34. परमेश्वर का आज्ञाकारी होना क्या है
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
मनुष्यों को परमेश्वर ने बनाया था और उन्हें परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए थी, पर उन्होंने वास्तव में परमेश्वर से मुँह मोड़ लिया और इसके बजाय शैतान की आराधना करने लगे। शैतान उनके दिलों में बस गया। इस प्रकार, परमेश्वर ने मनुष्य के हृदय में अपना स्थान खो दिया, जिसका मतलब है कि उसने मानवता के सृजन के पीछे का अर्थ खो दिया। इसलिए मानवता के सृजन के अपने अर्थ को बहाल करने के लिए उसे उनकी मूल समानता को बहाल करना होगा और मानवता को उसके भ्रष्ट स्वभाव से मुक्ति दिलानी होगी। शैतान से मनुष्यों को वापस प्राप्त करने के लिए, उसे उन्हें पाप से बचाना होगा। केवल इसी तरह परमेश्वर धीरे-धीरे उनकी मूल समानता और भूमिका को बहाल कर सकता है और अंत में, अपने राज्य को बहाल कर सकता है। विद्रोह करने वाले उन पुत्रों का अंतिम तौर पर विनाश भी क्रियान्वित किया जाएगा, ताकि मनुष्य बेहतर ढंग से परमेश्वर की आराधना कर सकें और पृथ्वी पर बेहतर ढंग से रह सकें। चूँकि परमेश्वर ने मानवों का सृजन किया, इसलिए वह मनुष्य से अपनी आराधना करवाएगा; क्योंकि वह मानवता के मूल कार्य को बहाल करना चाहता है, वह उसे पूर्ण रूप से और बिना किसी मिलावट के बहाल करेगा। अपना अधिकार बहाल करने का अर्थ है, मनुष्यों से अपनी आराधना कराना और समर्पण कराना; इसका अर्थ है कि वह अपनी वजह से मनुष्यों को जीवित रखेगा और अपने अधिकार की वजह से अपने शत्रुओं का विनाश करेगा। इसका अर्थ है कि परमेश्वर किसी प्रतिरोध के बिना, मनुष्यों के बीच उस सब को बनाए रखेगा जो उसके बारे में है। जो राज्य परमेश्वर स्थापित करना चाहता है, वह उसका स्वयं का राज्य है। वह जिस मानवता की आकांक्षा रखता है, वह है, जो उसकी आराधना करेगी, जो उसे पूरी तरह समर्पण करेगी और उसकी महिमा का प्रदर्शन करेगी। यदि परमेश्वर भ्रष्ट मानवता को नहीं बचाता, तो उसके द्वारा मानवता के सृजन का अर्थ खत्म हो जाएगा; उसका मनुष्यों के बीच अब और अधिकार नहीं रहेगा और पृथ्वी पर उसके राज्य का अस्तित्व अब और नहीं रह पाएगा। यदि परमेश्वर उन शत्रुओं का नाश नहीं करता, जो उसके प्रति विद्रोही हैं, तो वह अपनी संपूर्ण महिमा प्राप्त करने में असमर्थ रहेगा, वह पृथ्वी पर अपने राज्य की स्थापना भी नहीं कर पाएगा। ये उसका कार्य पूरा होने और उसकी महान उपलब्धि के प्रतीक होंगे : मानवता में से उन सबको पूरी तरह नष्ट करना, जो उसके प्रति विद्रोही हैं और जो पूर्ण किए जा चुके हैं, उन्हें विश्राम में लाना। जब मनुष्यों को उनकी मूल समानता में बहाल कर लिया जाएगा, और जब वे अपने-अपने कर्तव्य निभा सकेंगे, अपने उचित स्थानों पर बने रह सकेंगे और परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं को समर्पण कर सकेंगे, तब परमेश्वर ने पृथ्वी पर उन लोगों का एक समूह प्राप्त कर लिया होगा, जो उसकी आराधना करते हैं और उसने पृथ्वी पर एक राज्य भी स्थापित कर लिया होगा, जो उसकी आराधना करता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे
चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, इसलिए तुम्हें परमेश्वर के सभी वचनों और कार्यों में विश्वास रखना चाहिए। अर्थात्, चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, इसलिए तुम्हें उसके प्रति समर्पण करना चाहिए। यदि तुम ऐसा नहीं कर पाते हो, तो यह मायने नहीं रखता कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो या नहीं। यदि तुमने वर्षों परमेश्वर में विश्वास रखा है, फिर भी न तो कभी उसके प्रति समर्पण किया है, न ही उसके वचनों की समग्रता को स्वीकार किया है, बल्कि तुमने परमेश्वर को अपने आगे समर्पण करने और तुम्हारी धारणाओं के अनुसार कार्य करने को कहा है, तो तुम सबसे अधिक विद्रोही व्यक्ति हो, और गैर-विश्वासी हो। एक ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के कार्य और वचनों के प्रति समर्पण कैसे कर सकता है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं है? सबसे अधिक विद्रोही वे लोग होते हैं जो जानबूझकर परमेश्वर की अवहेलना और उसका विरोध करते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के शत्रु और मसीह विरोधी हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के नए कार्य के प्रति निरंतर शत्रुतापूर्ण रवैया रखते हैं, ऐसे व्यक्ति में कभी भी समर्पण का कोई भाव नहीं होता, न ही उसने कभी खुशी से समर्पण किया होता है या दीनता का भाव दिखाया है। ऐसे लोग दूसरों के सामने अपने आपको ऊँचा उठाते हैं और कभी किसी के आगे नहीं झुकते। परमेश्वर के सामने, ये लोग वचनों का उपदेश देने में स्वयं को सबसे ज़्यादा निपुण समझते हैं और दूसरों पर कार्य करने में अपने आपको सबसे अधिक कुशल समझते हैं। इनके कब्ज़े में जो “खज़ाना” होता है, ये लोग उसे कभी नहीं छोड़ते, दूसरों को इसके बारे में उपदेश देने के लिए, अपने परिवार की पूजे जाने योग्य विरासत समझते हैं, और उन मूर्खों को उपदेश देने के लिए इनका उपयोग करते हैं जो उनकी पूजा करते हैं। कलीसिया में वास्तव में इस तरह के कुछ ऐसे लोग हैं। ये कहा जा सकता है कि वे “अदम्य नायक” हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी परमेश्वर के घर में डेरा डाले हुए हैं। वे वचन (सिद्धांत) का उपदेश देना अपना सर्वोत्तम कर्तव्य समझते हैं। साल-दर-साल और पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे अपने “पवित्र और अलंघनीय” कर्तव्य को पूरी प्रबलता से लागू करते रहते हैं। कोई उन्हें छूने का साहस नहीं करता; एक भी व्यक्ति खुलकर उनकी निंदा करने की हिम्मत नहीं दिखाता। वे परमेश्वर के घर में “राजा” बनकर युगों-युगों तक बेकाबू होकर दूसरों पर अत्याचार करते चले आ रहे हैं। दुष्टात्माओं का यह झुंड संगठित होकर काम करने और मेरे कार्य का विध्वंस करने की कोशिश करता