5. स्वयं को कैसे जानें और अपने भ्रष्ट स्वभाव को कैसे दूर करें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
मनुष्य के स्वभाव में बदलाव अपने सार के ज्ञान से और अपनी सोच, प्रकृति और मानसिक दृष्टिकोण में बदलाव के माध्यम से—मूलभूत परिवर्तनों से शुरू होता है। केवल इसी ढंग से मनुष्य के स्वभाव में सच्चे बदलाव प्राप्त किए जा सकेंगे। मनुष्य में उत्पन्न होने वाले भ्रष्ट स्वभावों का मूल कारण शैतान द्वारा गुमराह किया जाना, उसकी भ्रष्टता और जहर है। मनुष्य को शैतान द्वारा बाँधा और नियंत्रित किया गया है, और शैतान ने उसकी सोच, नैतिकता, अंतर्दृष्टि और समझ को जो गंभीर नुकसान पहुँचाया है, उसे वह भुगतता है। शैतान ने इंसान की मूलभूत चीजों को भ्रष्ट कर दिया है, और वे बिल्कुल भी वैसी नहीं हैं जैसा परमेश्वर ने मूल रूप से उन्हें बनाया था, ठीक इसी वजह से मनुष्य परमेश्वर का विरोध करता है और सत्य को नहीं स्वीकार पाता। इसलिए मनुष्य के स्वभाव में बदलाव उसकी सोच, अंतर्दृष्टि और समझ में बदलाव के साथ शुरू होना चाहिए, जो परमेश्वर और सत्य के बारे में उसके ज्ञान को बदलेगा। जो लोग अधिकतम गहराई से भ्रष्ट देशों में जन्मे हैं, वे इस बारे में और भी अधिक अज्ञानी हैं कि परमेश्वर क्या है, या परमेश्वर में विश्वास करने का क्या अर्थ है। लोग जितने अधिक भ्रष्ट होते हैं, वे उतना ही कम परमेश्वर के अस्तित्व के बारे में जानते हैं, और उनकी समझ और अंतर्दृष्टि उतनी ही खराब होती है। परमेश्वर के प्रति मनुष्य के विरोध और उसकी विद्रोहशीलता का स्रोत शैतान द्वारा उसकी भ्रष्टता है। शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिए जाने के कारण मनुष्य की अंतरात्मा सुन्न हो गई है, वह अनैतिक हो गया है, उसके विचार पतित हो गए हैं, और उसका मानसिक दृष्टिकोण पिछड़ा हुआ है। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने से पहले मनुष्य स्वाभाविक रूप से परमेश्वर को समर्पित था और उसके वचनों को सुनने के बाद उनके प्रति समर्पण करता था। उसमें स्वाभाविक रूप से सही समझ और विवेक था, और उसमें सामान्य मानवता थी। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद उसकी मूल समझ, विवेक और मानवता मंद पड़ गई और शैतान द्वारा बिगाड़ दी गई। इस प्रकार, उसने परमेश्वर के प्रति अपना समर्पण और प्रेम खो दिया है। मनुष्य की समझ पथभ्रष्ट हो गई है, उसका स्वभाव जानवरों के स्वभाव के समान हो गया है, और परमेश्वर के प्रति उसकी विद्रोहशीलता और भी अधिक बढ़ गई है और गंभीर हो गई है। लेकिन मनुष्य इसे न तो जानता है और न ही पहचानता है, बस आँख मूँदकर विरोध और विद्रोह करता है। मनुष्य का स्वभाव उसकी समझ, अंतर्दृष्टि और अंतःकरण की अभिव्यक्तियों में प्रकट होता है; और चूँकि उसकी समझ और अंतर्दृष्टि सही नहीं हैं, और उसका अंतःकरण अत्यंत मंद पड़ गया है, इसलिए उसका स्वभाव परमेश्वर के प्रति विद्रोही है। यदि मनुष्य की समझ और अंतर्दृष्टि बदल नहीं सकती, तो फिर उसके स्वभाव में परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप बदलाव होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यदि मनुष्य की समझ सही नहीं है, तो वह परमेश्वर की सेवा नहीं कर सकता और वह परमेश्वर द्वारा उपयोग के अयोग्य है। “सामान्य समझ” का अर्थ है परमेश्वर के प्रति समर्पण करना और उसके प्रति निष्ठावान होना, परमेश्वर के लिए तरसना, परमेश्वर के प्रति पूर्ण होना, और परमेश्वर के प्रति विवेकशील होना। यह परमेश्वर के साथ एकचित्त और एकमन होने को दर्शाता है, जानबूझकर परमेश्वर का विरोध करने को नहीं। पथभ्रष्ट समझ का होना ऐसा नहीं है। चूँकि मनुष्य शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया था, इसलिए उसने परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बना ली हैं, और उसमें परमेश्वर के लिए कोई निष्ठा या तड़प नहीं है, परमेश्वर के प्रति विवेकशीलता की तो बात ही छोड़ो। मनुष्य जानबूझकर परमेश्वर का विरोध करता और उस पर दोष लगाता है, और इसके अलावा, यह स्पष्ट रूप से जानते हुए भी कि वह परमेश्वर है, उसकी पीठ पीछे उस पर अपशब्दों की बौछार करता है। मनुष्य स्पष्ट रूप से जानता है कि वह परमेश्वर है, फिर भी उसकी पीठ पीछे उस पर दोष लगाता है; वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का कोई इरादा नहीं रखता, बस परमेश्वर से अंधाधुंध माँग और अनुरोध करता रहता है। ऐसे लोग—वे लोग जिनकी समझ भ्रष्ट होती है—अपने घृणित स्वभाव को जानने या अपनी विद्रोहशीलता पर पछतावा करने में अक्षम होते हैं। यदि लोग अपने आप को जानने में सक्षम होते हैं, तो उन्होंने अपनी समझ को थोड़ा-सा पुनः प्राप्त कर लिया होता है; परमेश्वर के प्रति अधिक विद्रोही लोग, जो अभी तक अपने आप को नहीं जान पाए, वे उतने ही कम समझदार होते हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है
परमेश्वर ने कई अलग-अलग तरीकों का इस्तेमाल किया है ताकि लोग खुद को जान सकें। वह लोगों को अनुभव के माध्यम से धीरे-धीरे खुद को जानने देता है। चाहे परीक्षण हो, न्याय या ताड़ना हो, परमेश्वर अपने वचनों में, और वास्तविक तथ्यों में, लोगों को बिना रुके अनुभव करने देता है। लोग परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना और अनुशासन का अनुभव करते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और प्रकाश का भी अनुभव करते हैं। साथ ही, वह लोगों को अपनी भ्रष्टता, अपने विद्रोह और अपनी प्रकृति को पहचानने की अनुमति देता है। तो इन सबका अंतिम लक्ष्य क्या है? यह अंतिम लक्ष्य है उस प्रत्येक व्यक्ति को जो परमेश्वर के कार्य का अनुभव करता है, यह जानने देना कि लोग क्या हैं। “लोग क्या हैं” इसमें कौन-सी बातें शामिल हैं? इसमें लोगों को अपनी पहचान, स्थिति, अपने कर्तव्य और दायित्व को पहचानने की अनुमति देना शामिल है। यह तुम्हें यह जानने देने के लिए है कि लोग कौन हैं और तुम स्वयं कौन हो। परमेश्वर द्वारा लोगों को स्वयं को जानने देने का अंतिम लक्ष्य यही है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
स्वभावगत बदलाव लाने के लिए व्यक्ति को सबसे पहले खुद अपना भ्रष्ट स्वभाव पहचानने में सक्षम होना चाहिए। खुद को वास्तव में जानने का मतलब है अपनी भ्रष्टता के सार की असलियत समझना और इसका पूरी तरह विश्लेषण करना, साथ ही उन तमाम दशाओं को पहचानना जो भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होती हैं। जब कोई व्यक्ति अपनी भ्रष्ट दशाओं और भ्रष्ट स्वभाव को साफ तौर पर समझ लेता है, तभी वह अपनी दैहिक इच्छाओं से और शैतान से नफरत कर पाएगा, जिससे ही फिर स्वभावगत बदलाव आता है। अगर वह इन दशाओं को नहीं पहचान सकता, इनसे कड़ियाँ जोड़कर अपना मिलान नहीं कर पाता तो क्या उसका स्वभाव बदल सकता है? यह नहीं बदल सकता। स्वभावगत बदलाव के लिए व्यक्ति को अपने भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होने वाली विभिन्न दशाओं को पहचानने की जरूरत पड़ती है; उसे एक ऐसे मुकाम पर पहुँचना होता है जहाँ वह अपने भ्रष्ट स्वभाव से नियंत्रित न हो और सत्य को अभ्यास में लाता हो—तब जाकर उसका स्वभाव बदलना शुरू होगा। अगर वह अपनी भ्रष्ट दशाओं के उद्गम को नहीं पहचानता, और जिन वचनों और सिद्धांतों को वह समझता है उन्हीं के अनुसार बेबस बना रहता है तो भले ही वह कुछ सद्व्यवहार अपना ले और बाहरी तौर पर थोड़ा-सा बदल जाए लेकिन इसे स्वभावगत बदलाव नहीं माना जाएगा। चूँकि इसे स्वभावगत बदलाव नहीं माना जा सकता तो फिर अपना कर्तव्य निभाने के लिए दौरान लोगों की क्या भूमिका होती है? यह एक सेवाकर्मी की भूमिका होती है; वे सिर्फ परिश्रम करते हैं और खुद को काम में व्यस्त रखते हैं। भले ही वे अपना कर्तव्य भी निभा रहे हैं, लेकिन अधिकांश समय वे सिर्फ काम निपटाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, वे सत्य की खोज नहीं करते बल्कि सिर्फ मेहनत करते हैं। कभी-कभी जब उनकी मनःस्थिति अच्छी होती है तो वे अतिरिक्त मेहनत करेंगे और जब मनःस्थिति खराब होती है तो थोड़ा-सा सुस्त पड़ जाते हैं। लेकिन बाद में आत्म-परीक्षण करने पर उन्हें ग्लानि होती है, इसलिए वे दुबारा और ज्यादा प्रयास करते हैं और सोचते हैं कि यही पश्चात्ताप है। दरअसल, यह सच्चा बदलाव नहीं है, न यह सच्चा पश्चात्ताप है। सच्चा पश्चात्ताप खुद को जानने से शुरू होता है; यह व्यवहार में बदलाव से शुरू होता है। एक बार किसी का व्यवहार बदल गया, उसने अपनी दैहिक इच्छाएँ त्याग दीं, सत्य को अमल में ले आया, और व्यवहार के मामले में सिद्धांतों के अनुरूप दिखने लगा तो इसे ही सच्चा पश्चात्ताप कहते हैं। फिर धीरे-धीरे वह उस मुकाम पर पहुँच जाता है जहाँ वह सिद्धांतों के अनुसार बोलने और कार्य करने में सक्षम है, और पूरी तरह सत्य के अनुरूप है। यही वह समय है जब जीवन स्वभाव में बदलाव शुरू होता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है
