9. काट-छाँट किए जाने को कैसे ग्रहण करें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

अंत के दिनों का मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों को विश्लेषित करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर के प्रति समर्पण किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, और काट-छाँट करने की इन तमाम विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर के इरादों, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है। अगर तुम इन सत्यों को महत्वपूर्ण नहीं समझते, अगर तुम सिवाय इसके कुछ नहीं समझते कि इनसे कैसे बचा जाए, या किस तरह कोई ऐसा नया तरीका ढूँढ़ा जाए जिनमें ये शामिल न हों, तो मैं कहूँगा कि तुम घोर पापी हो। अगर तुम्हारी परमेश्वर में आस्था है, फिर भी तुम सत्य को या परमेश्वर के इरादों को नहीं खोजते, न ही उस मार्ग से प्यार करते हो, जो परमेश्वर के निकट लाता है, तो मैं कहता हूँ कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो, जो न्याय से बचने की कोशिश कर रहा है, और यह कि तुम एक कठपुतली और ग़द्दार हो, जो महान श्वेत सिंहासन से भागता है। परमेश्वर ऐसे किसी भी विद्रोही को नहीं छोड़ेगा, जो उसकी आँखों के नीचे से बचकर भागता है। ऐसे मनुष्य और भी अधिक कठोर दंड पाएँगे। जो लोग न्याय किए जाने के लिए परमेश्वर के सम्मुख आते हैं, और इसके अलावा शुद्ध किए जा चुके हैं, वे हमेशा के लिए परमेश्वर के राज्य में रहेंगे। बेशक, यह कुछ ऐसा है, जो भविष्य से संबंधित है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है

लोग अपना स्वभाव स्वयं परिवर्तित नहीं कर सकते; उन्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, पीड़ा और शोधन से गुजरना होगा, या उसके वचनों द्वारा अनुशासित और काट-छाँट किया जाना होगा। इन सब के बाद ही वे परमेश्वर के प्रति विश्वसनीयता और समर्पण प्राप्त कर सकते हैं और उसके प्रति बेपरवाह होना बंद कर सकते हैं। परमेश्वर के वचनों के शोधन के द्वारा ही मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन आ सकता है। केवल उसके वचनों के संपर्क में आने से, उनके न्याय, अनुशासन और काट-छाँट से, वे कभी लापरवाह नहीं होंगे, बल्कि शांत और संयमित बनेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे परमेश्वर के मौजूदा वचनों और उसके कार्यों का पालन करने में सक्षम होते हैं, भले ही यह मनुष्य की धारणाओं से परे हो, वे इन धारणाओं को नज़रअंदाज करके अपनी इच्छा से पालन कर सकते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिनके स्वभाव परिवर्तित हो चुके हैं, वे वही लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हैं

परमेश्वर के पास मनुष्य को पूर्ण बनाने के अनेक साधन हैं। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की काट-छाँट करने के लिए वह समस्त प्रकार के परिवेशों का उपयोग करता है, और मनुष्य को अनावृत करने के लिए विभिन्न चीजों का प्रयोग करता है; एक ओर वह मनुष्य की काट-छाँट करता है, दूसरी ओर मनुष्य को अनावृत करता है, और तीसरी ओर वह मनुष्य को उजागर करता है, उसके हृदय की गहराइयों में स्थित “रहस्यों” को खोदकर और उजागर करते हुए, और मनुष्य की अनेक अवस्थाएँ प्रकट करके वह उसे उसकी प्रकृति दिखाता है। परमेश्वर मनुष्य को अनेक विधियों से पूर्ण बनाता है—प्रकाशन द्वारा, मनुष्य की काट-छाँट करके, मनुष्य के शुद्धिकरण द्वारा, और ताड़ना द्वारा—जिससे मनुष्य जान सके कि परमेश्वर व्यावहारिक है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल उन्हें ही पूर्ण बनाया जा सकता है जो अभ्यास पर ध्यान देते हैं

परमेश्वर हर एक व्यक्ति में कार्य करता है, और इससे फर्क नहीं पड़ता है कि उसकी विधि क्या है, सेवा करने के लिए वो किस प्रकार के लोगों, घटनाओं या चीज़ों का प्रयोग करता है, या उसकी बातों का लहजा कैसा है, परमेश्वर का केवल एक ही अंतिम लक्ष्य होता है : तुम्हें बचाना। और वह तुम्हें कैसे बचाता है? वह तुम्हें बदलता है। तो तुम थोड़ी-सी पीड़ा कैसे नहीं सह सकते? तुम्हें पीड़ा तो सहनी होगी। इस पीड़ा में कई चीजें शामिल हो सकती हैं। सबसे पहले तो, जब लोग परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार हैं, तो उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। जब परमेश्वर के वचन बहुत कठोर और मुखर होते हैं और लोग परमेश्वर के वचनों की गलत व्याख्या करते हैं—और धारणाएँ भी रखते हैं—तो यह भी पीड़ाजनक हो सकता है। कभी-कभी परमेश्वर लोगों की भ्रष्टता प्रकट करने के लिए, और उनसे चिंतन करवाने के लिए कि वे खुद को समझें, उनके आसपास एक परिवेश बना देता है, और तब उन्हें कुछ पीड़ा भी होती है। कई बार जब लोगों की सीधे काट-छाँट कर उन्हें उजागर किया जाता है, तब उन्हें पीड़ा सहनी ही चाहिए। यह ऐसा है, जैसे उनका कोई ऑपरेशन हो रहा हो—अगर कोई कष्ट नहीं होगा, तो कोई प्रभाव भी नहीं होगा। यदि हर बार जब तुम्हारी काट-छाँट की जाती है और हर बार जब तुम किसी परिवेश द्वारा प्रकट किए जाते हो, यह तुम्हारी भावनाओं को जगाता और तुम्हें बढ़ावा देता है, तो इस प्रक्रिया के माध्यम से तुम सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करोगे और तुम्हारा आध्यात्मिक कद होगा। यदि, हर बार काटे-छांटे जाने और किसी परिवेश द्वारा प्रकट किए जाने पर, तुम्हें थोड़ी-भी पीड़ा या असुविधा महसूस नहीं होती और कुछ भी महसूस नहीं होता, यदि तुम परमेश्वर के इरादे खोजने उसके सामने नहीं आते, न प्रार्थना करते हो, न ही सत्य की खोज करते हो, तब तुम वास्तव में बहुत संवेदनहीन हो! यदि तुम्हारी आत्मा को कुछ महसूस नहीं होता, यदि इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, तो परमेश्वर तुममें कार्य नहीं करता। परमेश्वर कहेगा, “यह व्यक्ति ज़्यादा ही संवेदनहीन है, और बहुत गहराई से भ्रष्ट किया गया है। मैं चाहे जैसे उसे अनुशासित करूँ, उसकी काट-छाँट करूँ या उसे नियंत्रण में रखने की कोशिश करूँ, फिर भी मैं अभी तक उसके दिल को प्रेरित नहीं कर पाया हूँ, न ही मैं उसकी आत्मा को जगा पाया हूँ। यह व्यक्ति परेशानी में पड़ेगा; इसे बचाना आसान न होगा।” यदि परमेश्वर तुम्हारे लिए विशेष परिवेशों, लोगों, घटनाओं और चीज़ों की व्यवस्था करता है, यदि वह तुम्हारी काट-छाँट करता है और यदि तुम इससे सबक सीखते हो, यदि तुमने परमेश्वर के सामने आना सीख लिया है, तुमने सत्य की तलाश करना सीख लिया है, अनजाने में, प्रबुद्ध और रोशन हुए हो और तुमने सत्य को प्राप्त कर लिया है, यदि तुमने इन परिवेशों में बदलाव का अनुभव किया है, पुरस्कार प्राप्त किए हैं और प्रगति की है, यदि तुम परमेश्वर के इरादे की थोड़ी-सी समझ प्राप्त करना शुरू कर देते हो और शिकायत करना बंद कर देते हो, तो इन सबका मतलब यह होगा कि तुम इन परिवेशों के परीक्षण के बीच में अडिग रहे हो, और तुमने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। इस तरह से तुमने इस कठिन परीक्षा को पार कर लिया होगा। इम्तिहान में खरे उतरने वालों को परमेश्वर किस नजर से देखेगा? परमेश्वर कहेगा कि उनका हृदय सच्चा है और वे इस तरह का कष्ट सहन कर सकते हैं, और अंतर्मन में वे सत्य से प्रेम करते हैं और सत्य को पाना चाहते हैं। अगर परमेश्वर का तुम्हारे बारे में ऐसा आकलन है, तो क्या तुम कद-काठी वाले नहीं हो? क्या इसका मतलब यह है कि अब इसमें जीवन है? और यह जीवन कैसे प्राप्त हुआ है? क्या यह परमेश्वर द्वारा प्रदत्त है? परमेश्वर तुम्हें कई तरह से आपूर्ति करता है और तुम्हें प्रशिक्षित करने के लिए विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का इस्तेमाल करता है। यह बिल्कुल ऐसा जैसे परमेश्वर खुद तुम्हें भोजन और जल प्रदान कर रहा हो, खुद खाने की विभिन्न वस्तुएँ तुम तक पहुँचा रहा हो ताकि तुम पेट भरकर खाओ और आनंदित रहो; तभी तुम मजबूती से खड़े हो सकते हो। इसी तरह से तुम्हें चीजों का अनुभव करना और समझना चाहिए; इसी तरह से तुम्हें परमेश्वर के पास से आने वाली हर चीज के प्रति समर्पित होना चाहिए। तुम्‍हारे पास इसी प्रकार की मनोदशा और रवैया होना चाहिए, और तुम्हें सत्य को खोजना सीखना चाहिए। तुम्हें अपनी परेशानियों के लिए हमेशा बा‍हरी कारण नहीं खोजते रहना चाहिए और दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए, न ही लोगों में गलतियाँ खोजनी चाहिए; तुम्हें परमेश्वर के इरादों की स्पष्ट समझ होनी चाहिए। बाहर से, ऐसा लग सकता है कि कुछ लोगों की तुम्‍हारे बारे में धारणाएँ हैं या पूर्वाग्रह हैं, लेकिन तुम्‍हें इस रूप में चीज़ों को नहीं देखना चाहिए। अगर तुम इस तरह के दृष्टिकोण से चीजों को देखोगे, तो तुम केवल बहाने बनाओगे, और तुम कुछ भी प्राप्‍त नहीं कर सकोगे। तुम्हें चीजों को वस्तुगत ढंग से देखना चाहिए; और परमेश्वर से सब कुछ स्वीकार करना चाहिए। जब तुम चीजों को इस तरीके से देखते हो तो तुम्हारे लिए परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करना आसान हो जाता है, और तुम सत्य को पाने और परमेश्वर के इरादे समझने में सक्षम हो जाते हो। जब तुम्हारे दृष्टिकोण और मनोदशा का परिशोधन हो जाएगा, तब तुम सत्य को प्राप्त कर सकोगे। तो, तुम ऐसा कर क्यों नहीं देते? तुम प्रतिरोध क्यों करते हो? अगर तुम प्रतिरोध करना बंद कर दोगे, तुम सत्य को प्राप्त कर लोगे। अगर तुम प्रतिरोध करोगे, तब तुम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकोगे, और तुम परमेश्वर की भावनाओं को चोट पहुंचाओगे और उसे निराश करोगे। परमेश्वर क्यों निराश होगा? क्योंकि तुम सत्य नहीं स्वीकारते, तुम्हें उद्धार की कोई आशा नहीं होती, और परमेश्वर तुम्हें ग्रहण नहीं कर पाता, तो वह निराश कैसे नहीं होगा? जब तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते हो तो यह खुद परमेश्वर द्वारा तुम्हें परोसे गए भोजन को दूर हटाने के समान होता है। तुम कहते हो कि तुम्हें भूख नहीं है और तुम्हें इसकी जरूरत नहीं है; परमेश्वर तुम्हें खाने के लिए बार-बार प्रोत्साहित करने की कोशिश करता है, लेकिन तुम फिर भी खाना नहीं चाहते। इसके बजाय तुम भूखे रहना पसंद करोगे। तुम सोचते हो कि तुम्हारा पेट भरा है, जबकि वास्तव में तुम्हारे पास बिल्कुल कुछ भी नहीं है। ऐसे लोगों में विवेक का बहुत अभाव होता है, और वे बहुत दंभी होते हैं; कोई अच्छी देखकर वे पहचान नहीं पाते कि वह अच्छी है, वे सभी लोगों में सबसे अधिक दरिद्र और दयनीय होते हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए

कुछ लोग अपनी काट-छाँट होने के बाद निराश हो जाते हैं; वे अपना कर्तव्य निभाने की सारी ऊर्जा गँवा देते हैं, और उनकी वफ़ादारी भी गायब हो जाती है। ऐसा क्यों होता है? यह समस्या बहुत गंभीर है; यह सत्य को स्वीकार करने में अक्षम होना है। वे सत्य को स्वीकार नहीं करते, कुछ तो अपने भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान न होने के कारण होता है, जिसके कारण वे अपनी काट-छाँट स्वीकार करने में सक्षम नहीं होते। यह उनकी प्रकृति से तय होता है जो अहंकारी और दंभी होती है और जिसमें सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं होता। यह आंशिक तौर पर इसलिए भी होता है कि लोग काट-छाँट किए जाने का महत्व नहीं समझते। वे मानते हैं कि काट-छाँट किए जाने का अर्थ है कि उनका परिणाम निर्धारित कर दिया गया है। परिणामस्वरूप, वे गलत ढंग से विश्वास करते हैं कि यदि वे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के लिए अपने परिवारों को त्याग देते हैं, और उनके पास परमेश्वर के लिए कुछ वफादारी है, तो उनकी काट-छाँट नहीं की जानी चाहिए; और यदि उनकी काट-छाँट की जाती है तो यह परमेश्वर का प्रेम और उसकी धार्मिकता नहीं है। इस प्रकार की गलतफहमी के कारण कई लोग परमेश्वर से वफादारी का साहस नहीं कर पाते। वास्तव में सारे सोच-विचार के बाद इसका कारण यह है कि वे बहुत अधिक कपटी हैं और कष्ट नहीं सहना चाहते। वे तो बस आसान तरीके से आशीष प्राप्त करना चाहते हैं। लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को बिल्कुल भी नहीं समझते। उन्हें कभी यह विश्वास नहीं होता कि परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक होते हैं, या कि हरेक के प्रति उसका व्यवहार धार्मिक होता है। वे इस मामले में कभी सत्य नहीं खोजते, बल्कि हमेशा अपने तर्क गढ़ते रहते हैं। किसी व्यक्ति ने चाहे कितने भी बुरे काम किए हों, कितने ही बड़े पाप किए हों या कितनी भी बुराई की हो, जब तक परमेश्वर का न्याय और दंड उस पर पड़ता रहता है, वह सोचेगा कि स्वर्ग अनुचित है और परमेश्वर धार्मिक नहीं है। यदि परमेश्वर के कार्य मनुष्य की इच्छाओं के अनुरूप नहीं हैं या उसके कार्य मनुष्य की भावनाओं से मेल नहीं खाते तो मनुष्य की नजर में वह धार्मिक नहीं होगा। लेकिन लोग कभी नहीं जानते कि उनके कार्य सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, न ही उन्हें कभी एहसास होता है कि वे अपने हर कार्य में परमेश्वर से विद्रोह कर उसका विरोध करते हैं। लोगों ने चाहे जैसा भी अपराध किया हो, अगर परमेश्वर कभी भी उनकी काट-छाँट न करे या उनके विद्रोह के लिए उन्हें न फटकारे, बल्कि उनके साथ शांत और सौम्य रहे, उनके साथ केवल प्रेम और धैर्य से पेश आए और उन्हें हमेशा अपने साथ भोजन करने दे और चीजों का आनंद लेने दे, तो लोग कभी भी परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करेंगे या उसे अधार्मिक नहीं मानेंगे; बल्कि वे बेमन से कहेंगे कि वह बहुत धार्मिक है। क्या ऐसे लोग परमेश्वर को जानते हैं? क्या वे परमेश्वर के साथ एकमन हो सकते हैं? उन्हें इस बात का कोई अंदाजा नहीं है कि जब परमेश्वर मनुष्यों का न्याय और उनकी काट-छाँट करता है तो वह उनके जीवन स्वभावों को शुद्ध कर बदलना चाहता है ताकि वे उसके प्रति समर्पण करने और उससे प्रेम करने में सफल हो सकें। ऐसे लोग यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर एक धार्मिक परमेश्वर है। अगर परमेश्वर लोगों को डाँटता है, उजागर करता है और उनकी काट-छाँट करता है तो वे नकारात्मक और कमजोर पड़ जाते हैं और हमेशा शिकायत करते रहते हैं कि परमेश्वर स्नेही नहीं है, हमेशा कुड़कुड़ाते रहते हैं कि मनुष्य के प्रति परमेश्वर का न्याय और ताड़ना गलत है, वे यह नहीं देख पाते कि परमेश्वर इस तरह शुद्ध कर मनुष्य को बचाता है और वे यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर लोगों के पश्चात्ताप के आधार पर उनके परिणाम निर्धारित करता है। वे सदैव परमेश्वर पर संदेह कर उससे सावधान रहते हैं, और इसका नतीजा क्या निकलेगा? क्या वे परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण कर पाएँगे? क्या वे सच्चा परिवर्तन हासिल कर पाएँगे? यह असंभव है। यदि उनकी यही दशा कायम रही तो यह बहुत खतरनाक बात होगी और परमेश्वर द्वारा उन्हें शुद्ध कर पूर्ण बनाया जाना असंभव होगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