है; मैं इन जीती-जागती दुष्ट आत्माओं को अपनी आँखों के सामने कैसे अस्तित्व में बने रहने दे सकता हूँ? यहाँ तक कि आधा-अधूरा समर्पण करने वाले लोग भी अंत तक नहीं चल सकते, फिर इन आततायियों की तो बात ही क्या है जिनके हृदय में थोड़ा-सा भी समर्पण नहीं है! इंसान परमेश्वर के कार्य को आसानी से ग्रहण नहीं कर सकता। इंसान अपनी सारी ताक़त लगाकर भी थोड़ा-बहुत ही पा सकता है जिससे वो आखिरकार पूर्ण बनाया जा सके। फिर प्रधानदूत की संतानों का क्या, जो परमेश्वर के कार्य को नष्ट करने की कोशिश में लगी रहती हैं? क्या परमेश्वर द्वारा उन्हें ग्रहण करने की आशा और भी कम नहीं है? विजय-कार्य करने का मेरा उद्देश्य केवल विजय के वास्ते विजय प्राप्त करना नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य धार्मिकता और अधार्मिकता को प्रकट करना, मनुष्य के दण्ड के लिए प्रमाण प्राप्त करना, दानव को दंडित करना, और उन लोगों को पूर्ण बनाना है जो स्वेच्छा से समर्पण करते हैं। अंत में, सभी को उनके प्रकार के अनुसार पृथक किया जाएगा, और जिन लोगों के सोच-विचार समर्पण से भरे होते हैं, अंततः उन्हें ही पूर्ण बनाया जाएगा। यही काम अंततः संपन्न किया जाएगा। इस दौरान, जिन लोगों का हर काम विद्रोह से भरा है उन्हें दण्डित किया जाएगा, और आग में जलने के लिए भेज दिया जाएगा जहाँ वे अनंतकाल तक शाप के भागी होंगे। जब वह समय आएगा, तो बीते युगों के वे “महान और अदम्य नायक” सबसे नीच और परित्यक्त “कमज़ोर और नपुंसक कायर” बन जाएँगे। केवल यही परमेश्वर की धार्मिकता के हर पहलू और उसके उस स्वभाव को प्रकट कर सकता है जिसका मनुष्य द्वारा अपमान नहीं किया जा सकता, मात्र यही मेरे हृदय की नफ़रत को शांत कर सकता है। क्या तुम लोगों को यह पूरी तरह तर्कपूर्ण नहीं लगता?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सच्चे हृदय से परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे
परमेश्वर के देह में होने के दौरान, जिस समर्पण की वह लोगों से अपेक्षा करता है, उसमें आलोचना या विरोध करने से बचना शामिल नहीं है, जैसा कि वे कल्पना करते हैं; इसके बजाय, वह अपेक्षा करता है कि लोग उसके वचनों का अपने जीने के सिद्धांत और अपने अस्तित्व की नींव के रूप में उपयोग करें, कि वे उसके वचनों के सार को पूरी तरह से अभ्यास में ले आएँ, और कि वे पूरी तरह से उसकी इच्छा पूरी करें। लोगों से देहधारी परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की अपेक्षा करने का एक पहलू उसके वचनों को अभ्यास में लाने का उल्लेख करता है, जबकि दूसरा पहलू उसकी सामान्यता और व्यावहारिकता के प्रति समर्पण करने के बारे में बताता है। ये दोनों पूर्ण होने चाहिए। जो लोग इन दोनों पहलुओं को प्राप्त कर सकते हैं, वे सब वे हैं जिनके पास सच्चा परमेश्वर-प्रेमी हृदय है। वे सब वे लोग हैं जो परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जा चुके हैं, और वे सभी परमेश्वर से उतना ही प्रेम करते हैं, जितना वे अपने जीवन से करते हैं। देहधारी परमेश्वर अपने कार्य में सामान्य और व्यावहारिक मानवता रखता है। इस तरह, उसकी सामान्य और व्यावहारिक मानवता, दोनों का बाह्य आवरण लोगों के लिए एक बड़ा परीक्षण बन जाता है; यह उनकी सबसे बड़ी कठिनाई बन जाता है। किंतु परमेश्वर की सामान्यता और व्यावहारिकता से बचा नहीं जा सकता। उसने समाधान खोजने के लिए सब-कुछ करने का प्रयास किया, लेकिन अंत में वह स्वयं को अपनी सामान्य मानवता के बाहरी आवरण से मुक्त नहीं कर सका। यह इसलिए था, क्योंकि अंततः, वह देहधारी परमेश्वर है, न कि स्वर्ग में पवित्रात्मा का परमेश्वर। वह ऐसा परमेश्वर नहीं है, जिसे लोग देख न सकें, बल्कि ऐसा परमेश्वर है, जिसने एक सृजित प्राणी का आवरण पहना है। इसलिए, उसे खुद को अपनी सामान्य मानवता के आवरण से मुक्त करना किसी भी तरह से आसान नहीं होगा। इसलिए कुछ भी हो जाए, वह अभी भी वह कार्य करता है, जो वह देह के परिप्रेक्ष्य से करना चाहता है। यह कार्य सामान्य और व्यावहारिक परमेश्वर की अभिव्यक्ति है, इसलिए लोगों का उसके प्रति समर्पण न करना सही कैसे हो सकता है? परमेश्वर के कार्यों के बारे में लोग आखिर क्या कर सकते हैं? वह जो चाहता है, करता है; जिससे चाहता है, उससे खुश होता है। अगर लोग समर्पण नहीं करते, तो उनके पास और कौन-सी ठोस योजनाएँ हो सकती हैं? अभी तक, सिर्फ समर्पण ही लोगों को बचा सका है; किसी के पास कोई अन्य उज्ज्वल विचार नहीं थे। अगर परमेश्वर लोगों की परीक्षा लेना चाहता है, तो वे इसके बारे में क्या कर सकते हैं? लेकिन यह सब स्वर्ग के परमेश्वर द्वारा नहीं सोचा गया था; यह देहधारी परमेश्वर द्वारा सोचा गया था। वह ऐसा करना चाहता है, इसलिए कोई व्यक्ति इसे बदल नहीं सकता। देहधारी परमेश्वर जो कुछ करता है, उसमें स्वर्ग का परमेश्वर हस्तक्षेप नहीं करता, इसलिए क्या यह लोगों द्वारा उसके प्रति समर्पण करने का और भी बड़ा कारण नहीं है? यद्यपि वह व्यावहारिक और सामान्य दोनों है, फिर भी वह पूरी तरह से देहधारी परमेश्वर है। अपने ही विचारों के आधार पर वह जो चाहता है, करता है। स्वर्ग के परमेश्वर ने उसे सभी कार्य सौंप दिए हैं; तुम्हें उस सबके प्रति समर्पित होना चाहिए, जो वह करता है। यद्यपि उसमें मानवता है और वह बहुत सामान्य है, लेकिन उसने यह सब जान-बूझकर व्यवस्थित किया है, इसलिए लोग उसे अस्वीकृति के साथ आँखें तरेरकर कैसे देख सकते हैं? वह सामान्य होना चाहता है, इसलिए वह सामान्य है। वह मानव-जाति के भीतर रहना चाहता है, इसलिए वह मानव-जाति के भीतर रहता है। वह दिव्यता के भीतर रहना चाहता है, इसलिए वह दिव्यता के भीतर रहता है। लोग इसे जैसे चाहें देख सकते हैं, लेकिन परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा और मनुष्य हमेशा मनुष्य रहेंगे। किसी मामूली ब्योरे की वजह से उसके सार को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, न ही उसे किसी छोटी-सी चीज