27. अच्छे व्यवहार तथा स्वभावगत बदलाव में अंतर
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
स्वभाव में रूपांतरण मुख्य रूप से एक व्यक्ति की प्रकृति में रूपांतरण को संदर्भित करता है। किसी व्यक्ति की प्रकृति की चीजों को बाहरी व्यवहारों से नहीं महसूस किया जा सकता। उनका सीधा संबंध लोगों के अस्तित्व की कीमत और महत्व से, जीवन के बारे में उनके दृष्टिकोण और उनके मूल्यों से है, उनमें लोगों की आत्मा की गहराई में स्थित चीजें और उनका सार शामिल हैं। अगर एक व्यक्ति सत्य को स्वीकार नहीं कर पाता, तो वह इन पहलुओं में किसी भी रूपांतरण का अनुभव नहीं करेगा। केवल परमेश्वर के कार्य का पूरी तरह अनुभव करने, पूरी तरह से सत्य में प्रवेश करने, अस्तित्व और जीवन पर अपने मूल्यों और दृष्टिकोणों को बदलने, चीजों को लेकर अपने विचारों को परमेश्वर के वचनों के अनुरूप करने, और पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित और निष्ठावान होने पर ही कहा जा सकता है कि व्यक्ति का स्वभाव रूपांतरित हो गया है। वर्तमान में, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए तुम कुछ प्रयास करते और कठिनाई के सामने मजबूत प्रतीत हो सकते हो, तुम ऊपरवाले से मिली कार्य व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने में सक्षम हो सकते हो, या तुम्हें जहाँ भी जाने के लिए कहा जाए वहाँ जाने में समर्थ हो सकते हो। ऊपर से ऐसा लग सकता है कि तुम कुछ हद तक आज्ञाकारी हो, लेकिन अगर कुछ ऐसा हो जाता है जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप न हो, तो तुम्हारा विद्रोह सामने आ जाता है। उदाहरण के लिए, तुम अपनी काट-छाँट किए जाने के प्रति समर्पित नहीं होते, और विपदा आने पर तो तुम और भी समर्पण नहीं करते; तुम परमेश्वर को लेकर शिकायत करने का दुस्साहस भी करते हो। इसलिए, बाहर से वह थोड़ा-सा समर्पण और बदलाव, बस व्यवहार में एक छोटा-सा बदलाव है। थोड़ा-सा बदलाव तो है, लेकिन यह तुम्हारे स्वभाव के रूपांतरण के रूप में गिने जाने के लिए पर्याप्त नहीं है। तुम कई रास्तों पर चलने में सक्षम हो सकते हो, कई कठिनाइयों का सामना कर सकते हो, और बहुत अपमान सह सकते हो; तुम खुद को परमेश्वर के बहुत करीब महसूस कर सकते हो, और पवित्र आत्मा तुम पर कुछ काम कर सकता है। लेकिन, जब परमेश्वर तुमसे कुछ ऐसा करने के लिए कहता है जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं है, तो शायद तुम अभी भी समर्पण न करो, बल्कि, हो सकता है तुम बहाने ढूंढ़ने लगो, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका प्रतिरोध करो, और गंभीर अवसरों पर सवाल-जवाब कर उसके खिलाफ लड़ने तक लगो। यह एक गंभीर समस्या होगी! यह दिखाएगा कि तुममें अभी भी परमेश्वर का विरोध करने वाली प्रकृति है, तुम वास्तव में सत्य नहीं समझते, और तुम्हारे जीवन-स्वभाव में बिल्कुल भी बदलाव नहीं आया है। बरखास्त किए जाने या हटा दिए जाने के बाद भी, कुछ लोग परमेश्वर के बारे में राय बनाने और यह कहने का दुस्साहस करते हैं कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है। यहाँ तक कि वे परमेश्वर के साथ बहस करते और लड़ते भी हैं, जहाँ भी जाते हैं, परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाएँ और परमेश्वर के प्रति अपना असंतोष फैलाते हैं। ऐसे लोग दानव हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। दानवी प्रकृति वाले लोग कभी नहीं बदलेंगे और उन्हें छोड़ देना चाहिए। जो लोग हर स्थिति में सत्य खोज और उसे स्वीकार कर सकते हैं, और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित हो सकते हैं, केवल उनके पास ही सत्य पाने और स्वभाव में बदलाव प्राप्त करने की आशा होती है। अपने अनुभवों में, तुम्हें उन दशाओं के बीच अंतर करना सीखना चाहिए जो बाहर से सामान्य दिखाई देती हैं। तुम प्रार्थना के दौरान सुबक और रो सकते हो, या महसूस कर सकते हो कि तुम्हारा दिल परमेश्वर से बहुत प्रेम करता है, और उसके बहुत करीब है, फिर भी ये दशाएँ केवल पवित्र आत्मा का कार्य हैं और यह नहीं दर्शातीं कि तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो। यदि तुम तब भी परमेश्वर से प्रेम और समर्पण कर सको, जब पवित्र आत्मा कार्य न कर रहा हो, और जब परमेश्वर तुम्हारी धारणाओं के विपरीत कार्य करता है, केवल तभी तुम वह व्यक्ति हो जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करता है। केवल तभी तुम वह व्यक्ति हो जिसका जीवन-स्वभाव बदल गया है। केवल ऐसे व्यक्ति में ही सत्य वास्तविकताएँ होती हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए
स्वभाव में परिवर्तन का क्या अर्थ है? यह तब होता है, जब सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए, उसके वचनों के न्याय और उसकी ताड़ना को स्वीकार करता है, और सभी तरह की पीड़ाओं और शोधन का अनुभव करता है। इस तरह का व्यक्ति अपने भीतर के शैतानी विषों से शुद्ध हो जाता है और अपने भ्रष्ट स्वभावों को पूरी तरह से त्याग देता है, ताकि वह परमेश्वर के वचनों, उसके सारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सके और कभी परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह या उसका प्रतिरोध न करे। यह स्वभाव में परिवर्तन है। ... स्वभाव में परिवर्तन का मतलब है कि व्यक्ति, सत्य से प्रेम करने और उसे स्वीकार सकने के कारण, अंततः अपनी प्रकृति जान जाता है जोकि परमेश्वर के प्रति विद्रोही और उसके विरोध में है। वह समझता है कि मनुष्य गहराई से भ्रष्ट हैं, वह मनुष्य के बेतुकेपन और धोखाधड़ी को, और मनुष्य की खराब और दयनीय स्थिति को समझता है, और अंततः वह मानवजाति का प्रकृति सार समझ जाता है। यह सब जानकर वह स्वयं को पूरी तरह नकारने और अपने विरुद्ध विद्रोह करने, परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने और सभी चीजों में सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो जाता है। यह ऐसा व्यक्ति होता है, जो परमेश्वर को जानता है और ऐसा व्यक्ति, जिसका स्वभाव बदल चुका है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें
स्वभाव में परिवर्तन के सार व्यवहार में परिवर्तन के सार से भिन्न हैं, और वे अभ्यास में परिवर्तन के मामले में भी अलग हैं—सार में वे सभी अलग-अलग हैं। अधिकांश लोग परमेश्वर पर अपने विश्वास में व्यवहार पर विशेष ज़ोर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनके व्यवहार में कुछ निश्चित परिवर्तन आते हैं। परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करने के बाद, वे धूम्रपान और मदिरापान बंद कर देते हैं, दूसरों से होड़ नहीं करते और नुकसान होने पर संयम रखते हैं। उनमें कुछ व्यवहार संबंधी परिवर्तन आते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद परमेश्वर के वचन पढ़कर उन्हें सत्य समझ आ गया है, उन्होंने पवित्र आत्मा के कार्य का अनुभव कर लिया है और उन्हें मन में सच्चा आनंद मिलता है, जिससे वे खास तौर पर उत्साहित हो जाते हैं, और कुछ भी ऐसा नहीं होता है जिसका वे त्याग नहीं कर सकते या जिसे वे सहन नहीं कर सकते। लेकिन फिर भी आठ-दस या बीस-तीस साल तक विश्वास करने के बाद भी, जीवन-स्वभावों में कोई परिवर्तन न होने के कारण, वे पुराने तौर-तरीके फिर से अपना लेते हैं; उनका अहंकार और दंभ बढ़कर और अधिक मुखर हो जाता है, वे सत्ता और लाभ के लिए होड़ करना शुरू कर देते हैं, वे कलीसिया के धन के लिए ललचाते हैं, वे उन लोगों से ईर्ष्या रखते हैं जिन्होंने परमेश्वर के घर का लाभ उठाया होता है। वे परमेश्वर के घर में परजीवी और कृमि बन जाते हैं और कुछ को तो नकली अगुआ और मसीह-विरोधी के तौर पर खुलासा कर निकाल दिया जाता है। और ये तथ्य क्या साबित करते हैं? महज व्यावहारिक बदलाव देर तक नहीं टिकते हैं; अगर लोगों के जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव नहीं होता है, तो देर-सबेर वे अपना असली चेहरा दिखाएँगे। क्योंकि व्यवहार में परिवर्तन का स्रोत उत्साह है, और पवित्र आत्मा द्वारा उस समय किये गए कुछ कार्य का साथ पाकर, उनके लिए उत्साही बनना या कुछ समय के लिए अच्छे इरादे रखना बहुत आसान होता है। जैसा कि अविश्वासी लोग कहते हैं, “एक अच्छा कर्म करना आसान है; मुश्किल तो यह है कि जीवन भर अच्छे कर्म किए जाएँ।” लोग आजीवन अच्छे कर्म करने में असमर्थ क्यों होते हैं? क्योंकि प्रकृति से लोग दुष्ट, स्वार्थी और भ्रष्ट होते हैं। किसी व्यक्ति का व्यवहार उसकी प्रकृति से निर्देशित होता है; जैसी भी उसकी प्रकृति होती है, वह वैसा ही व्यवहार करता है, और केवल जो स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है वही व्यक्ति की प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता है। जो चीजें नकली हैं, वे टिक नहीं सकतीं। जब परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए कार्य करता है, यह मनुष्य को अच्छे व्यवहार का गुण देने के लिए नहीं होता—परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य लोगों के स्वभाव को रूपांतरित करना, उन्हें नए लोगों के रूप में पुनर्जीवित करना है। परमेश्वर का न्याय, ताड़ना, परीक्षण, और मनुष्य का परिशोधन, ये सभी उसके स्वभाव को बदलने के वास्ते हैं, ताकि वह परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और वफादारी पा सके और उसकी सामान्य ढंग से आराधना कर सके। यही परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य है। अच्छी तरह से व्यवहार करना परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के समान नहीं है, और यह मसीह के अनुरूप होने के बराबर तो और भी नहीं है। व्यवहार में परिवर्तन सिद्धांत पर आधारित होते हैं, और उत्साह से पैदा होते हैं; वे परमेश्वर के सच्चे ज्ञान पर या सत्य पर आधारित नहीं होते हैं, पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन पर आश्रित होना तो दूर की बात है। यद्यपि ऐसे मौके होते हैं जब लोग जो भी करते हैं, उसमें से कुछ को पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन मिला होता है, यह उनके जीवन का खुलासा नहीं है। उन्होंने अभी तक सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं किया है और उनके जीवन स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आया है। चाहे किसी व्यक्ति का व्यवहार कितना भी अच्छा हो, इससे यह साबित नहीं होता कि वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है या वह सत्य का अभ्यास करता है। व्यवहार संबंधी बदलावों का मतलब यह नहीं है कि जीवन स्वभाव में परिवर्तन आ गया और इन्हें जीवन के खुलासे नहीं माना जा सकता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
