33. सत्य प्राप्त होने पर लोगों में आने वाले परिवर्तन

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। यह इंसान का जीवन और उसके चलने की दिशा बन सकता है; यह उसके भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने में, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला इंसान बनने में और एक योग्य सृजित प्राणी बनने में और एक ऐसा इंसान बनने में जिसे परमेश्वर प्रेम करता है और स्वीकार्य मानता है, मदद कर सकता है। ... चूँकि सत्य लोगों के लिए सहज उपलब्ध सहायता और पोषण है, और यह उनका जीवन हो सकता है, इसलिए उन्हें सत्य को सबसे अनमोल मानना चाहिए। इसका यह कारण है कि उन्हें जीने के लिए, परमेश्वर की माँगों को पूरा करने के लिए, उसका भय मानने और बुराई से दूर रहने के लिए और अपने दैनिक जीवन के भीतर अभ्यास के मार्ग को खोजने और अभ्यास के सिद्धांत समझने के लिए सत्य पर भरोसा करना चाहिए और परमेश्वर के प्रति समर्पण हासिल करना चाहिए। लोगों को इसलिए भी सत्य पर भरोसा करना चाहिए ताकि वे अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकें, ऐसे व्यक्ति बन सकें जिन्हें बचाया गया हो और जो योग्य सृजित प्राणी हों।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग सात)

परमेश्वर अपना जीवन, अपना सारा अस्तित्व और अपना सब कुछ मनुष्य को प्रदान कर चुका है, ताकि वह इसे जी सके, ताकि वह वो सब कुछ ले सके जो परमेश्वर है और जो उसका है, और वो सत्य भी ले सके जो उसने मनुष्य को प्रदान किए हैं, और इन्हें वह अपने जीवन-दिशा और लक्ष्य में बदल सके ताकि वह उसके वचनों के अनुसार जी सके और उसके वचनों को अपना जीवन बना सके। इस तरह से क्या यह नहीं कहा जा सकता कि परमेश्वर ने अपना जीवन मुक्त भाव से मनुष्य को प्रदान किया है ताकि परमेश्वर उसका जीवन बन सके? (कहा जा सकता है।) तो फिर वह क्या है जो लोग परमेश्वर से हासिल करते हैं? उसकी अपेक्षाएँ? उसके वादे? या कुछ और? लोगों को परमेश्वर से जो मिलता है वह कोई खोखला वचन नहीं है, वह परमेश्वर का जीवन है! परमेश्वर जब लोगों को जीवन प्रदान करता है तो साथ ही उसकी एकमात्र अपेक्षा होती है कि वे उसका जीवन अपने जीवन के रूप में जिएँ। जब परमेश्वर तुम्हें यह जीवन जीते देखता है तो वह संतुष्ट होता है; यही उसकी एकमात्र अपेक्षा है। इसलिए, लोग परमेश्वर से जो हासिल करते हैं वह कोई मूल्यवान चीज है, लेकिन जब वह उन्हें सबसे अनमोल चीज देता है तो उस वक्त उसे कुछ नहीं मिलता है। सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्य है; मनुष्य ही सर्वाधिक फसल हासिल करता है, और मनुष्य ही सबसे बड़ा लाभार्थी है। जिस वक्त लोग परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकारते हैं, तो वे सत्य को समझते हैं और उन्हें अपने आचरण के लिए सिद्धांत और नींव प्राप्त होते हैं, इसलिए उन्हें अपने जीवन मार्ग के लिए दिशा मिल जाती है। वे फिर कभी शैतान से गुमराह नहीं होते या उसके बंधन में नहीं रहते, न फिर कभी वे बुरे लोगों के हाथों गुमराह होते हैं न ही इस्तेमाल किए जाते हैं; वे फिर कभी बुरी प्रवृत्तियों से दूषित नहीं होते या ललचाते नहीं हैं। वे स्वर्ग और पृथ्वी के बीच मुक्त और स्वतंत्र होकर जीते हैं, और परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन सचमुच जीने में सक्षम रहते हैं, और फिर कभी किसी बुरी या अंधकारपूर्ण शक्ति के नृशंस व्यवहार का शिकार नहीं होते हैं। कहने का आशय यह है कि जब कोई व्यक्ति इस प्रकार का जीवन जीता है तो वह फिर कभी पीड़ा नहीं सहता, और उसे कोई कठिनाइयाँ नहीं होती हैं; वह खुशी से, स्वतंत्रता और सुख से रहता है। परमेश्वर से उसका सामान्य संबंध होता है; वह उसके खिलाफ विद्रोह नहीं करता, न उसका प्रतिरोध करता है। वास्तव में उसकी संप्रभुता के अधीन रहते हुए, वह अंदर-बाहर से इस तरीके से जीता है जो बिल्कुल उचित होता है; उसके पास सत्य और मानवता होती है, और वह मानवजाति के नाम के योग्य बन जाता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर की प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्‍य है