स्वभाव में परिवर्तन को प्राप्त करने की कुंजी, अपने स्वयं के स्वभाव को जानना है, और यह अवश्य परमेश्वर से प्रकाशनों के अनुसार होना चाहिए। केवल परमेश्वर के वचन में ही कोई व्यक्ति अपने स्वयं के घृणास्पद स्वभाव को जान सकता है, अपने स्वभाव में शैतान के विभिन्न विषों को पहचान सकता है, जान सकता है कि वह मूर्ख और अज्ञानी है, और अपने स्वयं के स्वभाव में कमजोर और नकारात्मक तत्वों को पहचान सकता है। ये पूरी तरह से ज्ञात हो जाने के बाद, और तुम्हारे वास्तव में स्वयं से पूरी तरह से नफ़रत करने और शरीर से मुँह मोड़ने में सक्षम हो जाने पर, लगातार परमेश्वर के वचन का पालन करो, लगातार अपने कर्तव्य निभाते हुए सत्य का अनुसरण करो, अपने स्वभाव में बदलाव लाओ और परमेश्वर से प्रेम करने वाले इंसान बनो, तब तुम पतरस के मार्ग पर चलना शुरू कर चुके होगे। परमेश्वर के अनुग्रह के बिना, और पवित्र आत्मा से प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त किए बिना, इस मार्ग पर चलना मुश्किल होगा, क्योंकि लोगों के पास सत्य नहीं है और वे खुद को प्रकट कर देने में असमर्थ हैं। पतरस की पूर्णता के मार्ग पर चलना मुख्यतः संकल्पित होने, आस्था रखने और परमेश्वर पर भरोसा करने पर निर्भर है। इसके अलावा, व्यक्ति को पवित्र आत्मा के काम के प्रति समर्पित होना चाहिए; किसी भी चीज़ में व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के बिना नहीं चल सकता। ये वे प्रमुख पहलू हैं, जिनमें से किसी का भी उल्लंघन नहीं किया जा सकता। अनुभव के माध्यम से स्वयं को जान लेना बहुत कठिन है; पवित्र आत्मा के कार्य के बिना यह व्यर्थ है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
खुद को जानने के लिए तुम्हें अपनी भ्रष्टता के खुलासों, अपने भ्रष्ट स्वभाव, अपनी नाजुक कमजोरियों और अपने प्रकृति सार के बारे में पता होना चाहिए। तुम्हें बहुत विस्तार से उन चीजों के बारे में भी पता होना चाहिए जो तुम्हारे दैनिक जीवन में सामने आती हैं—तुम्हारे इरादे, तुम्हारे नजरिए और हर एक बात में तुम्हारा रवैया—चाहे तुम घर पर हो या बाहर, चाहे जब तुम सभाओं में होते हो, या जब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हो, या किसी भी मुद्दे का सामना करते हो। इन पहलुओं के माध्यम से तुम्हें खुद को जानना होगा। बेशक, खुद को एक अधिक गहरे स्तर पर जानने के लिए, तुम्हें परमेश्वर के वचनों को एकीकृत करना होगा; केवल उसके वचनों के आधार पर स्वयं को जानकर ही तुम परिणाम हासिल कर सकते हो। परमेश्वर के वचनों के न्याय को स्वीकार करते समय कष्ट या पीड़ा से न डरो, और इस बात से और भी न डरो कि परमेश्वर तुम लोगों के दिल को चीर देगा और तुम्हारी कुरूप अवस्थाओं को उजागर कर देगा। इन चीजों को झेलना बेहद हितकारी है। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो तो तुम्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना वाले वचनों को और ज्यादा पढ़ना चाहिए, खासकर वो वचन जो मानवजाति की भ्रष्टता का सार उजागर करते हैं। तुम्हें उनके साथ अपनी व्यावहारिक अवस्था की तुलना करनी चाहिए, और तुम्हें उन्हें खुद से ज्यादा और दूसरों से कम जोड़ना चाहिए। परमेश्वर जैसी अवस्थाएँ उजागर करता है, वे हर व्यक्ति में मौजूद हैं, और वे सभी तुम में मिल सकती हैं। अगर तुम्हें इस पर विश्वास नहीं है, तो इसे अनुभव करके देखो। तुम जितना ज्यादा अनुभव करोगे, उतना ही ज्यादा खुद को जानोगे, और उतना ही ज्यादा यह महसूस करोगे कि परमेश्वर के वचन बिल्कुल सही हैं। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, कुछ लोग उन्हें खुद से जोड़ने में असमर्थ होते हैं; उन्हें लगता है कि इन वचनों के कुछ हिस्से उनके बारे में नहीं, बल्कि अन्य लोगों के बारे में हैं। उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर लोगों को ईजबेलों और वेश्याओं के रूप में उजागर करता है, तो कुछ बहनों को लगता है कि चूँकि वे अपने पति के प्रति पूरी तरह से वफादार हैं, अतः ऐसे वचन उनके संदर्भ में नहीं होने चाहिए; कुछ बहनों को लगता है कि चूँकि वे अविवाहित हैं और उन्होंने कभी सेक्स नहीं किया है, इसलिए ऐसे वचन उनके बारे में भी नहीं होने चाहिए। कुछ भाइयों को लगता है कि ये वचन केवल महिलाओं के लिए कहे गए हैं, और इनका उनसे कोई लेना-देना नहीं है; कुछ लोगों का मानना है कि मनुष्य को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन बहुत कठोर हैं और वे वास्तविकता से मेल नहीं खाते, इसलिए वे उन्हें स्वीकारने से इनकार कर देते हैं। ऐसे भी लोग हैं, जो कहते हैं कि कुछ मामलों में परमेश्वर के वचन सही नहीं हैं। क्या परमेश्वर के वचनों के प्रति यह रवैया सही है? यह जाहिर तौर पर गलत है। सभी लोग खुद को अपने बाहरी व्यवहार के आधार पर देखते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के बीच आत्म-चिंतन करने और अपने भ्रष्ट सार के बारे में जान पाने में सक्षम नहीं होते। यहाँ “ईजबेल” और “वेश्या” जैसे शब्द मानवजाति की भ्रष्टता, मलिनता और व्यभिचार के सार को दर्शाने के लिए इस्तेमाल किए गए हैं। चाहे पुरुष हो या महिला, विवाहित हो या अविवाहित, हर किसी में व्यभिचार के भ्रष्ट विचार होते हैं—तो इसका तुमसे कोई लेना-देना कैसे नहीं हो सकता है? परमेश्वर के वचन लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करते हैं; चाहे पुरुष हो या स्त्री, भ्रष्टाचार का उनका स्तर समान है। क्या यह एक तथ्य नहीं है? हमें पहले यह समझना होगा कि परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, वह सत्य है और तथ्यों के अनुरूप है, और लोगों का न्याय करके उन्हें उजागर करने वाले उसके वचन चाहे जितने भी कठोर क्यों न हों, या लोगों के साथ सत्य की संगति करने या उन्हें प्रबोधित करने वाले उसके वचन कितने भी कोमल क्यों न हों, चाहे उसके वचन न्याय हों या आशीष, चाहे वे निंदा हों या शाप, और चाहे वे लोगों को कड़वाहट का एहसास कराते हों या मिठास का, लोगों को वे सब स्वीकार करने चाहिए। यही वह दृष्टिकोण है, जो लोगों को परमेश्वर के वचनों के प्रति अपनाना चाहिए। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? क्या यह भक्ति का दृष्टिकोण है, पवित्रता का दृष्टिकोण है, धैर्यशीलता का दृष्टिकोण है, या कष्ट सहने का दृष्टिकोण है? तुम थोड़ी उलझन में हो। मैं तुमसे कहता हूँ कि यह इनमें से कोई नहीं है। अपनी आस्था में, लोगों को दृढ़ता से यह मानना चाहिए कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। चूँकि वे सचमुच सत्य हैं, लोगों को उन्हें विवेक के साथ स्वीकार कर लेना चाहिए। हम इस बात को भले ही न पहचानें या स्वीकार न करें, लेकिन परमेश्वर के वचनों के प्रति हमारा पहला रुख पूर्ण स्वीकृति का होना चाहिए। अगर परमेश्वर के वचन किसी तुममें से किसी एक या सबको उजागर नहीं करते तो ये किसे उजागर करते हैं? और अगर यह तुम्हें उजागर करने के लिए नहीं है, तो तुम्हें इसे स्वीकार करने के लिए क्यों कहा जाता है? क्या यह एक विरोधाभास नहीं है? परमेश्वर समूची मानवजाति से बात करता है, परमेश्वर द्वारा बोला गया हर वाक्य भ्रष्ट मानवजाति को उजागर करता है, और कोई भी इसके बाहर नहीं है—स्वाभाविक रूप से तुम भी इसमें शामिल हो। परमेश्वर के कथनों की एक भी पंक्ति बाह्य रूपों के बारे में या अवस्था की किसी किस्म के बारे में नहीं है, किसी बाह्य नियम के बारे में या लोगों के व्यवहार के किसी सरल रूप के बारे में तो बिल्कुल भी नहीं हैं। वे ऐसी नहीं हैं। अगर तुम परमेश्वर द्वारा कही गई हर पंक्ति