38. परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने तथा बचाए जाने में क्या संबंध है
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
अगर परमेश्वर पर विश्वास करते हुए लोग बचाए जाना चाहते हैं, तो मुख्य यह है कि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है या नहीं, उनके हृदय में परमेश्वर का स्थान है या नहीं, वे परमेश्वर के सामने जीने और उसके साथ सामान्य संबंध बनाए रखने में सक्षम हैं या नहीं। अहम यह है कि लोग सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर की आज्ञाकारिता प्राप्त करने में सक्षम हैं या नहीं। बचाए जाने के लिए ऐसी शर्तें और मार्ग हैं। अगर तुम्हारा हृदय परमेश्वर के सामने जीने में सक्षम नहीं है, अगर तुम परमेश्वर से अक्सर प्रार्थना और संगति नहीं करते, और परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध खो देते हो, तो तुम कभी बचाए नहीं जाओगे, क्योंकि तुमने उद्धार का मार्ग अवरुद्ध कर दिया है। अगर तुम्हारा परमेश्वर के साथ कोई संबंध नहीं है, तो तुम मार्ग के अंत पर पहुँच गए हो। अगर तुम्हारे दिल में परमेश्वर नहीं है, तो यह दावा करना बेकार है कि तुम आस्था रखते हो, परमेश्वर में केवल नाममात्र का विश्वास रखना बेकार है। तुम धर्म-सिद्धांत के चाहे जितने शब्द बोलने में सक्षम हो, परमेश्वर में आस्था के लिए तुमने चाहे जितने भी कष्ट सहे हों, या तुम चाहे जितने भी प्रतिभाशाली हो, कोई फर्क नहीं पड़ता; अगर परमेश्वर तुम्हारे दिल में नहीं है, और तुम परमेश्वर का भय नहीं मानते, तो तुम परमेश्वर पर कैसे भी विश्वास रखो, कोई फर्क नहीं पड़ता। परमेश्वर कहेगा, “जा, मुझसे दूर हो जा, कुकर्मी।” तुम्हें एक कुकर्मी के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा। तुम परमेश्वर से असंबद्ध कर दिए जाओगे; वह तुम्हारा प्रभु या तुम्हारा परमेश्वर नहीं होगा। हालाँकि तुम स्वीकार करते हो कि परमेश्वर सभी पर शासन करता है, और स्वीकार करते हो कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, मगर तुम उसकी आराधना नहीं करते, उसकी संप्रभुता के प्रति समर्पित नहीं होते। तुम शैतान और दानवों का अनुसरण करते हो, केवल शैतान और दानव ही तुम्हारे प्रभु हैं। अगर सभी चीजों में तुम खुद पर भरोसा करते हो, और अपनी ही इच्छा का पालन करते हो, अगर तुम मानते हो कि तुम्हारा भाग्य तुम्हारे अपने हाथों में है, तो तुम खुद में ही विश्वास रखते हो। भले ही तुम परमेश्वर पर विश्वास करने और उसे स्वीकार करने का दावा करते हो, मगर परमेश्वर तुम्हें स्वीकार नहीं करता। तुम्हारा परमेश्वर के साथ कोई संबंध नहीं है, और इसलिए तुम अंततः परमेश्वर द्वारा घृणा और अस्वीकार किए जाने, दंडित किए जाने, और उसके द्वारा निकाल दिए जाने के लिए नियत हो; परमेश्वर तुम जैसे लोगों को नहीं बचाता। परमेश्वर में वास्तव में विश्वास करने वाले वही लोग होते हैं, जो परमेश्वर को उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करते हैं, जो यह स्वीकार करते हैं कि वह सत्य, मार्ग और जीवन है। वे उसके लिए खुद को ईमानदारी से खपाने और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने में सक्षम होते हैं; वे परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं, वे उसके वचनों और सत्य का अभ्यास करते हैं, वे सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हैं। वे ऐसे लोग होते हैं जो परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का पालन करते हैं, और जो उसकी इच्छा का अनुसरण करते हैं। जब लोगों की परमेश्वर में ऐसी आस्था होती है, केवल तभी उन्हें बचाया जा सकता है; नहीं है, तो उनकी निंदा की जाएगी। क्या परमेश्वर में विश्वास रखनेवाले लोगों का खयाली पुलाव पकाना स्वीकार्य है? परमेश्वर में अपनी आस्था में, क्या लोग हमेशा अपनी धारणाओं और अस्पष्ट, अमूर्त कल्पनाओं से चिपके रहकर सत्य प्राप्त कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। जब लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो उन्हें सत्य को स्वीकार करना चाहिए, उसमें ऐसा विश्वास रखना चाहिए जैसा वह कहे, उन्हें उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए; केवल तभी वे उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है—तुम कुछ भी करो, तुम्हें खयाली पुलाव नहीं पकाना चाहिए। इस विषय पर संगति करना लोगों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, है न? यह तुम लोगों के लिए एक चेतावनी है।