मनुष्य जिसे स्वभाव में बदलाव समझता है वह केवल व्यवहार में बदलाव है, और परमेश्वर स्वभाव में जिस बदलाव की बात करता है वह उससे कुछ अलग चीज और एक अलग मार्ग है। मनुष्य जिसे स्वभावगत बदलाव समझता है, क्या उससे यह सुनिश्चित होता है कि लोग परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह या उसका प्रतिरोध नहीं करेंगे या उसे धोखा नहीं देंगे? क्या यह आखिर में उन्हें अपनी गवाही पर दृढ़ रहने और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने में सक्षम बना सकता है? परमेश्वर जिस स्वभावगत बदलाव की बात करता है उसका यह अर्थ है कि लोग सत्य का अभ्यास करके, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करके, उसके हाथों काट-छाँट, आजमाइश और शोधन का सामना करके परमेश्वर के इरादों और सत्य सिद्धांतों की समझ प्राप्त करते हैं, और फिर सत्य सिद्धांतों के अनुसार जीते हैं, परमेश्वर के बारे में कोई भी गलतफहमी रखे बिना, समर्पण और परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखने लगते हैं, और उसके बारे में सच्चा ज्ञान रखते हैं और उसकी सच्ची भक्ति करते हैं। परमेश्वर व्यक्ति के स्वभाव में बदलाव की बात करता है, लेकिन मनुष्य जिस स्वभावगत बदलाव की बात करता है उसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है बेहतर व्यवहार करना, सभ्य और शांत दिखना और अहंकारी न होना; इसका अर्थ परिष्कृत और अनुशासित तरीके से बोलना, दुष्ट और शरारती न होना, और अपनी बोली और व्यवहार में अंतरात्मा, विवेक और नैतिक मानकों को लेकर चलना है। मनुष्य स्वभाव में जिस बदलाव की बात करता है और परमेश्वर स्वभाव में जिस बदलाव की अपेक्षा करता है क्या उनमें कोई अंतर है? क्या अंतर है? मनुष्य स्वभाव में जिस बदलाव की बात करता है वो बाहरी व्यवहार में बदलाव है, ऐसा बदलाव है जो मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप है। परमेश्वर स्वभाव में जिस बदलाव की अपेक्षा करता है वह अपने भ्रष्ट स्वभाव को उतार फेंकना है, यह सत्य को समझकर जीवन स्वभाव में लाया गया बदलाव है, यह चीजों के बारे में व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य में बदलाव है, जीवन के प्रति उसके दृष्टिकोण और मूल्यों में बदलाव है। इनमें अंतर है। चाहे तुम लोगों से निपट रहे हो या चीजों से, तुम्हारी मंशाएँ, तुम्हारे क्रियाकलापों के सिद्धांत और तुम्हारे आकलन के मानक, सभी सत्य के अनुरूप होने चाहिए, और तुम्हें सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए; स्वभाव में बदलाव लाने का यही एकमात्र तरीका है। यदि तुम हमेशा खुद को व्यवहार संबंधी मानकों के आधार पर मापते हो, यदि तुम हमेशा अपने बाहरी व्यवहार में बदलाव लाने पर ध्यान देते हो, और तुम्हें लगता है कि तुम एक मनुष्य की तरह जीवन जी रहे हो और केवल थोड़ा-सा अच्छा व्यवहार रखने के कारण तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त है, तो यह पूरी तरह से गलत है। क्योंकि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हैं, और तुम परमेश्वर का विरोध कर सकते हो, और उसे धोखा देने की स्थिति में हो, यदि तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए सत्य नहीं खोजते हो तो तुम्हारा बाहरी व्यवहार चाहे कितना भी अच्छा हो, तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण हासिल नहीं कर पाओगे, और तुम परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में भी सक्षम नहीं होगे। क्या केवल बाहरी अच्छा व्यवहार परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय उत्पन्न कर सकता है? क्या यह किसी व्यक्ति को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के लिए बाध्य कर सकता है? यदि लोग परमेश्वर का भय नहीं मान सकते और बुराई से दूर नहीं रह सकते, तो उनका कितना भी अच्छा व्यवहार यह नहीं दर्शाता है कि उनमें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण है। इसलिए, कितना भी अच्छा व्यवहार हो, यह स्वभाव में बदलाव का प्रतीक नहीं है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अच्छे व्यवहार का यह मतलब नहीं कि व्यक्ति का स्वभाव बदल गया है
यदि किसी व्यक्ति के व्यवहार में कई अच्छाइयाँ हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसमें सत्य वास्तविकताएं हैं। केवल सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने से ही तुम सत्य वास्तविकताएँ प्राप्त कर सकते हो। केवल परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से ही तुम सत्य वास्तविकताएँ प्राप्त कर सकते हो। कुछ लोगों में उत्साह होता है, वे सिद्धांत बघार सकते हैं, विनियमों का पालन करते हैं और कई अच्छे कर्म करते हैं, लेकिन उनके बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि उनमें थोड़ी-सी मानवता है। यह जरूरी नहीं कि जो लोग सिद्धांत बघार सकते हों और हमेशा नियमों का पालन करते हों, वे सत्य का अभ्यास भी करते हों। भले ही वे जो कुछ कहते हैं वह सही होता है और ऐसा लगता है यह समस्या-मुक्त है, लेकिन सत्य के सार से संबंधित मामलों में उनके पास कहने को कुछ नहीं होता। इसलिए, कोई कितने भी सिद्धांत बोले, इसका मतलब यह नहीं है कि उसे सत्य की समझ है, वह चाहे कितना भी सिद्धांत समझता हो, कोई समस्या नहीं सुलझा सकता। धार्मिक सिद्धांतकार बाइबल की व्याख्या कर सकते हैं, लेकिन अंत में, उन सभी का पतन हो जाता है, क्योंकि वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त संपूर्ण सत्य नहीं स्वीकारते। जिन लोगों ने अपने स्वभाव में परिवर्तन का अनुभव किया है, वे अलग हैं; उन्होंने सत्य समझ लिया है, वे सभी मुद्दों पर विवेकी होते हैं, वे जानते हैं कि कैसे परमेश्वर के इरादों के अनुसार कार्य करना है, कैसे सत्य सिद्धांत के अनुसार कार्य करना है, कैसे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कार्य करना है, और वे उस भ्रष्टता की प्रकृति को समझते हैं जो उनसे प्रकट होती है। जब उनके अपने विचार और धारणाएँ प्रकट होती हैं, तो वे विवेकी बनकर देह की इच्छाओं से विद्रोह कर सकते हैं। स्वभाव में