अतिरिक्त बाधा बन जाता है। यह अतिरिक्त बाधा क्यों होती है? क्योंकि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” जैसे विचारों और दृष्टिकोणों से समाज समग्र रूप से प्रभावित होता है। समग्र रूप से समाज के रीति-रिवाज इस तरह की सोच का सम्मान करते हैं और पूरा समाज इससे सीमित, प्रभावित और नियंत्रित होता है, इसलिए अगर तुम इसे अमल में नहीं ला सकते तो समाज में पैर जमाना और अपने समुदाय के भीतर बचे रहना मुश्किल होगा। इसलिए, कुछ लोगों के पास दयनीय जीवन जीते हुए इस तरह के सामाजिक रीति-रिवाजों के आगे सिर झुकाने और “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” जैसी कहावतों और विचारों का पालन करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होता। इन परिघटनाओं के आलोक में क्या नैतिक विचारों और दृष्टिकोणों के बारे में ये चीजें सामने रखने में तथाकथित नैतिकतावादियों के कुछ उद्देश्य और इरादे नहीं थे? क्या उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि मनुष्य ज्यादा स्वतंत्रता से जी सकें और उनका तन-मन और आत्मा ज्यादा मुक्त हो सकें? या इसलिए कि लोग सुखी जीवन जी सकें? बिल्कुल भी नहीं। नैतिक आचरण की ये कहावतें लोगों की सामान्य मानवता की जरूरतें बिल्कुल भी पूरी नहीं करतीं और ये खास तौर से इसलिए तो नहीं बनाई गईं कि लोग सामान्य मानवता को जी सकें। बल्कि, ये पूरी तरह लोगों को नियंत्रित कर अपनी सत्ता स्थिर करने की शासक-वर्ग की महत्वाकांक्षा पूरी करती हैं। ये शासक वर्ग के काम आती हैं और इसलिए बनाई गई थीं कि शासक वर्ग हर मनुष्य, हर परिवार, हर व्यक्ति, हर समुदाय, हर समूह और तमाम समूहों से मिलकर बने समाज को बाध्य करने के लिए इन चीजों का उपयोग करके सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक रीति-रिवाजों पर नियंत्रण रख सके। ऐसे समाजों में ही, ऐसे नैतिक विचारों और दृष्टिकोणों के शिक्षण, प्रभाव और मतारोपण के तहत, समाज के मुख्यधारा के नैतिक विचार और दृष्टिकोण उभरकर आकार लेते हैं। यह सामाजिक नैतिकता और सामाजिक रीति-रिवाजों का आकार लेना मानवजाति के अस्तित्व के लिए ज्यादा अच्छा नहीं रहा, न ही यह मानव-विचार की प्रगति और शुद्धि के लिए ही ज्यादा अच्छा है, न ही यह मानवता की वृद्धि के लिए ज्यादा अच्छा है। इसके विपरीत इन नैतिक विचारों और दृष्टिकोणों के उद्भव के कारण इंसानी सोच एक नियंत्रणीय दायरे के भीतर ही सीमित है। तो, अंत में लाभ किसे होता है? मानवजाति को? या शासक वर्ग को? (शासक वर्ग को।) सही कहा, यह शासक वर्ग ही है जिसे अंत में लाभ होता है। ये नैतिक शास्त्र उनकी सोच और नैतिक आचरण के आधार होने से मनुष्यों पर शासन करना आसान है, उनके आज्ञाकारी नागरिक होने की ज्यादा संभावना है, उन्हें बरगलाना आसान है, वे जो कुछ भी करते हैं उसमें वे नैतिक शास्त्रों की तमाम कहावतों से ज्यादा आसानी से शासित होते हैं, और ज्यादा आसानी से ही वे शासित होते हैं सामाजिक प्रणालियों, सामाजिक नैतिकता, सामाजिक रीति-रिवाजों और जनमत द्वारा। इस तरह जो लोग समान सामाजिक प्रणालियों, नैतिक परिवेश और सामाजिक रीति-रिवाजों के अधीन होते हैं, एक हद तक उनके मूल रूप से सर्वसम्मत विचार और दृष्टिकोण होते हैं, और आचरण की एक सर्वसम्मत कसौटी होती है क्योंकि तथाकथित नैतिकतावादी, विचारक और शिक्षक उनके विचारों और दृष्टिकोणों को प्रसंस्करण और मानकीकरण की प्रक्रिया से गुजार चुके हैं। इस “सर्वसम्मत” शब्द का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि जिन लोगों पर शासन किया जाता है उन सभी को—उनके विचारों और उनकी सामान्य मानवता सहित—नैतिक शास्त्रों की इन कहावतों ने एक-सा और सीमित कर दिया है। लोगों के विचार सीमाबद्ध कर दिए जाते हैं और साथ ही उनकी जुबान और दिमाग भी सीमित कर दिए जाते हैं। सभी को परंपरागत संस्कृति के इन नैतिक विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकारने के लिए बाध्य किया जाता है, एक ओर इनका इस्तेमाल अपने ही व्यवहार का आकलन कर उसे बाधित करने के लिए किया जाता है, तो दूसरी ओर अन्य लोगों और इस समाज का आकलन करने के लिए। बेशक, साथ ही वे जनमत से भी नियंत्रित होते हैं जो नैतिक शास्त्रों से आई इन कहावतों पर केंद्रित होता है। अगर तुम सोचते हो कि काम करने का तुम्हारा तरीका इस कहावत का उल्लंघन करता है कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो,” तो तुम बहुत परेशान और असहज हो जाते हो, और तुम्हारे मन में यह बात आते देर नहीं लगती कि “अगर मैं जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार नहीं हो पाता, अगर मैं लिलिपुट के कुछ बौनों की तरह बहुत तुच्छ और ओछा हूँ, और मैं थोड़ी-सी नफरत भी नहीं छोड़ सकता, बल्कि इसे हर समय ओढ़े रहता हूँ, तो क्या मेरी हँसी नहीं उड़ाई जाएगी? क्या सहकर्मी और दोस्त मेरे साथ भेदभाव नहीं करेंगे?” इसलिए, तुम्हें विशेष रूप से उदार होने का दिखावा करना होगा। अगर लोगों के ये व्यवहार हैं, तो क्या इसका यह मतलब है कि वे जनमत से नियंत्रित होते हैं? (बिल्कुल।) निष्पक्ष रूप से कहा जाए तो, तुम्हारे दिल की गहराई में अदृश्य बेड़ियाँ हैं, यानी जनमत और पूरे समाज की निंदा तुम्हारे लिए अदृश्य बेड़ियों की तरह हैं।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (9)

“दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” कहावत का निहितार्थ यह है कि तुम्हें दूसरों को सिर्फ वही चीजें देनी या उन्हीं चीजों की आपूर्ति करनी चाहिए, जिन्हें तुम पसंद करते हो और जिनमें तुम आनंद लेते हो। लेकिन भ्रष्ट लोग कौन-सी चीजें पसंद करते और उनमें आनंद लेते हैं? दूषित चीजें, बेतुकी चीजें और फालतू इच्छाएँ। अगर तुम लोगों को ये नकारात्मक चीजें देते और उनकी आपूर्ति करते हो, तो क्या समस्त मानवजाति ज्यादा से ज्यादा भ्रष्ट नहीं हो जाएगी? सकारात्मक चीजें कम से कम होंगी। क्या यह तथ्य नहीं है? यह एक तथ्य है कि मानवजाति गहराई से भ्रष्ट हो चुकी है। भ्रष्ट मनुष्य प्रसिद्धि, लाभ, हैसियत और दैहिक सुख के पीछे भागना पसंद करते हैं; वे मशहूर हस्ती बनना चाहते हैं, पराक्रमी और अतिमानव बनना चाहते हैं। वे एक आरामदायक जीवन चाहते हैं और कड़ी मेहनत के विरुद्ध हैं; वे चाहते हैं कि सब-कुछ उन्हें सौंप दिया जाए। उनमें से बहुत कम लोग सत्य या सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं। अगर लोग दूसरों को अपनी भ्रष्टता और अभिरुचियाँ देते हैं और उनकी आपूर्ति उन्हें करते हैं, तो क्या होगा? वही, जिसकी तुम कल्पना करते हो : मानवजाति ज्यादा से ज्यादा भ्रष्ट होती जाएगी। जो लोग, “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते,” इस विचार के समर्थक हैं, वे चाहते हैं कि लोग दूसरों को अपनी भ्रष्टता, अभिरुचियां और फालतू इच्छाएं दें और उनकी आपूर्ति करें, जिससे दूसरे लोग बुराई, आराम, धन और उन्नति की तलाश करें। क्या यह जीवन का सही मार्ग है? यह स्पष्ट दिखाई देता है कि “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” एक बहुत ही समस्यात्मक कहावत है। इसमें कमियाँ और खामियाँ बिल्कुल स्पष्ट हैं; यह विश्लेषण करने और पहचानने लायक भी नहीं है। जरा-सी जाँच करने पर ही इसकी त्रुटियाँ और हास्यास्पदता स्पष्ट दिखाई दे जाती है। हालाँकि, तुममें से कई ऐसे हैं, जो इस कहावत से आसानी से सहमत और प्रभावित हो जाते हैं और बिना विचारे इसे स्वीकार लेते हैं। दूसरों के साथ बातचीत करते हुए तुम अक्सर इस कहावत का उपयोग खुद को धिक्कारने और दूसरों को प्रोत्साहन देने के लिए करते हो। ऐसा करने से, तुम सोचते हो कि तुम्हारा चरित्र विशेष रूप से श्रेष्ठ है, और तुम्हारा व्यवहार बहुत तर्कसंगत है। लेकिन अनजाने ही इन शब्दों ने उस सिद्धांत को, जिसके अनुसार तुम जीते हो, और मुद्दों पर तुम्हारे रुख को प्रकट कर दिया है। इसी के साथ, तुमने दूसरों को गुमराह कर गलत राह पर डाल दिया है जिससे लोगों और परिस्थितियों के प्रति उनके विचार और रुख भी तुम्हारे जैसे हो गए हैं। तुमने एक असली तटस्थ व्यक्ति की तरह काम किया है और पूरी तरह से बीच का रास्ता अपना लिया है। तुम कहते हो, “मामला चाहे जो भी हो, इसे गंभीरता से लेने की कोई जरूरत नहीं। अपने या दूसरों के लिए चीजें कठिन मत बनाओ। अगर तुम दूसरे लोगों के लिए चीजें कठिन बनाते हो, तो तुम उन्हें अपने लिए कठिन बना रहे हो। दूसरों के प्रति दयालु होना खुद के प्रति दयालु होना है। अगर तुम दूसरे लोगों के प्रति कठोर हो, तो तुम अपने प्रति कठोर होते हो। खुद को कठिन स्थिति में क्यों डाला जाए? दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, यह सबसे अच्छी बात है जो तुम अपने लिए कर सकते हो, और सबसे ज्यादा विचारशील भी।” यह रवैया स्पष्ट रूप से किसी भी चीज में सावधानी न बरतने का है। तुम्हारा किसी भी मुद्दे पर कोई सही रुख या दृष्टिकोण नहीं होता; हर चीज के बारे में तुम्हारा दृष्टिकोण उलझा हुआ होता है। तुम सावधान नहीं रहते और चीजों को नजरंदाज करते हो। जब तुम अंततः परमेश्वर के सामने खड़े होगे और अपना हिसाब दोगे, तो यह एक बड़ी उलझन होगी। ऐसा क्यों है? क्योंकि तुम हमेशा कहते हो कि तुम्हें दूसरों पर वह नहीं थोपना चाहिए जो तुम अपने लिए नहीं चाहते। यह तुम्हें बहुत सूकून और सुख देता है, लेकिन साथ ही यह तुम्हारे लिए बहुत बड़ी परेशानी का कारण बनेगा, जिससे ऐसा हो जाएगा कि तुम कई मामलों में स्पष्ट दृष्टिकोण या रुख नहीं रख पाओगे। बेशक, यह तुम्हें स्पष्ट रूप से यह समझने में असमर्थ भी बनाता है कि इन परिस्थितियों का सामना करने की हालत में तुम्हारे लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक क्या हैं, या तुम्हें क्या परिणाम प्राप्त करना चाहिए। ये चीजें इसलिए होती हैं, क्योंकि तुम जो कुछ भी करते हो, उसमें तुम सावधानी नहीं बरतते; वे तुम्हारे उलझे हुए रवैये और सोच के कारण होती हैं। क्या “दूसरों पर वह नहीं थोपना जो तुम अपने लिए नहीं चाहते,” सहिष्णु रवैया है, जो तुम्हारा लोगों और चीजों के प्रति होना चाहिए? नहीं, यह वह रवैया नहीं है। यह सिर्फ एक सिद्धांत है, जो बाहर से सही, महान और दयालु दिखता है, लेकिन वास्तव में यह पूरी तरह से नकारात्मक चीज है। स्पष्ट रूप से, यह वो सत्य सिद्धांत तो बिल्कुल भी नहीं है, जिसका लोगों को पालन करना चाहिए। परमेश्वर यह अपेक्षा नहीं करता कि लोग दूसरों पर वह नहीं थोपें जो वे अपने लिए नहीं चाहते, इसके बजाय वह लोगों से उन सिद्धांतों पर स्पष्ट होने के लिए कहता है, जिनका पालन उन्हें विभिन्न स्थितियाँ सँभालते समय करना चाहिए। अगर यह सही है और परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुरूप है, तो तुम्हें इस पर दृढ़ रहना चाहिए। और न केवल तुम्हें इस पर दृढ़ रहना चाहिए, बल्कि तुम्हें दूसरों को सावधान करना, मनाना और उनके साथ संगति करनी चाहिए, ताकि वे समझ सकें कि परमेश्वर के इरादे असल में क्या हैं और सत्य सिद्धांत क्या हैं। यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है। परमेश्वर तुमसे बीच का रास्ता अपनाने के लिए नहीं कहता, और यह दिखाने के लिए तो बिल्कुल नहीं कहता कि तुम्हारा दिल कितना बड़ा है। तुम्हें उन बातों पर दृढ़ रहना चाहिए, जिनके बारे में परमेश्वर ने तुम्हें चेताया है और जो तुम्हें सिखाई हैं, और जिनके बारे में परमेश्वर अपने वचनों में बात करता है : अपेक्षाएँ, कसौटी और सत्य सिद्धांत जिनका लोगों को पालन करना चाहिए। न केवल तुम्हें उनसे चिपके रहना चाहिए, और उन पर हमेशा के लिए कायम रहना चाहिए, बल्कि तुम्हें एक मिसाल बनकर इन सत्य सिद्धांतों पर अमल भी करना चाहिए; साथ ही साथ, तुम्हें अपनी ही तरह दूसरों को इनसे चिपके रहने, इनका पालन करने और अभ्यास करने के लिए समझाना, उनकी निगरानी करना, उनकी मदद करना और उनका मार्गदर्शन करना चाहिए। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि तुम ऐसा करो—वह यही काम तुम्हें सौंपता है। तुम केवल दूसरों को अनदेखा करके खुद से अपेक्षाएं नहीं रख सकते। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि तुम मुद्दों पर सही रुख अपनाओ, सही कसौटी से चिपके रहो, और ठीक-ठीक जान लो कि परमेश्वर के वचनों में क्या कसौटी है, और ठीक-ठीक समझ लो कि सत्य सिद्धांत क्या हैं। अगर तुम इसे पूरा न भी कर पाओ, अगर तुम अनिच्छुक भी हो, अगर तुम्हें यह पसंद न हो, अगर तुम्हारी धारणाएँ हों, या अगर तुम इसका विरोध करते हो, तो भी तुम्हें इसे अपनी जिम्मेदारी, अपना दायित्व मानना चाहिए। तुम्हें लोगों के साथ उन सकारात्मक चीजों पर संगति करनी चाहिए जो परमेश्वर से आती हैं, उन चीजों पर जो सही और सटीक हैं, और उनका उपयोग दूसरों की मदद करने, उन्हें प्रभावित करने और उनका मार्गदर्शन करने के लिए करो, ताकि लोग उनसे लाभान्वित और शिक्षित हो सकें, और जीवन में सही मार्ग पर चल सकें। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, और तुम्हें हठपूर्वक “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” के विचार से नहीं चिपकना चाहिए, जिसे शैतान ने तुम्हारे दिमाग में डाल दिया है। परमेश्वर की दृष्टि में, यह कहावत सिर्फ सांसारिक आचरण का एक फलसफा है; यह एक ऐसी सोच है जिसमें शैतान की चाल निहित है; यह सही मार्ग तो बिल्कुल नहीं है, न ही यह कोई सकारात्मक चीज है। परमेश्वर तुमसे केवल इतना चाहता है कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनो, जो स्पष्ट रूप से समझता हो कि उसे क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए। वह तुमसे चापलूस या तटस्थ बनने के लिए नहीं कहता; उसने तुम्हें बीच का रास्ता अपनाने के लिए नहीं कहा है। जब कोई मामला सत्य सिद्धांतों से संबंधित हो, तो तुम्हें वह कहना चाहिए जो कहने की आवश्यकता है, और वह समझना चाहिए जो समझने की आवश्यकता है। अगर कोई व्यक्ति कोई चीज नहीं समझता लेकिन तुम समझते हो, और तुम संकेत देकर उसकी मदद कर सकते हो, तो तुम्हें निश्चित रूप से यह जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना चाहिए। तुम्हें एक किनारे खड़े होकर देखना भर नहीं चाहिए, और तुम्हें उन फलसफों से तो बिल्कुल भी नहीं चिपकना चाहिए जो शैतान ने तुम्हारे दिमाग में बैठा दिए हैं, जैसे कि दूसरों पर वह नहीं थोपना जो तुम अपने लिए नहीं चाहते। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) जो सही और सकारात्मक है वह तब भी वैसा ही होगा जब तुम्हें यह पसंद न हो, तुम इसे करना न चाहो, इसे करने और हासिल करने में सक्षम न हो, इसके प्रतिरोधी हो और इसके विरुद्ध धारणाएँ रखते हो। परमेश्वर के वचनों का सार और सत्य सिर्फ इसलिए नहीं बदलेगा क्योंकि मानवजाति का स्वभाव भ्रष्ट है और उसमें कुछ भावनाएँ, एहसास, इच्छाएँ और धारणाएँ हैं। परमेश्वर के वचनों का सार और सत्य कभी भी नहीं बदलेगा। जैसे ही तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य को जानते हो, समझते हो, अनुभव करते और प्राप्त करते हो, यह तुम्हारा दायित्व बन जाता है कि तुम अपनी अनुभवजन्य गवाहियों के बारे में दूसरों के साथ संगति करो। इससे और अधिक लोगों को परमेश्वर के इरादे समझने, सत्य को समझने और प्राप्त करने, परमेश्वर की अपेक्षाओं और मानकों को समझने और सत्य सिद्धांतों को समझने में मदद मिलेगी। ऐसा करने से, जब ये लोग अपने दैनिक जीवन में समस्याओं का सामना करेंगे तो उन्हें अभ्यास का मार्ग प्राप्त होगा और वे शैतान के विभिन्न विचारों और नजरिये से भ्रमित नहीं होंगे या बंधन में नहीं फँसेंगे। नैतिक आचरण के बारे में यह कहावत “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” वास्तव में लोगों के मन पर काबू पाने की शैतान की कुटिल योजना है। अगर तुम हमेशा इसे कायम रखते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो शैतानी फलसफों के अनुसार जीता है; ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से शैतानी स्वभाव में रहता है।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (10)

जिस किसी भी युग या जातीय समूह में इसका उपयोग किया जाता है, नैतिक आचरण की यह कहावत “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” बहुत सटीक बैठती है। कहने का तात्पर्य है कि यह मनुष्य की अंतरात्मा और विवेक के साथ अपेक्षाकृत अच्छी तरह मेल खाती है। और भी सटीक होकर कहें, तो यह कहावत “भाईचारे” की अवधारणा से मेल खाती है जिसका लोग अपनी अंतरात्मा में पालन करते हैं। जो लोग भाईचारे को अहमियत देते हैं वे दोस्त के लिए गोली खाने को तैयार होंगे। चाहे उनका दोस्त कितनी भी कठिन और खतरनाक स्थिति में क्यों न हो, वे आगे बढ़कर उसके लिए गोली खा लेंगे। यह दूसरों की खातिर अपने हित त्याग करने की भावना है। नैतिक आचरण की यह कहावत “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” लोगों को भाईचारे को अहमियत देना सिखाती है। इसके अनुसार मानवता से जिस मानक को बनाए रखने की अपेक्षा की जाती है वह यह है कि व्यक्ति को भाईचारे को अहमियत देनी चाहिए : यही इस कहावत का सार है। ...

“अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेना” जैसे विचारों और नजरिये में क्या गलत है? यह सवाल वास्तव में मुश्किल नहीं है, बल्कि बहुत आसान है। संसार में रहने वाला कोई भी व्यक्ति परेशानियों से बचकर नहीं निकल सकता। सभी के अपने माता-पिता और बच्चे हैं, सभी के रिश्तेदार हैं, इस मानव संसार में कोई भी अकेला नहीं रहता है। इससे मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि तुम इस मानव संसार में रहते हो और तुम्हारे पास अपने उत्तरदायित्व हैं जो तुम्हें पूरे करने हैं। सबसे पहले तुम्हें अपने माता-पिता का सहारा बनना होगा, और दूसरा, तुम्हें अपने बच्चों का पालन-पोषण करना होगा। परिवार में ये तुम्हारी जिम्मेदारियाँ हैं। समाज में भी तुम्हें सामाजिक जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाने होते हैं। समाज में तुम्हें श्रमिक, किसान, व्यवसायी, छात्र या बुद्धिजीवी जैसी भूमिका निभानी होती है। परिवार से लेकर समाज तक कई जिम्मेदारियाँ और दायित्व हैं जो तुम्हें पूरे करने चाहिए। यानी, अपने खाने, कपड़े, घर और गाड़ी का इंतजाम करने के अलावा तुम्हें कई और चीजें करनी होंगी; साथ ही तुम्हें और भी कई चीजें करनी चाहिए और कई दायित्व भी पूरे करने चाहिए। परमेश्वर में विश्वास के इस सही मार्ग को छोड़कर, जिस मार्ग पर लोग चलते हैं, एक व्यक्ति के रूप में तुम्हें कई पारिवारिक जिम्मेदारियाँ और सामाजिक दायित्व पूरे करने होते हैं। तुम स्वतंत्र रूप से नहीं जी सकते। तुम्हारे कंधों पर जिम्मेदारी सिर्फ दोस्त बनाने और अच्छा समय बिताने या किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ने की नहीं है जिससे तुम बात कर सको या जो तुम्हारी मदद कर सके। तुम्हारी ज्यादातर जिम्मेदारियाँ—और सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ—तुम्हारे परिवार और समाज से जुड़ी हैं। यदि तुम अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों और सामाजिक दायित्वों को अच्छी तरह से पूरा करते हो, तभी एक व्यक्ति के रूप में तुम्हारा जीवन पूर्ण और सही माना जाएगा। तो, परिवार में तुम्हें कौन-सी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए? एक बच्चे के रूप में तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार कर उनकी मदद करनी चाहिए। जब भी तुम्हारे माता-पिता बीमार हों या कठिनाई में हों, तो तुमसे जो बन पड़े वह करना चाहिए। माता-पिता होने के नाते तुम्हें पूरे परिवार का भरण-पोषण करने के लिए पसीना बहाना और परिश्रम करना होगा, कड़ी मेहनत करनी होगी और कठिनाइयाँ सहनी होंगी ताकि पूरे परिवार के लिए सारी व्यवस्था की जा सके; साथ ही, तुम्हें माता-पिता होने की भारी जिम्मेदारी उठानी होगी, अपने बच्चों का पालन-पोषण करना होगा, उन्हें सही मार्ग पर चलने के लिए शिक्षित करना होगा और उन्हें आचरण के सिद्धांत समझाने होंगे। इस प्रकार परिवार में तुम्हारी बहुत-सी जिम्मेदारियाँ हैं। तुम्हें अपने माता-पिता का सहयोग करना चाहिए और अपने बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। ऐसे बहुत से काम हैं जो करने चाहिए। और समाज में तुम्हारी क्या जिम्मेदारियाँ हैं? तुम्हें नियम-कानूनों का पालन करना चाहिए, सिद्धांतों के अनुसार दूसरों के साथ व्यवहार करना चाहिए, काम में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना चाहिए और अपना करियर अच्छी तरह सँभालना चाहिए। तुम्हारा अस्सी-नब्बे प्रतिशत समय और ऊर्जा इन्हीं चीजों पर खर्च होनी चाहिए। कहने का मतलब है कि परिवार या समाज में चाहे तुम्हारी जो कोई भी भूमिका हो, तुम जिस किसी मार्ग पर चलो, तुम्हारी कोई भी आकांक्षा-महत्वाकांक्षा हो, हरेक व्यक्ति को जिम्मेदारियाँ उठानी होती हैं जो व्यक्तिगत रूप से उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, और जिसमें उसका लगभग सारा समय और ऊर्जा लग जाती है। पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों के नजरिये से एक व्यक्ति के नाते इस मानव संसार में आने की तुम्हारी और तुम्हारे जीवन की क्या अहमियत है? यह स्वर्ग से तुम्हें दी गई जिम्मेदारियों और लक्ष्यों को पूरा करना है। तुम्हारा जीवन केवल तुम्हारा नहीं है, और यह दूसरों का तो बिल्कुल भी नहीं है। तुम्हारा जीवन तुम्हारे लक्ष्यों और जिम्मेदारियों के लिए, और उन जिम्मेदारियों, दायित्वों और उद्देश्यों के लिए है जो तुम्हें इस मानव संसार में पूरे करने चाहिए। तुम्हारा जीवन न तो तुम्हारे माता-पिता का है, न ही तुम्हारी पत्नी (पति) का है, और हाँ यह तुम्हारे बच्चों का भी नहीं है। यह तुम्हारे वंशजों का तो कतई नहीं है। तो तुम्हारा जीवन किसका है? संसार के एक व्यक्ति के दृष्टिकोण से कहें तो तुम्हारा जीवन तुम्हें परमेश्वर से प्राप्त जिम्मेदारियों और लक्ष्यों को पूरा करने के लिए है। लेकिन एक विश्वासी के दृष्टिकोण से, तुम्हारा जीवन परमेश्वर का होना चाहिए, क्योंकि एक वही है जो तुम्हारे लिए हर चीज की व्यवस्था करता है और तुम्हारी हर चीज पर उसकी संप्रभुता है। इसलिए एक व्यक्ति के नाते दुनिया में रहते हुए तुम्हें मनमाने ढंग से दूसरों को अपना जीवन सौंप देने का वादा नहीं करना चाहिए, और तुम्हें भाईचारे की खातिर मनमाने ढंग से किसी के लिए भी अपना जीवन नहीं त्यागना चाहिए। कहने का मतलब है कि तुम्हें अपने जीवन को छोटा नहीं समझना चाहिए। तुम्हारा जीवन किसी और के लिए, विशेष रूप से शैतान के लिए, इस समाज के लिए और इस भ्रष्ट मानवजाति के लिए निरर्थक है, लेकिन तुम्हारे माता-पिता और रिश्तेदारों के लिए तुम्हारा जीवन बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि तुम्हारी जिम्मेदारियों और उनके अस्तित्व के बीच एक अटूट संबंध है। बेशक, इससे भी जरूरी बात यह है कि तुम्हारे जीवन और इस तथ्य के बीच एक अटूट संबंध है कि परमेश्वर सभी चीजों और संपूर्ण मानवजाति का संप्रभु है। तुम्हारा जीवन उन अनेक जिंदगियों में अत्यावश्यक है जिन पर परमेश्वर की संप्रभुता है। शायद तुम अपने जीवन को इतना अधिक महत्व नहीं देते हो, और शायद तुम्हें अपने जीवन को इतना अधिक महत्व देना भी नहीं चाहिए, लेकिन सच तो यह है कि तुम्हारा जीवन तुम्हारे माता-पिता और रिश्तेदारों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, जिनके साथ तुम्हारे गहरे और अटूट संबंध हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि उनके प्रति तुम्हारी जिम्मेदारियाँ हैं, उनकी भी तुम्हारे प्रति जिम्मेदारियाँ हैं, इस समाज के प्रति तुम्हारी जिम्मेदारियाँ हैं, और समाज के प्रति तुम्हारी जिम्मेदारियाँ इस समाज में तुम्हारी भूमिका से संबंधित हैं। हरेक व्यक्ति की भूमिका और हरेक जीवित प्राणी परमेश्वर के लिए अत्यावश्यक है, और ये सभी मानवजाति पर, इस संसार पर, इस पृथ्वी और इस ब्रह्मांड पर परमेश्वर की संप्रभुता के अत्यावश्यक तत्व हैं। परमेश्वर की नजरों में हरेक जीवन रेत के एक कण से भी अधिक महत्वहीन है, एक चींटी से भी अधिक तुच्छ है; फिर भी चूँकि हरेक व्यक्ति एक जीवन है, एक सजीव और सांस लेने वाला जीवन है, इसलिए परमेश्वर की संप्रभुता में भले ही उस व्यक्ति की भूमिका महत्वपूर्ण न हो, पर वह भी अत्यावश्यक है। तो इन पहलुओं से देखने पर यदि कोई व्यक्ति अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेने को तैयार है और ऐसा करने के बारे में सिर्फ सोचता ही नहीं है, बल्कि किसी भी पल ऐसा करने को तैयार रहता है, अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों, सामाजिक जिम्मेदारियों और यहाँ तक कि परमेश्वर से मिले लक्ष्यों और कर्तव्यों की परवाह किए बिना अपनी जान दे देता है, तो क्या यह गलत नहीं है! (बिल्कुल है।) यह विश्वासघात है! परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दी गई सबसे कीमती चीज यह सांस है जिसे जीवन कहते हैं। यदि तुम लापरवाही से किसी ऐसे दोस्त के लिए अपना जीवन दाँव पर लगाने का वादा करते हो, जिसके बारे में तुम्हें लगता है कि तुम भरोसा कर सकते हो, तो क्या यह परमेश्वर से विश्वासघात नहीं है? क्या यह जीवन का अपमान नहीं है? क्या यह परमेश्वर के विरुद्ध अवज्ञा नहीं है? क्या यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह वाला व्यवहार नहीं है? यह यह परमेश्वर के प्रति विश्वासघात वाला व्यवहार नहीं है? (बिल्कुल है।) यह साफ तौर पर उन जिम्मेदारियों से भागना है जो तुम्हें अपने परिवार और समाज में पूरी करनी चाहिए, और यह उन लक्ष्यों से दूर भागना है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिए हैं। यह विश्वासघात है। किसी व्यक्ति के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीजें उन जिम्मेदारियों से ज्यादा कुछ नहीं हैं जो उसे इस जीवन में पूरी करनी चाहिए—पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, सामाजिक जिम्मेदारियाँ और वे लक्ष्य जो परमेश्वर ने तुम्हें दिए हैं। सबसे महत्वपूर्ण चीजें ये जिम्मेदारियाँ और लक्ष्य हैं। यदि तुम पल भर के भाईचारे की भावना और क्षणिक उतावलेपन के कारण लापरवाही से किसी दूसरे व्यक्ति के लिए अपना जीवन गँवा देते हो, तो क्या तुम्हारी जिम्मेदारियाँ अभी भी मौजूद रहेंगी? फिर तुम लक्ष्य की बात कैसे कर सकते हो? जाहिर है कि तुम परमेश्वर के दिए जीवन को सबसे कीमती चीज मानकर नहीं संजोते, बल्कि लापरवाही से दूसरों की खातिर इसे दांव पर लगाने का वादा करते हो, दूसरों के लिए अपना जीवन त्याग देते हो, अपनी जिम्मेदारियों की पूरी तरह से उपेक्षा करते हो या उन्हें अपने परिवार और समाज पर छोड़ देते हो, जो अनैतिक और अनुचित है। तो, मैं तुम सबको क्या बताना चाह रहा हूँ? लापरवाही से अपना जीवन मत त्यागो और दूसरों के लिए इसे दांव पर लगाने का वादा मत करो। कुछ लोग कहते हैं, “क्या मैं अपने माता-पिता को अपना जीवन देने का वादा कर सकता हूँ? अपने प्रेमी से इसका वादा करने के बारे में क्या खयाल है, क्या यह ठीक है?” यह ठीक नहीं है। यह ठीक क्यों नहीं है? परमेश्वर तुम्हें जीवन देता है और उसे आगे बढ़ने देता है ताकि तुम अपने परिवार और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभा सको और परमेश्वर के सौंपे हुए लक्ष्य पूरे करो। तुम अपने जीवन को मजाक समझकर इसे दूसरों को देने का वादा नहीं कर सकते, इसे दूसरों को नहीं सौंप सकते, इसे उनके लिए नहीं खपा सकते और इसे उन्हें भी समर्पित नहीं कर सकते। यदि कोई व्यक्ति अपना जीवन खो दे तो क्या वह फिर भी अपनी पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियाँ और अपने लक्ष्य पूरे कर सकता है? क्या यह तब भी मुमकिन है? (नहीं।) और जब किसी व्यक्ति की पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियाँ खत्म हो जाती हैं, तो क्या उसके द्वारा निभाई गई सामाजिक भूमिकाएँ अभी भी मौजूद रहती हैं? (नहीं।) जब किसी व्यक्ति द्वारा निभाई गई सामाजिक भूमिकाएँ समाप्त हो जाती हैं, तो क्या उस व्यक्ति के लक्ष्य अभी भी मौजूद होते हैं? नहीं, वे मौजूद नहीं होते। जब किसी व्यक्ति के लक्ष्य और सामाजिक भूमिकाएँ नहीं रह जाती हैं, तो जिस चीज पर परमेश्वर का प्रभुत्व था क्या वह अभी भी अस्तित्व में रहता है? परमेश्वर जीवित चीजों और जीवित मनुष्यों पर प्रभुत्व रखता है, और जब उनकी सामाजिक जिम्मेदारियाँ और जीवन समाप्त हो जाता है और उनकी सामाजिक भूमिकाएँ शून्य हो जाती हैं, तो क्या यह परमेश्वर की प्रबंधन योजना और उस मानवजाति को निरर्थक बनाने का प्रयास है जिस पर परमेश्वर का प्रभुत्व है? क्या तुम्हारा ऐसा करना विश्वासघात नहीं है? (हाँ।) यह वास्तव में विश्वासघात है। तुम्हारा जीवन केवल तुम्हारी जिम्मेदारियों और लक्ष्यों के लिए मौजूद है, और तुम्हारे जीवन का मूल्य केवल तुम्हारी जिम्मेदारियों और लक्ष्यों में दिख सकता है। यही नहीं, अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेना तुम्हारी जिम्मेदारी और लक्ष्य नहीं है। परमेश्वर से मिले जीवन से संपन्न व्यक्ति के नाते तुम्हें उससे प्राप्त जिम्मेदारियों और लक्ष्यों को पूरा करने पर ध्यान देना चाहिए। वहीं, अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेना कोई ऐसी जिम्मेदारी या लक्ष्य नहीं है जो तुम्हें परमेश्वर ने दिया हो। बल्कि, यह भाईचारे की भावना, अपनी मनमानी सोच, जीवन के बारे में गैर-जिम्मेदार सोच के अनुसार कार्य करना है, और यह बेशक एक ऐसी सोच भी है जिसे शैतान लोगों को तिरस्कृत करने और उनके जीवन को रौंदने के लिए उनके अंदर बैठाता है।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (10)