अब जबकि तुम लोगों ने ये संदेश सुन लिए हैं, तो तुम्हें सत्य समझ जाना चाहिए और इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि उद्धार में क्या शामिल है। लोग क्या पसंद करते हैं, किस चीज के लिए प्रयास करते हैं, किस चीज के प्रति जुनूनी होते हैं—इनमें से कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। जो सबसे महत्वपूर्ण है, वह है सत्य स्वीकारना। अंतिम विश्लेषण में, सत्य प्राप्त करने में सक्षम होना सबसे महत्वपूर्ण है, और सही मार्ग वह है जो तुम्हें परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने दे सकता है। अगर तुमने कई वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास किया है और हमेशा उन चीजों की खोज पर ध्यान केंद्रित किया है जिनका सत्य से कोई संबंध नहीं, तो तुम्हारी आस्था का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है। तुम परमेश्वर पर विश्वास करने और उसे स्वीकार करने का दावा कर सकते हो, लेकिन परमेश्वर तुम्हारा प्रभु नहीं है, वह तुम्हारा परमेश्वर नहीं है, तुम यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर तुम्हारे भाग्य को नियंत्रित करता है, तुम उस सबके प्रति समर्पित नहीं होते जिसकी परमेश्वर तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है, तुम यह तथ्य स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर सत्य है—ऐसी स्थिति में तुम्हारी उद्धार की आशाएँ चूर-चूर हो गई हैं; अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर नहीं चल सकते, तो तुम विनाश के मार्ग पर चलते हो। अगर हर वह चीज, जिसका तुम अनुसरण करते हो, जिस पर ध्यान केंद्रित करते हो, जिसके बारे में प्रार्थना करते हो, और जिसके लिए अपील करते हो, परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं पर आधारित है, और अगर तुम्हें अधिकाधिक यह लगता है कि तुम सृष्टिकर्ता का आज्ञापालन और उसकी आराधना करते हो, और महसूस करते हो कि परमेश्वर तुम्हारा प्रभु, तुम्हारा परमेश्वर है, अगर तुम उस सबका पालन करने में अधिकाधिक प्रसन्न होते हो जिसका परमेश्वर तुम्हारे लिए आयोजन और व्यवस्था करता है, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता पहले से ज्यादा घनिष्ठ, ज्यादा सामान्य होता है, और अगर परमेश्वर के प्रति तुम्हारा प्रेम और अधिक शुद्ध और सच्चा होता है, तो परमेश्वर के बारे में तुम्हारी शिकायतें और गलतफहमियाँ, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी फालतू इच्छाएँ हमेशा कम होती जाएँगी, और तुम पूरी तरह से परमेश्वर का भय मानने लगोगे और बुराई से दूर हो जाओगे, जिसका अर्थ है कि तुम पहले से ही उद्धार के मार्ग पर कदम रख चुके होगे। हालाँकि उद्धार के मार्ग पर चलना परमेश्वर के अनुशासन, काट-छाँट, निपटान, न्याय और ताड़ना के साथ आता है, और इनके कारण तुम्हें बहुत पीड़ा होती है, लेकिन यह परमेश्वर का प्रेम है जो तुम पर आ रहा है। अगर परमेश्वर में विश्वास रखते हुए तुम केवल आशीष पाना चाहते हो, केवल हैसियत, प्रतिष्ठा और लाभ के पीछे दौड़ते हो, और कभी अनुशासित नहीं किए जाते, या काटे-छाँटे नहीं जाते, या न्याय और ताड़ना नहीं पाते, तो भले ही तुम्हारा जीवन आसान हो, लेकिन तुम्हारा हृदय परमेश्वर से और अधिक दूर होता जाएगा, तुम परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध खो दोगे, और तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करने के लिए भी तैयार नहीं होगे; तुम खुद अपना मालिक बनना चाहोगे—इन सबसे साबित होता है कि जिस मार्ग पर तुम चलते हो, वह उचित मार्ग नहीं है। अगर तुमने कुछ समय तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है और तुम्हें इसका अधिकाधिक एहसास होता है कि मानवजाति कितनी गहराई तक भ्रष्ट और परमेश्वर का विरोध करने में कितनी प्रवृत्त है, और अगर तुम इस बात से चिंतित रहते हो कि शायद किसी दिन तुम कुछ ऐसा कर दोगे जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है, और इस संभावना से डरते हो कि तुम परमेश्वर को अपमान कर दोगे और उसके द्वारा त्याग दिए जाओगे, और इस तरह तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर का प्रतिरोध करने से ज्यादा भयानक कुछ नहीं, तो तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होगा। तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर में विश्वास