36. परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे प्राप्त किया जा सकता है

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने से पहले मनुष्य स्वाभाविक रूप से परमेश्वर को समर्पित था और उसके वचनों को सुनने के बाद उनके प्रति समर्पण करता था। उसमें स्वाभाविक रूप से सही समझ और विवेक था, और उसमें सामान्य मानवता थी। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद उसकी मूल समझ, विवेक और मानवता मंद पड़ गई और शैतान द्वारा बिगाड़ दी गई। इस प्रकार, उसने परमेश्वर के प्रति अपना समर्पण और प्रेम खो दिया है। मनुष्य की समझ पथभ्रष्ट हो गई है, उसका स्वभाव जानवरों के स्वभाव के समान हो गया है, और परमेश्वर के प्रति उसकी विद्रोहशीलता और भी अधिक बढ़ गई है और गंभीर हो गई है। लेकिन मनुष्य इसे न तो जानता है और न ही पहचानता है, बस लगातार विरोध और विद्रोह करता है। मनुष्य का स्वभाव उसकी समझ, अंतर्दृष्टि और अंतःकरण की अभिव्यक्तियों में प्रकट होता है; और चूँकि उसकी समझ और अंतर्दृष्टि सही नहीं हैं, और उसका अंतःकरण अत्यंत मंद पड़ गया है, इसलिए उसका स्वभाव परमेश्वर के प्रति विद्रोही है। यदि मनुष्य की समझ और अंतर्दृष्टि बदल नहीं सकती, तो फिर उसके स्वभाव में परमेश्वर के इरादों के अनुरूप बदलाव होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यदि मनुष्य की समझ सही नहीं है, तो वह परमेश्वर की सेवा नहीं कर सकता और वह परमेश्वर द्वारा उपयोग के अयोग्य है। “सामान्य समझ” का अर्थ है परमेश्वर के प्रति समर्पण करना और उसके प्रति निष्ठावान होना, परमेश्वर के लिए तरसना, परमेश्वर के प्रति पूर्ण होना, और परमेश्वर के प्रति विवेकशील होना। यह परमेश्वर के साथ एकचित्त और एकमन होने को दर्शाता है, जानबूझकर परमेश्वर का विरोध करने को नहीं। पथभ्रष्ट समझ का होना ऐसा नहीं है। चूँकि मनुष्य शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया था, इसलिए उसने परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बना ली हैं, और उसमें परमेश्वर के लिए कोई निष्ठा या तड़प नहीं है, परमेश्वर के प्रति विवेकशीलता की तो बात ही छोड़ो। मनुष्य जानबूझकर परमेश्वर का विरोध करता और उस पर दोष लगाता है, और इसके अलावा, यह स्पष्ट रूप से जानते हुए भी कि वह परमेश्वर है, उसकी पीठ पीछे उस पर अपशब्दों की बौछार करता है। मनुष्य स्पष्ट रूप से जानता है कि वह परमेश्वर है, फिर भी उसकी पीठ पीछे उस पर दोष लगाता है; वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का कोई इरादा नहीं रखता, बस परमेश्वर से अंधाधुंध माँग और अनुरोध करता रहता है। ऐसे लोग—वे लोग जिनकी समझ भ्रष्ट होती है—अपने घृणित स्वभाव को जानने या अपनी विद्रोहशीलता पर पछतावा करने में अक्षम होते हैं। यदि लोग अपने आप को जानने में सक्षम होते हैं, तो उन्होंने अपनी समझ को थोड़ा-सा पुनः प्राप्त कर लिया होता है; परमेश्वर के प्रति अधिक विद्रोही लोग, जो अभी तक अपने आप को नहीं जान पाए, वे उतने ही कम समझदार होते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है

ऐसा इंसान परमेश्वर के प्रति समर्पण इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि वह अभी भी पहले के प्रभाव में है। जो चीजें पहले आईं, उन्होंने लोगों के बीच परमेश्वर के बारे में तमाम तरह की धारणाएँ और कल्पनाएँ पैदा कीं, और ये उनके दिमाग़ में परमेश्वर की छवि बन गई हैं। इस प्रकार, वे जिसमें विश्वास करते हैं, वह उनकी स्वयं की धारणाएँ और उनकी अपनी कल्पनाओं के मापदण्ड हैं। यदि तुम अपनी कल्पनाओं के परमेश्वर के सामने उस परमेश्वर को मापते हो जो आज व्यावहारिक कार्य करता है, तो तुम्हारा विश्वास शैतान से आता है, और तुम्हारी अपनी पसंद की वस्तु से दाग़दार है—परमेश्वर इस तरह का विश्वास नहीं चाहता। इस बात की परवाह किए बिना कि उनकी साख कितनी ऊंची है, और उनके समर्पण की परवाह किए बिना—भले ही उन्होंने उसके कार्य के लिए जीवनभर प्रयास किए हों, और अपनी जान कुर्बान कर दी हो—परमेश्वर इस तरह के विश्वास वाले किसी भी व्यक्ति को स्वीकृति नहीं देता। वह उनके ऊपर मात्र थोड़ा-सा अनुग्रह करता है और थोड़े समय के लिए उन्हें उसका आनन्द उठाने देता है। इस तरह के लोग सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होते हैं, पवित्र आत्मा उनके भीतर काम नहीं करता, परमेश्वर बारी-बारी से उन में प्रत्येक को निकाल देगा। चाहे कोई युवा हो या बुजुर्ग, ऐसे सभी लोग जो अपने विश्वास में परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते और जिनकी मंशाएँ ग़लत हैं, जो परमेश्वर के कार्य का विरोध करते और उसमें गड़बड़ी करते हैं, ऐसे लोगों को परमेश्वर यकीनन निकाल देगा। वे लोग जिनमें परमेश्वर के प्रति थोड़ा-सा भी समर्पण नहीं है, जो केवल उसका नाम स्वीकारते हैं, जिन्हें परमेश्वर की दयालुता और मनोरमता की थोड़ी-सी भी समझ है, फिर भी वे पवित्र आत्मा के कदमों के साथ तालमेल बनाकर नहीं चलते, और पवित्र आत्मा के वर्तमान कार्य एवं वचनों के प्रति समर्पण नहीं करते—ऐसे लोग परमेश्वर के अनुग्रह में रहते हैं, लेकिन उसके द्वारा प्राप्त नहीं किए या पूर्ण नहीं बनाए जाएँगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर में अपने विश्वास में तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए

अगर परमेश्वर को मानवजाति को बचाना है, तो एक तो उसे लोगों का न्याय कर उनके भ्रष्ट स्वभावों को स्वच्छ करने के लिए सत्य व्यक्त करना होगा; लोगों को सत्य समझकर परमेश्वर को जानने और उसके प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरित करना होगा; लोगों को सिखाना होगा कि उन्हें कैसे आचरण करना चाहिए और वे सही मार्ग पर कैसे चल सकते हैं; और लोगों को बताना होगा कि उन्हें सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए, वे अपना कर्तव्य कैसे अच्छी तरह से निभा सकते हैं और सत्य-वास्तविकताओं में कैसे प्रवेश कर सकते हैं। दूसरे, उसे शैतान के विचार और दृष्टिकोण उजागर करने होंगे। उसे उन विभिन्न पाखंडों और भ्रांतियों को उजागर कर उनका विश्लेषण करना होगा, जिनके द्वारा शैतान लोगों को भ्रष्ट करता है, ताकि लोग उन्हें पहचान सकें। तब लोग इन शैतानी चीजों को अपने दिलों से निकाल सकते हैं, स्वच्छ हो सकते हैं और उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह, लोग समझेंगे कि सत्य क्या है, और वे शैतान के स्वभाव, शैतान की प्रकृति और उसके पाखंड और भ्रांतियाँ भी पहचान पाएँगे। जब लोग स्वीकारते हैं कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और उनमें परमेश्वर का अनुसरण करने की आस्था होती है, तो वे अपने दिल की गहराई में शैतान की कुरूपता देख पाएँगे और वास्तव में शैतान को नकार देंगे। तब इन लोगों के हृदय पूरी तरह से परमेश्वर की ओर लौट सकते हैं। कम से कम, जब व्यक्ति का हृदय परमेश्वर की ओर लौटना शुरू कर रहा होता है, लेकिन अभी तक पूरी तरह से वापस नहीं लौटा होता, अर्थात् जब उसके हृदय में अभी तक सत्य नहीं होता, और अभी तक उसे परमेश्वर द्वारा प्राप्त नहीं किया गया होता, तो वह अपने जीवन में उन सभी कथनों को पहचानने, उनका विश्लेषण कर उन्हें समझने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करेगा, जिन्हें शैतान लोगों में भरता है, और अंततः शैतान को त्याग देगा। इस तरह, लोगों के दिलों में शैतान का स्थान लगातार घटते-घटते पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। उसकी जगह परमेश्वर के वचन, परमेश्वर से मिलीं शिक्षाएँ, परमेश्वर से मिले सत्य सिद्धांत इत्यादि ले लेंगे। सकारात्मकता और सत्य का यह जीवन धीरे-धीरे लोगों के भीतर जड़ें जमा लेगा और उनके दिलों में सबसे अहम जगह ले लेगा, और नतीजतन, लोगों के दिलों पर परमेश्वर का प्रभुत्व होगा। अर्थात्, जब लोगों को भ्रष्ट बनाने वाले विभिन्न शैतानी विचारों, दृष्टिकोणों, पाखंडों और भ्रांतियों को पहचानकर उनकी असलियत जान ली जाएगी, ताकि लोग उनका तिरस्कार और त्याग करें, तो सत्य धीरे-धीरे लोगों के दिलों पर कब्जा कर लेगा। वह धीरे-धीरे लोगों का जीवन बन जाएगा और वे सक्रिय रूप से परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसका अनुसरण करेंगे। परमेश्वर चाहे कैसे भी कार्य और अगुआई करे, लोग सक्रिय रूप से सत्य और परमेश्वर के वचन स्वीकारने और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम होंगे। इसके अलावा, इस अनुभव के माध्यम से वे सक्रिय रूप से सत्य के लिए प्रयास करेंगे और सत्य की समझ हासिल करेंगे। इसी तरह से लोग परमेश्वर में सच्ची आस्था विकसित करते हैं, और जैसे-जैसे सत्य उन्हें ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट होता जाता है, उनकी आस्था लगातार बढ़ती जाती है। जब लोगों में परमेश्वर में सच्ची आस्था होती है, तो इससे उनमें परमेश्वर का भय भी पैदा होता है। जब लोग परमेश्वर का भय मानते हैं, तो उनके दिल की गहराई में परमेश्वर को पाने और स्वेच्छा से उसके प्रभुत्व के प्रति समर्पित होने की इच्छा होती है। वे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति, और अपनी नियति के लिए परमेश्वर की योजनाओं के प्रति समर्पित होते हैं। वे परमेश्वर द्वारा उनके लिए निर्धारित हर दिन और हर विशेष परिस्थिति के प्रति समर्पित होते हैं। जब लोगों में ऐसी इच्छा और प्यास होती है, तो वे परमेश्वर की अपेक्षाओं को भी सक्रिय रूप से स्वीकार कर उनके प्रति समर्पित होते हैं। जब इसके नतीजे लोगों में ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट और ज्यादा से ज्यादा वास्तविक हो जाते हैं, तो शैतान के कथन, विचार और दृष्टिकोण लोगों के दिलों में अपना प्रभाव खो देते हैं। दूसरे शब्दों में, लोगों पर शैतान के कथनों, विचारों और दृष्टिकोणों का वश और प्रभाव घटता जाता है।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (15)

जब लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं, तो उसके वचनों के प्रभाव और मार्गदर्शन के माध्यम से वे वे मानवजाति की भ्रष्टता, दुष्टता और कुरूपता का मूल कारण औरसाथ ही परमेश्वर के प्रति मानवजाति के विरोध का सार समझने और खोजने लगते हैं, और इस प्रकार समझ जाते हैं कि मनुष्य परमेश्वर के साथ संगत क्यों नहीं हैं—क्योंकि मनुष्य का सार अंतर्निहित रूप से परमेश्वर के सार से असंगत है, जैसे पानी और तेल, जो कभी नहीं मिल सकते। वे केवल तभी एक हो सकते हैं, जब एक पक्ष का सार बदलकर दूसरे पक्ष के सार से मेल खाने लगे। तो सत्य व्यक्त करके परमेश्वर किसे बदलना चाहता है? मनुष्य को। परमेश्वर सत्य व्यक्त करके लोगों का न्याय करता है और उन्हें ताड़ना देता है, उनके भ्रष्ट स्वभावों और उनके भीतर की हर उस चीज को हल करता है जो सत्य के विपरीत है और परमेश्वर के साथ असंगत है, ताकि वे परमेश्वर के साथ संगत हो सकें और उनके भीतर की हर चीज सत्य के अनुरूप हो जाए। इस तरह लोगों और परमेश्वर के बीच कोई अवरोध नहीं होगा। यदि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव दूर नहीं किया जाता, तो तुम्हारी सतर्कता, गलतफहमी, अस्वीकृति, संदेह, शंका, यहां तक कि परमेश्वर के प्रति विद्रोह और निंदा जैसी समस्याओं का भी समाधान नहीं हो सकता। ये सभी वे चीजें हैं जो मानव-प्रकृति में रहती हैं; ये लोगों के लिए मूलभूत चीजें हैं। यदि ये भ्रष्ट स्वभाव इस मूलभूत स्तर पर ही हल कर दिए जाएँ, तो लोगों के लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान हो जाता है। यहां तक कि जब परमेश्वर जो कहता या करता है वह उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं होता, तो भी वे उसकी आलोचना या निंदा नहीं करते। अगर उन्हें मरना और नरक में जाना भी पड़े, तो भी वे परमेश्वर के खिलाफ शिकायत नहीं करेंगे, बल्कि यह मानते हुए कि वे दंड के पात्र हैं, सत्य का अनुसरण न करने के लिए वे अपने आप से घृणा करेंगे। केवल ऐसे लोग ही वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं और उनके और परमेश्वर के बीच कोई अवरोध नहीं होता। वे सत्य समझते हैं, उनकी भ्रष्टता साफ की जा चुकी होती है, और वे परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं और फिर कभी धारणाएं, विद्रोह या प्रतिरोध नहीं रखते। तब वे परमेश्वर के साथ संगत हो सकते हैं और सत्य को अपने जीवन के रूप में अपनाकर परमेश्वर के साथ संगत जीवन जीते हैं। इसी जीवन में परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण और परमेश्वर की सच्ची आराधना होती है।