के कारण परमेश्वर के “व्यक्तित्व” के बाहर धकेला जा सकता है। लोगों के पास मनुष्यों की आजादी है, और परमेश्वर के पास परमेश्वर की गरिमा है; ये एक-दूसरे के साथ हस्तक्षेप नहीं करते। क्या लोग परमेश्वर को थोड़ी-सी स्वतंत्रता नहीं दे सकते? क्या वे परमेश्वर का थोड़ा और लापरवाह होना सहन नहीं कर सकते? परमेश्वर के साथ इतने कठोर मत बनो! प्रत्येक को एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता रखनी चाहिए; क्या तब हर चीज का समाधान नहीं हो जाएगा? क्या फिर भी कोई मनमुटाव रह जाएगा? अगर कोई इतनी छोटी-सी बात भी बरदाश्त नहीं कर सकता, तो वह ऐसा कुछ भी कैसे कह सकता है, “प्रधानमंत्री का दिल इतना बड़ा है कि उसमें नाव तैर सकती है”? वह एक सच्चा आदमी कैसे हो सकता है? यह परमेश्वर नहीं है जो मनुष्यों के लिए कठिनाई पैदा करता है, बल्कि मनुष्य ही है जो परमेश्वर के लिए कठिनाई पैदा करते हैं। वे हमेशा राई का पहाड़ बनाकर चीजें सँभाला करते हैं। वे वास्तव में टिल का ताड़ बना लेते हैं, और यह बहुत अनावश्यक है! जब परमेश्वर सामान्य और व्यावहारिक मानवता के भीतर कार्य करता है, तो वह जो करता है, वह मनुष्य का कार्य नहीं होता, बल्कि परमेश्वर का कार्य होता है। फिर भी, लोग उसके कार्य का सार नहीं देखते; वे हमेशा उसकी मानवता का बाहरी आवरण ही देखते हैं। उन्होंने इतना बड़ा कार्य नहीं देखा है, फिर भी वे उसकी साधारण और सामान्य मानवता देखने पर जोर देते हैं, और वे इसे छोड़ेंगे नहीं। इसे परमेश्वर के प्रति समर्पित होना कैसे कहा जा सकता है? स्वर्ग का परमेश्वर अब पृथ्वी के परमेश्वर में “बदल गया” है, और पृथ्वी का परमेश्वर अब स्वर्ग का परमेश्वर है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता अगर उनके बाह्य रूप-रंग एक-से हैं, न ही इससे कोई फर्क पड़ता है कि असल में वे किस तरह काम करते है। अंत में, जो परमेश्वर का कार्य करता है, वह स्वयं परमेश्वर है। तुम्हें समर्पण करना चाहिए, चाहे तुम करना चाहो या नहीं—यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसमें तुम्हारे पास कोई विकल्प हो! मनुष्यों द्वारा परमेश्वर के प्रति समर्पण किया जाना चाहिए, और मनुष्यों को जरा-सा भी बहाना बनाए बिना परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से समर्पण करना चाहिए।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर से सचमुच प्रेम करने वाले लोग वे होते हैं जो परमेश्वर की व्यावहारिकता के प्रति पूर्णतः समर्पित हो सकते हैं
परमेश्वर, देहधारी परमेश्वर और सत्य के प्रति लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? (हमें सुनना, स्वीकारना और समर्पण करना चाहिए।) सही कहा। तुम्हें सुनना, स्वीकारना और समर्पित होना चाहिए। इससे ज्यादा सरल कुछ नहीं है। सुनने के बाद तुम्हें अपने दिल में स्वीकारना चाहिए। अगर तुम कोई चीज स्वीकारने में असमर्थ हो, तो तुम्हें तब तक खोजते रहना चाहिए, जब तक तुम पूरी तरह स्वीकारने में सक्षम न हो जाओ—फिर, जैसे ही तुम उसे स्वीकारते हो, वैसे ही तुम्हें समर्पण करना चाहिए। समर्पण करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है अभ्यास और क्रियान्वित करना। चीजों को सुनने के बाद खारिज न करना, बाहरी तौर पर उन्हें करने का वादा करना, उन्हें नोट करना, उन्हें लिखने के लिए प्रतिबद्ध होना, उन्हें अपने कानों से सुनना लेकिन उन्हें आत्मसात न करना, और बस अपने पुराने तौर-तरीकों से चलते रहना और जब करने का समय आए तो जो जी चाहे वो करना, जो तुमने लिखा था उसे अपने दिमाग के पीछे रख छोड़ना और महत्वहीन समझना। यह समर्पण करना नहीं है। परमेश्वर के वचनों के प्रति सच्चे समर्पण का मतलब है उन्हें सुनकर अपने दिल से समझना और उन्हें सच में स्वीकारना—उन्हें एक अटल जिम्मेदारी के रूप में स्वीकारना। यह सिर्फ यह कहने की बात नहीं है कि व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को स्वीकारता है; इसके बजाय, यह उसके वचनों को हृदय से स्वीकारना है, उसके वचनों की अपनी स्वीकृति को व्यावहारिक क्रियाकलापों में बदलना और उसके वचनों को बिना किसी विचलन के कार्यान्वित करना है। तुम जो सोचते हो, जिसे करने में तुम हाथ लगाते हो और जो कीमत तुम चुकाते हो, अगर वह सब परमेश्वर की माँगें पूरी करने के लिए है, तो यह परमेश्वर के वचनों को कार्यान्वित करना है। “समर्पण” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है अभ्यास और कार्यान्वयन, परमेश्वर के वचनों को वास्तविकता में बदलना। अगर तुम परमेश्वर के कहे वचनों और उसकी अपेक्षाओं को नोटबुक में लिखते हो और उन्हें कागज पर उतारते हो, लेकिन उन्हें अपने हृदय में दर्ज नहीं करते, और जब कार्य करने का समय आता है तो तुम जैसे जी चाहे वैसे करते हो, और बाहर से ऐसा लगता है कि तुमने वही किया है जो परमेश्वर ने कहा था, लेकिन तुमने उसे अपनी इच्छा के अनुसार किया है, तो यह परमेश्वर के वचनों को सुनना, स्वीकारना और उनके प्रति समर्पण करना नहीं है, यह सत्य से घृणा करना, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाना और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करना है। यह विद्रोह है।
—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचन सुने और उसके प्रति समर्पण किया (भाग दो)