परिवर्तन इसी तरह से दिखता है। जिन लोगों का स्वभाव बदल चुका है, उनकी मुख्य अभिव्यक्ति यह है कि उन्होंने सत्य को स्पष्ट रूप से समझ लिया है और कार्य करते समय तो वे काफी सटीकता के साथ सत्य का अभ्यास करते हैं और वे अक्सर भ्रष्टता प्रकट नहीं करते। आम तौर पर, जिन लोगों का स्वभाव बदल गया है, वे खासकर तर्कसंगत और विवेकपूर्ण प्रतीत होते हैं, और सत्य की अपनी समझ के कारण, वे उतनी आत्म-तुष्टि और अहंकार नहीं दिखाते। वे अपनी प्रकट हुई भ्रष्टता में से काफ़ी कुछ अच्छी तरह समझ-बूझ लेते हैं, इसलिए उनमें अभिमान उत्पन्न नहीं होता। उन्हें कौन-सा स्थान लेना चाहिए और ऐसी कौन-सी चीजें करनी चाहिए जो उचित हो, कैसे कर्तव्यनिष्ठ होना चाहिए, क्या कहना और क्या नहीं कहना चाहिए, और किन लोगों से क्या कहना और क्या करना चाहिए, इस बारे में उन्हें एक विवेकपूर्ण समझ होती है। इस प्रकार जिन लोगों का स्वभाव बदल गया है, वे अपेक्षाकृत तर्कसंगत होते हैं और सही मायनों में ऐसे लोग ही इंसानियत को जीते हैं। क्योंकि उन्हें सत्य की समझ होती है, वे हमेशा सत्य के अनुरूप बोलने और चीज़ों को देखने में समर्थ होते हैं और वे जो भी करते हैं, सैद्धांतिक रूप से करते हैं; वे किसी व्यक्ति, घटना या चीज़ के प्रभाव में नहीं होते, उन सभी का अपना दृष्टिकोण होता है और वे सत्य सिद्धांतों को कायम रख सकते हैं। उनका स्वभाव काफी स्थिर होता है, वे असंतुलित नहीं होते, चाहे उनकी स्थिति कैसी भी हो, वे समझते हैं कि कैसे उन्हें अपने कर्तव्यों को सही ढंग से निभाना है और परमेश्वर की संतुष्टि के लिए कैसे व्यवहार करना है। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं वे इस पर ध्यान नहीं देते कि बाहरी तौर पर ऐसा क्या करना चाहिए ताकि दूसरे उनके बारे में अच्छा सोचें; परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए क्या करना है, इस बारे में उन्होंने आंतरिक स्पष्टता पा ली है। इसलिए, हो सकता है कि बाहर से वे इतने उत्साही न दिखें या ऐसा न लगे कि उन्होंने कोई महत्वपूर्ण काम किया है, लेकिन वो जो कुछ भी करते हैं वह सार्थक होता है, मूल्यवान होता है, और उसके परिणाम व्यावहारिक होते हैं। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं उनके अंदर निश्चित रूप से बहुत-सी सत्य वास्तविकताएँ होती हैं, और इस बात की पुष्टि चीज़ों के बारे में उनके दृष्टिकोण और उनके कार्यकलाप के सिद्धांतों के आधार पर की जा सकती है। जिन लोगों ने सत्य प्राप्त नहीं किया है, उनके स्वभाव में बिल्कुल कोई परिवर्तन नहीं हुआ होता है। स्वभाव में परिवर्तन कैसे लाया जाता है? मनुष्यों को शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किया गया है, वे सभी परमेश्वर का विरोध करते हैं, परमेश्वर का प्रतिरोध करना उन सभी की प्रकृति है। जिन लोगों की प्रकृति परमेश्वर का प्रतिरोध करना है और जो परमेश्वर का विरोध करते हैं, परमेश्वर उन सभी को अपने प्रति समर्पण करने और भय मानने वाला बनाकर बचा लेता है। स्वभाव में बदलाव युक्त व्यक्ति होने का यही अर्थ है। कोई व्यक्ति कितना भी भ्रष्ट क्यों न हो या उसके पास कितने भी भ्रष्ट स्वभाव हों, अगर वह सत्य स्वीकार सकता है, परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार सकता है, विभिन्न परीक्षण और शोधन स्वीकार सकता है, तो उसमें परमेश्वर की सच्ची समझ होगी, और साथ ही, वह स्पष्ट रूप से अपने प्रकृति-सार को भी देख पाएगा। जब वह स्वयं को वास्तव में जान लेगा, तो उसे स्वयं से और शैतान से घृणा हो जाएगी, और वह शैतान से विद्रोह करने को तैयार हो जाएगा और पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पण करने लगेगा। जब किसी व्यक्ति में यह दृढ़ संकल्प आ जाता है तो वह सत्य का अनुसरण कर सकता है। यदि लोगों को परमेश्वर का सच्चा ज्ञान हो, यदि उनका शैतानी स्वभाव शुद्ध कर दिया जाए, और परमेश्वर के वचन उनके भीतर जड़ें जमा लेते हैं, और वे उनका जीवन और अस्तित्व का आधार बन जाते हैं, यदि वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीते हैं, पूरी तरह से बदलकर नए इंसान बन गए हैं—तो उसे उनके जीवन-स्वभाव में बदलाव माना जाता है। स्वभाव में बदलाव का मतलब परिपक्व और अनुभवी मानवता नहीं है, न ही यह है कि लोगों का बाहरी स्वभाव पहले की तुलना में विनम्र हो गया है, कि वे अभिमानी हुआ करते थे लेकिन अब तर्कसंगत ढंग से बोलते हैं, या वे पहले किसी की नहीं सुनते थे, लेकिन अब वे दूसरों की बात थोड़ा-बहुत सुन सकते हैं; ऐसे बाहरी परिवर्तन स्वभाव के रूपान्तरण नहीं कहे जा सकते। बेशक स्वभाव के परिवर्तन में ये लक्षण शामिल हैं, लेकिन सर्वाधिक महत्व की बात यह है कि अंदर से उनका जीवन बदल गया है। यह पूरी तरह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के वचनों और सत्य ने उनमें अंदर जड़ें जमा ली हैं, उन पर उनका शासन हो गया है और वे उनका जीवन बन गए हैं। चीजों पर उनके विचार भी बदल गए हैं। वे पूरी तरह समझ सकते हैं कि दुनिया में क्या चल रहा है और मानवजाति के साथ क्या हो रहा है, कैसे शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करता है, कैसे बड़ा लाल अजगर परमेश्वर का विरोध करता है, वे बड़े लाल अजगर का सार देख सकते हैं। उन्हें बड़े लाल अजगर और शैतान से दिल से घृणा हो जाती है और वे पूरी तरह से परमेश्वर की ओर मुड़कर उसका अनुसरण करने लगते हैं। इसका अर्थ है कि उनका जीवन स्वभाव बदल गया है और उन्हें परमेश्वर ने प्राप्त कर लिया है। जीवन स्वभाव में परिवर्तन मौलिक परिवर्तन होता है, जबकि व्यवहार में परिवर्तन सतही होता है। जिन लोगों ने जीवन स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त कर लिया है, उन्हीं लोगों ने सत्य प्राप्त किया है और वही परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए गए हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