जब लोग परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, तो वे परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में भी प्रवेश कर लेते हैं और सत्य का उपयोग करके प्रश्नों को समझने और उनके बारे में सोचने लगते हैं एवं सत्य का प्रयोग करके समस्याएँ हल कर पाते हैं। जब एक बार लोग परमेश्वर के बारे में अपनी विभिन्न धारणाएँ और गलतफहमियाँ दूर कर लेते हैं, तो वे परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते में तुरंत सुधार कर पाते हैं, और साथ-साथ जीवन प्रवेश की ओर अपना पथ प्रशस्त कर पाते हैं। जब लोगों में ऐसे बदलाव आ जाते हैं, तो परमेश्वर के साथ उनके रिश्ते का क्या होता है? यह सृजित प्राणियों और सृष्टिकर्ता का रिश्ता हो जाता है। इस स्तर पर संबंधों में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती, कोई परीक्षा नहीं होती और विद्रोह भी बहुत कम होता है; लोग परमेश्वर के प्रति बहुत अधिक विनीत, समझदार, श्रद्धावान, वफादार एवं ईमानदार हो जाते हैं और वास्तव में परमेश्वर का भय मानने लगते हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1)

जब परमेश्वर के वचन तुम्हारे हृदय में जड़ जमा लेते हैं, तो तुम सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो जाओगे। जब तुम परमेश्वर के वचनों की कुछ वास्तविकताओं को जीओगे, तो तुम बाहरी मामलों को बड़ी गहराई और स्पष्टता से देख पाओगे। तुम्हें बुरी प्रवृत्तियों, मानवजाति के जीवन के तरीके, अपने विवाह और परिवार, विभिन्न अंतर्वैयक्तिक संबंधों और सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों का सटीक आकलन, समझ और पहचान होगी। यह सटीक समझ, आकलन और पहचान कहाँ से आती है? यह परमेश्वर के वचनों से आती है। इसका स्रोत परमेश्वर के वचन हैं; तुम्हें परमेश्वर के वचनों का पोषण मिला होगा। और मार्ग क्या है? मार्ग यह है कि तुम परमेश्वर के वचनों के अनुभवों से गुजरते हो, सत्य का अनुभव करने में सक्षम होते हो, और परमेश्वर से अच्छे-बुरे में भेद करने की बुद्धि और बुरी प्रवृत्तियों को पहचानने की क्षमता प्राप्त करते हो। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम और क्या प्राप्त करते हो? (जीवन।) यह कहना कि तुम जीवन प्राप्त करते हो, केवल धर्म-सिद्धांत है। तुम और क्या प्राप्त करते हो? विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के साथ अनुभव प्राप्त करके तुम यह देख पाते हो कि परमेश्वर कैसे सब-कुछ आयोजित करता है; विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के माध्यम से तुम देखते हो कि परमेश्वर के इरादे क्या हैं, परमेश्वर का स्वभाव क्या है, परमेश्वर की बुद्धि क्या है, चीजें करने का उसका तरीका और उसके सिद्धांत क्या हैं, और परमेश्वर विभिन्न प्रकार के लोगों से जैसे व्यवहार करता है उसमें क्या बुद्धि है। सृष्टिकर्ता को जानने के लिए तुम्हें ये चीजें देखनी चाहिए।