रखते समय लोगों को परमेश्वर से भटकना नहीं चाहिए; अगर वे परमेश्वर से भटक जाते हैं, अगर वे परमेश्वर के अनुशासन से, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से भटक जाते हैं, तो यह परमेश्वर की सुरक्षा और देखभाल खोने के बराबर है, परमेश्वर के आशीष खोने के बराबर है, और यह लोगों के लिए सब-कुछ खत्म हो जाना है; वे केवल और अधिक भ्रष्ट हो सकते हैं, वे धार्मिक जगत के लोगों की तरह हो जाएँगे, और उनके द्वारा अभी भी परमेश्वर पर विश्वास करते हुए परमेश्वर का विरोध करने की संभावना होगी—और इससे वे मसीह-विरोधी बन गए होंगे। अगर तुम इसे महसूस कर सकते हो, तो तुम परमेश्वर से प्रार्थना करोगे, “हे परमेश्वर! कृपया मेरा न्याय करो और मुझे ताड़ना दो। मैं विनती करता हूँ कि मैं जो कुछ भी करूँ, उसमें तुम मुझ पर नजर रखो। अगर मैं कुछ ऐसा करूँ, जो सत्य का उल्लंघन करता हो, तुम्हारी इच्छा का उल्लंघन करता हो, तो मेरा गंभीर रूप से न्याय कर मुझे दंडित करो—मैं तुम्हारे न्याय और ताड़ना के बिना नहीं रह सकता।” यह सही मार्ग है, जिस पर लोगों को परमेश्वर में अपनी आस्था में चलना चाहिए।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर का भय मानकर ही इंसान उद्धार के मार्ग पर चल सकता है
एक कहावत है जिस पर तुम लोगों को ध्यान देना चाहिए। मेरा मानना है कि यह कहावत अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह मेरे मन में हर दिन अनेक बार आती है। ऐसा क्यों है? इसलिए क्योंकि जब भी किसी से मेरा सामना होता है, जब भी किसी की कहानी सुनता हूँ, मैं जब भी किसी के अनुभव या परमेश्वर में विश्वास करने की उसकी गवाही सुनता हूँ, तो मैं अपने मन में इस बात का निर्णय करने के लिए कि यह व्यक्ति उस प्रकार का व्यक्ति है या नहीं जिसे परमेश्वर चाहता है, या जिसे परमेश्वर पसंद करता है, मैं इस कहावत का उपयोग करता हूँ। तो, वह कहावत क्या है? तुम सभी लोग पूरी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे हो। जब मैं वो कहावत तुम्हें बताऊँगा, तो शायद तुम्हें निराशा हो, क्योंकि कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इससे वर्षों से दिखावटी प्रेम दिखाते आ रहे हैं। किन्तु जहाँ तक मेरी बात है, मैंने इससे कभी भी दिखावटी प्रेम नहीं किया। यह कहावत मेरे दिल में बसी हुई है। तो वह कहावत क्या है? वो है : “परमेश्वर के मार्ग पर चलो : परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो।” क्या यह बहुत ही सरल वाक्यांश नहीं है? हालाँकि यह कहावत सरल हो सकती है, तब भी कोई व्यक्ति जिसमें असल में इसकी गहरी समझ है, वह महसूस करेगा कि इसका बड़ा महत्व है, अभ्यास में इसका बड़ा मूल्य है; यह जीवन की भाषा से एक पंक्ति है जिसमें सत्य वास्तविकता निहित है, जो लोग परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहते हैं, यह उनके लिए जीवन भर का लक्ष्य है, यह ऐसे व्यक्ति के लिए अनुसरण करने योग्य जीवन भर का मार्ग है जो परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील है। ... इस कहावत के बारे में तुम लोगों की वर्तमान समझ चाहे कुछ भी क्यों न हो, या तुम इससे कैसे भी पेश क्यों न आओ, मैं तब भी तुम लोगों को यह बताऊँगा : यदि लोग इस कहावत के शब्दों को अभ्यास में ला सकें, उनका अनुभव कर सकें, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मानक को प्राप्त कर सकें, तो वे लोग जीवित बचे रहेंगे और यकीनन उनके परिणाम अच्छे होंगे। यदि तुम इस कहावत के द्वारा तय मानक को पूरा न कर पाओ, तो ऐसा कहा जा सकता है कि तुम्हारा परिणाम अज्ञात है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें
अपने कार्य के हर युग में परमेश्वर लोगों को कुछ वचन प्रदान करता है और उन्हें कुछ सत्य बताता है। ये सत्य ऐसे मार्ग के रूप में कार्य करते हैं जिसके मुताबिक मनुष्य को चलना चाहिए, जिस पर मनुष्य को चलना चाहिए, ऐसा मार्ग जो मनुष्य को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम बनाता है, ऐसा मार्ग जिसे मनुष्य को अभ्यास में लाना चाहिए और अपने जीवन में और अपनी जीवन यात्राओं के दौरान उसके मुताबिक चलना चाहिए। इन्हीं कारणों से परमेश्वर इन वचनों को मनुष्य को प्रदान करता है। ये वचन जो परमेश्वर से आते हैं उनके मुताबिक ही मनुष्य को चलना चाहिए, और उनके मुताबिक चलना ही जीवन पाना है। यदि कोई व्यक्ति उनके मुताबिक नहीं चलता, उन्हें अभ्यास में नहीं लाता, और अपने जीवन में परमेश्वर के वचनों को नहीं जीता, तो वह व्यक्ति सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहा है। यदि लोग सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहे हैं, तो वे परमेश्वर का भय नहीं मान रहे हैं और बुराई से दूर नहीं रह रहे हैं, और न ही वे परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं। यदि कोई परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर पाता, तो वह परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त नहीं कर सकता, ऐसे लोगों का कोई परिणाम नहीं होता।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें
वह सब जो परमेश्वर करता है आवश्यक है और असाधारण महत्व रखता है, क्योंकि वह मनुष्य में जो कुछ करता है उसका सरोकार उसके प्रबंधन और मनुष्यजाति के उद्धार से है। स्वाभाविक रूप से, परमेश्वर ने अय्यूब में जो कार्य किया वह भी कोई भिन्न नहीं है, फिर भले ही परमेश्वर की नजरों में अय्यूब पूर्ण और खरा था। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर चाहे जो करता हो या वह जो करता है उसे चाहे जिन उपायों से करता हो, क़ीमत चाहे जो हो, उसका ध्येय चाहे जो हो, किंतु उसके कार्यकलापों का उद्देश्य नहीं बदलता है। उसका उद्देश्य है मनुष्य में परमेश्वर के वचनों, और साथ ही मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके प्रति परमेश्वर के इरादों को आकार देना; दूसरे शब्दों में, यह मनुष्य के भीतर उस सबको आकार देना है जिसे परमेश्वर अपने सोपानों के अनुसार सकारात्मक मानता है, जो मनुष्य को परमेश्वर का हृदय समझने और परमेश्वर का सार बूझने में समर्थ बनाता है, और मनुष्य को परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने देता है, इस प्रकार मनुष्य को परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना प्राप्त करने देता है—यह सब परमेश्वर जो करता है उसमें निहित उसके उद्देश्य का एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि चूँकि शैतान परमेश्वर के कार्य में विषमता और सेवा की वस्तु है, इसलिए मनुष्य प्रायः शैतान को दिया जाता है; यह वह साधन है जिसका उपयोग परमेश्वर लोगों को शैतान के प्रलोभनों और हमलों में शैतान की दुष्टता, कुरूपता और घृणास्पदता को देखने देने के लिए करता है, इस प्रकार लोगों में शैतान के प्रति घृणा उपजाता है और उन्हें वह जानने और पहचानने में समर्थ बनाता जो नकारात्मक है। यह प्रक्रिया उन्हें शैतान के नियंत्रण से और आरोपों, विघ्नों और हमलों से धीरे-धीरे स्वयं को स्वतंत्र करने देती है—जब तक कि परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर के प्रति अपने ज्ञान और समर्पण, और परमेश्वर के प्रति अपनी आस्था और परमेश्वर का भय मानने की बदौलत वे शैतान के हमलों और आरोपों पर विजय नहीं पा लेते हैं; केवल तभी वे शैतान की सत्ता से पूर्णतः मुक्त कर दिए गए होंगे। लोगों की मुक्ति का अर्थ है कि शैतान को हरा दिया गया है; इसका अर्थ है कि वे अब और शैतान के मुँह का भोजन नहीं हैं—उन्हें निगलने के बजाय, शैतान ने उन्हें छोड़ दिया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसे लोग खरे हैं, क्योंकि उनमें परमेश्वर के प्रति आस्था, समर्पण और भय है, और क्योंकि उन्होंने शैतान के साथ पूरी तरह नाता तोड़ लिया है। वे शैतान को लज्जित करते हैं, वे शैतान को कायर बना देते हैं, और वे शैतान को पूरी तरह हरा देते हैं। परमेश्वर का अनुसरण करने में उनका दृढ़विश्वास, और परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसका भय शैतान को हरा देता है, और उन्हें पूरी तरह छोड़ देने के लिए शैतान को विवश कर देता है। केवल इस जैसे लोग ही परमेश्वर द्वारा सच में प्राप्त किए गए हैं, और यही मनुष्य को बचाने में परमेश्वर का चरम उद्देश्य है। यदि वे बचाए जाना चाहते हैं, और परमेश्वर द्वारा पूरी तरह प्राप्त किए जाना चाहते हैं, तो उन सभी को जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं शैतान के बड़े और छोटे दोनों प्रलोभनों और हमलों का सामना करना ही चाहिए। जो लोग इन प्रलोभनों और हमलों से उभरकर निकलते हैं और शैतान को पूरी तरह परास्त कर पाते हैं ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर द्वारा बचा लिया गया है। कहने का तात्पर्य यह, वे लोग जिन्हें परमेश्वर पर्यंत बचा लिया गया है ये वे लोग हैं जो परमेश्वर की परीक्षाओं से गुजर चुके हैं, और अनगिनत बार