39. परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की तलाश कैसे करें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

“परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना” और परमेश्वर को जानना अभिन्‍न रूप से असंख्य सूत्रों से जुड़े हैं, और उनके बीच का संबंध स्वतः स्‍पष्‍ट है। यदि कोई बुराई से दूर रहना चाहता है, तो उसमें पहले परमेश्वर का वास्‍तविक भय होना चाहिए; यदि कोई परमेश्वर का वास्‍तविक भय मानना चाहता है, तो उसमें पहले परमेश्वर का सच्‍चा ज्ञान होना चाहिए; यदि कोई परमेश्वर का ज्ञान हासिल करना चा‍हता है, तो उसे पहले परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए, परमेश्वर की ताड़ना, अनुशासन और न्याय का अनुभव करना चाहिए; यदि कोई परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना चाहता है, तो उसे पहले परमेश्वर के वचनों के रूबरू आना चाहिए, परमेश्वर के रूबरू आना चाहिए, और परमेश्वर से निवेदन करना चाहिए कि वह लोगों, घटनाओं और वस्‍तुओं से युक्त सभी प्रकार के परिवेशों के रूप में परमेश्वर के वचनों को अनुभव करने के अवसर प्रदान करे; यदि कोई परमेश्वर और उसके वचनों के रूबरू आना चाहता है, तो उसे पहले एक सरल और सच्‍चा हृदय, सत्‍य को स्‍वीकार करने की तत्‍परता, कष्‍ट झेलने की इच्‍छा, और बुराई से दूर रहने का संकल्प और साहस, और एक सच्‍चा सृजित प्राणी बनने की अभिलाषा रखनी चाहिए...। इस प्रकार कदम-दर-कदम आगे बढ़ते हुए, तुम परमेश्वर के निरंतर करीब आते जाओगे, तुम्‍हारा हृदय निरंतर शुद्ध होता जाएगा, और तुम्‍हारा जीवन और जीवित रहने के मूल्‍य, परमेश्वर को जान पाने के कारण निरंतर अधिक अर्थपूर्ण और दीप्तिमान होते जाएँगे। फिर एक दिन तुम अनुभव करोगे कि सृष्टिकर्ता अब कोई पहेली नहीं रह गया है, सृष्टिकर्ता कभी तुमसे छिपा नहीं था, सृष्टिकर्ता ने कभी अपना चेहरा तुमसे छिपाया नहीं था, सृष्टिकर्ता तुमसे बिल्कुल भी दूर नहीं है, सृष्टिकर्ता अब बिल्कुल भी वह नहीं है जिसके लिए तुम अपने विचारों में लगातार तरस रहे हो लेकिन जिसके पास तुम अपनी भावनाओं से पहुँच नहीं पा रहे हो, वह वाकई और सच में तुम्‍हारे दाएँ-बाएँ खड़ा तुम्‍हारी सुरक्षा कर रहा है, तुम्‍हारे जीवन को पोषण दे रहा है और तुम्‍हारी नियति को नियंत्रित कर रहा है। वह सुदूर क्षितिज पर नहीं है, न ही उसने अपने आपको ऊपर कहीं बादलों में छिपाया हुआ है। वह एकदम तुम्‍हारी बगल में है, तुम्‍हारे सर्वस्‍व पर आधिपत्‍य कर रहा है, वह वो सब है जो तुम्‍हारे पास है, और वही एकमात्र चीज़ है जो तुम्‍हारे पास है। ऐसा परमेश्वर स्वयं को तुम्हें अपने हृदय से प्रेम करने देता है, स्वयं से लिपटने देता है, स्वयं को पकड़ने देता है, अपनी स्तुति करने देता है, उसे खोने का भय पैदा करता है, अपना त्‍याग करने, अपने से विद्रोह करने, अपने को टालने या दूर करने का अनिच्छुक बना देता है। तुम बस यही चाहते हो कि उसकी परवाह करो, उसके प्रति समर्पण करो, जो कुछ भी वह देता है उसका प्रतिदान करो और उसके प्रभुत्व के प्रति आत्मसमर्पण करो। तुम अब उससे मार्गदर्शन लेने, पोषण पाने, उसकी निगरानी और देखभाल में रहने से इनकार नहीं करते और न ही उसकी आज्ञा और आदेश का पालन करने से इनकार करते हो। तुम सिर्फ उसका अनुसरण करना चाहते हो, उसके साथ उसके आस-पास रहना चाहते हो, उसे अपना एकमात्र जीवन स्‍वीकार करना चाहते हो, उसे अपना एकमात्र प्रभु, अपना एकमात्र परमेश्वर स्‍वीकार करना चाहते हो।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, प्रस्तावना

“परमेश्वर का भय मानने” का अर्थ अज्ञात डर या दहशत नहीं होता, न ही इसका अर्थ टाल-मटोल करना, दूर रहना, मूर्तिपूजा करना या अंधविश्‍वास होता है। वरन यह श्रद्धा, सम्मान, विश्वास, समझ, परवाह, समर्पण, अभिषेक और प्रेम के साथ-साथ बिना शर्त और बिना शिकायत आराधना, प्रतिदान और आत्मसमर्पण होता है। परमेश्वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्‍ची श्रद्धा, सच्‍चा विश्वास, सच्‍ची समझ, सच्‍ची परवाह या समर्पण नहीं होगा, वरन केवल डर और व्‍यग्रता, केवल शंका, गलतफहमी, टालमटोल और आनाकानी होगी; परमेश्वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्‍चा समर्पण और प्रतिदान नहीं होगा; परमेश्वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्‍ची आराधना और आत्मसमर्पण नहीं होगा, मात्र अंधी मूर्तिपूजा और अंधविश्‍वास होगा; परमेश्वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना मनुष्य संभवतः परमेश्वर के मार्ग पर नहीं चल पाएगा, या परमेश्वर का भय नहीं मानेगा, या बुराई का त्‍याग नहीं कर पाएगा। इसके विपरीत, मनुष्‍य का हर क्रियाकलाप और व्यवहार, परमेश्वर के प्रति विद्रोह और अवज्ञा से, निंदात्‍मक आरोपों और आलोचनात्मक आकलनों से तथा सत्‍य और परमेश्वर के वचनों के वास्तविक अर्थ के विपरीत चलने वाले दुष्‍ट आचरण से भरा होगा।

जब मनुष्य को परमेश्वर में सच्‍चा विश्वास होगा, तो वह सच्चाई से उसका अनुसरण करेगा और उस पर निर्भर रहेगा; केवल परमेश्वर पर सच्‍चे विश्वास और निर्भरता से ही मनुष्य में सच्‍ची समझ और सच्चा बोध होगा; परमेश्वर के वास्‍तविक बोध के साथ उसके प्रति वास्‍तविक परवाह आती है; परमेश्वर के प्रति सच्ची परवाह से ही मनुष्य में सच्‍चा समर्पण आ सकता है; परमेश्वर के प्रति सच्‍चे समर्पण से ही मनुष्य सच्‍चा अभिषेक कर सकता है; परमेश्वर के सच्‍चे अभिषेक से ही मनुष्य बिना शर्त और बिना शिकायत प्रतिदान कर सकता है; सच्‍चे भरोसे और निर्भरता, सच्‍ची समझ और परवाह, सच्‍ची समर्पण, सच्‍चे अभिषेक और प्रतिदान से ही मनुष्य परमेश्वर के स्‍वभाव और सार को जान सकता है, सृष्टिकर्ता की पहचान कर सकता है; सृष्टिकर्ता को वास्‍तव में जान लेने के बाद ही मनुष्य अपने भीतर सच्‍ची आराधना और आत्मसमर्पण जाग्रत कर सकता है; सृष्टिकर्ता के प्रति सच्‍ची आराधना और आत्मसमर्पण होने के बाद ही वह वास्तव में अपने बुरे मार्ग त्‍याग पाएगा, अर्थात बुराई से दूर रह पाएगा।

इसी से “परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने” की संपूर्ण प्रक्रिया बनती है और यही परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मूल तत्‍व भी है। यही वह मार्ग है जिसे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के लिए पार करना आवश्‍यक है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, प्रस्तावना

पहली बात तो, हम जानते हैं कि परमेश्वर का स्वभाव प्रताप और कोप है; वह कोई भेड़ नहीं है, जिसका वध किया जाए; वह कठपुतली तो बिल्कुल नहीं है जिसे लोग जैसा चाहें, वैसा नचाएँ। उसका अस्तित्व निरर्थक भी नहीं है कि उस पर धौंस जमाई जाए। यदि तुम वास्तव में मानते हो कि परमेश्वर का अस्तित्व है, तो तुम्हें परमेश्वर का भय मानना चाहिए, और तुम्हें पता होना चाहिए कि परमेश्वर के सार को क्रोधित नहीं किया जा सकता। वह क्रोध किसी शब्द से पैदा हो सकता है या शायद किसी विचार से या शायद किसी प्रकार के अधम व्यवहार से या किसी तरह के हल्के व्यवहार तक से, या किसी ऐसे व्यवहार से जो मनुष्य की नज़र में और नैतिकता की दृष्टि से महज़ कामचलाऊ हो; या वह किसी मत, सिद्धांत से भी भड़क सकता है। लेकिन, अगर एक बार तुमने परमेश्वर को क्रोधित कर दिया, तो समझो तुम्हारा अवसर गया, और तुम्हारे अंत के दिन आ गए। यह बेहद खराब बात है! यदि तुम इस बात को नहीं समझते कि परमेश्वर को अपमानित नहीं किया जाना चाहिए, तो शायद तुम परमेश्वर से नहीं डरते और शायद तुम उसे अक्सर अपमानित करते रहते हो। अगर तुम नहीं जानते कि परमेश्वर से कैसे डरना चाहिए, तो तुम परमेश्वर से नहीं डर पाओगे, और नहीं जान पाओगे कि परमेश्वर के मार्ग पर कैसे चलना है—यानी परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर। एक बार जब तुम जान गए और सचेत हो गए कि परमेश्वर को अपमानित नहीं करना चाहिए, तो तुम समझ जाओगे कि परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना क्या होता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