इस समाज में, संसार से निपटने के लिए लोगों के सिद्धांत, जीवन जीने के लोगों के तरीके, और यहाँ तक कि धर्म और आस्था के प्रति उनके रवैये और धारणाएँ, और साथ ही लोगों और चीजों के प्रति उनकी विभिन्न धारणाएँ और दृष्टिकोण—ये सभी चीजें निस्संदेह परिवार द्वारा सिखाई जाती हैं। सत्य समझने से पहले—व्यक्ति की उम्र चाहे जितनी भी हो, चाहे वह पुरुष हो या महिला, या वह किसी भी पेशे में कार्यरत हो, या सभी चीजों के प्रति उसका रवैया जैसा भी हो, चाहे यह अतिवादी हो या तर्कसंगत हो—संक्षेप में, सभी तरह की बातों में, चीजों के प्रति लोगों के विचार, दृष्टिकोण और उनके रवैये काफी हद तक परिवार द्वारा प्रभावित होते हैं। यानी, परिवार द्वारा व्यक्ति को दी गई शिक्षा के विभिन्न प्रभाव काफी हद तक, चीजों के प्रति उसका रवैया, उन चीजों से निपटने के उसके तरीके, और जीवन जीने के प्रति उसका नजरिया निर्धारित करते हैं, और यहाँ तक कि यह उसकी आस्था को भी प्रभावित करते हैं। चूँकि परिवार व्यक्ति को बहुत कुछ सिखाता और बहुत प्रभावित करता है, इसलिए चीजों से निपटने के लोगों के तरीकों और सिद्धांतों के साथ ही जीवन के प्रति उनके नजरिये और आस्था पर उनके दृष्टिकोण के मूल में परिवार होता ही है। क्योंकि पारिवारिक घर वह स्थान नहीं है जहाँ सत्य उत्पन्न होता है, न ही यह सत्य का स्रोत है, व्यावहारिक तौर पर सिर्फ एक ही प्रेरक शक्ति या लक्ष्य है जो तुम्हारे परिवार को जीवन के बारे में तुम्हें कोई भी विचार, दृष्टिकोण या तरीका सिखाने के लिए प्रेरित करता है—और यह है अपने सर्वोत्तम हितों के लिए काम करना। ये चीजें जो तुम्हारे सर्वोत्तम हितों के लिए हैं, चाहे वे किसी से भी आएँ—चाहे तुम्हारे माता-पिता से, दादा-दादी से या तुम्हारे पूर्वजों से—संक्षेप में, इनका उद्देश्य यही है कि तुम समाज में और दूसरों के बीच अपने हितों की रक्षा करने में सक्षम बनो, कोई तुम पर धौंस न जमा पाए, और तुम लोगों के बीच अधिक खुलेपन के साथ और कूटनीतिक बनकर रह पाओ, जिसका मकसद भरसक तुम्हारे हितों की रक्षा करना है। परिवार से मिली शिक्षा तुम्हारी रक्षा के लिए है, ताकि कोई तुम पर धौंस न जमाए या तुम्हें कोई अपमान न सहना पड़े, और तुम दूसरों से बेहतर बन सको, फिर चाहे इसका मतलब दूसरों पर धौंस जमाना या उन्हें तकलीफ देना ही क्यों न हो, जब तक तुम्हें कोई नुकसान नहीं होता, तब तक सब सही है। ये कुछ सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं जो तुम्हारा परिवार तुम्हें सिखाता है, और यह तुम्हें सिखाए गए सभी विचारों का सार और मूल उद्देश्य भी है। यही बात है न? (बिल्कुल।) तुम्हारे परिवार ने जो भी चीजें तुम्हें सिखाई हैं, अगर तुम उनके उद्देश्य और सार के बारे में सोचो, तो क्या इनमें कुछ भी सत्य के अनुरूप है? भले ही ये चीजें नैतिकता या मानवता के वैध अधिकारों और हितों के अनुरूप हों, क्या इनका सत्य से कोई सरोकार है? क्या ये सत्य हैं? (नहीं।) यकीनन यह कहा जा सकता है कि ये सत्य नहीं हैं। चाहे इंसान तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई गई चीजों को कितना भी सकारात्मक और वैध, मानवीय और नैतिक माने, वे सत्य नहीं हैं, न ही वे सत्य का प्रतिनिधित्व कर सकती हैं, और बेशक वे सत्य की जगह तो कतई नहीं ले सकती हैं। इसलिए, जब परिवार की बात आती है, तो ये चीजें वे अन्य पहलू हैं जिसे लोगों को त्याग देना चाहिए। यह पहलू आखिर है क्या? यह पहलू परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के प्रभाव हैं—परिवार के विषय में यह दूसरा पहलू है जिसका तुम्हें त्याग करना चाहिए। चूँकि हम परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के प्रभावों पर चर्चा कर रहे हैं, तो आओ पहले इस पर बात करते हैं कि शिक्षा के ये प्रभाव आखिर हैं क्या। अगर हम लोगों की सही और गलत की अवधारणा के अनुसार उनमें अंतर करें, तो पता चलेगा कि उनमें से कुछ चीजें अपेक्षाकृत सही, सकारात्मक, और प्रस्तुत करने योग्य हैं, और उन्हें सामने रखा जा सकता है, जबकि कुछ चीजें अपेक्षाकृत स्वार्थी, घृणित, नीच, और काफी नकारात्मक हैं, और कुछ नहीं। लेकिन चाहे जो भी हो, परिवार से मिली शिक्षा के प्रभाव कपड़ों की एक रक्षात्मक परत की तरह होते हैं जो कुल मिलाकर व्यक्ति के दैहिक हितों की रक्षा करते हैं, दूसरों के बीच उनकी गरिमा बनाए रखते हैं, और उन्हें किसी की धौंस में आने से रोकते हैं। ऐसा ही है न? (बिल्कुल।) तो फिर, आओ बात करें कि तुम्हारे परिवार की शिक्षा के क्या प्रभाव होते हैं। उदाहरण के लिए, जब परिवार के बुजुर्ग अक्सर तुमसे कहते हैं कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” तो यह इसलिए होता है ताकि तुम अच्छी प्रतिष्ठा रखने और गौरवपूर्ण जीवन जीने को अहमियत दो और ऐसे काम मत करो जिनसे तुम्हारी बदनामी हो। तो यह कहावत लोगों को सकारात्मक दिशा की ओर लेकर जाती है या नकारात्मक? क्या यह तुम्हें सत्य की ओर ले जा सकती है? क्या यह तुम्हें सत्य समझने की ओर ले जा सकती है? (नहीं, बिल्कुल नहीं।) तुम यकीन से कह सकते हो, “नहीं, नहीं ले जा सकती!” जरा सोचो, परमेश्वर कहता है कि लोगों को ईमानदार लोगों की तरह आचरण करना चाहिए। अगर तुमने कोई अपराध किया है या कुछ गलत किया है या कुछ ऐसा किया है जो परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है या सत्य के विरुद्ध जाता है, तो तुम्हें अपनी गलती स्वीकारनी होगी, खुद को समझना होगा, और सच्चा पश्चात्ताप करने के लिए खुद का विश्लेषण करते रहना होगा और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना होगा। अगर लोग ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करें, तो क्या यह इस कहावत के विरुद्ध नहीं होगा कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है”? (हाँ।) यह इसके विरुद्ध कैसे होगा? “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” इस कहावत का उद्देश्य यह है कि लोग उज्ज्वल और रंगीन जीवन जिएँ और ऐसे काम ज्यादा करें जिनसे उनकी छवि बेहतर होती है—उन्हें बुरे या अपमानजनक काम या ऐसे काम नहीं करने चाहिए जिनसे उनका कुरूप चेहरा उजागर हो—और वे आत्मसम्मान या गरिमा के साथ न जी पाएँ। अपनी प्रतिष्ठा की खातिर, अपने गौरव और सम्मान की खातिर, व्यक्ति को अपने बारे में सब कुछ नहीं बताना चाहिए, और दूसरों को अपने अँधेरे पक्ष और शर्मनाक पहलुओं के बारे में तो कतई नहीं बताना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति को आत्मसम्मान और गरिमा के साथ जीना चाहिए। गरिमावान होने के लिए अच्छी प्रतिष्ठा होना जरूरी है, और अच्छी प्रतिष्ठा पाने के लिए व्यक्ति को मुखौटा लगाना और अच्छे कपड़े पहनकर दिखाना होता है। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करने के विरुद्ध नहीं है? (हाँ।) जब तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करते हो, तो तुम जो भी करते हो वह इस कहावत से बिल्कुल अलग होता है, “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।” अगर तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना चाहते हो, तो आत्मसम्मान को अहमियत मत दो; व्यक्ति के आत्मसम्मान की कीमत दो कौड़ी की भी नहीं है। सत्य से सामना होने पर, व्यक्ति को मुखौटा लगाने या झूठी छवि बनाए रखने के बजाय, खुद को उजागर कर देना चाहिए। व्यक्ति को अपने सच्चे विचारों, अपनी गलतियों, सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले पहलुओं वगैरह को परमेश्वर के सामने प्रकट कर देना चाहिए, और अपने भाई-बहनों के सामने भी इनका खुलासा करना चाहिए। यह अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जीने का मामला नहीं, बल्कि एक ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करने, सत्य का अनुसरण करने, एक सच्चा सृजित प्राणी बनने और परमेश्वर को संतुष्ट करने और बचाए जाने की खातिर जीने का मामला है। लेकिन जब तुम यह सत्य और परमेश्वर के इरादे नहीं समझते हो, तो तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई गई चीजें तुम पर हावी हो जाती हैं। इसलिए, जब तुम कुछ गलत करते हो, तो उस पर पर्दा डालकर यह सोचते हुए दिखावा करते हो, “मैं इस बारे में कुछ नहीं कहूँगा, और अगर कोई इस बारे में जानता है मैं उसे भी कुछ नहीं कहने दूँगा। अगर तुममें से किसी ने कुछ भी कहा, तो मैं तुम्हें आसानी से नहीं छोडूँगा। मेरी प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा जरूरी है। जीने का मतलब तभी है जब हम अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जिएँ, क्योंकि यह किसी भी चीज से ज्यादा जरूरी है। यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा खो देता है, तो वह अपनी सारी गरिमा खो देता है। तो तुम जो सच है वह नहीं बता सकते, तुम्हें झूठ का सहारा लेना होगा और चीजों को छुपाना होगा, वरना तुम अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा खो बैठोगे, और तुम्हारा जीवन निरर्थक हो जाएगा। अगर कोई तुम्हारा सम्मान नहीं करता है, तो तुम एकदम बेकार हो, सिर्फ रास्ते का कचरा हो।” क्या इस तरह अभ्यास करके ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना मुमकिन है? क्या पूरी खुलकर बोलना और अपना विश्लेषण करना मुमकिन है? (नहीं, मुमकिन नहीं है।) बेशक, ऐसा करके तुम इस कहावत का पालन कर रहे हो, “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” जैसा तुम्हारे परिवार ने तुम्हें सिखाया है। हालाँकि, अगर तुम सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने के लिए इस कहावत को त्याग देते हो, तो फिर यह तुम्हें प्रभावित नहीं करेगी, और यह कोई काम करने के लिए तुम्हारा आदर्श वाक्य या सिद्धांत भी नहीं रहेगी, बल्कि तुम जो भी करोगे वह इस कहावत से बिल्कुल विपरीत होगा कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।” तुम न तो अपनी प्रतिष्ठा की खातिर और न ही अपनी गरिमा की खातिर जियोगे, बल्कि तुम सत्य का अनुसरण करने और ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करने के लिए जियोगे, और परमेश्वर को संतुष्ट करके एक सच्चे सृजित प्राणी की तरह जीने की कोशिश करोगे। अगर तुम इस सिद्धांत का पालन करते हो, तो तुम अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों से मुक्त हो जाओगे।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12)

परिवार लोगों को बस एक या दो कहावतों से नहीं, बल्कि बहुत सारे मशहूर उद्धरणों और सूक्तियों से सिखाता है। उदाहरण के लिए, क्या तुम्हारे परिवार के बुजुर्ग और माँ-बाप अक्सर इस कहावत का उल्लेख करते हैं, “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है”? (हाँ।) इससे उनका मतलब होता है : “लोगों को अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जीना चाहिए। लोग अपने जीवनकाल में दूसरों के बीच अच्छी प्रतिष्ठा कायम करने और अच्छा प्रभाव डालने के अलावा और कुछ नहीं चाहते हैं। तुम जहाँ भी जाओ, वहाँ अधिक उदारता के साथ सबका अभिवादन करो, खुशियाँ बाँटो, तारीफें करो, और कई अच्छी-अच्छी बातें कहो। लोगों को नाराज मत करो, बल्कि अधिक अच्छे और परोपकारी कर्म करो।” परिवार द्वारा दी गई इस विशेष शिक्षा के प्रभाव का लोगों के व्यवहार या आचरण के सिद्धांतों पर विशेष प्रभाव पड़ता है, जिसका नतीजा यह होता है कि वे शोहरत और लाभ को ज्यादा अहमियत देते हैं। यानी, वे अपनी प्रतिष्ठा, साख, लोगों के मन में बनाई अपनी छवि, और वे जो कुछ भी करते हैं और जो भी राय व्यक्त करते हैं उसके बारे में दूसरों के अनुमान को बहुत महत्व देते हैं। शोहरत और लाभ को ज्यादा अहमियत देकर, तुम अनजाने में इस बात को कम महत्व देते हो कि तुम जो कर्तव्य निभा रहे हो वह सत्य और सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं, क्या तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हो, और क्या तुम पर्याप्त मात्रा में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। तुम इन चीजों को कम महत्वपूर्ण और कम प्राथमिकता वाली चीजें मानते हो, जबकि तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई इस कहावत को कि “व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है,” तुम बहुत महत्वपूर्ण मान लेते हो। यह कहावत तुम्हें दूसरों के मन में अपने बारे में हर एक बारीक चीज पर ध्यान देने को मजबूर करती है। खास तौर पर, कुछ लोग इस पर विशेष ध्यान देते हैं कि दूसरे लोग उनकी पीठ पीछे उनके बारे में असल में क्या सोचते हैं, यहाँ तक कि वे दीवारों पर कान लगाकर और आधे-खुले दरवाजों से दूसरों की बातें सुनते हैं, और दूसरे लोग उनके बारे में क्या लिख रहे हैं उस पर नजर भी रखते हैं। जैसे ही कोई उनके नाम का जिक्र करता है, वे सोचते हैं, “मुझे जल्दी से सुनना होगा कि वे मेरे बारे में क्या कह रहे हैं, और वे मेरे बारे में अच्छी राय रखते हैं या नहीं। अरे नहीं, उनका कहना है कि मैं आलसी हूँ और मुझे अच्छा खाना पसंद है। अब मुझे बदलना होगा, मैं अब से आलसी नहीं हो सकता, मुझे मेहनती बनना होगा।” कुछ समय तक मेहनत करने के बाद, वे मन ही मन सोचते हैं, “मैं कई दिनों से कान लगाकर सुन रहा था कि लोग मुझे आलसी कहते हैं या नहीं, पर हाल के दिनों में मैंने किसी से ऐसा नहीं सुना है।” मगर फिर भी उन्हें बेचैनी होती है, तो वे अपने आस-पास के लोगों से चर्चा करते समय यूँ ही कह देते हैं : “मैं थोड़ा आलसी तो हूँ।” तो दूसरे जवाब देते हैं : “तुम आलसी नहीं हो, बल्कि अब पहले से काफी मेहनती बन गए हो।” यह सुनकर वे तुरंत आश्वस्त, खुश और सुकून महसूस करते हैं। “देखा, मेरे बारे में सबकी राय बदल गई है। ऐसा लगता है कि सभी ने मेरे व्यवहार में सुधार देखा है।” तुम जो कुछ भी करते हो वह सत्य का अभ्यास करने की खातिर नहीं है, न ही यह परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए है, बल्कि यह सब तुम्हारी प्रतिष्ठा की खातिर है। इस तरह, तुमने जो कुछ भी किया वह प्रभावी रूप से क्या बन जाता है? यह प्रभावी रूप से एक धार्मिक कार्य बन जाता है। तुम्हारे सार को क्या होता है? तुम बिल्कुल फरीसियों जैसे बन गए हो। तुम्हारे मार्ग को क्या होता है? यह मसीह-विरोधियों का मार्ग बन गया है। परमेश्वर इसी तरह इसे परिभाषित करता है। तो, तुम जो भी करते हो उसका सार दूषित हो गया है, यह अब पहले जैसा नहीं रहा; तुम सत्य का अभ्यास या उसका अनुसरण नहीं कर रहे, बल्कि तुम शोहरत और लाभ के पीछे भाग रहे हो। जहाँ तक परमेश्वर का संबंध है, तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन—एक शब्द में—अपर्याप्त है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे गए कार्य या एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित होने के बजाय बस अपनी प्रतिष्ठा के प्रति समर्पित हो। जब परमेश्वर तुम्हारे सामने ऐसी परिभाषा रखता है तो तुम अपने दिल में क्या महसूस करते हो? यह कि परमेश्वर में तुम्हारे इतने वर्षों का विश्वास व्यर्थ रहा। तो क्या इसका मतलब यह है कि तुम बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे थे? तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे थे, बल्कि अपनी प्रतिष्ठा पर विशेष ध्यान दे रहे थे, और इन सबकी जड़ में तुम्हारे परिवार तुम्हें दी गई शिक्षा का प्रभाव है। वह कौन-सी सबसे प्रभावशाली कहावत है जिससे तुम्हें शिक्षित किया गया है? यह कहावत कि “व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है,” तुम्हारे दिल में जड़ें जमा चुकी है और तुम्हारा आदर्श वाक्य बन गई है। बचपन से ही तुम इस कहावत से प्रभावित और शिक्षित किए गए हो, और बड़े होने के बाद भी तुम अपने परिवार की अगली पीढ़ी और अपने आस-पास के लोगों को प्रभावित करने के लिए अक्सर इस कहावत को दोहराते रहते हो। बेशक, इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि तुमने इसे अपने आचरण और चीजों के साथ निपटने के लिए अपने तरीके और सिद्धांत के रूप में अपनाया है, और यहाँ तक कि अपने जीवन के लक्ष्य और दिशा मान लिया है। तुम्हारा लक्ष्य और दिशा गलत है, तो फिर तुम्हारा अंतिम परिणाम भी यकीनन नकारात्मक ही होगा। क्योंकि तुम जो कुछ भी करते हो उसका सार केवल तुम्हारी प्रतिष्ठा की खातिर और सिर्फ इस कहावत को अभ्यास में लाने के लिए होता है कि “व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है।” तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, और तुम्हें खुद ही यह पता नहीं है। तुम्हें लगता है कि इस कहावत में कुछ भी गलत नहीं है; क्या लोगों को अपनी प्रतिष्ठा के लिए नहीं जीना चाहिए? जैसी कि आम कहावत है, “व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है।” यह कहावत बहुत सकारात्मक और उचित लगती है, तो तुम अनजाने में इसकी सीख के प्रभाव को स्वीकार लेते हो और इसे एक सकारात्मक चीज मानते हो। इस कहावत को एक सकारात्मक चीज मानने के बाद, तुम अनजाने में इसका अनुसरण और अभ्यास करते हो। इसी के साथ, तुम अनजाने में और भ्रमित होकर इसे सत्य और सत्य की कसौटी मान लेते हो। इसे सत्य की कसौटी मानने के बाद, तुम परमेश्वर की नहीं सुनते, और न ही उसकी बातों को समझते हो। तुम आँख बंद करके इस आदर्श वाक्य को अभ्यास में लाते हो कि “व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है,” और इसके अनुसार कार्य करते हो, जिससे अंत में तुम अच्छी प्रतिष्ठा पा लेते हो। तुम जो चाहते थे अब वह तुम्हें मिल गया है, पर ऐसा करके तुमने सत्य का उल्लंघन और सत्य का त्याग किया है, और बचाए जाने का अवसर भी गँवा दिया है। यह देखते हुए कि यही इसका अंतिम परिणाम है, तुम्हें अपने परिवार द्वारा सिखाए गए इस विचार को त्याग देना चाहिए कि “व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है।” तुम्हें इस कहावत पर टिके नहीं रहना चाहिए, और न ही इस कहावत या विचार को अभ्यास में लाने के लिए अपनी जीवनभर की कोशिश और ऊर्जा लगानी चाहिए। यह विचार और दृष्टिकोण जो तुममें डाला और सिखाया गया है, सरासर गलत है, तो तुम्हें इसे त्याग देना चाहिए। इसे त्यागने का कारण सिर्फ यही नहीं है कि यह सत्य नहीं है, बल्कि असल में यह तुम्हें भटका देगा और तुम्हारे विनाश की ओर ले जाएगा, यानी इसके परिणाम बहुत गंभीर हैं। तुम्हारे लिए, यह बस कोई मामूली कहावत नहीं, बल्कि कैंसर है—लोगों को भ्रष्ट करने का साधन और तरीका है। क्योंकि परमेश्वर के वचनों में, लोगों से उसकी सभी अपेक्षाओं में, परमेश्वर ने लोगों से कभी भी अच्छी प्रतिष्ठा या प्रसिद्धि पाने या लोगों पर अच्छी छाप छोड़ने या लोगों की स्वीकृति प्राप्त करने, या लोगों की प्रशंसा पाने के लिए नहीं कहा है, और न ही उसने कभी लोगों को शोहरत पाने की खातिर जीने या अपने पीछे अच्छी प्रतिष्ठा छोड़ने के लिए मजबूर किया है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग अच्छी तरह अपने कर्तव्य निभाएँ, उसके प्रति और सत्य के प्रति समर्पण करें। इसलिए, जहाँ तक तुम्हारा सवाल है, यह कहावत तुम्हारे परिवार से मिली एक तरह की शिक्षा है जिसे तुम्हें त्याग देना चाहिए।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12)