—परमेश्वर की संगति

जब लोग उस दिन तक अनुभव करते हैं जब तक जीवन के बारे में उनका दृष्टिकोण और उनके अस्तित्व का अर्थ एवं आधार पूरी तरह से बदल नहीं जाते हैं, जब उनका सब कुछ परिवर्तित नहीं हो जाता और वे कोई अन्य व्यक्ति नहीं बन जाते हैं, क्या यह अद्भुत नहीं है? यह एक बड़ा परिवर्तन है; यह एक ऐसा परिवर्तन है जो सब कुछ उलट-पुलट कर देता है। केवल जब दुनिया की कीर्ति, लाभ, पद, धन, सुख, सत्ता और महिमा में तुम्हारी रुचि ख़त्म हो जाती है और तुम आसानी से उन्हें छोड़ पाते हो, केवल तभी तुम एक मनुष्य के समान बन पाओगे। जो लोग अंततः पूर्ण किये जाएंगे, वे इस तरह के एक समूह होंगे। वे सत्य के लिए, परमेश्वर के लिए और धार्मिकता के लिए जीएँगे। यही एक मनुष्य के समान होना है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

जो लोग वास्तव में परमेश्वर को जानते हैं, सत्य समझते हैं, और सत्य प्राप्त करते हैं, उनके वैश्विक नजरिए और जीवन के प्रति नजरिये में वास्तविक परिवर्तन होता है, जिसके बाद उनके जीवन-स्वभाव में भी वास्तविक परिवर्तन होता है। जब लोगों के सही जीवन-लक्ष्य होते हैं, जब वे सत्य का अनुसरण करने में सक्षम होते हैं, और सत्य के अनुसार आचरण करते हैं, जब वे पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं और उसके वचनों के अनुसार जीते हैं, जब वे अपने दिल की गहराई तक शांति और रोशनी महसूस करते हैं, जब उनके दिल अँधेरे से मुक्त होते हैं, और जब वे पूरी तरह से स्वतंत्र और बाधामुक्त होकर परमेश्वर की उपस्थिति में जीते हैं, केवल तभी वे एक सच्चा मानव-जीवन व्यतीत करते हैं और केवल तभी वे ऐसे लोग बन पाते हैं जिनमें सत्य और मानवता होती है। इसके अलावा, जो भी सत्य तुमने समझे और प्राप्त किए हैं, वे सभी परमेश्वर के वचनों से और स्वयं परमेश्वर से आए हैं। जब तुम सर्वोच्च परमेश्वर—सृष्टिकर्ता—का अनुमोदन प्राप्त करते हो, और वह कहता है कि तुम एक योग्य सृजित प्राणी हो जो इंसान की तरह जीता है, तभी तुम्हारा जीवन सबसे अधिक सार्थक होगा। परमेश्वर का अनुमोदन पाने का अर्थ है कि तुमने सत्य पा लिया है, और तुम्हारे पास सत्य और इंसानियत है। आज के शैतान द्वारा नियंत्रित विश्व में, और मानव-इतिहास के कम से कम हजारों वर्षों में, कौन है जिसने एक सच्चा मानवीय जीवन प्राप्त किया है? कोई भी नहीं। चूँकि लोग शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किए जा चुके हैं और वे शैतान के फलसफों के अनुसार जीते हैं, और जो कुछ भी वे करते हैं वह परमेश्वर के प्रतिकूल होता है, और उनका हर कथन और सिद्धांत शैतान की भ्रष्टता से पैदा होता है और परमेश्वर के वचनों के सीधे विरोध में होता है, इसलिए वे ठीक उस तरह के लोग हैं जो परमेश्वर का विरोध करते हैं। अगर वे परमेश्वर का उद्धार नहीं स्वीकारते, तो वे नरक और विनाश में डूब जाएँगे, उनके पास कोई कहने लायक जीवन होगा ही नहीं। वे शोहरत और लाभ के पीछे दौड़ते हैं, महान या प्रसिद्ध व्यक्ति बनने की कोशिश करते हैं, और उम्मीद करते हैं कि उनके नाम “पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते चले जाएँगे,” और “पूरे इतिहास में प्रसिद्ध” होंगे। ये शैतानी शब्द हैं और पूरी तरह से असमर्थनीय हैं। हर महान या प्रसिद्ध व्यक्ति, दरअसल शैतान का है, और सजा के लिए लंबे समय से नरक के अठारहवें स्तर में गिर चुका है, जिसका कभी पुनर्जन्म नहीं होगा। जब भ्रष्ट मानवजाति इन लोगों की आराधना करती है और उनकी शैतानी बातों और भ्रांतियों को स्वीकारती है, तो भ्रष्ट मानवजाति दानवों और शैतान की शिकार बन जाती है। सृजित प्राणियों को सृष्टिकर्ता की आराधना करनी चाहिए। यह पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है, क्योंकि सिर्फ परमेश्वर ही सत्य है। परमेश्वर स्वर्ग और पृथ्वी और हर चीज नियंत्रित करता है और सभी पर संप्रभु है। परमेश्वर पर विश्वास न करने और परमेश्वर के प्रति समर्पित न होने का अर्थ है सत्य प्राप्त न कर पाना। यदि तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीते हो, तो तुम अपने दिल की गहराई में प्रकाशवान और सहज महसूस करोगे और तुम अतुलनीय मिठास का आनंद लोगे। जब ऐसा होगा, तो तुम वास्तव में जीवन प्राप्त कर लोगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें

जब कोई व्यक्ति बचा लिया जाता है और उसे सत्य प्राप्त हो जाता है, तो चीजों के प्रति उसका दृष्टिकोण पूरी तरह से बदल जाएगा, उसका दृष्टिकोण पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुरूप और परमेश्वर के अनुकूल हो जाएगा। इस चरण पर पहुँचने के बाद, व्यक्ति फिर कभी परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं करेगा, और न ही परमेश्वर अब उसे ताड़ना देगा या उसका न्याय करेगा, और न ही उससे घृणा करेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह व्यक्ति अब परमेश्वर का शत्रु नहीं है, वह अब परमेश्वर के विरोध में नहीं खड़ा है, और परमेश्वर वास्तव में और उचित रूप से अब अपने सृजित प्राणियों का सृष्टिकर्ता बन गया है। अब लोग परमेश्वर के प्रभुत्व में वापस लौट चुके हैं, और परमेश्वर उस भक्ति, समर्पण, और भय का आनंद लेता है जो लोगों को उसके प्रति व्यक्त करना चाहिए। फिर सब कुछ स्वाभाविक रूप से चलने लगता है। ... जब तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण करने के आधार को समझ जाओगे और सत्य सिद्धांतों को समझकर उनमें प्रवेश करोगे, तो तुम सही आचरण करना सीख जाओगे, और सच्चे इंसान बन जाओगे। यही स्वयं के आचरण की नींव है, और केवल ऐसे ही व्यक्ति का जीवन सार्थक है, केवल वे ही जीने लायक हैं और उन्हें मरना नहीं चाहिए।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (8)

अगर व्यक्ति सत्य वास्तविकता को अपना जीवन मान ले, तो यह कैसे अभिव्यक्त होगा? सबसे पहले, वह परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और मनुष्यता के साथ जीने में सक्षम होगा; वह एक ईमानदार व्यक्ति होगा, ऐसा व्यक्ति जिसका जीवन-स्वभाव बदल गया है। जीवन-स्वभाव में परिवर्तन की कई विशेषताएँ होती हैं। पहली विशेषता उन चीजों के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना है, जो सही और सत्य के अनुरूप हैं। चाहे कोई भी राय दे, चाहे वह बूढ़ा हो या जवान, तुम उसके साथ निभा पाओ या नहीं, तुम उसे जानते हो या नहीं, तुम उससे परिचित हो या नहीं, उसके साथ तुम्हारा संबंध अच्छा हो या बुरा, अगर वह जो कहता है वह सही है, सत्य के अनुरूप है और परमेश्वर के घर के कार्य के लिए फायदेमंद है, तो तुम किन्हीं अन्य कारकों से प्रभावित हुए बिना उसे सुन पाओगे, अपना पाओगे और स्वीकार पाओगे। सही और सत्य के अनुरूप चीजों को स्वीकार कर उनके प्रति समर्पित होने में सक्षम होना पहली विशेषता है। दूसरी विशेषता है कुछ घटित होने पर सत्य की खोज करने में सक्षम होना; यह न केवल सत्य को स्वीकारने में सक्षम होने के बारे में है, बल्कि सत्य का अभ्यास करने और मामले अपनी इच्छा के अनुसार न सँभालने के बारे में भी है। तुम्हारे साथ चाहे कुछ भी हो, चीजें स्पष्ट रूप से न देख पाने पर तुम खोज पाओगे और यह देख पाओगे कि समस्या कैसे सँभालनी है और कैसे उस तरह से अभ्यास करना है, जो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हो और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करे। तीसरी विशेषता है किसी भी समस्या का सामना करने पर परमेश्वर के इरादों पर विचार करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण हासिल करने के लिए देह-सुख के प्रति विद्रोह करना। तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभा रहे हो, परमेश्वर के इरादों पर विचार करोगे, और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाओगे। तुम कर्तव्य निभाते समय उस कर्तव्य के लिए परमेश्वर की जो भी अपेक्षाएँ हों, उन अपेक्षाओं के अनुसार और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कार्य करोगे। तुम्हें यह सिद्धांत समझना चाहिए, और अपना कर्तव्य जिम्मेदारी और वफादारी से निभाना चाहिए। परमेश्वर के इरादों पर विचार करने का यही अर्थ है। अगर तुम नहीं जानते कि किसी विशेष मामले में परमेश्वर के इरादों पर कैसे विचार किया जाए या परमेश्वर को संतुष्ट कैसे किया जाए, तो तुम्हें खोज करनी चाहिए। तुम लोगों को स्वभावगत परिवर्तन के इन तीन लक्षणों से अपनी तुलना करनी चाहिए, और देखना चाहिए कि तुममें ये लक्षण हैं या नहीं। यदि तुम्हारे पास इन तीन क्षेत्रों में व्यावहारिक अनुभव और अभ्यास के मार्ग हैं, तो तुम मामले सिद्धांतों के साथ सँभालोगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है