यह कौन-सा स्वभाव है, जब लोग अपनी काट-छाँट स्वीकारने में असमर्थ रहते हैं और सत्य नहीं स्वीकार पाते? क्या तुम्हें इसे स्पष्ट रूप से नहीं समझना चाहिए? ये सभी सत्य से विमुख होने की अभिव्यक्तियाँ हैं—यही समस्या का सार है। जब लोग सत्य से विमुख होते हैं, तो उनके लिए सत्य स्वीकारना बहुत कठिन होता है—और अगर वे सत्य नहीं स्वीकार पाते तो क्या उनके भ्रष्ट स्वभाव की समस्या ठीक की जा सकती है? (नहीं।) तो इस तरह का व्यक्ति, ऐसा व्यक्ति जो सत्य स्वीकारने में अक्षम है—क्या वह सत्य प्राप्त करने में सक्षम है? क्या उसे परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकता है? निश्चित रूप से नहीं। क्या सत्य न स्वीकारने वाले लोग परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास करते हैं? बिल्कुल नहीं। जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनका सबसे महत्वपूर्ण पहलू सत्य स्वीकारने में सक्षम होना है। जो लोग सत्य नहीं स्वीकार सकते, वे ईमानदारी से परमेश्वर पर विश्वास बिल्कुल नहीं करते। क्या ऐसे लोग उपदेश के दौरान शांत बैठने में सक्षम होते हैं? क्या वे कुछ हासिल करने में सक्षम होते हैं? वे नहीं हो सकते। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उपदेश लोगों की विभिन्न भ्रष्ट अवस्थाएँ उजागर करते हैं। परमेश्वर के वचनों के गहन विश्लेषण से लोग ज्ञान प्राप्त करते हैं, और फिर अभ्यास के सिद्धांतों पर संगति करते हुए उन्हें अभ्यास का मार्ग दिया जाता है, और इस तरह एक परिणाम प्राप्त होता है। जब ऐसे लोग यह सुनते हैं कि जो मनोदशा उजागर की जा रही है, वह उनसे संबंधित है—कि वह उन्हीं की समस्याओं से संबंधित है—तो उनकी शर्म उन्हें गुस्से से भर देती है और वे उठकर सभा छोड़कर भी जा सकते हैं। अगर वे नहीं भी जाते तो भी उन्हें अंदर से चिढ़ महसूस हो सकती है और बुरा लग सकता है, ऐसे में उनके सभा में शामिल होने या उपदेश सुनने का कोई मतलब नहीं रह जाता। क्या उपदेश सुनने का उद्देश्य सत्य को समझना और अपनी वास्तविक समस्याएँ हल करना नहीं है? अगर तुम हमेशा अपनी समस्याएँ उजागर होने से डरते हो, अगर तुम लगातार अपना जिक्र होने से डरते हो तो परमेश्वर पर विश्वास ही क्यों करते हो? अगर अपनी आस्था में तुम सत्य नहीं स्वीकार सकते तो तुम सचमुच परमेश्वर में विश्वास नहीं करते। अगर तुम हमेशा उजागर किए जाने से डरते हो तो अपनी भ्रष्टता की समस्या कैसे हल कर पाओगे? अगर तुम अपनी भ्रष्टता की समस्या हल नहीं कर सकते तो परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है? परमेश्वर में आस्था का उद्देश्य परमेश्वर से उद्धार स्वीकारना, अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करना और एक सच्चे इंसान के समान जीना है और ये सब सत्य स्वीकारने के माध्यम से प्राप्त किए जाते हैं। अगर तुम सत्य को या अपनी काट-छाँट या खुद को उजागर किया जाना भी बिल्कुल नहीं स्वीकार सकते, तो तुम्हारे पास परमेश्वर से उद्धार पाने का कोई उपाय नहीं बचता। तो तुम्हीं बताओ : हर कलीसिया में ऐसे कितने लोग हैं जो सत्य स्वीकार सकते हैं? जो सत्य नहीं स्वीकार सकते, वे बहुत हैं या थोड़े? (बहुत।) क्या यह ऐसी स्थिति है जो कलीसियाओं में चुने हुए लोगों के बीच वास्तव में मौजूद है, क्या यह एक वास्तविक समस्या है? जो सत्य स्वीकारने और अपनी काट-छाँट स्वीकारने में असमर्थ हैं, ऐसे सभी लोग सत्य से विमुख रहते हैं। सत्य-विमुख होना एक प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव है और अगर इसे बदला न जा सके तो क्या उन्हें बचाया जा सकता है? हरगिज नहीं। आज कई लोगों को सत्य स्वीकारने में कठिनाई होती है। यह कतई आसान नहीं है। इसे हल करने के लिए व्यक्ति को परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शोधन का कुछ अनुभव करना होगा। तो तुम लोग क्या कहते हो : जब लोग अपनी काट-छाँट नहीं स्वीकार पाते, जब वे अपनी तुलना परमेश्वर के वचनों से या उपदेशों के दौरान उजागर की जाने वाली अवस्थाओं से नहीं करते तो यह कैसा स्वभाव है? (सत्य से विमुख होने का स्वभाव।) ... और सत्य से विमुख होने का इस तरह का स्वभाव मुख्य रूप से कैसे प्रकट होता है? अपनी काट-छाँट न स्वीकारने के रूप में। अपनी काट-छाँट न स्वीकारना इस प्रकार के स्वभाव से अभिव्यक्त होने वाली एक तरह की मनोदशा है। अपनी काट-छाँट होने पर ये लोग मन ही मन विशेष रूप से प्रतिरोधी होते हैं। वे सोचते हैं, “मैं यह नहीं सुनना चाहता! नहीं सुनना चाहता!” या “दूसरे लोगों की काट-छाँट क्यों नहीं करते? मुझे ही काट-छाँट के लिए क्यों चुना?” सत्य से विमुख होने का क्या अर्थ है? सत्य विमुख होना उसे कहते हैं जब कोई व्यक्ति किसी भी सकारात्मक चीज में, सत्य में, परमेश्वर जो कहता है उसमें, या परमेश्वर के इरादों से जुड़ी किसी भी चीज में बिल्कुल भी रुचि नहीं रखता। कभी-कभी उसे इन चीजों से घृणा होती है, कभी-कभी वह इनसे अलग रहता है, कभी-कभी वह इनके प्रति अनादर और बेरुखी दिखाता है और इन्हें महत्वहीन मानता है और इनके प्रति निष्ठाहीन और अनमना रहता है या इनकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है