परमेश्वर एक जीवित परमेश्वर है, और जैसे लोग भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न तरीकों से बर्ताव करते हैं, वैसे ही इन बर्तावों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति भी भिन्न-भिन्न होती है क्योंकि वह न तो कोई कठपुतली है, और न ही वह शून्य है। परमेश्वर की प्रवृत्ति को जानना मनुष्य के लिए एक नेक खोज है। परमेश्वर की प्रवृत्ति को जानकर लोगों को सीखना चाहिए कि कैसे वे परमेश्वर के स्वभाव को जान सकते हैं और थोड़ा-थोड़ा करके उसके हृदय को समझ सकते हैं। जब तुम थोड़ा-थोड़ा करके परमेश्वर के हृदय को समझने लगोगे, तो तुम्हें नहीं लगेगा कि परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना कोई कठिन कार्य है। जब तुम परमेश्वर को समझ जाओगे, तो उसके बारे में निष्कर्ष नहीं निकालोगे। जब तुम परमेश्वर के बारे में निष्कर्ष निकालना बन्द कर दोगे, तो उसे अपमानित करने की संभावना नहीं रहेगी और अनजाने में ही परमेश्वर तुम्हारी अगुआई करेगा कि तुम उसके बारे में ज्ञान प्राप्त करो; इससे तुम्हारा हृदय परमेश्वर के प्रति भय से भर जाएगा। तुम उन धर्म-सिद्धांतों, शब्दों एवं सिद्धांतों का उपयोग करके परमेश्वर को परिभाषित करना बंद कर दोगे जिनमें तुम महारत हासिल कर चुके हो। बल्कि, सभी चीजों में सदा परमेश्वर के इरादों को खोजकर, तुम अनजाने में ही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप बन जाओगे।

इंसान परमेश्वर के कार्य को न तो देख सकता है, न ही छू सकता है, परन्तु जहाँ तक परमेश्वर की बात है, वह हर एक व्यक्ति के कार्यकलापों को, परमेश्वर के प्रति उसकी प्रवृत्ति को, न केवल समझ सकता है, बल्कि देख भी सकता है। इसे हर किसी को पहचानना और इसके बारे में स्पष्ट होना चाहिए। हो सकता है कि तुम स्वयं से पूछते हो, “क्या परमेश्वर जानता है कि मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ? क्या परमेश्वर जानता है कि मैं इस समय क्या सोच रहा हूँ? हो सकता है वह जानता हो, हो सकता है न भी जानता हो”। यदि तुम इस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाते हो, परमेश्वर का अनुसरण करते हो और उसमें विश्वास करते हो, मगर उसके कार्य और अस्तित्व पर सन्देह भी करते हो, तो देर-सवेर ऐसा दिन आएगा जब तुम परमेश्वर को क्रोधित करोगे, क्योंकि तुम पहले ही एक खतरनाक खड़ी चट्टान के कगार पर खड़े डगमगा रहे हो। मैंने ऐसे लोगों को देखा है जिन्होंने बहुत वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास किया है, परंतु उन्होंने अभी तक सत्य वास्तविकता प्राप्त नहीं की है, और वे परमेश्वर के इरादों को तो और भी नहीं समझते। केवल अत्यंत छिछले मतों के मुताबिक चलते हुए, उनके जीवन और आध्यात्मिक कद में कोई प्रगति नहीं होती। क्योंकि ऐसे लोगों ने कभी भी परमेश्वर के वचन को जीवन नहीं माना, और न ही कभी परमेश्वर के अस्तित्व का सामना और उसे स्वीकार किया है। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर ऐसे लोगों को देखकर आनंद से भर जाता है? क्या वे उसे आराम पहुँचाते हैं? यह है लोगों का परमेश्वर में विश्वास करने का तरीका जो उनका भाग्य तय करता है। जहाँ तक सवाल यह है कि लोग परमेश्वर की खोज कैसे करते हैं, कैसे परमेश्वर के समीप आते हैं, तो यहाँ लोगों की प्रवृत्ति प्राथमिक महत्व की हो जाती है। अपने सिर के पीछे तैरती खाली हवा समझ कर परमेश्वर की उपेक्षा मत करो; जिस परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास है उसे हमेशा एक जीवित परमेश्वर, एक वास्तविक परमेश्वर मानो। वह तीसरे स्वर्ग में हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठा है। बल्कि, वह लगातार प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में देख रहा है, यह देख रहा है कि तुम क्या करते हो, वह हर छोटे वचन और हर छोटे कर्म को देख रहा है, वो यह देख रहा है कि तुम किस प्रकार व्यवहार करते हो और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति क्या है। तुम स्वयं को परमेश्वर को अर्पित करने के लिए तैयार हो या नहीं, तुम्हारा संपूर्ण व्यवहार एवं तुम्हारे अंदर की सोच एवं विचार परमेश्वर के सामने खुले हैं, और परमेश्वर उन्हें देख रहा है। तुम्हारे व्यवहार, तुम्हारे कर्मों, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति के अनुसार ही तुम्हारे बारे में उसकी राय, और तुम्हारे प्रति उसकी प्रवृत्ति लगातार बदल रही है। मैं कुछ लोगों को कुछ सलाह देना चाहूँगा : अपने आपको परमेश्वर के हाथों में छोटे शिशु के समान मत रखो, जैसे कि उसे तुमसे लाड़-प्यार करना चाहिए, जैसे कि वह तुम्हें कभी नहीं छोड़ सकता, और जैसे कि तुम्हारे प्रति उसकी प्रवृत्ति स्थायी हो जो कभी नहीं बदल सकती, और मैं तुम्हें सपने देखना छोड़ने की सलाह देता हूँ! परमेश्वर हर एक व्यक्ति के प्रति अपने व्यवहार में धार्मिक है, और वह मनुष्य को जीतने और उसके उद्धार के कार्य के प्रति अपने दृष्टिकोण में ईमानदार है। यह उसका प्रबंधन है। वह हर एक व्यक्ति से गंभीरतापूर्वक व्यवहार करता है, पालतू जानवर के समान नहीं कि उसके साथ खेले। मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम बहुत लाड़-प्यार या बिगाड़ने वाला प्रेम नहीं है, न ही मनुष्य के प्रति उसकी करुणा और सहिष्णुता आसक्तिपूर्ण या बेपरवाह है। इसके विपरीत, मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम सँजोने, दया करने और जीवन का सम्मान करने के लिए है; उसकी करुणा और सहिष्णुता बताती हैं कि मनुष्य से उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं, और यही वे चीज़ें हैं जो मनुष्य के जीने के लिए जरूरी हैं। परमेश्वर जीवित है, वास्तव में उसका अस्तित्व है; मनुष्य के प्रति उसकी प्रवृत्ति सैद्धांतिक है, कट्टर नियमों का समूह नहीं है, और यह बदल सकती है। मनुष्य के लिए उसके इरादे, परिस्थितियों और प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृत्ति के साथ धीरे-धीरे परिवर्तित एवं रूपांतरित हो रहे हैं। इसलिए तुम्हें पूरी स्पष्टता के साथ जान लेना चाहिए कि परमेश्वर का सार अपरिवर्तनीय है, उसका स्वभाव अलग-अलग समय और संदर्भों के अनुसार प्रकट होता है। शायद तुम्हें यह कोई गंभीर मुद्दा न लगे, और तुम्हारी व्यक्तिगत अवधारणा हो कि परमेश्वर को कैसे कार्य करना चाहिए। परंतु कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि तुम्हारे दृष्टिकोण से बिल्कुल विपरीत नजरिया सही हो, और अपनी अवधारणाओं से परमेश्वर को आंकने के पहले ही तुमने उसे क्रोधित कर दिया हो। क्योंकि परमेश्वर उस तरह कार्य नहीं करता जैसा तुम सोचते हो, और न ही वह उस मसले को उस नजर से देखेगा जैसा तुम सोचते हो कि वो देखेगा। इसलिए मैं तुम्हें याद दिलाता हूँ कि तुम आसपास की हर एक चीज के प्रति अपने नजरिए में सावधान एवं विवेकशील रहो, और सीखो कि किस प्रकार हर चीज में “परमेश्वर के भय मानने और बुराई से दूर रहने वाले परमेश्वर के मार्ग पर चलने के सिद्धांत” का अभ्यास करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के इरादों और परमेश्वर के रवैये के मामलों में एक दृढ़ समझ विकसित करनी चाहिए; तुम्हें ईमानदारी से प्रबुद्ध लोगों को खोजना चाहिए जो इस पर तुम्हारे साथ संवाद करें। अपने विश्वास में परमेश्वर को एक कठपुतली मत समझो—उसे मनमाने ढंग से मत परखो, उसके बारे में मनमाने निष्कर्षों पर मत पहुँचो, परमेश्वर के साथ सम्मान-योग्य व्यवहार करो। एक तरफ जहाँ परमेश्वर तुम्हारा उद्धार कर रहा है, तुम्हारा परिणाम निर्धारित कर रहा है, वहीं वह तुम्हें करुणा, सहिष्णुता, या न्याय और ताड़ना भी प्रदान कर सकता है, लेकिन किसी भी स्थिति में, तुम्हारे प्रति उसकी प्रवृत्ति स्थिर नहीं होती। यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति पर, और परमेश्वर की तुम्हारी समझ पर निर्भर करता है। परमेश्वर के बारे में अपने ज्ञान या समझ के किसी अस्थायी पहलू के जरिए परमेश्वर को सदा के लिए परिभाषित मत करो। किसी मृत परमेश्वर में विश्वास मत करो; जीवित परमेश्वर में विश्वास करो। यह बात याद रखो!