अभी तुम बस यह स्वीकार करते हो कि परमेश्वर के वचन अच्छे और सही हैं, तुम्हारे बाहरी व्यवहार को देखने से ऐसा नहीं लगता कि तुम ऐसा कुछ करते हो जो जाहिर तौर पर सत्य के खिलाफ हो, ऐसा तो बिल्कुल ही नहीं लगता तुम परमेश्वर की आलोचना करने वाला कोई काम करते हो। तुम परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्था के प्रति भी समर्पित हो पाते हो। यह एक अविश्वासी से एक संत की शालीनता वाले परमेश्वर का अनुयायी हो जाना है। तुम दृढ़ता से शैतान के फलसफों, शैतान की अवधारणाओं और विधियों और ज्ञान के सहारे जीवनयापन करने वाले व्यक्ति से, एक ऐसे व्यक्ति बन जाते हो, जिसे परमेश्वर के वचन सुनकर लगता है कि वे सत्य हैं, जो उन्हें स्वीकार करता है और सत्य का अनुसरण करता है, ऐसे व्यक्ति बन जाते हो जो परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में अपना सके। यह वैसी ही प्रक्रिया है—और कुछ नहीं। इस अवधि में, तुम्हारे व्यवहार और काम करने के तरीके में निश्चित रूप से कुछ परिवर्तन आएँगे। तुम चाहे कितने भी बदल जाओ, तुममें जो अभिव्यक्त होगा, वह परमेश्वर की दृष्टि में तुम्हारे व्यवहार और तरीकों में बदलाव, तुम्हारे अंतरतम की आकांक्षाओं और अभिलाषाओं में बदलाव से अधिक कुछ नहीं होगा। यह तुम्हारे विचारों और नजरियों में बदलाव से ज्यादा कुछ नहीं होगा। अपनी शक्ति का आह्वान कर आवेग में होने पर अब तुम अपना जीवन परमेश्वर को अर्पित कर सकते हो, लेकिन जो मामला तुम्हें विशेष रूप से अरुचिकर लगता है, उसमें तुम परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण प्राप्त नहीं कर सकते। व्यवहार में बदलाव और स्वभाव में बदलाव के बीच यही अंतर है। शायद, तुम्हारा दयालु हृदय तुम्हें यह कहते हुए परमेश्वर के लिए अपना जीवन और सब-कुछ न्योछावर करने योग्य बना देता है, “मैं परमेश्वर के लिए अपने जीवन का रक्त देने को तैयार और इच्छुक हूँ। इस जीवन में, मुझे कोई पछतावा और कोई शिकायत नहीं है! मैंने वैवाहिक जीवन, सांसारिक संभावनाओं, सारी महिमा और ऐश्वर्य को त्याग दिया और मैं उन परिस्थितियों को स्वीकार करता हूँ जो परमेश्वर ने मेरे लिए व्यवस्थित की हैं। मैं दुनिया के सारे उपहास और बदनामी झेल सकता हूं।” लेकिन जैसे ही परमेश्वर ऐसी कोई परिस्थिति बनाता है जो तुम्हारी धारणाओं के मुताबिक नहीं होता, तुम उसके विरुद्ध खड़े हो कर पर होहल्ला मचा सकते हो और उसका विरोध कर सकते हो। व्यवहार में बदलाव और स्वभाव में बदलाव के बीच यही अंतर है। यह भी संभव है कि तुम परमेश्वर के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दो, उन लोगों या चीज को छोड़ दो दो, जिनसे तुम सबसे अधिक प्रेम करते हो या उन चीजों का त्याग कर दो, जिनका त्याग तुम्हारा दिल सह न पाए—लेकिन जब तुमसे परमेश्वर से दिल से बोलने को कहा जाए और एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए कहा जाए, तो यह तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल होता है और तुम ऐसा नहीं कर पाते। व्यवहार में बदलाव और स्वभाव में बदलाव के बीच यही अंतर है। और फिर, शायद तुम्हें इस जीवन में दैहिक सुखों की लालसा न हो, अच्छा खाना खाने और अच्छे कपड़े पहनने की लालसा न हो, और तुम हर दिन अपने कर्तव्य में काम कर-करके थककर चूर हो जाते हो। तुम हर तरह के शारीरिक कष्ट झेल सकते हो, लेकिन यदि परमेश्वर की व्यवस्थाएँ तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप न हों, तो तुम समझ नहीं पाते और तुम्हारे अंदर परमेश्वर के खिलाफ शिकायतें पैदा हो जाती हैं, उसके बारे में गलतफहमियाँ पैदा हो जाती हैं। परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध और ज्यादा असामान्य होने लगता है। तुम हमेशा प्रतिरोधी और अवज्ञाकारी रहते हो, परमेश्वर के प्रति पूरी तरह समर्पित नहीं हो पाते। व्यवहार में बदलाव और स्वभाव में बदलाव के बीच यही अंतर है। तुम परमेश्वर के लिए अपना जीवन त्याग देने को तैयार हो, तुम उससे एक ईमानदार बात क्यों नहीं कह सकते? तुम अपने से बाहर की हर चीज को दूर रखने को तैयार हो, तो फिर उस कार्य के प्रति पूरे निष्ठावान क्यों नहीं हो सकते जो परमेश्वर ने तुम्हें सौंपा है? तुम परमेश्वर के लिए अपना जीवन त्यागने को तैयार हो, तो तुम, जब तुम चीजें करने और दूसरों से अपने संबंध बनाए रखने के लिए अपनी भावनाओं पर भरोसा करते हो, तो तुम आत्मचिंतन क्यों नहीं कर सकते? तुम कलीसिया कार्य और परमेश्वर के घर के हितों का मान रखने के लिए अपना नजरिया क्यों नहीं बना सकते? क्या यह व्यक्ति ऐसा कोई है जो परमेश्वर एक समक्ष जीवन-यापन करता है? तुम परमेश्वर के सामने आजीवन उसके लिए खुद को खपाने और उस राह में आने वाले तमाम कष्टों को सहने की पहले ही शपथ ले चुके हो, तो फिर तुम्हारे कर्तव्य से बर्खास्तगी की सिर्फ एक घटना तुम्हें इतनी निराशा में क्यों डुबो देती है कि तुम कई दिनों तक उससे बाहर ही नहीं आ पाते? तुम्हारा दिल परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध, शिकायत, गलतफहमी और नकारात्मकता से क्यों भरा है? यह क्या हो रहा है? यह दर्शाता है कि तुम्हारा दिल हैसियत से सबसे ज्यादा प्यार करता है, और यह तुम्हारी अहम कमजोरी से जुड़ा है। इसलिए जब तुम बर्खास्त किए जाते हो, तो तुम गिर पड़ते हो और उठ कर खड़े नहीं हो पाते। यह इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि हालाँकि तुम्हारा व्यवहार बदल गया है, मगर तुम्हारा जीवन स्वभाव नहीं बदला है। यह व्यवहार में बदलाव और स्वभाव में बदलाव के बीच का अंतर है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (3)