काट-छाँट ऐसी चीज है जिसका अनुभव परमेश्वर में विश्वास रखने वाले हर व्यक्ति को करना पड़ सकता है। खासकर कोई कर्तव्य निभाने के दौरान जैसे-जैसे अपनी काट-छाँट होने का अनुभव बढ़ता है, ज्यादातर लोग काट-छाँट किए जाने का अर्थ ज्यादा से ज्यादा जानने लगते हैं। उन्हें लगता है कि अपनी काट-छाँट होने के बहुत सारे फायदे हैं और वे अपनी काट-छाँट को सही तरीके से लेने में अधिक से अधिक सक्षम होते जाते हैं। बेशक, अगर लोग कोई कर्तव्य निभा सकते हैं और वे चाहे जो भी कर्तव्य निभाएँ, हर व्यक्ति को अपनी काट-छाँट किए जाने का मौका मिलेगा। सामान्य लोग अपनी काट-छाँट किए जाने को सही तरीके से ले सकते हैं। एक ओर, वे अपनी काट-छाँट किए जाने को परमेश्वर के प्रति समर्पण वाले दिल से स्वीकार सकते हैं तो वहीं दूसरी ओर, वे यह भी विचार कर सकते हैं और जान सकते हैं कि उन्हें क्या समस्याएँ हैं। यह एक आम रवैया और परिप्रेक्ष्य है कि सत्य का अनुसरण करने वाले लोग अपनी काट-छाँट किए जाने को कैसे लेते हैं। तो क्या मसीह-विरोधी भी अपनी काट-छाँट किए जाने को इसी तरह से लेते हैं? बिल्कुल नहीं। जब अपनी काट-छाँट किए जाने के प्रति अपने दृष्टिकोण की बात आती है तो मसीह-विरोधियों और सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों का रवैया निश्चित रूप से अलग-अलग होगा। पहली बात तो यह है कि जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट का मसला आता है तो वे इसे स्वीकार नहीं कर पाते। और इसे स्वीकार न कर पाने के अपने कारण हैं। मुख्य कारण यह है कि जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो उन्हें लगता है कि उनकी इज्जत कम हो गई है, उनकी प्रतिष्ठा, रुतबा और उनकी गरिमा छिन गई है, और अब वे सबके सामने अपने सिर उठाकर नहीं चल सकेंगे। इन बातों का उनके दिलों पर असर पड़ता है, इसलिए उन्हें अपनी काट-छाँट स्वीकारना मुश्किल लगता है, और उन्हें लगता है कि जो भी उनकी काट-छाँट करता है वह उनसे द्वेष रखता है और उनका शत्रु है। काट-छाँट होने पर मसीह-विरोधियों की यही मानसिकता रहती है। यह बिल्कुल पक्की बात है। दरअसल, काट-छाँट किए जाने के वक्त ही यह बात खुलकर उजागर होती है कि कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार सकता है कि नहीं और कोई व्यक्ति सचमुच समर्पण कर सकता है या नहीं। मसीह-विरोधियों का काट-छाँट के प्रति इतना अधिक प्रतिरोध करना यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे सत्य से विमुख होते हैं और वे इसे रत्तीभर भी स्वीकार नहीं करते। तो सारी समस्या की जड़ यही है। उनका गर्व इस मसले की जड़ नहीं है; सत्य को स्वीकार न करना ही इस समस्या का सार है। जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो मसीह-विरोधी चाहते हैं कि यह सब मीठे स्वर और नर्म रवैये के साथ किया जाए। अगर ऐसा करने वाले का स्वर गंभीर है और रवैया सख्त है, तो मसीह-विरोधी इसका प्रतिरोध और अवहेलना करेगा, और शर्म से लाल हो जाएगा। मसीह-विरोधी इस बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते कि उनमें जो उजागर हुआ है क्या वह सही है या क्या वह एक तथ्य है, न ही वे अपनी गलती या सत्य को स्वीकारने के प्रश्न पर चिंतन करते हैं। वे सिर्फ यह सोचते हैं कि क्या उनके दंभ और गर्व पर वार हुआ है। मसीह-विरोधी यह एहसास करने में पूरी तरह अक्षम होते हैं कि काट-छाँट लोगों के लिए मददगार होती है, लोगों को प्रेम और सुरक्षा देने वाले और उन्हें लाभ पहुँचाने वाली होती है। वे इतना भी नहीं समझ पाते। क्या उनमें भले-बुरे की पहचान और तर्कसंगतता का अभाव नहीं है? तो काट-छाँट किए जाने का सामना करते हुए मसीह-विरोधी कैसा स्वभाव प्रकट करते हैं? निस्संदेह, यह सत्य से विमुख होने और साथ ही अहंकार और अड़ियलपन वाला स्वभाव है। इससे पता चलता है कि मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार सत्य से विमुख होना और उससे घृणा करना है। इसलिए, मसीह-विरोधी सबसे ज्यादा अपनी काट-छाँट से डरते हैं; जैसे ही उनकी काट-छाँट की जाती है, उनकी बदसूरत दशा पूरी तरह उजागर हो जाती है। जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है तो वे ऐसी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं और ऐसी कौन-सी बातें कह या कर सकते हैं जिससे दूसरे लोग स्पष्ट रूप से यह देख सकें कि मसीह-विरोधी तो मसीह-विरोधी ही हैं, वे एक औसत भ्रष्ट व्यक्ति से अलग हैं और उनका प्रकृति सार उन लोगों से अलग है जो सत्य का अनुसरण करते हैं? मैं कुछ उदाहरण दूँगा और तुम लोग इनके बारे में सोचकर इनमें कुछ जोड़ सकते हो। जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है तो वे सबसे पहले हिसाब लगाते हैं और सोचते हैं : “किस तरह का व्यक्ति मेरी काट-छाँट कर रहा है? इसमें उसका क्या लाभ है? उसे इस बारे में कैसे पता है? उसने मेरी काट-छाँट क्यों की? क्या वह मुझसे नफरत करता है? क्या वह मेरी किसी बात से नाराज है? क्या वह मुझसे इसलिए बदला ले रहा है कि मेरे पास कुछ अच्छा है जो मैंने उसे नहीं दिया और वह इस मौके का फायदा उठाकर मुझे धमका रहा है?” अपने अपराधों, पिछले कुकर्मों और अपने द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों पर विचार करने और उन्हें जानने के बजाय वे अपनी काट-छाँट के मामले में कोई सुराग ढूँढ़ना चाहते हैं। उन्हें दाल में कुछ काला नजर आता है। अपनी काट-छाँट को वे इसी तरह लेते हैं। क्या यहाँ कोई सच्ची स्वीकृति है? क्या कोई सच्चा ज्ञान या चिंतन है? (नहीं।) अधिकांश लोगों की काट-छाँट होने का कारण उनका भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करना हो सकता है। अज्ञानता के कारण कुछ गलत कर परमेश्वर के घर के हितों के साथ धोखा कर बैठना भी इसका कारण हो सकता है। एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि उनके कर्तव्य में अनमने होने से परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान हो गया हो। सबसे घृणित तो यह है कि लोग बिना किसी रोक-टोक के अपनी इच्छानुसार कार्य करते हैं, सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और परमेश्वर के घर के काम को अस्त-व्यस्त और बाधित करते हैं। लोगों की काट-छाँट किए जाने के ये प्राथमिक कारण हैं। चाहे जिस किसी परिस्थिति के कारण किसी व्यक्ति की काट-छाँट की जाए, इसके प्रति सबसे महत्वपूर्ण रवैया क्या होना चाहिए? पहले तो तुम्हें काट-छाँट को स्वीकार करना चाहिए। इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी काट-छाँट कौन कर रहा है, इसका कारण क्या है, चाहे वह कठोर लगे, लहजा और शब्द कैसे भी हों, तुम्हें इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। फिर तुम्हें यह पहचानना चाहिए कि तुमने क्या गलत किया है, तुमने कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है और क्या तुमने सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया है। सबसे पहले तुम्हारा रवैया यही होना चाहिए।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ)