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

मैं तुम लोगों से प्रशासनिक आज्ञाओं के विषय की बेहतर समझ हासिल करने और परमेश्वर के स्वभाव को जानने का प्रयास करने का आग्रह करता हूँ। अन्यथा, तुम लोग अपनी जबान बंद नहीं रख पाओगे और बड़ी-बड़ी बातें करोगे, तुम अनजाने में परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करके अंधकार में जा गिरोगे और पवित्र आत्मा एवं प्रकाश की उपस्थिति को गँवा दोगे। चूँकि तुम्हारे काम के कोई सिद्धांत नहीं हैं, तुम्हें जो नहीं करना चाहिए वह करते हो, जो नहीं बोलना चाहिए वह बोलते हो, इसलिए तुम्हें यथोचित दंड मिलेगा। तुम्हें पता होना चाहिए कि, हालाँकि कथन और कर्म में तुम्हारे कोई सिद्धांत नहीं हैं, लेकिन परमेश्वर इन दोनों बातों में अत्यंत सिद्धांतवादी है। तुम्हें दंड मिलने का कारण यह है कि तुमने परमेश्वर का अपमान किया है, किसी इंसान का नहीं। यदि जीवन में बार-बार तुम परमेश्वर के स्वभाव के विरुद्ध अपराध करते हो, तो तुम नरक की संतान ही बनोगे। इंसान को ऐसा प्रतीत हो सकता है कि तुमने कुछ ही कर्म तो ऐसे किए हैं जो सत्य के अनुरूप नहीं हैं, और इससे अधिक कुछ नहीं। लेकिन क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर की निगाह में, तुम पहले ही एक ऐसे इंसान हो जिसके लिए अब पाप करने की कोई और छूट नहीं बची है? क्योंकि तुमने एक से अधिक बार परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं का उल्लंघन किया है और फिर तुममें पश्चाताप के कोई लक्षण भी नहीं दिखते, इसलिए तुम्हारे पास नरक में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है, जहाँ परमेश्वर इंसान को दंड देता है। परमेश्वर का अनुसरण करते समय, कुछ थोड़े-से लोगों ने कुछ ऐसे कर्म कर दिए जिनसे सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ, लेकिन काट-छाँट और मार्गदर्शन के बाद, उन्होंने धीरे-धीरे अपनी भ्रष्टता का अहसास किया, उसके बाद वास्तविकता के सही मार्ग में प्रवेश किया, और आज तक यथार्थवादी हैं। वे ऐसे लोग हैं जो अंत तक बने रहेंगे। मुझे ईमानदार इंसान की तलाश है; यदि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो और सिद्धांत के अनुसार कार्य करते हो, तो तुम परमेश्वर के विश्वासपात्र हो सकते हो। यदि अपने कामों से तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान नहीं करते, तुम परमेश्वर की इच्छा की खोज करते हो और तुममें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है, तो तुम्हारी आस्था मानक के अनुरूप है। जो भी व्यक्ति परमेश्वर का भय नहीं मानता, और उसका हृदय डर से नहीं काँपता, तो इस बात की प्रबल संभावना है कि वह परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं का उल्लंघन करेगा। बहुत-से लोग अपनी तीव्र भावना के बल पर परमेश्वर की सेवा तो करते हैं, लेकिन उन्हें परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं की कोई समझ नहीं होती, उसके वचनों में छिपे अर्थों का तो उन्हें कोई भान तक नहीं होता। इसलिए, नेक इरादों के बावजूद वे प्रायः ऐसे काम कर बैठते हैं जिनसे परमेश्वर के प्रबंधन में विघ्न पहुँचता है। गंभीर मामलों में, उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है, आगे से परमेश्वर का अनुसरण करने के किसी भी अवसर से वंचित कर दिया जाता है, नरक में फेंक दिया जाता है और परमेश्वर के घर के साथ उनके सभी संबंध समाप्त हो जाते हैं। ये लोग अपने नादान नेक इरादों की शक्ति के आधार पर परमेश्वर के घर में काम करते हैं, और अंत में परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित कर बैठते हैं। लोग अधिकारियों और स्वामियों की सेवा करने के अपने तरीकों को परमेश्वर के घर में ले आते हैं, और व्यर्थ में यह सोचते हुए कि ऐसे तरीकों को यहाँ आसानी से लागू किया जा सकता है, उन्हें उपयोग में लाने की कोशिश करते हैं। उन्हें यह पता नहीं होता कि परमेश्वर का स्वभाव किसी मेमने का नहीं बल्कि एक सिंह का स्वभाव है। इसलिए, जो लोग पहली बार परमेश्वर से जुड़ते हैं, वे उससे संवाद नहीं कर पाते, क्योंकि परमेश्वर का हृदय इंसान की तरह नहीं है। जब तुम बहुत-से सत्य समझ जाते हो, तभी तुम परमेश्वर को निरंतर जान पाते हो। यह ज्ञान शब्दों या धर्म सिद्धांतों से नहीं बनता, बल्कि इसे एक खज़ाने के रूप में उपयोग किया जा सकता है जिससे तुम परमेश्वर के साथ गहरा विश्वास पैदा कर सकते हो और इसे एक प्रमाण के रूप में उपयोग सकते हो कि वह तुमसे प्रसन्न होता है। यदि तुममें ज्ञान की वास्तविकता का अभाव है और तुम सत्य से युक्त नहीं हो, तो मनोवेग में की गई तुम्हारी सेवा से परमेश्वर सिर्फ तुमसे घृणा और ग्लानि ही करेगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ

अगर तुम परमेश्वर के स्वभाव को नहीं समझते, तो तुम्हारे लिए उस काम को करना असंभव होगा, जो तुम्हें उसके लिए करना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर के सार को नहीं जानते, तो तुम्हारे लिए उसका भय और खौफ मानना असंभव होगा; इसके बजाय, तुम केवल बेपरवाह ढंग से यंत्रवत् काम करोगे, वाक्छल करोगे, और इतना ही नहीं, सुधारी न जा सकने वाली ईश-निंदा करोगे। हालाँकि परमेश्वर के स्वभाव को समझना वास्तव में महत्वपूर्ण है, और परमेश्वर का सार जानने को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, फिर भी किसी ने इन मुद्दों का पूरी तरह से परीक्षण नहीं किया है या कोई इनकी गहराई में नहीं गया है। यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि तुम सब लोगों ने मेरे द्वारा दिए गए सभी प्रशासनिक आदेश खारिज कर दिए हैं। अगर तुम लोग परमेश्वर के स्वभाव को नहीं समझते, तो बहुत संभव है कि तुम उसके स्वभाव को ठेस पहुँचा दो। उसके स्वभाव को ठेस पहुँचाना स्वयं परमेश्वर के क्रोध को भड़काने के समान है, और उस स्थिति में तुम्हारे कार्यों का अंतिम परिणाम प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन होगा। अब तुम्हें समझ जाना चाहिए कि जब तुम परमेश्वर के सार को जान जाते हो, तो तुम उसके स्वभाव को भी समझ सकते हो—और जब तुम उसके स्वभाव को समझ जाते हो, तो तुम उसके प्रशासनिक आदेशों को भी समझ जाते हो। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रशासनिक आदेशों में जो निहित है, उसमें से काफी कुछ परमेश्वर के स्वभाव से जुड़ा है, किंतु उसका संपूर्ण स्वभाव प्रशासनिक आदेशों में व्यक्त नहीं किया जाता; अतः तुम लोगों को परमेश्वर के स्वभाव की समझ और ज्यादा विकसित करने के लिए एक कदम और आगे बढ़ना चाहिए।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के स्वभाव को समझना बहुत महत्वपूर्ण है

मेरे द्वारा कहे गए हर वाक्य में परमेश्वर का स्वभाव निहित है। तुम लोग मेरे वचनों पर ध्यान से विचार करोगे तो अच्छा होगा, और निश्चित ही तुम्हें उनसे बहुत लाभ होगा। परमेश्वर के सार को समझना बहुत कठिन है, किंतु मुझे विश्वास है कि तुम सभी को परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कम से कम कुछ तो पता है। तो फिर, मैं आशा करता हूँ कि तुम लोगों के पास मुझे दिखाने के लिए तुम्हारे द्वारा की गई ऐसी ज्यादा चीजें होंगी, जो परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित नहीं करतीं। तभी मैं आश्वस्त हो पाऊँगा। उदाहरण के लिए, परमेश्वर को हर समय अपने दिल में रखो। जब तुम कार्य करो, तो उसके वचनों के अनुसार करो। सभी चीजों में उसके इरादों की खोज करो, और ऐसा काम करने से बचो, जिससे परमेश्वर का अनादर और अपमान हो। अपने हृदय के भावी शून्य को भरने के लिए तुम्हें परमेश्वर को अपने मन के पिछले हिस्से में तो बिल्कुल भी नहीं रखना चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो तुम परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाओगे। फिर, मान लो कि तुम अपने पूरे जीवन में परमेश्वर के विरुद्ध कभी ईशनिंदा की टिप्पणी या शिकायत नहीं करते, और फिर, मान लो कि तुम अपने संपूर्ण जीवन में, जो कुछ उसने तुम्हें सौंपा है, उसे उचित रूप से करने में समर्थ हो, और साथ ही उसके सभी वचनों के प्रति समर्पित रहते हो, तो तुम प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करने से बच जाओगे। उदाहरण के लिए, अगर तुमने कभी ऐसा कहा है, “मुझे ऐसा क्यों नहीं लगता कि वह परमेश्वर है?”, “मुझे लगता है कि ये शब्द पवित्र आत्मा के कुछ प्रबोधन से अधिक कुछ नहीं हैं”, “मेरे विचार से परमेश्वर जो कुछ करता है, जरूरी नहीं कि वह सब सही हो”, “परमेश्वर की मानवता मेरी मानवता से बढ़कर नहीं है”, “परमेश्वर के वचन विश्वास करने योग्य हैं ही नहीं,” या इस तरह की अन्य आलोचनात्मक टिप्पणियाँ, तो मैं तुम्हें अपने पाप स्वीकार करने और पश्चात्ताप करने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ। वरना तुम्हें क्षमा पाने का कभी अवसर नहीं मिलेगा, क्योंकि तुमने किसी मनुष्य को नहीं, बल्कि स्वयं परमेश्वर को ठेस पहुँचाई है। तुम मान सकते हो कि तुम एक मनुष्य की आलोचना कर रहे हो, किंतु परमेश्वर का आत्मा इसे इस तरह नहीं देखता है। तुम्हारा उसके देह का अनादर करना उसका अनादर करने के बराबर है। ऐसा होने पर, क्या तुमने परमेश्वर के स्वभाव को ठेस नहीं पहुँचाई है? तुम्हें याद रखना चाहिए कि जो कुछ भी परमेश्वर के आत्मा द्वारा किया जाता है, वह उसके देह में किए गए कार्य की सुरक्षा के लिए किया जाता है और इसलिए किया जाता है, ताकि उस कार्य को भली-भाँति किया जा सके। अगर तुम इसे नजरअंदाज करते हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम वो शख्स हो, जो परमेश्वर पर विश्वास करने में कभी सफल नहीं हो पाएगा। चूँकि तुमने परमेश्वर का क्रोध भड़का दिया है, इसलिए वह तुम्हें सबक सिखाने के लिए उचित दंड देगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के स्वभाव को समझना बहुत महत्वपूर्ण है