तुम्हारे परिवार की शिक्षा का तुम पर एक और प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, माँ-बाप या बड़े-बूढ़े तुम्हें प्रोत्साहित करने के लिए अक्सर कहते हैं, “शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी।” ऐसा कहकर, वे तुम्हें कष्ट सहना, मेहनती और दृढ़ रहना और अपने किसी भी काम में डटकर कष्ट सहना सिखाना चाहते हैं, क्योंकि जो कष्ट सहते हैं, कठिनाइयों से लड़ते हैं, कड़ी मेहनत करते और संघर्ष करने की भावना रखते हैं वे ही शीर्ष पर पहुँचते हैं। “शीर्ष पर पहुँचने” का क्या मतलब है? इसका मतलब है ऐसी स्थिति में होना जहाँ कोई धौंस नहीं जमा सकता या नीची नजरों से नहीं देख सकता या भेदभाव नहीं कर सकता; इसका मतलब लोगों के बीच ऊँची प्रतिष्ठा और रुतबा होना, अपनी बात कहने और सुने जाने, और फैसले लेने का अधिकार होना; इसका मतलब यह भी है कि तुम दूसरों के बीच बेहतर और उच्च स्तरीय जीवन जी पाते हो, लोग तुम्हारा सम्मान करते हैं, तुम्हारी सराहना करते हैं और तुमसे ईर्ष्या करते हैं। मूल रूप से इसका यह मतलब है कि संपूर्ण मानवजाति में तुम्हारा ऊँचा दर्जा है? “ऊँचा दर्जा” से क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि कई लोग तुम्हारे नीचे हैं और तुम्हें उनसे कोई दुर्व्यवहार सहने की जरूरत नहीं है—“शीर्ष पर पहुँचने” का यही मतलब है। शीर्ष पर पहुँचने के लिए, तुम्हें “बड़ी पीड़ा सहनी होगी,” यानी तुम्हें ऐसे कष्ट सहने होंगे जो दूसरे नहीं सह सकते। तो शीर्ष पर पहुँच पाने से पहले, तुम्हें लोगों की अपमानजनक नजरों, उपहास, कटाक्ष, बदनामी, और साथ ही उनकी नासमझी और यहाँ तक कि उनका तिरस्कार वगैरह भी सहना होगा। शारीरिक पीड़ा के अलावा, तुम्हें आम लोगों की राय के कटाक्ष और उपहास को सहना भी सीखना होगा। केवल इस प्रकार का व्यक्ति बनना सीखकर ही तुम दूसरों से अलग बन सकते हो, और समाज में अपने लिए खास जगह बना सकते हो। इस कहावत का उद्देश्य लोगों को कोई मामूली व्यक्ति बनाने के बजाय एक शीर्ष पर रहने वाला व्यक्ति बनाना है, क्योंकि एक मामूली व्यक्ति होना बहुत कठिन है—तुम्हें दुर्व्यवहार सहना पड़ता है, तुम बेकार महसूस करते हो, और तुम्हारी कोई गरिमा या पहचान नहीं होती। यह भी परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा का प्रभाव है, और यह तुम्हारा भला करने के उद्देश्य से किया जाता है। तुम्हारा परिवार ऐसा इसलिए करता है ताकि तुम्हें दूसरों से दुर्व्यवहार न सहना पड़े, और तुम्हारे पास शोहरत और अधिकार हो, तुम अच्छा खाओ-पियो और मौज करो, और जहाँ भी जाओ वहाँ कोई तुम पर धौंस जमाने की कोशिश न करे, बल्कि तुम तानाशाह की तरह रहो और सभी फैसले खुद ले सको, और सभी तुम्हारे सामने सिर झुकाएँ और अपनी दुम हिलाएँ। एक ओर, सबसे आगे निकलने की कोशिश, तुम्हारे अपने फायदे के लिए है, और वहीं दूसरी ओर, तुम यह अपने परिवार का सामाजिक दर्जा बढ़ाने और अपने पूर्वजों का नाम रौशन करने के लिए भी कर रहे हो, ताकि तुम्हारे माँ-बाप और परिवार वालों को भी तुमसे जुड़े रहने का फायदा मिले और कोई उनसे दुर्व्यवहार न करे। अगर तुमने बहुत कष्ट सहा है और सबसे आगे निकलकर ऊँची रैंक वाले अफसर बन गए हो और अब तुम्हारे पास एक शानदार कार है, आलीशान घर है और लोग तुम्हारे आस-पास घूमते हैं, तो तुम्हारे परिवार वालों को भी तुमसे जुड़े रहने का फायदा होगा, वे भी अच्छी गाड़ियाँ चला पाएँगे, अच्छा खाएँगे, और उच्च स्तरीय जीवन जियेंगे। तुम चाहो तो सबसे महँगे पकवान खा सकोगे, मनचाही जगह पर जा सकोगे, और सभी तुम्हारे इशारों पर नाचेंगे, तुम अपनी मनमर्जी कर सकोगे, और सिर झुकाकर जीने या डरकर जीने के बजाय तुम मनमाने ढंग से और अहंकार के साथ जीवन जी सकोगे, जो मन करे वह कर सकोगे, फिर चाहे वह कानून के खिलाफ ही क्यों न हो, और तुम निडर और लापरवाह जीवन जी सकोगे—तुम्हें इस तरह की शिक्षा देने के पीछे तुम्हारे परिवार का यही उद्देश्य है कि कोई तुम्हारे साथ अन्याय न कर पाए और तुम सबसे आगे निकल सको। साफ-साफ कहें, तो उनका उद्देश्य तुम्हें ऐसा व्यक्ति बनाना है जो दूसरों का नेतृत्व करे, उन्हें निर्देश दे, आदेश दे; उनका उद्देश्य तुम्हें ऐसा व्यक्ति बनाना भी है जो दूसरों पर धौंस जमाने में सक्षम हो और कभी किसी की धौंस में न आए, जो किसी के अधीन होने के बजाय खुद शीर्ष पर पहुँचे। यही बात है न? (बिल्कुल।) ... तो फिर, परमेश्वर इस मामले में हमसे क्या चाहता है? क्या परमेश्वर यह चाहता है कि हम शीर्ष पर पहुँचें और साधारण, सांसारिक, मामूली या सामान्य होने के बजाय महान, मशहूर, और उत्कृष्ट बनें? क्या परमेश्वर लोगों से यही चाहता है? (नहीं।) जाहिर है कि जिस कहावत की तुम्हारे परिवार ने तुम्हें शिक्षा दी है—“शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी”—वह तुम्हें सकारात्मक दिशा नहीं दिखाती है, और बेशक, इसका सत्य से कोई सरोकार नहीं है। तुम्हें कष्ट सहने के लिए मजबूर करने के पीछे तुम्हारा परिवार का उद्देश्य निष्कपट नहीं है, बल्कि ऐसा साजिश के तहत किया गया है, और यह बेहद घृणित और कपटपूर्ण है। परमेश्वर लोगों को इसलिए कष्ट सहने को मजबूर करता है क्योंकि उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं। अगर लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों से शुद्ध होना चाहते हैं, तो उन्हें कष्ट सहना होगा—यह एक वस्तुनिष्ठ तथ्य है। इसी के साथ, परमेश्वर चाहता है कि लोग कष्ट सहें : एक सृजित प्राणी को यही करना चाहिए, और एक सामान्य व्यक्ति को भी इसी तरह कष्ट सहना चाहिए और ऐसा ही रवैया रखना चाहिए। हालाँकि, परमेश्वर तुमसे शीर्ष पर पहुँचने की अपेक्षा नहीं करता है। वह तुमसे बस इतना चाहता है कि तुम एक साधारण, सामान्य व्यक्ति बनो, जो सत्य समझे, उसके वचनों को सुने और उसके प्रति समर्पित हो। परमेश्वर कभी नहीं चाहता कि तुम उसे हैरान करो या कोई हलचल मचा देने वाला कारनामा करो, और न ही वह तुमसे कोई मशहूर हस्ती या महान व्यक्ति बनने को कहता है। वह बस इतना चाहता है कि तुम एक साधारण, सामान्य और वास्तविक व्यक्ति बनो, और चाहे तुम कितना भी कष्ट सह सको या कष्ट न भी सह सको, अगर अंत में तुम परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रह सकते हो, तो यही तुम्हारे लिए सबसे बेहतरीन होगा। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम शीर्ष पर पहुँचो, बल्कि वह चाहता है कि तुम एक सच्चे सृजित प्राणी बनो, जो एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा सके। ऐसा व्यक्ति साधारण और सामान्य व्यक्ति है, जिसके पास सामान्य मानवता, अंतरात्मा और विवेक है, और वह अविश्वासियों या भ्रष्ट मनुष्यों की नजरों में ऊँचा या महान नहीं है। हमने पहले भी इस पहलू पर बहुत संगति की है, तो अब आगे इस पर चर्चा नहीं करेंगे। “शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी,” इस कहावत को तुम्हें निस्संदेह त्याग देना चाहिए। इसमें ऐसा क्या है जो तुम्हें त्यागना चाहिए? तुम्हें वह दिशा त्यागनी है जिसके अनुसरण की शिक्षा तुम्हारे परिवार ने तुम्हें दी है। यानी, तुम्हें अपने अनुसरण की दिशा बदलनी चाहिए। सिर्फ शीर्ष पर पहुँचने, भीड़ से अलग दिखने और उल्लेखनीय होने या दूसरों से तारीफ पाने की खातिर कुछ भी मत करो। बल्कि तुम्हें इन इरादों, लक्ष्यों, और मंशाओं को त्यागकर व्यावहारिक तरीके से सब कुछ करना चाहिए ताकि तुम एक सच्चा सृजित प्राणी बन सको। “व्यावहारिक तरीके” से मेरा क्या मतलब है? सबसे बुनियादी सिद्धांत है उन तरीकों और सिद्धांतों के अनुसार सब कुछ करना जो परमेश्वर ने लोगों को सिखाए हैं। मान लो कि कोई भी तुम्हारे काम से हैरान या प्रभावित नहीं होता है, या कोई तुम्हारी प्रशंसा या सराहना भी नहीं करता है। हालाँकि, अगर यह कुछ ऐसा है जो तुम्हें करना ही है, तो तम्हें डटे रहकर इसे जारी रखना चाहिए, और इसे एक सृजित प्राणी द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्य की तरह देखना चाहिए। अगर ऐसा करोगे, तो तुम परमेश्वर की नजरों में एक स्वीकार्य सृजित प्राणी होगे—यह इतना सरल है। तुम्हें अपने आचरण और जीवन के प्रति अपने नजरिये के संबंध में बस अपने अनुसरण का तरीका बदलना है।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12)

परिवार दूसरे तरीकों से भी तुम्हें शिक्षा देता है और तुम्हें प्रभावित करता है, जैसे कि इस कहावत से कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है।” परिवार के सदस्य अक्सर तुम्हें सिखाते हैं : “दयालु बनो और दूसरों से बहस मत करो या दुश्मन मत बनाओ, क्योंकि अगर तुम बहुत सारे दुश्मन बनाओगे, तो समाज में अपने पैर नहीं जमा पाओगे, और अगर तुमसे नफरत और तुम्हारी हानि करने वालों की संख्या ज्यादा होगी, तो तुम समाज में सुरक्षित नहीं रहोगे। तुम पर हमेशा खतरे की तलवार लटकी रहेगी, और तुम्हारा अस्तित्व, रुतबा, परिवार, व्यक्तिगत सुरक्षा, और यहाँ तक कि तुम्हारे करियर में प्रगति की संभावनाएँ भी खतरे में पड़ जाएँगी और बुरे लोग इसमें बाधा डालेंगे। तो तुम्हें यह सीखना होगा कि ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है।’ सबके प्रति दयालु बनो, अच्छे रिश्ते मत तोड़ो, ऐसी बातें मत कहो जिसका बाद में तुम्हें पछतावा हो, लोगों के आत्मसम्मान को ठेस मत पहुँचाओ, और उनकी कमियों को उजागर मत करो। ऐसी बातें कहने से बचो या मत कहो जिन्हें लोग सुनना नहीं चाहते। सिर्फ तारीफें करो, क्योंकि किसी की तारीफ करने से कोई नुकसान नहीं होता है। तुम्हें बड़े और छोटे, दोनों तरह के मामलों में धीरज दिखाना और समझौता करना सीखना होगा, क्योंकि ‘समझौते से संघर्ष सुलटना आसान हो जाएगा।’” जरा सोचो, तुम्हारा परिवार एक बार में तुम्हारे मन में दो विचार और दृष्टिकोण डालता है। एक ओर, वे कहते हैं कि तुम्हें दूसरों के प्रति दयालु बनना होगा; तो वहीं दूसरी ओर, वे चाहते हैं कि तुम धीरज दिखाओ, अपनी बारी आए तभी बोलो, और अगर तुम्हें कुछ कहना है, तो उस वक्त अपना मुँह बंद ही रखो और घर आकर सारी बातें सिर्फ अपने परिवार को बताओ। या इससे भी बेहतर, अपने परिवार को भी मत बताओ, क्योंकि दीवारों के भी कान होते हैं—अगर कभी राज़ सामने आ गया, तो तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा। इस समाज में पैर जमाने और जीवन जीने के लिए, लोगों को एक चीज जरूर सीखनी चाहिए, और वह है गोलमोल बातें करने वाला बनना। बोलचाल की भाषा में कहें तो तुम्हें झूठा और चालाक बनना होगा। तुम यूँ ही अपने मन की बात नहीं कह सकते। अगर तुम बगैर सोचे अपने मन की बात कह देते हो, तो यह बेवकूफी कहलाएगी, चतुराई नहीं। कुछ लोग बड़बोले होते हैं जो बगैर सोचे कुछ भी कह देते हैं। मान लो कि कोई व्यक्ति ऐसा करके अपने बॉस को नाराज कर देता है। फिर बॉस उसका जीना दूभर कर देता है, उसका बोनस काट लेता है, और हमेशा उससे झगड़ने की फिराक में रहता है। आखिर में, नौकरी करते रहना उसके बर्दाश्त से बाहर हो जाता है। अगर उसने नौकरी छोड़ दी, तो उसके पास जीविका चलाने का कोई और जरिया नहीं होगा। लेकिन अगर उसने नौकरी नहीं छोड़ी, तो उसे उस नौकरी में बने रहना होगा जो उसके बर्दाश्त के बाहर है। वो क्या कहते हैं, जब तुम्हारे एक ओर कुआँ और दूसरी ओर खाई हो? दुविधा में “फंस जाना।” फिर उसका परिवार उससे कहता है : “तुम इसी बुरे व्यवहार के लायक हो, तुम्हें याद रखना चाहिए था कि ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है’! बड़बोला होने और बेपरवाही से बोलने का यही नतीजा होता है! हमने तुमसे कहा था कि चतुराई से और अच्छी तरह सोच-समझकर ही कुछ बोला करो, पर तुमने हमारी नहीं सुनी, तुमने मुँहफट की तरह अपनी बात कह डाली। तुम्हें क्या लगा कि अपने बॉस से पंगे लेना इतना आसान है? क्या तुमने सोचा था कि समाज में जीना इतना आसान है? तुम्हें हमेशा यही लगता है कि तुम बेबाकी से बोलते हो। खैर, अब तुम्हें अपने किए का नतीजा भुगतना ही होगा। इसे अपने लिए एक सबक मानो! आगे से, तुम इस कहावत को अच्छी तरह याद रखोगे, ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है’!” एक बार यह सीख मिल जाने के बाद, वह इसे याद रखता है; सोचता है, “मेरे माँ-बाप ने मुझे सही शिक्षा दी थी। यह जीवन के अनुभव से मिली अंतर्दृष्टि अंश है, ज्ञान का असली अंश, मैं अब इसे अनदेखा नहीं कर सकता। मैं खुद को खतरे में डालकर अपने बड़ों को अनदेखा करता हूँ, तो आगे से मैं इसे याद रखूँगा।” परमेश्वर में विश्वास करने और परमेश्वर के घर से जुड़ने के बाद, उसे अभी भी यह कहावत याद है, “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,” इसलिए जब भी वह अपने भाई-बहनों से मिलता है तो उनका अभिवादन करता है, और उनके साथ मीठी बातें कहने की भरसक कोशिश करता है। अगुआ कहता है : “मुझे अगुआ बने एक अरसा हो गया है, पर मेरे पास कार्य का पर्याप्त अनुभव नहीं है।” तो वह तारीफ करते हुए कहता है : “आप बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं। अगर आप हमारी अगुआई नहीं कर रहे होते, तो हमें लगता कि हम बेसहारा हैं।” कोई और कहता है : “मैंने अपने बारे में कुछ चीजें समझी हैं, और मुझे लगता है मैं काफी धूर्त हूँ।” इस पर वह जवाब देता है, “तुम धूर्त नहीं हो, तुम बहुत ईमानदार हो, धूर्त तो मैं हूँ।” कोई और उसके बारे में कुछ बुरी टिप्पणियां कहता है, तो वह मन-ही-मन सोचता है, “ऐसी बुरी टिप्पणियों से डरने की कोई जरूरत नहीं है, मैं इससे भी बदतर चीजें सह सकता हूँ। तुम्हारी टिप्पणियाँ चाहे कितनी भी बुरी हों, मैं उन्हें अनसुना कर दूँगा, तुम्हारी तारीफ करता रहूँगा, और तुम्हारी खुशामद करने की भरसक कोशिश करूँगा, क्योंकि किसी की तारीफ करने से कोई नुकसान नहीं होता है।” संगति के दौरान जब कोई उसकी राय माँगता है या खुलकर बोलने को कहता है, तो वह खुलकर बात नहीं करता, और सबके सामने हँसमुख और खुशमिजाजी का मुखौटा लगाए रखता है। कोई उससे पूछता है : “तुम हमेशा इतने हँसमुख और खुशमिजाज कैसे रहते हो? क्यातुम हमेशा मुस्कुराते ही रहते हो?” तो वह मन-ही-मन सोचता है : “मैं सालों से मुस्कुराता रहा हूँ, और अब तक तो किसी ने मेरा फायदा नहीं उठाया, अब यह संसार से निपटने के लिए मेरा प्रमुख सिद्धांत बन गया है।” क्या वह एक कपटी इंसान है? (बिल्कुल।) कुछ लोग कई सालों से समाज में ऐसे ही जीते आए हैं, और परमेश्वर के घर में आने के बाद भी यही करते रहते हैं। उनकी एक भी बात सच्ची नहीं होती, वे कभी दिल से बात नहीं करते, और वे खुद को लेकर अपनी समझ के बारे में भी बात नहीं करते हैं। यहाँ तक कि जब कोई भाई या बहन उनसे अपने दिल की बात कहता है, तब भी वे खुलकर बात नहीं करते, और कोई नहीं जान पाता है कि असल में उनके मन में क्या चल रहा है। वे अपनी सोच और अपना दृष्टिकोण कभी सामने नहीं रखते, सबके साथ बहुत अच्छे रिश्ते बनाए रखते हैं, और तुम्हें पता ही नहीं चलता कि वे असल में कैसे इंसान हैं या उनका व्यक्तित्व किस तरह का है, या वे वास्तव में दूसरों के बारे में क्या सोचते हैं। अगर कोई उनसे पूछता है कि फलाँ व्यक्ति कैसा है, तो वे जवाब देते हैं, “वह करीब दस सालों से विश्वासी है, और बढ़िया आदमी है।” चाहे तुम उनसे किसी के बारे में भी पूछो, वे यही जवाब देंगे कि वह इंसान बढ़िया है या काफी अच्छा है। अगर कोई उनसे पूछे, “क्या तुम्हें उसमें कोई कमियाँ या खामियाँ दिखती हैं?” वे जवाब देते हैं, “अब तक तो नहीं, पर आगे से मैं इस पर कड़ी नजर रखूँगा,” पर वे मन-ही-मन सोचते हैं : “तुम मुझे उस व्यक्ति को नाराज करने को कह रहे हो, जो मैं कतई नहीं करूँगा! अगर मैंने तुम्हें सच बता दिया और उसे पता चल गया, तो क्या वह मेरा दुश्मन नहीं बन जाएगा? मेरा परिवार हमेशा से मुझे कहता आया है कि दुश्मन मत बनाना, और मैं उनकी बात भूला नहीं हूँ। क्या मैं तुम्हें बेवकूफ लगता हूँ? क्या तुम्हें लगता है कि सत्य से जुड़े दो वाक्यों पर तुम्हारी संगति से मैं अपने परिवार से मिली सीख और शिक्षा को भुला दूँगा? ऐसा कतई नहीं होगा! ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है’ और ‘समझौते से संघर्ष सुलटना आसान हो जाएगा,’ इन कहावतों ने आज तक मुझे कभी निराश नहीं किया है और ये मेरे ताबीज हैं। मैं किसी की खामियों के बारे में बात नहीं करता, और अगर कोई मुझे उकसाता है तो मैं उसके प्रति धीरज दिखाता हूँ। क्या तुमने नहीं देखा मेरे माथे पर क्या बना है? यह ‘धीरज’ का चीनी प्रतीक है, जिसमें दिल के ऊपर एक चाकू की तस्वीर है। अगर कोई बुरी टिप्पणियाँ करता है, मैं उसके प्रति धीरज दिखाता हूँ। अगर कोई मेरी काट-छाँट करता है, मैं उसके प्रति धीरज से काम लेता हूँ। मेरा लक्ष्य सभी के साथ अच्छे रिश्ते बनाना और संबंधों को इसी स्तर पर बनाए रखना है। सिद्धांतों पर अड़े मत रहो, बेवकूफी मत करो, अड़ियल मत बनो, तुम्हें हालात के अनुसार झुकना सीखना होगा! कछुए इतने लंबे समय तक कैसे जिंदा रहते हैं? क्योंकि जब भी हालात मुश्किल होते हैं वे अपने कवच के अंदर छिप जाते हैं, है न? इस तरह वे खुद की रक्षा करते हैं और हजारों साल तक जीते हैं। लंबा जीवन इसी तरह जिया जाता है और संसार से ऐसे ही निपटा जाता है।” तुम ऐसे लोगों को कभी सच्ची बात बोलते हुए नहीं सुनोगे, और उनके वास्तविक दृष्टिकोण और उनके आचरण की मूल बातें कभी उजागर नहीं होती हैं। वे इन चीजों के बारे में बस मन-ही-मन सोच-विचार करते हैं, पर किसी और को उनके बारे में कोई अता-पता नहीं होता। ऐसा व्यक्ति बाहर से तो सबके प्रति दयालु होता है, अच्छे स्वभाव वाला मालूम पड़ता है और किसी को चोट या नुकसान नहीं पहुँचाता है। मगर वास्तव में, वे गोलमोल बातें करते हैं और कपटी होते हैं। कलीसिया में ऐसे व्यक्ति को कुछ लोग हमेशा पसंद करते हैं, क्योंकि वे कभी बड़ी गलतियाँ नहीं करते, अपनी सच्चाई कभी बाहर नहीं आने देते, और कलीसिया अगुआओं और भाई-बहनों का उनके बारे में मूल्यांकन यह होता है कि वे सभी के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं। वे अपने कर्तव्य को लेकर उदासीन रहते हैं, उनसे जो कहा जाता है वही करते हैं। वे विशेष रूप से आज्ञाकारी होते हैं और अच्छा व्यवहार करते हैं, बातचीत में या मामलों से निपटते हुए कभी दूसरों को दुखी नहीं करते, और कभी किसी का गलत फायदा नहीं उठाते हैं। वे कभी किसी के बारे में बुरा नहीं बोलते, और पीठ पीछे लोगों की आलोचना भी नहीं करते। हालाँकि, यह कोई नहीं जानता कि वे अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार हैं या नहीं, और वे दूसरों के बारे में क्या सोचते हैं या उनके बारे में क्या राय रखते हैं। बहुत सोच-विचार के बाद, तुम्हें लगता है कि यह व्यक्ति वाकई थोड़ा अजीब है और उसकी थाह पाना मुश्किल है, और उसे अपने साथ रखने से दिक्कत हो सकती है। अब तुम्हें क्या करना चाहिए? यह तय करना मुश्किल है, है न? जब वे अपना कर्तव्य निभा रहे होते हैं, तो तुम उन्हें अपना काम करते देख सकते हो, पर वे परमेश्वर के घर द्वारा बताए गए सिद्धांतों की कभी परवाह नहीं करते। वे अपनी मनमर्जी से काम करते हैं, बेमन से काम करते हैं और कुछ नहीं, सिर्फ बड़ी गलतियाँ करने से बचने की कोशिश करते हैं। इसी वजह से, तुम्हें उनमें कोई खामी या कोई दोष नहीं दिखता है। वे काम तो बड़े अच्छे से करते हैं, पर उनके मन में क्या चलता है? क्या वे अपना कर्तव्य निभाना चाहते हैं? अगर कलीसिया के प्रशासनिक आदेश नहीं होते या कलीसिया अगुआ या भाई-बहनों की निगरानी नहीं होती, तो क्या ऐसे लोग बुरे लोगों के साथ जुड़ सकते हैं? क्या वे बुरे लोगों के साथ मिलकर बुरे काम और बुरी चीजें कर सकते हैं? इसकी संभावना काफी अधिक है, और वे ऐसा कर सकते हैं, पर अब तक किया नहीं है। इस प्रकार के व्यक्ति सबसे ज्यादा दिक्कतें खड़ी करते हैं, और वे एक नंबर के झूठे और बूढ़ी चालाक लोमड़ी जैसे होते हैं। वे किसी के खिलाफ मन में खोट नहीं रखते। अगर कोई उन्हें दुख पहुँचाने के लिए कुछ कहता है या ऐसे भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा करता है जिससे उनकी गरिमा को चोट पहुँचती है, तब वे क्या सोचते हैं? “मैं धीरज से काम लूँगा, इस कारण मैं तुमसे बैर नहीं करूँगा, पर एक दिन ऐसा आएगा जब तुम खुद का मजाक बनाओगे!” जब उस व्यक्ति से वास्तव में निपटा जाता है या वह खुद का मजाक बनाता है, तो वे मन-ही-मन उस पर हँसते हैं। वे आसानी से दूसरे लोगों, अगुआओं और परमेश्वर के घर का मजाक उड़ाते हैं, पर अपना मजाक नहीं बनने देते। वे खुद ही नहीं जानते कि उनमें क्या समस्याएँ या खामियाँ हैं। ऐसे लोग सावधानी बरतते हैं कि कहीं कुछ ऐसा खुलासा न कर दें जिससे दूसरों को ठेस पहुँचे या जिससे दूसरों को उनकी असलियत पता चल जाए; हालाँकि, वे इन चीजों के बारे में मन-ही-मन जरूर सोचते हैं। जब ऐसी चीजों की बात आती है जो दूसरों को सुन्न या गुमराह कर सकती हैं, तो वे खुलकर उन्हें व्यक्त करते हैं और लोगों को उन्हें देखने देते हैं। ऐसे लोग बेहद मक्कार होते हैं और इनसे निपटना कठिन होता है। तो ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर का घर कैसा रवैया अपनाता है? अगर उनका इस्तेमाल किया जा सकता है तो करो, नहीं तो उन्हें बाहर निकाल दो—यही सिद्धांत है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए है क्योंकि इस तरह के लोग कभी सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते। वे छद्म-विश्वासी हैं जो चीजें गलत होने पर परमेश्वर के घर, भाई-बहनों और अगुआओं का मजाक बनाते हैं। वे क्या भूमिका निभाते हैं? क्या यह शैतान और राक्षसों की भूमिका है? (बिल्कुल।) जब वे भाई-बहनों के प्रति धैर्य दिखाते हैं, इसमें न तो वास्तविक सहनशीलता होती है और न ही सच्चा प्रेम। वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि खुद की रक्षा कर सकें और किसी दुश्मन या खतरे को अपने रास्ते में न आने दें। वे अपने भाई-बहनों को बचाने या उनके प्रति प्रेम दिखाने के लिए उन्हें बर्दाश्त नहीं करते हैं, और वे ऐसा सत्य का अनुसरण करने या सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने के कारण तो कतई नहीं करते। उनका रवैया पूरी तरह से धारा के साथ बहने और लोगों को गुमराह करने पर केंद्रित होता है। ऐसे लोग गोलमोल बातें करने वाले और कपटी होते हैं। वे सत्य को पसंद या उसका अनुसरण नहीं करते, बल्कि बस धारा के साथ बहते जाते हैं। जाहिर है कि उन्हें अपने परिवार से मिली शिक्षा उनके आचरण और चीजों से निपटने के तरीकों को काफी प्रभावित करती है। बेशक, यह कहा जाना चाहिए कि संसार से निपटने के इन तरीकों और सिद्धांतों को उनकी मानवता के सार से अलग नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ी बात, अपने परिवार से मिली शिक्षा के प्रभाव उनके कार्यों को अधिक स्पष्ट और ठोस बनाने का काम करते हैं, और उनकी प्रकृति सार को और अच्छी तरह स्पष्ट करते हैं। इसलिए, सही और गलत के प्रमुख मुद्दों और परमेश्वर के घर के हितों पर असर डालने वाले मामलों का सामना होने पर, अगर ऐसे लोग कुछ सही फैसले करके परमेश्वर के घर के हितों को बनाए रखने, अपने अपराधों को कम करने, और परमेश्वर के समक्ष अपने कुकर्मों को कम करने के लिए, सांसारिक आचरण के उन फलसफों को त्याग दें जो उनके दिलों में बसे हैं, जैसे कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,”—तो इससे उन्हें क्या फायदा होगा? कम से कम, जब भविष्य में परमेश्वर हर एक व्यक्ति का परिणाम निर्धारित करेगा, तो इससे उनकी सजा कम हो जाएगी और परमेश्वर उन्हें कम ताड़ना देगा। इस तरह अभ्यास करने से, ऐसे लोगों के पास खोने के लिए कुछ नहीं होगा, पर पाने के लिए सब कुछ होगा, है न? अगर उन्हें सांसारिक आचरण के अपने सभी फलसफों को पूरी तरह से त्यागने के लिए मजबूर किया जाए, तो यह उनके लिए आसान नहीं होगा, क्योंकि इसमें उनका मानवता सार शामिल है, और ये गोलमोल बातें करने वाले कपटी लोग सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते। उनके लिए अपने परिवारों द्वारा सिखाए गए शैतानी फलसफों को त्यागना इतना सरल और आसान नहीं होता है, क्योंकि—अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों को अलग रखने के बाद भी—वे खुद शैतानी फलसफों में बहुत अधिक विश्वास करते हैं, और उन्हें संसार से निपटने का यह नजरिया पसंद आता है, जो कि बहुत ही व्यक्तिगत, व्यक्तिपरक नजरिया है। लेकिन अगर ऐसे लोगों में चतुराई है—अगर अपने हितों को खतरा या नुकसान न होने पर वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा के लिए इनमें से कुछ अभ्यासों को त्याग पाते हैं—तो यह वास्तव में उनके लिए अच्छी बात है, क्योंकि कम से कम इससे उनके अपराध और परमेश्वर द्वारा उन्हें मिलने वाली ताड़ना कम हो सकती है, और यहाँ तक कि पासा पलट भी सकता है और परमेश्वर उन्हें ताड़ना देने के बजाय इनाम देकर याद भी रख सकता है। यह कितना शानदार होगा! क्या यह अच्छी बात नहीं होगी? (बिल्कुल।)