जब भी किसी वयक्ति की काट-छाँट की जाती है तो उन्हें अपने लिए नुकसान का एहसास होता है, विशेषकर तब जब उन्हें बर्खास्त कर दिया जाए और उनकी हैसियत छीन ली जाए। उन्हें लगता है कि उन्हें एक अजीब स्थिति में डाल दिया गया है और दूसरों के सामने उन्हें शर्मिंदा किया गया है और उन्हें किसी का भी सामना करने में बहुत शर्म आती है। हालाँकि, जो व्यक्ति शर्म करना जानता है, वह कभी भी टेढ़े-मेढ़े तर्क नहीं देगा। टेढ़े-मेढ़े तर्क नहीं देने का क्या मतलब है? इसका मतलब किसी चीज के बारे में गलत तरीके से सोचे-समझे और बात किए बिना और इसके बजाय ईमानदारी से अपनी गलतियों को स्वीकार करके और मामले का उचित और तर्कसंगत तरीके से सामना करके हर चीज का सही तरीके से सामना करने में सक्षम होना है। उचित और तर्कसंगत का क्या मतलब है? इसका यह मतलब है कि, चूँकि किसी चीज के कारण तुम्हारी काट-छाँट की गई है, इसलिए तुमने जो कुछ भी किया है उसमें जरूर कोई समस्या होगी—तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को एक तरफ रखते हुए, चलो बस इतना ही मान लेते हैं कि अगर तुमने इस मामले में कोई गड़बड़ी की है, तो इसके लिए निश्चित रूप से तुम्हारी कुछ जिम्मेदारी है; चूँकि अब तुम्हारी भी जिम्मेदारी है, तो तुम्हें यह जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेनी चाहिए और स्वीकार करना चाहिए कि तुमने ही यह किया है। एक बार जब तुम इसे स्वीकार कर लो, तो फिर तुम्हें अपने खुद की जाँच करनी चाहिए और पूछना चाहिए : “मैंने इसमें कौन सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया था? अगर मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव से प्रेरित नहीं था, तो क्या मेरे कार्य मानवीय इच्छा से मिश्रित थे? क्या यह मूर्खता का परिणाम था? क्या इसका मेरे लक्ष्य, मेरे द्वारा अपनाए गए मार्ग से कोई संबंध था?” अगर तुम इस प्रकार से खुद की जाँच करने में सक्षम हो तो इसका यह मतलब है कि तुम्हारे अंदर तर्क शक्ति है, तुम्हें पता हैं कि शर्म क्या होती है, तुम चीजों को उचित, वस्तुपरक रूप से और ऐसे तरीके से देखते हो जो तथ्यों के अनुरूप है। यही तो वो चीज है जिसकी मसीह-विरोधियों में कमी होती है। जब उनकी काट-छाँट की जा रही होती है, तो उनके मन में सबसे पहला ख्याल यह आता है कि, “तुम इतने सारे लोगों के सामने मेरे जैसे एक सम्मानित अगुआ की इतनी बेरहमी से काट-छाँट कैसे कर सकते हो और यहाँ तक कि तुमने मेरे शर्मनाक रहस्य को भी उजागर कर दिया? एक अगुआ के रूप में मेरी प्रतिष्ठा कहाँ गई? मेरी काट-छाँट करके क्या तुमने इसे नष्ट नहीं कर दिया है? अब से कौन मेरी बातें सुनेगा? अगर कोई मेरी बात ही नहीं सुनेगा, तो एक अगुआ के रूप में मेरी कोई हैसियत कैसे हो सकती है? क्या इससे मैं सिर्फ एक दिखावटी व्यक्ति बन कर नहीं रह जाऊँगा? फिर मैं अपनी हैसियत के लाभों का आनंद कैसे उठाऊँगा? क्या मैं अब भाइयों और बहनों द्वारा प्रदान की गई वस्तुओं का आनंद नहीं ले पाऊँगा?” क्या यह विचार सही है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? क्या यह उचित है? (नहीं।) इसे सूझ-बूझ से रहित होना और टेढ़े-मेढ़े तर्क देना कहते हैं। प्रतिष्ठा से तुम्हारा क्या मतलब है? एक अगुआ क्या होता है? निश्चित रूप से तुम भ्रष्टाचार से रहित तो नहीं हो? “तुम्हारे शर्मनाक रहस्य को उजागर करने” से तुम्हारा क्या मतलब है? तुम्हारा यह शर्मनाक रहस्य क्या है? यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव है। तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव दूसरों जैसा ही है—यही तुम्हारा शर्मनाक रहस्य है। तुम में कुछ भी अलग नहीं है, तुम दूसरों से श्रेष्ठ नहीं हो। परमेश्वर के घर ने तुम में बस यह देखा कि तुम्हारे अंदर थोड़ी बहुत काबिलियत है और तुम कुछ कार्य कर सकते हो, इसलिए उसने तुम्हें तरक्की दी और तुम्हारा पालन-पोषण किया और तुम्हें कोई विशेष बोझ दिया, जिसे उठाना तुम्हारे लिए थोड़ा अधिक था। लेकिन इसका बिल्कुल भी यह मतलब नहीं है कि एक बार जब तुम्हें हैसियत मिल जाती है, तो फिर तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव समाप्त हो जाता है। और फिर भी मसीह-विरोधी इस बात पर अड़े रहते हैं और कहते हैं कि, “अब जबकि मेरी भी कुछ हैसियत है, तो इसलिए तुम्हें मेरी काट-छाँट नहीं करनी चाहिए, विशेष रूप से इतने सारे लोगों के सामने नहीं, क्योंकि इससे अधिकांश लोगों को मेरी वास्तविक स्थिति के बारे में पता चल जाएगा।” क्या यह एक टेढ़ा-मेढ़ा तर्क नहीं है? इस दृष्टिकोण को कहाँ लागू किया जा सकता है? समाज में, जब तुम किसी को उभारते हो, तो तुम्हें उनकी अत्यधिक प्रशंसा करनी होती है, जैसे मानो वे पूर्ण हों और उनके लिए एक पूर्णता की छवि स्थापित करनी होती है, जिसमें थोड़ी सी भी खामी न हो। क्या यह धोखा नहीं है? क्या परमेश्वर का घर ऐसा करेगा? (नहीं।) यह तो शैतान करता है और यही मसीह-विरोधी भी मांगते हैं। शैतान तर्कहीन होता है और मसीह-विरोधी भी इस मामले में तर्कहीन होते हैं। केवल इतना ही नहीं, बल्कि वे टेढ़े-मेढ़े तर्क भी देते हैं और अत्यधिक मांगें करते हैं। अपनी हैसियत की रक्षा करने के लिए, वे ऊपरवाले से अनुरोध करते हैं कि वह इस बात का ध्यान रखे कि उनकी किस प्रकार काट-छाँट की जाती है, किन अवसरों पर उनकी काट-छाँट की जाती है और उनके साथ किस प्रकार के लहजे का प्रयोग किया जाता है। क्या यह जरूरी है? वे भ्रष्ट लोग हैं और वे किसी वास्तविक और सत्य कारण के लिए ही काट-छाँट की जा रही है—ऐसे में किसी विशेष तरीके से इसे करने की क्या जरूरत है? क्या उन्हें उभारने से भाइयों और बहनों को नुकसान नहीं पहुँचेगा? जितने वे बुरे लोग हैं, उसे देखते हुए क्या उन्हें ऊपर उठाया जाना चाहिए और उनकी हैसियत की रक्षा की जानी चाहिए, ताकि वे अपने से नीचे के लोगों के साथ लापरवाही से गलत कार्य कर सकें और अपना खुद का स्वतंत्र राज्य स्थापित कर सकें? क्या यह भाइयों और बहनों के साथ उचित होगा? क्या यह उनके प्रति जिम्मेदारी दिखाना है? यह उनके प्रति जिम्मेदारी वाला रवैया नहीं है। इसलिए एक मसीह-विरोधी द्वारा बिना किसी शर्म के इस तरह से व्यवहार करना, इस तरह से सोचना और ऐसी मांगें करना उनके द्वारा विशुद्ध रूप से टेढ़े-मेढ़े तर्क देना और जानबूझकर परेशानी पैदा करना होता है। जब किसी मसीह-विरोधी की उसके द्वारा किए गए किसी गलत कार्य के लिए काट-छाँट की जाती है, तो वह यह स्वीकार नहीं करता कि उसका स्वभाव भ्रष्ट है, न ही वह इस बात की जाँच करता है कि किस प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव ने उन्हें ऐसी चीज करने के लिए प्रेरित किया। ढ़ेर सारे टेढ़े-मेढ़े तर्क देने के बाद, वे न केवल खुद की जाँच करने से इनकार करते हैं, बल्कि जवाबी उपायों के बारे में भी सोचते हैं। “इसकी सूचना किसने दी? उपरवाले को किसने बताया? किसने अगुआओं को बताया कि मैंने ऐसा किया है? मुझे यह पता करना होगा कि वह कौन था और उसे सबक सिखाना होगा। मुझे उन्हें सभाओं के दौरान फटकारना होगा और दिखाना होगा कि मैं कितना प्रभावशाली हूँ।” जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो मसीह-विरोधी अपने बचाव के लिए, कोई रास्ता खोजने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे और यह सोचेंगे कि, “मैं इस बार लापरवाह था और मैंने अपना राज उजागर होने दिया, इसलिए मुझे अपनी पूरी कोशिश करनी होगी ताकि अगली बार ऐसा दोबारा न हो और मुझे ऊपरवाले और मेरे नीचे के भाइयों और बहनों को चकमा देने के लिए एक अलग तरीका अपनाना होगा, ताकि उनमें से कोई भी इसके बारे में न जान सके। जब मैं कोई सही कार्य करता हूँ, तो मुझे जल्दी से आगे बढ़कर उसका श्रेय लेना चाहिए, लेकिन जब मैं कोई गलती करता हूँ, तो मुझे जल्दी से इसकी जिम्मेदारी किसी और पर डालनी चाहिए।” क्या यह शर्मनाक बात नहीं है? यह बेहद शर्मनाक बात है! जब एक सामान्य व्यक्ति की काट-छाँट की जाती है, तो अंदर ही अंदर वे खुद से स्वीकार कर लेते हैं कि, “मैं अच्छा नहीं हूँ—मेरा भ्रष्ट स्वभाव है। अब कहने के लिए और कुछ नहीं बचा। मुझे आत्मचिंतन करना चाहिए।” वे चुपचाप यह संकल्प लेते हैं कि अगर वे इस प्रकार की स्थिति का फिर से सामना करेंगे तो वे परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार कार्य करेंगे। चाहे वे इसे हासिल कर सकें या न कर सकें, किसी भी स्थिति में, जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे इसे अपने दिल में तर्कसंगत तरीके से स्वीकार कर लेते हैं और उनकी तर्क शक्ति उन्हें बताती है कि उन्होंने सचमुच कुछ गलत किया है और यह कि चूँकि उनका स्वभाव भ्रष्ट है, इसलिए उन्हें इसे स्वीकार करना चाहिए। वे बिना किसी प्रतिरोध के दिल से समर्पण करते हैं और भले ही उन्हें थोड़ा-बहुत अन्याय महसूस हो, लेकिन उनका मुख्य रवैया सकारात्मक होता है। वे आत्मचिंतन कर सकते हैं, पछतावा महसूस कर सकते हैं और भविष्य में इस मामले में वही गलती न करने का संकल्प ले सकते हैं। दूसरी ओर, न केवल मसीह-विरोधी को कोई पश्चाताप महसूस नहीं होता है, बल्कि वे अपने दिल में प्रतिरोध भी दिखाते हैं और न केवल वे अपनी बुराई को छोड़ने में असमर्थ होते हैं, बल्कि वे आगे बढ़ने का कोई दूसरा रास्ता ढूँढ़ने की कोशिश भी करते हैं ताकि वे लापरवाही से गलत कार्य करते रहें और अपना दुष्ट व्यवहार जारी रख सकें। जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे अपने भ्रष्ट स्वभाव, अपने गलत कार्यों के स्रोत, अपने इरादों या उन विभिन्न दशाओं और दृष्टिकोणों की जाँच नहीं करते जो उनके भ्रष्ट स्वभाव के प्रकट होने पर उनके भीतर पैदा हुए थे। वे कभी भी इन चीजों की जाँच नहीं करते या इन पर विचार नहीं करते, न ही जब कोई अन्य उन्हें सुझाव, सलाह देता है या उन्हें उजागर करता है तो वे इसे स्वीकार करते हैं। इसके बजाय, वे अपने से ऊपर और नीचे के लोगों को धोखा देने के लिए विभिन्न तरीकों, साधनों और रणनीतियों की तलाश में अपने प्रयासों को तेज़ कर देते हैं, ताकि वे अपनी हैसियत की रक्षा कर सकें। वे परमेश्वर के घर में गड़बड़ियाँ पैदा करने के अपने प्रयासों को तेज़ कर देते हैं और बुराई करने के लिए अपनी हैसियत का उपयोग करते हैं। उनकी हालत सचमुच पूरी तरह से निराशाजनक हैं!