यद्यपि परमेश्वर के सार का एक हिस्सा प्रेम है, और वह हर एक के प्रति दयावान है, फिर भी लोग उस बात की अनदेखी कर भूल जाते हैं कि उसका सार महिमा भी है। उसके प्रेममय होने का अर्थ यह नहीं है कि लोग खुलकर उसका अपमान कर सकते हैं, ऐसा नहीं है कि उसकी भावनाएँ नहीं भड़केंगी या कोई प्रतिक्रियाएँ नहीं होंगी। उसमें करुणा होने का अर्थ यह नहीं है कि लोगों से व्यवहार करने का उसका कोई सिद्धांत नहीं है। परमेश्वर सजीव है; सचमुच उसका अस्तित्व है। वह न तो कोई कठपुतली है, न ही कोई वस्तु है। चूँकि उसका अस्तित्व है, इसलिए हमें हर समय सावधानीपूर्वक उसके हृदय की आवाज सुननी चाहिए, उसकी प्रवृत्ति पर ध्यान देना चाहिए, और उसकी भावनाओं को समझना चाहिए। परमेश्वर को परिभाषित करने के लिए हमें अपनी कल्पनाओं का उपयोग नहीं करना चाहिए, न ही हमें अपने विचार और इच्छाएँ परमेश्वर पर थोपनी चाहिए, जिससे कि परमेश्वर इंसान के साथ इंसानी कल्पनाओं के आधार पर मानवीय व्यवहार करे। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम परमेश्वर को क्रोधित कर रहे हो, तुम उसके कोप को बुलावा देते हो, उसकी महिमा को चुनौती देते हो! एक बार जब तुम लोग इस मसले की गंभीरता को समझ लोगे, मैं तुम लोगों से आग्रह करूँगा कि तुम अपने कार्यकलापों में सावधानी और विवेक का उपयोग करो। अपनी बातचीत में सावधान और विवेकशील रहो। साथ ही, तुम लोग परमेश्वर के प्रति व्यवहार में जितना अधिक सावधान और विवेकशील रहोगे, उतना ही बेहतर होगा! अगर तुम्हें परमेश्वर की प्रवृत्ति समझ में न आ रही हो, तो लापरवाही से बात मत करो, अपने कार्यकलापों में लापरवाह मत बनो, और यूँ ही कोई लेबल न लगा दो। और सबसे महत्वपूर्ण बात, मनमाने ढंग से निष्कर्षों पर मत पहुँचो। बल्कि, तुम्हें प्रतीक्षा और खोज करनी चाहिए; ये कृत्य भी परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की अभिव्यक्ति है। सबसे बड़ी बात, यदि तुम ऐसा कर सको, और ऐसी प्रवृत्ति अपना सको, तो परमेश्वर तुम्हारी मूर्खता, अज्ञानता, और चीज़ों के पीछे तर्कों की समझ की कमी के लिए तुम्हें दोष नहीं देगा। बल्कि, परमेश्वर को अपमानित करने के प्रति तुम्हारे भय मानने वाले रवैये, उसके इरादों के प्रति तुम्हारे सम्मान और उसके प्रति समर्पण करने की तुम्हारी तत्परता के कारण परमेश्वर तुम्हें याद रखेगा, तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा और तुम्हें प्रबुद्धता देगा, या तुम्हारी अपरिपक्वता और अज्ञानता को सहन करेगा। इसके विपरीत, यदि उसके प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति श्रद्धाविहीन होती है—तुम मनमाने ढंग से परमेश्वर की आलोचना करते हो, मनमाने ढंग से परमेश्वर के विचारों का अनुमान लगाकर उन्हें परिभाषित करते हो—तो परमेश्वर तुम्हें अपराधी ठहराएगा, अनुशासित करेगा, बल्कि दण्ड भी देगा; या वह तुम पर टिप्पणी करेगा। हो सकता है कि इस टिप्पणी में ही तुम्हारा परिणाम शामिल हो। इसलिए, मैं एक बार फिर से इस बात पर जोर देना चाहता हूँ : परमेश्वर से आने वाली हर चीज के प्रति तुम्हें सावधान और विवेकशील रहना चाहिए। लापरवाही से मत बोलो, और अपने कार्यकलापों में लापरवाह मत हो। कुछ भी कहने से पहले रुककर सोचो : क्या मेरा यह कृत्य परमेश्वर को क्रोधित करेगा? क्या ऐसा करके मेरे मन में परमेश्वर के प्रति भय है? यहाँ तक कि साधारण मामलों में भी, तुम्हें इन प्रश्नों को समझकर उन पर विचार करना चाहिए। यदि तुम हर चीज में, हर समय, इन सिद्धांतों के अनुसार सही मायने में अभ्यास करो, विशेष रूप से इस तरह की प्रवृत्ति तब अपना सको, जब कोई चीज तुम्हारी समझ में न आए, तो परमेश्वर तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, और तुम्हें अनुसरण योग्य मार्ग देगा।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

अपने कार्य के हर युग में परमेश्वर लोगों को कुछ वचन प्रदान करता है और उन्हें कुछ सत्य बताता है। ये सत्य ऐसे मार्ग के रूप में कार्य करते हैं जिसके मुताबिक मनुष्य को चलना चाहिए, जिस पर मनुष्य को चलना चाहिए, ऐसा मार्ग जो मनुष्य को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम बनाता है, ऐसा मार्ग जिसे मनुष्य को अभ्यास में लाना चाहिए और अपने जीवन में और अपनी जीवन यात्राओं के दौरान उसके मुताबिक चलना चाहिए। इन्हीं कारणों से परमेश्वर इन वचनों को मनुष्य को प्रदान करता है। ये वचन जो परमेश्वर से आते हैं उनके मुताबिक ही मनुष्य को चलना चाहिए, और उनके मुताबिक चलना ही जीवन पाना है। यदि कोई व्यक्ति उनके मुताबिक नहीं चलता, उन्हें अभ्यास में नहीं लाता, और अपने जीवन में परमेश्वर के वचनों को नहीं जीता, तो वह व्यक्ति सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहा है। यदि लोग सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहे हैं, तो वे परमेश्वर का भय नहीं मान रहे हैं और बुराई से दूर नहीं रह रहे हैं, और न ही वे परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं। यदि कोई परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर पाता, तो वह परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त नहीं कर सकता, ऐसे लोगों का कोई परिणाम नहीं होता।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

परमेश्वर के मार्ग पर चलना सतही तौर पर नियमों का पालन करना नहीं है; बल्कि, इसका अर्थ है कि जब तुम्हारा सामना किसी मामले से होता है, तो सबसे पहले, तुम इसे एक ऐसी परिस्थिति के रूप में देखते हो जिसकी व्यवस्था परमेश्वर के द्वारा की गई है, ऐसे उत्तरदायित्व के रूप में देखते हो जिसे उसके द्वारा तुम्हें प्रदान किया गया है, या किसी ऐसे कार्य के रूप में देखते हो जो उसने तुम्हें सौंपा है। जब तुम इस मामले का सामना कर रहे होते हो, तो तुम्हें इसे परमेश्वर से आयी किसी परीक्षा के रूप में भी देखना चाहिए। इस मामले का सामना करते समय, तुम्हारे पास एक मानक अवश्य होना चाहिए, तुम्हें सोचना चाहिए कि यह परमेश्वर की ओर से आया है। तुम्हें इस बारे में सोचना चाहिए कि कैसे इस मामले से इस तरह से निपटा जाए कि तुम अपने उत्तरदायित्व को पूरा कर सको, और परमेश्वर के प्रति वफ़ादार भी रह सको, इसे कैसे किया जाए कि परमेश्वर क्रोधित न हो, या उसके स्वभाव का अपमान न हो। ... क्योंकि परमेश्वर के मार्ग पर चलने के लिए, हम किसी भी ऐसी चीज को जाने नहीं दे सकते जिसका हमसे लेना-देना है, या जो हमारे आसपास घटती है, यहाँ तक कि छोटी से छोटी चीज भी; हमें यह मसला ध्यान देने योग्य लगे या न लगे, अगर उससे हमारा सामना हो रहा है तो हमें उसे जाने नहीं देना चाहिए। इस सबको हमारे लिए परमेश्वर की परीक्षा के रूप में देखा जाना चाहिए। चीजों को इस ढंग से देखने की प्रवृत्ति कैसी है? यदि तुम्हारी प्रवृत्ति इस प्रकार की है, तो यह एक तथ्य की पुष्टि करती है : तुम्हारा हृदय परमेश्वर का भय मानता है, और बुराई से दूर रहने के लिए तैयार है। यदि परमेश्वर को संतुष्ट करने की तुम्हारी ऐसी इच्छा है, तो जिसे तुम अभ्यास में लाते हो वह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मानक से दूर नहीं है।