—परमेश्वर की संगति

समर्पण का सबक सीखने के लिए किस भ्रष्ट स्वभाव का समाधान किया जाना चाहिए? यह वास्तव में अहंकार और आत्म-तुष्टि का स्वभाव है, जो लोगों के सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सबसे बड़ी बाधा है। अहंकारी और आत्म-तुष्ट स्वभाव वाले लोग तर्क-वितर्क और अवज्ञा करने में सबसे अधिक प्रवृत्त होते हैं, वे हमेशा सोचते हैं कि वे सही हैं, इसलिए उनके अहंकारी और आत्म-तुष्ट स्वभाव का समाधान करने और उनकी काट-छाँट करने से ज्यादा जरूरी कुछ नहीं है। जब लोग अच्छे व्यवहार वाले हो जाएँगे और अपने लिए तर्क देने बंद कर देंगे तो विद्रोहीपन की समस्या हल हो जाएगी और वे समर्पित बनने में समर्थ हो जाएंगे। अगर लोगों को समर्पित बनने में सक्षम होना है, तो क्या उनमें कुछ हद तक तार्किकता होनी आवश्यक नहीं है? उनमें एक सामान्य व्यक्ति की समझ होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, कुछ मामलों में हमने चाहे सही काम किया हो या नहीं, अगर परमेश्वर संतुष्ट नहीं है, तो हमें वही करना चाहिए जैसा परमेश्वर कहता है और उसके वचनों को हर चीज के लिए मानक मानना चाहिए। क्या यह तर्कसंगत है? लोगों में ऐसी समझ का होना सबसे जरूरी है। हम चाहे कितना भी कष्ट उठाएँ, चाहे हमारे इरादे, उद्देश्य और कारण कुछ भी हों, यदि परमेश्वर संतुष्ट नहीं है—यदि उसकी अपेक्षाएँ पूरी नहीं हुई हैं—तो हमारे कार्य निस्संदेह सत्य के अनुरूप नहीं हैं, इसलिए हमें परमेश्वर की बात मानकर उसके प्रति समर्पण करना चाहिए और उसके साथ बहस या तर्क करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। जब तुममें ऐसी तार्किकता होगी, एक सामान्य व्यक्ति की समझ होगी, तो तुम्हारे लिए अपनी समस्याएँ हल करना आसान होगा, और तुम सच में आज्ञाकारी हो जाओगे। चाहे तुम किसी भी स्थिति में हो, तुम विद्रोही नहीं बनोगे और परमेश्वर की अपेक्षाओं की अवहेलना नहीं करोगे; तुम यह विश्लेषण नहीं करोगे कि परमेश्वर जो चाहता है वह सही है या गलत, अच्छा है या बुरा, और तुम आज्ञापालन कर पाओगे—इस तरह तुम अपनी तर्क-वितर्क, हठधर्मिता और विद्रोह की स्थिति को हल कर सकते हो। क्या सबके भीतर ऐसी विद्रोही स्थिति होती है? लोगों में अक्सर ये अवस्थाएँ दिखाई देती हैं और वे सोचते हैं, “अगर मेरा दृष्टिकोण, प्रस्ताव और सुझाव विवेकपूर्ण है, तो भले ही मैं सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करूँ, मेरी काट-छाँट नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि मैंने कोई दुष्कर्म नहीं किए हैं।” यह लोगों में एक सामान्य अवस्था होती है। उनका यह नजरिया होता है कि अगर उन्होंने कोई दुष्कर्म नहीं किया है, तो उनकी काट-छाँट नहीं की जानी चाहिए; केवल उन्हीं लोगों की काट-छाँट की जानी चाहिए, जिन्होंने दुष्कर्म किया हो। क्या यह नजरिया सही है? निश्चित रूप से नहीं। काट-छाँट के निशाने पर मुख्य रूप से लोगों के भ्रष्ट स्वभाव होते हैं। अगर किसी का स्वभाव भ्रष्ट है तो उसकी काट-छाँट की जानी चाहिए। अगर उसकी काट-छाँट केवल दुष्कर्म करने के बाद ही की जाए, तो बहुत देर हो चुकी होगी, क्योंकि मुसीबत पहले ही खड़ी हो चुकी होगी। अगर परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँची है, तो तुम संकट में हो, परमेश्वर तुम्हारे भीतर काम करना बंद कर सकता है—उस हालत में, तुम्हारी काट-छाँट करने का क्या तुक है? तुम्हारा खुलासा कर तुम्हें हटाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। लोगों को परमेश्वर के प्रति समर्पण करने से रोकने वाली मुख्य कठिनाई उनका अहंकारी स्वभाव है। अगर लोग वास्तव में न्याय और ताड़ना स्वीकार कर पाएँ, तो वे अपने अहंकारी स्वभाव का प्रभावी ढंग से समाधान कर पाएँगे। उसका समाधान वे चाहे जिस हद तक भी कर पाए हों, यह सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में लाभकारी है। न्याय और ताड़ना स्वीकारना सर्वोपरि है, ताकि अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कर सकें, ताकि परमेश्वर द्वारा बचाए लिए जाएँ। और अगर लोग वास्तव में परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण प्राप्त करने में सक्षम हों, तो क्या उन्हें अभी भी न्याय और ताड़ना का अनुभव करने की आवश्यकता है? क्या उन्हें अभी भी काट-छाँट का अनुभव करने की आवश्यकता है? नहीं, क्योंकि उनके भ्रष्ट स्वभाव का समाधान पहले ही हो चुका है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है

लोग अपना स्वभाव स्वयं परिवर्तित नहीं कर सकते; उन्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, पीड़ा और शोधन से गुजरना होगा, या उसके वचनों द्वारा अनुशासित और काट-छाँट किया जाना होगा। इन सब के बाद ही वे परमेश्वर के प्रति विश्वसनीयता और समर्पण प्राप्त कर सकते हैं और उसके प्रति बेपरवाह होना बंद कर सकते हैं। परमेश्वर के वचनों के शोधन के द्वारा ही मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन आ सकता है। केवल उसके वचनों के संपर्क में आने से, उनके न्याय, अनुशासन और काट-छाँट से, वे कभी लापरवाह नहीं होंगे, बल्कि शांत और संयमित बनेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे परमेश्वर के मौजूदा वचनों और उसके कार्यों का पालन करने में सक्षम होते हैं, भले ही यह मनुष्य की धारणाओं से परे हो, वे इन धारणाओं को नज़रअंदाज करके अपनी इच्छा से पालन कर सकते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिनके स्वभाव परिवर्तित हो चुके हैं, वे वही लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हैं

जब परमेश्वर ऐसी चीजें करता है जो तुम्हारी धारणाओं से उलट होती है, तो अगर तुम्हारे परमेश्वर को गलत समझने की संभावना है—तुम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो और उसे धोखा दे सकते हो—तो फिर तुम परमेश्वर के समक्ष समर्पण कर पाने से बहुत दूर हो। जबकि मनुष्य को परमेश्वर के वचन द्वारा पोषण और सिंचन प्रदान किया जाता है, फिर भी वे वास्तव में एक ही लक्ष्य के लिए प्रयास कर रहे हैं, जो अंततः परमेश्वर के प्रति बिना शर्त पूर्ण समर्पण करने में सक्षम होना है, जिस बिंदु पर तुम, एक सृजित प्राणी, आवश्यक मानक तक पहुँच चुके होगे। कई बार ऐसा भी होता है जब परमेश्वर जानबूझकर तुम्हारी धारणाओं से उलट चीजें करता है, और जानबूझकर ऐसी चीजें करता है जो तुम्हारी इच्छा के विपरीत होती हैं और जो सत्य के भी विपरीत प्रतीत हो सकती हैं; तुम्हारे प्रति विचारहीन और तुम्हारी प्राथमिकताओं के विरुद्ध प्रतीत हो सकती हैं। इन चीजों को स्वीकार करना तुम्हारे लिए मुश्किल हो सकता है, तुम उनका कोई मतलब नहीं समझ पाते, और चाहे तुम उनका कैसे भी विश्लेषण करो, तुम्हें वे गलत प्रतीत हो सकती हैं और शायद तुम उन्हें स्वीकार न कर पाओ, तुम्हें ऐसा लग सकता है कि परमेश्वर का ऐसा करना अनुचित था—पर दरअसल परमेश्वर ने यह जानबूझकर किया होता है। तो फिर ऐसी चीजें करने के पीछे परमेश्वर का क्या लक्ष्य होता है? यह तुम्हारी परीक्षा लेने और तुम्हें प्रकट करने के लिए होता है, यह देखने के लिए कि तुम सत्य की खोज करने में सक्षम हो या नहीं, कि तुममें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण है या नहीं। परमेश्वर जो कुछ भी करता है और जो भी अपेक्षा करता है उसका कोई आधार न खोजो, उसका कारण न पूछो। परमेश्वर के साथ तर्क करने का कोई लाभ नहीं है। तुम्हें बस यह स्वीकार करना है कि परमेश्वर सत्य है, और तुम्हें पूर्ण समर्पण में सक्षम होना है। तुम्हें बस यह स्वीकार करना है कि परमेश्वर तुम्हारा सृष्टिकर्ता और तुम्हारा परमेश्वर है। यह किसी भी सिद्धांत से ऊपर है, हर सांसारिक ज्ञान से ऊपर है, हर मानवीय नैतिकता, संहिता, ज्ञान, फलसफे या पारंपरिक संस्कृति से ऊपर है—यह मानवीय भावनाओं, मानवीय धार्मिकता और तथाकथित मानवीय प्रेम से भी ऊपर है। यह हर चीज से ऊपर है। अगर यह तुम्हें स्पष्ट नहीं है तो देर-सवेर तुम्हारे साथ कुछ होगा और तुम गिर पड़ोगे। और कुछ नहीं तो कम से कम, तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर दोगे और भटकाव की राह पर चले जाओगे; अगर तुम आखिर में प्रायश्चित करने में सफल रहते हो, और परमेश्वर की मनोहरता को पहचान लेते हो, अपने अंदर परमेश्वर के कार्य के महत्व को पहचान लेते हो, तब भी तुम्हारे उद्धार की उम्मीद बाकी रहेगी—पर अगर तुम इसकी वजह से गिर पड़ते हो और वापस उठ नहीं पाते, तो तुम्हारे लिए कोई उम्मीद नहीं है। परमेश्वर लोगों का न्याय करे, उन्हें ताड़ना दे, शाप दे, ये सब उन्हें बचाने के लिए हैं, और उन्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें किस चीज से डरना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के ऐसा कहने से डरना चाहिए, “मैं तुम्हें ठुकराता हूँ।” अगर परमेश्वर ऐसा कहता है तो तुम मुसीबत में हो : इसका मतलब है कि परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाएगा, और तुम्हारे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है। और इसलिए, परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने में लोगों को परमेश्वर के इरादे समझने चाहिए। तुम कुछ भी करो, पर परमेश्वर के वचनों में मीन-मेख निकालते हुए यह न कहो, “न्याय और ताड़ना ठीक हैं, पर निंदा, शाप और विनाश—क्या इनका मतलब यह नहीं कि मेरे लिए सब खत्म हो चुका है? सृजित प्राणी होने का क्या फायदा है? इसलिए मैं अब से सृजित प्राणी नहीं बनने वाला हूँ और तुम मेरे परमेश्वर नहीं होगे।” अगर तुम परमेश्वर को नकार दोगे, अपनी गवाही में डटकर नहीं खड़े रहोगे, तो परमेश्वर तुम्हें सचमुच अस्वीकार कर देगा। क्या तुम लोग यह जानते हो? लोग चाहे कितने ही समय से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हों, उन्होंने चाहे कितने ही रास्ते तय किए हों, कितना ही काम किया हो, कितने ही कर्तव्य निभाए हों, इस अवधि में उन्होंने जो कुछ भी किया है वह सब एक चीज की तैयारी के लिए है। वह क्या है? वे अंततः परमेश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण, बिना शर्त समर्पण दिखाने में सक्षम होने की तैयारी करते रहे हैं। “बिना शर्त” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम कोई सफाई नहीं देते, और अपने वस्तुनिष्ठ कारणों की कोई बात नहीं करते, इसका अर्थ है कि तुम बाल की खाल नहीं निकालते; तुम ऐसा करने के योग्य नहीं हो क्योंकि तुम सृजित प्राणी हो। जब तुम परमेश्वर के साथ बाल की खाल निकालते हो तो तुम अपनी जगह नहीं पहचान पाते, और जब तुम परमेश्वर के साथ तर्क करने की कोशिश करते हो—तो एक बार फिर तुम अपनी जगह नहीं पहचान पाते। परमेश्वर के साथ बहस मत करो, हमेशा कारण समझने की कोशिश न करो, समर्पण से पहले समझने पर और समझ न आए तो समर्पण न करने पर अड़े न रहो। जब तुम ऐसा करते हो तो तुम गलत स्थान पर खड़े होते हो, जिसका मतलब है कि परमेश्वर के प्रति तुम्हारा समर्पण संपूर्ण नहीं है, यह सापेक्षिक और सशर्त समर्पण है। वे लोग जो परमेश्वर के प्रति अपने समर्पण के लिए शर्तें रखते हैं, क्या परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण करने वाले लोग हैं? क्या तुम परमेश्वर से परमेश्वर की तरह व्यवहार कर रहे हो? क्या तुम परमेश्वर की सृष्टिकर्ता के रूप में आराधना करते हो? अगर नहीं, तो परमेश्वर तुम्हें अभिस्वीकृत नहीं करता। परमेश्वर के प्रति संपूर्ण और बिना शर्त समर्पण हासिल करने के लिए तुम्हें क्या अनुभव करना चाहिए? और इसे कैसे अनुभव करना चाहिए? एक बात तो यह कि लोगों को परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए और उन्हें काट-छाँट स्वीकार करनी चाहिए। इसके साथ ही उन्हें परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करना चाहिए, और अपना कर्तव्य निभाते समय सत्य का अनुसरण करना चाहिए। उन्हें जीवन प्रवेश को समझने से जुड़े सत्य के विभिन्न पहलुओं को समझना चाहिए और परमेश्वर के इरादों की समझ हासिल करनी चाहिए। कई बार, यह लोगों की काबिलियत से बाहर होता है, और उनमें सत्य की समझ प्राप्त करने के लिए अंतर्दृष्टि की शक्तियों का अभाव होता है, और वे दूसरों के उनके साथ संगति करने या परमेश्वर द्वारा तैयार की गई विभिन्न स्थितियों से मिले सबक के बाद ही थोड़ा-बहुत समझ पाते हैं। पर तुम्हें यह बोध होना चाहिए कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर के प्रति समर्पण की भावना होनी चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के साथ तर्क नहीं करना चाहिए या कोई शर्त नहीं रखनी चाहिए; परमेश्वर जो भी करता है वह वही होता है जो किया जाना चाहिए, क्योंकि वह सृष्टिकर्ता है और तुम एक सृजित प्राणी हो। तुम्हारा रवैया समर्पण का होना चाहिए, तुम्हें हमेशा तर्क या शर्त की बात नहीं करनी चाहिए। अगर तुम्हारे अंदर समर्पण के सबसे बुनियादी रवैये का भी अभाव है, और तुम परमेश्वर पर संदेह करने और उससे आशंकित होने की हद तक जा सकते हो, या अपने मन में यह सोच सकते हो, “मुझे यह देखना होगा कि क्या परमेश्वर मुझे सचमुच बचाएगा और क्या परमेश्वर सचमुच धार्मिक है। हर कोई कहता है कि परमेश्वर प्रेम है—तो ठीक है, मुझे यह देखना ही है कि परमेश्वर मेरे अंदर जो कुछ करता है उसमें क्या सचमुच प्रेम शामिल है, क्या यह सचमुच प्रेम है,” अगर तुम निरंतर यह जाँचते रहते हो कि परमेश्वर जो कुछ करता है वह तुम्हारी धारणाओं और रुचियों के अनुरूप है या नहीं, या जिसे तुम सत्य समझते हो उसके अनुरूप है या नहीं, तो तुम गलत स्थान पर खड़े हो और तुम मुसीबत में हो : संभावना है कि तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर बैठोगे। समर्पण से जुड़े सत्य बहुत अहम हैं, और किसी भी सत्य को सिर्फ दो-तीन वाक्यों में पूरी तरह और स्पष्ट रूप से समझाया नहीं जा सकता; वे सब लोगों की विभिन्न अवस्थाओं और भ्रष्टता से जुड़े हुए हैं। सत्य वास्तविकता में प्रवेश एक या दो—या तीन या पाँच—वर्षों में हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिए बहुत-सी चीजों के अनुभव की, परमेश्वर के वचनों के बहुत-से न्याय और ताड़ना के अनुभव की, बहुत-सी काट-छाँट के अनुभव की जरूरत होती है। केवल जब तुम अंततः सत्य का अभ्यास करने की क्षमता प्राप्त कर लोगे तभी तुम्हारा सत्य का अनुसरण असरदार होगा और केवल तभी तुम सत्य-वास्तविकता को प्राप्त करोगे। जिनके पास सत्य वास्तविकता है, केवल वही सच्चे अनुभव वाले लोग होते हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