एक बार जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो ईशनिंदा करता है, परमेश्वर का भय नहीं मानता, कर्तव्य निभाते समय अनमना रहता है या कलीसिया के काम में गड़बड़ी कर बाधा डालता है, तो तुम सत्य-सिद्धांतों के अनुसार प्रतिक्रिया दोगे, तुम आवश्यकतानुसार उसे पहचानकर उजागर कर पाओगे। अगर सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है और तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के भीतर रहते हो, तो जब तुम्हें उन बुरे लोगों और शैतानों का पता चलता है जो कलीसिया के कार्य में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते हैं, तुम उन पर ध्यान नहीं दोगे और उन्हें अनसुना कर दोगे; अपने विवेक द्वारा धिक्कारे जाए बिना, तुम उन्हें नजरअंदाज कर दोगे। तुम यह भी सोचोगे कि कलीसिया के कार्य में कोई भी बाधाएँ डाले तो इससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे कितना भी नुकसान पहुँचे, तुम परवाह नहीं करते, हस्तक्षेप नहीं करते, या दोषी महसूस नहीं करते—जो तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति बनाता है जिसमें जमीर और विवेक नहीं है, एक छद्म-विश्वासी बनाता है, मजदूर बनाता है। तुम जो खाते हो वह परमेश्वर का है, तुम जो पीते हो वह परमेश्वर का है, और तुम परमेश्वर से आने वाली हर चीज का आनंद लेते हो, फिर भी तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान तुमसे संबंधित नहीं है—जो तुम्हें गद्दार बनाता है, जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो क्या तुम इंसान भी हो? यह एक दानव है, जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है। तुम परमेश्वर में विश्वास का दिखावा करते हो, चुने हुए होने का दिखावा करते हो, और तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो। तुम एक इंसान का जीवन नहीं जी रहे, इंसान से ज्यादा राक्षस जैसे हो, और स्पष्ट रूप से छद्म-विश्वासियों में से एक हो। अगर तुम्हें परमेश्वर में सच्चा विश्वास है, तब यदि तुमने सत्य और जीवन नहीं भी प्राप्त किया है, तो भी तुम कम से कम परमेश्वर की ओर से बोलोगे और कार्य करोगे; कम से कम, जब परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान किया जा रहा हो, तो तुम उस समय खड़े होकर तमाशा नहीं देखोगे। यदि तुम अनदेखी करना चाहोगे, तो तुम्हारा मन कचोटेगा, तुम असहज हो जाओगे और मन ही मन सोचोगे, “मैं चुपचाप बैठकर तमाशा नहीं देख सकता, मुझे दृढ़ रहकर कुछ कहना होगा, मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, इस बुरे बर्ताव को उजागर करना होगा, इसे रोकना होगा, ताकि परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान न पहुँचे और कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त न हो।” यदि सत्य तुम्हारा जीवन बन चुका है, तो न केवल तुममें यह साहस और संकल्प होगा, और तुम इस मामले को पूरी तरह से समझने में सक्षम होगे, बल्कि तुम परमेश्वर के कार्य और उसके घर के हितों के लिए भी उस ज़िम्मेदारी को पूरा करोगे जो तुम्हें उठानी चाहिए, और उससे तुम्हारे कर्तव्य की पूर्ति हो जाएगी। यदि तुम अपने कर्तव्य को अपनी जिम्मेदारी, अपना दायित्व और परमेश्वर का आदेश समझ सको, और यह महसूस करो कि परमेश्वर और अपनी अंतरात्मा का सामना करने के लिए यह आवश्यक है, तो क्या फिर तुम सामान्य मानवता की निष्ठा और गरिमा को नहीं जी रहे होगे? तुम्हारा कर्म और व्यवहार “परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो” होगा, जिसके बारे में वह बोलता है। तुम इन वचनों के सार का पालन कर रहे होगे और उनकी वास्तविकता को जी रहे होगे। जब सत्य किसी व्यक्ति का जीवन बन जाता है, तब वह इस वास्तविकता को जीने में सक्षम होता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

यदि कोई अपना कर्तव्य करते हुए परमेश्वर को संतुष्ट कर सकता है, और अपने कार्यों और क्रियाकलापों में सैद्धांतिक है और सत्य के समस्त पहलुओं की वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है, तो वह ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर द्वारा पूर्ण किया गया है। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर का कार्य और उसके वचन उनके लिए पूरी तरह से प्रभावी हो गए हैं, कि परमेश्वर के वचन उनका जीवन बन गए हैं, उन्होंने सच्चाई को प्राप्त कर लिया है, और वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में समर्थ हैं। इसके बाद, उनके देह की प्रकृति—अर्थात, उनके मूल अस्तित्व की नींव—हिलकर अलग हो जाएगी और ढह जाएगी। जब लोग परमेश्वर के वचन को अपने जीवन के रूप में धारण कर लेंगे, केवल तभी वे नए लोग बनेंगे। अगर परमेश्वर के वचन लोगों का जीवन बन जाते हैं; परमेश्वर के कार्य का दर्शन, उसका प्रकाशन और मानवता से उसकी अपेक्षाएँ, और मानव जीवन के वे मानक जो परमेश्वर अपेक्षा करता है कि वे प्राप्त करें, लोगों का जीवन बन जाते हैं, अगर लोग इन वचनों और सच्चाइयों के अनुसार जीते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों द्वारा पूर्ण बनाए जाते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों के माध्यम से पुनर्जन्म लेते हैं और नए लोग बन गए हैं। यह वह मार्ग है जिसके द्वारा पतरस ने सत्य का अनुसरण किया। यह पूर्ण बनाए जाने का मार्ग है। पतरस परमेश्वर के वचनों से पूर्ण बना, उसने परमेश्वर के वचनों से जीवन प्राप्त किया, परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया सत्य उसका जीवन बन गया, और वह एक ऐसा व्यक्ति बना जिसने सत्य को प्राप्त किया।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें

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