प्रायः ऐसे लोग होते हैं जो मानते हैं कि ऐसे मामले जिन पर लोगों के द्वारा अधिक ध्यान नहीं दिया जाता, और जिनका सामान्यतः उल्लेख नहीं किया जाता, वो महज छोटी-मोटी निरर्थक बातें होती हैं, और उनका सत्य को अभ्यास में लाने से कोई लेना-देना नहीं है। जब इन लोगों के सामने ऐसे मामले आते हैं, तो वे उस पर अधिक विचार नहीं करते और उसे जाने देते हैं। परन्तु वास्तव में, यह मामला एक सबक है जिसका तुम्हें अध्ययन करना चाहिए, यह एक सबक कि किस प्रकार परमेश्वर का भय मानना है, और किस प्रकार बुराई से दूर रहना है। इसके अतिरिक्त, जिस बारे में तुम्हें और भी अधिक चिंता करनी चाहिए वह यह जानना है कि जब यह मामला तुम्हारे सामने आता है तो परमेश्वर क्या कर रहा है। परमेश्वर ठीक तुम्हारी बगल में है, तुम्हारे प्रत्येक शब्द और कर्म का अवलोकन कर रहा है, तुम्हारे क्रियाकलापों, तुम्हारे मन में हुए परिवर्तनों का अवलोकन कर रहा है—यह परमेश्वर का कार्य है। कुछ लोग पूछते हैं, “अगर ये सच है, तो मुझे यह महसूस क्यों नहीं होता है?” तुमने इसका एहसास नहीं किया है क्योंकि तुम परमेश्वर के भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को अपना प्राथमिक मार्ग मानकर इसके मुताबिक नही चले हो; इसलिए, तुम मनुष्य में परमेश्वर के सूक्ष्म कार्य को महसूस नहीं कर पाते, जो लोगों के भिन्न-भिन्न विचारों और भिन्न-भिन्न कार्यकलापों के अनुसार स्वयं को अभिव्यक्त करता है। तुम एक चंचलचित्त वाले व्यक्ति हो। बड़ा मामला क्या है? छोटा मामला क्या है? उन सभी मामलों को बड़े और छोटे मामलों में विभाजित नहीं किया जाता जिसमें परमेश्वर के मार्ग पर चलना शामिल है, वे सब बहुत बड़ी बात हैं—क्या तुम लोग इसे समझ सकते हो? (हम इसे समझ सकते हैं।) प्रतिदिन के मामलों के संबंध में, कुछ मामले ऐसे होते हैं जिन्हें लोग बहुत बड़े और महत्वपूर्ण मामले के रूप में देखते हैं, और अन्य मामलों को छोटे-मोटे निरर्थक मामलों के रूप में देखा जाता है। लोग प्रायः इन बड़े मामलों को अत्यंत महत्वपूर्ण मामलों के रूप में देखते हैं, और वे उन्हें परमेश्वर के द्वारा भेजा गया मानते हैं। हालाँकि, इन बड़े मामलों के चलते रहने के दौरान लोग अपने अपरिपक्व आध्यात्मिक कद और अपनी कम काबिलियत के कारण अक्सर परमेश्वर के इरादों पर खरे नहीं उतर पाते, कोई प्रकाशन प्राप्त नहीं कर पाते और ऐसा कोई वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते जिसका कोई मूल्य हो। जहाँ तक छोटे-छोटे मामलों की बात है, लोगों द्वारा इनकी अनदेखी की जाती है, और थोड़ा-थोड़ा करके हाथ से फिसलने के लिए छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार, लोगों ने परमेश्वर के सामने जाँचे जाने, और उसके द्वारा परीक्षण किए जाने के अनेक अवसरों को गँवा दिया है। यदि तुम हमेशा लोगों, चीज़ों, मामलों और परिस्थितियों को अनदेखा कर देते हो जिनकी व्यवस्था परमेश्वर तुम्हारे लिए करता है, तो इसका क्या अर्थ होगा? इसका अर्थ है कि हर दिन, यहाँ तक कि हर क्षण, तुम अपने बारे में परमेश्वर की पूर्णता का और परमेश्वर की अगुवाई का परित्याग कर रहे हो। जब कभी परमेश्वर तुम्हारे लिए किसी परिस्थिति की व्यवस्था करता है, तो वह गुप्त रीति से देख रहा होता है, तुम्हारे हृदय को देख रहा होता है, तुम्हारी सोच और विचारों को देख रहा होता है, देख रहा होता है कि तुम किस प्रकार सोचते हो, किस प्रकार कार्य करोगे। यदि तुम एक लापरवाह व्यक्ति हो—ऐसे व्यक्ति जो परमेश्वर के मार्ग, परमेश्वर के वचन, या जो सत्य के बारे में कभी भी गंभीर नहीं रहा है—तो तुम उसके प्रति सचेत नहीं रहोगे, उस पर ध्यान नहीं दोगे जिसे परमेश्वर पूरा करना चाहता है, न उन अपेक्षाओं पर ध्यान दोगे जिन्हें वो तुमसे तब पूरा करवाना चाहता था जब उसने तुम्हारे लिए एक खास परिवेश की व्यवस्था की थी। तुम यह भी नहीं जानोगे कि तुम जिन लोगों, घटनाओं और वस्तुओं का सामना करते हो वे किस प्रकार सत्य से या परमेश्वर के इरादों से संबंध रखते हैं। तुम्हारे इस प्रकार बार-बार परिस्थितियों और परीक्षणों का सामना करने के पश्चात जब परमेश्वर तुममें कोई नतीजे नहीं देखता तो वह कैसे आगे बढ़ेगा? बार-बार परीक्षणों का सामना करके तुमने अपने हृदय में परमेश्वर को महान मानकर सम्मान नहीं दिया है, न ही तुमने उन परिस्थितियों का अर्थ समझा है जिनकी व्यवस्था परमेश्वर ने तुम्हारे लिए की है—परमेश्वर के परीक्षण और परीक्षाएँ। इसके बजाय तुमने एक के बाद एक उन अवसरों को अस्वीकार कर दिया जो परमेश्वर ने तुम्हें प्रदान किए, तुमने बार-बार उन्हें हाथ से जाने दिया। क्या ऐसा करके लोग घोर विद्रोह नहीं करते? (बिल्कुल करते हैं।) क्या इसकी वजह से परमेश्वर दुखी होगा? (वह दुखी होगा।) गलत, परमेश्वर दुखी नहीं होगा! मुझे इस प्रकार कहते हुए सुनकर तुम लोगों को एक बार फिर झटका लगा है। तुम सोच रहे होगे : “क्या ऐसा पहले नहीं कहा गया था कि परमेश्वर हमेशा दुखी होता है? इसलिए क्या परमेश्वर दुखी नहीं होगा? तो परमेश्वर दुखी कब होता है?” संक्षेप में, परमेश्वर इस स्थिति से दुखी नहीं होगा। तो उस प्रकार के व्यवहार के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या होती है जिसके बारे में ऊपर बताया गया है? जब लोग परमेश्वर द्वारा भेजे गए परीक्षणों, परीक्षाओं को अस्वीकार करते हैं, जब वे उनसे बच कर भागते हैं, तो इन लोगों के प्रति परमेश्वर की केवल एक ही प्रवृत्ति होती है। यह प्रवृत्ति क्या है? परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति को अपने हृदय की गहराई से ठुकरा देता है। यहाँ “ठुकराने” शब्द के दो अर्थ हैं। मैं उन्हें अपने दृष्टिकोण से किस प्रकार समझाऊँ? गहराई में, यह शब्द घृणा का, नफ़रत का संकेतार्थ लिए हुए है। दूसरा अर्थ क्या? दूसरे भाग का तात्पर्य है किसी चीज़ को त्याग देना। तुम लोग जानते हो कि “त्याग देने” का क्या अर्थ है, ठीक है न? संक्षेप में, ठुकराने का अर्थ है ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर की अंतिम प्रतिक्रिया और प्रवृत्ति जो इस तरह से व्यवहार कर रहे हैं; यह उनके प्रति भयंकर घृणा है, और चिढ़ है, इसलिए उनका परित्याग करने का निर्णय लिया जाता है। यह ऐसे व्यक्ति के प्रति परमेश्वर का अंतिम निर्णय है जो परमेश्वर के मार्ग पर कभी नहीं चला है, जिसने कभी भी परमेश्वर का भय नहीं माना है और जो कभी भी बुराई से दूर नहीं रहा है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