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद ग्यारह

जब काट-छाँट किए जाने की बात आती है, तो लोगों को कम से कम क्या जानना चाहिए? अपना कर्तव्य पर्याप्त रूप से निभाने के लिए काट-छाँट किए जाने का अनुभव जरूर करना चाहिए—यह अपरिहार्य है। ये ऐसी चीज है, जिसका लोगों को दिन-प्रतिदिन सामना करना चाहिए और जिसे परमेश्वर में अपने विश्वास में उद्धार प्राप्त करने के लिए अक्सर अनुभव करना चाहिए। कोई भी काट-छाँट किए जाने से अलग-थलग नहीं रह सकता। क्या किसी की काट-छाँट का संबंध उसकी संभावनाओं और नियति से होता है? (नहीं।) तो किसी व्यक्ति की काट-छाँट क्यों की जाती है? क्या यह उसकी निंदा करने के लिए की जाती है? (नहीं, यह लोगों को सत्य समझने और अपना कर्तव्य सिद्धांतों के अनुसार निभाने में मदद करने के लिए की जाती है।) सही कहा। यह इसकी एकदम सही समझ है। किसी की काट-छाँट करना एक तरह का अनुशासन है, एक प्रकार की ताड़ना है और यह स्वाभाविक रूप से एक प्रकार से लोगों की मदद करना और उनका उपचार करना भी है। काट-छाँट किए जाने से तुम समय रहते अपने गलत अनुसरण को बदल सकते हो। इससे तुम अपनी मौजूदा समस्याएँ तुरंत पहचान सकते हो और समय रहते अपने उन भ्रष्ट स्वभावों को पहचान सकते हो जो तुम प्रकट करते हो। चाहे कुछ भी हो, काट-छाँट किया जाना तुम्हें अपनी गलतियाँ पहचानने और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने में मदद करते हैं, ये तुम्हें चूक करने और भटकने से समय रहते बचाते हैं और तबाही मचाने से रोकते हैं। क्या यह लोगों की सबसे बड़ी सहायता, उनका सबसे बड़ा उपचार नहीं है? जमीर और विवेक रखने वालों को काट-छाँट किए जाने को सही ढंग से लेने में सक्षम होना चाहिए।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ)