परमेश्वर में विश्वास रखने का सबसे कठिन भाग स्वभाव में परिवर्तन लाना होता है। संभवतः तुम जीवन भर अविवाहित रह सकते हो, या शायद तुम कभी अच्छा भोजन न कर पाओ या अच्छे कपड़े नहीं पहन पाओ; फिर भी कुछ लोग कह सकते हैं, “कोई फर्क नहीं पड़ता अगर मुझे जीवन भर कष्ट उठाना पड़े या मुझे आजीवन अकेला रहना पड़े, मैं इसे सहन कर सकता हूँ—परमेश्वर मेरे साथ है, तो ये चीजें बेमतलब हैं।” इस तरह की दैहिक-पीड़ा और कठिनाइयों पर काबू पाकर उनका समाधान करना आसान होता है। किस चीज पर काबू पाना आसान नहीं होता? मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव पर। आत्म-संयम मात्र से भ्रष्ट स्वभाव दूर नहीं हो सकता। अपना कर्तव्य ठीक से निभाने, परमेश्वर के इरादों को पूरा करने और भविष्य में परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लिए लोग दैहिक-पीड़ा सह लेते हैं—लेकिन क्या कष्ट उठाने और कीमत चुका पाने का मतलब यह है कि उनके स्वभाव में बदलाव आ गया? नहीं आया। जब यह जानना हो कि क्या किसी के स्वभाव में कोई परिवर्तन आया है, तो यह मत देखो कि वह कितना कष्ट सह रहा है और बाहर से उसका व्यवहार कितना शिष्ट है। किसी व्यक्ति के स्वभाव में कोई परिवर्तन आया है या नहीं, इसे सटीक रूप से जानने का एकमात्र तरीका यह देखना है कि उसके क्रियाकलापों के पीछे के उद्देश्य, मंशाएँ, और इरादे क्या हैं, अपने आचरण और मामलों को संभालने के लिए उसके सिद्धांत क्या हैं, और सत्य के प्रति उसका रवैया कैसा है।
परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, कुछ लोग सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण करना या अपने कपड़ों और रूप-रंग पर ध्यान देना छोड़ देते हैं। वे कष्ट सहने और कड़ी मेहनत करने, और शरीर को अपने वश में करके उसके खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम होते हैं। लेकिन जब वे अपना कर्तव्य निभाते हुए दूसरों से मेलजोल कर रहे होते हैं और चीजों को संभाल रहे होते हैं, तो वे शायद ही कभी ईमानदार होते हैं। उन्हें ईमानदार होना पसंद नहीं होता, वे हमेशा अलग दिखना और अपनी पहचान बनाना चाहते हैं, और वे जो भी कहते और करते हैं उसके पीछे उनका कोई इरादा होता है। वे बड़ी मेहनत और सावधानी से चीजों का हिसाब लगाते हैं ताकि लोगों को यह दिखा सकें कि वे कितने अच्छे हैं, उनके दिल जीत सकें, ऐसा करें कि लोग उनका पक्ष लें और उनकी आराधना करें, इस हद तक कि जब भी कोई मुसीबत आए तो वे उनके पास आकर मदद माँगें। ऐसा करके वे दिखावा कर रहे होते हैं। वे कैसा स्वभाव दिखाते हैं? यह एक शैतानी स्वभाव है। क्या ऐसे बहुत से लोग हैं? हर कोई ऐसा ही है। बाहर से, वे सारे विनियमों का पालन करते हैं, थोड़ा कष्ट झेल लेते हैं और कुछ हद तक खुद को खपाने के लिए भी तैयार रहते हैं। वे थोड़ी-बहुत सांसारिक चीजें त्याग देते हैं, उनमें सत्य का अनुसरण करने के लिए थोड़ा-सा संकल्प और इच्छा होती है, और वे परमेश्वर में विश्वास के मार्ग की नींव रख चुके होते हैं। बात सिर्फ इतनी-सी है कि उनका भ्रष्ट स्वभाव बरकरार रहता है। वे बिल्कुल नहीं बदलते भले ही वे सत्य को समझ लें, फिर भी वे इसे अभ्यास में नहीं ला सकते। जरा भी नहीं बदलने का यही अर्थ है। हर चीज में मनमाने ढंग से कार्य करना शैतानी स्वभाव के साथ जीने वाले लोगों का तरीका होता है। जब उनके क्रियाकलापों के पीछे गलत इरादा होता है, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, या अपनी इच्छा को ठुकराते नहीं हैं, वे सत्य सिद्धांत नहीं खोजते, न ही दूसरों से मदद लेते हैं या उनके साथ संगति करते हैं। वे जो कुछ चाहते हैं या जो भी उनकी इच्छा होती है वही करते हैं; वे लापरवाही से और बिना किसी रोक-टोक के कार्य करते हैं। मुमकिन है कि वे बाहरी तौर पर बुरे कर्म न करें, लेकिन वे सत्य का अभ्यास भी नहीं करते हैं। वे अपने क्रियाकलापों में अपनी इच्छा के अनुसार चलते हैं और शैतानी स्वभाव के साथ जीते हैं। इसका मतलब यह है कि उनके पास सत्य के लिए प्रेम या परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं है, और वे परमेश्वर के समक्ष नहीं रहते हैं। उनमें से कुछ लोग परमेश्वर के वचनों और सत्य को समझ तो लेते हैं, लेकिन वे उन्हें अभ्यास में नहीं ला सकते। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं पर काबू नहीं पा सकते हैं। वे साफ तौर पर जानते हैं कि वे जो कर रहे हैं वह गलत है, यह बाधा और गड़बड़ी है, और परमेश्वर को इससे घृणा है, फिर भी वे यह सोचकर इसे बार-बार करते हैं, “क्या परमेश्वर में विश्वास आशीष पाने के लिए नहीं किया जाता है? आशीष पाने की चाह रखने में क्या गलत है? मैंने बरसों परमेश्वर में विश्वास किया है और काफी कष्ट सहे हैं; मैंने परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष पाने के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी और दुनिया में अपनी संभावनाओं को त्याग दिया है। मैंने जितने कष्ट सहे हैं उसके हिसाब से, परमेश्वर को मुझे याद रखना चाहिए। उसे मुझे आशीष और सुख-समृद्धि प्रदान करना चाहिए।” ये शब्द मानवीय रुचि के अनुकूल हैं। परमेश्वर में विश्वास करने वाला हर व्यक्ति ऐसा ही सोचता है—उसे लगता है कि आशीष पाने की थोड़ी-सी इच्छा का दूषण रखना इतनी बड़ी समस्या नहीं है। लेकिन यदि