अय्यूब परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में कैसे सक्षम हुआ? वह अपने मन में क्या सोच रहा था? वह इन बुरे कार्यों को करने से कैसे बचा? उसके हृदय में परमेश्वर का डर था। परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि उसका हृदय परमेश्वर का भय मानता था, परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान कर सकता था, और उसके हृदय में परमेश्वर के लिए जगह थी। वह इस बात से नहीं डरता था कि परमेश्वर उसके हृदय को देख लेगा, ना ही वह इससे डरता था कि परमेश्वर क्रोधित होगा। इसके बजाय वह परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करता था, उसे संतुष्ट करने को तैयार था और परमेश्वर के वचनों पर अडिग रहने की इच्छा रखता था। इसी वजह से वह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम हो पाया। वैसे तो हर कोई यह वाक्यांश कह सकता है कि “परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो”, फिर भी वे नहीं जानते कि अय्यूब ने यह किया कैसे। वास्तव में अय्यूब ने “परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने” को परमेश्वर में विश्वास करने के लिए सबसे आधारभूत और महत्वपूर्ण चीज माना। इसीलिए वह इन वचनों पर अडिग रह पाया, जैसे कि वह किसी धर्मादेश का पालन कर रहा हो। उसने परमेश्वर के वचन सुने क्योंकि वह हृदय से परमेश्वर को महान मानते हुए उसका सम्मान करता था। मनुष्य की नजर में परमेश्वर के वचन चाहे कितने ही साधारण लगें, भले ही वे वचन बहुत साधारण थे, लेकिन अय्यूब के हृदय में वे सर्वोच्च परमेश्वर के वचन थे; वे सबसे महान, सबसे महत्वपूर्ण वचन थे। चाहे उन वचनों को लोग हेय दृष्टि से देखें, अगर वे परमेश्वर के वचन हैं, तो लोगों को इनका पालन करना चाहिए, फिर चाहे इनकी वजह से उनका मजाक उड़ाया जाए या बदनामी हो। उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़े या यातना झेलनी पड़े, तब भी उन्हें अंत तक परमेश्वर के वचनों पर टिके रहना चाहिए; वे इनसे पीछे नहीं हट सकते। परमेश्वर का भय मानने का यही मतलब है। तुम्हें उस हर एक वचन पर टिके रहना है, जिसकी अपेक्षा परमेश्वर एक इंसान से करता है। जहाँ तक उन चीजों की बात है, जिन्हें परमेश्वर मना करता है या जिनसे परमेश्वर घृणा करता है, तो उन चीजों के बारे में न जानना ठीक है, लेकिन अगर तुम उन चीजों को जानते हो तो तुम्हें वे चीजें बिलकुल नहीं करनी चाहिए। तुम्हें अडिग रहने में सक्षम होना चाहिए, फिर चाहे तुम्हारा परिवार ही तुम्हें छोड़ दे, अविश्वासी तुम्हारा मजाक उड़ाएँ, या तुम्हारे करीबी लोग तुम्हारा तिरस्कार करें या तुम्हारा मजाक उडाएँ। तुम्हें अडिग रहने रहने की क्या जरूरत है? तुम्हें शुरुआत कहाँ से करनी है? तुम्हारे सिद्धांत क्या हैं? यह है, “मुझे परमेश्वर के वचनों पर टिके रहना है और उसकी इच्छा के अनुसार ही काम करना है। मैं उन चीजों पर अडिग रहूँगा, जो परमेश्वर को पसंद हैं और उन चीजों को त्यागने को संकल्पित रहूँगा, जिनसे परमेश्वर को घृणा है। अगर मुझे परमेश्वर की इच्छा के बारे में नहीं पता है, तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर मैं उसकी इच्छा जानता और समझता हूँ, तो मैं दृढ़ता से उसके वचनों को सुनूँगा और उनका पालन करूँगा। मुझे इससे डिगाने में कोई भी सक्षम नहीं होगा, और अगर दुनिया खत्म होने वाली होगी तो भी मैं नहीं डगमगाऊँगा।” परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का यही मतलब है।

लोगों के बुराई से दूर रहने में सक्षम होने के लिए पहली शर्त यह है कि उनके हृदय में परमेश्वर का भय हो। परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय कैसे बनता है? परमेश्वर को महान मानते हुए उसका सम्मान करने से। परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है यह जानना कि सभी चीजों पर परमेश्वर की सर्वोच्च सत्ता है, और हृदय में परमेश्वर का भय होना। इसके परिणामस्वरूप, लोग किसी भी स्थिति का आकलन करते समय परमेश्वर के वचनों का प्रयोग करने में सक्षम हो जाते हैं और अपने मानक और कसौटी के रूप में परमेश्वर के वचनों का प्रयोग कर पाते हैं। परमेश्वर को महान मानते हुए उसका सम्मान करने का यही मतलब है। साधारण शब्दों में कहें तो परमेश्वर को महान मानते हुए सम्मान करने का मतलब है परमेश्वर का हृदय में होना, हृदय का परमेश्वर में लगना, कुछ करते समय खुद को न भूलना, और स्वयं कुछ कर दिखाने का प्रयास न करना, बल्कि परमेश्वर को सबकुछ संभालने देना। हर चीज में तुम सोचते हो, “मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ और परमेश्वर का अनुसरण करता हूँ। मैं छोटा-सा सृजित प्राणी हूँ, जिसे परमेश्वर ने चुना है। मुझे अपनी इच्छा से आने वाले विचारों, सिफारिशों और फैसलों को छोड़ देना चाहिए और परमेश्वर को मेरा मालिक बनने देना चाहिए। परमेश्वर मेरा प्रभु, मेरी चट्टान और मेरा उज्ज्वल प्रकाश है, जो हर काम में मुझे राह दिखाता है। मुझे उसके वचनों और इच्छा के अनुसार चलना चाहिए और खुद को पहले नहीं रखना चाहिए।” परमेश्वर को अपने मन में रखने का यही मतलब है। जब तुम कुछ करना चाहते हो, तो आवेग या उतावलेपन से पेश मत आओ। पहले सोचो, परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, क्या परमेश्वर को तुम्हारे काम से घृणा होगी, क्या तुम्हारे काम परमेश्वर की इच्छा के अनुसार हैं। अपने हृदय में, पहले खुद से पूछो, सोचो और विचार करो; हड़बड़ी ना करो। हड़बड़ी करना आवेगी होना है, और चिड़चिड़ेपन और मनुष्य की इच्छा से प्रेरित होना है। अगर तुम हमेशा उतावले और आवेगी होते हो, तो इससे पता चलता है कि तुम्हारे हृदय में परमेश्वर नहीं है। जब तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करते हो, तो क्या ये सिर्फ खोखले शब्द नहीं हैं? तुम्हारी वास्तविकता कहाँ है? तुम्हारे पास कोई वास्तविकता नहीं है और तुम परमेश्वर को महान मानकर सम्मान नहीं दे सकते। तुम सभी मामलों में किसी जागीर के मालिक की तरह व्यवहार करते हो, हर बार अपनी मर्जी से काम करते हो। फिर तुम कैसे कह सकते हो कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर का भय है, क्या यह बकवास नहीं है? तुम इन शब्दों से लोगों को बरगला रहे हो। अगर किसी व्यक्ति के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है तो यह असल में कैसे व्यक्त होता है? परमेश्वर को महान मानते हुए उसका सम्मान करने से। परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करने की ठोस अभिव्यक्ति होती है, हृदय में परमेश्वर के लिए जगह होना—सबसे महत्वपूर्ण जगह होना। ऐसे लोग अपने मन में परमेश्वर को अपना मालिक बनने देते हैं और उसे नियंत्रण लेने देते हैं। जब कुछ होता है, तो उनके पास परमेश्वर की आज्ञा मानने वाला दिल होता है। वे उतावले नहीं होते, ना ही आवेगी होते हैं और वे जल्दबाजी में कुछ नहीं करते; इसके बजाय वे इसका सामना शांति से कर सकते हैं, और परमेश्वर के सामने सत्य सिद्धांतों को खोजने के लिए स्वयं को शांत कर सकते हैं। तुम चीजें परमेश्वर के वचनों के अनुसार करते हो या अपनी इच्छा से, तुम अपनी मर्जी चलने देते हो या परमेश्वर के वचनों की, यह इसी पर निर्भर करता है कि क्या परमेश्वर तुम्हारे हृदय में है। तुम कहते हो कि परमेश्वर तुम्हारे हृदय में है, लेकिन जब कुछ होता है तो तुम आंखें बंद करके काम करते हो और परमेश्वर को दरकिनार करते हुए खुद ही आखिरी फैसला लेते हो। क्या यह उस हृदय की अभिव्यक्ति है जिसमें परमेश्वर है? कुछ लोग ऐसे भी है जो कुछ होने पर परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, लेकिन प्रार्थना करने के बाद लगातार विचारशील रहते हैं, वे सोचते हैं, “मुझे लगता है कि मुझे ऐसा करना चाहिए। मुझे लगता है कि मुझे वैसा करना चाहिए।” तुम हमेशा अपनी इच्छा से चलते हो, और किसी दूसरे की नहीं सुनते फिर चाहे वे तुम्हारे साथ कैसे भी संगति करें। क्या यह परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय के न होने की अभिव्यक्ति नहीं है? क्योंकि तुम सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजते और सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो यह कहना कि तुम परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करते हो और तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है तो ये बस खोखले शब्द हैं। जिन लोगों के हृदय में परमेश्वर नहीं है, और जो परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान नहीं कर सकते, उन लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं है। जो लोग कुछ होने पर सत्य नहीं खोज पाते, और जिनका हृदय परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी नहीं है, उन लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक नहीं होता। अगर किसी के पास वास्तव में अंतरात्मा और विवेक है, तो जब कुछ होगा, वे स्वाभाविक रूप से सत्य खोज सकेंगे। उन्हें पहले सोचना चाहिए, “मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ। मैं परमेश्वर के पास उद्धार की खोज में आया हूँ। चूँकि मेरा स्वभाव भ्रष्ट है, इसलिए मैं जो भी करता हूँ उसमें हमेशा खुद को ही एकमात्र प्राधिकारी मानता हूँ; मैं हमेशा परमेश्वर की इच्छा के खिलाफ जाता हूँ। मुझे पश्चाताप करना होगा। मैं इस तरह से परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकता। मुझे सीखना होगा कि परमेश्वर का आज्ञाकारी कैसे बनूँ। मुझे खोजना होगा कि परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, और सत्य सिद्धांत क्या हैं।” यही वे विचार और आकांक्षाएँ हैं जो सामान्य मानवता के विवेक से उत्पन्न होते हैं। तुम्हें इन्हीं सिद्धांतों और रवैये के साथ चीजें करनी चाहिए। जब तुम सामान्य मानवता का विवेक हासिल कर लेते हो, तो तुम्हारा रवैया ऐसा हो जाता है; जब तुम्हारे पास सामान्य मानवता का विवेक नहीं होता, तो तुम्हारा रवैया ऐसा नहीं होता। इसीलिए सामान्य मानवता का विवेक हासिल करना अतिआवश्यक और बेहद महत्वपूर्ण है। यह सीधे तौर पर लोगों के सत्य समझने और उद्धार पाने से जुड़ा है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