परमेश्वर में अपने विश्वास में, पतरस ने प्रत्येक चीज में परमेश्वर को संतुष्ट करने की चेष्टा की थी, और उस सबके प्रति समर्पण करने की चेष्टा की थी जो परमेश्वर से आया था। रत्ती भर शिकायत के बिना, वह ताड़ना और न्याय, साथ ही शुद्धिकरण, घोर पीड़ा और अपने जीवन की वंचनाओं को स्वीकार कर पाता था, जिनमें से कुछ भी उसके परमेश्वर-प्रेमी हृदय को बदल नहीं सका था। क्या यह परमेश्वर के प्रति सर्वोत्तम प्रेम नहीं था? क्या यह सृजित प्राणी के कर्तव्य की पूर्ति नहीं थी? चाहे ताड़ना में हो, न्याय में हो, या घोर पीड़ा में हो, तुम मृत्युपर्यंत समर्पण प्राप्त करने में सदैव सक्षम होते हो, और यह वह है जो सृजित प्राणी को प्राप्त करना चाहिए, यह परमेश्वर के प्रति प्रेम की शुद्धता है। यदि मनुष्य इतना अधिक प्राप्त कर सकता है, तो वह गुणसंपन्न सृजित प्राणी है, और सृष्टिकर्ता के इरादों को पूरा करने के लिए इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता है। कल्पना करो कि तुम परमेश्वर के लिए कार्य कर पाते हो, किंतु तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते हो और परमेश्वर से सच्चे अर्थ में प्रेम करने में असमर्थ हो। इस तरह, तुमने न केवल सृजित प्राणी के अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं किया होगा, बल्कि तुम्हें परमेश्वर द्वारा निंदित भी किया जाएगा, क्योंकि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से युक्त नहीं है, जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में असमर्थ है, और जो परमेश्वर से विद्रोह करता है। तुम केवल परमेश्वर के लिए कार्य करने की परवाह करते हो, और सत्य को अभ्यास में लाने, या स्वयं को जानने की परवाह नहीं करते हो। तुम सृष्टिकर्ता को समझते या जानते नहीं हो, और सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण या उससे प्रेम नहीं करते हो। तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के प्रति स्वाभाविक रूप से विद्रोही है, और इसलिए ऐसे लोग सृष्टिकर्ता के प्रिय नहीं हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है

समर्पण के पाठ सबसे कठिन होते हैं, लेकिन वे सबसे आसान भी होते हैं। वे कठिन किस प्रकार होते हैं? (लोगों के अपने विचार होते हैं।) अपने विचार होना समस्या नहीं है—किस व्यक्ति के अपने विचार नहीं होते? सभी में दिल और दिमाग होता है, सभी के अपने विचार होते हैं। यहाँ समस्या यह नहीं है। तो फिर क्या है? समस्या मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है। यदि मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट नहीं होता, तो उसके अंदर चाहे जितने विचार होते, वह समर्पण करने में सक्षम होता—वे कोई समस्या नहीं होते। यदि किसी में यह समझ है और वह कहता है, “मुझे सभी बातों में परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए। मैं न तो कोई बहाना बनाऊँगा और न ही अपने विचारों पर जोर दूँगा, मैं इस मामले में अपना कोई निर्णय नहीं दूँगा,” क्या उसके लिए समर्पित होना आसान नहीं है? यदि कोई व्यक्ति अपने निर्णय पर नहीं पहुँचता है, तो यह इस बात का संकेत है कि वह आत्मतुष्ट नहीं है; यदि वह अपने विचारों पर जोर नहीं देता है, तो यह संकेत है कि उसमें समझ है। यदि वह समर्पण भी कर पाता है, तो इसका अर्थ है कि उसने सत्य का अभ्यास कर लिया है। खुद से फैसले न करना और अपने ही विचारों पर अड़े न रहना, समर्पण करने में सक्षम होने की पूर्वशर्तें हैं। यदि तुम्हारे पास ये दो गुण हैं, तो तुम्हारे लिए समर्पण करना और सत्य का अभ्यास करना आसान होगा। इसलिए, समर्पण करने से पहले, तुम्हें स्वयं को इन दो गुणों से लैस करना होगा, और यह पता लगाना होगा कि सत्य का अभ्यास करने वाला रवैया रखने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए। यह वास्तव में उतना कठिन नहीं है—लेकिन इतना आसान भी नहीं है। यह कठिन क्यों है? यह कठिन है क्योंकि मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट है। समर्पण का अभ्यास करते समय तुम्हारी मानसिकता या दशा कैसी भी हो, अगर यह तुम्हारे सत्य का अभ्यास करने में बाधक है, तो ऐसी मानसिकता या दशा भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होती है। यही तथ्य है। यदि तुम आत्मतुष्टता, अहंकार, विद्रोहीपन, बेतुकेपन, जिद और पूर्वाग्रह और हठधर्मिता के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कर लेते हो, तो तुम्हारे लिए समर्पण करना आसान हो जाएगा। तो, इन भ्रष्टाचारों का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? जब तुम समर्पण करने को तैयार नहीं हो तो तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए और पूछना चाहिए : “मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में असमर्थ क्यों हूँ? मैं हमेशा चीजों को अपने तरीके से करने पर जोर क्यों देता हूँ? मैं सत्य क्यों नहीं खोज पाता और उसे अभ्यास में क्यों नहीं ला पाता? इस समस्या की जड़ क्या है? मुझे अपनी मर्जी या इच्छाओं को लागू किए बिना परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता का अभ्यास करना चाहिए, और सत्य का अभ्यास करना चाहिए। मुझे परमेश्वर के वचनों, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना चाहिए। केवल यही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है।” ऐसे परिणाम प्राप्त करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने और सत्य की खोज करने की आवश्यकता है। जब तुम सत्य समझ लोगे तो तुम इसे और आसानी से अभ्यास में ला सकोगे; तब, तुम देह कि खिलाफ विद्रोह करने और उसकी चिंताओं से छुटकारा पाने में सक्षम हो पाओगे। यदि तुम अपने हृदय में सत्य समझ जाते हो, लेकिन देह, रुतबे, घमंड और इज्जत के फायदे नहीं छोड़ पाते हो, तो तुम सत्य को अभ्यास में लाने के लिए संघर्ष करते रहोगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि अपने हृदय में, तुम देह, घमंड और इज्जत के फायदों को बाकी सब चीजों से अधिक महत्व देते हो। इसका मतलब यह है कि तुम्हें सत्य से नहीं, बल्कि रुतबे और प्रतिष्ठा से प्रेम है। तो इस समस्या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, सत्य की खोज करनी चाहिए, और रुतबे और प्रतिष्ठा जैसी चीजों के सार को पूरी तरह से समझना चाहिए। तुम्हें इन चीजों में कम व्यस्त रहना चाहिए, और सत्य के अभ्यास को महत्वपूर्ण समझना और इसे बाकी सब चीजों से अधिक महत्व देना जरूरी है। जब तुम यह सब करोगे, तो तुममें सत्य का अभ्यास करने की इच्छाशक्ति होगी। कभी-कभी लोग सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते। उन्हें काट-छाँट की जरूरत होती है, और उन्हें परमेश्वर का न्याय और ताड़ना प्राप्त करने की जरूरत है, ताकि समस्या का सार पूरी तरह से स्पष्ट हो जाए और सत्य का अभ्यास करना आसान हो जाए। वास्तव में, सत्य का अभ्यास करने में सबसे बड़ी बाधा तब आती है जब किसी की इच्छाशक्ति बहुत बड़ी हो जाती है और वह हर चीज से पहले आती है—यानी, जब किसी का अपना स्वार्थ हर चीज से पहले आता है, जब किसी की अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा हर चीज से पहले आते हैं। यही कारण है कि जब भी कोई बात हो जाती है तो ऐसे लोग हमेशा दुराग्रही होते हैं और सत्य सिद्धांतों पर कोई विचार किए बिना हर वह चीज करते हैं जिससे उन्हें व्यक्तिगत रूप से लाभ हो। वे हमेशा अपनी राय पर अड़े रहते हैं। अपनी राय पर अड़े रहने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह निर्धारित करना है : “यदि तुम यह चाहते हो, तो मैं वह चाहता हूँ। यदि तुम अपनी बात मनवाना चाहते हो, तो मैं भी अपनी बात पर अड़ा रहूँगा।” क्या यह समर्पण का प्रदर्शन है? (नहीं।) यह बिल्कुल भी सत्य की खोज नहीं है, बल्कि अपने ही तरीकों पर अड़े रहना है। यह एक अहंकारी स्वभाव और एक विवेकहीन प्रदर्शन है। यदि, एक दिन, तुम यह जानने में सक्षम हो जाओ कि तुम्हारी प्राथमिकताएँ और तुम्हारा दृढ़-संकल्प सत्य के विरुद्ध हैं; यदि तुम अब अपने आप पर और विश्वास न करते हुए स्वयं को नकारने और अपनी असलियत जानने में सक्षम हो जाओ, और उसके बाद धीरे-धीरे चीजों को अपने तरीके से नहीं करने या आँख बंद करके निर्णय नहीं लेने की स्थिति में आ जाओ, बल्कि सत्य की तलाश करने, परमेश्वर से प्रार्थना करने और उस पर निर्भर रहने में सक्षम हो जाओ, तो वही सही अभ्यास है। किस प्रकार का अभ्यास सत्य के अनुरूप है, इसकी पुष्टि करने से पहले तुम्हें तलाश करनी चाहिए। यह बिल्कुल सही काम है, यही किया जाना चाहिए। यदि तुम तलाश करने के लिए तब तक प्रतीक्षा करते हो जब तक तुम्हारी काट-छाँट नहीं हो जाती, तो यह थोड़ी निष्क्रियता है, और इससे चीजों में देरी होने की संभावना है। सत्य की तलाश करना सीखना बहुत महत्वपूर्ण है। सत्य की तलाश करने के क्या लाभ हैं? पहला लाभ, कोई अपनी मनमर्जी से चलने और उतावलेपन से बच सकता है; दूसरा, भ्रष्टाचार के खुलासों और दुष्परिणामों से बच सकता है; तीसरा, प्रतीक्षा करना और धैर्य रखना सीख सकता है, और चीजों को स्पष्ट और सटीक रूप से समझकर गलतियाँ होने से रोक सकता है। सत्य की तलास करने से ये सभी चीजें हासिल की जा सकती हैं। जब तुम सभी चीजों में सत्य की तलाश करना सीख जाते हो, तो तुम पाओगे कि कुछ भी सरल नहीं है, कि यदि तुम असावधान हो और प्रयास नहीं करते हो तो तुम चीजों को खराब तरीके से करोगे। कुछ समय इस तरह प्रशिक्षण लेने के बाद, जब तुम्हारे सामने समस्याएँ आएँगी तो तुम अधिक परिपक्व और अनुभवी होगे। तुम्हारा रवैया नरम और अधिक संयमित होगा, और तुम आवेगशील, जोखिम लेने वाले और प्रतिस्पर्धी होने के बजाय, सत्य की तलाश करने, सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हो जाओगे। फिर, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के खुलासों की समस्या हल हो जाएगी। इसलिए, समर्पण करना तुम्हारे लिए आसान होगा, यह वास्तव में उतना कठिन नहीं है। शुरुआत में यह थोड़ा कठिन हो सकता है, लेकिन तुम धैर्य रख सकते हो, प्रतीक्षा कर सकते हो और समस्या का समाधान होने तक सत्य की खोज करते रह सकते हो।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति समर्पण सत्‍य प्राप्‍त करने में बुनियादी सबक है

परमेश्वर के वचन का पालन करना और परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति समर्पण करना मनुष्य का अनिवार्य कर्तव्य है। और अगर परमेश्वर कुछ ऐसा कहता है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता, तो मनुष्य को उसका विश्लेषण या जाँच नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर चाहे जिसकी निंदा करे या चाहे जिसे हटा दे, जिससे चाहे कितने भी लोगों में धारणाएँ और प्रतिरोध पैदा हो जाएँ, परमेश्वर की पहचान, उसका सार, उसका स्वभाव और उसकी हैसियत हमेशा के लिए अपरिवर्तित रहती है। वह हमेशा के लिए परमेश्वर है। चूँकि तुम्हें इसमें कोई संदेह नहीं है कि वह परमेश्वर है, इसलिए तुम्हारी एकमात्र जिम्मेदारी, एकमात्र चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है उसके कहे का पालन करना और उसके वचन के अनुसार अभ्यास करना; यही अभ्यास का मार्ग है। सृजित प्राणी को परमेश्वर के वचनों की जाँच, विश्लेषण, चर्चा, अस्वीकार, विरोध, विद्रोह या इनकार नहीं करना चाहिए; परमेश्वर को इससे घृणा है और वह मनुष्य में यही नहीं देखना चाहता। परमेश्वर के वचनों के साथ वास्तव में कैसे पेश आना चाहिए? तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? यह वास्तव में बहुत सरल है : उनका पालन करना सीखो, उन्हें अपने दिल से सुनो, उन्हें अपने दिल से स्वीकारो, उन्हें अपने दिल से समझो और बूझो, और फिर जाकर अपने दिल से उनका अभ्यास करो और उन्हें क्रियान्वित करो। तुम अपने दिल से जो सुनते और समझते हो, उसका तुम्हारे अभ्यास से गहरा संबंध होना चाहिए। दोनों को अलग मत करो; सब-कुछ—जो तुम अभ्यास करते हो, जिसके प्रति समर्पित होते हो, जो तुम अपने हाथों से करते हो, जिसके लिए भी तुम भाग-दौड़ करते हो—वह परमेश्वर के वचनों से सह-संबंधित होना चाहिए, फिर तुम्हें उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए और अपने क्रियाकलापों के माध्यम से उन्हें लागू करना चाहिए। सृष्टिकर्ता के वचनों के प्रति समर्पण करना यही है। परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का यही मार्ग है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग दो)