परमेश्वर के प्रति समर्पण और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण एक ही बात है। जो लोग केवल परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं लेकिन उसके कार्य के प्रति समर्पित नहीं होते, उन्हें समर्पित नहीं माना जा सकता, और उन्हें तो बिल्कुल नहीं माना जा सकता जो सचमुच समर्पण न करके, सतही तौर पर चापलूस होते हैं। जो लोग सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं वे सभी कार्य से लाभ प्राप्त करने और परमेश्वर के स्वभाव और कार्य की समझ प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। ऐसे ही लोग वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं। ऐसे लोग नए कार्य से नया ज्ञान प्राप्त करते हैं और नए कार्य से उनमें बदलाव आता है। ऐसे लोग ही परमेश्वर की प्रशंसा पाते हैं, पूर्ण बनते हैं, और उनके स्वभाव का रूपांतरण होता है। जो लोग खुशी से परमेश्वर के प्रति, उसके वचन और कार्य के प्रति समर्पित होते हैं, वही परमेश्वर की प्रशंसा पाते हैं। ऐसे लोग ही सही मार्ग पर हैं; ऐसे लोग ही ईमानदारी से परमेश्वर की कामना करते हैं और ईमानदारी से परमेश्वर की खोज करते हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सच्चे हृदय से परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे
परमेश्वर के समर्पण की कुंजी नए प्रकाश की सराहना करने, उसे स्वीकार करने और उसे अभ्यास में लाने में है। यही सच्चा समर्पण है। जिनमें परमेश्वर के लिए तड़पने की इच्छाशक्ति का अभाव है, जो उसके समक्ष स्वेच्छा से समर्पित नहीं हो पाते और केवल यथास्थिति से संतुष्ट होकर परमेश्वर का विरोध ही कर सकते हैं, ऐसा इंसान परमेश्वर के प्रति समर्पण इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि वह अभी भी पहले के प्रभाव में है। जो चीज़ें पहले आईं, उन्होंने लोगों को परमेश्वर के बारे में तमाम तरह की धारणाएँ और कल्पनाएँ दीं, और ये उनके दिमाग़ में परमेश्वर की छवि बन गई हैं। इस प्रकार, वे जिसमें विश्वास करते हैं, वह उनकी स्वयं की धारणाएँ और उनकी अपनी कल्पनाओं के मापदण्ड हैं। यदि तुम अपनी कल्पनाओं के परमेश्वर के सामने उस परमेश्वर को मापते हो जो आज व्यावहारिक कार्य करता है, तो तुम्हारा विश्वास शैतान से आता है, और तुम्हारी अपनी पसंद की वस्तु से दाग़दार है—परमेश्वर इस तरह का विश्वास नहीं चाहता। इस बात की परवाह किए बिना कि उनकी साख कितनी ऊंची है, और उनके समर्पण की परवाह किए बिना—भले ही उन्होंने उसके कार्य के लिए जीवनभर प्रयास किए हों, और अपनी जान कुर्बान कर दी हो—परमेश्वर इस तरह के विश्वास वाले किसी भी व्यक्ति को स्वीकृति नहीं देता। वह उनके ऊपर मात्र थोड़ा-सा अनुग्रह करता है और थोड़े समय के लिए उन्हें उसका आनन्द उठाने देता है। इस तरह के लोग सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होते हैं, पवित्र आत्मा उनके भीतर काम नहीं करता, परमेश्वर बारी-बारी से उन में प्रत्येक को हटा देगा। चाहे कोई युवा हो या बुजुर्ग, ऐसे सभी लोग जो अपने विश्वास में परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते और जिनकी मंशाएँ ग़लत हैं, जो परमेश्वर के कार्य का विरोध करते और उसमें गड़बड़ी करते हैं, ऐसे लोगों को परमेश्वर यकीनन हटा देगा। वे लोग जिनमें परमेश्वर के प्रति थोड़ा-सा भी समर्पण नहीं है, जो केवल उसका नाम स्वीकारते हैं, जिन्हें परमेश्वर की दयालुता और मनोरमता की थोड़ी-सी भी समझ है, फिर भी वे पवित्र आत्मा के कदमों के साथ तालमेल बनाकर नहीं चलते, और पवित्र आत्मा के वर्तमान कार्य एवं वचनों के प्रति समर्पण नहीं करते—ऐसे लोग परमेश्वर के अनुग्रह में रहते हैं, लेकिन उसके द्वारा प्राप्त नहीं किए या पूर्ण नहीं बनाए जाएँगे। परमेश्वर लोगों को उनके समर्पण, परमेश्वर के वचनों को उनके खाने-पीने, उनका आनन्द उठाने और उनके जीवन में कष्ट एवं शुद्धिकरण के माध्यम से पूर्ण बनाता है। ऐसे विश्वास से ही लोगों का स्वभाव परिवर्तित हो सकता है और तभी उन्हें परमेश्वर का सच्चा ज्ञान हो सकता है। परमेश्वर के अनुग्रह के बीच रहकर सन्तुष्ट न होना, सत्य के लिए सक्रियता से लालायित होना और उसे खोजना और परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाने का प्रयास करना—यही जागृत रहकर परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का अर्थ है; और परमेश्वर ऐसा ही विश्वास चाहता है। जो लोग परमेश्वर के अनुग्रह का आनन्द उठाने के अलावा कुछ नहीं करते, वे पूर्ण नहीं बनाए जा सकते, या परिवर्तित नहीं किए जा सकते, और उनका समर्पण, धर्मनिष्ठता, प्रेम तथा धैर्य सभी सतही होते हैं। जो लोग केवल परमेश्वर के अनुग्रह का आनन्द लेते हैं, वे परमेश्वर को सच्चे अर्थ में नहीं जान सकते, यहाँ तक कि जब वे परमेश्वर को जान भी जाते हैं, तब भी उनका ज्ञान उथला ही होता है, और वे “परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है”, या “परमेश्वर मनुष्य के प्रति करुणामय है” जैसी बातें करते हैं। यह मनुष्य के जीवन का द्योतक नहीं है, न ही इससे यह सिद्ध होता है कि लोग सचमुच परमेश्वर को जानते हैं। यदि, जब परमेश्वर के वचन उन्हें शुद्ध करते हैं, या जब उन्हें अचानक परमेश्वर की परीक्षाएँ देनी पड़ती हैं, तब लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर पाते—बल्कि यदि वे संदिग्ध और ग़लत साबित हो जाते हैं—तब वे रत्ती भर भी समर्पित नहीं रहते हैं। परमेश्वर में विश्वास को लेकर उनके भीतर कई नियम और प्रतिबंध हैं, पुराने अनुभव हैं जो कई वर्षों के विश्वास का परिणाम हैं, या बाइबल पर आधारित विभिन्न नियम हैं। क्या इस प्रकार के लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं? ये लोग मानवीय चीजों से भरे हुए हैं—वे परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे कर सकते हैं? उनका “समर्पण” व्यक्तिगत पसंद के अनुसार होता है—क्या परमेश्वर ऐसा समर्पण चाहेगा? यह परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं है, बल्कि नियमों से चिपके रहना है; यह खुद को संतोष देना और तुष्ट करना है। यदि तुम कहते हो कि यह परमेश्वर के प्रति समर्पण है, तो क्या तुम ईशनिंदा नहीं कर रहे हो?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर में अपने विश्वास में तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए
यदि लोग धार्मिक धारणाओं को छोड़ सकें, तो वे आज परमेश्वर के वचनों और उसके कार्य को मापने के लिए अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं करेंगे, और इसके बजाय सीधे तौर पर समर्पण करेंगे। भले ही परमेश्वर का आज का कार्य साफ़ तौर पर अतीत के कार्य से अलग है, तुम फिर भी अतीत के विचारों का त्याग कर पाने और आज सीधे तौर पर परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण करने में सक्षम हो। यदि अतीत में परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य को नजरअंदाज करते हुए, तुम यह समझने में सक्षम हो कि तुम्हारे लिए परमेश्वर के आज के कार्य को सबसे प्रमुख स्थान देना जरूरी है, तो तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो अपनी धारणाओं को छोड़ चुका है, जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है, और जो परमेश्वर के कार्य और वचनों के प्रति समर्पण करने और उसके पदचिह्नों पर चलने में सक्षम है। इस तरह, तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे जो सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है। तुम परमेश्वर के कार्य का विश्लेषण या जांच नहीं करते हो; यह ऐसा है मानो परमेश्वर अपने अतीत के कार्य को भूल चुका है और तुम भी उसे भूल चुके हो। वर्तमान ही वर्तमान है, और अतीत बीता हुआ कल हो चुका है, और चूँकि आज परमेश्वर ने अतीत में किए गए अपने कार्य को अलग कर दिया है, तुम्हें भी उस पर टिके नहीं रहना चाहिए। केवल ऐसा ही व्यक्ति वह व्यक्ति है जो परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से समर्पण करता है और जिसने अपनी धार्मिक धारणाओं को पूरी तरह से त्याग दिया है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो परमेश्वर के आज के कार्य को जानते हैं केवल वे ही परमेश्वर की सेवा कर सकते हैं
परमेश्वर द्वारा किया गया कार्य अलग-अलग अवधियों में अलग-अलग होता है। यदि तुम परमेश्वर के कार्य के एक चरण में काफी समर्पण दिखाते हो, मगर अगले ही चरण में तुम्हारा समर्पण कम हो जाता है या तुम समर्पण ही नहीं कर पाते, तो परमेश्वर तुम्हें त्याग देगा। जब परमेश्वर यह कदम उठाता है तब यदि तुम परमेश्वर के साथ समान गति से चलते हो, तो जब वह अगला कदम उठाए तब भी तुम्हें उसके कदम से कदम मिलाना चाहिए; तभी तुम पवित्र आत्मा के प्रति समर्पित बनोगे। चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, इसलिए तुम्हें अपने समर्पण में अटल रहना चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि तुम जब चाहो समर्पण करो, जब न चाहो समर्पण न करो। परमेश्वर इस प्रकार का समर्पण पसंद नहीं करता। मैं जिस नए कार्य पर संगति कर रहा हूँ, यदि तुम उसके साथ तालमेल नहीं बनाए रख सकते, और पुरानी बातों से ही चिपके रहते हो, तो तुम्हारे जीवन में प्रगति कैसे हो सकती है? परमेश्वर का कार्य, अपने वचनों से तुम्हें पोषण देना है। यदि तुम उसके वचनों के प्रति समर्पण करोगे, उन्हें स्वीकारोगे, तो पवित्र आत्मा निश्चित रूप से तुम में कार्य करेगा। पवित्र आत्मा बिलकुल उसी तरह कार्य करता है जिस तरह से मैं बता रहा हूँ; जैसा मैंने कहा है वैसा ही करो और पवित्र आत्मा शीघ्रता से तुम में कार्य करेगा। मैं तुम लोगों के अवलोकन के लिए नया प्रकाश देता हूँ और तुम लोगों को आज के प्रकाश में लाता हूँ, और जब तुम इस प्रकाश में चलोगे, तो पवित्र आत्मा तुरन्त ही तुममें कार्य करेगा। कुछ लोग हैं जो अड़ियल हो सकते हैं, वे कहेंगे, “तुम जैसा कहते हो मैं वैसा बिलकुल नहीं करूँगा।” ऐसी स्थिति में, मैं कहूँगा कि तुम्हारा खेल खत्म हो चुका है; तुम पूरी तरह से सूख गए हो, और तुममें जीवन नहीं बचा है। इसलिए, अपने स्वभाव के रूपांतरण का अनुभव करने के लिए, आज के प्रकाश के साथ तालमेल बिठाए रखना बहुत आवश्यक है। पवित्र आत्मा न केवल उन खास लोगों में कार्य करता है जो परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त किए जाते हैं, बल्कि कलीसिया में भी कार्य करता है। वह किसी में भी कार्य कर रहा हो सकता है। शायद वह वर्तमान समय में, तुममें कार्य करे, और तुम इस कार्य का अनुभव करोगे। किसी अन्य समय शायद वह किसी और में कार्य करे, और ऐसी स्थिति में तुम्हें शीघ्र अनुसरण करना चाहिए; तुम वर्तमान प्रकाश का अनुसरण जितना करीब से करोगे, तुम्हारा जीवन उतना ही अधिक विकसित होकर उन्नति कर सकता है। कोई व्यक्ति कैसा भी क्यों न हो, यदि पवित्र आत्मा उसमें कार्य करता है, तो तुम्हें अनुसरण करना चाहिए। उसी प्रकार अनुभव करो जैसा उसने किया है, तो तुम्हें उच्चतर चीजें प्राप्त होंगी। ऐसा करने से तुम तेजी से प्रगति करोगे। यह मनुष्य के लिए पूर्णता का ऐसा मार्ग है जिससे जीवन विकसित होता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सच्चे हृदय से परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे
लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं या नहीं, यह आकलन करने में मुख्य बात यह है कि वे उससे असंयत माँगें कर रहे हैं या नहीं, और उसके प्रति उनके गुप्त अभिप्राय हैं या नहीं। अगर लोग हमेशा परमेश्वर से माँगें करते हैं, तो यह साबित करता है कि वे उसके प्रति समर्पित नहीं हैं। तुम्हारे साथ चाहे जो भी हो, यदि तुम इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं करते, तुम सत्य की तलाश नहीं करते, हमेशा अपने लिए तर्क-वितर्क करते हो और हमेशा यह महसूस करते हो कि सिर्फ तुम सही हो, और यहाँ तक कि तुम अभी भी यह संदेह करने में सक्षम हो कि परमेश्वर सत्य और धार्मिकता है, तो तुम संकट में पड़ जाओगे। ऐसे लोग सबसे अहंकारी और परमेश्वर के प्रति विद्रोही होते हैं। जो लोग हमेशा परमेश्वर से माँगते रहते हैं, वे कभी सच्चे रूप से उसके प्रति समर्पण नहीं कर सकते। अगर तुम परमेश्वर से माँग करते हो, तो यह साबित करता है कि तुम उससे सौदा कर रहे हो, तुम अपनी ही इच्छा चुन रहे हो, और इसी के अनुसार कार्य कर रहे हो। ऐसा करके तुम परमेश्वर को धोखा दे रहे हो और तुममें समर्पण की कमी है। परमेश्वर से माँग करना अपने आप में ही नासमझी है; अगर