परमेश्वर के प्रति अय्यूब का भय और समर्पण मनुष्यजाति के लिए एक उदाहरण है, और उसकी पूर्णता और खरापन मानवता की पराकाष्ठा थी जिन्हें मनुष्य को धारण करना ही चाहिए। यद्यपि उसने परमेश्वर को नहीं देखा था, फिर भी उसे एहसास हुआ कि परमेश्वर सचमुच विद्यमान था, और इस एहसास के कारण वह परमेश्वर का भय मानता था, और परमेश्वर के अपने इसी भय के कारण, वह परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाया था। उसने परमेश्वर को वह सब जो उसका था लेने की खुली छूट दे दी, फिर भी उसे कोई शिकायत नहीं थी, और वह परमेश्वर के समक्ष गिर गया और उसने उससे कहा कि, बिल्कुल इसी क्षण, यदि परमेश्वर उसकी देह भी ले ले, तो वह, शिकायत किए बिना, ख़ुशी-ख़ुशी उसे ऐसा करने देगा। उसका समूचा आचरण उसकी अचूक और खरी मानवता के कारण था। कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी निश्छलता, ईमानदारी, और दयालुता के फलस्वरूप, अय्यूब परमेश्वर के अस्तित्व के अपने अहसास और अनुभव में अटल था। इस स्थापना के आधार पर उसने स्वयं अपने से भारी-भरकम अपेक्षाएँ की थीं और परमेश्वर के समक्ष अपनी सोच, व्यवहार, आचरण और क्रियाकलापों के सिद्धांतों को उसने अन्य बातों के अलावा परमेश्वर द्वारा अपने मार्गदर्शन और परमेश्वर के जो कर्म वह देख चुका था उनके अनुसार आदर्श ढँग से ढाला था। समय के साथ, उसके अनुभवों ने उसमें परमेश्वर का सच्चा और वास्तविक भय उत्पन्न किया और उसे बुराई से दूर रखा। यही उस अखंडता का स्रोत था जिसे अय्यूब ने दृढ़ता से थामे रखा था। अय्यूब सत्यनिष्ठ, निश्छल और दयालु मानवता से युक्त था, और उसे परमेश्वर का भय मानने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और बुराई से दूर रहने के साथ ही इस ज्ञान का वास्तविक अनुभव था कि “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया”। केवल इन्हीं चीज़ों के कारण वह शैतान के ऐसे शातिर हमलों के बीच अपनी गवाही पर डटा रह पाया, और जब परमेश्वर की परीक्षाएँ उसके ऊपर आ पड़ीं, तब केवल उन्हीं के कारण वह परमेश्वर को निराश नहीं करने और परमेश्वर को संतोषजनक उत्तर देने में समर्थ हो पाया।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

अय्यूब ने परमेश्वर को देखने या परमेश्वर के वचन सुनने में असमर्थ होते हुए भी इन चीज़ों को धारण और इनका अनुसरण किया; यद्यपि उसने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था, फिर भी वह उन उपायों को जानने लगा था जिनसे परमेश्वर सभी चीज़ों पर शासन करता है; और उसने उस बुद्धि को समझ लिया था जिससे परमेश्वर ऐसा करता है। यद्यपि उसने परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन कभी नहीं सुने थे, फिर भी अय्यूब जानता था कि मनुष्य को फल देने और मनुष्य से ले लेने के सारे कर्म परमेश्वर से आते हैं। हालाँकि उसके जीवन के वर्ष किसी भी साधारण व्यक्ति के वर्षों से भिन्न नहीं थे, फिर भी उसने अपने जीवन की अनुल्लेखनीयता से सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के अपने ज्ञान को, या परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग के अपने अनुसरण को प्रभावित नहीं होने दिया। उसकी नज़रों में, सभी चीज़ों के विधानों में परमेश्वर के कर्म समाए थे, और परमेश्वर की संप्रभुता व्यक्ति के जीवन के किसी भी भाग में देखी जा सकती थी। उसने परमेश्वर को नहीं देखा था, परंतु वह यह अहसास कर पाता था कि परमेश्वर के कर्म हर जगह हैं, और पृथ्वी पर अपने अनुल्लेखनीय समय के दौरान, अपने जीवन के प्रत्येक कोने में वह परमेश्वर के असाधारण और चमत्कारिक कर्म देख पाता और उनका अहसास कर पाता था, और वह परमेश्वर की चमत्कारिक व्यवस्थाओं को देख सकता था। परमेश्वर की अदृश्यता और मौन ने परमेश्वर के कर्मों के अय्यूब के बोध में रुकावट नहीं डाली, न ही उन्होंने सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के उसके ज्ञान को प्रभावित किया। उसके दिन-प्रतिदिन के जीवन के दौरान, उसका जीवन हर चीज़ में छिपे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का बोध था। अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में उसने परमेश्वर के हृदय की आवाज़ और परमेश्वर के वचन सुने और समझे थे, उस परमेश्वर के जो सभी चीज़ों के बीच मौन रहकर भी अपने हृदय की आवाज़ और अपने वचन सभी चीज़ों के विधि-विधानों को शासित करने के द्वारा व्यक्त करता है। तो, तुम देखो, कि यदि लोगों के पास अय्यूब के समान ही मानवता और अनुसरण हो, तो वे अय्यूब के समान बोध और ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, और अय्यूब के समान ही सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता की समझ और ज्ञान अर्जित कर सकते हैं। परमेश्वर अय्यूब के समक्ष प्रकट नहीं हुआ था या परमेश्वर ने उससे बात नहीं की थी, किंतु अय्यूब पूर्ण, और खरा होने, तथा परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में समर्थ था। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के मनुष्य के समक्ष प्रकट हुए या उससे बात किए बिना भी, सभी चीज़ों के बीच परमेश्वर के कर्म और सभी चीज़ों के ऊपर उसकी संप्रभुता मनुष्य को परमेश्वर के अस्तित्व, सामर्थ्य और अधिकार से अवगत होने के लिए पर्याप्त है, और परमेश्वर की सामर्थ्य और अधिकार मनुष्य से परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करवाने के लिए पर्याप्त हैं।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

तुम्हें सत्य स्वीकारने और इसका अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, साथ ही परमेश्वर के वचनों का उपयोग कर अपनी दशाओं की तुलना करते हुए उनकी जाँच करनी चाहिए और इसके बाद उन गलत धारणाओं और रवैयों को बदलना चाहिए जिनके जरिये तुम हर तरह की स्थिति का सामना करते हो। अंत में, तुम्हारे भीतर हर स्थिति में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होना चाहिए, तुम्हें फिर कभी उतावले होकर काम कर अपने विचारों का अनुसरण नहीं करना चाहिए, न अपनी लालसाओं के अनुसार चीजें करनी चाहिए, न ही भ्रष्ट स्वभाव के साथ जीना चाहिए। इसके बजाय तुम्हारी सारी कथनी-करनी परमेश्वर के वचनों और सत्य पर आधारित होनी चाहिए। इस तरह से तुम में धीरे-धीरे परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय उत्पन्न हो जायेगा। ऐसा हृदय सत्य का पालन करने से उत्पन्न होता है, संयम बरतने से नहीं। संयम से सिर्फ एक तरह का व्यवहार उत्पन्न होता है; यह एक सतही स्तर के नियंत्रण के समान होता है। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को लगातार स्वीकारने और उसके कार्य का अनुभव करने के दौरान काट-छाँट को स्वीकारने से परमेश्वर का भय मानने वाला सच्चा हृदय मिलता है। जब लोग अपनी भ्रष्टता का असली चेहरा देखेंगे तो उन्हें सत्य के अनमोल होने का पता चलेगा और वे सत्य के लिए प्रयास कर सकेंगे। उनके भ्रष्ट स्वभाव कम से कम प्रकट होंगे, वे सामान्य रूप से परमेश्वर के सामने रह सकेंगे, हर दिन परमेश्वर के वचन खा-पी सकेंगे और सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य कर सकेंगे। इस प्रक्रिया से परमेश्वर का भय मानने वाला और उसके प्रति समर्पण करने वाला हृदय उत्पन्न होता है। जो लोग अपने कर्तव्य करते हुए समस्याएँ हल करने के लिए लगातार सत्य खोजते हैं, उन सबके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है। परमेश्वर का भय क्या है, यह उन सभी लोगों को पता है जिन्हें अनुशासित किया गया है और जिन्होंने काफी ज्यादा काट-छाँट का अनुभव किया है। जब उनकी भ्रष्टता प्रकट होती है तो वे न सिर्फ भयभीत होकर काँपने लगते हैं, बल्कि परमेश्वर के क्रोध और प्रताप को भी महसूस कर सकते हैं। इस स्थिति में स्वाभाविक रूप से उनके मन में डर उत्पन्न होता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