जब तुम्हारी काट-छाँट हो तो सबसे पहले सही-गलत का विश्लेषण करने मत बैठ जाओ—इसे समर्पित मन से स्वीकारो। उदाहरण के लिए, कोई कह सकता है कि तुमने कुछ गलत किया है। यद्यपि तुम्हारा दिल नहीं मानता, तुम यह भी नहीं जानते कि क्या गलत किया, फिर भी तुम इसे स्वीकारते हो। स्वीकार करना मूल रूप से एक सकारात्मक रवैया है। इसके अलावा ऐसा रवैया भी है जो इससे थोड़ा ज्यादा नकारात्मक है, वह है चुप रहना और कोई प्रतिरोध न करना। इसमें किस तरह का व्यवहार शामिल है? तुम तर्क-वितर्क नहीं करते, अपना बचाव नहीं करते, या अपने लिए वस्तुनिष्ठ बहाने नहीं बनाते। अगर तुम हमेशा अपने लिए बहाने बनाते हो और तर्क-वितर्क करते हो, और जिम्मेदारी दूसरे लोगों पर ठेलते हो तो क्या यह प्रतिरोध है? यह विद्रोह का स्वभाव है। तुम्हें अस्वीकार, प्रतिरोध या तर्क-वितर्क नहीं करना चाहिए। भले ही तुम्हारा तर्क सही हो, लेकिन क्या यही सत्य है? यह मनुष्य का वस्तुनिष्ठ बहाना है, सत्य नहीं। तुमसे वस्तुनिष्ठ बहानों के बारे में नहीं पूछा जा रहा है—यह चीज क्यों हुई, या कैसे हुई—बल्कि, तुम्हें यह बताया जा रहा है कि उस कार्यकलाप की प्रकृति सत्य के अनुरूप नहीं थी। यदि तुम्हारे पास इस स्तर का ज्ञान है, तो तुम वास्तव में स्वीकार करने और प्रतिरोध न करने में सक्षम होओगे। कोई घटना हो जाने पर सबसे पहले समर्पित रवैया अपनाना मुख्य है। ... काट-छाँट का सामना होने पर, एक स्वीकारने वाले और समर्पित रवैये के तहत किस प्रकार के कार्यकलाप आते हैं? कम-से-कम तुम्हें समझदार और तर्कसंगत होना चाहिए। तुम्हें पहले समर्पण करना चाहिए, इसका विरोध या इसे अस्वीकार नहीं करना चाहिए, और इसके साथ तर्कसंगत व्यवहार करना चाहिए। इस तरीके से तुम्हारे पास न्यूनतम आवश्यक तार्किकता होगी। अगर तुम स्वीकृति और समर्पण हासिल करना चाहते हो तो तुम्हें सत्य को समझना होगा। सत्य को समझना कोई आसान चीज नहीं है। सबसे पहले तुम्हें परमेश्वर की चीजों को स्वीकारना होगा : कम-से-कम यह तो जान ही लो कि तुम्हारी काट-छाँट परमेश्वर की अनुमति से होती है, या यह परमेश्वर से आती है। काट-छाँट चाहे पूरी तरह से उचित हो या नहीं, तुम्हें स्वीकार करने वाला और समर्पण का रवैया रखना चाहिए। यह परमेश्वर के प्रति समर्पण की अभिव्यक्ति है, और साथ ही यह परमेश्वर द्वारा पड़ताल की स्वीकृति भी है। यदि तुम यह सोच कर केवल तर्क-वितर्क करके अपना बचाव करते हो कि काट-छाँट मनुष्य से आती है, परमेश्वर से नहीं, तो तुम्हारी समझ त्रुटिपूर्ण है। एक बात तो यह कि, तुमने परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार नहीं किया है, और दूसरी बात परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो परिवेश तैयार किया है उसमें ढलने के लिए तुम्हारे पास न तो समर्पित रवैया है, न ही आज्ञाकारी आचरण है। यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करता है। ... अधिसंख्य लोगों के साथ जब कुछ ऐसा होता है जो उनकी अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और रुचियों के अनुरूप हो तो वे काफी अच्छा महसूस करते हैं, इसलिए वे समर्पण करके मुदित होते हैं, और सब कुछ ठीकठाक रहता है। उनके दिल में सुकून और शांति होती है, और वे खुश और मुदित होते हैं। लेकिन जब उनका सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं है, या जो उनके प्रतिकूल है तो वे यह जानते हुए भी कि समर्पण करना चाहिए, ऐसा कर नहीं पाते। वे पीड़ा से गुजरते हैं, इसे चुपचाप सहने के सिवाय उनके पास दूसरा चारा नहीं होता, और अपनी कठिनाइयों के बारे में बात करना उनके लिए मुश्किल हो जाता है। उन्हें उदासी घेर लेती है, वे ऐसी शिकायतों से भर जाते हैं जिसे कहीं जाहिर नहीं किया जा सकता, इसलिए उनके दिल क्रोध की आग से जल उठते हैं : “दूसरे लोग सही हैं। उनका रुतबा मुझसे अधिक है; मैं उन्हें कैसे अनसुना कर सकता हूँ? मुझे अपनी नियति स्वीकार कर ही लेनी चाहिए। मुझे भविष्य में और सतर्क रहना चाहिए और अपना मुँह खोलकर जोखिम मोल नहीं लेना चाहिए—जो लोग जोखिम मोल लेते हैं उनकी काट-छाँट की जाती है। समर्पण सरल नहीं है। बहुत कठिन है! मेरे उत्साह की आग को बाल्टी भर ठंडा पानी डालकर बुझा दिया गया है। मैं सरल और साफदिल वाला बनना चाहता था, लेकिन इसका नतीजा यह निकला कि मैं अप्रिय चीजें बोलता रहा और मेरी काट-छाँट की जाती रही। आइंदा मैं चुप रहूँगा, और खुशामद करने वाला बनूँगा।” यह किस तरह का रवैया है? यह एक अति से दूसरी अति की ओर जाना है। लोगों को समर्पण का पाठ सिखाने का परमेश्वर का अंतिम लक्ष्य क्या है? उस समय तुम्हें चाहे जितनी प्रताड़ना और पीड़ा सहनी पड़े, चाहे जितनी शर्मिंदगी उठानी पड़े, या तुम्हारी छवि, अहं या प्रतिष्ठा को चाहे जितनी चोट पहुँचे, ये सभी गौण हैं। सबसे महत्वपूर्ण है अपनी अवस्था को आमूलचूल बदलना। कैसी अवस्था? सामान्य परिस्थितियों में, लोगों के दिल की गहराइयों में एक प्रकार की अड़ियल और विद्रोही अवस्था मौजूद होती है—जिसका मुख्य कारण यह है कि उनके दिल में, खास तरह के मानवीय तर्क और मानवीय धारणाएँ होती हैं, जो इस प्रकार हैं : “अगर मेरे इरादे सही हैं, तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि परिणाम क्या है; तुम्हें मेरी काट-छाँट नहीं करनी चाहिए और यदि तुम ऐसा करते हो, तो मुझे आज्ञापालन करने की आवश्यकता नहीं है।” वे इस बात पर विचार नहीं करते कि क्या उनके कार्य सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं या परिणाम क्या होंगे। वे हमेशा इन बातों से चिपके रहते हैं, “अगर मेरे इरादे नेक और सही हैं, तो परमेश्वर को मुझे स्वीकार करना चाहिए। भले ही परिणाम अच्छा न हो, तुम्हें मेरी काट-छाँट नहीं करनी चाहिए, मेरी निंदा करने की बात तो बहुत दूर है।” यह मानवीय तर्क है, है न? ये मानवीय धारणाएँ हैं न? मनुष्य हमेशा अपने तर्क पर कायम रहता है—क्या इसमें कोई समर्पण है? तुमने अपने तर्क को सत्य बना लिया है और सत्य को दरकिनार कर दिया है। तुम्हें लगता है, जो तुम्हारे तर्क के अनुरूप है वह सत्य है और जो नहीं है वह सत्य नहीं है। क्या तुमसे ज्यादा हास्यास्पद और कोई है? क्या तुमसे ज्यादा अहंकारी और आत्म-तुष्ट कोई है? समर्पण का सबक सीखने के लिए किस भ्रष्ट स्वभाव का समाधान किया जाना चाहिए? यह वास्तव में अहंकार और आत्म-तुष्टि का स्वभाव है, जो लोगों के सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सबसे बड़ी बाधा है। अहंकारी और आत्म-तुष्ट स्वभाव वाले लोग तर्क-वितर्क और अवज्ञा करने में सबसे अधिक प्रवृत्त होते हैं, वे हमेशा सोचते हैं कि वे सही हैं, इसलिए उनके अहंकारी और आत्म-तुष्ट स्वभाव का समाधान करने और उनकी काट-छाँट करने से ज्यादा जरूरी कुछ नहीं है। जब लोग अच्छे व्यवहार वाले हो जाएँगे और अपने लिए तर्क देने बंद कर देंगे तो विद्रोहीपन की समस्या हल हो जाएगी और वे समर्पित बनने में समर्थ हो जाएंगे। अगर लोगों को समर्पित बनने में सक्षम होना है, तो क्या उनमें कुछ हद तक तार्किकता होनी आवश्यक नहीं है? उनमें एक सामान्य व्यक्ति की समझ होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, कुछ मामलों में हमने चाहे सही काम किया हो या नहीं, अगर परमेश्वर संतुष्ट नहीं है, तो हमें वही करना चाहिए जैसा परमेश्वर कहता है और उसके वचनों को हर चीज के लिए मानक मानना चाहिए। क्या यह तर्कसंगत है? लोगों में ऐसी समझ का होना सबसे जरूरी है। हम चाहे कितना भी कष्ट उठाएँ, चाहे हमारे इरादे, उद्देश्य और कारण कुछ भी हों, यदि परमेश्वर संतुष्ट नहीं है—यदि उसकी अपेक्षाएँ पूरी नहीं हुई हैं—तो हमारे कार्य निस्संदेह सत्य के अनुरूप नहीं हैं, इसलिए हमें परमेश्वर की बात मानकर उसके प्रति समर्पण करना चाहिए और उसके साथ बहस या तर्क करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। जब तुममें ऐसी तार्किकता होगी, एक सामान्य व्यक्ति की समझ होगी, तो तुम्हारे लिए अपनी समस्याएँ हल करना आसान होगा, और तुम सच में आज्ञाकारी हो जाओगे। चाहे तुम किसी भी स्थिति में हो, तुम विद्रोही नहीं बनोगे और परमेश्वर की अपेक्षाओं की अवहेलना नहीं करोगे; तुम यह विश्लेषण नहीं करोगे कि परमेश्वर जो चाहता है वह सही है या गलत, अच्छा है या बुरा, और तुम आज्ञापालन कर पाओगे—इस तरह तुम अपनी तर्क-वितर्क, हठधर्मिता और विद्रोह की स्थिति को हल कर सकते हो। क्या सबके भीतर ऐसी विद्रोही स्थिति होती है? लोगों में अक्सर ये अवस्थाएँ दिखाई देती हैं और वे सोचते हैं, “अगर मेरा दृष्टिकोण, प्रस्ताव और सुझाव विवेकपूर्ण है, तो भले ही मैं सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करूँ, मेरी काट-छाँट नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि मैंने कोई दुष्कर्म नहीं किए हैं।” यह लोगों में एक सामान्य अवस्था होती है। उनका यह नजरिया होता है कि अगर उन्होंने कोई दुष्कर्म नहीं किया है, तो उनकी काट-छाँट नहीं की जानी चाहिए; केवल उन्हीं लोगों की काट-छाँट की जानी चाहिए, जिन्होंने दुष्कर्म किया हो। क्या यह नजरिया सही है? निश्चित रूप से नहीं। काट-छाँट के निशाने पर मुख्य रूप से लोगों के भ्रष्ट स्वभाव होते हैं। अगर किसी का स्वभाव भ्रष्ट है तो उसकी काट-छाँट की जानी चाहिए। अगर उसकी काट-छाँट केवल दुष्कर्म करने के बाद ही की जाए, तो बहुत देर हो चुकी होगी, क्योंकि मुसीबत पहले ही खड़ी हो चुकी होगी। अगर परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँची है, तो तुम संकट में हो, परमेश्वर तुम्हारे भीतर काम करना बंद कर सकता है—उस हालत में, तुम्हारी काट-छाँट करने का क्या तुक है? तुम्हारा खुलासा कर तुम्हें हटाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है