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12)

तुम्हारे परिवार ने तुम्हें और कैसी शिक्षा दी है? उदाहरण के लिए, तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें अक्सर बताते हैं : “अगर तुमने ज्यादा मुँह ज्यादा चलाया और बोलने में उतावलापन दिखाया, तो देर-सबेर तुम मुसीबत में फँस जाओगे! तुम्हें याद रखना चाहिए कि ‘जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है’! इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि अगर तुम बहुत ज्यादा बोलोगे, तो निश्चित तौर पर तुम्हारे मुँह से कुछ गलत निकल ही जाएगा। चाहे कोई भी मौका हो, बिना सोचे-समझे कुछ मत बोलो—कुछ भी कहने से पहले दूसरों की बातें सुनो। अगर तुम बहुमत के साथ चलोगे, तो सब ठीक रहेगा। लेकिन अगर तुम हमेशा दूसरों से अलग दिखने की कोशिश करोगे, लगातार बिना सोचे-समझे कुछ भी बोलोगे और अपने चीफ, बॉस या दूसरों की राय जाने बिना अपनी राय सामने रखोगे, और बाद में पता चला कि तुम्हारे चीफ या बॉस की राय तुमसे अलग है, तो वे तुम्हारा जीना मुश्किल कर देंगे। क्या इससे किसी का भला हो सकता है? नादान बच्चे, आगे से तुम्हें सावधानी बरतनी होगी। जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है। बस इसे याद रखो, और बिना सोचे-समझे कुछ मत बोलो! मुँह खाना खाने, साँस लेने, अपने वरिष्ठों से मीठी बातें करने और दूसरों की खुशामद करके के लिए है, सच बोलने के लिए नहीं। तुम्हें बुद्धिमानी से अपने शब्दों को चुनना चाहिए, चालें चलनी और तरकीबें लड़ानी चाहिए और अपने दिमाग का इस्तेमाल करना चाहिए। कुछ भी कहने से पहले, मन में उन बातों पर मंथन करो, उन्हें बार-बार दोहराओ, और अपनी बात कहने के लिए सही समय का इंतजार करो। तुम्हारी बात परिस्थिति पर भी निर्भर होनी चाहिए। अगर तुम अपनी राय बताना शुरू करते हो, मगर फिर देखते हो कि लोग इसमें दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं या अच्छी प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं, तो वहीं रुक जाओ और सोचो कि अपनी राय इस तरह कैसे बताई जाए जिससे सभी खुश रहें और किसी को ठेस न पहुँचे। एक बुद्धिमान बच्चा यही करेगा। ऐसा करने से, तुम मुसीबत में नहीं फँसोगे और सभी तुम्हें पसंद करेंगे। और जब सभी तुम्हें पसंद करेंगे, तो क्या यह तुम्हारे लिए फायदेमंद नहीं होगा? क्या इससे भविष्य में तुम्हारे लिए ज्यादा अवसर नहीं पैदा होंगे?” तुम्हारा परिवार यह बताकर तुम्हें न केवल अच्छी प्रतिष्ठा पाने, शीर्ष पर पहुँचने और दूसरों के बीच अपनी जगह बनाने के तरीके की शिक्षा देता है, बल्कि तुम्हें यह भी सिखाता है कि बाहरी दिखावों के जरिये दूसरों को कैसे धोखा दें और कैसे सच नहीं बोलें, और कैसे अपने मन की कोई भी बात दूसरों के सामने न कहें। कुछ लोग जो सच बोलने के बाद मुसीबत में पड़ गए हैं, वे अपने परिवार की बताई इस कहावत को याद करते हैं, “जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है,” और इससे सबक लेते हैं। इसके बाद वे इस कहावत को अमल में लाने और इसे अपना आदर्श वाक्य बनाने के लिए ज्यादा इच्छुक हो जाते हैं। दूसरे लोग मुसीबत में नहीं पड़े, लेकिन इस संबंध में अपने परिवार की शिक्षा को ईमानदारी से स्वीकारते हैं, और हर मौके पर इस कहावत को लगातार अमल में लाते हैं। वे इसे जितना अधिक अमल में लाते हैं, उतना ही उन्हें महसूस होता है कि “मेरे माँ-बाप और दादा-दादी को मेरी कितनी परवाह है, वे सभी मेरे प्रति ईमानदार हैं और सिर्फ मेरा भला चाहते हैं। मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ कि उन्होंने मुझे यह कहावत बताई, ‘जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है,’ वरना मैं अपने बड़बोलेपन के कारण बार-बार मुसीबत में पड़ जाता और कई लोग मेरा जीना हराम कर देते या मुझे अपमान भरी नजरों से देखते या मेरा उपहास करते और मजाक उड़ाते। यह कहावत कितनी उपयोगी और लाभकारी है!” इस कहावत को अमल में लाने से उन्हें बहुत सारे ठोस फायदे मिलते हैं। बेशक, जब वे परमेश्वर के समक्ष आते हैं, तब भी यही सोचते हैं कि यह कहावत सबसे उपयोगी और लाभकारी चीज है। जब भी कोई भाई या बहन अपनी व्यक्तिगत दशा, भ्रष्टता या अनुभव और ज्ञान के बारे में खुलकर संगति करती है, तो वे भी संगति करना चाहते हैं और एक स्पष्टवादी और सच्चा इंसान बनना चाहते हैं, और वे भी ईमानदारी से अपने मन या दिल की बात कहना चाहते हैं, ताकि कुछ समय के लिए उनके मन को राहत मिले, जो इतने सालों से दबा हुआ है या वे कुछ हद तक आजादी और मुक्ति पाना चाहते हैं। मगर जैसे ही अपने माँ-बाप की बार-बार सिखाई बातें उनके कानों में गूँजती हैं कि “‘जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है,’ बिना सोचे-समझे कुछ मत कहो, बोलने वाला बनने के बजाय सुनने वाले बनो, और दूसरों की बातें सुनना सीखो,” तो वे अपनी बात मन में ही दबा लेते हैं। जब बाकी सभी लोग अपनी बात कह देते हैं, तो वे कुछ नहीं कहते और मन-ही-मन सोचते हैं : “बढ़िया है, इस बार मैंने कुछ न कहकर अच्छा ही किया, क्योंकि अगर मैं अपनी बात कह देता, तो लोग मेरे बारे में कोई न कोई राय बना लेते, और मैं शायद कुछ खो बैठता। कुछ न कहना ही सबसे अच्छा है, शायद इस तरह सबको यही लगेगा कि मैं ईमानदार हूँ और इतना कपटी नहीं हूँ, बल्कि स्वाभाविक रूप से खामोश रहने वाला व्यक्ति हूँ, और इसलिए कोई ऐसा व्यक्ति नहीं हूँ जो साजिश रचता हो या जो बहुत भ्रष्ट हो, और विशेष रूप से ऐसा व्यक्ति नहीं हूँ जो परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखता है, बल्कि मैं एक सरल और सच्चा व्यक्ति हूँ। लोगों का मेरे बारे में ऐसा सोचना बुरा तो नहीं है, फिर मैं कुछ क्यों कहूँ? ‘जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है,’ इस कहावत का पालन करके मुझे वाकई कुछ परिणाम दिख रहे हैं, तो मैं इसी तरह व्यवहार करता रहूँगा।” इस कहावत का पालन करने से उसे एक अच्छा, कुछ हासिल होने वाला एहसास होता है, और इसलिए वह एक बार, दो बार चुप रहता है, और ऐसा तब तक चलता है, जब एक दिन उसके अंदर इतनी सारी बातें इकट्ठी हो जाती हैं कि वह अपने भाई-बहनों को सब खुलकर बताना चाहता है, मगर ऐसा लगता है मानो उसके मुँह और होंठ सिल गए हों, और वह कुछ नहीं कह पाता है। क्योंकि वह अपने भाई-बहनों से कुछ नहीं कह पाता है, तो परमेश्वर से बात करने की कोशिश करता है, उसके सामने घुटने टेककर कहता है, “परमेश्वर, मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ। मैं...।” भले ही वह अपने मन में कई बार इस पर विचार कर चुका है, मगर वह नहीं जानता कि अपनी बात कैसे कहे, वह इसे व्यक्त नहीं कर पाता है, ऐसा लगता है जैसे वह एकदम गूँगा हो गया है। वह सही शब्द चुनना या यहाँ तक कि ठीक से वाक्य बनाना भी नहीं जानता है। इतने वर्षों से इकट्ठी हुई भावनाएँ उस पर काफी दबाव बनाती हैं, ऐसा महसूस कराती हैं मानो वह एक अँधकारमय और घिनौना जीवन जी रहा हो, और जब वह परमेश्वर को अपने दिल की बात बताने और अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का मन बनाता है, तो उसके पास कहने को शब्द ही नहीं होते और वह नहीं जानता कि शुरुआत कहाँ से करें या अपनी बात कैसे कहें। क्या वह दुखी नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) तो फिर, उसके पास परमेश्वर से कहने के लिए कुछ क्यों नहीं है? वह सिर्फ अपना परिचय देता है। वह परमेश्वर को अपने दिल की बात बताना चाहता है, पर उसके पास शब्द नहीं है, और अंत में वह बस इतना कह पाता है : “परमेश्वर मुझे कुछ शब्द दो, ताकि मुझे जो कहना चाहिए वह कह सकूँ!” तब परमेश्वर जवाब देता है : “तुम्हें कहना तो बहुत कुछ चाहिए, पर तुम कहना ही नहीं चाहते, और मौका मिलने पर भी तुम कुछ कहते नहीं हो, इसलिए मैंने तुम्हें जो कुछ भी दिया है, सब वापस लेता हूँ। तुम्हें यह नहीं मिलेगा, तुम इसके लायक नहीं हो।” तब जाकर उसे एहसास होता है कि बीते सालों में उसने कितना कुछ खोया है। भले ही उसे लगता है कि उसने बहुत गरिमामय जीवन जिया है, खुद को अच्छी तरह से ढककर रखा है और सही तरीके से दिखाने की कोशिश की है, मगर जब वह देखता है कि उसके भाई-बहन हर वक्त लाभ उठाते आए हैं, और वे बिना हिचकिचाहट अपने अनुभवों के बारे में बात कर सकते हैं और अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बता सकते हैं, तो उसे एहसास होता है कि वह खुद तो एक वाक्य भी नहीं कह सकता है, और उसे कहने का तरीका भी नहीं पता है। ऐसे लोगों ने इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास किया है, तो वे स्वयं के बारे में जो जानते हैं वो बताना चाहते हैं, परमेश्वर के वचनों के अपने अनुभव पर चर्चा करना चाहते हैं, परमेश्वर से कुछ प्रबोधन और थोड़ी रोशनी प्राप्त करना चाहते हैं, और कुछ हासिल करना चाहते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से, क्योंकि वे सभी अक्सर इस राय पर अड़े रहते हैं कि “जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है,” और अक्सर इस विचार से बंधे और नियंत्रित होते हैं, इसलिए वे इतने सालों से इसी कहावत के अनुसार जीते आए हैं, उन्हें परमेश्वर से कोई प्रबोधन या रोशनी नहीं मिली है, और जीवन प्रवेश के संबंध में वे आज भी गरीब, दयनीय और खाली हाथ हैं। उन्होंने इस कहावत और विचार पर पूरी तरह से अमल किया है और इनका अच्छी तरह से पालन किया है, मगर इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी, उन्हें थोड़ा भी सत्य हासिल नहीं हुआ है, और वे आज भी गरीब और अंधे बने हुए हैं। परमेश्वर ने उन्हें मुँह तो दिए, पर उनमें सत्य पर संगति करने की कोई क्षमता नहीं है, न ही अपनी भावनाओं और ज्ञान के बारे में बात करने की क्षमता है, फिर भाई-बहनों से बात करने की क्षमता होना तो दूर की बात है। इससे भी ज्यादा दयनीय यह है कि उनके पास परमेश्वर से बात करने की क्षमता भी नहीं है, और उन्होंने ऐसी क्षमता खो दी है। क्या वे दयनीय नहीं हैं? (हाँ, बिल्कुल हैं।) दयनीय और निराशाजनक। क्या तुम्हें बात करना नापसंद नहीं है? क्या तुम्हें हमेशा इस बात का डर नहीं लगता कि जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है? तो फिर तुम्हें हमेशा चुप ही रहना चाहिए। तुम अपने अंतरतम के विचारों को ढककर रखते हो और जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है उसे दबाए रखते हो, उसे मुहरबंद कर देते हो और सामने आने से रोकते हो। तुम लगातार अपनी इज्जत खोने, खतरा महसूस होने, अपनी असलियत दूसरों के सामने आने से डरते हो, और इस बात से भी डरते हो कि अब तुम दूसरों की नजरों में एक आदर्श, ईमानदार और अच्छे इंसान नहीं रहोगे, तो तुम खुद को ढक लेते हो और अपने असली विचारों के बारे में कुछ नहीं कहते हो। फिर अंत में क्या होता है? तुम हर तरह से गूँगे बन जाते हो। तुम्हें इतना नुकसान किसने पहुँचाया? इसकी जड़ में, तुम्हारे परिवार से मिली शिक्षा है जिसने तुम्हें इतना नुकसान पहुँचाया है। मगर तुम्हारे व्यक्तिगत परिप्रेक्ष्य से, ऐसा इसलिए भी है क्योंकि तुम्हें शैतानी फलसफों के अनुसार जीना पसंद है, इसीलिए तुमने यह माना कि तुम्हारे परिवार से मिली शिक्षा सही है, और यह नहीं माना कि परमेश्वर तुमसे जो अपेक्षाएँ करता है वे सकारात्मक हैं। तुम्हारे परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों को तुम सकारात्मक चीज मानते हो, जबकि परमेश्वर के वचनों, उसकी अपेक्षाओं और उसके प्रावधान, सहायता और शिक्षण को ऐसी नकारात्मक चीजें मानते हो जिनसे बचकर रहना चाहिए। इसलिए, शुरुआत में परमेश्वर ने तुम्हें चाहे कितना भी दिया हो, इतने सालों तक सतर्कता बरतने और इनकार करने के कारण, अंत में परमेश्वर तुमसे सब कुछ वापस ले लेता है और तुम्हें कुछ नहीं देता, क्योंकि तुम इन्हें पाने के लायक ही नहीं हो। इससे पहले कि यह सब हो, तुम्हें इस संबंध में अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों को त्याग देना चाहिए, और इस गलत विचार को स्वीकार नहीं करना चाहिए कि “जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है।” यह कहावत तुम्हें अधिक संकीर्ण, अधिक धूर्त और पाखंडी बनाती है। यह लोगों के ईमानदार होने की परमेश्वर की अपेक्षा और उनके स्पष्टवादी और सच्चे होने की उसकी उम्मीद के बिल्कुल विपरीत और विरोधी है। परमेश्वर का विश्वासी और अनुयायी होने के नाते, तुम्हें सत्य का अनुसरण करने के लिए पूरी तरह से दृढ़ होना चाहिए। और जब तुम सत्य का अनुसरण करने के लिए पूरी तरह दृढ़ होगे, तब तुम्हें अपने परिवार से मिली शिक्षा के प्रभावों को भी त्याग देने पर बिल्कुल दृढ़ होना चाहिए जो तुम्हें सकारात्मक लगते हैं—इसमें कोई चुनाव बिल्कुल नहीं करना चाहिए। अपने परिवार से मिली शिक्षा का तुम पर चाहे जैसा भी प्रभाव पड़ा हो, वे तुम्हारे लिए चाहे कितने भी अच्छे या फायदेमंद क्यों न हों, वे चाहे तुम्हारी कितनी भी रक्षा करें, मगर वे लोगों और शैतान से आते हैं, और तुम्हें उन्हें त्याग देना चाहिए। भले ही परमेश्वर के वचन और लोगों से उसकी अपेक्षाएँ, तुम्हारे परिवार से मिली शिक्षा के प्रभावों से अलग हों, या वे तुम्हारे हितों को नुकसान ही क्यों न पहुँचाएँ, और तुम्हारे अधिकारों को छीन लें, और भले ही तुम्हें ऐसा लगता हो कि वे तुम्हारी रक्षा नहीं करते, बल्कि तुम्हारी असलियत सामने लाने और तुम्हें मूर्ख दिखाने के लिए हैं, फिर भी तुम्हें उन्हें सकारात्मक चीजें ही मानना चाहिए, क्योंकि वे परमेश्वर से आते हैं, वे सत्य हैं, और तुम्हें उन्हें स्वीकारना चाहिए। अगर तुम्हारे परिवार ने तुम्हें जिन चीजों की शिक्षा दी है उनका प्रभाव तुम्हारी सोच और आचरण, जीवन जीने के तुम्हारे नजरिये और तुम्हारे द्वारा अपनाए गए मार्ग पर पड़ता है, तो तुम्हें उन्हें त्याग देना चाहिए और उन पर अड़े नहीं रहना चाहिए। बल्कि, तुम्हें उन्हें परमेश्वर से आए संबंधित सत्यों से बदल देना चाहिए, और ऐसा करने में, तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई गई चीजों की अंतर्निहित समस्याओं और सार को लगातार समझना और पहचानना भी चाहिए, और फिर अधिक सटीकता, व्यावहारिकता और सच्चाई से परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य और अभ्यास करना चाहिए। लोगों और चीजों के बारे में परमेश्वर से आने वाले विचारों, दृष्टिकोणों और अभ्यास के सिद्धांतों को स्वीकार करना—यही एक सृजित प्राणी की कर्तव्य-बद्ध जिम्मेदारी है, और एक सृजित प्राणी को यही करना चाहिए; यही वह विचार और दृष्टिकोण भी है जो एक सृजित प्राणी को रखना चाहिए।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12)

परिवार अपनी शिक्षा से एक और प्रकार का प्रभाव डालता है। उदाहरण के लिए, तुम्हारे परिवार के लोग हमेशा तुमसे कहते हैं : “भीड़ से बहुत ज्यादा अलग मत दिखो, खुद पर लगाम लगाओ और अपनी कथनी और करनी के साथ-साथ अपनी व्यक्तिगत प्रतिभाओं, क्षमताओं, बुद्धि वगैरह पर थोड़ा संयम रखो। सबसे अलग दिखने वाला व्यक्ति मत बनो। जैसी कि कहावत है, ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है’ और ‘धरन का जो हिस्सा बाहर निकला होता है वह सबसे पहले सड़ता है।’ अगर तुम अपना बचाव करना चाहते हो और अपने समूह में दीर्घकालिक और स्थायी जगह पाना चाहते हो, तो वह पक्षी मत बनो जो अपनी गर्दन बाहर निकाले रखता है, तुम्हें खुद पर लगाम लगानी चाहिए और सबसे ऊपर उठने की महत्वाकांक्षा नहीं पालनी चाहिए। जरा उस बिजली के खंभे के बारे में सोचो, तूफान आने पर सबसे पहले चोट उसी पर पड़ती है, क्योंकि आसमानी बिजली सबसे ऊँची चीज पर गिरती है; और जब तूफानी हवा चलती है, तो खतरा सबसे ऊँचे पेड़ को ही होता है और वह जड़ से उखड़ जाता है; और सर्दियों में, सबसे ऊँचा पहाड़ ही पहले जमता है। लोगों के साथ भी ऐसा ही है—अगर तुम हमेशा दूसरों से अलग दिखोगे और सबका ध्यान खींचोगे, तो किसी न किसी की नजर तुम पर पड़ेगी, और वह तुम्हें दंडित करने के लिए गंभीरता से सोचेगा। ऐसा पक्षी मत बनो जो अपनी गर्दन बाहर निकाले रखती है, अकेले मत उड़ो। तुम्हें झुंड में ही रहना चाहिए। वरना, अगर तुम्हारे आस-पास कोई सामाजिक विरोध वाला आंदोलन खड़ा होता है, तो सबसे पहले तुम ही दंडित किए जाओगे, क्योंकि तुम सबसे अलग दिखने वाला पक्षी हो। कलीसिया में अगुआ या समूह के प्रमुख मत बनो। वरना, परमेश्वर के घर में कार्य-संबंधी कोई भी नुकसान या समस्या होने पर, अगुआ या सुपरवाइजर होने के नाते, सबसे पहले उँगली तुम पर ही उठेगी। तो, वह पक्षी मत बनो जो अपनी गर्दन उठाए रखता है, क्योंकि जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है। तुम्हें कछुए की तरह अपना सिर छुपाकर पीछे हटना सीखना होगा।” तुम अपने माँ-बाप की इन बातों को याद रखते हो, और जब अगुआ चुनने का समय आता है, तो तुम यह कहकर उस ओहदे को ठुकरा देते हो, “ओह, यह मुझसे नहीं होगा! मेरा परिवार और बच्चे हैं, मैं उनके साथ एकदम बंधा हुआ हूँ। मैं अगुआ नहीं बन सकता। तुम लोगों को ही अगुआ बनना चाहिए, मुझे मत चुनो।” मान लो कि फिर भी तुम्हें अगुआ बना दिया जाता है, पर तुम इस ओहदे को स्वीकारना नहीं चाहते। तुम कहते हो, “मुझे यह ओहदा छोड़ना होगा। तुम लोग ही अगुआ बनो। मैं यह मौका तुम सबको दे रहा हूँ। तुम यह ओहदा ले सकते हो, मैं इसे छोड़ रहा हूँ।” तुम मन में सोचते हो, “हुंह! जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है। तुम जितनी ऊँचाई पर चढ़ोगे, उतनी ही जोर से गिरोगे, और ऊँचाई पर तुम अकेले ही होगे। मैं तुम्हें अगुआ बनने दूँगा, और अगुआ बनने के बाद एक दिन ऐसा आएगा जब तुम अपना तमाशा बना लोगे। मैं कभी अगुआ नहीं बनना चाहता, मैं कामयाबी की सीढ़ी नहीं चढ़ना चाहता, यानी मैं ऊँचाई से गिरूँगा भी नहीं। जरा सोचो, क्या फलाँ व्यक्ति को अगुआ के ओहदे से बर्खास्त नहीं किया गया था? बर्खास्त किए जाने के बाद उसे निकाल दिया गया—उसे एक साधारण विश्वासी बनने का भी मौका नहीं मिला। यह उन कहावतों का एक आदर्श उदाहरण है, ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है’ और ‘धरन का जो हिस्सा बाहर निकला होता है वह सबसे पहले सड़ता है।’ सही कहा न मैंने? क्या उसे दंडित नहीं किया गया था? लोगों को अपना बचाव करना सीखना चाहिए, वरना उनकी बुद्धि किस काम की? अगर तुम्हारे पास दिमाग है, तो खुद को बचाने के लिए उसका इस्तेमाल करो। कुछ लोग इस मुद्दे को स्पष्टता से नहीं समझ पाते, लेकिन समाज में और लोगों के किसी भी समूह में ऐसा ही होता है—‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।’ जब तुम अपनी गर्दन उठाओगे, तो तुम्हारा बहुत सम्मान होगा, जब तक कि तुम्हें गोली नहीं मार दी जाती। तब तुम्हें एहसास होगा कि जो लोग खुद को सबसे सामने रखते हैं उन्हें इसका योग्य फल देर-सबेर मिल ही जाता है।” ये तुम्हारे माँ-बाप और परिवार की गंभीर शिक्षाएँ और अनुभव हैं, और उनके जीवनकाल का परिष्कृत ज्ञान भी है, जिसे वे बिना किसी हिचकिचाहट तुम्हारे कानों में फुसफुसाते हैं। “तुम्हारे कानों में फुसफुसाने” से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि किसी दिन, तुम्हारी माँ तुम्हारे कान में फुसफुसाती है, “मैं तुम्हें बता दूँ, अगर मैंने जीवन में कोई चीज सीखी है तो वो यह है कि ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है,’ जिसका मतलब है कि अगर कोई सबसे अलग दिखता हो या बहुत ज्यादा ध्यान खींचता हो, तो उसके दंडित होने की काफी संभावना है। अब देखो, तुम्हारे डैड कितने विनम्र और निष्कपट हैं, ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें दमन के किसी अभियान में दंडित किया गया था। तुम्हारे डैड में साहित्यिक प्रतिभा है, वे लिख सकते हैं और भाषण दे सकते हैं, उनमें अगुआई करने का भी कौशल है, पर वे भीड़ से कुछ ज्यादा ही अलग दिखे और फिर उन्हें दंडित किया गया। तब से, ऐसा क्यों है कि तुम्हारे डैड कभी सरकारी अधिकारी और ऊँची हस्ती बनने के बारे में बात तक नहीं करते? इसकी वजह यही है। मैं तुम्हें दिल से यह सच बता रही हूँ। तुम्हें इसे अच्छी तरह सुनकर याद रखना होगा। भूलना मत, जहाँ भी जाओ इसे याद रखना। एक माँ होने के नाते यही वो सबसे अच्छी चीज है जो मैं तुम्हें दे सकती हूँ।” इसके बाद से तुम उनकी बातें याद रखते हो, और जब भी तुम्हें वह कहावत याद आती है “जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है,” तो यह तुम्हें अपने डैड की याद दिलाती है, और जब भी तुम उनके बारे में सोचते हो, तुम इस कहावत को याद करते हो। तुम्हारे डैड एक समय ऐसे पक्षी थे जो अपनी गर्दन बाहर निकाले रखते थे, इसी वजह वे गोली के शिकार बने, और अब उनके उदास और निराश चेहरे ने तुम्हारे दिमाग पर गहरी छाप छोड़ दी है। तो, जब भी तुम भीड़ से अलग दिखना चाहते हो, अपने मन की बात कहना चाहते हो और परमेश्वर के घर में ईमानदारी से अपना कर्तव्य पूरा करना चाहते हो, तो तुम्हारे कानों में अपनी माँ के दिल से निकली यह सलाह गूँजती है—“जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।” तो, तुम एक बार फिर पीछे हट जाते हो, सोचते हो, “मैं कोई प्रतिभा या विशेष क्षमताएँ नहीं दिखा सकता, मुझे खुद पर संयम रखकर उन्हें दबाए रखना होगा। और जहाँ तक लोगों को अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपना पूरा दिल, दिमाग और ताकत लगाने के लिए परमेश्वर के उपदेश की बात है, तो मुझे इन वचनों का एक हद तक ही अभ्यास करना होगा और बहुत ज्यादा मेहनत करके दूसरों से अलग दिखने से बचना होगा। अगर मैंने बहुत ज्यादा मेहनत की और कलीसिया के कार्य की अगुआई करके दूसरों से अलग दिखने लगा, और फिर परमेश्वर के घर के कार्य में कुछ गड़बड़ हुई और उसका जिम्मेदार मुझे ठहराया गया, तो क्या होगा? मैं यह जिम्मेदारी कैसे उठाऊँ? क्या मुझे बाहर निकाल दिया जाएगा? क्या मैं बलि का बकरा बनूँगा, वह पक्षी बनूँगा जो अपनी गर्दन बाहर निकाले रखता है? परमेश्वर के घर में, यह कहना मुश्किल है कि ऐसे मामलों का नतीजा क्या होगा। तो, चाहे मैं जो भी करूँ, मुझे अपने लिए बच निकलने का रास्ता छोड़ना होगा, मुझे अपनी सुरक्षा करना सीखना ही होगा, और कुछ भी कहने या करने से पहले अपनी सफलता सुनिश्चित करनी होगी। यही सबसे सही बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला है, क्योंकि मेरी माँ कहती है, ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।’” यह कहावत तुम्हारे दिल की गहराई में जड़ें जमा चुकी है और तुम्हारे दैनिक जीवन पर इसका गहरा प्रभाव है। बेशक, इससे भी ज्यादा, यह अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारे रवैये को प्रभावित करती है। क्या इसमें गंभीर समस्याएँ नहीं हैं? इसलिए, जब भी तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, ईमानदारी से खुद को खपाना चाहते हो, और पूरे दिल से अपनी सारी ताकत का इस्तेमाल करना चाहते हो, तो यह कहावत—“जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है”—हमेशा तुम्हारा रास्ता रोकती है, और अंत में तुम हमेशा अपने लिए बचने का रास्ता और पैंतरेबाजी के लिए जगह छोड़ते हो, और बच निकलने का रास्ता छोड़ने के बाद तुम सिर्फ नाप-तौलकर ही अपना कर्तव्य निभाते हो। क्या मैंने गलत कहा? क्या इस संबंध में तुम्हारे परिवार से मिली शिक्षा तुम्हें उजागर करके निपटाए जाने से काफी हद तक बचाती है? तुम्हारे लिए तो यह एक और ताबीज है, है न? (हाँ।)

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12)