समर्पण का अभ्यास करने के सिद्धांत क्या हैं? ये हैं, परमेश्वर के वचन सुनकर समर्पण करना और उसके कहे अनुसार अभ्यास करना। अपने खुद के इरादे मत पालो और मनमौजी भी मत बनो। चाहे तुम परमेश्वर के वचनों को स्पष्ट रूप से समझते हो या नहीं, तुम्हें विनम्रतापूर्वक उन्हें अभ्यास में लाना चाहिए और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार काम करना चाहिए। अभ्यास और अनुभव की प्रक्रिया से तुम अनायास ही सत्य समझ जाओगे। यदि तुम कहते हो कि तुमने समर्पण कर दिया है, पर कभी भी अपनी आंतरिक योजनाओं और इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह नहीं कर पाते तो क्या यह “कहना कुछ और सोचना कुछ और” नहीं है? (बिल्कुल।) यह सच्चा समर्पण नहीं है। यदि तुम सच्चा समर्पण नहीं करते हो तो कोई मुसीबत आने पर तुम्हारे मन में परमेश्वर से कई अपेक्षाएं होंगी, और अंदर-ही-अंदर तुम परमेश्वर से अपनी अपेक्षाओं को पूरा करने को लेकर अधीर रहोगे। यदि परमेश्वर वैसा नहीं करता जैसा तुम चाहते हो, तो तुम बहुत पीड़ित और परेशान रहोगे, तुम्हें बहुत कष्ट सहना पड़ेगा, और तुम परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं और अपने लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित माहौल के प्रति समर्पित नहीं हो पाओगे। ऐसा क्यों है? क्योंकि तुम हमेशा अपनी अपेक्षाएं और इच्छाएं रखते हो, अपने व्यक्तिगत विचार त्याग नहीं पाते और सभी फैसले खुद ही लेना चाहते हो। इसलिए जब भी तुम्हारा सामना ऐसी चीजों से होता है जो तुम्हारी धारणाओं के विपरीत हैं तो तुम समर्पण नहीं कर पाते और तुम्हारे लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना कठिन हो जाता है। वैसे तो लोग सैद्धांतिक रूप से जानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण कर अपने विचार त्याग देने चाहिए लेकिन वे त्याग नहीं पाते और लगातार इस डरे रहते हैं कि वे फायदे में नहीं रहेंगे और नुकसान उठाना पड़ेगा। तुम्हीं बताओ, क्या यह उन्हें बड़ी मुसीबत में नहीं डाल रहा? क्या तब उनकी पीड़ा नहीं बढ़ जाती है? (हाँ।) यदि तुम सब कुछ छोड़ सकते हो, उन मनपसंद चीजों और अपेक्षाओं को त्याग सकते हो जो परमेश्वर के इरादों के विपरीत हैं, यदि तुम सक्रिय रूप से और अपनी इच्छा से उन्हें त्याग सकते हो और परमेश्वर के सामने शर्तें नहीं रखते, बल्कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने को तैयार रहते हो, तो तुम्हारी कठिनाइयाँ और बाधाएँ बहुत छोटी होंगी।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (11)

समर्पण की प्रवृत्ति का व्यावहारिक पक्ष क्या है? यह है : तुम्हें परमेश्वर के वचनों को स्वीकारने के लिए अपने आपको तैयार करना चाहिए। हालाँकि तुम्हारा जीवन प्रवेश उथला है, तुम्हारा आध्यात्मिक कद नाकाफी है और सत्य के व्यावहारिक पक्ष का तुम्हारा ज्ञान अभी पर्याप्त गहरा नहीं है, तब भी तुम परमेश्वर का अनुसरण कर उसे समर्पित हो पा रहे हो—तो यह समर्पण का रवैया है। इससे पहले कि तुम पूर्ण समर्पण कर सको, तुम्हें सबसे पहले समर्पण का रवैया अपनाना चाहिए, यानी तुम्हें परमेश्वर के वचनों को स्वीकारना चाहिए, मानना चाहिए कि वे सही हैं, परमेश्वर के वचनों को सत्य और अभ्यास के सिद्धांतों के रूप में लेना चाहिए, और भले ही सिद्धांतों की तुम्हारी पकड़ अच्छी न हो, उन्हें नियमों के तौर पर कायम रखने में तुम्हें समर्थ होना चाहिए। यह समर्पण का एक प्रकार का रवैया है। चूँकि तुम्हारा स्वभाव अभी भी नहीं बदला है, तो अगर तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण पाना चाहते हो, तो तुम्हें पहले समर्पण की मानसिकता और और समर्पित होने की अभिलाषा रखनी चाहिए, कहना चाहिए, “परमेश्वर चाहे जो भी करे मैं समर्पण करूँगा। मैं ज्यादा सत्य नहीं समझता हूँ, लेकिन जानता हूँ कि जब परमेश्वर मुझे बताएगा कि क्या करना है, तो मैं वह करूँगा।” परमेश्वर इसे समर्पण के एक रवैए के रूप में देखता है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में गलत हुआ तो?” क्या परमेश्वर गलत करने में सक्षम है? परमेश्वर सत्य और धार्मिकता है। परमेश्वर गलतियाँ नहीं करता; परमेश्वर ऐसी बहुत-सी चीजें करता है जो लोगों की धारणाओं के अनुरूप नहीं होतीं। तुम्हें कहना चाहिए, “चाहे परमेश्वर के कार्य मेरी अपनी धारणाओं के अनुरूप हों या न हों, मैं बस सुनने, समर्पित होने, स्वीकारने और परमेश्वर का अनुसरण करने पर ध्यान दूँगा। एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे यही करना चाहिए।” भले ही ऐसे लोग हों जो आँखें बंद कर समर्पण करनेवाले के रूप में तुम्हारी आलोचना करें, फिर भी तुम्हें परवाह नहीं होनी चाहिए। तुम्हारा दिल आश्वस्त है कि परमेश्वर सत्य है और तुम्हें समर्पण करना चाहिए। यह सही है, और ऐसी ही मानसिकता के साथ इंसान को समर्पण करना चाहिए। केवल ऐसी मानसिकता वाले लोग ही सत्य हासिल कर सकते हैं। यदि तुम्हारी मानसिकता ऐसी नहीं है, लेकिन तुम कहते हो, “मुझे कोई गुस्सा दिलाए इससे मुझे दुख नहीं होता। मुझे कोई बेवकूफ नहीं बना सकता। मैं बहुत चालाक हूँ और मुझसे किसी के भी आगे समर्पण नहीं करवाया जा सकता! जो भी चीज मेरे रास्ते में आएगी, मुझे उस पर गौर करके उसका विश्लेषण करना चाहिए। जब वह मेरी सोच के अनुरूप होगी और मैं उसे स्वीकार कर सकूँगा तभी मैं समर्पण करूँगा”—क्या यह समर्पण का रवैया है? यह समर्पण का रवैया नहीं है; इसमें दिल में समर्पण के किसी इरादे के बिना आज्ञाकारी मानसिकता की कमी है। अगर तुम कहते हो, “भले ही यह परमेश्वर हो, मुझे तब भी इस पर गौर करना होगा। राजाओं और रानियों के साथ भी मैं ऐसे ही पेश आता हूँ। तुम मुझसे जो कह रहे हो वह निरर्थक है। यह सच है कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ, लेकिन मैं कोई पुतला नहीं हूँ—इसलिए मुझसे वैसा व्यवहार मत करो,” तो फिर तुम्हारी कहानी खत्म; तुम्हारे पास सत्य को स्वीकारने के हालात नहीं हैं। ऐसे लोगों में तार्किकता नहीं होती। उनमें सामान्य मानवता नहीं होती, तो क्या ऐसे लोग जानवर नहीं हैं? तार्किकता के बिना कोई व्यक्ति समर्पण कैसे कर सकता है। समर्पण करने के लिए, किसी व्यक्ति में सबसे पहले आज्ञाकारी मानसिकता होनी चाहिए। केवल समर्पण की मानसिकता के साथ ही किसी व्यक्ति में कोई उल्लेखनीय तार्किकता हो सकती है। अगर उसमें समर्पण की मानसिकता नहीं है, तो उसमें कोई तार्किकता नहीं है। लोग सृजित प्राणी हैं; वे सृष्टिकर्ता को स्पष्ट रूप से कैसे देख सकते हैं? पूरी मानवजाति 6,000 वर्षों तक परमेश्वर के एक भी विचार को समझ नहीं पाई है, तो लोग एकाएक कैसे समझ सकते हैं कि परमेश्वर क्या कर रहा है? तुम नहीं समझ सकते हो। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो परमेश्वर हजारों वर्षों से करता रहा है, और जिनका खुलासा परमेश्वर मानवजाति को पहले ही कर चुका है, लेकिन अगर उसने लोगों को स्पष्ट रूप से न बताया होता तो लोग उसे अभी भी न समझ पाए होते। हो सकता है अब तुम उसके वचनों के शाब्दिक अर्थ समझते हो, लेकिन तुम सचमुच में इसका अर्थ कुछ बीस वर्ष बाद ही समझ सकोगे। लोगों और परमेश्वर की माँगों के बीच इतनी बड़ी खाई है। इसके प्रकाश में लोगों में तार्किकता और समर्पण की मानसिकता होनी चाहिए। लोग सिर्फ चींटियाँ और कीड़े-मकोड़े हैं, फिर भी वे सृष्टिकर्ता को स्पष्ट रूप से देखना चाहते हैं। यह सबसे अनुचित चीज है। कुछ लोग हमेशा शिकायत करते हैं कि परमेश्वर उन्हें अपने रहस्य नहीं बताता, और सत्य सीधे नहीं समझाता, हमेशा लोगों से खोज करवाता है। लेकिन ऐसी बातें कहना सही नहीं है, और यह अनुचित है। परमेश्वर ने तुम्हें जितने वचन बताए हैं, उनमें से तुम कितनों को समझते हो? परमेश्वर के कितने वचनों का तुम अभ्यास कर सकते हो? परमेश्वर का कार्य हमेशा चरणों में होता है। अगर परमेश्वर ने 2,000 वर्ष पहले अंत के दिनों के अपने कार्य के बारे में लोगों को बता दिया होता, तो क्या वे समझ सके होते? अनुग्रह के युग में, प्रभु यीशु पापी देह के सदृश बना और संपूर्ण मानवजाति के लिए पाप बलि बना। अगर उसने उस वक्त लोगों को बताया होता, तो कौन समझता? और अब, तुम जैसे लोग कुछ अवधारणात्मक सिद्धांतों को समझते हैं, लेकिन परमेश्वर के वास्तविक स्वभाव, मानवजाति से प्रेम करने में परमेश्वर के इरादे और उस वक्त परमेश्वर द्वारा की गई चीजों के उद्गम और उनके पीछे की योजना जैसे सत्यों को लोग कभी भी समझ नहीं पाएँगे। यही सत्य का रहस्य है; यही परमेश्वर का सार है। लोग इसे स्पष्टता से कैसे देख सकते हैं? सृष्टिकर्ता को स्पष्ट रूप में देखने की तुम्हारी कामना तुम्हारे लिए पूरी तरह अनुचित है। तुम बहुत अहंकारी हो और अपनी काबिलियतों को बहुत ज्यादा आंकते हो। लोगों को परमेश्वर को स्पष्ट रूप से देखने की कामना नहीं करनी चाहिए। यदि वे कुछ सत्य समझ सकते हैं, तो यह पहले ही अच्छी बात है। जहाँ तक तुम्हारी बात है, थोड़ा-सा सत्य समझ लेना पहले ही पर्याप्त उपलब्धि है। इसलिए, क्या समर्पण की मानसिकता रखना तार्किक है? ऐसा करना बिल्कुल एक तार्किक चीज है। समर्पण की मानसिकता और रवैया वह न्यूनतम चीज है जो प्रत्येक सृजित प्राणी में होनी चाहिए।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (3)

परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए, व्यक्ति को पहले सत्य स्वीकारना होगा और उसका अभ्यास करना होगा, और उसे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना होगा। वह पहली बाधा है। तो, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं में क्या-क्या शामिल है? इनमें वे लोग, घटनाएँ और चीजें शामिल हैं जिन्हें परमेश्वर तुम्हारे चारों ओर उत्पन्न करता है। कभी-कभी ये लोग, घटनाएँ और चीजें तुम्हारी काट-छाँट करेंगी, कभी-कभी वे तुम्हें प्रलोभित करेंगी, या तुम्हारा परीक्षण लेंगी, या तुम्हें बाधित करेंगी, या तुम्हें नकारात्मक बना देंगी—लेकिन जब तक तुम समस्याएँ हल करने के लिए सत्य तलाश कर सकते हो, तुम कुछ सीखने, आध्यात्मिक कद हासिल करने और सामना करने की ताकत रखने में सक्षम होओगे। परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना, परमेश्वर के प्रति समर्पित होने का सबसे बुनियादी सबक है। परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं में वे लोग, घटनाएँ, चीजें, और विभिन्न परिस्थितियाँ शामिल हैं, जिन्हें परमेश्वर तुम्हारे चारों ओर उत्पन्न करता है। तो इन परिस्थितियों से सामना होने पर तुम्हें कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए? सबसे बुनियादी बात है परमेश्वर से स्वीकार करना। “परमेश्वर से स्वीकार करने” का क्या अर्थ है? शिकायत करना और विरोध करना—क्या यह परमेश्वर से स्वीकार करना है? कारणों की तलाश करना और बहाने बनाना—क्या यह परमेश्वर से स्वीकार करना है? नहीं। तो तुम्हें परमेश्वर से स्वीकार करने का अभ्यास कैसे करना चाहिए? जब तुम्हारे साथ कुछ अप्रत्याशित घटित हो तो सबसे पहले शांत हो जाओ, सत्य की खोज करो, और समर्पण का अभ्यास करो। बहाने या स्पष्टीकरण लेकर मत आओ। कौन सही है और कौन गलत, इसका विश्लेषण करने या अटकलें लगाने की कोशिश मत करो, और यह विश्लेषण मत करो कि किसकी गलती अधिक गंभीर है और किसकी कम गंभीर। क्या इन चीजों का हमेशा विश्लेषण करते रहना परमेश्वर से स्वीकार करने का रवैया है? क्या यह एक समर्पण का रवैया है? यह परमेश्वर के प्रति समर्पण का रवैया नहीं है, और परमेश्वर से स्वीकार करने या परमेश्वर की व्यवस्था और संप्रभुता स्वीकारने का रवैया नहीं है। परमेश्वर से स्वीकार करना, परमेश्वर के प्रति समर्पण का अभ्यास करने के सिद्धांतों का एक हिस्सा है। यदि तुम निश्चित हो कि जो भी मुसीबत तुम पर आती है वह परमेश्वर की संप्रभुता के भीतर है और वे चीजें परमेश्वर की व्यवस्थाओं और सद्भावना के कारण होती हैं, तो तुम उन्हें परमेश्वर से स्वीकार कर सकते हो। इसकी शुरुआत, सही और गलत का विश्लेषण न करने, अपने लिए बहाने न बनाने, दूसरों में दोष न ढूँढने, बाल की खाल न निकालने, जो हुआ उसके वस्तुनिष्ठ कारणों पर अत्यधिक ध्यान से विचार न करने और चीजों का विश्लेषण और जाँच करने के लिए अपने मानव मस्तिष्क का उपयोग न करने से करो। परमेश्वर से स्वीकार करने के लिए तुम्हें जो कुछ करना चाहिए, ये उसका विस्तृत ब्यौरा है। और, इसका अभ्यास करने का तरीका समर्पण से शुरूआत करना है। भले ही तुम्हारे पास धारणाएँ हों या तुम्हारे लिए चीजें स्पष्ट न हों, तुम समर्पण करो। बहानों या विद्रोह से शुरुआत मत करो। और, समर्पण करने के बाद सत्य की तलाश करो, परमेश्वर से प्रार्थना करो और उससे माँगो। तुम्हें प्रार्थना कैसे करनी चाहिए? कहो, “हे परमेश्वर, तुमने अपनी सद्भावना से मेरे लिए इस स्थिति का आयोजन किया है।” जब तुम ऐसा कहते हो तो इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम्हारे दिल में पहले से ही स्वीकार करने का रवैया है और तुमने मान लिया है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए उस स्थिति का आयोजन किया है। कहो : “हे परमेश्वर, मुझे नहीं पता कि मैंने आज जिस स्थिति का सामना किया है, उसमें कैसे अभ्यास करूँ। मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि तुम मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो, और मुझे तुम्हारे इरादे समझाओ, ताकि मैं उसके अनुसार कार्य कर सकूँ, और मैं न तो विद्रोही बनूँ और न ही प्रतिरोधी, और अपनी मर्जी पर भरोसा न करूँ। मैं सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने का इच्छुक हूँ।” प्रार्थना करने के बाद, तुम्हें दिल में शांति महसूस होगी, और तुम स्वाभाविक रूप से अपने बहाने छोड़ दोगे। क्या यह तुम्हारी मानसिकता में बदलाव नहीं है? यह तुम्हारे लिए सत्य की तलाश करने और उसका अभ्यास करने का मार्ग प्रशस्त करता है, और अब जो एकमात्र समस्या बचती है वह यह कि जब तुमने सत्य समझ लिया है तो तुम्हें उसका अभ्यास कैसे करना चाहिए। यदि सत्य का अभ्यास करने का समय आने पर तुम फिर से विद्रोह प्रकट करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर से फिर प्रार्थना करनी चाहिए। एक बार जब तुम्हारी विद्रोहशीलता का समाधान हो जाएगा, तो स्वाभाविक रूप से तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास करना आसान हो जाएगा। जब समस्याएँ आती हैं, तो तुम्हें परमेश्वर के सामने शांत रहना और सत्य की तलाश करना सीखना चाहिए। यदि तुम बाहरी चीजों से लगातार बाधित होते हो, यदि तुम्हारी दशा हमेशा अस्थिर रहती है, तो यह किस कारण से है? इसका कारण है कि तुम सत्य नहीं समझते हो, और तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे भीतर हावी है—तुम स्वयं अपनी मदद नहीं कर सकते। ऐसे समय पर, तुम्हें आत्मचिंतन करना होगा और स्वयं के भीतर की समस्या का पता लगाना होगा। परमेश्वर के संबंधित वचनों की तलाश करो और देखो कि वे क्या उजागर करते हैं। फिर, धर्मोपदेश और संगति, या परमेश्वर के वचनों के भजन सुनो। इन वचनों के प्रकाश में स्वयं की दशा देखो। इस तरह तुम देख पाओगे कि तुम्हारे भीतर क्या समस्याएँ हैं, और इन समस्याओं के बारे में स्पष्टता प्राप्त करने से उनसे निपटना आसान हो जाएगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति समर्पण सत्‍य प्राप्‍त करने में बुनियादी सबक है

यदि तुम परमेश्वर के शासन में विश्वास करते हो, तो तुम्हें यह विश्वास करना होगा कि हर दिन जो भी अच्छा होता है या बुरा, वो यूँ ही नहीं होता। ऐसा नहीं है कि कोई जानबूझकर तुम पर सख्त हो रहा है या तुम पर निशाना साध रहा है; यह सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और आयोजित है। परमेश्वर इन चीज़ों को किस लिए आयोजित करता है? यह तुम्हारी वास्तविकता उजागर करने या तुम्हें प्रकट करके हटा देने के लिए नहीं है; तुम्हें प्रकट करना अंतिम लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य तुम्हें पूर्ण बनाना और बचाना है। परमेश्वर तुम्हें पूर्ण कैसे बनाता है? वह तुम्हें कैसे बचाता है? वह तुम्हें तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से अवगत कराने और तुम्हें तुम्हारे प्रकृति-सार, तुम्हारे दोषों और कमियों से अवगत कराने से शुरुआत करता है। उन्हें साफ तौर पर समझकर और जानकर ही तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो और धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर कर सकते हो। यह परमेश्वर का तुम्हें एक अवसर प्रदान करना है। यह परमेश्वर की दया है। तुम्हें यह जानना होगा कि इस अवसर को कैसे पाया जाए। तुम्हें परमेश्वर का विरोध नहीं करना चाहिए, उसके साथ लड़ाई में उलझना या उसे गलत नहीं समझना चाहिए। विशेष रूप से उन लोगों, घटनाओं और चीज़ों का सामना करते समय, जिनकी परमेश्वर तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है, सदा यह मत सोचो कि चीजें तुम्हारे मन के हिसाब से नहीं हैं; हमेशा उनसे बच निकलने की मत सोचो या परमेश्वर के बारे में शिकायत मत करो या उसे गलत मत समझो। अगर तुम लगातार ऐसा कर रहे हो तो तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर रहे हो, और इससे तुम्हारे लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। जब तुम ऐसी किसी चीज का सामना करो जिसे तुम समझ न पाओ, जब कोई समस्या आ जाए तो तुम्हें समर्पण करना सीखना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करनी चाहिए। इस तरह, इससे पहले कि तुम जान पाओ, तुम्हारी आंतरिक स्थिति में एक बदलाव आएगा और तुम अपनी समस्या को हल करने के लिए सत्य की तलाश कर पाओगे। इस तरह तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर पाओगे। जब ऐसा होगा तो, तुम्हारे भीतर सत्य वास्तविकता गढ़ी जायेगी, और इस तरह से तुम प्रगति करोगे और तुम्हारे जीवन की स्थिति का रूपांतरण होगा। एक बार जब ये बदलाव आएगा और तुममें यह सत्य वास्तविकता होगी, तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद होगा, और आध्यात्मिक कद के साथ जीवन आता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए

परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना ऐसा बुनियादी सबक है जो परमेश्वर के प्रत्येक अनुयायी के सामने आता है। यह सबसे गहरा सबक भी है। तुम जिस हद तक परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होते हो, तुम्हारा आध्यात्मिक कद उतना ही बड़ा होता है, और तुम्हारी आस्था भी उतनी ही अधिक होती है—ये चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं। पूर्ण समर्पण तक पहुँचने के लिए तुम्हें किन सत्यों से लैस होने की जरूरत है? सबसे पहले, तुम परमेश्वर से कोई माँग नहीं कर सकते—यह एक सत्य है। तुम इस सत्य को कैसे कार्यान्वित कर सकते हो? जब तुम परमेश्वर से कोई माँग करते हो, तो विचार करने और आत्मचिंतन करने के लिए इस सत्य का उपयोग करो। “परमेश्वर से मेरी क्या माँगें हैं? क्या वे सत्य के अनुरूप हैं? क्या वे उचित हैं? वे कहाँ से आई हैं? क्या वे मेरी अपनी कल्पनाओं की उपज हैं, या वे शैतान द्वारा मुझे दिए गए विचार हैं?” ये वास्तव में इनमें से कुछ भी नहीं हैं। ये विचार लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से उत्पन्न होते हैं। तुम्हें इन अनुचित माँगों के पीछे निहित उद्देश्यों और इच्छाओं का विश्लेषण करना होगा, और देखना होगा कि वे सामान्य मानवता के तर्क से मेल खाती हैं या नहीं। तुम्हें किसका अनुसरण करना चाहिए? यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम करता है, तो तुम्हें पतरस के जैसा अनुयायी बनने का प्रयास करना चाहिए। पतरस ने कहा, “अगर परमेश्वर मुझसे एक खिलौने जैसा बर्ताव करता, तो मैं तैयार और इच्छुक क्यों नहीं होता?” पतरस ने जो कहा वह कुछ लोगों को समझ नहीं आता। वे पूछते हैं : “परमेश्वर ने कब लोगों के साथ खिलौनों जैसा व्यवहार किया और कब हमें शैतान को सौंपा? मैंने ऐसा नहीं देखा है। परमेश्वर मेरे लिए अद्भुत, बहुत दयालु रहा है। परमेश्वर वैसा परमेश्वर नहीं है। परमेश्वर संभवतः मनुष्यों से और अधिक प्रेम नहीं कर सकता, तो वह लोगों के साथ खिलौनों जैसा व्यवहार क्यों करेगा? यह सत्य से मेल नहीं खाता। यह परमेश्वर के बारे में गलतफहमी है और परमेश्वर का सच्चा ज्ञान नहीं है।” लेकिन पतरस के शब्द कहाँ से आये? (वे परमेश्वर के बारे में उसके ज्ञान से आए थे, जो सभी प्रकार के परीक्षणों से गुजरने के बाद प्राप्त हुआ था।) पतरस कई परीक्षणों और शोधनों से गुजरा था। उसने अपनी सभी निजी माँगें, योजनाएँ और इच्छाएँ किनारे रख दी, और परमेश्वर से कुछ भी करने की माँग नहीं की। उसके पास अपने स्वयं के कोई विचार नहीं थे, और फिर, उसने स्वयं को पूरी तरह से परमेश्वर को सौंप दिया। उसने सोचा : “परमेश्वर जो भी करना चाहे वह कर सकता है। वह मेरा परीक्षण कर सकता है, वह मुझे ताड़ना दे सकता है, वह मेरा न्याय कर सकता है या मुझे दंडित कर सकता है। वह मेरी काट-छाँट करने के लिए परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है, वह मुझे गुस्सा दिला सकता है, वह मुझे शेर की गुफा या भेड़ियों की माँद में डाल सकता है। परमेश्वर जो भी करता है, वह सही है, और मैं किसी भी चीज के लिए समर्पण करने को तैयार हूँ। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सत्य है। मैं कोई शिकायत नहीं करूँगा या मेरे अपने कोई चुनाव नहीं होंगे।” क्या यह पूर्ण समर्पण नहीं है? कभी-कभी लोग सोचते हैं : “परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सत्य है, तो फिर मुझे परमेश्वर द्वारा किए गए इस काम में कोई सत्य क्यों नहीं मिला? ऐसा लगता है कि परमेश्वर भी कभी-कभी ऐसे काम करता है जो सत्य से मेल नहीं खाते। परमेश्वर भी कई बार गलत होता है। लेकिन चाहे कुछ भी हो, परमेश्वर तो परमेश्वर है, इसलिए मैं समर्पण करूँगा!” क्या इस प्रकार का समर्पण पूर्ण है? (नहीं।) यह चयनात्मक समर्पण है; यह सच्चा समर्पण नहीं है। यह वैसा नहीं है जैसा पतरस ने इसके बारे में सोचा था। तुम्हारे साथ खिलौने जैसा व्यवहार करने के लिए, तुम्हें कारण समझाने या तुम्हारे सामने निष्पक्ष और उचित दिखने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारे साथ कैसा भी व्यवहार किया जा सकता है; तुम्हारे साथ इस बारे में चर्चा करने या तुम्हें इसके तथ्य और कारण समझाने की कोई जरूरत नहीं है। यदि चीजें तुम्हारी मंजूरी के बिना आगे नहीं बढ़ सकतीं, तो क्या तुम्हारे साथ खिलौने जैसा व्यवहार किया जा रहा है? नहीं—यह तुम्हें पूर्ण मानवाधिकार और स्वतंत्रता और पूर्ण सम्मान देना हुआ। यह तुम्हारे साथ मनुष्य जैसा व्यवहार करना हुआ, न कि एक खिलौने जैसा। खिलौना क्या है? (यह कोई ऐसी चीज है जिसकी कोई स्वायत्तता नहीं है और जिसके पास कोई अधिकार नहीं है।) लेकिन क्या यह केवल ऐसी चीज है जिसके पास कोई अधिकार नहीं है? पतरस के शब्दों को कैसे कार्यान्वित किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम कुछ समय से किसी खास विषय पर खोज कर रहे हो, लेकिन अभी तक परमेश्वर का इरादा समझ नहीं पाए हो। या, यों कहें कि तुम 20 वर्षों से अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास करते हो और अभी भी नहीं जानते कि यह सब क्या है। क्या इस स्थिति में तुम्हें समर्पण नहीं करना चाहिए? तुम्हें समर्पण करना होगा। और यह समर्पण किस पर आधारित है? यह उस पर आधारित है जो पतरस ने कहा : “अगर परमेश्वर मुझसे एक खिलौने जैसा बर्ताव करता, तो मैं तैयार और इच्छुक क्यों नहीं होता?” यदि तुम हमेशा मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर से पेश आते हो और उनसे परमेश्वर के सभी कार्य आँकते हो, परमेश्वर के वचन और कार्य मापते हो, तो क्या यह परमेश्वर को सीमित कर देना नहीं है, परमेश्वर का विरोध करना नहीं है? परमेश्वर जो कुछ करता है, क्या वह मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप होता है? और अगर नहीं होता, तो क्या तुम उसे स्वीकार या उसका आज्ञापालन नहीं करते? ऐसे में तुम्हें सत्य कैसे खोजना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर का अनुसरण कैसे करना चाहिए? यह सत्य से जुड़ा है; परमेश्वर के वचनों में उत्तर खोजना चाहिए। परमेश्वर में विश्वास रखते हुए लोगों को सृजित प्राणी के स्थान पर टिके रहना चाहिए। चाहे कोई भी समय हो, परमेश्वर तुमसे छिपा हो या तुम्हारे सामने प्रकट हुआ हो, तुम उसका प्रेम महसूस कर पाओ या न कर पाओ, तुम्हें अपने दायित्वों, बध्यताओं और कर्तव्यों का पता होना चाहिए—तुम्हें अभ्यास के बारे में इन सत्यों की समझ होनी चाहिए। यदि तुम अभी भी यह कहकर अपनी धारणाओं से चिपके रहोगे, “यदि मैं स्पष्ट रूप से देख सकूँ कि यह मामला सत्य और मेरे विचारों के अनुरूप है, तो मैं समर्पण करूँगा; यदि यह मेरे लिए स्पष्ट नहीं है और मैं पुष्टि न कर सकूँ कि ये परमेश्वर के कार्य हैं, तो मैं पहले थोड़ी प्रतीक्षा करूँगा और जब यकीन हो जाएगा कि यह परमेश्वर द्वारा किया गया है, तो मैं समर्पण करूँगा,” क्या यह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला व्यक्ति है? नहीं। यह एक सशर्त समर्पण है; असीमित, पूर्ण समर्पण नहीं है। परमेश्वर का कार्य मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं होता है; देहधारण और खासकर, न्याय और ताड़ना, मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं होते हैं। अधिकांश लोग इसे स्वीकारने और इसके प्रति समर्पित होने के लिए वास्तव में संघर्ष करते हैं। यदि तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, तो क्या तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा कर सकते हो? यह बिल्कुल संभव नहीं है। एक सृजित प्राणी का कर्तव्य क्या है? (एक सृजित प्राणी की स्थिति में खड़े होना, परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करना और परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना।) यह सही है, यही इसका मूल है। तो फिर क्या इस समस्या को हल करना आसान नहीं है? एक सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होना और अपने परमेश्वर, सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण करना—यही वह चीज है जिसे हर सृजित प्राणी को सबसे ज्यादा करनी चाहिए। ऐसे कई सत्य हैं जिन्हें तुम नहीं समझते हो या जिनके बारे में तुम नहीं जानते हो। चूँकि तुम परमेश्वर के इरादे नहीं समझ सकते, इसलिए तुम सत्य स्वीकार नहीं करोगे या उसके प्रति समर्पण नहीं करोगे—क्या यह सही है? उदाहरण के लिए, तुम कुछ भविष्यवाणियाँ नहीं समझते हो, इसलिए तुम नहीं स्वीकारते हो कि वे परमेश्वर के वचन हैं? तुम इससे इनकार नहीं कर सकते। वे वचन सदैव परमेश्वर के वचन रहेंगे, और उनमें सत्य समाहित है। भले ही तुम उन्हें नहीं समझते, फिर भी वे परमेश्वर के वचन हैं। यदि परमेश्वर के कुछ वचन पूरे नहीं हुए हैं, तो क्या इसका मतलब यह है कि वे परमेश्वर के वचन नहीं हैं, कि वे सत्य नहीं हैं? यदि तुम कहते हो : “यदि ये पूरे नहीं हुए हैं तो संभवतः ये परमेश्वर के वचन नहीं हैं। शायद इनमें मिलावट की गई है,” यह कैसा रवैया है? ये विद्रोही रवैया है। तुम्हारे पास तर्क होना चाहिए। तर्क क्या है? तर्क का होना किस पर आधारित है? यह एक सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होने और तुम्हारे परमेश्वर, सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पित होने पर आधारित है। यह सत्य है; एक शाश्वत अटल सत्य। क्या परमेश्वर के प्रति समर्पण इस पर आधारित होना चाहिए कि तुम परमेश्वर के इरादों को जानते-समझते हो या नहीं, या परमेश्वर ने तुम्हें अपने इरादे बताये हैं या नहीं? क्या इसे इन सब पर आधारित होने की जरूरत है? (नहीं।) तो फिर यह किस पर आधारित है? यह समर्पण के सत्य पर आधारित है। समर्पण का सत्य क्या है? (सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होना और सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पित होना।) यही समर्पण का सत्य है। तो फिर, क्या तुम्हें सही और गलत का विश्लेषण करने की कोई जरूरत है? क्या तुम्हें पूर्ण समर्पण प्राप्त करने के लिए इस बात पर विचार करने की जरूरत है कि परमेश्वर ने सही कार्य किया है या नहीं? क्या तुम्हारे समर्पण के लिए परमेश्वर को सत्य का यह पहलू स्पष्ट रूप से, पूरी तरह से समझाने की जरूरत है? (नहीं, उसे जरूरत नहीं है।) इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर क्या करता है, तुम्हें समर्पण के सत्य का अभ्यास करना चाहिए—यह पर्याप्त है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति समर्पण सत्‍य प्राप्‍त करने में बुनियादी सबक है