शैतान द्वारा लुभाए और हमला किए जा चुके हैं। वे जिन्हें परमेश्वर पर्यंत बचा लिया गया है परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं को समझते हैं, और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर पाते हैं, और वे शैतान के प्रलोभनों के बीच परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को नहीं छोड़ते हैं। वे जिन्हें परमेश्वर पर्यंत बचा लिया गया है वे ईमानदारी से युक्त हैं, वे उदार हृदय हैं, वे प्रेम और घृणा के बीच अंतर करते हैं, उनमें न्याय की समझ है और वे तर्कसंगत हैं, और वे परमेश्वर की परवाह कर पाते और वह सब जो परमेश्वर का है सँजोकर रख पाते हैं। ऐसे लोग शैतान की बाध्यता, जासूसी, दोषारोपण या दुर्व्यवहार के अधीन नहीं होते हैं, वे पूरी तरह स्वतंत्र हैं, उन्हें पूरी तरह मुक्त और रिहा कर दिया गया है। अय्यूब बिल्कुल ऐसा ही स्वतंत्र मनुष्य था, और ठीक यही परमेश्वर द्वारा उसे शैतान को सौंपे जाने का महत्व था।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II
जब परमेश्वर किसी का हृदय पाना चाहता है, तो वह उसकी अनगिनत परीक्षाएँ लेता है। इन परीक्षणों के दौरान, यदि परमेश्वर उस व्यक्ति के हृदय को नहीं पाता है, या वह उस व्यक्ति में किसी तरह की प्रवृति नहीं देखता—यानी वह उस व्यक्ति को उस तरह से अभ्यास या व्यवहार करते नहीं देखता जिससे परमेश्वर के प्रति उसका भय नजर आए, और अगर उसे उस व्यक्ति में बुराई से दूर रहने की प्रवृत्ति तथा दृढ़ता नजर न आए—तो अनगिनत परीक्षणों के बाद, ऐसे व्यक्ति के प्रति परमेश्वर का धैर्य टूट जाएगा, और वह उसे बर्दाश्त नहीं करेगा, उसका परीक्षण नहीं लेगा और उस पर कार्य नहीं करेगा। तो उस व्यक्ति के परिणाम के लिए इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि उसका कोई परिणाम नहीं होगा। संभव है ऐसे व्यक्ति ने कुछ बुरा न किया हो; संभव है उसने कोई रुकावट या परेशानी पैदा करने के लिए कुछ न किया हो। शायद उसने खुलकर परमेश्वर का प्रतिरोध न किया हो। लेकिन ऐसे व्यक्ति का हृदय परमेश्वर से छिपा रहता है; परमेश्वर के प्रति उसकी प्रवृत्ति और दृष्टिकोण कभी स्पष्ट नहीं रहा है, परमेश्वर स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता कि उसका हृदय परमेश्वर को दिया गया है या नहीं या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने का प्रयास कर रहा है या नहीं? ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर का धैर्य जवाब देने लगता है, और अब वह उनके लिए कोई कीमत नहीं चुकायेगा, वह उन पर दया नहीं करेगा, या उन पर कार्य नहीं करेगा। ऐसे व्यक्ति के परमेश्वर में विश्वास का जीवन पहले ही समाप्त हो चुका होता है। क्योंकि उन सभी परीक्षणों में जो परमेश्वर ने इस व्यक्ति को दिए हैं, परमेश्वर ने वह परिणाम प्राप्त नहीं किया जो वह चाहता है। इस प्रकार, ऐसे बहुत से लोग हैं जिनमें मैंने कभी भी पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी नहीं देखी। इसे देखना कैसे संभव है? शायद इस प्रकार के व्यक्तियों ने बहुत वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया हो, और सतही तौर पर वे बहुत सक्रिय रहे हों, उनका व्यवहार काफी जोशीला रहा हो; उन्होंने बहुत-सी पुस्तकें पढ़ी हों, बहुत से मामलों को सँभाला हो, दर्जनों नोटबुक भर दी हों, और बहुत से वचनों और सिद्धान्तों पर महारत हासिल कर ली हो। लेकिन, उनमें कभी कोई स्पष्ट प्रगति नहीं हुई, परमेश्वर के प्रति उनका दृष्टिकोण अदृश्य रहता है, और उनकी प्रवृत्ति अभी भी अस्पष्ट है। यानी ऐसे व्यक्तियों के हृदय को नहीं देखा जा सकता; वे हमेशा ढके हुए और सीलबंद लिफाफे की तरह रहते हैं—वे परमेश्वर के प्रति सीलबंद रहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि परमेश्वर ने उनके सच्चे हृदय को कभी देखा ही नहीं होता, उसने अपने प्रति ऐसे लोगों में सच्चा भय कभी देखा ही नहीं, और तो और उसने कभी नहीं देखा कि ऐसे लोग परमेश्वर के मार्ग पर कैसे चलते हैं। यदि अब तक भी परमेश्वर ने ऐसे व्यक्ति को प्राप्त नहीं किया है, तो क्या वह उन्हें भविष्य में प्राप्त कर सकता है? नहीं! क्या परमेश्वर उन चीजों के लिए प्रयास करता रहेगा जिन्हें प्राप्त नहीं किया जा सकता? नहीं! तब ऐसे लोगों के प्रति आज परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है? (वह उन्हें ठुकरा देता है, उन पर ध्यान नहीं देता।) वह उन्हें अनदेखा कर देता है!
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें
परमेश्वर भय माने जाने और समर्पण करने योग्य है, क्योंकि उसका अस्तित्व और उसका स्वभाव सृजित प्राणियों के समान नहीं है, ये सृजित प्राणियों से ऊपर हैं। परमेश्वर स्व-अस्तित्वधारी, चिरकालीन और असृजित प्राणी है, और केवल परमेश्वर ही भय और समर्पण के योग्य है; मनुष्य इसके योग्य नहीं है। इसलिए, जिन लोगों ने उसके कार्य का अनुभव किया है और जिन्होंने सचमुच में उसे जाना है, उनमें उसका भय मानने वाला हृदय उत्पन्न होता है। लेकिन, जो लोग उसके बारे में अपनी धारणाएँ नहीं छोड़ते—जो उसे परमेश्वर मानते ही नहीं—उनके पास उसका भय मानने वाला हृदय नहीं होता, हालाँकि वे उसका अनुसरण करते हैं फिर भी उन्हें जीता नहीं जाता; वे प्रकृति से ही विद्रोही लोग हैं। वह ऐसे परिणाम को प्राप्त करने के लिए इस कार्य को करता है ताकि सभी सृजित प्राणी सृजनकर्ता का भय मानें, उसकी आराधना करें, और बिना किसी शर्त के उसके प्रभुत्व के अधीन समर्पण कर सकें। उसके समस्त कार्य का लक्ष्य इसी अंतिम परिणाम को हासिल करना है। यदि जिन लोगों ने ऐसे कार्य का अनुभव कर लिया है, उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, यदि अतीत का उनका विद्रोहीपन बिल्कुल भी नहीं बदलता है, तो उन्हें निश्चित ही हटा दिया जाएगा। यदि परमेश्वर के प्रति किसी व्यक्ति की प्रवृत्ति केवल दूर से ही प्रशंसा करना या सम्मान प्रकट करना है और जरा-सा भी प्रेम करना नहीं है, तो यह वो परिणाम है जिस पर वह व्यक्ति आ पहुँचा है जिसके पास परमेश्वर-प्रेमी हृदय नहीं है, और उस व्यक्ति में पूर्ण किए जाने की शर्तों का अभाव है। यदि इतना अधिक कार्य भी किसी व्यक्ति के सच्चे प्रेम को प्राप्त करने में असमर्थ है, तो इसका अर्थ है उस व्यक्ति ने परमेश्वर को प्राप्त नहीं किया है और वह असल में सत्य की खोज नहीं कर रहा। जो व्यक्ति परमेश्वर से प्रेम नहीं करता, वह सत्य से भी प्रेम नहीं करता और इस तरह वह परमेश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता, वह परमेश्वर की स्वीकृति तो बिल्कुल भी प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसे लोग, पवित्र आत्मा के कार्य का अनुभव चाहे जैसे कर लें, और न्याय का चाहे जैसे अनुभव कर लें, वे परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं रख पाते। ऐसे लोगों की प्रकृति अपरिवर्तनीय होती है, और उनका स्वभाव अत्यंत कुत्सित होता है। जिन लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं है, उन्हें हटा दिया जाएगा, वे दण्ड के पात्र बनेंगे, और उन्हें उसी तरह दण्ड दिया जाएगा जैसे दुष्टों को दिया जाता है, और ऐसे लोग उनसे भी अधिक कष्ट सहेंगे जिन्होंने अधार्मिक कर्म किए हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य
परमेश्वर में विश्वास रखते हुए अगर लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल न हो, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल न हो, तो ऐसे लोग न सिर्फ परमेश्वर के लिए कोई कार्य कर पाने में असमर्थ होंगे, बल्कि वे परमेश्वर के कार्य में बाधा डालने वाले और उसकी उपेक्षा करने वाले लोग बन जाएंगे। परमेश्वर में विश्वास करना किन्तु उसके प्रति समर्पण न करना या उसका भय न मानना और उसका प्रतिरोध करना, किसी भी विश्वासी के लिए सबसे बड़ा कलंक है। यदि विश्वासी अपनी वाणी और आचरण में हमेशा ठीक उसी तरह लापरवाह और असंयमित हों जैसे अविश्वासी होते हैं, तो ऐसे लोग अविश्वासी से भी अधिक दुष्ट होते हैं; ये मूल रूप से राक्षस हैं। जो लोग कलीसिया के भीतर विषैली, दुर्भावनापूर्ण बातों का गुबार निकालते हैं, भाई-बहनों के बीच अफवाहें व अशांति फैलाते हैं और गुटबाजी करते हैं, तो ऐसे सभी लोगों को कलीसिया से निकाल दिया जाना चाहिए था। अब चूँकि यह परमेश्वर के कार्य का एक भिन्न युग है, इसलिए ऐसे लोग नियंत्रित हैं, क्योंकि उन्हें निश्चित रूप से बाहर निकाला जाना है। शैतान द्वारा भ्रष्ट ऐसे सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं। कुछ के स्वभाव पूरी तरह से भ्रष्ट हैं, जबकि अन्य लोग इनसे भिन्न हैं : न केवल उनके स्वभाव शैतानी हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भी बेहद विद्वेषपूर्ण है। उनके शब्द और कृत्य न केवल उनके भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव को प्रकट करते हैं, बल्कि ये लोग असली दानव और शैतान हैं। उनके आचरण से परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी और विघ्न पैदा होता है; इससे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में विघ्न पड़ता है और कलीसिया के सामान्य कार्यकलापों को क्षति पहुंचती है। आज नहीं तो कल, भेड़ की खाल में छिपे इन भेड़ियों का सफाया किया जाना चाहिए, और शैतान के इन अनुचरों के प्रति एक सख्त और अस्वीकृति का रवैया अपनाया जाना चाहिए। केवल ऐसा करना ही परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना है; और जो ऐसा करने में विफल हैं वे शैतान के साथ कीचड़ में लोट रहे हैं। जो लोग सच्चे मन से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, परमेश्वर उनके हृदय में बसता है और उनके भीतर हमेशा परमेश्वर का भय मानने और उसे प्रेम करने वाला हृदय होता है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें सावधानी और समझदारी से कार्य करना चाहिए, और वे जो कुछ भी करें वह परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप होना चाहिये, उसके हृदय को संतुष्ट करने में सक्षम होना चाहिए। उन्हें मनमाने ढंग से कुछ भी करते हुए दुराग्रही नहीं होना चाहिए; ऐसा करना संतों की शिष्टता के अनुकूल नहीं होता। छल-प्रपंच में लिप्त चारों तरफ अपनी अकड़ में चलते हुए, सभी जगह परमेश्वर का ध्वज लहराते हुए लोग उन्मत्त होकर हिंसा पर उतारू न हों; यह बहुत ही विद्रोही प्रकार का आचरण है। परिवारों के अपने नियम होते हैं और राष्ट्रों के अपने कानून; क्या परमेश्वर के घर में यह बात और भी अधिक लागू नहीं होती? क्या इसके मानक और भी अधिक सख़्त नहीं हैं? क्या इसके पास प्रशासनिक आदेश और भी ज्यादा नहीं हैं? लोग जो चाहें वह करने के लिए स्वतंत्र हैं, परन्तु परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों को इच्छानुसार नहीं बदला जा सकता। परमेश्वर आखिर परमेश्वर है जो मानव के अपराध को सहन नहीं करता; वह परमेश्वर है जो लोगों को मौत की सजा देता है। क्या लोग यह सब पहले से ही नहीं जानते?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी
तुम्हारा बचाया जाना इस बात पर निर्भर नहीं है कि तुम कितने वरिष्ठ हो या तुम कितने साल से काम कर रहे हो, और इस बात पर तो बिल्कुल भी निर्भर नहीं है कि तुमने कितनी साख बना ली है। बल्कि इस बात पर निर्भर है कि क्या तुम्हारा लक्ष्य फलीभूत हुआ है। तुम्हें यह जानना चाहिए कि जिन्हें बचाया जाता है वे ऐसे “वृक्ष” होते हैं जिन पर फल लगते हैं, ऐसे वृक्ष नहीं जो हरी-भरी पत्तियों और फूलों से तो लदे होते हैं, लेकिन जिन पर फल नहीं आते। अगर तुम बरसों तक भी गलियों की खाक छानते रहे हो, तो उससे क्या फर्क पड़ता है? तुम्हारी गवाही कहाँ है? तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय, खुद से और अपनी वासनायुक्त कामनाओं से प्रेम करने वाले हृदय से कहीं कम है—क्या इस तरह का व्यक्ति पतित नहीं है? वे उद्धार के लिए नमूना और आदर्श कैसे हो सकते हैं? तुम्हारी प्रकृति सुधर नहीं सकती, तुम बहुत ही विद्रोही हो, तुम्हारा उद्धार नहीं हो सकता! क्या ऐसे लोगों को हटा नहीं दिया जाएगा? क्या मेरे काम के समाप्त हो जाने का समय तुम्हारा अंत आने का समय नहीं है? मैंने तुम लोगों के बीच बहुत सारा कार्य किया है और बहुत सारे वचन बोले हैं—इनमें से कितने सच में तुम लोगों के कानों में गए हैं? इनमें से कितनों के प्रति तुमने कभी समर्पण किया है? जब मेरा कार्य समाप्त होगा, तो यह वो समय होगा जब तुम मेरा विरोध करना बंद कर दोगे, तुम मेरे खिलाफ खड़ा होना बंद कर दोगे। जब मैं काम करता हूँ, तो तुम लोग लगातार मेरे खिलाफ काम करते रहते हो; तुम लोग कभी मेरे वचनों का अनुपालन नहीं करते। मैं अपना कार्य करता हूँ, और तुम अपना “काम” करते हो, और अपना छोटा-सा राज्य बनाते हो। तुम लोग लोमड़ियों और कुत्तों से कम नहीं हो, सब-कुछ मेरे विरोध में कर रहे हो! तुम लगातार उन्हें अपने आगोश में लाने का प्रयास कर रहे हो जो तुम्हें अपना अविभक्त प्रेम समर्पित करते हैं—तुम लोगों का भय मानने वाला हृदय कहाँ है? तुम्हारा हर काम कपट से भरा होता है! तुम्हारे अंदर न समर्पण है, न भय है, तुम्हारा हर काम कपटपूर्ण और ईश-निंदा करने वाला होता है! क्या ऐसे लोगों को बचाया जा सकता है? जो पुरुष यौन-संबंधों में अनैतिक और लम्पट होते हैं, वे हमेशा कामोत्तेजक वेश्याओं को आकर्षित करके उनके साथ मौज-मस्ती करना चाहते हैं। मैं ऐसे काम-वासना में लिप्त अनैतिक राक्षसों को कतई नहीं बचाऊंगा। मैं तुम मलिन राक्षसों से घृणा करता हूँ, तुम्हारा व्यभिचार और तुम्हारी कामोत्तेजना तुम लोगों को नरक में धकेल देगी। तुम लोगों को अपने बारे में क्या कहना है? मलिन राक्षसो और दुष्ट आत्माओ, तुम लोग घिनौने हो! तुम निकृष्ट हो! ऐसे कूड़े-करकट को कैसे बचाया जा सकता है? क्या ऐसे लोगों को जो पाप में फँसे हुए हैं, उन्हें अब भी बचाया जा सकता है? आज, यह सत्य, यह मार्ग और यह जीवन तुम लोगों को आकर्षित नहीं करता; बल्कि, तुम लोग पाप की ओर, धन की ओर, रुतबे की ओर, शोहरत और लाभ की ओर आकर्षित होते हो; देह-सुख की ओर आकर्षित होते हो; सुंदर स्त्री-पुरुषों की ओर आकर्षित होते हो। मेरे राज्य में प्रवेश करने की तुम लोगों की क्या पात्रता है? तुम लोगों की छवि परमेश्वर से भी बड़ी है, तुम लोगों का रुतबा परमेश्वर से भी ऊँचा है, लोगों में तुम्हारी प्रतिष्ठा का तो कहना ही क्या—तुम लोग ऐसे आदर्श बन गए हो जिन्हें लोग पूजते हैं। क्या तुम प्रधान स्वर्गदूत नहीं बन गए हो? जब लोगों के परिणाम उजागर होते हैं, जो वो समय भी है जब उद्धार का कार्य समाप्ति के करीब होने लगेगा, तो तुम लोगों में से बहुत-से ऐसी लाश होंगे जो उद्धार से परे होंगे और जिन्हें हटा दिया जाना होगा। उद्धार-कार्य के दौरान, मैं सभी लोगों के प्रति दयालु और नेक होता हूँ। जब कार्य समाप्त होता है, तो अलग-अलग किस्म के लोगों का परिणाम प्रकट किया जाएगा, और उस समय, मैं दयालु और नेक नहीं रहूँगा, क्योंकि लोगों का परिणाम प्रकट हो चुका होगा, और हर एक को उसकी किस्म के अनुसार वर्गीकृत कर दिया गया होगा, फिर और अधिक उद्धार-कार्य करने का कोई मतलब नहीं होगा, क्योंकि उद्धार का युग गुजर चुका होगा, और गुजर जाने के बाद वह वापस नहीं आएगा।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (7)
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