चाहे तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, दूसरों के साथ बातचीत कर रहे हो, या अपने सामने आई किसी विशेष समस्या से निपट रहे हो, तुममें खोज और आज्ञाकारिता का रवैया होना चाहिए। इस तरह का रवैया होने पर यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर के प्रति कुछ भय है। सत्य की खोज और उसका पालन करने में सक्षम होना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है। अगर तुममें खोज और आज्ञाकारिता के रवैये का अभाव है, और इसके बजाय तुम अड़ियल विरोधी बनकर स्वयं से चिपके रहते हो, सत्य को स्वीकारने से मना करते हो और उससे ऊब चुके हो, तो तुम स्वाभाविक रूप से बहुत अधिक बुराई करोगे। तुम खुद को ऐसा करने से रोक नहीं पाओगे! अगर लोग इस समस्या को हल करने के लिए कभी सत्य का अनुसरण नहीं करें, तो अंतिम परिणाम यह होगा कि चाहे वे कितना भी अनुभव कर लें, चाहे वे कितनी भी परिस्थितियों में खुद को पाएँ, चाहे परमेश्वर उनके लिए कितने ही सबक निर्धारित करे, वे फिर भी सत्य को नहीं समझेंगे, और अंततः सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने में असमर्थ रहेंगे। अगर लोगों में सत्य-वास्तविकता नहीं होगी, तो वे परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने में असमर्थ होंगे, और अगर वे कभी परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकेंगे, फिर वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने वाले लोग नहीं होंगे। लोग लगातार अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर का अनुसरण करने की इच्छा करते हैं। क्या चीजें इतनी सरल हैं? बिलकुल नहीं। लोगों के जीवन में ये चीजें बेहद महत्वपूर्ण हैं! अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाकर परमेश्वर को संतुष्ट करना और उसका भय मानना, और बुराई से दूर रहना आसान नहीं है। लेकिन मैं तुम लोगों को अभ्यास का एक सिद्धांत बताऊँगा : अगर अपने साथ कुछ होने पर तुम्हारा रवैया खोज और आज्ञाकारिता का रहता है, तो वह तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम्हारे लिए अंतिम लक्ष्य तुम्हारी रक्षा किया जाना नहीं है। यह लक्ष्य है तुम्हें सत्य समझाना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बनाना; यही अंतिम लक्ष्य है। अगर समस्त अनुभवों में तुम्हारा यह रवैया रहता है, तो तुम यह महसूस करना बंद कर दोगे कि अपना कर्तव्य निभाना और परमेश्वर की इच्छा पूरी करना खोखले शब्द और नारे हैं; वह अब इतना कठिन नहीं लगेगा। इसके बजाय, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम पहले ही कई सत्य समझ जाओगे। अगर तुम इस तरह अनुभव करने का प्रयास करोगे, तो तुम निश्चित रूप से फल प्राप्त करोगे। यह मायने नहीं रखता कि तुम कौन हो, तुम्हारी उम्र कितनी है, तुम कितने शिक्षित हो, तुमने कितने साल परमेश्वर में विश्वास किया है, या तुम कौन-सा कर्तव्य निभाते हो। अगर तुम्हारा रवैया खोजपूर्ण और आज्ञाकारिता का रहता है, अगर तुम इस तरह से अनुभव करते हो, तो अंतत: तुम्हारा सत्य को समझना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना निश्चित है। हालाँकि, अगर अपने साथ होने वाली हर चीज में तुम्हारा खोज और आज्ञाकारिता का रवैया नहीं रहता है, तो तुम सत्य को नहीं समझ पाओगे, न ही तुम सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

तुम्हें अक्सर परमेश्वर के सम्मुख आना चाहिए, उसके वचनों का खान-पान कर उस पर चिंतन-मनन करना चाहिए, उसके अनुशासन और मार्गदर्शन को स्वीकार करना चाहिए, और समर्पण का सबक सीखना चाहिए—यह बहुत जरूरी है। तुम्हें परमेश्वर द्वारा तैयार किए गए हर तरह के माहौल, लोगों, चीजों, और मामलों के सामने समर्पण करने में सक्षम होना चाहिए, और जब बात ऐसे मामलों की आए जिसकी थाह तक तुम न पहुँच सको, तो तुम्हें सत्य खोजते समय अक्सर प्रार्थना करनी चाहिए; केवल परमेश्वर की इच्छा को समझकर ही तुम आगे का रास्ता पा सकते हो। तुम्हें दिल से परमेश्वर का भय मानना चाहिए। तुम्हें अपना कार्य सावधानी और सतर्कता से करना चाहिए, और परमेश्वर के सामने समर्पण वाले दिल के साथ जीना चाहिए। उसके सामने अक्सर शांतचित्त होकर बैठो, स्वच्छंद न बनो। कम-से-कम, तुम्हारे साथ कुछ घटने पर, पहले मन को शांत करो, फिर फौरन प्रार्थना करो, और प्रार्थना, खोज और प्रतीक्षा करके परमेश्वर की इच्छा को समझो। क्या यह परमेश्वर का भय मानने का रवैया नहीं है? अगर तुम दिल से परमेश्वर का भय मानकर उसका आज्ञापालन करते हो, और उसके सामने शांतचित्त होने और उसकी इच्छा को समझने में सक्षम हो, तो इस तरह के सहयोग और अभ्यास से तुम्हारी रक्षा होगी, तुम प्रलोभित नहीं होगे, न ही ऐसा कुछ करोगे जिससे कलीसिया कार्य में गड़बड़ी या बाधा पैदा हो। जिन मामलों को तुम स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, उनका सत्य खोजो। आँखें बंद करके आलोचना या निंदा मत करो। इस प्रकार परमेश्वर तुमसे घृणा नहीं करेगा, तुम्हें नहीं ठुकराएगा। अगर तुम्हारे मन में परमेश्वर का भय है तो तुम उसका अपमान करने से डरोगे, और तुम्हारे सामने कोई प्रलोभन आए, तो तुम परमेश्वर के सामने भय और संशय के साथ जियोगे, और हर चीज में उसकी आज्ञा का पालन करने और उसे संतुष्ट करने की लालसा रखोगे। जब एक बार तुम ऐसा अभ्यास करके अक्सर ऐसी दशा में जीने में सक्षम हो जाओगे, अक्सर परमेश्वर के सामने शांतचित्त हो सकोगे, और अक्सर उसके सामने आ सकोगे, तो तुम अनजाने ही प्रलोभन और दुष्कर्मों से दूर रहोगे। परमेश्वर से भय मानने वाले दिल के बिना, या ऐसे दिल के साथ जो उसके सामने नहीं है, तुम कुछ दुष्कर्म करने में सक्षम होगे। तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है और तुम उसे काबू में नहीं रख सकते, तो तुम दुष्कर्म करने में सक्षम होगे। अगर तुम गड़बड़ी या बाधा खड़ी करनेवाले दुष्कर्म करते हो, तो क्या उसके परिणाम गंभीर नहीं होंगे? कम-से-कम तुम्हारा निपटान कर तुम्हें काटा-छाँटा जाएगा, और अगर तुम्हारा किया कुछ गंभीर है, तो परमेश्वर तुमसे घृणा कर तुम्हें ठुकरा देगा, और तुम्हें कलीसिया से निष्कासित कर दिया जाएगा। लेकिन, अगर तुम दिल से परमेश्वर के प्रति समर्पण कर दो, तुम्हारा दिल अक्सर परमेश्वर के सामने शांतचित्त हो सके, और तुम परमेश्वर का भय मानते और उससे आतंकित होते हो, तो तब क्या तुम बहुत-से दुष्कर्मों से बहुत दूर नहीं रहोगे? अगर तुम परमेश्वर का भय मानकर कहोगे, “मैं परमेश्वर से आतंकित हूँ; मैं उसका अपमान करने से डरता हूँ, उसके कार्य को बाधित करने और उसकी घृणा का पात्र बनने से डरता हूँ,” तो क्या यह तुम्हारे अपनाने के लिए एक सामान्य रवैया, एक सामान्य दशा नहीं है? वह क्या चीज है जो तुम्हारे मन में आतंक को जन्म देती है? तुम्हारा आतंक परमेश्वर का भय मानने से उपजा होगा। अगर तुम्हारे दिल में परमेश्वर का आतंक है, तो सामने दिखाई पड़ने पर तुम बुरी चीजों से दूर रहोगे, उनसे बचोगे, और इस तरह तुम्हारी रक्षा होगी। क्या दिल में परमेश्वर का आतंक बिठाए बिना कोई उसका भय मानेगा? क्या वे बुराई से दूर रहेंगे? (नहीं।) परमेश्वर का भय न मान सकनेवाले और उससे आतंकित न होनेवाले दिलेर लोग नहीं हैं? क्या दिलेर लोग संयमित रह सकते हैं? (नहीं।) और जो लोग संयम में नहीं रह सकते, क्या वे उस पल की गर्मी में कुछ भी नहीं कर गुजरते? जब लोग अपनी इच्छा, अपने उत्साह, और अपने भ्रष्ट स्वभाव से कर्म करते हैं, तो वे क्या-क्या चीजें करते हैं? परमेश्वर की दृष्टि में वे बुरी चीजें हैं। तो, तुम्हें स्पष्ट रूप से देखना चाहिए कि मनुष्य के दिल में परमेश्वर का भय होना एक अच्छी बात है—इसके साथ वह परमेश्वर का भय मान सकता है। जब किसी के दिल में परमेश्वर होता है, और वह परमेश्वर का भय मान सकता है, तो वह बुरी चीजों से बहुत दूर रहने में सक्षम होगा। ये ऐसे लोग होते हैं, जिन्हें बचाए जाने की आशा होती है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर का भय मानकर ही इंसान उद्धार के मार्ग पर चल सकता है

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