जीवन की वास्तविक समस्याओं का सामना करते समय, तुम्हें किस प्रकार परमेश्वर के अधिकार और उसकी संप्रभुता को जानना और समझना चाहिए? जब तुम्हारे सामने ये समस्याएँ आती हैं और तुम्हें पता नहीं होता कि किस प्रकार इन समस्याओं को समझें, सँभालें और अनुभव करें, तो तुम्हें समर्पण करने की नीयत, समर्पण करने की तुम्हारी इच्छा, और परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने की तुम्हारी सच्चाई को दर्शाने के लिए तुम्हें किस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? पहले तुम्हें प्रतीक्षा करना सीखना होगा; फिर तुम्हें खोजना सीखना होगा; फिर तुम्हें समर्पण करना सीखना होगा। “प्रतीक्षा” का अर्थ है परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करना, उन लोगों, घटनाओं एवं चीज़ों की प्रतीक्षा करना जो उसने तुम्हारे लिए व्यवस्थित की हैं, और इसकी प्रतीक्षा करना कि उसके इरादे धीरे-धीरे तुम्हारे सामने प्रकट किए जाएँ। “खोजने” का अर्थ है परमेश्वर द्वारा निर्धारित लोगों, घटनाओं और चीज़ों के माध्यम से, तुम्हारे लिए परमेश्वर के जो विचारशील इरादे हैं उनका अवलोकन करना और उन्हें समझना, उनके माध्यम से सत्य को समझना, जो मनुष्यों को अवश्य पूरा करना चाहिए, उसे समझना और उन सच्चे मार्गों को समझना जिनका उन्हें पालन अवश्य करना चाहिए, यह समझना कि परमेश्वर मनुष्यों में किन परिणामों को प्राप्त करने का अभिप्राय रखता है और उनमें किन उपलब्धियों को पाना चाहता है। निस्सन्देह, “समर्पण करने,” का अर्थ उन लोगों, घटनाओं, और चीज़ों को स्वीकार करना है जो परमेश्वर ने आयोजित की हैं, उसकी संप्रभुता को स्वीकार करना और उसके माध्यम से यह जान लेना है कि किस प्रकार सृजनकर्ता मनुष्य के भाग्य पर नियंत्रण करता है, वह किस प्रकार अपना जीवन मनुष्य को प्रदान करता है, वह किस प्रकार मनुष्यों के भीतर सत्य गढ़ता है। परमेश्वर की व्यवस्थाओं और संप्रभुता के अधीन सभी चीज़ें प्राकृतिक नियमों का पालन करती हैं, और यदि तुम परमेश्वर को अपने लिए सभी चीज़ों की व्यवस्था करने और उन पर नियंत्रण करने देने का संकल्प करते हो, तो तुम्हें प्रतीक्षा करना सीखना चाहिए, तुम्हें खोज करना सीखना चाहिए, और तुम्हें समर्पण करना सीखना चाहिए। हर उस व्यक्ति को जो परमेश्वर में अधिकार के प्रति समर्पण करना चाहता है, यह दृष्टिकोण अवश्य अपनाना चाहिए, और हर वह व्यक्ति जो परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं को स्वीकार करना चाहता है, उसे यह मूलभूत गुण अवश्य रखना चाहिए। इस प्रकार का दृष्टिकोण रखने के लिए, इस प्रकार की योग्यता धारण करने के लिए, तुम लोगों को और अधिक कठिन परिश्रम करना होगा; और सच्ची वास्तविकता में प्रवेश करने का तुम्हारे लिए यही एकमात्र तरीका है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III

सभी मनुष्यों में नूह परमेश्वर का भय मानने, परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और परमेश्वर का आदेश पूरा करने का प्रतीक था, जो कि सर्वाधिक अनुकरणीय है; उसे परमेश्वर द्वारा अनुमोदित किया गया था, और आज परमेश्वर का अनुसरण करने वालों के लिए वह एक आदर्श होना चाहिए। और उसके बारे में सबसे अनमोल बात क्या थी? परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका केवल एक ही दृष्टिकोण था : सुनना और स्वीकारना, स्वीकारना और समर्पित होना, और मृत्युपर्यंत समर्पित होना। उसका यह रवैया ही था, जो सबसे अनमोल था, जिसने उसे परमेश्वर की स्वीकृति दिलाई। जब परमेश्वर के वचनों की बात आई, तो वह लापरवाह नहीं रहा, उसने बेमन से प्रयास नहीं किया, और उसने अपने दिमाग में उनकी जाँच-पड़ताल, विश्लेषण, विरोध या उन्हें अस्वीकार कर अपने दिमाग में पीछे नहीं धकेला; इसके बजाय, उसने उन्हें गंभीरता से सुना, धीरे-धीरे अपने हृदय में उन्हें स्वीकार किया, और फिर इस बात पर विचार किया कि उन्हें अभ्यास में कैसे लाया जाए, उन्हें विकृत किए बिना उस तरह कैसे कार्यान्वित किया जाए, जैसा कि मूल रूप में अभीष्ट था। और जिस समय उसने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया, उसी समय उसने अपने तुम से अकेले में कहा, “ये परमेश्वर के वचन हैं, ये परमेश्वर के निर्देश हैं, परमेश्वर का आदेश हैं, मैं कर्तव्यबद्ध हूँ, मुझे समर्पण करना चाहिए, मैं कुछ भी नहीं छोड़ सकता, मैं परमेश्वर की किसी भी इच्छा के विरुद्ध नहीं जा सकता, न ही मैं उसके द्वारा कही गई बातों में से किसी चीज को नजरअंदाज कर सकता हूँ, अन्यथा मैं मानव कहलाने के योग्य नहीं हूँगा, मैं परमेश्वर के आदेश के योग्य नहीं हूँगा, और उसके द्वारा उन्नत किए जाने के योग्य नहीं हूँगा। इस जीवन में, अगर मैं वह सब पूरा करने में असफल रहता हूँ जो परमेश्वर ने मुझे बताया और सौंपा है, तो मेरे पास पछतावा ही रह जाएगा। इससे भी बढ़कर, मैं परमेश्वर के आदेश और उसके द्वारा उन्नत किए जाने के योग्य नहीं रहूँगा, और मेरा सृष्टिकर्ता के सामने लौटने का मुँह नहीं होगा।” वह सब, जो नूह ने अपने दिल में सोचा और विचारा था, उसका हर दृष्टिकोण और रवैया, इन सभी ने निर्धारित किया कि वह अंततः परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने, और परमेश्वर के वचनों को वास्तविकता बनाने, परमेश्वर के वचनों को फलीभूत करने, और ऐसा करने में सक्षम था कि वे उसके कठिन परिश्रम के माध्यम से पूरे और संपन्न हो जाएँ और उसके माध्यम से वास्तविकता में बदल जाएँ, और परमेश्वर का आदेश व्यर्थ न जाए। नूह ने जो कुछ भी सोचा, उसके दिल में उठने वाले हर विचार और परमेश्वर के प्रति उसके रवैये को देखते हुए, नूह परमेश्वर के आदेश के योग्य था, वह परमेश्वर के भरोसे का व्यक्ति था, और परमेश्वर का अनुग्रह-प्राप्त व्यक्ति था। परमेश्वर लोगों का हर शब्द और कर्म देखता है, वह उनके विचार और मत देखता है। परमेश्वर की दृष्टि में, नूह के लिए ऐसा सोचने में सक्षम होने का अर्थ था कि उसने गलत चुनाव नहीं किया था; नूह परमेश्वर के आदेश और भरोसे को अपने कंधों पर उठा सकता था और वह परमेश्वर का आदेश पूरा करने में सक्षम था : वह पूरी मानवजाति के बीच एकमात्र विकल्प था।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग दो)