को सिर्फ एक सामान्य प्रकार के इंसानी व्यवहार या बाह्य रूप को उजागर करने वाली मानते हो, तो फिर तुम्हारे अंदर आध्यात्मिक समझ नहीं है, और तुम नहीं समझते हो कि सत्य क्या है। परमेश्वर के वचन सत्य हैं। लोग परमेश्वर के वचनों की गहराई का एहसास कर सकते हैं। वे कैसे गहन होते हैं? परमेश्वर का हर वचन लोगों के भ्रष्ट स्वभावों और उन अनिवार्य चीजों को उजागर करता है जो उसके जीवन के भीतर गहरी जड़ें जमाये हुए हैं। वे आवश्यक चीजें होती हैं, वे बाह्य रूप, विशेषकर बाह्य व्यवहार नहीं होते। लोगों को उनके बाहरी रूप से देखने पर, वे सभी अच्छे लोग लग सकते हैं। लेकिन फिर परमेश्वर क्यों कहता है कि कुछ लोग बुरी आत्माएं हैं और कुछ अशुद्ध आत्माएं हैं? यह एक ऐसा मामला है जो तुम्हें दिखाई नहीं देता है। इसलिए व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों को मानवीय धारणाओं या कल्पनाओं के आलोक में या मनुष्यों की सुनी-सुनाई बातों के आलोक में नहीं लेना चाहिए, और सत्तारूढ़ पार्टी के बयानों के आलोक में तो निश्चित रूप से नहीं लेना चाहिए। केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं; मनुष्य के सभी वचन मिथ्या हैं। इस तरह से सहभागिता करने के बाद, क्या तुम लोगों ने परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने रवैये में बदलाव का अनुभव किया है? बदलाव चाहे जितना भी छोटा या बड़ा हो, अगली बार जब तुम लोगों का न्याय और उन्हें उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़ोगे, तो तुम्हें कम-से-कम परमेश्वर से तर्क करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। तुम्हें यह कहते हुए परमेश्वर के बारे में शिकायत करना बंद कर देना चाहिए, “लोगों को उजागर और उनका न्याय करने वाले परमेश्वर के वचन वाकई कठोर हैं, मैं इस पन्ने को नहीं पढ़ने वाला। मैं इसे छोड़ दूँगा! मुझे आशीषों और वादों के बारे में पढ़ने के लिए कुछ खोजना चाहिए, ताकि कुछ सुख-शांति मिल सके।” तुम्हें अब परमेश्वर के वचनों को अपनी मर्जी से छाँट-छाँटकर नहीं पढ़ना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए; सिर्फ तभी तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को स्वच्छ किया जा सकता है, और सिर्फ तभी तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण का महत्व और उसके अनुसरण का मार्ग
अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो तो फिर तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार चिंतन कर अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझना चाहिए, परमेश्वर के प्रकाशन और न्याय के वचनों के प्रत्येक वाक्य की कसौटी पर खुद को कसना चाहिए, और थोड़ा-थोड़ा करके अपने समस्त भ्रष्ट स्वभावों और दशाओं को खोज निकालना चाहिए। अपनी कथनी-करनी के इरादे और उद्देश्य खोजकर शुरुआत करो, अपने हर शब्द का विश्लेषण कर इसे पहचानो, और अपने मन और विचारों के भीतर की किसी भी चीज की अनदेखी मत करो। इस तरीके से धीरे-धीरे विश्लेषण और पहचान करके तुम जान लोगे कि तुममें थोड़ा-सा नहीं बल्कि प्रचुर मात्रा में भ्रष्ट स्वभाव है, और शैतान के जहर सीमित मात्रा में नहीं बल्कि बेहिसाब हैं। इस तरीके से तुम धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभावों और प्रकृति सार को स्पष्ट रूप से समझ जाओगे, और यह एहसास भी कर लोगे कि शैतान तुम्हें कितनी गहराई तक भ्रष्ट कर चुका है। इस समय तुम्हें महसूस होगा कि परमेश्वर का व्यक्त किया हुआ सत्य कितना अनमोल है। यह भ्रष्ट मनुष्य जाति के स्वभाव और प्रकृति की समस्याओं को हल कर सकता है। मनुष्य जाति को बचाने के उद्देश्य से भ्रष्ट मनुष्यों के लिए बनाई गई परमेश्वर की यह दवाई बहुत ही असरदार है, अमृत से भी ज्यादा मूल्यवान है। इस तरह परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने के लिए तुम स्वेच्छा से सत्य का अनुसरण करते हो, सत्य के हर पहलू को अधिक से अधिक संजोकर रखते हो और दिन दूने उत्साह के साथ इसका अनुसरण करते हो। जब किसी के हृदय में ऐसी भावना होती है, तो इसका मतलब है कि वह पहले ही किसी सत्य की समझ हासिल कर चुका है, और पहले ही सच्चे मार्ग पर अपने कदम जमा चुका है। अगर वह इसे और गहराई से महसूस कर सके और वाकई दिल से परमेश्वर से प्रेम कर सके तो फिर उसका जीवन स्वभाव बदलने लगेगा।
व्यवहार में कुछ बदलाव करना आसान है, लेकिन अपना जीवन स्वभाव बदलना आसान नहीं होता है। भ्रष्ट स्वभाव बदलने की शुरुआत खुद को जानने से होनी चाहिए। इसके लिए मनोयोग, धीरे-धीरे अपने इरादों और दशाओं का परीक्षण करने पर ध्यान केंद्रित करने, और अपनी कथनी पीछे के इरादों और आदतन तरीकों की लगातार पड़ताल करने की जरूरत पड़ती है। और फिर एक दिन अचानक यह बोध होगा : “मैं अपनी असलियत छिपाने के लिए हमेशा अच्छी बातें करके दूसरों के दिलों में रुतबा जमाना चाहता हूँ। यह दुष्ट स्वभाव है। यह सामान्य मानवता का प्रकटीकरण नहीं है और सत्य से मेल नहीं खाता है। बोलने का यह दुष्ट तरीका और ये इरादे गलत हैं, और इन्हें बदलना और त्यागना जरूरी है।” यह बोध होने के बाद तुम्हें अपने दुष्ट स्वभाव की भयावह गंभीरता और भी स्पष्टता से महसूस होगी। तुम्हें लगता था कि आदमी-औरत के बीच थोड़ी-बहुत काम-वासना होना ही दुष्टता है, और यह सोचते थे कि इस लिहाज से तुममें थोड़ी-बहुत दुष्टता तो है मगर तुम दुष्ट स्वभाव वाले इंसान नहीं हो। यह बताता है कि तुममें दुष्ट स्वभाव की समझ का अभाव था; ऐसा लगता था कि तुम “दुष्ट” शब्द का सतही अर्थ जानते हो लेकिन दुष्ट स्वभाव को जानते-पहचानते नहीं थे; और दरअसल, तुम अभी भी नहीं समझते कि “दुष्ट” शब्द का अर्थ क्या है। जब तुम्हें यह एहसास होता है कि तुमने इस प्रकार का स्वभाव प्रकट किया है, तुम आत्म-चिंतन करना शुरू कर इसे पहचान लेते हो, इसकी गहरी जड़ें खोज निकालते हो, और खुद देख लेते हो कि वास्तव में तुम्हारा ऐसा स्वभाव है। तो फिर तुम्हें आगे क्या करना चाहिए? तुम्हें अपने बोलने के इस तरह के तरीकों के पीछे छिपे इरादों की बराबर जाँच करनी चाहिए। इस तरह की निरंतर खोज से तुम और भी विश्वसनीय और सटीक ढंग से यह जान लोगे कि वास्तव में तुममें इस प्रकार का स्वभाव और सार है। जिस दिन तुम सचमुच मान लोगे कि तुममें वास्तव में दुष्ट स्वभाव है, उसी दिन से तुममें इसके प्रति अरुचि और घृणा पैदा होने लगेगी। तुम खुद को नेक, सदाचारी, न्यायी, नैतिक रूप से ईमानदार और निष्कपट इंसान मानने से आगे बढ़कर यह मानने लगोगे कि तुममें अहंकार, हठ, कुटिलता, दुष्टता और सत्य के प्रति ढिलाई जैसा प्रकृति सार है। तब तुम अपना सटीक मूल्यांकन कर चुके होगे और जान लोगे कि तुम वास्तव में क्या हो। केवल मुँह-जुबानी यह मानने या सरसरी तौर पर यह पहचानने से कि तुममें ये अभिव्यक्तियाँ और मनोदशाएँ हैं, सच्ची घृणा पैदा नहीं होगी। जब कोई यह पहचान ले कि इन भ्रष्ट स्वभावों का सार शैतान का घिनौना तरीका है, तभी वह वास्तव में खुद से नफरत कर सकता है। खुद को वास्तव में आत्म-घृणा की हद तक जानने के लिए किस प्रकार की मानवता की जरूरत होती है? व्यक्ति को सकारात्मक चीजों से प्रेम करना चाहिए, सत्य से प्रेम करना चाहिए, निष्पक्षता और धार्मिकता से प्रेम करना चाहिए, उसमें अंतरात्मा और बोध होना चाहिए, उसे दयालु होना चाहिए और सत्य स्वीकारने और उसका अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए—इस तरह के सभी लोग वास्तव में खुद को जान सकते हैं और खुद से नफरत कर सकते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और जिन्हें सत्य स्वीकारने में कठिनाई होती है वे खुद को कभी नहीं जान पाएँगे। भले ही वे आत्म-ज्ञान के बारे में कुछ वचन सुना लें, वे सत्य को अभ्यास में नहीं ला सकते और उनमें कोई भी सच्चा बदलाव नहीं होगा। खुद को जानना सबसे कठिन काम है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है
परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय, पतरस ने सिद्धांतों को समझने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया था और धार्मिक ज्ञान प्राप्त करने पर तो उसका ध्यान और भी केंद्रित नहीं था। इसके बजाय, उसने सत्य को समझने और परमेश्वर की इच्छा को समझने पर, साथ ही परमेश्वर के स्वभाव और सुंदरता की समझ को प्राप्त करने पर ध्यान लगाया था। पतरस ने परमेश्वर के वचनों से मनुष्य की विभिन्न भ्रष्ट अवस्थाओं के साथ ही मनुष्य की प्रकृति, सार तथा मनुष्य की वास्तविक कमियों को समझने का भी प्रयास किया, और इस प्रकार परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए आसानी से, उसकी अपेक्षाएँ पूरी कीं। पतरस के पास ऐसे बहुत से अभ्यास थे जो परमेश्वर के वचनों के अनुरूप थे। यह परमेश्वर की इच्छा के सर्वाधिक अनुकूल था, और यह वो सर्वोत्त्म तरीका था जिससे कोई व्यक्ति परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए सहयोग कर सकता है। परमेश्वर द्वारा भेजे गए सैकड़ों परीक्षणों का अनुभव करते समय, पतरस ने परमेश्वर के न्याय और मनुष्य के प्रकाशन के परमेश्वर के प्रत्येक वचन और मनुष्य की उसकी माँगों के प्रत्येक वचन के विरुद्ध सख्ती से स्वयं की जाँच की, और उन वचनों के अर्थ को ठीक से जानने का पूरा प्रयास किया। उसने उस हर वचन पर विचार करने और याद करने की ईमानदार कोशिश की जो यीशु ने उससे कहे थे, और उसने बहुत अच्छे परिणाम प्राप्त किए। इस तरह अभ्यास करके, वह परमेश्वर के वचनों से स्वयं की समझ प्राप्त करने में सक्षम हो गया था, और वह न केवल मनुष्य की विभिन्न भ्रष्ट स्थितियों और कमियों को समझने लगा, बल्कि वह मनुष्य के सार और प्रकृति को भी समझने लगा। स्वयं को वास्तव में समझने का यही अर्थ है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें
अगर लोग खुद को जानना चाहते हैं, तो उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना होगा, और अपनी वास्तविक दशाओं को समझना होगा। अपनी दशा को जानने का सबसे महत्वपूर्ण पहलू अपनी सोच और विचारों को समझना है। हर कालावधि में, लोगों की सोच और विचारों को एक ही बड़ी चीज ने नियंत्रित किया है। अगर तुम अपनी सोच और विचारों को समझ सकते हो, तो तुम उन चीजों को भी समझ पाओगे जो उनके पीछे होती हैं। लोग अपनी सोच और विचारों को नियंत्रित नहीं कर सकते। लेकिन, आपके लिए यह जानना आवश्यक है कि ऐसी सोच और विचार कहां से आते हैं, उनके पीछे की मंशाएँ क्या हैं, ऐसी सोच और विचार कैसे उत्पन्न होते हैं, उन्हें क्या चीज नियंत्रित करती है, और उनकी प्रकृति क्या है। जब किसी व्यक्ति का स्वभाव बदल जाता है, तो उसके बाद वह व्यक्ति जैसी सोच, विचारों, दृष्टिकोणों और लक्ष्यों को पाने की कोशिश करता है, जो उस बदले हुए भाग से उत्पन्न हुए हैं, वे पहले की तुलना में बहुत भिन्न होंगे—वास्तव में, वे सत्य की ओर जाएंगे और सत्य के अनुरूप रहेंगे। लोगों के भीतर जो चीजें बदली नहीं हैं, यानी उनकी पुरानी सोच, विचार, और दृष्टिकोण के साथ ही वे चीजें जिन्हें लोग पसंद करते हैं और जिनका अनुसरण करते हैं, वे बहुत ही गंदी, कुत्सित और घिनौनी होती हैं। सत्य को जान लेने के बाद, लोग इन चीजों को पहचानने और इन्हें स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ हो जाते हैं; इसलिए, वे इन चीजों को छोड़कर इनके खिलाफ विद्रोह कर पाते हैं। इस तरह के लोग निश्चित रूप से किसी न किसी तरह से बदल गए हैं। वे सत्य को स्वीकारने, सत्य पर अमल करने, और कुछ सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने में समर्थ हो जाते हैं। जो लोग सत्य को नहीं समझते हैं, वे इन भ्रष्ट या नकारात्मक चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, न ही उन्हें पहचान सकते हैं; इसलिए, वे इन चीजों की ओर से मुंह मोड़ना तो दूर, इनके खिलाफ विद्रोह करने में भी असमर्थ रहते हैं। इस अंतर का क्या कारण है? ऐसा क्यों है कि वे सब विश्वासी हैं, लेकिन उनमें से कुछ ही लोग नकारात्मक और दूषित चीजों को पहचान सकते हैं, और उन्हें छोड़ सकते हैं, जबकि दूसरे इन चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, न ही खुद को उनसे मुक्त कर पाते हैं? यह स्पष्ट रूप से इस बात से जुड़ा है कि क्या वह व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है और उसे पाना चाहता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
आत्म-चिंतन और स्वयं को जानने की कुंजी है : जितना अधिक तुम महसूस करते हो कि तुमने किसी निश्चित क्षेत्र में अच्छा किया है या सही चीज को कर लिया है, और जितना अधिक तुम सोचते हो कि तुम परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर सकते हो या तुम कुछ क्षेत्रों में शेखी बघारने में सक्षम हो, तो उतना ही अधिक उन क्षेत्रों में अपने आप को जानना उचित है, और यह देखने के लिए कि तुम में कौन सी अशुद्धियाँ हैं और साथ ही तुममें कौन सी चीजें परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट नहीं कर सकती हैं उतना ही अधिक उनमें खोजबीन करना उचित है। आओ, पौलुस का उदाहरण लें। पौलुस अत्यंत जानकार था, प्रचार और काम के दौरान उसने बहुत कष्ट उठाये और बहुत सारे लोग उसका विशेष रूप से सम्मान करते थे। नतीजतन, बहुत सारा काम पूरा करने के बाद, उसने मान लिया कि उसके लिए एक अलग मुकुट रखा होगा। इससे वह गलत राह पर बढ़ते-बढ़ते बहुत दूर चला गया, और अंत में उसे परमेश्वर ने दंडित किया। अगर उसने उस समय आत्म-चिंतन और आत्म-विश्लेषण किया होता, तो उसने ऐसा नहीं सोचा होता। दूसरे शब्दों में, पौलुस ने प्रभु यीशु के वचनों में सत्य की खोज करने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया; उसने केवल अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर विश्वास किया। उसने सोच लिया था कि सिर्फ कुछ अच्छे काम करके और कुछ अच्छे व्यवहारों का प्रदर्शन करके वह परमेश्वर से स्वीकृति और पुरस्कार पा लेगा। अंत में, उसकी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं ने उसके हृदय को अंधा बना दिया और उसकी भ्रष्टता की सच्चाई को ढंक दिया। पर लोग इसे भाँप नहीं सके, और उन्हें इन मामलों का कुछ भी पता नहीं था, इसलिए परमेश्वर द्वारा इसे उजागर किए जाने तक, वे पौलुस को अपने लक्ष्य का मानक और जीने के लिए उदाहरण मानते रहे, और उसे एक आदर्श और एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखते रहे जैसा बनने की वे खुद भी कामना और कोशिश करते थे। पौलुस का मामला परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हरेक के लिए एक चेतावनी है। खासकर जब परमेश्वर का अनुसरण करने वाले हम लोग अपने कर्तव्यों में और परमेश्वर की सेवा करते हुए कष्ट उठा सकते हैं और मूल्य चुका सकते हैं, हमें लगता है कि हम परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हैं और उससे प्रेम करते हैं, ऐसी घड़ी में हमें आत्म-चिंतन करना चाहिए और खासकर अपने चुने हुए रास्ते के संबंध में खुद को समझना चाहिए, जो कि बहुत जरूरी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम जिसे अच्छा समझते हो उसी को तुम सही मानोगे, और तुम इस पर संदेह नहीं करोगे, इस पर चिंतन-मनन नहीं करोगे, और यह विश्लेषण नहीं करोगे कि क्या इसमें कुछ ऐसा है जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। उदाहरण के लिए, कुछ ऐसे लोग हैं जो खुद को बेहद दयालु मानते हैं। वे कभी दूसरों से नफरत या उनका नुकसान नहीं करते, और वे हमेशा ऐसे भाई या बहन की मदद करते हैं जिनका परिवार ज़रूरतमंद होता है, कि कहीं ऐसा न हो कि उनकी समस्या अनसुलझी रह जाये; उनके पास बहुत सद्भावना है, और वे हर किसी की मदद करने की भरसक कोशिश करते हैं। फिर भी वे कभी सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, और उनका कोई जीवन-प्रवेश नहीं होता। ऐसी मदद का परिणाम क्या है? उन्होंने अपने जीवन को रोक रखा है, फिर भी वे खुद से काफी प्रसन्न हैं, और उस सबसे बेहद संतुष्ट हैं जो उन्होंने किया है। इतना ही नहीं, वे इसमें बहुत गर्व का अनुभव करते हैं, यह विश्वास करते हुए कि उन्होंने जो कुछ भी किया है, उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो सत्य के विरुद्ध हो, और यह निश्चित रूप से परमेश्वर की इच्छा पूरी करेगा, और वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हैं। वे अपनी स्वाभाविक दयालुता को ऐसी वस्तु के रूप में देखते हैं, जिसका लाभ उठाया जा सकता है, और जैसे ही वे ऐसा करते हैं, वे इसे सत्य मानकर चलते हैं। वास्तव में, वे जो कुछ भी करते हैं, वह मानवीय भलाई है। वे सत्य का जरा भी अभ्यास नहीं करते, क्योंकि वे यह मनुष्य के सामने करते हैं, परमेश्वर के सामने नहीं, और वे परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य के अनुसार अभ्यास तो बिलकुल भी नहीं करते। इसलिए, उनका सब किया-धरा व्यर्थ हो जाता है। उनका कोई भी कार्य सत्य या परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं है, वे उसकी इच्छा का पालन तो बिलकुल भी नहीं है; बल्कि वे मानवीय दया और अच्छे व्यवहार का उपयोग दूसरों की मदद करने के लिए करते हैं। संक्षेप में, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की इच्छा की तलाश नहीं करते, न ही वे उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करते हैं। परमेश्वर मनुष्य के ऐसे अच्छे व्यवहार को स्वीकृति नहीं देता;परमेश्वर के लिए यह निंदनीय है, और परमेश्वर द्वारा स्मरण किए जाने योग्य नहीं है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है
परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते समय, चाहे तुम कितनी भी बार असफल हुए हो, गिरे हो, तुम्हारी काट-छाँट की गई हो या उजागर किए गए हो, ये बुरी चीजें नहीं हैं। भले ही तुम्हारी कैसी भी काट-छाँट की गई हो, चाहे किसी अगुआ या कार्यकर्ता ने किया हो या तुम्हारे भाई-बहनों ने, ये सब अच्छी चीजें होती हैं। तुम्हें यह बात याद रखनी चाहिए : चाहे तुम्हें कितना भी कष्ट हो, तुम्हें असल में इससे लाभ होता है। कोई भी अनुभव वाला व्यक्ति इसकी पुष्टि कर सकता है। चाहे कुछ भी हो जाए, काट-छाँट होना या उजागर किया जाना हमेशा अच्छा होता है। यह कोई निंदा नहीं है। यह परमेश्वर का उद्धार है और तुम्हारे लिए स्वयं को जानने का सर्वोत्तम अवसर है। यह तुम्हारे जीवन अनुभव को गति दे सकता है। इसके बिना, तुम्हारे पास न तो अवसर होगा, न ही परिस्थिति, और न ही अपनी भ्रष्टता के सत्य की समझ तक पहुँचने में सक्षम होने के लिए कोई प्रासंगिक आधार होगा। अगर तुम सत्य को सचमुच समझते हो, और अपने दिल की गहराइयों में छिपी भ्रष्ट चीजों का पता लगाने में सक्षम हो, अगर तुम स्पष्ट रूप से उनकी पहचान कर सकते हो, तो यह अच्छी बात है, इससे जीवन प्रवेश की एक बड़ी समस्या हल हो जाती है, और यह स्वभाव में बदलाव के लिए भी बहुत लाभदायक है। स्वयं को सही मायने में जानने में सक्षम होना, तुम्हारे लिए अपने तरीकों में बदलाव कर एक नया व्यक्ति बनने का सबसे अच्छा मौका है; तुम्हारे लिए यह नया जीवन पाने का सबसे अच्छा अवसर है। एक बार जब तुम सच में खुद को जान लोगे, तो तुम यह देख पाओगे कि जब सत्य किसी का जीवन बन जाता है, तो यह निश्चय ही अनमोल होता है, तुममें सत्य की प्यास होगी, तुम सत्य का अभ्यास करोगे और वास्तविकता में प्रवेश करोगे। यह कितनी बड़ी बात है! यदि तुम इस अवसर को थाम सको और ईमानदारी से मनन कर सको, तो कभी भी असफल होने या नीचे गिरने पर स्वयं के बारे में वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकते हो, तब तुम नकारात्मकता और कमज़ोरी में भी फिर से खड़े हो सकोगे। एक बार जब तुम इस सीमा को लांघ लोगे, तो फिर तुम एक बड़ा कदम उठा सकोगे और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए
वे सभी जो वाकई खुद को जानते हैं, अतीत में कुछ बार असफल हुए और लड़खड़ाए हैं, जिसके बाद, उन्होंने परमेश्वर के वचन पढ़े, उससे प्रार्थना की, और आत्मचिंतन किया, और इस तरह वे अपनी भ्रष्टता का सत्य स्पष्ट रूप से देख पाए, और यह महसूस कर पाए कि वे वाकई अत्यधिक भ्रष्ट और सत्य वास्तविकता से सर्वथा वंचित थे। अगर तुम इस प्रकार परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हो, और जब तुम पर चीजें आ पड़ती हैं, तो उससे प्रार्थना करते और सत्य खोजते हो, तो तुम धीरे-धीरे स्वयं को जान जाओगे। फिर एक दिन, अंतत: तुम्हारे हृदय में स्पष्ट समझ आ जाएगी : “मैं दूसरों की तुलना में थोड़ी बेहतर क्षमता का हो सकता हूँ, लेकिन यह मुझे परमेश्वर द्वारा दी गई थी। मैं हमेशा शेखी बघारता हूँ, जब बोलता हूँ तो दूसरों से आगे निकलने का प्रयास करता हूँ, कोशिश करता हूँ कि लोग मेरे तरीके से काम करें। मुझमें वाकई समझ नहीं है—यह अहंकार और आत्मतुष्टि है! आत्मचिंतन से मैंने अपने अहंकारी स्वभाव के बारे में जान लिया है। यह परमेश्वर का प्रबोधन और अनुग्रह है, और मैं इसके लिए उसका धन्यवाद करता हूँ!” अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में जानना अच्छी बात है या बुरी? (अच्छी बात है।) यहाँ से, तुम्हें खोजना चाहिए कि समझदारी और आज्ञाकारिता के साथ कैसे बोलना और कार्य करना है, दूसरों के साथ बराबरी पर कैसे खड़े होना है, दूसरों को बाधित किए बिना उनके साथ उचित व्यवहार कैसे करना है, अपनी क्षमता, गुणों और खूबियों आदि पर सही तरीके से विचार कैसे करना है। इस तरह, जैसे एक बार में एक प्रहार करने से पहाड़ धूल में बदल जाता है, वैसी ही तुम्हारे अहंकारी स्वभाव का समाधान हो जाएगा। उसके बाद, जब तुम दूसरों के साथ बातचीत करोगे या कोई कर्तव्य निभाने के लिए उनके साथ काम करोगे, तो तुम उनके विचारों पर सही तरह से विचार कर पाओगे और उन्हें सुनते हुए उन पर सावधानी और करीब से ध्यान दे पाओगे। और जब तुम उन्हें सही राय देते हुए सुनोगे, तो तुम्हें पता चलेगा, “ऐसा लगता है कि मेरी काबिलियत सबसे अच्छी नहीं है। बात तो यह है कि सभी की अपनी खूबियाँ हैं; वे मुझसे बिल्कुल भी हीन नहीं हैं। पहले मैं सोचता था कि मेरी काबिलियत दूसरों से बेहतर है। वह आत्म-प्रशंसा और संकीर्ण सोच वाली अज्ञानता थी। किसी कूपमंडूक की तरह मेरा दृष्टिकोण बहुत ही सीमित था। ऐसी सोच समझ से पूरी तरह रहित थी—यहबेशर्मी थी! अपने अहंकारी स्वभाव द्वारा मैं अंधा और बहरा हो गया था था। दूसरे लोगों की बातें मैं समझ नहीं पाता था, और मैं सोचता कि मैं उनसे बेहतर हूँ, कि मैं सही हूँ, जबकि वास्तव में मैं उनमें से किसी से भी बेहतर नहीं हूँ!” तब से, तुम्हें अपनी कमियों और छोटे आध्यात्मिक कद की सच्ची समझ और ज्ञान होगा। इसके बाद, जब तुम दूसरों के साथ संगति करोगे, तो उनके विचार ध्यान से सुनोगे, और तुम्हें पता चलेगा, “बहुत-से लोग मुझसे बेहतर हैं। मेरी काबिलियत और समझने की क्षमता, दोनों ही हद-से-हद औसत दर्जे की हैं।” यह बोध होने पर क्या तुम अपने बारे में कुछ जान नहीं जाओगे? यह अनुभव करके और बार-बार परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्म-चिंतन करके तुम ऐसा सच्चा आत्मज्ञान पा लोगे जो गहराता जाता है। तब तुम अपनी भ्रष्टता, दरिद्रता और दयनीयता, अपनी शोचनीय कुरूपता का सत्य समझने लगोगे, और उस समय तुम्हें खुद से अरुचि और अपने भ्रष्ट स्वभाव से नफरत होने लगेगी। फिर तुम्हारे लिए दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करना आसान हो जाएगा। परमेश्वर के कार्य का अनुभव इसी तरह किया जाता है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपनी भ्रष्टता के उद्गार पर चिंतन करना चाहिए। खास तौर से, किसी भी तरह के हालात भ्रष्ट स्वभाव उजागर करने बाद, तुम्हें बार-बार आत्मचिंतन करना और खुद को जानना चाहिए। तब तुम्हारे लिए अपना भ्रष्ट सार स्पष्ट रूप से देखना आसान हो जाएगा, और तुम अपनी भ्रष्टता, अपनी देह और शैतान से हृदय से घृणा करने में सक्षम हो जाओगे। और तुम दिल से सत्य से प्रेम करने और उसके लिए प्रयास करने में सक्षम होगे। इस तरह, तुम्हारा अहंकारी स्वभाव कम होता जाएगा और धीरे-धीरे तुम उसे त्याग दोगे। तुम अधिक से अधिक समझ प्राप्त करोगे, और तुम्हारे लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान हो जाएगा। दूसरों की नजरों में, तुम पहले से ज्यादा स्थिर और व्यावहारिक प्रतीत होगे और तुम अधिक निष्पक्षता से बोलते हुए प्रतीत होगे। तुम दूसरों को सुनने में सक्षम होगे और उन्हें बोलने का समय दोगे। दूसरों के सही होने पर तुम्हारे लिए उनकी बातें स्वीकार करना आसान होगा, और लोगों के साथ तुम्हारी बातचीत उतनी कठिन नहीं होगी। तुम किसी के भी साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग करने में सक्षम होगे। अगर इस तरह तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, तो क्या तब तुममें समझ और मानवता नहीं होगी?