तुम्हें सचमुच विश्वास है कि वह परमेश्वर है, तो तुम उससे माँगने की हिम्मत नहीं करोगे, न तुम खुद को उससे माँग करने के योग्य समझोगे, फिर चाहे तुम इन माँगों को उचित समझो या नहीं। अगर तुममें परमेश्वर के प्रति सच्चा विश्वास है, तो फिर तुम सिर्फ उसकी आराधना और उसके प्रति समर्पण करोगे, इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं है। आज, लोग न सिर्फ अपनी पसंद-नापसंद खुद चुनते हैं, बल्कि वे यह भी माँग करते हैं कि परमेश्वर उनकी इच्छा के अनुसार कार्य करे। वे न केवल परमेश्वर के प्रति समर्पण न मानने का फैसला करते हैं, बल्कि वे परमेश्वर से भी कहते हैं कि वह उनके प्रति समर्पण करे। क्या यह विवेकशून्यता नहीं है? इसलिए, अगर मनुष्य में कोई सच्ची आस्था नहीं है, कोई सारभूत विश्वास नहीं है, तो वह कभी भी परमेश्वर से स्वीकृति नहीं पा सकता। जब लोग परमेश्वर से कम माँगें करने में सक्षम हो जाएँगे, तो उनमें सच्ची आस्था और समर्पण अधिक होगा, और उनकी तार्किक समझ भी अपेक्षाकृत सामान्य हो जाएगी।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं
जब नूह ने वैसा किया जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था, तो वह नहीं जानता था कि परमेश्वर के इरादे क्या थे। उसे नहीं पता था कि परमेश्वर कौनसा कार्य पूरा करना चाहता था। परमेश्वर ने नूह को सिर्फ एक आज्ञा दी थी और अधिक स्पष्टीकरण के बिना उसे कुछ करने का निर्देश दिया था, नूह ने आगे बढ़कर इसे कर दिया। उसने गुप्त रूप से परमेश्वर के इरादों को जानने की कोशिश नहीं की, न ही उसने परमेश्वर का विरोध किया या निष्ठाहीनता दिखाई। वह बस गया और एक शुद्ध एवं सरल हृदय के साथ इसे तदनुसार कर डाला। परमेश्वर उससे जो कुछ भी करवाना चाहता था, उसने किया और इस काम में परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण कर इन्हें सुनने में विश्वास उसका सहारा बना। इस प्रकार जो कुछ परमेश्वर ने उसे सौंपा था, उसने ईमानदारी एवं सरलता से उसे निपटाया था। समर्पण ही उसका सार था, उसके कार्यों का सार था—न कि अपनी अटकलें लगाना या प्रतिरोध करना, न ही अपने निजी हितों और अपने लाभ-हानि के विषय में सोचना था। इसके आगे, जब परमेश्वर ने कहा कि वह जलप्रलय से संसार का नाश करेगा, तो नूह ने नहीं पूछा कब या उसने नहीं पूछा कि चीज़ों का क्या होगा और उसने निश्चित तौर पर परमेश्वर से नहीं पूछा कि वह किस प्रकार संसार को नष्ट करने जा रहा था। उसने बस वैसा ही किया, जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था। हालाँकि परमेश्वर चाहता था कि इसे बनाया जाए और जिससे बनाया जाए, उसने बिलकुल वैसा ही किया, जैसा परमेश्वर ने उसे कहा था और तुरंत कार्रवाई भी शुरू कर दी। उसने परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा के रवैये के साथ परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार काम किया। क्या वह आपदा से खुद को बचाने में सहायता करने के लिए यह कर रहा था? नहीं। क्या उसने परमेश्वर से पूछा कि संसार को नष्ट होने में कितना समय बाकी है? उसने नहीं पूछा। क्या उसने परमेश्वर से पूछा या क्या वह जानता था कि जहाज़ बनाने में कितना समय लगेगा? वह यह भी नहीं जानता था। उसने बस समर्पण किया, सुना और तदनुसार कार्य किया।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I
जब परमेश्वर किसी को आयोजित करना चाहता है, तो यह आयोजन प्रायः मनुष्य की धारणाओं के विपरीत और उसके लिए अबूझ होता है, फिर भी ठीक यही असंगति और अबूझता ही है जो परमेश्वर द्वारा मनुष्य का परीक्षण और परीक्षा हैं। इस बीच, अब्राहम अपने भीतर परमेश्वर के प्रति समर्पण प्रदर्शित कर पाया, जो परमेश्वर की अपेक्षा को संतुष्ट करने में उसके समर्थ होने की सबसे आधारभूत शर्त थी। जब अब्राहम परमेश्वर की अपेक्षा के प्रति समर्पण कर पाया, जब उसने इसहाक को भेंट चढ़ाया, केवल तभी परमेश्वर ने मनुष्यजाति के प्रति—अब्राहम के प्रति, जिसे उसने चुना था—सच्चे अर्थ में आश्वस्ति और स्वीकृति महसूस की। केवल तभी परमेश्वर आश्वस्त हुआ कि यह व्यक्ति जिसे उसने चुना था अपरिहार्य अगुआ है जो उसकी प्रतिज्ञा और उसके बाद की उसकी प्रबंधन योजना का उत्तरदायित्व ले सकता था। यद्यपि यह सिर्फ एक परीक्षण और परीक्षा थी, फिर भी परमेश्वर ने कृतार्थ महसूस किया, उसने अपने प्रति मनुष्य का प्रेम महसूस किया, और उसने मनुष्य की ओर से इतना सुखद महसूस किया जैसा पहले कभी नहीं किया था। अब्राहम ने इसहाक को मारने के लिए जिस क्षण अपनी छुरी उठाई, क्या परमेश्वर ने उसे रोका? परमेश्वर ने अब्राहम को इसहाक की बलि नहीं देने दी, क्योंकि इसहाक का जीवन लेने का परमेश्वर का कोई इरादा ही नहीं था। इस प्रकार, परमेश्वर ने अब्राहम को बिलकुल सही समय पर रोक दिया। परमेश्वर के लिए, अब्राहम के समर्पण ने पहले ही परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी, उसने जो किया वह पर्याप्त था, और जो करना परमेश्वर का अभीष्ट था उसका परिणाम वह पहले ही देख चुका था। क्या यह परिणाम परमेश्वर के लिए संतोषजनक था? कहा जा सकता है कि यह परिणाम परमेश्वर के लिए संतोषजनक था, कि यही वह था जो परमेश्वर चाहता था, और वह था जो परमेश्वर देखने को लालायित था। क्या यह सच है? यद्यपि, भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति की परीक्षा लेने के लिए भिन्न-भिन्न तरीक़ों का प्रयोग करता है, किंतु अब्राहम में परमेश्वर ने वह देखा जो वह चाहता था, उसने देखा कि अब्राहम का हृदय सच्चा था, और यह कि उसका समर्पण बेशर्त था। ठीक इसी “बेशर्त” की परमेश्वर ने आकांक्षा की थी।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II