अब्राहम को परमेश्वर में सच्ची आस्था थी, और यह एक बात दर्शाता है जो यह है कि अब्राहम एक ईमानदार व्यक्ति था। परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका एकमात्र रवैया आज्ञाकारिता, स्वीकृति और समर्पण का था—परमेश्वर जो कुछ भी कहता, वह उसका पालन करता। अगर परमेश्वर किसी चीज को काली कहता, तो भले ही अब्राहम को वह काली न दिखती, फिर भी वह परमेश्वर का कहा सच मानता और पुष्टि करता कि वह चीज काली है। अगर परमेश्वर किसी चीज को सफेद बताता, तो वह पुष्टि करता कि वह सफेद है। यह इतनी सरल-सी बात है। परमेश्वर ने उससे कहा कि वह उसे एक बच्चा देगा, और अब्राहम ने मन-ही-मन सोचा, “मैं पहले ही 100 साल का हूँ, लेकिन अगर परमेश्वर कहता है कि वह मुझे एक बच्चा देने वाला है, तो मैं अपने प्रभु, परमेश्वर का आभारी हूँ!” उसने ज्यादा सोच-विचार नहीं किया, बस परमेश्वर में विश्वास रखा। इस विश्वास का सार क्या था? वह परमेश्वर के सार और पहचान में विश्वास रखता था और सृष्टिकर्ता के बारे में उसका ज्ञान वास्तविक था। वह उन लोगों की तरह नहीं था, जो कहते हैं कि वे परमेश्वर को सर्वशक्तिमान और मानवजाति का सृष्टिकर्ता मानते हैं, लेकिन अपने दिलों में संदेह करते हैं, जैसे “क्या मनुष्य वास्तव में वानरों से विकसित हुए हैं? ऐसा कहा जाता है कि परमेश्वर ने सभी चीजें बनाईं, लेकिन लोगों ने इसे अपनी आँखों से नहीं देखा है।” चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे, वे लोग हमेशा विश्वास और संदेह के बीच रहते हैं, और यह निर्धारित करने के लिए कि चीजें सच हैं या झूठ, वे जो देखते हैं उस पर भरोसा करते हैं। वे हर उस चीज पर संदेह करते हैं जिसे वे अपनी आँखों से नहीं देख सकते, इसलिए जब भी वे परमेश्वर को बोलता हुआ सुनते हैं, तो वे उसके वचनों के पीछे प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। वे परमेश्वर द्वारा सामने रखे जाने वाले हर तथ्य, मामले और आज्ञा की सावधानी, कर्मठता और सतर्कता से जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते हैं। वे सोचते हैं कि परमेश्वर में अपने विश्वास में उन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य की वैज्ञानिक शोध के रवैये से यह देखने के लिए जाँच करनी चाहिए कि क्या ये वचन वास्तव में सत्य हैं, अन्यथा उनके ठगे जाने और धोखा खाने की संभावना होगी। लेकिन अब्राहम ऐसा नहीं था, उसने परमेश्वर का वचन शुद्ध हृदय से सुना। हालाँकि, इस अवसर पर परमेश्वर ने अब्राहम से अपने इकलौते पुत्र इसहाक को उस पर बलिदान करने के लिए कहा। इससे अब्राहम को पीड़ा हुई, फिर भी उसने समर्पण करने को चुना। अब्राहम का मानना था कि परमेश्वर के वचन अपरिवर्तनीय हैं और परमेश्वर के वचन वास्तविकता बन जाएँगे। सृजित मनुष्यों को स्वाभाविक रूप से परमेश्वर का वचन स्वीकारना और उसके प्रति समर्पण करना चाहिए, और परमेश्वर के वचन के सामने सृजित मनुष्यों के पास विकल्प चुनने का कोई अधिकार नहीं है, और उन्हें परमेश्वर के वचन का विश्लेषण या जाँच तो बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर के वचन के प्रति अब्राहम ने यही रवैया अपनाया था। भले ही अब्राहम बहुत पीड़ा में था और भले ही अपने बेटे के प्रति उसके प्यार और उसे छोड़ने के प्रति उसकी अनिच्छा ने उसे अत्यधिक तनाव और पीड़ा दी, फिर भी उसने अपना बच्चा परमेश्वर को लौटाना ही चुना। वह इसहाक को परमेश्वर को क्यों लौटाने जा रहा था? अगर परमेश्वर ने अब्राहम से ऐसा करने के लिए नहीं कहा होता, तो उसे अपने बेटे को लौटाने की पहल करने की कोई जरूरत नहीं थी, लेकिन चूँकि परमेश्वर ने कहा था, इसलिए उसे अपने बेटे को परमेश्वर को वापस देना ही था, उसके पास न देने का कोई बहाना नहीं था, और उसे परमेश्वर के साथ बहस करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए—यही वह रवैया था जो अब्राहम ने अपनाया था। उसने ऐसे शुद्ध हृदय के साथ परमेश्वर के सामने समर्पण किया। परमेश्वर यही चाहता था और वह यही देखना चाहता था। जब इसहाक की बलि देने की बात आई, तो अब्राहम का व्यवहार और जो उसने हासिल किया, वह बिल्कुल वैसा ही था जैसा परमेश्वर देखना चाहता था, और यह मामला परमेश्वर द्वारा उसकी परीक्षा लेने और उसे सत्यापित करने का था। और फिर भी, परमेश्वर ने अब्राहम के साथ वैसा व्यवहार नहीं किया, जैसा उसने नूह के साथ किया था। उसने अब्राहम को इस मामले के पीछे के कारणों, प्रक्रिया या इसके बारे में सब-कुछ नहीं बताया। अब्राहम सिर्फ एक ही चीज जानता था, जो यह थी कि परमेश्वर ने उससे इसहाक को वापस करने के लिए कहा है—बस। वह नहीं जानता था कि ऐसा करके परमेश्वर उसकी परीक्षा ले रहा है, न ही वह इस बात से अवगत था कि उसके यह परीक्षा देने के बाद परमेश्वर उसमें और उसके वंशजों में क्या हासिल करना चाहता है। परमेश्वर ने अब्राहम को इनमें से कुछ नहीं बताया, उसने उसे बस एक साधारण आज्ञा दी, एक अनुरोध किया। और हालाँकि परमेश्वर के ये वचन बहुत सरल और इंसानी भावनाओं के प्रति विचारशून्य थे, फिर भी अब्राहम ने वैसा करके, जैसा परमेश्वर चाहता और अपेक्षा करता था, परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कीं : उसने इसहाक को वेदी पर बलि के रूप में चढ़ाया। उसके हर कदम ने दिखाया कि इसहाक की बलि देना उसका बेमन से काम करना नहीं था, वह इसे लापरवाही से नहीं कर रहा था, बल्कि वह ईमानदार था और इसे अपने अंतर्मन से कर रहा था। भले ही वह इसहाक को छोड़ना सहन नहीं कर सकता था, भले ही इससे उसे पीड़ा हुई, लेकिन सृष्टिकर्ता के कहे का सामना होने पर अब्राहम ने वह तरीका चुना जो कोई अन्य व्यक्ति न चुनता : सृष्टिकर्ता ने जो माँगा था उसके प्रति पूर्ण समर्पण, बिना किसी समझौते के, बिना किसी बहाने के और बिना किसी शर्त के समर्पण—उसने वैसा ही किया जैसा परमेश्वर ने उससे करने को कहा था। और जब अब्राहम वैसा कर सका जैसा परमेश्वर ने उससे कहा था, तो उसके पास क्या था? एक लिहाज से, उसके भीतर परमेश्वर में सच्ची आस्था थी; वह सुनिश्चित था कि सृष्टिकर्ता परमेश्वर है, उसका परमेश्वर, उसका प्रभु, वह जो सभी चीजों पर संप्रभु है और जिसने मानवजाति का सृजन किया है। यह सच्ची आस्था थी। दूसरे लिहाज से, उसका हृदय शुद्ध था। वह सृष्टिकर्ता द्वारा कहे गए हर वचन पर विश्वास करता था और उसके द्वारा कहे गए हर वचन को सरलता से और सीधे तौर पर स्वीकारने में सक्षम था। और एक और लिहाज से, सृष्टिकर्ता ने जो कहा था, उसमें चाहे कितनी भी बड़ी कठिनाई क्यों न हो, इससे उसे चाहे कितनी भी पीड़ा क्यों न हो, उसने जो रवैया चुना वह था समर्पण, परमेश्वर के साथ बहस या उसका विरोध या इनकार करने की कोशिश न करना, बल्कि पूर्ण और समग्र समर्पण, परमेश्वर ने जो कहा था उसके अनुसार, उसके हर वचन और उसके द्वारा दिए गए आदेश के अनुसार कार्य और अभ्यास करना। जैसा परमेश्वर ने कहा और देखना चाहा, ठीक वैसे ही अब्राहम ने इसहाक को वेदी पर बलि के रूप में चढ़ा दिया, उसने उसे परमेश्वर को अर्पित कर दिया—और जो कुछ भी उसने किया, उससे यह साबित हुआ कि परमेश्वर ने सही व्यक्ति को चुना था और परमेश्वर की नजरों में वह धार्मिक था।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग दो)

जब तुम्हारे पास सच्ची आस्था होगी, केवल तभी तुममें सच्चा समर्पण होगा। जब तुम सच्चे मन से परमेश्वर के प्रति समर्पण करोगे, केवल तभी तुम्हारे अंदर धीरे-धीरे परमेश्वर पर सच्चा भरोसा उत्पन्न हो सकता है। सच्चे मन से परमेश्वर के प्रति समर्पण की प्रक्रिया में तुम सच्चा भरोसा प्राप्त करते हो, लेकिन अगर तुममें सच्चे भरोसे की कमी है तो क्या तुम वाकई परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हो? (नहीं।) ये चीजें आपस में जुड़ी हैं और ये नियमों या तर्क का मामला नहीं हैं। सत्य फलसफा नहीं है, यह तर्कसंगत नहीं होता। सत्य आपस में जुड़े होते हैं और ये एक-दूसरे से बिल्कुल अलग नहीं किए जा सकते। अगर तुम कहते हो, “परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के लिए तुम्हें परमेश्वर पर भरोसा होना ही चाहिए, और अगर तुम्हें परमेश्वर पर भरोसा है तो परमेश्वर के प्रति समर्पण करना ही चाहिए,” तो यह एक नियम, एक वाक्यांश, एक सिद्धांत, एक आडंबरपूर्ण दृष्टिकोण है! जीवन के मसले नियम नहीं होते हैं। तुम मुँह-जुबानी स्वीकारते रहते हो कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही तुम्हारा एकमात्र उद्धारक और एकमात्र सच्चा परमेश्वर है, लेकिन क्या तुम्हें परमेश्वर पर सच्चा भरोसा है? जब तुम विपत्ति का सामना करते हो तो मजबूती से टिके रहने के लिए किस पर निर्भर रहते हो? अनेक लोग सर्वशक्तिमान परमेश्वर को इसलिए स्वीकारते हैं क्योंकि वह बहुत सारे सत्य व्यक्त कर चुका है। वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए उसे स्वीकारते हैं। लेकिन गिरफ्तारी और कष्टों से पाला पड़ने पर कई लोग पीछे हट जाते हैं, कई लोग अपने घरों में दुबक जाते हैं और उनमें अपने कर्तव्य निभाने की हिम्मत नहीं होती है। इस समय, तुम्हारे ये शब्द—“मैं परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास करता हूँ, मैं मानता हूँ कि मनुष्य की नियति परमेश्वर के नियंत्रण में है और यह भी कि मेरी किस्मत परमेश्वर के हाथों में है”—न जाने कब के गायब हो चुके होते हैं। यह तुम्हारे लिए सिर्फ एक जुमला था। चूँकि तुम इन शब्दों का अभ्यास और अनुभव करने का साहस नहीं करते, और तुम इन शब्दों के अनुसार नहीं जीते हो तो क्या तुम्हें परमेश्वर पर सच्चा भरोसा है? परमेश्वर में आस्था रखने का सार केवल परमेश्वर के नाम पर विश्वास करना भर नहीं है, बल्कि इस तथ्य पर विश्वास करना है कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है। तुम्हें इस तथ्य को अपना जीवन बनाना होगा, इसे अपने जीवन की असली गवाही बनाना होगा। तुम्हें इन शब्दों के अनुसार जीना होगा। यानी प्रतिकूल स्थितियों का सामना होने पर इन शब्दों को अपने व्यवहार, और अपने कार्यकलापों की दिशा और लक्ष्य का मार्गदर्शन करने देना होगा। तुम्हें इन शब्दों के अनुसार क्यों जीना होगा? उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए किसी बाहरी देश में जाने में सक्षम हो जाते हो और तुम्हें यह काफी अच्छा लगता है। विदेश में बड़े लाल अजगर का शासन नहीं चलता और वहाँ विश्वास रखने के कारण किसी को सताया नहीं जाता; परमेश्वर पर विश्वास करने से तुम्हारी जान खतरे में नहीं पड़ती, इसलिए तुम्हें जोखिम नहीं उठाने पड़ते। जबकि मुख्य भूमि चीन में परमेश्वर के विश्वासियों के सिर पर हर समय गिरफ्तारी का खतरा मँडराता रहता है; वे शैतानों की माँद में रह रहे हैं, और यह बहुत खतरनाक है! तभी एक दिन परमेश्वर कहता है : “तुम कई साल से विदेश में परमेश्वर पर विश्वास कर रहे हो और कुछ जीवन अनुभव ले चुके हो। मुख्य भूमि चीन में एक ऐसी जगह है जहाँ भाई-बहन जीवन के मामले में अपरिपक्व हैं। तुम्हें वापस लौटकर उनका चरवाहा बनना चाहिए।” यह जिम्मेदारी सामने आने पर तुम क्या करोगे? (समर्पण कर इसे स्वीकारूँगा।) तुम इसे बाहरी मन से स्वीकार सकते हो, लेकिन तुम्हारा दिल असहज हो जाएगा। रात में बिस्तर में जाकर तुम रोओगे और प्रार्थना करोगे, “परमेश्वर, तुम मेरी कमजोरी जानते हो। मेरा आध्यात्मिक कद बहुत कम है। अगर मैं मुख्य भूमि में लौट भी जाऊँ, तो भी परमेश्वर के चुने हुए लोगों को चरा नहीं पाऊँगा! क्या तुम वहाँ किसी और को नहीं भेज सकते? मुझे यह आदेश मिला है और मैं जाना भी चाहता हूँ, लेकिन डरता हूँ कि अगर मैं गया तो मैं इसे अच्छी तरह से कार्यान्वित नहीं कर पाऊँगा, कि मैं अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से नहीं निभा पाऊँगा, और मैं तुम्हारे इरादों के अनुरूप जी नहीं पाऊँगा! क्या मैं दो साल और विदेश में नहीं रह सकता?” तुम कौन-सा विकल्प चुन रहे हो? तुम जाने से पूरी तरह इनकार नहीं कर रहे हो, लेकिन जाने के लिए पूरी तरह राजी भी नहीं हो। यह बोले बगैर टालमटोल करना है। क्या इसे परमेश्वर के प्रति समर्पण कहेंगे? यह परमेश्वर से सबसे स्पष्ट विद्रोह है। तुम्हारी वापस न लौटने की इच्छा का मतलब है कि तुम्हारे अंदर विरोधी भावनाएँ हैं। क्या परमेश्वर यह जानता है? (वह जानता है।) परमेश्वर कहेगा, “मत जाओ। मैं तुम्हारे प्रति कठोरता नहीं बरत रहा हूँ, मैं तो बस तुम्हारा परीक्षण कर रहा हूँ।” इस प्रकार उसने तुम्हारा खुलासा कर दिया। क्या तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो? क्या तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हो? क्या तुममें सच्चा भरोसा है? (नहीं।) क्या यह कमजोरी है? (नहीं।) यह विद्रोह है, यह परमेश्वर का विरोध है। इस परीक्षण ने यह प्रकट कर दिया कि तुम्हें परमेश्वर पर सच्चा भरोसा नहीं है, तुममें सच्चा समर्पण नहीं है और तुम यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है। तुम कहते हो, “अगर मुझे डर लग रहा है, तो मेरा न जाने का फैसला जायज है। जब तक मेरी जान को खतरा है, मैं मना कर सकता हूँ। मुझे यह आदेश स्वीकारने की जरूरत नहीं है और मैं अपना मार्ग खुद चुन सकता हूँ। मैं शिकवे-शिकायतों से भर सकता हूँ।” यह कैसा भरोसा है? यहाँ कोई सच्चा भरोसा नहीं है। तुम्हारे नारे चाहे जितने बड़े हों, क्या उनका कोई असर होगा? बिल्कुल भी नहीं। क्या तुम्हारी कसमों का कोई असर होगा? अगर दूसरे लोग सत्य पर संगति करें और तुम्हें मनाएँ तो क्या इसका कोई फायदा होगा? (नहीं।) भले ही तुम दूसरे लोगों के मनाने के बाद अनिच्छा से मुख्य भूमि चले जाओ, क्या यह सच्चा समर्पण होगा? परमेश्वर तुमसे समर्पण इस तरह नहीं कराना चाहता। तुम्हारा अनिच्छा से जाना बेकार रहेगा। परमेश्वर तुममें कार्य नहीं करेगा और इससे तुम्हारे हाथ कुछ नहीं लगेगा। परमेश्वर लोगों को कार्य करने के लिए बाध्य नहीं करता। इसमें तुम्हारी इच्छा होनी चाहिए। अगर तुम नहीं जाना चाहते, कोई तीसरा मार्ग अपनाना चाहते हो, और हमेशा बचने, ठुकराने और टालने की कोशिश करते हो, तो फिर तुम्हें जाने की जरूरत नहीं है। जब तुम्हारा आध्यात्मिक कद काफी बड़ा हो और तुममें वैसा ही भरोसा होगा तो तुम अपनी इच्छा से जाने का अनुरोध करोगे, “चाहे कोई दूसरा न जाए लेकिन मैं जाऊँगा। इस बार मुझे सचमुच कोई डर नहीं है, और मैं अपनी जान जोखिम में डालने को तैयार हूँ! क्या यह जीवन परमेश्वर ने नहीं दिया है? शैतान से ऐसा भी क्या डर? वह परमेश्वर के हाथ का खिलौना है, और मैं उससे नहीं डरता! अगर मुझे गिरफ्तार न किया गया तो इसके पीछे परमेश्वर का अनुग्रह होगा और उसकी दया होगी। अगर ऐसी परिस्थिति बनी कि मुझे गिरफ्तार कर लिया जाता है तो इसका कारण यह होगा कि परमेश्वर ने इसकी अनुमति दी है। चाहे मैं कैद में मर जाऊँ, तो भी मुझे परमेश्वर की गवाही देनी चाहिए! मेरा यह संकल्प होना चाहिए—मैं अपना जीवन परमेश्वर को सौंप दूँगा। मैंने अपने जीवन में जो समझा, अनुभव किया और जाना है, उसके बारे में उन भाई-बहनों के साथ संगति करूँगा जिनके पास समझ और ज्ञान की कमी है। इस तरह उनमें मेरे जैसा भरोसा और संकल्प पैदा हो सकता है, और वे परमेश्वर के सामने आकर उसकी गवाही दे सकते हैं। मुझे परमेश्वर के इरादों का ख्याल रखकर यह भारी बोझ उठाना चाहिए। भले ही यह भारी बोझ उठाने के लिए जोखिम उठाने और अपनी जान कुर्बान करने की जरूरत है, फिर भी मुझे कोई डर नहीं है। अब मैं अपने बारे में नहीं सोचता; मेरे पास परमेश्वर है, मेरा जीवन उसके हाथ में है, और मैं उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति स्वेच्छा से समर्पित हूँ।” जब तुम वहाँ लौटोगे तो तुम्हें उस परिवेश में कष्ट सहने पड़ेंगे। हो सकता है तुम जल्दी बूढ़े हो जाओ, तुम्हारे बाल पकने लगें और चेहरा झुर्रियों से भर जाए। हो सकता है तुम बीमार पड़ जाओ या गिरफ्तार कर सताए जाओ, या जानलेवा खतरे में घिर जाओ। तुम्हें इन मुसीबतों का सामना कैसे करना चाहिए? यह बात भी सच्चे भरोसे से जुड़ी है। कुछ लोग दृढ़ संकल्प लेकर वहाँ जा सकते हैं, लेकिन वहाँ पहुँचकर इन कठिनाइयों का सामना करने पर वे क्या करेंगे? तुम्हें जोखिम उठाकर परमेश्वर की संप्रभुता पर विश्वास करना चाहिए। भले ही तुम थोड़ा बुढ़ाते नजर आओ या थोड़े बीमार पड़ जाओ, ये मामूली बातें हैं। अगर तुम परमेश्वर के प्रति पाप करते हो और उसका आदेश ठुकराते हो, तो तुम इस जीवन में परमेश्वर के हाथों पूर्ण बनाए जाने का अवसर खो बैठोगे। अगर तुम अपने जीवन में परमेश्वर के प्रति पाप करते हो और उसका आदेश ठुकराते हो तो यह चिरस्थायी कलंक होगा! इस अवसर को खोने का मतलब है कि तुम अपनी जवानी के कितने ही साल देकर इसे वापस नहीं पा सकते। स्वस्थ और मजबूत शरीर होने का क्या लाभ है? सुंदर चेहरे और अच्छी कद-काठी का क्या फायदा है? भले ही तुम अस्सी साल के हो जाओ और तुम्हारा दिमाग तब भी तेज चले, अगर तुम परमेश्वर के कहे एक भी वाक्य का अर्थ नहीं समझ सकते तो क्या यह दयनीय बात नहीं होगी? यह अति दयनीय बात होगी! तो, वह सबसे अहम और अनमोल चीज क्या है जिसे लोगों को परमेश्वर के सामने आने पर हासिल करना चाहिए? यह है परमेश्वर में सच्ची आस्था। तुम पर चाहे जो बला आए, अगर तुम पहले समर्पण करते हो, भले ही उस समय तुम्हारे मन में परमेश्वर के बारे में कुछ छोटी-मोटी गलतफहमियाँ पैदा हों, या तुम बिल्कुल न समझ पाओ कि परमेश्वर इस तरह से कार्य क्यों कर रहा है, तो भी तुम निराश और कमजोर नहीं पड़ोगे। जैसा कि पतरस ने कहा, “भले ही परमेश्वर मनुष्यों के साथ इस तरह खेलता हो, जैसे कि वे खिलौने हों, तो भी मनुष्यों को क्या शिकायत होगी?” अगर तुममें इतना-सा भरोसा भी नहीं है, तो क्या तुम तब भी पतरस के समान समर्पित हो सकते हो? अक्सर परमेश्वर तुम्हारे साथ जो करता है वह तुम्हारे आध्यात्मिक कद, कल्पनाओं और धारणाओं के अनुरूप उचित और तर्कसंगत होता है। परमेश्वर तुम्हारे आध्यात्मिक कद के अनुसार कार्य करता है। फिर भी तुम इसे स्वीकार नहीं कर सकते तो क्या तुम पतरस जैसा समर्पण पा सकते हो? यह तो और भी असंभव बात होगी। इसलिए तुम्हें इस दिशा और इस लक्ष्य में प्रयास करने होंगे। तब जाकर ही तुम परमेश्वर में सच्ची आस्था पा सकोगे।