तुम इन शब्दों पर ध्यान से सोचो, तो क्या इनमें से कोई भी सत्य के अनुरूप या सत्य वास्तविकता का हिस्सा है? यह सारा त्यागना और कष्ट सहना बस अच्छे मानवीय व्यवहार के प्रकार हैं। ये क्रियाकलाप आशीष पाने के इरादे से किए जाते हैं, और ये सत्य का अभ्यास नहीं हैं। यदि कोई इन लोगों के व्यवहार को मापने के लिए मनुष्य के नैतिक मानकों का उपयोग करे, तो उन्हें परिश्रमी और मितव्ययी, मेहनती और मजबूत माना जाएगा। कभी-कभी वे अपने काम में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि खाना और सोना भूल जाते हैं, और उनमें से कुछ लोग तो खोई हुई चीजों को उनके मालिकों को लौटाने, मददगार और परोपकारी बनने, दूसरों के साथ समझदारी और उदारता से व्यवहार करने, कंजूस या नुक्ताचीन नहीं बनने, और यहाँ तक कि अपनी सर्वप्रिय चीजें भी दूसरों को सौंप देने को तैयार रहते हैं। मनुष्य इन सभी व्यवहारों की प्रशंसा करता है, और ऐसे लोगों को अच्छा इंसान माना जाता है। ऐसे लोग गौरवशाली, प्रशंसनीय और स्वीकृति के लायक प्रतीत होते हैं; अपने क्रियाकलापों में, वे निहायत ही नैतिक, निष्पक्ष और तर्कसंगत होते हैं। वे दूसरों की मेहरबानियों का मूल्य चुकाते हैं और भाईचारे की परवाह करते हैं, इतनी ज्यादा कि अपने किसी भी दोस्त के लिए खुद को बलिदान कर देंगे, और अपने सबसे करीबी लोगों के लिए कष्ट सहकर दुनिया का ओर-छोर नाप देंगे। भले ही कई लोग इस प्रकार के अच्छे इंसान की प्रशंसा करते हों, लेकिन क्या ये लोग वास्तव में सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकते हैं? क्या वे सचमुच परमेश्वर की स्तुति करने और गवाही देने के लिए अपना जीवन अर्पित कर देंगे? यकीन से नहीं कहा जा सकता। तो क्या उन्हें अच्छा इंसान कहा जा सकता है? यदि तुम यह जानने की कोशिश कर रहे हो कि कोई व्यक्ति परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहता है या नहीं, या उसके पास सत्य वास्तविकता है या नहीं, तो क्या उसका मूल्याँकन हमेशा मानवीय धारणाओं, कल्पनाओं, नैतिकता और सदाचार के आधार पर करना सही होगा? क्या यह सत्य के अनुरूप होगा? यदि मानवीय धारणाएँ, कल्पनाएँ, नैतिकता और सदाचार ही सत्य होता, तो परमेश्वर को सत्य व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं होती, न ही उसे न्याय और ताड़ना का कार्य करने की आवश्यकता होती। तुम्हें यह साफ तौर पर जानना चाहिए कि संसार और मानवजाति अंधकारमय और बुरे हैं, वे पूरी तरह सत्य से रहित है और भ्रष्ट मानवजाति को परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता है। तुम्हें साफ तौर पर समझना होगा कि केवल परमेश्वर ही सत्य है, केवल उसके वचन ही मनुष्य को स्वच्छ कर सकते हैं, केवल वो ही मनुष्य को बचा सकता है, और किसी व्यक्ति का व्यवहार चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यह सत्य वास्तविकता नहीं है, और अपने आप में सत्य से बहुत दूर है। हालाँकि ये अच्छे व्यवहार लोगों के बीच व्यापक और मान्य हो चुके हैं, लेकिन ये सत्य नहीं हैं और न कभी होंगे, और ये कुछ भी नहीं बदल सकते हैं। क्या तुम कोई ऐसा व्यक्ति ढूँढ़ सकते हो जो अपने दोस्तों के लिए खुद को बलिदान कर दे और उनसे परमेश्वर और सत्य को स्वीकार कराने के लिए पृथ्वी के किसी भी छोर तक चला जाए? बिल्कुल नहीं, क्योंकि वो व्यक्ति नास्तिक है। क्या तुम किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ सकते हो जो परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण हासिल करने के लिए धारणाओं और कल्पनाओं से भरा हो? बिल्कुल नहीं, क्योंकि जब कोई व्यक्ति धारणाओं से भरा होता है, तो उसके लिए सत्य स्वीकारना और उसके प्रति समर्पण करना बहुत कठिन होता है। क्या कितना भी अच्छा व्यवहार किसी व्यक्ति को वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पित होने योग्य बना सकता है? क्या वह सचमुच परमेश्वर से प्रेम कर सकता है? क्या वह परमेश्वर का गुणगान कर उसकी गवाही दे सकता है? बिल्कुल भी नहीं। क्या तुम यकीन दिला सकते हो कि ऐसा हर व्यक्ति जो प्रभु के लिए प्रवचन देता और कार्य करता है वो परमेश्वर का सच्चा प्रेमी बन जाएगा? यह बिल्कुल असंभव होगा। तो, चाहे कोई व्यक्ति कितना भी अच्छा व्यवहार करे, इसका मतलब यह नहीं है कि वह वास्तव में पश्चात्ताप कर बदल चुका है, और इसका मतलब यह तो बिल्कुल भी नहीं है कि उसका जीवन स्वभाव बदल चुका है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अच्छे व्यवहार का यह मतलब नहीं कि व्यक्ति का स्वभाव बदल गया है
सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी खातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; जब वे चीजें त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं, तो यह धन्य होने के लिए होता है, और जब वे परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं, तो यह भी पुरस्कार पाने के लिए ही होता है। संक्षेप में, यह सब धन्य होने, पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में लोग अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर में वे धन्य होने के लिए कोई कर्तव्य करते हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए ही लोग सब-कुछ छोड़ते हैं और काफी दुःख सहन कर पाते हैं। मनुष्य की शैतानी प्रकृति का इससे बेहतर प्रमाण नहीं है। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं, वे अलग हैं, उन्हें लगता है कि अर्थ सत्य के अनुसार जीने से आता है, कि इंसान होने का आधार ईश्वर के प्रति समर्पित होना, परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना है, कि परमेश्वर की आज्ञा को स्वीकारना ऐसी जिम्मेदारी है जो पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायोचित है, कि सृजित प्राणी के कर्तव्य पूरे करने वाले लोग ही मनुष्य कहलाने के योग्य हैं—और अगर वे परमेश्वर से प्रेम करने और उसके प्रेम का प्रतिफल देने में सक्षम नहीं हैं, तो वे इंसान कहलाने योग्य नहीं हैं। उन्हें लगता है कि अपने लिए जीना खोखला और अर्थहीन है, लोगों को परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से पूरे करने के लिए जीना चाहिए, और उन्हें सार्थक जीवन जीना चाहिए, ताकि जब उनके मरने का समय हो तब भी, वे संतुष्ट महसूस करें और उनमें जरा-सा भी पछतावा न हो, और वे समझें कि उनका जीवन व्यर्थ नहीं गया। इन दो अलग-अलग स्थितियों की तुलना करने में, यह देखा जा सकता है कि बाद वाले वे लोग हैं जिनके स्वभाव बदल गए हैं। अगर किसी व्यक्ति का जीवन स्वभाव बदल गया है, तो जीवन के बारे में भी उसका नजरिया निश्चित रूप से बदल गया है। अब अलग मूल्यों के साथ, वे फिर कभी अपने लिए नहीं जिएँगे, और न ही फिर कभी सिर्फ आशीष पाने के मकसद से परमेश्वर पर विश्वास करेंगे। ऐसे लोग यह कह सकते हैं, “परमेश्वर को जानना बहुत सार्थक है। परमेश्वर को जानने के बाद अगर मैं मर गया, तो वह बहुत बड़ी बात होगी! अगर मैं परमेश्वर को जानकर उसके प्रति समर्पित हो सकता हूँ, और एक सार्थक जीवन जी सकता हूँ, तो मेरा जीना व्यर्थ नहीं गया है, न ही मैं किसी पछतावे के साथ मरूँगा; मुझे कोई शिकायतें नहीं होगी।” जीवन के प्रति इस व्यक्ति का नजरिया बदल गया है। किसी व्यक्ति के जीवन स्वभाव में परिवर्तन का मुख्य कारण यह है कि उसके पास सत्य वास्तविकता है, उसने सत्य प्राप्त कर लिया है और उसे परमेश्वर का ज्ञान है; इसलिए जीवन के प्रति उस व्यक्ति का नजरिया बदल गया है, और उसके मूल्य पहले के मुकाबले अलग हैं। परिवर्तन व्यक्ति के हृदय से और उसके जीवन के भीतर से शुरू होते हैं; यकीनन यह एक बाहरी परिवर्तन नहीं है। कुछ नए विश्वासी, परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के बाद, लौकिक संसार को पीछे छोड़ देते हैं। बाद में जब उनका सामना अविश्वासियों से होता है, तो उन विश्वासियों के पास कहने को कुछ नहीं होता, और वे अपने अविश्वासी रिश्तेदारों और दोस्तों से शायद ही कभी संपर्क करते हैं। अविश्वासी कहते हैं, “यह व्यक्ति बदल गया है।” फिर विश्वासी सोचते हैं, “मेरा जीवन स्वभाव बदल गया है; क्योंकि ये अविश्वासी कहते हैं कि मैं बदल गया हूँ।” क्या ऐसे व्यक्ति का स्वभाव वास्तव में बदल गया है? नहीं, यह नहीं बदला है। वे सिर्फ बाहरी बदलाव दिखाते हैं। उनके जीवन में कोई वास्तविक बदलाव नहीं आया है, और उनकी शैतानी प्रकृति उनके हृदय में जड़ें जमा चुकी है, जो पूरी तरह से अछूती है। कभी-कभी, लोग पवित्र आत्मा के कार्य की वजह से उत्साह से भरे होते हैं; ऐसे में कुछ बाहरी बदलाव हो सकते हैं, और वे कुछ अच्छे कर्म भी कर सकते हैं। हालाँकि, यह स्वभाव में परिवर्तन हासिल करने जैसा नहीं है। अगर तुम्हारे पास सत्य नहीं है और चीजों के बारे में तुम्हारा दृष्टिकोण नहीं बदला है, यहाँ तक कि यह अविश्वासियों से जरा भी अलग नहीं है, और अगर जीवन के प्रति तुम्हारे नजरिये और तुम्हारे मूल्यों में कोई बदलाव नहीं आया है, या अगर तुम्हारे अंदर परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है—जो कम-से-कम तुममें होना ही चाहिए—तो तुम स्वभाव में बदलाव हासिल करने के आस-पास भी नहीं फटकते। स्वभाव में बदलाव हासिल करने के लिए, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें परमेश्वर को समझने की कोशिश करनी चाहिए और तुम्हारे पास उसकी सच्ची समझ होनी चाहिए। पतरस का ही उदाहरण लो। जब परमेश्वर उसे शैतान को सौंपना चाहता था, तो उसने कहा, “अगर तुम मुझे शैतान को सौंप दो, तब भी तुम परमेश्वर हो। तुम सर्वशक्तिमान हो, और सब कुछ तुम्हारे हाथों में है। तुम जो चीजें करते हो उसके लिए मैं तुम्हारी प्रशंसा कैसे नहीं कर सकता? लेकिन अगर मैं मरने से पहले तुम्हें जान सकूँ, तो क्या वह बेहतर नहीं होगा?” उसने महसूस किया कि लोगों के जीवन में, परमेश्वर को जानना सबसे महत्वपूर्ण है; परमेश्वर को जानने के बाद किसी भी प्रकार की मौत ठीक ही होगी, और परमेश्वर इसे चाहे जैसे भी संभाले, यह ठीक ही होगा। उसे लगता था कि परमेश्वर को जानना सबसे महत्वपूर्ण चीज है; अगर उसने सत्य हासिल नहीं किया, तो वह कभी संतुष्ट नहीं हो सकता, लेकिन वह परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत भी नहीं करेगा। उसे सिर्फ इस तथ्य से घृणा होगी कि उसने सत्य का अनुसरण नहीं किया। पतरस की भावना को देखते हुए, परमेश्वर को जानने की उसकी सच्ची कोशिश से पता चलता है कि जीवन और मूल्यों के प्रति उसका दृष्टिकोण बदल गया था। परमेश्वर को जानने की उसकी गहरी लालसा से यह साबित होता है कि वह सचमुच परमेश्वर को जानता था। इस प्रकार, इस बात से पता चल जाता है कि उसका स्वभाव बदल गया था; वह ऐसा इंसान था जिसका स्वभाव परिवर्तित हो गया था। उसके अनुभव के एकदम आखिरी पड़ाव में, परमेश्वर ने कहा कि वह ऐसा इंसान है जो परमेश्वर को सबसे अच्छी तरह जानता है; वह ऐसा इंसान है जो परमेश्वर से वास्तव में प्रेम करता है। सत्य के बिना, किसी का जीवन स्वभाव वास्तव में कभी नहीं बदल सकता। अगर तुम लोग सचमुच सत्य का अनुसरण कर सकते हो और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो, तभी तुम अपने जीवन स्वभाव में बदलाव हासिल कर सकते हो।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन