41. परमेश्वर की मंशा के अनुरूप उसकी सेवा और गवाही कैसे दें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

संपूर्ण जगत में अपने कार्य की शुरुआत से ही, परमेश्वर ने अनेक लोगों को अपनी सेवा के लिए पूर्वनिर्धारित किया है, जिसमें हर सामाजिक वर्ग के लोग शामिल हैं। उसका प्रयोजन स्वयं के इरादों को पूरा करना और पृथ्वी पर अपने कार्य को सुचारु रूप से पूरा करना है। परमेश्वर का लोगों को अपनी सेवा के लिए चुनने का यही प्रयोजन है। परमेश्वर की सेवा करने वाले हर व्यक्ति को परमेश्वर के इरादे को अवश्य समझना चाहिए। उसका यह कार्य परमेश्वर की बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता को तथा पृथ्वी पर उसके कार्य के सिद्धांतों को लोगों के समक्ष बेहतर ढंग से ज़ाहिर करता है। वास्तव में परमेश्वर अपना काम करने और लोगों के संपर्क में आने के लिए पृथ्वी पर आया है, ताकि वे उसके कर्मों को अधिक स्पष्ट रूप से जान सकें। आज तुम लोग, लोगों का यह समूह, भाग्यशाली है कि तुम व्यावहारिक परमेश्वर की सेवा कर रहे हो। यह तुम लोगों के लिए एक अनंत आशीष है। वास्तव में, परमेश्वर ने तुम लोगों का स्तर बढ़ा दिया है। अपनी सेवा के लिए किसी व्यक्ति को चुनने में, परमेश्वर के सदैव अपने स्वयं के सिद्धांत होते हैं। परमेश्वर की सेवा करना मात्र एक उत्साह की बात नहीं है, जैसा कि लोग कल्पना करते हैं। आज तुम लोग देखते हो कि वे सभी जो परमेश्वर के समक्ष उसकी सेवा करते हैं, ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उनके पास परमेश्वर का मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा का कार्य है; और इसलिए क्योंकि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं। ये परमेश्वर की सेवा करने वाले सभी लोगों के लिए न्यूनतम शर्तें हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, धार्मिक सेवाओं का शुद्धिकरण अवश्य होना चाहिए

जो परमेश्वर की सेवा करते हैं, वे परमेश्वर के अंतरंग होने चाहिए, वे परमेश्वर को प्रिय होने चाहिए, और उन्हें परमेश्वर के प्रति परम निष्ठा रखने में सक्षम होना चाहिए। चाहे तुम निजी कार्य करो या सार्वजनिक, तुम परमेश्वर के सामने परमेश्वर का आनंद प्राप्त करने में समर्थ हो, तुम परमेश्वर के सामने अडिग रहने में समर्थ हो, और चाहे अन्य लोग तुम्हारे साथ कैसा भी व्यवहार क्यों न करें, तुम हमेशा उसी मार्ग पर चलते हो जिस पर तुम्हें चलना चाहिए, और तुम परमेश्वर की जिम्मेदारी का पूरा ध्यान रखते हो। केवल इसी तरह के लोग परमेश्वर के अंतरंग होते हैं। परमेश्वर के अंतरंग सीधे उसकी सेवा करने में इसलिए समर्थ हैं, क्योंकि उन्हें परमेश्वर का महान आदेश और परमेश्वर की जिम्मेदारी दी गई है, वे परमेश्वर के हृदय को अपना हृदय बनाने और परमेश्वर की जिम्मेदारी को अपनी जिम्मेदारी की तरह लेने में समर्थ हैं, और वे अपने भविष्य की संभावना पर कोई विचार नहीं करते : यहाँ तक कि जब उनके पास कोई संभावना नहीं होती, और उन्हें कुछ भी मिलने वाला नहीं होता, तब भी वे हमेशा एक परमेश्वर-प्रेमी हृदय से परमेश्वर में विश्वास करते हैं। और इसलिए, इस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर का अंतरंग होता है। परमेश्वर के अंतरंग उसके विश्वासपात्र भी हैं; केवल परमेश्वर के विश्वासपात्र ही उसकी बेचैनी और उसके विचार साझा कर सकते हैं, और यद्यपि उनकी देह पीड़ायुक्त और कमज़ोर होती, फिर भी वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए दर्द सहन कर सकते हैं और उसे छोड़ सकते हैं, जिससे वे प्रेम करते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को और अधिक जिम्मेदारी देता है, और जो कुछ परमेश्वर करना चाहता है, वह ऐसे लोगों की गवाही से प्रकट होता है। इस प्रकार, ये लोग परमेश्वर को प्रिय हैं, ये परमेश्वर के सेवक हैं जो उसके इरादों के अनुरूप हैं, और केवल ऐसे लोग ही परमेश्वर के साथ मिलकर शासन कर सकते हैं। जब तुम वास्तव में परमेश्वर के अंतरंग बन जाते हो, तो निश्चित रूप से तुम परमेश्वर के साथ मिलकर शासन करते हो।

यीशु परमेश्वर का आदेश—समस्त मानवजाति के छुटकारे का कार्य—पूरा करने में समर्थ था, क्योंकि उसने अपने लिए कोई योजना या व्यवस्था किए बिना परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखाई। इसलिए वह परमेश्वर का अंतरंग—स्वयं परमेश्वर भी था, एक ऐसी बात, जिसे तुम सभी लोग अच्छी तरह से समझते हो। (वास्तव में, वह स्वयं परमेश्वर था, जिसकी गवाही परमेश्वर के द्वारा दी गई थी। मैंने इसका उल्लेख मुद्दे को उदहारण के साथ समझाने हेतु यीशु के तथ्य का उपयोग करने के लिए किया है।) वह परमेश्वर की प्रबंधन योजना को बिलकुल केंद्र में रखने में समर्थ था, और हमेशा स्वर्गिक पिता से प्रार्थना करता था और स्वर्गिक पिता की इच्छा जानने का प्रयास करता था। उसने प्रार्थना की और कहा : “परमपिता परमेश्वर! जो तेरी इच्छा हो, उसे पूरा कर, और मेरी इच्छाओं के अनुसार नहीं, बल्कि अपनी योजना के अनुसार कार्य कर। मनुष्य कमज़ोर हो सकता है, किंतु तुझे उसकी चिंता क्यों करनी चाहिए? मनुष्य, जो कि तेरे हाथों में एक चींटी के समान है, तेरी चिंता के योग्य कैसे हो सकता है? मैं अपने हृदय में केवल तेरी इच्छा पूरी करना चाहता हूँ, और चाहता हूँ कि तू वह कर सके, जो तू अपनी इच्छाओं के अनुसार मुझमें करना चाहता है।” यरूशलम जाने के मार्ग पर यीशु बहुत संतप्त था, मानो उसके हृदय में कोई चाकू भोंक दिया गया हो, फिर भी उसमें अपने वचन से पीछे हटने की जरा-सी भी इच्छा नहीं थी; एक सामर्थ्यवान ताक़त उसे लगातार उस ओर बढ़ने के लिए बाध्य कर रही थी, जहाँ उसे सलीब पर चढ़ाया जाना था। अंततः उसे सलीब पर चढ़ा दिया गया और वह मानवजाति के छुटकारे का कार्य पूरा करते हुए पापमय देह के सदृश बन गया। वह मृत्यु एवं अधोलोक की बेड़ियों से मुक्त हो गया। उसके सामने नैतिकता, नरक एवं अधोलोक ने अपना सामर्थ्य खो दिया और उससे परास्त हो गए। वह तेंतीस वर्षों तक जीवित रहा, और इस पूरे समय उसने परमेश्वर के उस वक्त के कार्य के अनुसार परमेश्वर के इरादों को पूरा करने के लिए, कभी अपने व्यक्तिगत लाभ या नुकसान के बारे में विचार किए बिना और हमेशा परमपिता परमेश्वर के इरादों के बारे में सोचते हुए, हमेशा अपना अधिकतम प्रयास किया। अतः, उसका बपतिस्मा हो जाने के बाद, परमेश्वर ने कहा : “यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ।” परमेश्वर के सामने उसकी सेवा के कारण, जो परमेश्वर के इरादों के अनुरूप थी, परमेश्वर ने उसके कंधों पर समस्त मानवजाति के छुटकारे की भारी ज़िम्मेदारी डाल दी और उसे पूरा करने के लिए उसे आगे बढ़ा दिया, और वह इस महत्वपूर्ण कार्य को पूरा करने के योग्य और उसका पात्र बन गया। जीवन भर उसने परमेश्वर के लिए अपरिमित कष्ट सहा, उसे शैतान द्वारा अनगिनत बार प्रलोभन दिया गया, किंतु वह कभी भी निरुत्साहित नहीं हुआ। परमेश्वर ने उसे इतना बड़ा कार्य इसलिए दिया, क्योंकि वह उस पर भरोसा करता था और उससे प्रेम करता था, और इसलिए परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से कहा : “यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ।” उस समय, केवल यीशु ही इस आदेश को पूरा कर सकता था, और यह अनुग्रह के युग में परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए गए समस्त लोगों के छुटकारे के उसके कार्य का एक भाग था।

यदि, यीशु के समान, तुम लोग परमेश्वर की ज़िम्मेदारी पर पूरा ध्यान देने में समर्थ हो, और अपनी देह की इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह कर सकते हो, तो परमेश्वर अपने महत्वपूर्ण कार्य तुम लोगों को सौंप देगा, ताकि तुम लोग परमेश्वर की सेवा करने की शर्तें पूरी कर सको। केवल ऐसी परिस्थितियों में ही तुम लोग यह कहने की हिम्मत कर सकोगे कि तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चल रहे हो और उसके आदेश पूरे कर रहे हो, और केवल तभी तुम लोग यह कहने की हिम्मत कर सकोगे कि तुम सचमुच परमेश्वर की सेवा कर रहे हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के इरादों के अनुरूप सेवा कैसे करें

प्रत्येक व्यक्ति, जिसने संकल्प लिया है, परमेश्वर की सेवा कर सकता है—परंतु जो परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखाते हैं और परमेश्वर के इरादों को समझते हैं, केवल वे ही परमेश्वर की सेवा करने के योग्य और पात्र हैं। मैंने तुम लोगों में यह पाया है : बहुत-से लोगों का मानना है कि जब तक वे परमेश्वर के लिए सुसमाचार का उत्साहपूर्वक प्रसार करते हैं, परमेश्वर के लिए सड़क पर जाते हैं, परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते एवं चीज़ों का त्याग करते हैं, इत्यादि, तो यह परमेश्वर की सेवा करना है। यहाँ तक कि अधिक धार्मिक लोग मानते हैं कि परमेश्वर की सेवा करने का अर्थ बाइबल हाथ में लेकर यहाँ-वहाँ भागना, स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार का प्रसार करना और पश्चात्ताप तथा पाप स्वीकार करवाकर लोगों को बचाना है। बहुत-से धार्मिक अधिकारी हैं, जो सोचते हैं कि सेमिनरी में उन्नत अध्ययन करने और प्रशिक्षण लेने के बाद चैपलों में उपदेश देना और बाइबल के धर्मग्रंथ को पढ़कर लोगों को शिक्षा देना परमेश्वर की सेवा करना है। इतना ही नहीं, गरीब इलाकों में ऐसे भी लोग हैं, जो मानते हैं कि परमेश्वर की सेवा करने का अर्थ बीमार लोगों की चंगाई करना और अपने भाई-बहनों में से दुष्टात्माओं को निकालना है, या उनके लिए प्रार्थना करना या उनकी सेवा करना है। तुम लोगों के बीच ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो मानते हैं कि परमेश्वर की सेवा करने का अर्थ परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना, प्रतिदिन परमेश्वर से प्रार्थना करना, और साथ ही हर जगह कलीसियाओं में जाकर कार्य करना है। कुछ ऐसे भाई-बहन भी हैं, जो मानते हैं कि परमेश्वर की सेवा करने का अर्थ कभी भी विवाह न करना और परिवार न बनाना, और अपने संपूर्ण अस्तित्व को परमेश्वर के प्रति समर्पित कर देना है। बहुत कम लोग जानते हैं कि परमेश्वर की सेवा करने का वास्तविक अर्थ क्या है। यद्यपि परमेश्वर की सेवा करने वाले इतने लोग हैं, जितने कि आकाश में तारे, किंतु ऐसे लोगों की संख्या नगण्य है—दयनीय रूप से कम है, जो प्रत्यक्षतः परमेश्वर की सेवा कर सकते हैं, और जो परमेश्वर के इरादों के अनुसार सेवा करने में समर्थ हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ, क्योंकि तुम लोग “परमेश्वर की सेवा” वाक्यांश के सार को नहीं समझते, और यह बात तो बहुत ही कम समझते हो कि परमेश्वर के इरादों के अनुसार सेवा कैसे की जाए। लोगों को यह समझने की तत्काल आवश्यकता है कि वास्तव में परमेश्वर की किस प्रकार की सेवा उसके इरादों के अनुरूप हो सकती है।

यदि तुम लोग परमेश्वर के इरादों के अनुसार सेवा करना चाहते हो, तो तुम लोगों को पहले यह समझना होगा कि किस प्रकार के लोग परमेश्वर को प्रिय होते हैं, किस प्रकार के लोगों से परमेश्वर घृणा करता है, किस प्रकार के लोग परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाते हैं, और किस प्रकार के लोग परमेश्वर की सेवा करने की योग्यता रखते हैं। तुम लोगों को कम से कम इस ज्ञान से लैस अवश्य होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, तुम लोगों को परमेश्वर के कार्य के लक्ष्य जानने चाहिए, और उस कार्य को भी जानना चाहिए, जिसे परमेश्वर यहाँ और अभी करेगा। इसे समझने के पश्चात्, और परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के माध्यम से, तुम लोगों को पहले प्रवेश पाना चाहिए और पहले परमेश्वर की आज्ञा प्राप्त करनी चाहिए। जब तुम लोग परमेश्वर के वचनों का वास्तविक अनुभव कर लोगे, और जब तुम वास्तव में परमेश्वर के कार्य को जान लोगे, तो तुम लोग परमेश्वर की सेवा करने योग्य हो जाओगे। और जब तुम लोग परमेश्वर की सेवा करते हो, तब वह तुम लोगों की आध्यात्मिक आँखें खोलता है, और तुम्हें अपने कार्य की अधिक समझ प्राप्त करने और उसे अधिक स्पष्टता से देखने की अनुमति देता है। जब तुम इस वास्तविकता में प्रवेश करोगे, तो तुम्हारे अनुभव अधिक गहरे और व्यावहारिक हो जाएँगे, और तुम लोगों में से वे सभी, जिन्हें इस प्रकार के अनुभव हुए हैं, कलीसियाओं के बीच आने-जाने और अपने भाई-बहनों को आपूर्ति प्रदान करने में सक्षम हो जाएँगे, ताकि तुम लोग अपनी कमियाँ दूर करने के लिए एक-दूसरे की खूबियों का इस्तेमाल कर सको, और अपनी आत्माओं में अधिक समृद्ध ज्ञान प्राप्त कर सको। केवल यह परिणाम प्राप्त करने के बाद ही तुम लोग परमेश्वर के इरादों के अनुसार सेवा करने योग्य बन पाओगे और अपनी सेवा के दौरान परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाओगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के इरादों के अनुरूप सेवा कैसे करें

परमेश्वर की सचमुच सेवा करने वाला व्यक्ति वह है जो परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है और परमेश्वर के द्वारा उपयोग किए जाने के योग्य है, और जो अपनी धार्मिक धारणाओं को छोड़ पाने में सक्षम है। यदि तुम चाहते हो कि परमेश्वर के वचन को खाने और पीने का कोई असर हो, तो तुम्हें अपनी धार्मिक धारणाओं का त्याग करना होगा। यदि तुम परमेश्वर की सेवा करने की इच्छा रखते हो, तो यह तुम्हारे लिए और भी आवश्यक होगा कि तुम सबसे पहले अपनी धार्मिक धारणाओं का त्याग करो और हर काम में परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण करो। परमेश्वर की सेवा करने के लिए व्यक्ति में यह सब होना चाहिए। यदि तुममें इस ज्ञान की कमी है, तो जैसे ही तुम परमेश्वर की सेवा करोगे, तुम उसमें रुकावटें और बाधाएँ उत्पन्न करोगे, और यदि तुम अपनी धारणाओं को पकड़े रहोगे, तो तुम निश्चित तौर पर परमेश्वर द्वारा इस तरह चित कर दिए जाओगे कि फिर कभी उठ नहीं पाओगे। उदाहरण के लिए, वर्तमान को देखो : आज के बहुत सारे कथन और कार्य बाइबल के अनुरूप नहीं हैं; और परमेश्वर के द्वारा पूर्व में किए गए कार्य के अनुरूप भी नहीं हैं, और यदि तुममें समर्पण करने की इच्छा नहीं है, तो किसी भी समय तुम्हारा पतन हो सकता है। यदि तुम परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कार्य करना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले अपनी धार्मिक धारणाओं का त्याग करना होगा और अपने विचारों में सुधार करना होगा। बहुत सारी ऐसी बातें कही जाएंगी जो अतीत में कही गई बातों से असंगत होंगी, और यदि अब तुममें समर्पण करने की इच्छा की कमी है, तो तुम अपने सामने आने वाले मार्ग पर चल नहीं पाओगे। यदि परमेश्वर के कार्य करने का कोई एक तरीका तुम्हारे भीतर जड़ जमा लेता है और तुम उसे कभी छोड़ते नहीं हो, तो यह तरीका तुम्हारी धार्मिक धारणा बन जाएगा। यदि परमेश्वर क्या है, इस सवाल ने तुम्हारे भीतर जड़ जमा ली है तो तुमने सत्य को प्राप्त कर लिया है, और यदि परमेश्वर के वचन और सत्य तुम्हारा जीवन बनने में समर्थ हैं, तो तुम्हारे भीतर परमेश्वर के बारे में कोई धारणाएं नहीं रह जाएंगी। जो व्यक्ति परमेश्वर के बारे में सही ज्ञान रखते हैं उनमें कोई धारणाएँ नहीं होंगी, और वे विनियमों के अनुसार नहीं चलेंगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो परमेश्वर के आज के कार्य को जानते हैं केवल वे ही परमेश्वर की सेवा कर सकते हैं

परमेश्वर की सेवा करना कोई सरल कार्य नहीं है। जिनका भ्रष्ट स्वभाव अपरिवर्तित रहता है, वे परमेश्वर की सेवा कभी नहीं कर सकते हैं। यदि परमेश्वर के वचनों के द्वारा तुम्हारे स्वभाव का न्याय नहीं हुआ है और उसे ताड़ित नहीं किया गया है, तो तुम्हारा स्वभाव अभी भी शैतान का प्रतिनिधित्व करता है जो प्रमाणित करता है कि तुम परमेश्वर की सेवा अपनी भलाई के लिए करते हो, तुम्हारी सेवा तुम्हारी शैतानी प्रकृति पर आधारित है। तुम परमेश्वर की सेवा अपने स्वाभाविक चरित्र से और अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार करते हो। इसके अलावा, तुम हमेशा सोचते हो कि जो कुछ भी तुम करना चाहते हो, वो परमेश्वर को पसंद है, और जो कुछ भी तुम नहीं करना चाहते हो, उनसे परमेश्वर घृणा करता है, और तुम पूर्णतः अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हो। क्या इसे परमेश्वर की सेवा करना कह सकते हैं? अंततः तुम्हारे जीवन स्वभाव में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं आएगा; बल्कि तुम्हारी सेवा तुम्हें और भी अधिक जिद्दी बना देगी और इससे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव गहराई तक जड़ें जमा लेगा। इस तरह, तुम्हारे मन में परमेश्वर की सेवा के बारे में ऐसे नियम बन जाएँगे जो मुख्यतः तुम्हारे स्वयं के चरित्र पर और तुम्हारे अपने स्वभाव के अनुसार तुम्हारी सेवा से प्राप्त अनुभवों पर आधारित होंगे। ये मनुष्य के अनुभव और सबक हैं। यह मनुष्य के सांसारिक आचरण का फलसफा है। इस तरह के लोगों को फरीसियों और धार्मिक अधिकारियों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। यदि वे कभी भी जागते और पश्चाताप नहीं करते हैं, तो वे निश्चित रूप से झूठे मसीह और मसीह विरोधी बन जाएँगे जो अंत के दिनों में लोगों को गुमराह करते हैं। झूठे मसीह और मसीह विरोधी, जिनके बारे में कहा गया था, इसी प्रकार के लोगों में से उठ खड़े होंगे। जो परमेश्वर की सेवा करते हैं, यदि वे अपने चरित्र का अनुसरण करते हैं और अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं, तब वे किसी भी समय निकाल दिए जाने के ख़तरे में होते हैं। जो दूसरों के दिलों को जीतने, उन्हें व्याख्यान देने और बेबस करने तथा ऊंचाई पर खड़े होने के लिए परमेश्वर की सेवा के कई वर्षों के अपने अनुभव का प्रयोग करते हैं—और जो कभी पछतावा नहीं करते हैं, कभी भी अपने पापों को स्वीकार नहीं करते हैं, पद के लाभों को कभी नहीं त्यागते हैं—उनका परमेश्वर के सामने पतन हो जाएगा। ये अपनी वरिष्ठता का घमंड दिखाते और अपनी योग्यताओं पर इतराते पौलुस की ही तरह के लोग हैं। परमेश्वर इस तरह के लोगों को पूर्णता प्रदान नहीं करेगा। इस प्रकार की सेवा परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी करती है। लोग हमेशा पुराने से चिपके रहते हैं। वे अतीत की धारणाओं और अतीत की हर चीज से चिपके रहते हैं। यह उनकी सेवा में एक बड़ी बाधा है। यदि तुम उन्हें छोड़ नहीं सकते हो, तो ये चीजें तुम्हारे पूरे जीवन को विफल कर देंगी। परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा नहीं करेगा, थोड़ी-सी भी नहीं, भले ही तुम दौड़-भाग करके अपनी टाँगों को तोड़ लो या मेहनत करके अपनी कमर तोड़ लो, भले ही तुम परमेश्वर की “सेवा” में शहीद हो जाओ। इसके विपरीत वह कहेगा कि तुम एक कुकर्मी हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, धार्मिक सेवाओं का शुद्धिकरण अवश्य होना चाहिए

धर्म के दायरे में बहुत से लोग सारा जीवन अत्यंत कष्ट भोगते हैं : अपने शरीर को वश में रखते हैं और अपना क्रूस उठाते हैं, यहाँ तक कि मृत्यु के द्वार पहुँचने तक कष्ट झेलना और सहना जारी रखते हैं! कुछ लोग अपनी मृत्यु की सुबह भी उपवास रखते हैं। वे जीवन-भर स्वयं को अच्छे भोजन और अच्छे कपड़ों से दूर रखते हैं और केवल पीड़ा सहने पर ही ज़ोर देते हैं। वे अपने शरीर को वश में करके दैहिक इच्छाओं से विद्रोह कर देते हैं। पीड़ा सहन करने का जोश सराहनीय है। लेकिन उनकी सोच, उनकी अवधारणाओं, उनके मानसिक रवैये और निश्चय ही उनके पुराने स्वभाव की लेशमात्र भी काट-छाँट नहीं की गई है। उनकी स्वयं के बारे में कोई सच्ची समझ नहीं होती। परमेश्वर के बारे में उनकी मानसिक छवि एक अज्ञात परमेश्वर की पारंपरिक छवि होती है। परमेश्वर के लिए पीड़ा सहने का उनका संकल्प, उनके उत्साह और उनकी मानवता के अच्छे चरित्र से आता है। हालाँकि वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, लेकिन वे न तो परमेश्वर को समझते हैं और न उसके इरादों को जानते हैं। वे केवल अंधों की तरह परमेश्वर के लिए कार्य करते हैं और पीड़ा सहते हैं। विवेक पर वे बिल्कुल महत्व नहीं देते और उन्हें इसकी भी बहुत परवाह नहीं होती कि वे यह कैसे सुनिश्चित करें कि उनकी सेवा वास्तव में परमेश्वर के इरादों को पूरा करे। उन्हें इसका ज्ञान तो बिल्कुल ही नहीं होता कि परमेश्वर के विषय में समझ कैसे हासिल करें। जिस परमेश्वर की सेवा वे करते हैं, वह परमेश्वर की अपनी अंतर्निहित छवि नहीं है, बल्कि उनकी कल्पनाओं का एक परमेश्वर जिसके बारे में उन्होंने बस सुना है या लेखों में बस उनकी कहानियाँ सुनी हैं। फिर वे अपनी उर्वर कल्पनाओं और धर्मनिष्ठता का उपयोग परमेश्वर की खातिर पीड़ा सहने के लिए करते हैं और परमेश्वर के लिए उस कार्य का दायित्व स्वयं ले लेते हैं जो परमेश्वर करना चाहता है। उनकी सेवा बहुत ही अनिश्चित होती है, ऐसी कि उनमें से कोई भी परमेश्वर के इरादों के अनुसार सेवा करने के पूरी तरह योग्य नहीं होता। चाहे वे स्वेच्छा से जितनी भी पीड़ा भुगतते हों, सेवा पर उनका मूल परिप्रेक्ष्य और परमेश्वर की उनकी मानसिक छवि अपरिवर्तित रहती है, क्योंकि वे परमेश्वर के न्याय, उसकी ताड़ना, उसके शुद्धिकरण और उसकी पूर्णता से नहीं गुज़रे हैं, न ही किसी ने सत्य द्वारा उनका मार्गदर्शन किया है। भले ही वे उद्धारकर्ता यीशु पर विश्वास करते हों, तो भी उनमें से किसी ने कभी उद्धारकर्ता को देखा नहीं होता। वे केवल किंवदंती और अफ़वाहों के माध्यम से ही उसके बारे में जानते हैं। इसलिए उनकी सेवा आँख बंद करके बेतरतीब ढंग से की जाने वाली सेवा से अधिक कुछ नहीं है, जैसे एक नेत्रहीन आदमी अपने पिता की सेवा कर रहा हो। इस प्रकार की सेवा के माध्यम से आखिरकार क्या हासिल किया जा सकता है? और इसे स्वीकृति कौन देगा? शुरुआत से लेकर अंत तक, उनकी सेवा कभी भी बदलती नहीं। वे केवल मानव-निर्मित पाठ प्राप्त करते हैं और अपनी सेवा को केवल अपनी स्वाभाविकता और ख़ुद की पसंद पर आधारित रखते हैं। इससे क्या इनाम प्राप्त हो सकता है? यहाँ तक कि यीशु को देखने वाला पतरस भी नहीं जानता था कि परमेश्वर के इरादों के अनुसार सेवा कैसे करनी है; अंत में, वृद्धावस्था में पहुंचने के बाद ही वह इसे समझ पाया। यह उन नेत्रहीन लोगों के बारे में क्या कहता है जिन्होंने किसी भी तरह की काट-छाँट का ज़रा-भी अनुभव नहीं किया और जिनका किसी ने मार्गदर्शन नहीं किया? क्या आजकल तुम लोगों में से अधिकांश की सेवा उन नेत्रहीन लोगों की तरह ही नहीं है? जिन लोगों का न्याय नहीं हुआ है, जिनकी काट-छाँट नहीं हुई है, जो नहीं बदले हैं—क्या वे अधूरे ढंग से नहीं जीते गए हैं? ऐसे लोगों का क्या उपयोग? यदि तुम्हारी सोच, जीवन की तुम्हारी समझ और परमेश्वर की तुम्हारी समझ में कोई नया परिवर्तन नहीं दिखता है, और तुम्हें वास्तव में थोड़ा-सा भी लाभ नहीं मिलता है, तो तुम कभी भी अपनी सेवा में कुछ भी उल्लेखनीय प्राप्त नहीं कर पाओगे!

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विजय के कार्य की आंतरिक सच्चाई (3)

जो लोग कलीसिया की अगुवाई कर सकते हैं, लोगों को जीवन प्रदान कर सकते हैं, और लोगों के लिए प्रेरित हो सकते हैं, उनके पास वास्तविक अनुभव होने ही चाहिए; उन्हें आध्यात्मिक चीज़ों की सही समझ, सत्य की सही समझ-बूझ और अनुभव होना चाहिए। ऐसे ही लोग कलीसिया की अगुवाई करने वाले कर्मी या प्रेरित होने के योग्य हैं। अन्यथा, वे न्यूनतम रूप में केवल अनुसरण ही कर सकते हैं, अगुवाई नहीं कर सकते, वे लोगों को जीवन प्रदान करने में समर्थ प्रेरित तो बिल्कुल भी नहीं हो सकते। क्योंकि प्रेरित का कार्य भाग-दौड़ करना या लड़ना नही है; बल्कि जीवन की सेवकाई का कार्य करना और लोगों के स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए उनकी अगुवाई करना है। इस कार्य को करने वालों को बड़ा दायित्व दिया जाता है जिसे हर कोई नहीं कर सकता है। इस प्रकार के कार्य का बीड़ा केवल ऐसे लोगों द्वारा ही उठाया जा सकता है जिन्हें जीवन की समझ है, अर्थात जिन्हें सत्य का अनुभव है। इसे बस यों ही ऐसा कोई व्यक्ति नहीं कर सकता है जो त्याग कर सकता हो, भाग-दौड़ कर सकता हो या जो खुद को खपाने की इच्छा रखता हो; जिन्हें सत्य का कोई अनुभव नहीं है, जिनकी काट-छाँट या जिनका न्याय नहीं किया गया है, वे इस प्रकार का कार्य करने में असमर्थ होते हैं। ऐसे लोग जिनके पास कोई अनुभव नहीं है, लोग जिनके पास कोई वास्तविकता नहीं है, वे वास्तविकता को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, क्योंकि उनके पास ऐसा अस्तित्व नहीं होता। इसलिए, इस प्रकार का व्यक्ति न केवल अगुवाई का कार्य नहीं कर पाता, बल्कि यदि उसमें लम्बी अवधि तक कोई सत्य न हो, तो उन्हें निकाला जाना है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य

कार्य के संबंध में, मनुष्य का विश्वास है कि परमेश्वर के लिए इधर-उधर दौड़ना, सभी जगहों पर प्रचार करना और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाना ही कार्य है। यद्यपि यह विश्वास सही है, किंतु यह अत्यधिक एकतरफा है; परमेश्वर इंसान से जो माँगता है, वह परमेश्वर के लिए केवल इधर-उधर दौड़ना ही नहीं है; यह आत्मा के भीतर सेवकाई और पोषण से जुड़ा है। कई भाइयों और बहनों ने इतने वर्षों के अनुभव के बाद भी परमेश्वर के लिए कार्य करने के बारे में कभी नहीं सोचा है, क्योंकि मनुष्य द्वारा कल्पित कार्य परमेश्वर द्वारा की गई माँग के साथ असंगत है। इसलिए, मनुष्य को कार्य के मामले में किसी भी तरह की कोई दिलचस्पी नहीं है, और ठीक इसी कारण से मनुष्य का प्रवेश भी काफ़ी एकतरफा है। तुम सभी लोगों को परमेश्वर के लिए कार्य करने से अपने प्रवेश की शुरुआत करनी चाहिए, ताकि तुम लोग अनुभव के हर पहलू से बेहतर ढंग से गुज़र सको। यही है वह, जिसमें तुम लोगों को प्रवेश करना चाहिए। कार्य परमेश्वर के लिए इधर-उधर दौड़ने को संदर्भित नहीं करता, बल्कि इस बात को संदर्भित करता है कि मनुष्य का जीवन और जिसे वह जीता है, वे परमेश्वर को आनंद देने में सक्षम हैं या नहीं। कार्य परमेश्वर के प्रति गवाही देने और साथ ही मनुष्य के प्रति सेवकाई के लिए मनुष्य द्वारा परमेश्वर के प्रति अपनी निष्ठा और परमेश्वर के बारे में अपने ज्ञान के उपयोग को संदर्भित करता है। यह मनुष्य का उत्तरदायित्व है और इसे सभी मनुष्यों को समझना चाहिए। कहा जा सकता है कि तुम लोगों का प्रवेश ही तुम लोगों का कार्य है, और तुम लोग परमेश्वर के लिए कार्य करने के दौरान प्रवेश करने का प्रयास कर रहे हो। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का अर्थ मात्र यह नहीं है कि तुम जानते हो कि उसके वचन को कैसे खाएँ और पीएँ; बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि तुम लोगों को यह जानना चाहिए कि परमेश्वर की गवाही कैसे दें और परमेश्वर की सेवा करने तथा मनुष्य की सेवकाई और आपूर्ति करने में सक्षम कैसे हों। यही कार्य है, और यही तुम लोगों का प्रवेश भी है; इसे ही हर व्यक्ति को संपन्न करना चाहिए। कई लोग हैं, जो केवल परमेश्वर के लिए इधर-उधर दौड़ने, और हर जगह उपदेश देने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, किंतु अपने व्यक्तिगत अनुभव को अनदेखा करते हैं और आध्यात्मिक जीवन में अपने प्रवेश की उपेक्षा करते हैं। यही कारण है कि परमेश्वर की सेवा करने वाले लोग परमेश्वर का विरोध करने वाले बन जाते हैं। ...