अगर लोगों में सच्ची आस्था की कमी हो तो क्या वे परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं? यह कहना मुश्किल है। परमेश्वर पर सच्चा भरोसा रखकर ही वे सचमुच उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं। बात बिल्कुल ऐसी ही है। अगर तुम वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते तो तुम्हारे पास परमेश्वर का प्रबोधन, मार्गदर्शन या पूर्णता प्राप्त करने का कोई और अवसर नहीं होगा। तुमने परमेश्वर के हाथों पूर्ण बनने के ये सारे अवसर हाथ से जाने दिए। तुम इन्हें नहीं चाहते हो। तुम उन्हें ठुकरा रहे हो, टाल रहे हो और लगातार उनसे बचते फिर रहे हो। तुम हमेशा शारीरिक सुख-सुविधाओं वाला और कष्टरहित परिवेश चुनते हो। यह दिक्कत की बात है! तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर सकते। तुम परमेश्वर के मार्गदर्शन, परमेश्वर की अगुआई और परमेश्वर की सुरक्षा का अनुभव नहीं कर सकते। तुम परमेश्वर के कर्मों का अनुभव नहीं कर सकते। लिहाजा तुम न तो सत्य और न सच्चा भरोसा हासिल कर पाओगे—तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा!

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सच्चे समर्पण से ही व्यक्ति असली भरोसा रख सकता है

लोगों को समझना चाहिए कि सृष्टिकर्ता का सृजित प्राणियों के साथ व्यवहार करने का एक बुनियादी सिद्धांत है, जो सर्वोच्च सिद्धांत है। सृष्टिकर्ता सृजित प्राणियों के साथ कैसा व्यवहार करता है, यह पूरी तरह से उसकी प्रबंधन योजना और उसकी कार्य अपेक्षाओं पर आधारित है; उसे किसी व्यक्ति से सलाह लेने की जरूरत नहीं है, न ही उसे इसकी आवश्यकता है कि कोई व्यक्ति उससे सहमत हो। जो कुछ भी उसे करना चाहिए और जिस भी तरह से उसे लोगों से व्यवहार करना चाहिए, वह करता है, और भले ही वह कुछ भी करता हो और जिस भी तरह से लोगों से व्यवहार करता हो, वह सब सत्य-सिद्धांतों और उन सिद्धांतों के अनुरूप होता है, जिनके द्वारा सृष्टिकर्ता कार्य करता है। एक सृजित प्राणी के रूप में करने लायक केवल एक ही चीज़ है और वह है सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पित होना; व्यक्ति को अपना कोई चुनाव नहीं करना चाहिए। यही विवेक है जो सृजित प्राणियों में होना चाहिए, और अगर किसी व्यक्ति के पास यह नहीं है, तो वह व्यक्ति कहलाने योग्य नहीं हैं। लोगों को समझना चाहिए कि सृष्टिकर्ता हमेशा सृष्टिकर्ता ही रहेगा; उसके पास किसी भी सृजित प्राणी के बारे में जैसे चाहे वैसे आयोजन करने और उन पर संप्रभुता रखने की शक्ति और योग्यताएँ है, और ऐसा करने के लिए उसे किसी कारण की आवश्यकता नहीं है। यह उसका अधिकार है। सृजित प्राणियों में कोई भी ऐसा नहीं है, जिसके पास यह अधिकार हो या वह इतना पात्र हो कि वह इस बात की आलोचना कर सके कि सृष्टिकर्ता जो कुछ करता है, वह सही है या गलत है, या उसे कैसे कार्य करना चाहिए। कोई भी सृजित प्राणी यह चुनने का हक नहीं रखता कि उसे सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करना है या नहीं; किसी भी सृजित प्राणी को यह पूछने का हक नहीं है कि सृष्टिकर्ता को उन पर संप्रभुता कैसे रखनी चाहिए या उनकी नियति की व्यवस्था कैसे करनी चाहिए। यह सर्वोच्च सत्य है। सृष्टिकर्ता ने चाहे सृजित प्राणियों के साथ कुछ भी किया हो या कैसे भी किया हो, उसके द्वारा सृजित मनुष्यों को केवल एक ही काम करना चाहिए : सृष्टिकर्ता द्वारा प्रस्तुत हरेक चीज को खोजना, इसके प्रति समर्पित होना, इसे जानना और स्वीकार करना। इसका अंतिम परिणाम यह होगा कि सृष्टिकर्ता ने अपनी प्रबंधन योजना और अपना काम पूरा कर लिया होगा, जिससे उसकी प्रबंधन योजना बिना किसी अवरोध के आगे बढ़ेगी; इस बीच, चूँकि सृजित प्राणियों ने सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाएँ स्वीकार कर ली हैं, और वे उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो गए हैं, इसलिए उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया होगा, सृष्टिकर्ता के इरादों को समझ लिया होगा, और उसके स्वभाव को जान लिया होगा। एक और सिद्धांत है, जो मुझे तुम्हें बताना चाहिए : सृष्टिकर्ता चाहे जो भी करे, उसकी अभिव्यक्तियाँ जिस भी प्रकार की हों, उसका कार्य बड़ा हो या छोटा, वह फिर भी सृष्टिकर्ता ही है; जबकि समस्त मनुष्य, जिन्हें उसने सृजित किया, चाहे उन्होंने कुछ भी किया हो, या वे कितने भी प्रतिभाशाली और गुणी क्यों न हों, वे सृजित प्राणी ही रहते हैं। जहाँ तक सृजित मनुष्यों का सवाल है, चाहे जितना भी अनुग्रह और जितने भी आशीष उन्होंने सृष्टिकर्ता से प्राप्त कर लिए हों, या जितनी भी दया, प्रेमपूर्ण करुणा और उदारता प्राप्त कर ली हो, उन्हें खुद को भीड़ से अलग नहीं मानना चाहिए, या यह नहीं सोचना चाहिए कि वे परमेश्वर के बराबर हो सकते हैं और सृजित प्राणियों में ऊँचा दर्जा प्राप्त कर चुके हैं। परमेश्वर ने तुम्हें चाहे जितने उपहार दिए हों, या जितना भी अनुग्रह प्रदान किया हो, या जितनी भी दयालुता से उसने तुम्हारे साथ व्यवहार किया हो, या चाहे उसने तुम्हें कोई विशेष प्रतिभा दी हो, इनमें से कुछ भी तुम्हारी संपत्ति नहीं है। तुम एक सृजित प्राणी हो, और इस तरह तुम सदा एक सृजित प्राणी ही रहोगे। तुम्हें कभी नहीं सोचना चाहिए, “मैं परमेश्वर के हाथों में उसका लाड़ला हूँ। परमेश्वर मुझे कभी कभी नहीं त्यागेगा, परमेश्वर का रवैया मेरे प्रति हमेशा प्रेम, देखभाल और नाज़ुक दुलार के साथ-साथ सुकून के गर्मजोशी भरे बोलों और प्रबोधन का होगा।” इसके विपरीत, सृष्टिकर्ता की दृष्टि में तुम अन्य सभी सृजित प्राणियों की ही तरह हो; परमेश्वर तुम्हें जिस तरह चाहे, उस तरह इस्तेमाल कर सकता है, और साथ ही तुम्हारे लिए जैसा चाहे, वैसा आयोजन कर सकता है, और तुम्हारे लिए सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीज़ों के बीच जैसी चाहे वैसी कोई भी भूमिका निभाने की व्यवस्था कर सकता है। लोगों को यह ज्ञान होना चाहिए और उनमें यह विवेक होना चाहिए। अगर व्यक्ति इन वचनों को समझ और स्वीकार सके, तो परमेश्वर के साथ उसका संबंध अधिक सामान्य हो जाएगा, और वह उसके साथ एक सबसे ज़्यादा वैध संबंध स्थापित कर लेगा; अगर व्यक्ति इन वचनों को समझ और स्वीकार सके, तो वह अपने स्थान को सही ढंग से उन्मुख कर पाएगा, वहाँ अपना आसन ग्रहण कर पाएगा और अपना कर्तव्य निभा पाएगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य समझकर ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है

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