लोगों को परमेश्वर के हाथों अपनी काट-छाँट के प्रति क्या रवैया अपनाना चाहिए? उन्हें इसे किस तरह लेना चाहिए? क्या लोगों को ऐसे मामलों पर विचार नहीं करना चाहिए? (करना चाहिए।) लोगों को इस तरह की चीजों पर चिंतन और विचार करना चाहिए। इंसान परमेश्वर से कभी भी और कैसे भी व्यवहार करे, लेकिन वास्तव में इंसान की पहचान नहीं बदलती; लोग हमेशा सृजित प्राणी ही रहते हैं। यदि तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी स्थिति से सामंजस्य नहीं बिठाते, तो इसका मतलब है कि तुम विद्रोही हो और तुम अपने स्वभाव में बदलाव लाने, परमेश्वर का भय मानने और बुराई छोड़ने से बहुत दूर हो। यदि तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी स्थिति से सामंजस्य बिठा लेते हो, तो परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया किस प्रकार का होना चाहिए? (बिना शर्त समर्पण वाला।) तुम्हारे अंदर कम-से-कम यह चीज तो होनी ही चाहिए : बिना शर्त समर्पण। इसका मतलब है कि किसी भी समय परमेश्वर जो भी करता है, वह कभी गलत नहीं होता; केवल लोग गलतियाँ करते हैं। चाहे जो भी परिवेश सामने आए—विशेष रूप से मुश्किलों में, और खासकर जब परमेश्वर लोगों को प्रकट या उजागर करे—सबसे पहले इंसान को परमेश्वर के सामने आकर आत्म-चिंतन करना चाहिए और अपने शब्दों, कर्मों और भ्रष्ट स्वभाव की जाँच करनी चाहिए, न कि यह जाँच, अध्ययन और आलोचना करनी चाहिए कि परमेश्वर के वचन और कार्य सही हैं या गलत। यदि तुम अपने उचित स्थान में रहते हो, तो तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हें वास्तव में क्या करना चाहिए। लोगों का स्वभाव भ्रष्ट है और वे सत्य को नहीं समझते। यह कोई ज्यादा बड़ी समस्या नहीं है। लेकिन जब लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है और वे सत्य को नहीं समझते, और फिर भी वे सत्य को नहीं खोजते—तब बड़ी समस्या होती है। तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है, तुम सत्य को नहीं समझते, और तुम मनमाने ढंग से परमेश्वर की आलोचना कर सकते हो, और अपनी मनोदशा, प्राथमिकताओं और भावनाओं के अनुसार उसके पास जाकर उससे बातचीत कर सकते हो। लेकिन अगर तुम सत्य को नहीं खोजते, उसका अभ्यास नहीं करते, तो चीजें इतनी सरल नहीं होंगी। तब तुम न केवल परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर पाओगे, बल्कि तुम उसे गलत समझ सकते हो और उसकी शिकायत कर सकते हो, उसकी निंदा कर सकते हो, उसका विरोध कर सकते हो, यहाँ तक कि मन-ही-मन उसे फटकार कर उसे अस्वीकार सकते हो और कह सकते हो कि वह धार्मिक नहीं है, कि वह जो कुछ भी करता है, जरूरी नहीं कि वह सही हो। क्या यह खतरनाक नहीं है कि तुम अभी भी ऐसी चीजों को हवा देते हो? (खतरनाक है।) यह बहुत ही खतरनाक है। सत्य को न खोजने से व्यक्ति की जान जा सकती है! और यह किसी भी समय और किसी भी स्थान पर हो सकता है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग तीन)

यदि तुम किसी मामले में भ्रष्टता दिखाते हो, तो क्या इसका एहसास होते ही, तुम तुरंत सत्य का अभ्यास कर सकते हो? नहीं। समझ के इस स्तर पर, तो दूसरे तुम्हारी काट-छाँट करते हैं, और तब परिवेश तुम्हें बाध्य करके सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करने के लिए मजबूर करता है। कभी-कभी तुम ऐसा करने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाते और तुम अपने आपसे कहते हो, “क्या मुझे इसे ऐसे ही करना पड़ेगा? मैं इसे अपने हिसाब से क्यों नहीं कर सकता? मुझे हमेशा सत्य का अभ्यास करने के लिए क्यों कहा जाता है? मैं यह नहीं करना चाहता, मैं इससे थक चुका हूँ!” परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिए निम्न प्रक्रिया से गुजरना होता है : सत्य का अभ्यास करने का अनिच्छुक होने से लेकर सहर्ष सत्य का अभ्यास करने तक; नकारात्मकता और कमजोरी से लेकर सशक्त बनने और दैहिक इच्छाओं से विद्रोह कर पाने की क्षमता तक। जब लोग अनुभव के एक निश्चित बिंदु तक पहुँच जाते हैं और फिर कुछ परीक्षणों और शोधन से गुजरकर अंततः परमेश्वर के इरादे और कुछ सत्य समझने लगते हैं, तब वे थोड़े खुश होकर सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने को तैयार हो जाते हैं। शुरू में लोग सत्य पर अमल करने को तैयार नहीं होते। उदाहरण के तौर पर, निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों के निर्वहन को ही लो : तुम्हारे अंदर अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होने की कुछ समझ है, तुम्हें सत्य की भी थोड़ी समझ है, लेकिन तुम पूरी तरह निष्ठावान कब होगे? नाम और कर्म में तुम अपने कर्तव्यों का निर्वहन कब कर सकोगे? इसमें प्रक्रिया की आवश्यकता है। इस प्रक्रिया के दौरान तुम्हें कई कठिनाइयों को झेलना पड़ सकता है। शायद कुछ लोग तुम्हारी काट-छाँट करें, कुछ तुम्हारी आलोचना करें। सबकी निगाहें तुम पर लगी रहेंगी, तुम्हें परख रही होंगी, केवल तब जाकर तुम्हें एहसास होगा कि तुम गलत हो, तुम ही हो जिसने अच्छा काम नहीं किया, कि कर्तव्य के निर्वहन में निष्ठा न होना अस्वीकार्य है और यह भी कि तुम्हें अनमना नहीं होना चाहिए! पवित्र आत्मा तुम्हें भीतर से प्रबुद्ध करता है और जब तुम कोई भूल करते हो, तो वह तुम्हें फटकारता है। इस प्रक्रिया के दौरान तुम अपने बारे में कुछ बातें समझने लगोगे और जान जाओगे कि तुममें बहुत सारी अशुद्धियाँ हैं, तुम्हारे अंदर निजी इरादे भरे पड़े हैं और अपने कर्तव्य निभाते समय तुम्हारे अंदर बहुत सारी अनियंत्रित इच्छाएँ होती हैं। जब तुम इन चीजों के सार को समझ जाते हो, तब अगर तुम परमेश्वर के समक्ष आकर उससे प्रार्थना कर सच्चा प्रायश्चित कर सकते हो, तो तुम्हारी वे भ्रष्ट चीजें शुद्ध की जा सकती हैं। यदि इस तरह अपनी व्यावहारिक समस्याओं का समाधान करने के लिए तुम अक्सर सत्य की खोज करोगे, तो तुम आस्था के सही मार्ग पर कदम बढ़ा सकोगे; तुम्हें सच्चे जीवन-अनुभव होने लगेंगे और धीरे-धीरे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध होने लगेगा। तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव जितना शुद्ध होता जाएगा, तुम्हारा जीवन स्वभाव उतना ही रूपांतरित होगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए

परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते समय, चाहे तुम कितनी भी बार असफल हुए हो, गिरे हो, तुम्हारी काट-छाँट की गई हो या तुम प्रकट किए गए हो, ये बुरी चीजें नहीं हैं। भले ही तुम्हारी कैसे भी काट-छाँट की गई हो, चाहे किसी अगुआ या कार्यकर्ता ने किया हो या तुम्हारे भाई-बहनों ने, ये सब अच्छी चीजें होती हैं। तुम्हें यह बात याद रखनी चाहिए : चाहे तुम्हें कितना भी कष्ट हो, तुम्हें असल में इससे लाभ होता है। कोई भी अनुभव वाला व्यक्ति इसकी पुष्टि कर सकता है। चाहे कुछ भी हो जाए, काट-छाँट या प्रकट किया जाना हमेशा अच्छा होता है। यह कोई निंदा नहीं है। यह परमेश्वर का उद्धार है और तुम्हारे लिए स्वयं को जानने का सर्वोत्तम अवसर है। यह तुम्हारे जीवन-अनुभव में बदलाव ला सकता है। इसके बिना, तुम्हारे पास न तो अवसर होगा, न ही परिस्थिति, और न ही अपनी भ्रष्टता के सत्य की समझ तक पहुँचने में सक्षम होने के लिए कोई प्रासंगिक आधार होगा। अगर तुम सत्य को सचमुच समझते हो, और अपने दिल की गहराइयों में छिपी भ्रष्ट चीजों का पता लगाने में सक्षम हो, अगर तुम स्पष्ट रूप से उनकी पहचान कर सकते हो, तो यह अच्छी बात है, इससे जीवन-प्रवेश की एक बड़ी समस्या हल हो जाती है, और यह स्वभाव में बदलाव के लिए भी बहुत लाभदायक है। स्वयं को सही मायने में जानने में सक्षम होना, तुम्हारे लिए अपने तरीकों में बदलाव कर एक नया व्यक्ति बनने का सबसे अच्छा मौका है; तुम्हारे लिए यह नया जीवन पाने का सबसे अच्छा अवसर है। एक बार जब तुम सच में खुद को जान लोगे, तो तुम यह देख पाओगे कि जब सत्य किसी का जीवन बन जाता है, तो यह निश्चय ही अनमोल होता है, तुममें सत्य की प्यास होगी, तुम सत्य का अभ्यास करोगे और वास्तविकता में प्रवेश करोगे। यह कितनी बड़ी बात है! यदि तुम इस अवसर को थाम सको और ईमानदारी से मनन कर सको, तो कभी भी असफल होने या नीचे गिरने पर स्वयं के बारे में वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकते हो, तब तुम नकारात्मकता और कमज़ोरी में भी फिर से खड़े हो सकोगे। एक बार जब तुम इस सीमा को लांघ लोगे, तो फिर तुम एक बड़ा कदम उठा सकोगे और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए

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