—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1)
अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को पूरी तरह से हल करने के लिए तुम्हें तभी सत्य खोज लेना होगा जब भ्रष्ट स्वभाव पहली बार सामने आता है। तुम्हें भ्रष्ट स्वभाव पनपते ही इसका समाधान कर लेना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि तुमसे कोई गलती न हो और भविष्य में परेशानियाँ खड़ी न हों। यदि भ्रष्ट स्वभाव जड़ें जमा ले और वह किसी की विचारधारा या दृष्टिकोण बन जाए, तो फिर वह इंसान को बुरे कार्य करने के लिए निर्देशित कर सकेगा। इसलिए, आत्म-चिंतन और आत्म-ज्ञान का मुख्य उद्देश्य अपने भ्रष्ट स्वभाव का पता लगाना और उसे हल करने के लिए शीघ्रता से सत्य की खोज करना है। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारी प्रकृति में क्या चीजें हैं, तुम्हें क्या पसंद है, तुम्हारा क्या लक्ष्य है और तुम क्या हासिल करना चाहते हो। ये जानने के लिए कि क्या ये चीजें परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हैं, तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार इन चीजों का विश्लेषण करना चाहिए और यह समझना चाहिए कि ये किस लिहाज से भ्रामक हैं। जब तुम इन चीजों को समझ लो, तो तुम्हें अपने असामान्य विवेक की समस्या अर्थात अपने अविवेकी और अनवरत संतापदायी होने की समस्या को हल करना चाहिए। यह केवल तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की समस्या नहीं है, बल्कि यह तुममें विवेक की कमी से भी जुड़ी है। विशेष रूप से जहाँ लोगों के हित जुड़े हों, स्व-हित की भावना में बह जाने वाले लोगों में सामान्य विवेक नहीं होता है। यह एक मानसिक समस्या है और यह लोगों की घातक कमजोरी भी है। ...
मनुष्य की प्रकृति की चीजें किन्हीं बाह्य व्यवहारों, लोकाचार या विचार और ख्याल जैसी नहीं होती हैं जिनकी बस काट-छाँट कर लो और बात खत्म हो जाए; इन्हें तो तिनका-तिनका करके खोजना पड़ता है। यही नहीं, लोगों के लिए इन्हें पहचानना आसान नहीं हैं, और अगर इन्हें पहचान भी लिया जाए तो बदलना आसान नहीं है—ऐसा करने के लिए काफी व्यापक समझ की जरूरत होती है। हम क्यों हमेशा मनुष्य की प्रकृति का विश्लेषण करते हैं? क्या तुम लोग इसका अर्थ नहीं समझते हो? लोगों के भ्रष्ट स्वभाव के खुलासों का स्रोत क्या है? ये सब उनकी अपनी ही प्रकृति से आते हैं, और वे सब अपनी प्रकृति से संचालित होते हैं। मनुष्य का हर भ्रष्ट स्वभाव, हर विचार और ख्याल, हर इरादा, सब के सब मनुष्य की प्रकृति से संबंधित हैं। इसलिए, सीधे मनुष्य की प्रकृति को खोजकर उसके भ्रष्ट स्वभावों का निराकरण आसानी से किया जा सकता है। यद्यपि लोगों की प्रकृति बदलना आसान नहीं है, अगर वे अपने द्वारा प्रकट भ्रष्ट स्वभाव को पहचान और समझ सकते हैं, और अगर वे इनका निराकरण करने के लिए सत्य खोज सकते हैं, तो फिर वे धीरे-धीरे अपने स्वभाव बदल सकते हैं। एक बार व्यक्ति अपने जीवन स्वभाव में बदलाव ले आए तो फिर उसमें परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाली चीजें कम होती जाएँगी। मनुष्य की प्रकृति का विश्लेषण करने का उद्देश्य उसका स्वभाव बदलना है। तुम लोग इस उद्देश्य को नहीं समझे हो, और सोचते हो कि महज अपनी प्रकृति का विश्लेषण करने और इसे समझ लेने से परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हो और अपनी तर्कबुद्धि को बहाल कर सकते तो। तुम लोग बस नियमों को बिना सोचे-समझे लागू करते हो! ऐसा क्यों है कि मैं लोगों के अहंकार और आत्म-तुष्टता को सीधे उजागर नहीं कर देता? मुझे उनकी भ्रष्ट प्रकृति का भी विश्लेषण क्यों करना पड़ता है? अगर मैं सिर्फ उनके अहंकार और उनकी आत्म-तुष्टता को उजागर करूँगा तो समस्या का समाधान नहीं होगा। लेकिन, अगर मैं उनकी प्रकृति का विश्लेषण करूँ, तो इसमें शामिल पहलू बहुत व्यापक हैं और इसमें हर प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव शामिल है। यह आत्म-तुष्टता, आत्म-महत्व और अहंकार के संकीर्ण दायरे से कहीं व्यापक है। प्रकृति में इससे ज्यादा चीजें शामिल होती हैं। इसलिए लोगों के लिए यह पहचानना अच्छा रहेगा कि परमेश्वर से विभिन्न माँगें करते हुए, अर्थात, अपनी असंयत इच्छाओं में, वे कितने प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हैं। एक बार लोग अपने प्रकृति सार को समझ लेंगे तो फिर वे खुद से नफरत और तिरस्कार कर सकते हैं; उनके लिए अपने भ्रष्ट स्वभावों का निराकरण करना आसान हो जाएगा, और उनके पास एक रास्ता होगा। अन्यथा, तुम लोग कभी भी मूल कारण नहीं खोज पाओगे, और यही कहोगे कि यह आत्म-तुष्टता, अहंकार या घमंड होना या बिल्कुल भी वफादारी का न होना है। क्या केवल ऐसी सतही बातें करने से तुम्हारी समस्या का समाधान हो सकता है? क्या मनुष्य की प्रकृति पर चर्चा करने की कोई जरूरत है?
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं
आजकल, ज़्यादातर लोगों की अपने बारे में समझ बहुत सतही है। वे उन चीज़ों को बिलकुल भी ठीक से नहीं जान पाये हैं जो उनकी प्रकृति का हिस्सा हैं। उन्हें सिर्फ़ स्वयं में उजागर होने वाली कुछ भ्रष्ट स्थितियों, अपने द्वारा की जाने वाली संभावित चीज़ों, या अपनी कुछ कमियों का ज्ञान है और इस वजह से उन्हें लगता है कि वे ख़ुद को जानते हैं। इसके अलावा, अगर वे कुछ नियमों का पालन करते हैं, कुछ क्षेत्रों में गलतियां न करना सुनिश्चित करते हैं, और कुछ पापों को करने से खुद को रोक लेते हैं, फिर तो वे मानने लगते हैं कि परमेश्वर में उनके विश्वास में उनके पास वास्तविकता है और उन्हें बचा लिया जाएगा। यह पूरी तरह से मानवीय कल्पना है। अगर तुम उन चीज़ों का पालन करते हो, तो क्या तुम सच में किसी भी पाप को करने से बच पाओगे? क्या तुमने सच में अपने स्वभाव में सच्चा बदलाव हासिल कर लिया होगा? क्या तुम सच में इंसान की समानता को जी पाओगे? क्या इस तरह तुम सच में परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे? बिल्कुल नहीं, और यह बात तय है। परमेश्वर में विश्वास तभी काम करता है जब किसी व्यक्ति के मानकों का स्तर ऊँचा हो और उसने सत्य को हासिल किया हो और उसके जीवन स्वभाव में कुछ परिवर्तन आया हो। इसमें पहले खुद को जानने की लगन चाहिए। यदि लोगों का स्वयं के बारे में ज्ञान बहुत उथला है, तो समस्याओं को हल करना उनके लिए असंभव होगा, और उसका जीवन स्वभाव नहीं बदलेगा। स्वयं को एक गहरे स्तर पर जानना आवश्यक है, जिसका अर्थ है कि अपनी स्वयं की प्रकृति को जानना : उस प्रकृति में कौन से तत्व शामिल हैं, ये कैसे पैदा हुए और वे कहाँ से आये। इसके अलावा, क्या तुम इन चीजों से वास्तव में घृणा कर पाते हो? क्या तुमने अपनी स्वयं की कुरूप आत्मा और अपनी बुरी प्रकृति को देखा है? यदि तुम सच में सही अर्थों में स्वयं के बारे में सत्य को देख पाओगे, तो तुम स्वयं से घृणा करोगे। जब तुम स्वयं से घृणा करते हो और फिर परमेश्वर के वचन का अभ्यास करते हो, तो तुम देह को त्यागने में सक्षम हो जाओगे और इसे श्रमसाध्य समझे बिना तुम्हारे अंदर सत्य को कार्यान्वित करने की शक्ति होगी। क्यों कई लोग अपनी दैहिक प्राथमिकताओं का अनुसरण करते हैं? क्योंकि वे स्वयं को बहुत अच्छा मानते हैं, उन्हें लगता है कि उनके कार्यकलाप सही और न्यायोचित हैं, कि उनमें कोई दोष नहीं है, और यहाँ तक कि वे पूरी तरह से सही हैं, इसलिए वे इस धारणा के साथ कार्य करने में समर्थ हैं कि न्याय उनके पक्ष में है। जब कोई यह जान लेता है कि उसकी असली प्रकृति क्या है—कितना कुरूप, कितना घृणित और कितना दयनीय है—तो फिर वह स्वयं पर बहुत गर्व नहीं करता है, उतना बेतहाशा अहंकारी नहीं होता है, और स्वयं से उतना प्रसन्न नहीं होता है जितना वह पहले होता था। ऐसा व्यक्ति महसूस करता है, कि “मुझे ईमानदार और व्यवहारिक बनकर परमेश्वर के कुछ वचनों का अभ्यास करना चाहिए। यदि नहीं, तो मैं इंसान होने के स्तर के बराबर नहीं होऊँगा, और परमेश्वर की उपस्थिति में रहने में शर्मिंदा होऊँगा।” तब कोई वास्तव में अपने आपको क्षुद्र के रूप में, वास्तव में महत्वहीन के रूप में देखता है। इस समय, उसके लिए सच्चाई का पालन करना आसान होता है, और वह थोड़ा-थोड़ा ऐसा दिखाई देता है जैसा कि किसी इंसान को होना चाहिए। जब लोग वास्तव में स्वयं से घृणा करते हैं केवल तभी वे शरीर को त्याग पाते हैं। यदि वे स्वयं से घृणा नहीं करते हैं, तो वे देह को नहीं त्याग पाएँगे। स्वयं से घृणा करना कोई मामूली बात नहीं है। उसमें बहुत-सी बातें होनी अनिवार्य हैं : सबसे पहले, अपने स्वयं के स्वभाव को जानना; और दूसरा, स्वयं को अभावग्रस्त और दयनीय के रूप में समझना, स्वयं को