व्यक्ति परमेश्वर के इरादे पूरे करने, परमेश्वर के इरादों के अनुरूप चलने वाले सभी लोगों को उसके सामने लेकर आने, मनुष्य को परमेश्वर के समक्ष लाने, और मनुष्य को पवित्र आत्मा के कार्य और परमेश्वर के मार्गदर्शन से परिचित कराने के लिए कार्य करता है, और इस प्रकार वह परमेश्वर के कार्य के परिणामों को पूरा करता है। इसलिए, यह अनिवार्य है कि तुम लोग कार्य के सार पर पूरी तरह से स्पष्ट रहो। ऐसे व्यक्ति के रूप में, जिसका परमेश्वर द्वारा उपयोग किया जाता है, हर मनुष्य परमेश्वर के लिए कार्य करने के योग्य है, अर्थात्, हर एक के पास पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए जाने का अवसर है। किंतु एक बात का तुम लोगों को अवश्य एहसास होना चाहिए : जब मनुष्य परमेश्वर द्वारा आदेशित कार्य करता है, तो मनुष्य को परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने का अवसर दिया गया होता है, किंतु मनुष्य द्वारा जो कहा और जाना जाता है, वह पूर्णतः मनुष्य का आध्यात्मिक कद नहीं होता। तुम लोग बस यही कर सकते हो, कि अपने कार्य के दौरान बेहतर ढंग से अपनी कमियों के बारे में जानो, और पवित्र आत्मा से अधिक प्रबुद्धता प्राप्त करो। इस प्रकार, तुम लोग अपने कार्य के दौरान बेहतर प्रवेश प्राप्त करने में सक्षम होगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश (2)