परिवार से मिली शिक्षा में बहुत करके दुनिया से व्यवहार करने और निपटने के खेल के और भी बहुत-से नियम जुड़े होते हैं। मिसाल के तौर पर, माता-पिता अक्सर कहते हैं, “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए; तुम अत्यंत मूर्ख और भोले हो।” माता-पिता अक्सर ऐसी बातें दोहराते रहते हैं, और बड़े-बूढ़े यह कह कर तुम्हें तंग करते हैं, “नेक इंसान बनो, दूसरों को नुकसान मत पहुँचाओ, लेकिन तुम्हें खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए। सभी लोग ख़राब हैं। शायद तुम देखो कि कोई बाहर से तुमसे मीठी बातें करता है, मगर तुम्हें नहीं पता वह भीतर क्या सोच रहा है। लोगों के दिल उनकी त्वचा के नीचे छिपे होते हैं, और एक बाघ का चित्र बनाते समय तुम उसकी खाल दिखाते हो, उसकी हड्डियाँ नहीं; इंसान को जानने में, तुम उसकी शक्ल-सूरत को जान सकते हो, लेकिन उसके दिल को नहीं।” क्या इन वाक्यांशों का कोई सही पहलू भी है? इनमें से प्रत्येक को शाब्दिक रूप से देखें, तो ऐसे वाक्यांशों में कुछ गलत नहीं है। कोई व्यक्ति भीतर गहरे क्या सोच रहा है, उसका दिल शातिर है या दयालु, नहीं जाना जा सकता। किसी व्यक्ति की आत्मा के भीतर झाँकना नामुमकिन है। इन वाक्यांशों का निहितार्थ जाहिर तौर पर सही है, लेकिन यह एक प्रकार का सिद्धांत ही है। इन दो वाक्यांशों से लोग आखिरकार दुनिया से निपटने का कौन-सा सिद्धांत निकाल पाते हैं? वह यह है कि “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए।” पुरानी पीढ़ी यही कहती है। माता-पिता और बड़े-बूढ़े अक्सर यह कहते हैं, और वे तुम्हें यह कह कर निरंतर परामर्श देते हैं, “सावधान रहो, मूर्ख मत बनो, और अपने दिल की पूरी बात प्रकट मत करो। खुद को सुरक्षित रखना सीखो, और सतर्क रहो। अच्छे दोस्तों के सामने भी अपनी असलियत या अपना दिल खोल कर मत रखो। उनके लिए अपनी जान दाँव पर मत लगाओ।” क्या तुम्हारे बड़े-बूढ़ों की यह चेतावनी सही है? (नहीं, यह लोगों को कपटपूर्ण तरीके सिखाती है।) सैद्धांतिक तौर पर, इसका एक अच्छा प्राथमिक उद्देश्य है : तुम्हारी रक्षा करना, तुम्हें खतरनाक हालात में गिरने से रोकना, तुम्हें दूसरों से हानि होने या धोखा खाने से बचाना, तुम्हारे भौतिक हितों, निजी सुरक्षा और तुम्हारे जीवन को सुरक्षित रखना। इसका उद्देश्य तुम्हें मुसीबत, कानूनी मुकदमों और प्रलोभनों से बचाना और हर दिन अमन-चैन और खुशी से जीने देना है। माता-पिता और बड़े-बूढ़ों का मुख्य उद्देश्य बस तुम्हारी रक्षा करना है। लेकिन वे जिस तरह तुम्हारी रक्षा करते हैं, पालन करने के लिए तुम्हें जिन सिद्धांतों का परामर्श देते हैं, और जो विचार वे तुम्हारे मन में बैठाते हैं वे सब सही नहीं हैं। वैसे उनका मुख्य उद्देश्य सही है, पर जो विचार वे तुम्हारे भीतर बैठाते हैं वे अनजाने ही तुम्हें अति की ओर आगे बढ़ाते हैं। ये विचार तुम्हारे दुनिया से निपटने के तरीके के सिद्धांत और आधार बन जाते हैं। जब तुम सहपाठियों, सहयोगियों, सहकर्मियों, वरिष्ठ अधिकारियों और समाज के हर प्रकार के व्यक्ति, जीवन के हर वर्ग के लोगों से मिलते-जुलते हो, तो तुम्हारे भीतर तुम्हारे माता-पिता द्वारा बैठाए गए रक्षात्मक विचार अनजाने ही तुम्हारे परस्पर रिश्तों से जुड़े मामलों को संभालते समय तुम्हारा सबसे बुनियादी जंतर और सिद्धांत बन जाते हैं। यह कौन-सा सिद्धांत है? यह है : मैं तुम्हें हानि नहीं पहुँचाऊँगा, लेकिन मुझे हमेशा सतर्क रहना होगा ताकि मैं तुम्हारे छल-कपट से बच सकूँ, मुश्किलों या कानूनी मुकदमों में फँसने से बच सकूँ, अपने पारिवारिक धन-दौलत को डूबने से बचा सकूँ, अपने परिवार के लोगों का अंत होने और खुद को जेल जाने से बचा सकूँ। ऐसे विचारों और नजरियों के नियंत्रण में जीते हुए, दुनिया से निपटने के ऐसे रवैए वाले सामाजिक समूह में जीते हुए तुम सिर्फ ज्यादा उदास ही हो सकते हो, ज्यादा थक सकते हो, तन-मन दोनों से थक कर चूर हो सकते हो। आगे चलकर तुम इस दुनिया और मानवता के प्रति और ज्यादा प्रतिरोधी और विरक्त हो जाते हो, और उनसे ज्यादा घृणा कर सकते हो। दूसरों से घृणा करते हुए तुम खुद को कम आँकने लगते हो, ऐसा महसूस करते हो कि तुम एक इंसान जैसे नहीं जी रहे हो, बल्कि एक थका-हारा, उदासी भरा जीवन जी रहे हो। दूसरों से होने वाली हानि से बचने के लिए तुम्हें निरंतर सतर्क रहना होता है, और अपनी इच्छा के विरुद्ध काम करना पड़ता है, बातें कहनी पड़ती हैं। अपने हितों की रक्षा और निजी सुरक्षा के प्रयास में तुम अपने जीवन के हर पहलू में एक नकली मुखौटा पहन लेते हो, छद्मवेश में आ जाते हो, और कभी भी सत्य वचन कहने की हिम्मत नहीं करते। इस स्थिति में, जीवित रहने के इन हालात में, तुम्हारी अंतरात्मा को मुक्ति या आजादी नहीं मिल पाती। तुम्हें अक्सर किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत पड़ती है जिससे तुम्हें कोई हानि न हो, जो कभी तुम्हारे हितों के लिए खतरा न बने, जिसके साथ तुम अपने अंतर्मन के विचार साझा कर सको और अपनी बातों की कोई जिम्मेदारी लिए बिना, किसी के मखौल, हँसी, मजाक उड़ाए बिना या कोई नतीजा भुगते बिना अपनी भड़ास निकाल सको। ऐसी स्थिति में जहाँ “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए” का विचार और नजरिया दुनिया से निपटने का तुम्हारा सिद्धांत हो, वहाँ तुम्हारा अंतरतम भय और असुरक्षा से भर जाता है। स्वाभाविक रूप से तुम उदास रहते हो, इससे मुक्ति नहीं पाते और तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत पड़ती है जो तुम्हें सांत्वना दे, जिससे तुम अपने मन की बात कह सको। इसलिए, इन पहलुओं से परखें तो दुनिया से निपटने का तुम्हारे माता-पिता का सिखाया सिद्धांत “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए,” भले ही तुम्हारी रक्षा करने में सफल हो सकता है, मगर यह एक दुधारी तलवार है। वैसे तो यह तुम्हारे भौतिक हितों और निजी सुरक्षा की किसी हद तक रक्षा करता है, पर यह साथ ही तुम्हें उदास और दुखी बना देता है, तुम मुक्ति नहीं पाते, और यह तुम्हें इस दुनिया और मानवता से और भी ज्यादा विरक्त कर देता है। साथ ही, भीतर गहरे तुम हल्के-से उकताने भी लगते हो कि ऐसे बुरे युग में, ऐसे बुरे लोगों के समूह में तुम्हारा जन्म हुआ। तुम नहीं समझ पाते कि लोगों को जीना क्यों चाहिए, जीवन इतना थकाऊ क्यों है, उन्हें हर जगह मुखौटा पहनकर खुद को छद्मवेश में क्यों रखना पड़ता है, या तुम्हें अपने हितों की खातिर हमेशा दूसरों से सतर्क क्यों रहना पड़ता है। तुम चाहते हो कि सच बोल सको, मगर इसके नतीजों के कारण तुम नहीं बोल सकते। तुम एक असली इंसान बनाना चाहते हो, खुलकर बोलना और आचरण करना चाहते हो, और एक नीच व्यक्ति बनने या चोरी-छिपे दुष्ट और शर्मनाक काम करने, पूरी तरह अंधकार में जीने से बचना चाहते हो, मगर तुम इनमें से कुछ भी नहीं कर सकते। तुम ईमानदारी से क्यों नहीं जी सकते? अपने पूर्व कर्मों पर सोच-विचार करते हुए तुम एक हल्की-सी उपेक्षा महसूस करते हो। तुम इस बुरी प्रवृत्ति और इस बुरी दुनिया से घृणा और बेइंतहा नफरत करते हो, और साथ ही खुद से भी गहराई से घृणा करते हो, और तुम्हें अपने इस रूप से घिन होती है। फिर भी ऐसा कुछ नहीं है जो तुम कर सकते हो। भले ही तुम्हारे माता-पिता ने अपनी कथनी-करनी के जरिये तुम्हें यह जंतर सौंपा है, फिर भी तुम्हें लगता है कि तुम्हारे जीवन में खुशी या सुरक्षा की भावना नहीं है। जब तुम इस खुशी, सुरक्षा, ईमानदारी और स्वाभिमान की कमी का अनुभव करते हो, तो तुम यह जंतर पाने के लिए अपने माता-पिता का आभार भी मानते हो और खुद को इन जंजीरों में बाँधने के लिए क्रोधित भी होते हो। तुम नहीं समझते कि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें ऐसा आचरण करने को क्यों कहा, समाज में पाँव जमाने, इस सामाजिक समूह में शामिल होने और अपनी रक्षा करने के लिए ऐसा आचरण करना क्यों जरूरी है। यह एक जंतर है, मगर साथ ही यह एक प्रकार की जंजीर भी है, जिससे तुम अपने दिल में प्रेम और घृणा दोनों महसूस करते हो। लेकिन तुम क्या कर सकते हो? तुम्हारे पास जीवन में सही पथ नहीं है, तुम्हें कोई यह नहीं बताता कि कैसे जिएँ या अपने सामने आई चीजों से कैसे निपटें, और कोई यह नहीं बताता कि तुम जो कर रहे हो वह सही है या गलत, या तुम्हें अपने सामने के पथ पर कैसे चलना चाहिए। तुम सिर्फ भ्रम, अनिश्चय, पीड़ा और बेचैनी में पड़ सकते हो। ये नतीजे तुम्हारे माता-पिता और परिवार द्वारा तुम्हारे मन में बैठाए गए सांसारिक आचरण के फलसफे के हैं, जिससे एक सरल व्यक्ति बनने की तुम्हारी सबसे सरल कामना यानी दुनिया से निपटने के इन उपायों का इस्तेमाल किए बिना ईमानदारी से आचरण कर पाने की तुम्हारी आकांक्षा साकार नहीं हो सकती। तुम समझौते करते हुए, अपनी शोहरत की खातिर जीते हुए, दूसरों से सुरक्षित रहने के लिए खुद को खास तौर पर खूंख्वार बनाते हुए, धौंस खाने से बचने के लिए खूंख्वार, कद्दावर, ताकतवर, सामर्थ्यवान और असाधारण होने का नाटक करते हुए केवल भ्रष्ट ढंग से जी सकते हो। तुम अपनी इच्छा के विरुद्ध ही इस तरह जी सकते हो, जिसके कारण तुम खुद से घृणा करते हो, मगर तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं है। चूँकि तुम्हारे पास दुनिया से निपटने के इन तरीकों या रणनीतियों से बचने की काबिलियत या राह नहीं है, इसलिए तुम खुद को अपने परिवार और माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा के विचारों के अनुसार ही चलने दे सकते हो। बेसुधी की इस प्रक्रिया में लोग अपने परिवारों और माता-पिता द्वारा अपने भीतर बैठाए गए विचारों से बेवकूफ बनते और नियंत्रित होते हैं, और चूँकि वे यह नहीं समझते कि सत्य क्या है और जीना कैसे है, इसलिए वे इसे सिर्फ भाग्य पर छोड़ सकते हैं। भले ही उनमें थोड़ी-सी अंतरात्मा बाकी हो, या उनमें मनुष्यों की तरह जीने की, दूसरों के साथ उचित ढंग से मिल-जुल कर रहने और स्पर्धा करने की छोटी-सी भी आकांक्षा हो, तो उनकी कामनाएँ चाहे जो भी हों, वे अपने परिवार से आए विविध विचारों और नजरियों की शिक्षा और नियंत्रण से बच नहीं सकते, और अंत में वे उसी विचार और नजरिये की शरण में लौट सकते हैं जिसकी उनके परिवार ने उन्हें शिक्षा दी है कि “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए,” क्योंकि उनके सामने कोई दूसरा पथ नहीं है—उनके पास कोई विकल्प नहीं है। ये तमाम चीजें लोगों के सत्य को न समझ पाने और सत्य प्राप्त करने में उनकी विफलता के कारण होते हैं।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (14)

ये पारंपरिक संस्कृतियाँ सत्य क्यों नहीं हैं? इन सबका मूल कारण यह है कि ये चीजें ऐसे विचार हैं जो शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट किए जाने के बाद आए थे। वे परमेश्वर से नहीं आते हैं। इनमें लोगों की कुछ कल्पनाओं और धारणाओं की मिलावट है, और इसके अलावा, वे शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट करने के परिणाम हैं। शैतान लोगों की सोच को बांधने और भ्रष्ट करने के लिए भ्रष्ट मानवजाति के विचारों, दृष्टिकोणों और तमाम तरह की कहावतों और तर्कों का फायदा उठाता है। अगर शैतान लोगों को गुमराह करने के लिए कुछ ऐसी चीजों का इस्तेमाल करता जो साफ तौर पर बेतुकी, हास्यास्पद और गलत हैं, तो लोगों को इनकी पहचान होती; वे सही-गलत में फर्क करने में सक्षम होते, और उन चीजों को ठुकराने और उनकी निंदा करने के लिए इस पहचान का उपयोग करते। इस तरह, ये शिक्षाएँ जाँच-पड़ताल में टिक नहीं पातीं। लेकिन, जब शैतान लोगों को शिक्षित करने, प्रभावित करने और उनके मन में चीजें डालने के लिए कुछ ऐसे विचारों और सिद्धांतों का इस्तेमाल करता है जो लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप होते हैं, और जिनके बारे में उसे लगता है कि जोर देकर बोलने पर जाँच-पड़ताल में टिक पाएँगे, तो मानवजाति आसानी से गुमराह हो जाती है, और लोग इन कहावतों को आसानी से स्वीकार कर इन्हें फैलाने लगते हैं; इस तरह ये कहावतें पीढ़ी-दर-पीढ़ी, आज तक चली आ रही हैं। उदाहरण के लिए, चीनी नायकों के बारे में कही गई कुछ कहानियों को ले लो, जैसे कि यू फेई, यांग परिवार के सेनापतियों और वेन तियानशियांग के बारे में देशभक्ति की कहानियाँ। ये विचार आज तक कैसे चले आ रहे हैं? अगर हम इसे लोगों के पहलू से देखें, तो हर युग में एक ऐसा व्यक्ति या ऐसा शासक होता है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों को शिक्षा देने के लिए लगातार इन उदाहरणों और इन व्यक्तियों के विचारों और भावनाओं का इस्तेमाल करता है, ताकि आने वाली हर पीढ़ी आज्ञाकारी होकर और दब्बू बनकर उनके शासन को स्वीकारे, और ताकि वह आसानी से पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों पर शासन कर सके, और अपने शासन को ज्यादा स्थिर बना सके। यू फेई और यांग परिवार के सेनापतियों की मूर्खतापूर्ण भक्ति, और साथ ही वेन तियानशियांग और कू युआन की देशभक्ति की भावना के बारे में बात करके, वे अपने लोगों को शिक्षित करते हैं और उन्हें एक नियम बताते हैं, जो यह है कि व्यक्ति को वफादारी का आचरण करना चाहिए—एक उत्कृष्ट नैतिक चरित्र वाले व्यक्ति में यह वफादारी होनी ही चाहिए। वफादारी किस हद तक होनी चाहिए? इस हद तक कि “जब सम्राट अपने अधिकारियों को मरने का आदेश देता है, तो उनके पास मरने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता” और “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती”—यह भी एक ऐसी कहावत है जिसका वे सम्मान करते हैं। वे अपने देश से प्यार करने वालों का भी सम्मान करते हैं। अपने देश से प्यार करने का मतलब किसी चीज से प्यार करना है या किसी व्यक्ति से? क्या यह देश से प्यार करना है? क्या यह देशवासियों से प्यार करना है? और देश क्या है? (शासक।) शासक देश के प्रतिनिधि हैं। अगर तुम कहते हो, “मेरे देश के लिए मेरा प्यार वास्तव में मेरे गृहनगर और मेरे माता-पिता के लिए प्यार है। मैं तुम शासकों से प्यार नहीं करता!” तो वे नाराज हो जाएँगे। अगर तुम कहते हो, “मेरे देश के लिए मेरा प्यार मेरे दिल की अंतरतम गहराई से उसके शासकों के लिए प्यार है,” तो वे इसे स्वीकारेंगे और ऐसे प्यार को स्वीकृति देंगे; अगर तुम उन्हें समझाना और स्पष्ट करना चाहो कि तुम उनसे प्यार नहीं करते, तो वे इसे नहीं स्वीकारेंगे। युगों-युगों से शासक किसका प्रतिनिधित्व करते आए हैं? (शैतान का।) वे शैतान का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे शैतान के गिरोह के सदस्य हैं, और सबके सब राक्षस हैं। यह मुमकिन नहीं कि वे लोगों को परमेश्वर की आराधना, सृष्टिकर्ता की आराधना करना सिखा सकें। वे शायद ऐसा कर ही नहीं सकते। बल्कि, वे लोगों को यह बताते हैं कि शासक स्वर्ग का पुत्र होता है। “स्वर्ग का पुत्र” का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि स्वर्ग किसी व्यक्ति को शक्ति देता है, और फिर यह व्यक्ति “स्वर्ग का पुत्र” कहलाने लगता है, और उसके पास स्वर्ग के अधीन सभी लोगों पर शासन करने की शक्ति होती है। क्या शासक यह विचार लोगों के मन में भरते हैं? (बिल्कुल।) जब कोई व्यक्ति स्वर्ग का पुत्र बनता है, तो यह स्वर्ग द्वारा निर्धारित होता है, और स्वर्ग की इच्छा उसके साथ होती है, इसलिए लोगों को उस व्यक्ति के शासन को बिना शर्त स्वीकार करना चाहिए, फिर चाहे वह किसी भी प्रकार का शासन हो। वे लोगों में यह विचार भरते हैं जो तुमसे उस व्यक्ति को स्वर्ग का पुत्र स्वीकार करवाता है, जो इस पर आधारित है कि तुम स्वर्ग के अस्तित्व को मानते हो। तुमसे उस व्यक्ति को स्वर्ग का पुत्र स्वीकार करवाने का क्या उद्देश्य है? इसका उद्देश्य तुमसे यह स्वीकार करवाना नहीं कि स्वर्ग है, या कोई परमेश्वर या सृष्टिकर्ता है, बल्कि तुमसे यह तथ्य स्वीकार करवाना है कि यह व्यक्ति स्वर्ग का पुत्र है, और क्योंकि वह स्वर्ग का पुत्र है, जो स्वर्ग की इच्छा से आया है, इसलिए लोगों को उसके शासन को स्वीकारना चाहिए—वे लोगों में इस तरह के विचार भरते हैं। मानवजाति की शुरुआत से लेकर आज तक विकसित हुए इन सभी विचारों के पीछे—हम जिनका विश्लेषण कर रहे हैं चाहे वे वाक्यांश या मुहावरे हों जिनमें कोई इशारा होता है, या चाहे लोकोक्तियाँ या आम कहावतें हों जिनमें कोई इशारा नहीं होता है—शैतान के बंधन और मानवजाति को गुमराह करने के साथ-साथ ही इन विचारों के लिए भ्रष्ट मानवजाति की भ्रामक परिभाषा भी छिपी हुई है। आने वाले समय में इस भ्रामक परिभाषा का लोगों पर क्या प्रभाव होता है? क्या यह अच्छा, सकारात्मक प्रभाव होता है या फिर नकारात्मक प्रभाव होता है? (नकारात्मक।) यह मूल रूप से नकारात्मक है। उदाहरण के लिए, “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना,” और “अपना प्रकाश छिपाओ और अँधेरे में शक्ति जुटाओ,” और “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना,” और “कभी हार न मानना,” और साथ ही “एक काम करते हुए दूसरा काम करने का दिखावा करना”—आने वाले समय में लोगों पर इन कहावतों का क्या प्रभाव पड़ता है? यानी एक बार जब लोग पारंपरिक संस्कृति के इन विचारों को स्वीकार लेते हैं, तो लोगों की आने वाली हरेक पीढ़ी परमेश्वर से, और परमेश्वर के सृजन और लोगों के उद्धार से, और उसकी प्रबंधन योजना के कार्य से दूर और दूर भटकती चली जाती है। जब लोग पारंपरिक संस्कृति के इन गलत विचारों को स्वीकार लेते हैं, तो उन्हें तेजी से लगने लगता है कि मनुष्य का भाग्य उनके अपने हाथों में होना चाहिए, और खुशी उनके अपने हाथों से बनाई जानी चाहिए और अवसर सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए आरक्षित हैं जो इसके लिए तैयार हैं, जो मानवजाति को तेजी से परमेश्वर को नकारने, परमेश्वर की संप्रभुता को नकारने और शैतान की ताकत के अधीन रहने की ओर ले जाता है। अगर तुम तुलना करो कि आधुनिक युग में लोग किस बारे में बात करना पसंद करते हैं और दो हजार साल पहले लोग किस बारे में बात करना पसंद करते थे, तो इन बातों के पीछे की सोच का मतलब वास्तव में एक ही है। अंतर बस इतना है कि आजकल लोग उनके बारे में ज्यादा विशेष रूप से और खुलकर बात करते हैं। न सिर्फ वे परमेश्वर के अस्तित्व और संप्रभुता को नकारते हैं, बल्कि परमेश्वर का विरोध और उसकी बेहद गंभीरता से निंदा भी करते हैं।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग एक)