तो फिर, परमेश्वर ने पतरस पर किस हद तक कार्य करके उसे यह बोध कराया कि लोगों को समर्पण का अभ्यास करना चाहिए? हमने पतरस की कही एक बात का पहले जिक्र किया था। क्या तुम्हें याद है कि वह बात क्या थी? (“अगर परमेश्वर मुझसे एक खिलौने जैसा बर्ताव करता, तो मैं तैयार और इच्छुक क्यों नहीं होता?”) सही है, यही वह बात है। परमेश्वर के कार्य या मार्गदर्शन का अनुभव करने और उससे गुजरने की प्रक्रिया में पतरस के मन में अनजाने ही यह भावना पैदा हो गई : “क्या परमेश्वर लोगों के साथ खिलौनों की तरह व्यवहार नहीं करता?” लेकिन निश्चित रूप से यह वह बात नहीं है जिससे परमेश्वर के कार्य अभिप्रेरित होते हैं। लोग इस बात का आकलन करने के लिए अपने इंसानी नजरिए, सोच और ज्ञान पर भरोसा करते हैं और महसूस करते हैं कि परमेश्वर लोगों के साथ ऐसी बेपरवाही से खेलता है मानो वे खिलौने हों। वह एक दिन कहता है यह करो, तो अगले दिन कहता है, वह करो। अनजाने ही तुम महसूस करने लगते हो, “ओह, परमेश्वर ने तो बहुत-सी बातें कही हैं। आखिर वह क्या करने की कोशिश कर रहा है?” लोग भ्रमित और थोड़ा अभिभूत भी होने लगते हैं। उन्हें नहीं पता होता कि कौन-से विकल्प चुने जाएँ। परमेश्वर ने पतरस की परीक्षा लेने के लिए इस तरीके का इस्तेमाल किया था। इस परीक्षा का अंतिम परिणाम क्या रहा? (पतरस ने मृत्युपर्यंत समर्पण हासिल किया।) उसने समर्पण हासिल किया। यही वह परिणाम था जो परमेश्वर चाहता था, और परमेश्वर ने इसे देखा। पतरस द्वारा कहे गए कौन-से शब्द दिखाते हैं कि वह आज्ञाकारी हो गया था और उसका आध्यात्मिक कद बड़ा हो गया था? पतरस ने क्या कहा? परमेश्वर ने जो कुछ भी किया था और मनुष्य को खिलौना समझने के उसके रवैये को पतरस ने कैसे स्वीकार किया और किस रूप में देखा? पतरस का रवैया क्या था? (उसने कहा : “तो मैं तैयार और इच्छुक क्यों नहीं होता?”) हाँ, यही पतरस का रवैया था। उसके शब्द बिल्कुल यही थे। जिन लोगों को परमेश्वर के परीक्षणों और शोधनों का कोई अनुभव नहीं है, वे ये वचन कभी नहीं बोलेंगे क्योंकि वे इस कथा के कथ्य को नहीं समझते और उन्होंने कभी इसका अनुभव नहीं किया है। चूँकि उन्होंने इसका अनुभव नहीं किया है, वे इस बारे में निश्चित ही स्पष्ट नहीं हैं। यदि वे इस मामले में स्पष्ट नहीं हैं, तो यह बात इतनी लापरवाही से कैसे बोल सकते हैं? ये वचन कुछ ऐसे हैं जिनके बारे में कोई मनुष्य कभी सोच तक नहीं सकता। पतरस यह सब कहने में सक्षम था क्योंकि उसने बहुत सारे परीक्षणों और शोधनों का अनुभव किया था। परमेश्वर ने उसे बहुत-सी चीजों से वंचित किया, लेकिन साथ ही उसे बहुत कुछ दिया भी। और, देने के बाद, एक बार फिर सब-कुछ वापस ले लिया। उससे चीजें वापस ले लेने के बाद, परमेश्वर ने पतरस को समर्पण करना सिखाया और फिर एक बार उसे दे दिया। मनुष्य के दृष्टिकोण से, परमेश्वर द्वारा की गई बहुत-सी चीजें मनमौजी लगती हैं, जिससे लोगों को भ्रम होता है कि परमेश्वर लोगों से खिलौनों की तरह पेश आता है, लोगों का सम्मान नहीं करता, और लोगों के साथ इंसानों जैसा व्यवहार नहीं करता। लोग सोचते हैं कि खिलौनों की ही तरह वे सम्मानहीन जीवन जी रहे हैं; वे सोचते हैं कि परमेश्वर उन्हें स्वतंत्र चयन का अधिकार नहीं देता, और परमेश्वर जो चाहे कह सकता है। जब वह तुम्हें कुछ देता है, तो कहता है, “तुमने जो किया है उसके लिए तुम इस पुरस्कार के पात्र हो। यह परमेश्वर का आशीष है।” जब वह चीजें छीन लेता है, तो उसके पास कहने के लिए कुछ और होता है। इस प्रक्रिया में लोगों को क्या करना चाहिए? परमेश्वर को सही या गलत के रूप में आँकना तुम्हारा काम नहीं है, परमेश्वर के कार्यों की प्रकृति की पहचान करना भी तुम्हारा काम नहीं है, और इस प्रक्रिया में अपने जीवन को अधिक सम्मान देना निश्चित रूप से तुम्हारा काम नहीं है। तुम्हें इस विकल्प का चयन नहीं करना चाहिए। यह भूमिका तुम्हारी नहीं है। तो, तुम्हारी भूमिका क्या है? तुम्हें अनुभव के माध्यम से परमेश्वर के इरादों को समझना सीखना चाहिए। यदि तुम परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ सकते और परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकते, तो तुम्हारे पास एकमात्र विकल्प समर्पण करने का होगा। ऐसी परिस्थितियों में, क्या तुम्हारे लिए समर्पण करना आसान होगा? (नहीं।) समर्पण करना आसान नहीं है। यह वह सबक है जो तुम्हें सीखना चाहिए। यदि तुम्हारे लिए समर्पण करना आसान होता, तो तुम्हें सबक सीखने की जरूरत नहीं होती, तुम्हें काट-छाँट और परीक्षणों तथा शोधनों से गुजरने की जरूरत नहीं होती। चूँकि तुम्हारे लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना कठिन है, इसीलिए वह लगातार परीक्षा लेता है, तुम्हारे साथ जानबूझकर खेलता है मानो तुम कोई खिलौना हो। जिस दिन तुम्हारे लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान हो जाएगा, जब तुम बिना किसी कठिनाई या बाधा के परमेश्वर के प्रति समर्पण करने लगोगे, जब तुम अपनी पसंद, इरादों या प्राथमिकताओं के बिना, स्वेच्छा और प्रसन्नता से समर्पण कर सकोगे, तब परमेश्वर तुम्हारे साथ खिलौने जैसा व्यवहार नहीं करेगा और तुम बिल्कुल वैसा ही करोगे जैसा तुम्हें करना चाहिए। यदि किसी दिन तुम कहो, “परमेश्वर मुझसे खिलौने की तरह पेश आता है और मैं गरिमाहीन जीवन जी रहा हूँ। मैं इससे सहमत नहीं हूँ और मैं समर्पण नहीं करूँगा,” तो शायद उसी दिन परमेश्वर तुम्हारा त्याग कर दे। तब क्या होगा यदि तुम्हारा आध्यात्मिक कद इस स्तर तक पहुंच जाए जहाँ तुम कहो कि “यद्यपि परमेश्वर के इरादों को जान पाना आसान नहीं है और परमेश्वर हमेशा मुझसे छिपता है, फिर भी परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है। परमेश्वर चाहे जो करे, मैं स्वेच्छा से समर्पण करूँगा। भले ही मैं समर्पण न कर सकूँ, फिर भी मुझे यह रवैया अपनाना चाहिए और कोई शिकायत या अपने स्वयं के विकल्प नहीं बनाने चाहिए। ऐसा इसलिए कि मैं सृजित प्राणी हूँ। समर्पण करना मेरा कर्तव्य है, और यह एक स्पष्ट दायित्व है जिससे मैं बच नहीं सकता। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है। परमेश्वर जो करता है, उसके बारे में मुझे कोई कल्पना या धारणा नहीं बनानी चाहिए। ऐसा करना किसी सृजित प्राणी के लिए उचित नहीं है। परमेश्वर ने मुझे जो भी दिया है, उसके लिए मैं परमेश्वर को धन्यवाद देता हूँ। परमेश्वर ने मुझे जो नहीं दिया या देकर वापस ले लिया, उसके लिए भी मैं परमेश्वर को धन्यवाद देता हूँ। परमेश्वर के सभी कार्य मेरे लिए लाभदायक हैं; भले ही मैं वे लाभ न देख सकूँ, फिर भी मुझे जो करना चाहिए वह है समर्पण।” क्या इन बातों का प्रभाव पतरस के उन वचनों जैसा नहीं है जब उसने कहा था, “तो मैं तैयार और इच्छुक क्यों नहीं होता”? केवल ऐसे आध्यात्मिक कद वाले लोग ही सत्य को सचमुच समझते हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है
लोगों को समझना चाहिए कि सृष्टिकर्ता का सृजित प्राणियों के साथ व्यवहार करने का एक बुनियादी सिद्धांत है, जो सर्वोच्च सिद्धांत है। सृष्टिकर्ता सृजित प्राणियों के साथ कैसा व्यवहार करता है, यह पूरी तरह से उसकी प्रबंधन योजना और उसकी कार्य अपेक्षाओं पर आधारित है; उसे किसी व्यक्ति से सलाह लेने की जरूरत नहीं है, न ही उसे इसकी आवश्यकता है कि कोई व्यक्ति उससे सहमत हो। जो कुछ भी उसे करना चाहिए और जिस भी तरह से उसे लोगों से व्यवहार करना चाहिए, वह करता है, और भले ही वह कुछ भी करता हो और जिस भी तरह से लोगों से व्यवहार करता हो, वह सब सत्य के सिद्धांतों और उन सिद्धांतों के अनुरूप होता है, जिनके द्वारा सृष्टिकर्ता कार्य करता है। एक सृजित प्राणी के रूप में करने लायक केवल एक ही चीज़ है और वह है सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पित होना; व्यक्ति को अपना कोई चुनाव नहीं करना चाहिए। यही विवेक है जो सृजित प्राणियों में होना चाहिए, और अगर किसी व्यक्ति के पास यह नहीं है, तो वह व्यक्ति कहलाने योग्य नहीं हैं। लोगों को समझना चाहिए कि सृष्टिकर्ता हमेशा सृष्टि का प्रभु ही रहेगा; उसके पास किसी भी सृजित प्राणी पर जैसे चाहे वैसे आयोजन और शासन करने की शक्ति और योग्यता है, और ऐसा करने के लिए उसे किसी कारण की आवश्यकता नहीं है। यह उसका अधिकार है। सृजित प्राणियों में से कोई भी ऐसा नहीं है, जिसके पास यह अधिकार हो या वह इतना पात्र हो कि वह इस बात की आलोचना कर सके कि सृष्टिकर्ता जो कुछ करता है, वह सही है या गलत है, या उसे कैसे कार्य करना चाहिए। कोई भी प्राणी यह हक नहीं रखता कि यह चुन सके कि उसे सृष्टिकर्ता के शासन और व्यवस्थाओं को स्वीकार करना है या नहीं; किसी भी प्राणी को यह हक नहीं है कि वह यह पूछ सके कि सृष्टिकर्ता को कैसे शासन करना चाहिए या उसे उनकी नियति की व्यवस्था कैसे करनी चाहिए। यह सर्वोच्च सत्य है। सृष्टिकर्ता ने चाहे सृजित प्राणियों के साथ कुछ भी किया हो या कैसे भी किया हो, उसके द्वारा सृजित मनुष्यों को केवल एक ही काम करना चाहिए : सृष्टिकर्ता द्वारा प्रस्तुत हरेक चीज को खोजना, इसके प्रति समर्पित होना, इसे जानना और स्वीकार करना। इसका अंतिम परिणाम यह होगा कि सृष्टिकर्ता ने अपनी प्रबंधन योजना और अपना काम पूरा कर लिया होगा, जिससे उसकी प्रबंधन योजना बिना किसी अवरोध के आगे बढ़ेगी; इस बीच, चूँकि सृजित प्राणियों ने सृष्टिकर्ता का नियम और उसकी व्यवस्थाएँ स्वीकार कर ली हैं, और वे उसके शासन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो गए हैं, इसलिए उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया होगा, सृष्टिकर्ता की इच्छा को समझ लिया होगा, और उसके स्वभाव को जान लिया होगा। एक और सिद्धांत है, जो मुझे तुम्हें बताना चाहिए : सृष्टिकर्ता चाहे जो भी करे, जिस भी तरह से अभिव्यक्त करे, उसका कार्य बड़ा हो या छोटा, वह फिर भी सृष्टिकर्ता ही है; जबकि समस्त मनुष्य, जिन्हें उसने सृजित किया, चाहे उन्होंने कुछ भी किया हो, या वे कितने भी प्रतिभाशाली और गुणी क्यों न हों, वे सृजित प्राणी ही रहते हैं। जहाँ तक सृजित मनुष्यों का सवाल है, चाहे जितना भी अनुग्रह और जितने भी आशीष उन्होंने सृष्टिकर्ता से प्राप्त कर लिए हों, या जितनी भी दया, प्रेमपूर्ण करुणा और उदारता प्राप्त कर ली हो, उन्हें खुद को भीड़ से अलग नहीं मानना चाहिए, या यह नहीं सोचना चाहिए कि वे परमेश्वर के बराबर हो सकते हैं और सृजित प्राणियों में ऊँचा दर्जा प्राप्त कर चुके हैं। परमेश्वर ने तुम्हें चाहे जितने उपहार दिए हों, या जितना भी अनुग्रह प्रदान किया हो, या जितनी भी दयालुता से उसने तुम्हारे साथ व्यवहार किया हो, या चाहे उसने तुम्हें कोई विशेष प्रतिभा दी हो, इनमें से कुछ भी तुम्हारी संपत्ति नहीं है। तुम एक सृजित प्राणी हो, और इस तरह तुम सदा एक सृजित प्राणी ही रहोगे। तुम्हें कभी नहीं सोचना चाहिए, “मैं परमेश्वर के हाथों में उसका लाड़ला हूँ। परमेश्वर मुझे कभी दर-किनार नहीं करेगा। परमेश्वर का रवैया मेरे प्रति हमेशा प्रेम, देखभाल और नाज़ुक दुलार के साथ-साथ सुकून के गर्मजोशी भरे बोलों और प्रोत्साहन का होगा।” इसके विपरीत, सृष्टिकर्ता की दृष्टि में तुम अन्य सभी सृजित प्राणियों की ही तरह हो; परमेश्वर तुम्हें जिस तरह चाहे, उस तरह इस्तेमाल कर सकता है, और साथ ही तुम्हारे लिए जैसा चाहे, वैसा आयोजन कर सकता है, और तुम्हारे लिए सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीज़ों के बीच जैसी चाहे वैसी कोई भी भूमिका निभाने की व्यवस्था कर सकता है। लोगों को यह ज्ञान होना चाहिए और उनमें यह अच्छी समझ होनी चाहिए। अगर व्यक्ति इन वचनों को समझ और स्वीकार सके, तो परमेश्वर के साथ उसका संबंध अधिक सामान्य हो जाएगा, और वह उसके साथ एक सबसे ज़्यादा वैध संबंध स्थापित कर लेगा; अगर व्यक्ति इन वचनों को समझ और स्वीकार सके, तो वह अपने स्थान को सही ढंग से उन्मुख कर पाएगा, वहाँ अपना आसन ग्रहण कर पाएगा और अपना कर्तव्य निभा पाएगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य समझकर ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है
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