अगर कलीसिया के एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में तुम्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर की अच्छी गवाही देने में अगुआई करनी है, तो सबसे महत्वपूर्ण बात लोगों का परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और सत्य की संगति करने में अधिक समय व्यतीत करने में मार्गदर्शन करना है। इस तरह से, परमेश्वर के चुने हुए लोग मनुष्य को बचाने में परमेश्वर के उद्देश्यों और परमेश्वर के कार्य के प्रयोजन का गहरा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, और परमेश्वर के इरादों और मनुष्य के लिए उसकी विभिन्न आवश्यकताएँ समझ सकते हैं, और इस प्रकार वे अपना कर्तव्य उचित ढंग से कर सकते हैं और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं। जब तुम संगति और प्रचार करने इकट्ठा होते हो, तो तुम्हें व्यावहारिक रूप से अपने अनुभवात्मक गवाहियों की बात करनी चाहिए, और शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देने से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। जब तुम परमेश्वर के वचन खाते-पीते हो, तो तुम्हें सत्य समझने पर ध्यान केंद्रित करना होगा—और जब सत्य समझ लेते हो, तो तुम्हें इस पर अमल करने का प्रयास करना होगा, जब तुम सत्य का अभ्यास करोगे, तभी तुम वास्तव में उसे समझ पाओगे। जब तुम परमेश्वर के वचनों पर संगति करते हो, वही बोलो जो तुम जानते हो। डींगें न मारो, गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणी मत करो, और केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को मत बोलो, बढ़ा-चढ़ा कर मत बोलो। अगर तुम बढ़ा-चढ़ा कर बोलोगे, तो लोग तुमसे घृणा करेंगे और तुम बाद में खुद को दोष दोगे और तुम्हें पछतावा और दुख होगा—और यह सब तुमने अपने लिए खुद न्योता होगा। अगर तुम केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देकर भाषण झाड़ते हो और उनकी काट-छाँट करते हो, तो क्या तुम उन्हें सत्य समझा सकते हो और वास्तविकता में प्रवेश करा सकते हो? जिसके बारे में तुम संगति करते हो, अगर वह व्यवहारिक नहीं है, अगर वह शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के अलावा कुछ नहीं है, तो तुम कितना भी उनकी काट-छाँट करो और उन्हें भाषण दो, उसका कोई लाभ नहीं होगा। क्या तुम्हें लगता है कि लोगों का तुमसे डरना और जो तुम उनसे कहते हो वह करना, और विरोध करने की हिम्मत न करना, उनके सत्य को समझने और समर्पण करने के समान है? यह एक बड़ी गलती है; जीवन प्रवेश इतना आसान नहीं है। कुछ अगुआ एक मजबूत छाप छोड़ने की कोशिश करने वाले एक नए प्रबंधक की तरह होते हैं, वे अपने नए प्राप्त अधिकार को परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर थोपने की कोशिश करते हैं ताकि हर व्यक्ति उनके अधीन हो जाए, उन्हें लगता है कि इससे उनका काम आसान हो जाएगा। अगर तुममें सत्य वास्तविकता का अभाव है, तो जल्दी ही तुम्हारे असली आध्यात्मिक कद का खुलासा हो जाएगा और तुम्हारे असली रंग उजागर हो जाएँगे, और तुम्हें हटाया भी जा सकता है। कुछ प्रशासनिक कार्यों में थोड़ी काट-छाँट और अनुशासन स्वीकार्य है। लेकिन अगर तुम सत्य पर संगति करने में अक्षम हो, तो अंत में तुम समस्याएँ हल करने में भी असमर्थ रहोगे और इससे कार्य के नतीजे प्रभावित होंगे। अगर, कलीसिया में चाहे जो भी समस्याएँ आएँ, तुम लोगों को व्याख्यान और दोष देना जारी रखते हो—अगर तुम हमेशा बस अपना आपा खोकर पेश आते हो—तो यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव है जो प्रकट हो रहा है, और तुमने अपनी भ्रष्टता का बदसूरत चेहरा दिखा दिया है। अगर तुम हमेशा किसी आसन पर खड़े होकर इसी तरह लोगों को भाषण देते रहे तो समय बीतने के साथ लोग तुमसे जीवन का पोषण प्राप्त नहीं कर सकेंगे, वे कुछ भी व्यावहारिक हासिल नहीं करेंगे, बल्कि उन्हें तुमसे घृणा और मितली आएगी। इसके अलावा, कुछ लोग ऐसे होंगे जो भेद पहचानने की कमी के कारण तुमसे प्रभावित होंगे और इसी तरह दूसरों को भाषण देंगे और उनकी काट-छाँट करेंगे। वे भी इसी तरह क्रोधित हो जाया करेंगे और अपना आपा खो दिया करेंगे। न केवल तुम लोगों की समस्याएँ हल करने में अक्षम होगे—तुम उनके भ्रष्ट स्वभाव को बढ़ावा भी दोगे। और क्या यह उन्हें विनाश के मार्ग पर नहीं ले जा रहा? क्या यह कुकर्म नहीं है? अगुआ को प्राथमिकता से सत्य और जीवन प्रदान करने के बारे में संगति करते हुए अगुआई करनी चाहिए। अगर तुम हमेशा मंच पर खड़े होकर दूसरों को व्याख्यान देते हो, तो क्या वे सत्य समझ पाएँगे? अगर तुम कुछ समय तक इसी तरह से काम करते रहे, तो जब लोग तुम्हारी असलियत देख लेंगे, वे तुम्हें छोड़ देंगे। क्या तुम इस तरह से काम करके लोगों को परमेश्वर के सामने ला सकते हो? तुम निश्चित रूप से नहीं ला सकते; तुम सिर्फ कलीसिया का काम खराब कर सकते हो और परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों को तुमसे घृणा करने और तुम्हें छोड़ देने के लिए बाध्य कर सकते हो। अतीत में, कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इस वजह से हटा दिया गया था। वे वास्तविक समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति करने में अक्षम थे और, परमेश्वर के वचन खाने और पीने या खुद को समझने में लोगों की अगुआई नहीं कर सके। उन्होंने इनमें से कोई भी आवश्यक कार्य नहीं किया; उन्होंने सिर्फ खुद को उच्च स्थिति पर रखने, लोगों को भाषण देने, और आदेश देने पर ही ध्यान केंद्रित किया, वे सोच रहे थे कि ऐसा करते हुए वे कलीसिया के अगुआ का कार्य कर रहे हैं। परिणाम के तौर पर, उन्होंने ऊपरवाले द्वारा जारी किए गए कार्य प्रबंधन नहीं किए भले ही वे उन्हें जानते थे, ना ही उन्होंने विशिष्ट कार्य ठीक से किए। उन्होंने शब्द और धर्म-सिद्धांत उगलने और नारे लगाने के अलावा जो कुछ किया वह था खुद को उच्च स्थिति पर रखना और आँखें मूंद कर भाषण देना और लोगों की काट-छाँट करना। इस वजह से हर कोई इन अगुआओं और कार्यकर्ताओं से डरने और बचने लगे, और लोगों की हिम्मत नहीं हुई कि वे उन्हें समस्याएँ बताएँ। इस तरीके से कार्य करके अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने अपना काम बिगाड़ लिया और उसे ठप कर दिया। जब परमेश्वर के घर ने उन्हें बर्खास्त कर दिया तभी उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने कोई वास्तविक कार्य नहीं किया था। शायद उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ, लेकिन पछतावे किसी काम के नहीं हैं। उन्हें फिर भी बर्खास्त कर दिया गया और हटा दिया गया।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

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