परमेश्वर और मनुष्य के वचनों में और सत्य और धर्म-सिद्धांत में सारभूत अंतर क्या होता है? परमेश्वर के वचनों के कारण लोग विवेक और जमीर में, सिद्धांत के साथ कार्य करने में, विकास हासिल करते हैं, और वे जो जीते हैं उसमें सकारात्मक चीजों की वास्तविकता से ज्यादा-से-ज्यादा लैस होते हैं। दूसरी ओर, इंसान के शब्द लोगों की रुचियों और धारणाओं के साथ पूरी तरह से सही बैठते हुए प्रतीत हो सकते हैं, लेकिन वे सत्य नहीं होते, वे खतरों, प्रलोभनों, पाखंडों और भ्रांतियों से छलकते हैं, और इसलिए यदि लोग इन शब्दों के अनुसार काम करते हैं, तो वे जो जीवन जीते हैं वह परमेश्वर से, और परमेश्वर के मानकों से, और भी दूर भटक जाएगा। इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि लोगों के जीने का तरीका और भी अधिक बुरा और शैतान जैसा हो जाएगा। जब लोग पूरी तरह से इंसान के पाखंडों और भ्रांतियों के द्वारा जीते और कार्य करते हैं, जब वे इन तर्कों को पूरी तरह से गले लगा लेते हैं, तो वे शैतान की तरह जीते हैं। और क्या शैतान की तरह जीने का मतलब यह नहीं होता कि वे शैतान ही हैं? (बिल्कुल।) इसलिए वे “सफलतापूर्वक” जीते-जागते शैतान बन गए हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मैं इसे नहीं मानता। मैं तो बस एक ऐसा निष्कपट व्यक्ति बनना चाहता हूँ, जिसे दूसरे लोग पसंद करें। मैं तो एक ऐसा व्यक्ति बनना चाहता हूँ जिसे ज्यादातर लोग अच्छा मानते हों, और फिर मैं देखूँगा कि परमेश्वर मुझसे खुश होता है या नहीं।” यदि परमेश्वर जो कहता है उसे तुम नहीं मानते हो, तो जाओ और निगाहें डालो, और—देखो कि क्या परमेश्वर के वचन सत्य हैं या मनुष्य की धारणाएँ सत्य हैं। यह परमेश्वर के वचनों और मनुष्य के शब्दों का सारभूत अंतर है। यह सत्य और पाखंडों तथा भ्रांतियों के बीच का सारभूत अंतर है। चाहे पाखंड और भ्रांतियाँ लोगों की रुचियों के साथ कितनी भी मिलती हों, वे कभी उनका जीवन नहीं बन सकती हैं; इस बीच, चाहे परमेश्वर के वचन कितने भी सरल प्रतीत होते हों, कितने भी देसी, लोगों की धारणाओं के साथ चाहे कितने भी बेमेल लगते हों, लेकिन उनका सार सत्य होता है, और अगर लोग जो करते हैं और जीते हैं, वो परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुसार हो, तो अंततः, एक दिन, वे परमेश्वर के सच्चे योग्य सृजित प्राणी बन जाएँगे, और वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होंगे। इसके उलट अगर लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं करते और परमेश्वर की माँगों के अनुसार कार्य नहीं करते हैं तो वे योग्य सृजित प्राणी नहीं बन सकते हैं। उनके क्रियाकलापों और वे जिस मार्ग पर चलते हैं उसका परमेश्वर तिरस्कार ही करेगा : यह एक तथ्य है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग पाँच)

बहुत-से लोग मौखिक तौर पर परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसका गुणगान करते हैं, पर अपने दिलों में वे परमेश्वर के वचनों से प्रेम नहीं करते। वे सत्य में दिलचस्पी नहीं रखते। वे हमेशा यही मानते हैं कि आम लोग शैतान के फलसफों या विभिन्न सांसारिक नियमों के अनुसार ही चलते हैं, और इसी तरह कोई खुद को बचाए रख सकता है, और दुनिया में मूल्य के साथ इसी तरह जिया जा सकता है। क्या ये लोग परमेश्वर में विश्वास रखने और उसका अनुसरण करने वाले लोग हैं? नहीं, वे बिल्कुल भी नहीं हैं। महान और प्रसिद्ध लोगों के शब्द खास तौर से ज्ञान से भरे प्रतीत होते हैं और लोगों को आसानी से गुमराह कर सकते हैं। तुम उनके शब्दों को सत्य मानकर उन्हें अपना जीवन-मंत्र बना लेते हो। लेकिन जब परमेश्वर के वचनों की बात आती है, और लोगों से उसकी सामान्य अपेक्षा की बात आती है, जैसे कि एक ईमानदार व्यक्ति होना, या प्रेमपूर्वक और निष्ठापूर्वक अपना स्थान बनाए रखना, एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाना, और एक दृढ़ और सत्यनिष्ठ आचरण होना, तो तुम इन वचनों को अभ्यास में नहीं ला पाते हो, और इन्हें सत्य की तरह नहीं देखते, तो तुम परमेश्वर के अनुयायी नहीं हो। तुम सत्य के अभ्यास का दावा करते हो, पर अगर परमेश्वर तुमसे पूछे, “क्या तुम जिन ‘सत्यों’ का अभ्यास कर रहे हो, वे परमेश्वर के वचन हैं? तुम जिन सिद्धांतों पर अमल करते हो क्या वे परमेश्वर के वचन हैं?”—तो तुम क्या जवाब दोगे? अगर तुम्हारा आधार परमेश्वर के वचन नहीं हैं, तो वे शैतान के शब्द हैं। तुम शैतान के शब्दों को जी रहे हो, और फिर भी तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने का दावा करते हो। क्या यह परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा का मामला नही है? मिसाल के तौर पर, परमेश्वर लोगों से ईमानदार बनने के लिए कहता है, फिर भी लोग यह सोचते तक नहीं कि वास्तव में ईमानदार होने का क्या मतलब है, एक ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास कैसे किया जाता है, वे ऐसी कौनसी चीजें जीते और उजागर करते हैं, जो बेईमानी है, और ऐसी कौनसी चीजें जीते और उजागर करते हैं जो ईमानदारी है। परमेश्वर के वचनों के सत्य के सार पर चिंतन-मनन करने के बजाय वे अविश्वासियों की किताबें पढ़ते हैं। वे सोचते हैं, “अविश्वासियों की कहावतें भी काफी अच्छी होती हैं—वे भी लोगों से अच्छा बनने के लिए कहती हैं! मिसाल के तौर पर, ‘अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है,’ ‘निष्कपट लोग हमेशा जीतते हैं,’ ‘दूसरों को क्षमा करना मूर्खता नहीं है, इसका बाद में अच्छा फल मिलता है।’ ये सभी कथन भी सही हैं, और सत्य से मेल खाते हैं!” इसलिए वे इन शब्दों से चिपके रहते हैं। अविश्वासियों की इन कहावतों पर अमल करके वे किस तरह के व्यक्ति की तरह जीते हैं? क्या वे सत्य वास्तविकता को जी सकते हैं? (नहीं, वे नहीं जी सकते।) क्या ऐसे बहुत-से लोग नहीं हैं? वे कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, कुछ किताबें पढ़ लेते हैं, और कुछ प्रसिद्ध कृतियों का अध्ययन कर लेते हैं, उन्हें थोड़ा परिप्रेक्ष्य मिल जाता है, और वे कुछ मशहूर कहावतें और लोकोक्तियाँ सुन लेते हैं, और इन्हें सत्य मान लेते हैं, और इन्हीं शब्दों के अनुसार चलते हुए वे अपना कर्तव्य निभाते रहते हैं, और इन्हें परमेश्वर के विश्वासी के रूप में अपने जीवन पर लागू करते रहते हैं, और यह सोचते रहते हैं कि वे परमेश्वर के दिल को संतुष्ट कर रहे हैं। क्या यह झूठ को सत्य की जगह देना नहीं है? क्या यह छल नहीं है? परमेश्वर की नजर में यह ईशनिंदा है! ये चीजें हर व्यक्ति में झलकती हैं, और थोड़ी-बहुत मात्रा में नहीं। एक ऐसा व्यक्ति जो लोगों द्वारा कहे गए लुभावने शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को सत्य मानकर सीने से लगाए रखता है, जबकि परमेश्वर के वचनों को एक तरफ रखकर उन्हें नजरअंदाज कर देता है, और बार-बार पढ़ने के बाद भी उन्हें आत्मसात नहीं कर पाता, या परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानता, तो क्या वह परमेश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति है? क्या वह परमेश्वर का अनुयायी है? (नहीं।) ऐसे लोग धर्म में विश्वास करते हैं, वे अब भी शैतान का अनुसरण करते हैं! उनका मानना है कि शैतान द्वारा कहे गए शब्द दार्शनिक हैं, इसलिए वे गूढ और उत्कृष्ट हैं। वे उन्हें परम सत्य के प्रसिद्ध कथन मानते हैं। वे चाहे कुछ भी छोड़ दें, पर इन शब्दों को नहीं छोड़ पाते। इन शब्दों को त्यागना उनके लिए जीवन की आधारशिला को खो देने की तरह है, जैसे कि अपने दिल को उलीचकर खाली कर देना। ये किस तरह के लोग हैं? ये शैतान के अनुयायी हैं, और यही कारण है कि वे शैतान के प्रसिद्ध कथनों को सत्य मानते हैं। क्या तुम लोग अलग-अलग संदर्भों में अपनी विभिन्न मनोदशाओं का विश्लेषण करके उन्हें पहचान सकते हो? उदाहरण के लिए, कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं और अक्सर उसके वचन पढ़ते हैं, पर जब उन पर कुछ बीतती है तो वे हमेशा कहते हैं, “मेरी माँ कहती थी,” “मेरे दादा कहते थे,” “फलां-फलां मशहूर आदमी ने एक बार कहा था,” या “फलां-फलां किताब में कहा गया है।” वे कभी नहीं कहते कि “परमेश्वर के वचनों में ऐसा कहा गया है,” “परमेश्वर की हमसे इस तरह की अपेक्षाएँ हैं,” “परमेश्वर ने यह कहा है।” वे ऐसे शब्द कभी नहीं कहते। क्या वे परमेश्वर के अनुयायी हैं? (नहीं, वे नहीं हैं।) क्या इन मनोदशाओं का पता लगाना लोगों के लिए आसान है? नहीं, यह आसान नहीं है। लोगों में इन मनोदशाओं की मौजूदगी ही उन्हें ऐसा करने से रोक देती है। हो सकता है तुम तीन, पाँच, आठ या दस बरस से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हो, पर तुम्हें अभी भी नहीं पता कि परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करें या उसके वचनों का अभ्यास कैसे करें। तुम पर कुछ भी क्यों न बीते, तुम शैतानी शब्दों को ही अपना आधार मानते हो; तुम पारंपरिक संस्कृति में ही अपना आधार खोजते हो। क्या यह परमेश्वर में आस्था रखना है? क्या तुम शैतान का अनुसरण नहीं कर रहे हो? तुम शैतानी शब्दों के अनुसार जीते हो, और शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हो, तो क्या तुम परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो? क्योंकि तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार न तो अभ्यास कर रहे हो और न जी रहे हो, परमेश्वर के पदचिन्हों पर नहीं चल रहे हो, उसकी कही बातों पर ध्यान नहीं दे पाते हो, और परमेश्वर चाहे जो भी आयोजन या अपेक्षा करे तुम उसके प्रति समर्पण नहीं कर पाते हो, तो तुम परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर रहे हो। तुम अब भी शैतान का अनुसरण कर रहे हो। शैतान कहाँ है? शैतान लोगों के दिलों में है। शैतान के फलसफों, तर्कों और नियम-कायदों ने, उसके विभिन्न शैतानी शब्दों ने बहुत अरसे से लोगों के दिलों में जड़ें जमा रखी हैं। यह सबसे गंभीर समस्या है। अगर तुम परमेश्वर में अपनी आस्था में इस समस्या को हल नहीं कर सकते, तो तुम्हें परमेश्वर द्वारा बचाया नहीं जा सकेगा। इसलिए, तुम लोगों को अक्सर थमकर और अपने सारे काम, विचार और नजरिए कुछ समय के लिए एक तरफ रखकर, और परमेश्वर के वचनों के खिलाफ जाने के किसी आधार का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए, अपने विचारों में मौजूद इन चीजों का गहन विश्लेषण करना चाहिए। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारे भीतर कौनसी चीजें सांसारिक आचरण के फलसफे हैं, कौनसी चीजें लोकप्रिय कहावतें हैं, कौनसी पारंपरिक संस्कृति हैं, और कौनसी चीजें बौद्धिक ज्ञान से आई हैं। तुम्हें पता होना चाहिए कि इनमें से किन चीजों को तुम हमेशा सही और सत्य के अनुरूप मानते हो, किन चीजों का तुम ऐसे पालन करते हो मानो वे सत्य हों, और किन चीजों को तुम सत्य का स्थान लेने देते हो। इन चीजों का तुम लोगों को विश्लेषण करना चाहिए। विशेष रूप से जिन चीजों को तुम सही और मूल्यवान मानकर सत्य की तरह देखते हो, उन्हें पहचान पाना आसान नहीं है। लेकिन जब तुम उन्हें पहचान लेते हो, तो तुम एक बड़ी बाधा पार कर लेते हो। ये चीजें लोगों को सत्य का अभ्यास करने, परमेश्वर के वचनों को समझने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने से रोकने वाली बाधाओं की तरह हैं। यदि तुम सारा दिन उलझे-उलझे और खोए-खोए से रहते हो, और इन चीजों को लेकर जरा-भी विचार नहीं करते हो, और इन समस्याओं को सुलझाने पर कोई ध्यान नहीं देते हो, तो यही तुम्हारी परेशानी की जड़ है, यही तुम्हारे दिल में भरा हुआ जहर है। अगर इन्हें हटाया नहीं जाता, तो तुम परमेश्वर का सच्चा अनुसरण करने में असमर्थ रहोगे, और सत्य का अभ्यास या परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर पाओगे, और तुम्हारे लिए उद्धार प्राप्त करने का कोई रास्ता नहीं होगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, धर्म में आस्था रखने या धार्मिक समारोह में शामिल होने मात्र से किसी को नहीं बचाया जा सकता

चाहे जो भी घटित हो, क्या तुम इसके समाधान के लिए शैतानी फलसफे पर भरोसा कर इंसानी तरीके इस्तेमाल करते हो या तुम सत्य खोजते हो और इसे परमेश्वर के वचनों के मुताबिक हल करते हो या तुम समझौते वाला मध्यमार्गी रवैया अपनाते हो? तुम्हारा चुना हुआ विकल्प यह उजागर करता है कि क्या तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम कर इसका अनुसरण करता है। यदि तुम समस्याओं के हल के लिए हमेशा शैतानी फलसफे और इंसानी तरीकों पर भरोसे का विकल्प चुनते हो तो इसका दुष्परिणाम यह होगा कि तुम सत्य प्राप्त नहीं कर पाओगे, न तुम्हें प्रबोधन और रोशनी मिलेगी और न ही पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन मिलेगा। यही नहीं, तुम्हारे भीतर परमेश्वर को लेकर धारणाएँ और गलतफहमियां पैदा हो जाएँगी, और आखिरकार परमेश्वर तुमसे तिरस्कार कर तुम्हें निकाल देगा। लेकिन अगर तुम सभी चीजों में सत्य खोज सके और परमेश्वर के वचनों के अनुसार उन्हें हल कर सके, तब तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन, रोशनी और मार्गदर्शन प्राप्त कर लोगे। सत्य की तुम्हारी समझ पहले से अधिक स्पष्ट हो जाएगी, और तुम परमेश्वर को अधिक से अधिक जान पाओगे; और इस तरह तुम सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसे प्रेम कर पाओगे। इस प्रकार से कुछ समय तक अभ्यास और अनुभव करके तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव पहले से अधिक स्वच्छ हो जाएँगे, और कम ही मौके होंगे जब तुम परमेश्वर से विद्रोह करोगे, और अंततः तुम परमेश्वर के साथ पूर्ण अनुरूपता हासिल कर लोगे। यदि तुम हमेशा समझौता करने वाला मध्यमार्गी रवैया अपनाते हो तो तुम वास्तव में समस्याओं के हल के लिए अभी भी शैतानी फलसफे पर भरोसा कर रहे हो। इस तरह जीने से तुम्हें कभी भी परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी, केवल यही होगा कि खुलासा कर तुम्हें निकाल दिया जाएगा। यदि तुमने परमेश्वर में विश्वास का गलत मार्ग चुना है, धर्म-संबंधी तरीका चुना है, तो तुम्हें जल्दी से अपना रास्ता बदलना पड़ेगा, कगार से पहले ही पीछे हटना होगा और सही मार्ग अपनाना होगा। तब तुम्हारे उद्धार प्राप्त करने की आशा बनी रहेगी। यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करने का सही मार्ग प्राप्त करना चाहते हो तो तुम्हें इसके लिए खोजना होगा और स्वयं ही टटोलना होगा। जिस व्यक्ति के पास आध्यात्मिक समझ होती है, उसे अनुभव की एक अवधि के बाद सही रास्ता मिल जाएगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अनुसरण करने से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है

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