अति तुच्छ और महत्वहीन समझना, और स्वयं की दयनीय और गंदी आत्मा को समझना। जब कोई पूरी तरह से देखता है कि वह वास्तव में क्या है, और यह परिणाम प्राप्त हो जाता है, तब वह स्वयं के बारे में वास्तव में ज्ञान प्राप्त करता है, और ऐसा कहा जा सकता है कि किसी ने अपने आपको पूरी तरह से जान लिया है। केवल तभी कोई स्वयं से वास्तव में घृणा कर सकता है, इतना कि स्वयं को शाप दे, और वास्तव में महसूस करे कि उसे शैतान के द्वारा अत्यधिक गहराई तक भ्रष्ट किया गया है इस तरह से कि वह अब इंसान के समान नहीं है। तब एक दिन, जब मृत्यु का भय दिखाई देगा, तो ऐसा व्यक्ति महसूस करेगा, “यह परमेश्वर की धार्मिक सजा है; परमेश्वर वास्तव में धार्मिक है; मुझे वास्तव में मर जाना चाहिए!” इस बिन्दु पर, वह कोई शिकायत दर्ज नहीं करेगा, परमेश्वर को दोष देने की तो बात ही दूर है, वह बस यही महसूस करेगा कि वह बहुत ज़रूरतमंद और दयनीय है, वो इतना गंदा है कि उसे परमेश्वर द्वारा त्याग दिया और नष्ट कर दिया जाना चाहिए, और उसके जैसी आत्मा पृथ्वी पर रहने के योग्य नहीं है। इसलिए, यह व्यक्ति परमेश्वर की शिकायत या उसका विरोध नहीं करेगा, परमेश्वर के साथ विश्वासघात तो बिल्कुल नहीं करेगा। यदि कोई स्वयं को नहीं जानता है, और तब भी स्वयं को बहुत अच्छा मानता है, तो जब मृत्यु दस्तक देते हुए आएगी, तो ऐसा व्यक्ति महसूस करेगा, कि “मैंने अपनी आस्था में इतना अच्छा किया है। मैंने कितनी मेहनत से खोज की है! मैंने इतना अधिक दिया है, मैंने इतने कष्ट झेले हैं, मगत अंततः, अब परमेश्वर मुझे मरने के लिए कहता है। मुझे नहीं पता कि परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ है? वह मुझे मरने के लिए क्यों कह रहा है? यदि मुझे मरना पड़ता है, तो किसे बचाया जाएगा? क्या मानव जाति का अंत नहीं हो जाएगा?” सबसे पहले, इस व्यक्ति की परमेश्वर के बारे में धारणाएँ हैं। दूसरा, यह व्यक्ति शिकायत कर रहा है, और किसी प्रकार का समर्पण नहीं दर्शा रहा है। यह ठीक पौलुस की तरह है: जब वह मरने वाला था, तो वह स्वयं को नहीं जानता था और जब तक परमेश्वर से दण्ड निकट आया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
खुद को जानना हरेक व्यक्ति के लिए बहुत अहम है क्योंकि इसका सीधा असर इस महत्वपूर्ण मसले पर पड़ता है कि क्या कोई अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़कर उद्धार प्राप्त कर सकता है या नहीं। इसे आसान मसला मत समझो। खुद को जानने का मतलब अपने क्रियाकलापों या अभ्यासों को जानना नहीं, बल्कि अपनी समस्या का सार जानना है; अपने विद्रोहीपन के मूल और इसके सार को जानना है, यह जानना है कि तुम सत्य का अभ्यास क्यों नहीं कर पाते, और उन चीजों को समझना है जो सत्य का अभ्यास करते समय उत्पन्न होकर तुम्हें परेशान करती हैं। खुद को जानने के ये कुछ सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू हैं। उदाहरण के लिए, चीनी परंपरागत संस्कृति के अनुकूलन के कारण चीनी लोगों की परंपरागत धारणाओं में यह माना जाता है कि लोगों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए। जो भी संतानोचित निष्ठा का पालन नहीं करता, वह कपूत होता है। ये विचार बचपन से ही लोगों के मन में बिठाए गए हैं, और ये लगभग हर घर में, साथ ही हर स्कूल में और बड़े पैमाने पर पूरे समाज में सिखाए जाते हैं। जब किसी व्यक्ति का दिमाग इस तरह की चीजों से भर जाता है, तो वह सोचता है, “संतानोचित निष्ठा किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर मैं इसका पालन नहीं करता, तो मैं एक अच्छा इंसान नहीं हूँ—मैं कपूत हूँ और समाज मेरी निंदा करेगा। मैं ऐसा व्यक्ति हूँगा, जिसमें जमीर नहीं है।” क्या यह नजरिया सही है? लोगों ने परमेश्वर द्वारा व्यक्त इतने अधिक सत्य देखे हैं—क्या परमेश्वर ने अपेक्षा की है कि व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाए? क्या यह कोई ऐसा सत्य है, जिसे परमेश्वर के विश्वासियों को समझना ही चाहिए? नहीं, यह ऐसा सत्य नहीं है। परमेश्वर ने केवल कुछ सिद्धांतों पर संगति की है। परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? जिससे परमेश्वर प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, यदि वे अच्छी तरह जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास सही मार्ग है और यह उनका उद्धार कर सकता है, फिर भी ग्रहणशील नहीं होते, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे सत्य से विमुख रहने वाले और नफरत करने वाले लोग हैं और वे परमेश्वर का विरोध और उससे नफरत करते हैं—और स्वाभाविक तौर पर परमेश्वर उनसे अत्यंत घृणा और नफरत करता है। क्या तुम ऐसे माता-पिता से अत्यंत घृणा कर सकते हो? वे परमेश्वर का विरोध और उसकी आलोचना करते हैं—ऐसे में वे निश्चित रूप से दानव और शैतान हैं। क्या तुम उनसे नफरत कर उन्हें धिक्कार सकते हो? ये सब वास्तविक प्रश्न हैं। यदि तुम्हारे माता-पिता तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से रोकें, तो तुम्हें उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? जैसा कि परमेश्वर चाहता है, परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो। अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा, “कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई?” “क्योंकि जो कोई मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चले, वही मेरा भाई, और मेरी बहिन, और मेरी माता है।” ये वचन अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थे, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक स्पष्ट हैं : “उससे प्रेम करो, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा करो, जिससे परमेश्वर घृणा करता है।” ये वचन बिलकुल सीधे हैं, फिर भी लोग अकसर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते। अगर कोई व्यक्ति ऐसा है, जो परमेश्वर को नकारता और उसका विरोध करता है, जो परमेश्वर द्वारा शापित है, लेकिन वह तुम्हारी माता या पिता या कोई संबंधी है, और जहाँ तक तुम जानते हो वह कोई दुष्ट व्यक्ति नहीं है और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करता है, तो संभवतः तुम उस व्यक्ति से घृणा न कर पाओ, यहाँ तक कि उसके निकट संपर्क में बने रहो, तुम्हारे संबंध अपरिवर्तित रहें। यह सुनना कि परमेश्वर ऐसे लोगों से नफरत करता है, तुम्हें परेशान करेगा, और तुम परमेश्वर के पक्ष में खड़े नहीं हो पाओगे और उन लोगों को निर्ममता से नकार नहीं पाओगे। तुम हमेशा भावनाओं से बँधे रहते हो, और तुम उन्हें पूरी तरह छोड़ नहीं सकते। इसका क्या कारण है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तुम्हारी भावनाएँ बहुत तीव्र हैं और ये तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकती हैं। वह व्यक्ति तुम्हारे लिए अच्छा है, इसलिए तुम उससे नफरत नहीं कर पाते। तुम उससे तभी नफरत कर पाते हो, जब उसने तुम्हें चोट पहुँचाई हो। क्या यह नफरत सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होगी? साथ ही, तुम परंपरागत धारणाओं से भी बँधे हो, तुम सोचते हो कि वे माता-पिता या रिश्तेदार हैं, इसलिए अगर तुम उनसे नफरत करोगे, तो समाज तुम्हारा तिरस्कार करेगा और जनमत तुम्हें धिक्कारेगा, कपूत, अंतरात्मा से विहीन, यहाँ तक कि अमानुष कहकर तुम्हारी निंदा करेगा। तुम्हें लगता है कि तुम्हें इसके लिए दैवीय निंदा और दंड भुगतना होगा। भले ही तुम उनसे नफरत करना चाहो, लेकिन तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें ऐसा नहीं करने देगी। तुम्हारी अंतरात्मा इस तरह काम क्यों करती है? इसका कारण यह है कि अपनी पारिवारिक विरासत, माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा और परंपरागत संस्कृति की समझ के जरिए तुम्हारे मन में बचपन से ही सोचने का एक ढर्रा बैठा दिया गया है। सोचने का यह ढर्रा तुम्हारे मन में बहुत गहरे पैठा हुआ है, और इसके कारण तुम गलती से यह विश्वास करते हो कि संतानोचित निष्ठा पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है, और अपने पुरखों से विरासत में मिली हर चीज हमेशा अच्छी होती है। पहले तुमने इसे सीखा और फिर यह तुम पर हावी हो जाता है, तुम्हारी आस्था में और सत्य स्वीकारने में आड़े आकर व्यवधान डालता है, और तुम्हें इस लायक नहीं छोड़ता कि तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में ला सको, तुम उससे प्रेम कर सको जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा कर सको जिससे परमेश्वर घृणा करता है। तुम दिल से जानते हो कि तुम्हें अपना जीवन परमेश्वर से मिला, अपने माता-पिता से नहीं, और तुम यह भी जानते हो कि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर पर विश्वास करना तो दूर उसका विरोध भी करते हैं, कि परमेश्वर उनसे घृणा करता है और तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पित होकर उसका साथ देना चाहिए, लेकिन तुम चाहो भी तो उनसे घृणा करने का साहस नहीं कर पाते। तुम इस कठिन स्थिति से निकलकर अपने में सुधार नहीं ला पाते, उनके लिए अपनी भावनाएँ नहीं दबा पाते और सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते। इसके मूल में क्या है? शैतान इस तरह की परंपरागत संस्कृति और नैतिकता की धारणाओं का इस्तेमाल तुम्हारे दिल, दिमाग और विचारों को बाँधने के लिए करता है, और तुम्हें परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं छोड़ता; तुम शैतान की इन चीजों के वश में आ चुके हो और परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं रहे। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहते हो तो ये चीजें तुम्हारे मन में खलल पैदा करती हैं, इनके कारण तुम सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध करने लगते हो, और तुममें इतनी शक्ति नहीं रहती कि अपने कंधे से परंपरागत संस्कृति का जुआ उतारकर फेंक सको। कुछ देर संघर्ष करने के बाद तुम समझौता कर लेते हो : तुम यह विश्वास करना पसंद करते हो कि नैतिकता की परंपरागत धारणाएँ सही हैं और सत्य के अनुरूप भी हैं, और इसलिए तुम परमेश्वर के वचन ठुकरा या त्याग देते हो। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और तुम बचाए जाने को महत्वपूर्ण नहीं समझते, तुम्हें लगता है कि तुम अभी भी इस संसार में जी रहे हो और इन्हीं लोगों पर निर्भर रहकर जीवित रह सकते हो। समाज के आरोप-प्रत्यारोप झेलने में असमर्थ होकर तुम सत्य और परमेश्वर के वचन तज देना पसंद करते हो, खुद को नैतिकता की परंपरागत धारणाओं और शैतान के प्रभाव के हवाले छोड़ देते हो, और परमेश्वर को नाराज करना और सत्य का अभ्यास न करना बेहतर समझते हो। क्या इंसान दीन-हीन नहीं है? क्या उन्हें परमेश्वर से उद्धार पाने की जरूरत नहीं है? कुछ लोगों ने बरसों से परमेश्वर पर विश्वास किया है, फिर भी उनके पास संतानोचित निष्ठा के मामले में कोई अंतर्दृष्टि नहीं है। वे वास्तव में सत्य को नहीं समझते। वे कभी भी सांसारिक संबंधों की बाधा नहीं तोड़ सकते; उनमें न साहस होता है न ही आत्मविश्वास, संकल्प होना तो दूरी की बात है, इसलिए वे परमेश्वर से प्रेम नहीं कर सकते, उसकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकते। कुछ लोग इससे परे तो देख सकते हैं लेकिन उनके लिए भी यह कहना आसान नहीं है, “मेरे माता-पिता परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हैं और वे मुझे भी विश्वास करने से रोकते हैं। वे शैतान हैं।” किसी भी अविश्वासी को यह विश्वास नहीं होता कि परमेश्वर का अस्तित्व है, या उसने स्वर्ग और धरती और सभी चीजें बनाई हैं, या मनुष्य को परमेश्वर ने बनाया है। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं, “मनुष्य को जीवन उसके माता-पिता ने दिया है और उसे उनका सम्मान करना चाहिए।” ऐसा विचार या दृष्टिकोण कहाँ से आता है? क्या यह शैतान से आता है? यह हजारों साल की परंपरागत संस्कृति है जिसने मनुष्य को इस तरह सिखाकर गुमराह किया है और उसे परमेश्वर की सृष्टि और संप्रभुता को ठुकराने को प्रेरित किया है। शैतान गुमराह और नियंत्रित न करे तो मानवजाति परमेश्वर के कार्यों की जाँच करेगी और उसके वचन पढ़ेगी, वह जान लेगी कि उसे परमेश्वर ने बनाया है, उसे परमेश्वर ने जीवन दिया है; वे जान लेंगे कि उनके पास जो कुछ भी है वह परमेश्वर ने दिया है, और यह परमेश्वर ही है जिसका उन्हें आभार मानना चाहिए। अगर कोई हमारा भला करता है, तो हमें उसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारना चाहिए—खासकर हमारे माता-पिता जिन्होंने हमें जन्म दिया और पाला-पोसा; यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर की सब पर संप्रभुता है; मनुष्य सिर्फ सेवा का जरिया है। अगर कोई खुद को परमेश्वर के लिए खपाने के लिए अपने माता-पिता या अपने पति (या पत्नी) और बच्चों को अपने से दूर कर सके तो फिर वह व्यक्ति और मजबूत हो जाएगा और परमेश्वर के सामने उसमें न्याय की अधिक समझ होगी। लेकिन लोगों के लिए राष्ट्रीय शिक्षा-दीक्षा और परंपरागत सांस्कृतिक विचारों, धारणाओं और नैतिक कथनों के बंधन तोड़ना आसान नहीं होता, क्योंकि ये शैतानी जहर और फलसफे अरसे से उनके दिलों में जड़ें जमाए हुए हैं, और उनमें तमाम तरह के भ्रष्ट स्वभाव उत्पन्न कर रहे हैं जो उन्हें परमेश्वर के वचन सुनने और उसके प्रति समर्पण करने से रोकते हैं। भ्रष्ट मनुष्य के दिल की गहराइयों में सत्य को अभ्यास में लाने और परमेश्वर की इच्छा का पालन करने की बुनियादी इच्छा का अभाव होता है। इसलिए लोग परमेश्वर से विद्रोह कर उसका प्रतिरोध करते हैं; वे कभी भी उससे विश्वासघात कर उसे छोड़ सकते हैं। अगर किसी के अंदर भ्रष्ट स्वभाव और शैतानी जहर व फलसफे हों तो क्या वह सत्य प्राप्त कर सकता है? क्या कोई परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकता है? यह वास्तव में बहुत कठिन है। अगर स्वयं परमेश्वर ने न्याय का कार्य न किया होता तो फिर अत्यंत भ्रष्ट मानवजाति उद्धार प्राप्त न पाती, और इसके शैतानी स्वभाव स्वच्छ नहीं हो पाते। भले ही लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करने को तैयार हैं, लेकिन वे परमेश्वर को सुन और उसके प्रति समर्पण नहीं कर सकते क्योंकि सत्य स्वीकारने के लिए बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ती है। इसलिए सत्य का अनुसरण करने से पहले खुद को जानना और अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करना चाहिए। केवल तब जाकर सत्य स्वीकारना आसान रहेगा। खुद को जानना किसी भी सूरत में सरल काम नहीं है; जो सत्य को स्वीकारते हैं केवल वही लोग खुद को जान सकते हैं। इसीलिए खुद को जानना इतना महत्वपूर्ण है और तुम लोगों को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए।
लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, इसलिए उनके लिए सत्य स्वीकारना बहुत कठिन होता है और इससे भी कठिन खुद को जानना होता है। अगर वे उद्धार पाना चाहते हैं तो उन्हें अपना भ्रष्ट स्वभावों और अपने प्रकृति सार को जानना होगा। केवल तभी वे सचमुच सत्य को स्वीकार कर इस पर अमल कर पाएँगे। परमेश्वर पर विश्वास करने वाले ज्यादातर लोग केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं और सोचते हैं कि वे सत्य को समझते हैं। यह भारी भूल है क्योंकि खुद को न जानने वाले लोग सत्य को नहीं समझते। इसलिए परमेश्वर पर विश्वास के दौरान सत्य को समझने और उसे प्राप्त करने के लिए लोगों को खुद को जानने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। हम चाहे जब भी कहीं हों और चाहे जिस माहौल में हों, अगर हम खुद को जान सकते हैं, अपने भ्रष्ट स्वभावों को खोज कर उनका गहन-विश्लेषण कर सकते हैं, खुद को जानने को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बना सकते हैं, तो फिर हम यकीनन कुछ हासिल कर सकते हैं और धीरे-धीरे अपने बारे में अपना ज्ञान बढ़ा सकते हैं। उसी समय हम सत्य का अभ्यास करेंगे, परमेश्वर से प्रेम और उसके प्रति समर्पण करने का अभ्यास करेंगे, और सत्य को अधिक से अधिक जानेंगे। सत्य तब स्वाभाविक रूप से हमारा जीवन बन जाएगा। हालाँकि अगर तुम खुद को जानने में बिल्कुल भी प्रवेश नहीं करते तो तुम्हारा यह कहना झूठ है कि तुम सत्य का अभ्यास करते हो, क्योंकि तुम तमाम तरह की सतही घटनाओं से अपनी मति खो चुके हो। तुम्हें लगता है कि तुम्हारा व्यवहार सुधर चुका है, तुम्हारा अंतःकरण और विवेक पहले से अधिक जाग्रत है, तुम अधिक सौम्य हो चुके हो, तुम दूसरों का अधिक लिहाज रखते हो और उनके प्रति अधिक सहनशील हो, लोगों के प्रति अधिक धैर्यवान और क्षमाशील हो चुके हो, और इसके फलस्वरूप तुम सोचते हो कि तुम पहले ही सामान्य मानवता जी रहे हो, और एक अच्छे और पूर्ण व्यक्ति बन चुके हो। लेकिन परमेश्वर की नजरों में तुम उसकी अपेक्षाओं और मानकों पर खरे नहीं उतरते, और तुम सचमुच उसके प्रति समर्पण और आराधना करने से कोसों दूर हो। यह दर्शाता है कि तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, तुम में लेशमात्र भी वास्तविकता नहीं है, और उद्धार के मानक पूरे करने से अभी भी दूर हो।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है
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